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दत्तक या गोद
[ चौथा प्रकरण
गच्छेत् अयञ्च विवाहोवाचनिको घृताभ्यङ्गादि नियमवन्नियुक्काभि गमनाङ्गमिति न देवरस्य भार्य्या त्वमापादयति । श्रतस्तदुत्पन्नमपत्यं क्षेत्रस्वामिन एव भवति । न देवरस्य संविदातूभयोरपि ।
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( १ ) मनुके मतका भावार्थ- जब सन्तान न होवे तब पति आदि गुरुजनोंसे आज्ञा प्राप्त होनेपर स्त्री अपने देवर अथवा अन्य सपिण्डले शरीर में घृत लगानेकी विधान करनेवाले पुरुषसे जिसका वर्णन आगे किया गया है, गमनकर सन्तान पैदा करे । 'इप्सिते' इस पदसे दुबारा गमनका निषेध जान पड़ता है विधवामें सन्तानके लिये एक पुत्र उत्पन्न करनेसे यह अर्थ है कि अगर पति सन्तान उत्पन्न करने के योग्य न हो तो उसके जीतेभी, उसकी और गुरुकी प्रशासे पुरुष अपनी देहमें घृत लगाकर मौन होकर रात्रिमें एक पुत्र उत्पन्न करे दूसरा नहीं । नियोगसे पुत्र उत्पन्न करने की विधिके ज्ञाता जो आचार्य हैं वह नियोगकी आवश्यकताको मानते हुए दूसरा पुत्र उत्पन्न करना धर्मसे मानते हैं क्योंकि एक पुत्र अपुत्रके समान शिष्ट लोगोंने कहा है । विधवा घोंमें नियोगका प्रयोजन गर्भाधान करना है । वह भी शास्त्र की रीतिसे जेष्ठ भाई छोटे भाईकी स्त्री से आपसमें गुरूके समान और पुत्रबधूके समान व्यवहार करे अर्थात् छोटेभाईकी स्त्री अपने जेठे देवरको गुरुके समान और बड़ा भाई अपनी छोटी भौजाईको पुत्रवधूके समान समझे ।
( २ ) गौतमके मतका भावार्थ- पतिके न रहनेपर यदि स्त्रीको सन्तान की इच्छा हो तो देवर अथवा सपिण्ड, गोत्र या ऋषिके सम्बन्धी किसी पुरुष द्वारा ऋतुकालमें गमन करके सन्तान उत्पन्न करलेवे, इस विषय में किसी आचार्यका मत ऐसा है कि सिवाय देवरके और किसीसे पुत्र उत्पन्न नहीं करना चाहिये ।
(३) वसिष्ठके मतका भावार्थ - मरे हुये पुरुषकी स्त्री ६ मासतक नमक छोड़ कर केवल हविष्यान्न भोजन करे, व्रतकरे, भूमिपर शयन करे । ६ मासके पश्चात् स्नान करके पतिका श्राद्ध करे, पीछे विधवाका पिता अथवा भाई उसके पतिके विद्या गुरु, कर्म काण्ड कराने वाले गुरु, तथा बन्धु जनोंको जमा करे, उन सबकी अनुमति लेकर सन्तान उत्पन्न करनेके लिये उसका नियोग करा देवें । यदि वह स्त्री उन्मत्ता, स्वेच्छाचारिणी, रोगिणी, अथवा १६ वर्षसे कम अवस्थाकी होवे तो उसका नियोग नहीं कराना और स्त्रीसे कम अवस्था के पुरुषके साथ भी नियोग नहीं कराना चाहिये । जिस पुरुषके साथ नियोग कियाजाय वह विवाहित पतिके समान चार घड़ी रात रहनेपर नियुक्ता स्त्रीके
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