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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
अर्थात द्विजातियोंके लिये विवाहमें अपने वर्णकी स्त्री ही श्रेष्ठ है । काम के वश होकर उनके पुनर्विवाह करने पर क्रमसे स्त्रियां श्रेष्ठ होती हैं। किसी वृत्तान्तमें नहीं देखा जाता कि विपदकालमें भी ब्राह्मण अथवा क्षत्रियने शूद्रा से विवाह किया था । शूद्रा स्त्रोसे संभोग करने वाला ब्राह्मण नरकमें जाता है और उससे पुत्र पैदा करने वाला ब्राह्मण ब्राह्मण ही नहीं रहता व्यास कहते हैं कि:
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ऊढ़ायां हि सवर्णीयामन्यां वा काममुदहेत् तस्यामुत्पादितः पुत्रो न सवत् प्रहीयते ।
धर्म कार्य के लिये प्रथम अपने वर्णकी कन्या से विवाह करके फिर यदि भोग की प्रबल इच्छा हो तो अन्य वर्ण की कन्या से विवाह करे। ऐसा करने से अपने वर्ण वाली स्त्री की सन्तान श्रसवर्ण नहीं होगी अर्थात अपने वर्ण की होगी और धर्म कार्य के लिये योग्य होगी । नारद - इस विषय स्पष्ट कहते हैं:
ब्राह्मण क्षत्रियविशां शूद्रानांच परिग्रहे
सजातिः श्रेयसी भार्या सजातिश्च पतिः स्त्रियः । १२-४
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यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारोंको अपनी जातिकी स्त्री श्रेष्ठ है और स्त्रियोंको अपनी जातिका पति श्रेष्ठ होता है। जहां कहीं ब्राह्मण को प्रबल संभोगकी इच्छासे दूसरे वर्ण की स्त्री लाना कहा गया है वहां वह उत्तम नहीं कहीं गयी; एवं दूसरे वर्णों के लिये भी देखो -- शङ्ख स्मृति अ० ४ श्लोक ६, ७, ५७; तथा याज्ञवल्क्य ०१ श्लोक में कहा है कि सजातीय स्त्री के विद्यमान होने पर अन्य वर्ण की स्त्री से धर्म सम्बन्धी कार्य्य न करावे और अनेक सवर्ण स्त्रियों के होनेपर ज्येष्ठा पत्नी से धर्म कार्य करना चाहिये ।
अगर विवाह एकही वर्ण में हुआ हो मगर भिन्न जातिमें हुआ है और साबित किया गया है कि उस प्रांतका ऐसाही रवाज है तो अदालत इसे मंजूर कर सकती है; देखो रामलाल शुक्ल बनाम अक्षयचरन मित्र 7 C.
W. N. 619.
हिन्दू और ईसाईके परस्पर विवाह तथा हिन्दू और गैर हिन्दूके साथ विवाहके सम्बन्धमै जो क़ानूनोंका असर होता है वह तलाक्नके संम्बन्धर्मे 'बताये गये हैं; देखो दफ़ा ६१ और देखो दफ़ा ५७