________________
दफा ५३४ - ५३६ ]
अलहदगी और बटवारा
किसी डिकरीके नीलामके द्वारा अगर मुश्तरका जायदादका कोई हिस्सा नीलाम हो जाय तो उससे अलाहिदगी नहीं होती - 29 Cal. 797. माना गया है कि अदालत के हुक्मसे मुश्तरका खान्दान अलाहिदा नहीं किया जा सकता, जब तक कि कोपार्सनर अलाहिदा न हो जायें या न चाहें ।
६४५
किसी बटवारेकी नालिशमें, इस वजहसे कि नालिशमें कुछ ऐसी जायदाद है जिसमें कुछ ऐसे व्यक्ति साझी हैं जो कि नालिशके फ़रीनोंमें से नहीं हैं, उस जायदाद के बटवारेकी डिकरीमें जो फरीक़ोंके ही पूर्ण क़ब्ज़ेमें है बाधा नहीं पड़ती - नलिनाक्ष्य घोशल बनाम रघुनाथ घोशल 85 I C. 662; A. I. R. 1925 Cal. 754.
दफा ५३६ बटवारेका दावा
जो आदमी बटवारा करा पानेका अधिकारी और कोपार्सनरीकी सीमा के भीतर है वही बटवारा करा सकता है, देखो दफा ३६६ से ४१२.
मियाद- [- जब किसी कोपार्सनरको मालूम हो कि वह कोपार्सनरीसे अलग किया गया है, उस तारीख से बारह वर्षके अन्दर बटवारेका दावा करने की मियाद है, देखो -- Act No. 9 of 1908 Sched 1; Art 27; 6 Cala 938; 11 Mad 380.
बटवारे के मुक़द्दमे में जो प्रश्न तय कर दिये गये हों उनका फिर विचार उन्हीं फरीक़ोंके किसी दूसरे मुक़द्दमेमें नहीं हो सकता । उसमें 'रेसजुडीकेटा' लागू होगा, देखो -- परसोतमराव बनाम राधाबाई 32 All. 469. जाबता दीवानीकी दफा ११ देखो। इसका सारांश यह है कि जिस बातका एक दफा फैसला होगया उसका फिर फैसला नहीं किया जाता इसीका नाम है 'रेसजुडी केटा' । इस शब्दकी व्याख्या यदि की जाय तो एक भारी पुस्तक बन जाय, अङ्गरेज़ीमें इसकी व्याख्यामें कई भिन्न भिन्न पुस्तकें बन गयी हैं ।
फरीन - बटवारेके दावेमें जितने आदमी हिस्सा पानेके अधिकारी हों वे सब और पत्नी, मा, दादी, कहींपर परदादी, बिना बढे हुए हिस्सोंके खरीदार, या उन हिस्सोंको अपने पास रेहन रखने वाले ये सब बटवारेके मुक़द्दमे में फरीक़ बनाये जायेंगे, देखो - जाबता दीवानी 1908 Order 1 Rules 3,4. हिन्दू मुश्तरका कुटुम्बके प्रबन्धक ने सन १६०३ ई० में कुछ जमीन बेची, मगर आवश्यकताके लिये नहीं बेची मुद्दई १७ सालका उस समय था वह जानता था । बिक्रीका रुपया महाजनी काममें लगाया गया जो कुटुम्बकी ओरसे चलता था । सन १६१५ई० में बटवारा हुआ, महाजनी हिसाब किताब जोड़ा गया और सन १६०३ ई० में जो जायदाद बिकी थी न जोडी गयी । बाद में मुद्दईने जायदाद खरीदने वालेपर दावा किया कि जायदाद वापिस