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दफा ३५१-३५६]
नाबालिगी और वलायत
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कर रुपया दिया हो। रुपया देने वाले पक्षपर यह आवश्यक है कि वह अपनी दस्तावेज़ जिसकी बुनियाद पर वह अदालतसे प्रार्थना करता है दस्तावेज़ साबित करे र्सिफ इतनाही साबित कर देना काफी नहीं है कि उसने रुपया देदिया बल्कि रुपया देने वालेको साबित करना चाहिये कि दरअसल खानदान मुश्तरका में रुपयाकी जायज़ ज़रूरत थी।- या उसने स्नानदानी ज़रूरतके दरियाफ्त करने में इतनी ज्यादा कोशिश की थी जो सब तरहसे मुमकिन थी जिसकी वजहसे रुपया देने वालेके दिलमें पूरा निश्चय होगया था कि वहां पर वास्तवमें रुपयाकी ज़रूरत है जैसीकि रुपया लेने वालेने बयान की है। ऊपरकी दोनों सूरते दस्तावेज़के जायज़ करनेके लिये काफी होंगी, अन्त में कही हुई सुबूतकी सूरतका साफ अर्थ यह है कि जब रुपया देने वालेके दिलमें उपरोक्त तरहपर निश्चय हो जायकि वहांपर ज़रूरत थी चाहे वहां पर ज़रूरत न भी हो तो वह ज़िम्मेदार नहीं है। अगर उसने ईमानदारीके साथ सब बर्ताव अन्त तक किया है और किसी फ़रेब या नुकसान पहुंचाने की गरज़से नहीं किया है; ऐसी सूरत में उसके रुपया देने के ज़िम्मेदार मुश्तरका मेम्बर होंगे। दफा ३५५ बापकी वसीयतसे जायदादका बेंचा जाना
अगर बाप मृत्यु पत्र ( वसीयत ) द्वारा किसीको यह अधिकार दे गया हो कि वह आदमी जायदादका इन्तज़ाम करे और किसी खास कामके लिये [ जो क़ानूनन् जायज़ हो ] कुछ जायदाद बेच दे तो अगर वह आदमी मृत्यु पत्र में लिखी हुई कुल शौकी पाबन्दी करता हुआ जायदादको बेंचकर वह काम पूरा कर दे जिसे हिदायत कीगई थी तब उसके पाबन्द अज्ञान मेम्बर होंगे। मगर जब कोई बालिग होगया हो तो ऐसी काररवाई नाजायज़ होगी, क्योंकि उस आदमीका अधिकार जाता रहेगादेखो-महाबलेश्वर बनाम रामचन्द्र ( 1914 ) 33 Bom. 94. दफा ३५६ कुदरती वलीका मुआहिदा
कुदरती वली (बाप या मां) अज्ञानके ज़ाती लाभके लिये या जायदादके लाभके लिये या उसकी जाती रक्षा या जायदादकी रक्षा के लिये मुआहिदा ( कन्ट्राक्ट) कर सकता है, देखो-सुवरामनि बनाम असमुगा 29 Mad, 330 सूनू बनाम दुन्डू ( 1904 ) 28 Bom. 330 मगर किसी तरह भी कोई वली अज्ञानको ज़ाती तौरपर नहीं पाबन्द कर सकता, देखो-बनमाल सिंहजी बनाम वादीलाल 20 Bom. 61; 70, सुरेन्द्रोनाथ बनाम अतुल चन्द्र 34 Cal. 892; नरायनदास बनाम रामानुज 20 All. 209; 25 I. A. 46.