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बटवारा
[आठवां प्रकरण
भाई अपनी बहनोंके संस्कार अपने अपने हिस्सोंसे चौथाई देकर करें मिताक्षराने टीकामें यह कहा है कि भाई, बहनोंको हिस्सा दे उसमें से संस्कार किये जायें यानी बहनों की शादी करनेके लिये यह चौथाई हिस्सा नहीं बल्कि वरासतन् मिलता है ऐसा मतलब मिताक्षराका है। मनुस्मृतिके प्रसिद्ध और आदि टीकाकार मेधातिथि कहते हैं कि बहनका हिस्सा ऐसे निश्चित किया जायगा कि यदि वह लड़का होती तो उस सूरतमें जितना हिस्सा उसे मिलता उसका चौथाई मिलना चाहिये । मगर आज कल यह बात मानी नहीं जाती। यद्यपि प्राचीन शास्त्रकारोंने बहनका चौथाई हिस्सा पानेका अधिकार माना है परन्तु आज कल बटवारेमें बहन हिस्सा नहीं पाती, देखो--8 Cal. 537; 10 C. L. R. 401. बटवारेके समय विवाह तक उसके भरण-पोषणका और विवाहके समय उसके खर्चका प्रबन्ध खानदानी जायदाद में से किया जाता है, देखो-दफा ६०२-३.
विधवाका दावा बटवाराके लिये -मुद्दई जो एक शरीक खान्दानकी जायदादके हिस्सेदारकी विधवा है अपने पतिके मरनेके बाद बटवारेकी दरख्वास्त दी। मुद्दाअलेहने एतराज़ किया कि खान्दानका बटवारा नहीं हुआ इसलिये मुद्दईका केवल भरण-पोषणके अधिकारको छोड़ और कोई अधिकार नहीं है। मुद्दईने जो बटवारानामा जो रजिस्ट्री नहीं था, पेश किया, जिससे साबित हुआ कि सन् १८८६ ई. के बाद दूसरा बटवारा होने वाला था। पहिले बटवारेके बादसे इस खान्दानके लोग अलग अलग काम-काज करने लगे थे और जायदाद अलग अलग करली थी। इसलिये तय हुआ कि जायदादका इच्छानुसार बटवारा हो चुका है, बाकी बची हुई खान्दानी जायदाद में मुद्दईका भी अधिकार है कि बटवारा करा कराले । काग़ज़ रजिस्ट्री न होने से न्याय नहीं छोड़ा जा सकता, देखो-1923 All. I. R. (B. S.) 464. दफा ५१९ बिक्रीका असर हकपर
__ जायदादपर किसीका अपने भरण-पोषणका हक नहीं होता परन्तु जाय. दादके बिकतेही उस जायदादपर वैसा हक़ पैदा हो जाता है चाहे वह जाय. दाद बटवारेसे पहिले बिके या बटवारेके समय, देखो--विलासो बनाम दीनानाथ 3 All. 88; 27 Cal. 551; 4 C. W. N. 764. दीनदयाललाल बनाम जगदीपनरायनसिंह 4 I. A. 247; 3 Cal. 1987 27Cal.77;43.W.N.254.
जब किसी कारणसे किसी का भरण पोषणका हक़ मारा गया हो तो वह बटवारेके समय भी हिस्सा पानेका हक़दार नहीं रहेगा-सेलन बनाम चिन्नामल 24 Mad. 441. परन्तु एक मुकद्दमेमें कहा गया कि व्यभिचारके दोषसे ऐसा हक्क नहीं मारा जायगा, देखो-मनीराम कोलीटा बनाम केरीकोलीटानी 7 I. A. 115; 5 Cal. 776; 6 C. L. R. 322.