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स्त्रियोंके अधिकार
[ ग्यारहवां प्रकरण
रिवर्जनर का अधिकार भिन्न है हर एक स्त्री पूरे मालिककी तरह अपना हक़ पाती है ।
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आमतौर से यह सिद्धांत माना गया है कि रिवर्जनरकी मंजूरी मिल जानेसे प्रथम तो यह फायदा होता है कि विक्रीके लिये क़ानूनी ज़रूरतका प्रमाण हो जाता है और दूसरे वह पीछेसे कोई झगड़ा नहीं कर सकता; देखो विनायक बनाम गोविन्द 25 Bom. 129; पिलू बनाम बाबाजी 34 Bom. 145 11 Bom. L. R. 1291, और देखो -क़ानून शहादतकी दफा ११५ जिसका सारांश यह है कि " जब किसी आदमीने अपने बयान या किसी दूसरी तरह से समझ बूझ कर दूसरे किसीको किसी चीज़ की निस्चत यह ज्ञान करा दिया हो, या ऐसा करने दिया हो कि, वह ठीक है और उसी भरोसे पर वह काम किया गया हो तो फिर वह और उसका कायम मुकाम पाबंद हो जाता है। इत्यादि । " ऐसा मानो कि किसी स्त्रीने कोई दस्तावेज़ लिखी जिसका असर रिवर्जन के विरुद्ध है मगर रिवर्जनरने बहैसित गवाहके उसपर अपनी गवाही कर दी तो फिर वह और उसके क़ायम मुक़ाम इस दफाके असर से कभी कोई झगड़ा नहीं कर सकते, जो कुछ दस्तावेज़में लिखा होगा उनको मंजूर
समझा जायगा ।
किसी विधवा द्वारा इन्तक़ालकी क़ानूनी आवश्यकतापर विचार करते हुये, अदालत इस बातका ध्यान देती है कि तस्दीक करने वालों में से एक सबसे नज़दीकी भावी वारिस था - अनन्तू बनाम रामरूप तिवारी L. R. 6 A. 284; 87 I. C. 315; A. I. R. 1925 All. 692.
बिना मंजूरी के इन्तकाल - किसी हिन्दू विधवाको अपने अधिकारोंके वर्तने में वही सुविधा प्राप्त होती है जो किसी संयुक्त परिवार के प्रबन्धक या किसी नावालिग़की जायदायके मेनेजरको प्राप्त होती है, बशर्ते कि वह अपने भावी वारिसों के हक़में ईमानदारी के काम करती है । इस प्रकारके मामले में अतएव, केवल यह देखना होता है कि आया उसने अपने भावी वारिसोंके हितके अनुकूल कार्य किया है या उनके प्रतिकूल - 11 Bom 320 और 18 Bom. 534 Appl.
यदि किसी विधवा द्वारा इन्तक़ालमें सम्पूर्ण क़ानूनी आवश्यकता न भी साबित हुई हो, तो भी वह इस बिनापर कि वह प्रबन्धके अनुसार एक बुद्धिमत्ता और लाभका कार्य है बहाल किया जाता है- सुमित्राबाई बनाम fart A I. R. 1927 Nag. 25.
भावी वारिसकी रजामन्दीसे आधी जायदादका हित्रः पुत्रीके हक़में-चौधरी सुरेश्वर मिश्र बनाम मु० महेशरानी मिसरानी 41 CL. J. 433 ( P. C. ).