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दफा ५७८-५८१]
मौका उत्तराधिकार
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सपिण्डको' बन्धु कहते हैं इस विषयमें देखो दफा ५६०३६३३-६३४ मिताक्षरा में गोत्रज सपिण्ड और भिन्न गोत्रज सपिण्ड दोनों शरीरके सम्बन्धसे मानेगये हैं। मिताक्षराके सपिण्डोंका नक्शा देखो और ध्यान पूर्वक विचार करोः
यह नक़शा जे० आर० घारपुरे हिन्दूला सन १९१० ई. से उद्धृत किया गया है इससे मिताक्षराके अनुसार 'सपिण्ड' अच्छी तरहसे समझमें श्रा जावेगा। श्राप कल्पना कीजिये कि आपका शरीर ६०० अशोंसे बना है। अब विचारिये कि यह प्रशं आये कहांसे ? उत्तर है कि आपके माता और पितासे आये अर्थात ३०० अन्श माताके शरीरसे और ३०० अन्श पिताके शरीरसे। माताका शरीर भी ६०० अंशोंसे बना है। इसी प्रकारसे माताके शरीरमें ३०० भन्श माताके पिता (नाना) से और ३०० अन्श माताकी मा (नानी) के शरीरसे भाये हैं, तो आपके शरीरमें १५० अंश नानीके शरीरसे और १५० अंश नानाके शरीरसे आये हैं । नानीका शरीरभी ६०० अंशोंसे बना है, नानीके शरीरमें ३०० अंश नानीकी माताके शरीरसे और ३०० अंश नानीके पिताके शरीरसे पाये हैं तो परिणाम यह हुआ कि नानीकी माताके शरीरसे ७५ अंश और नानीके पिताके शरीरसे ७५ अंश आपके शरीरमें आये हैं। इसी तरह जितना ऊपर चले जाइये बेशुमार सम्बन्ध होता चला जायगा। अब देखिये आपके पिताका शरीर ६०० अंशोंसे बनाहै। पिताके शरीरमें३०० अंश आपकी दादीसे
और ३०० अंश आपके दादाके शरीरसे आये हैं, तो आपके शरीरमें आपकी दादीके शरीरके १५० अंश और दादाके शरीरके १५० अंश मौजूद हैं। एवं दादीका शीर ६०० अंशोंसे बना है। दादीके शरीरमें ३.० अंश दादीकी मासे और ३०० अंश दादी के पिताके शरीरसे आये हैं । तो परिणाम यह हुआ कि आपके शरीरमें दादीकी माके शीरसे ७५ अंश और दादीके पिताके शरीरसे ७५ अंश आये हैं । इसी तरहपर जितना आप विचार करते जायेंगे सम्बन्ध मिलता और फैलता जायगा। नीचेकी लाइनमें भी यही क्रम है; अर्थात आपके पुत्र और लड़कीके शरीरमें आपके शरीरके ३०० अंश और आपकी पत्नीके शरीरके ३०० अंश कुल ६०० अंशदोनोंमें मौजूद हैं। आगे जितनी सन्तान बढ़ती जायगी उतनाही ऊपर वाले माता पिताके शरीरोंके अंश घटते जायेंगे। अंशोके सिद्धांतसे तमाम दुनियांके लोगोंका सम्बन्ध हो सकता है। इसीलिये आचार्योंने नियम कर दिया है, देखो दफा ५१ । यहां एक बात पर और ध्यान रखिये कि नशे में आपको दो शाखाएं देख पड़ेंगी, एक मर्द शाखा दूसरी नीकी शाखा । मर्द शाखामें गोत्र नहीं बदलता और स्त्री शास्त्रामें गोत्र बदल जाता है। मर्द शाखाको सगोत्र या गोत्रज सपिण्ड कहते हैं और स्त्री शाखाको भिन्न गोत्र या भिन्न गोत्रज सपिण्ड कहते हैं । भिन्न गोत्रज सपिण्ड बन्धु कहलाते हैं, देखो दफा ६३३. इस नक्शे के समझने के लिये नीचेकी दफा ५८२ पदिये।
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