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दफा ६३ ]
वैवाहिक सम्बन्ध
एक प्रश्न यह पैदा होता है कि यदि विधवाके पुत्र हो तो उस पुत्रमें जन्मसापिण्ड्य है जो बापका था तो पुत्र दान क्यों नहीं कर सकता ? प्रथम तो यह प्रश्न ही गलत है । पिताका जन्मसापिण्ड्य लड़कीमें आया इसी तरह विधवा (माता) से पुत्रमें आया । पिताका कन्यामें, माताका पुत्रमें जन्म सापिण्ड्य हुआ । जिससे जन्मसापिण्ड्य उत्पन्न होता है वही अधिकार रखता है तो पुत्रमें तो जन्मसापिण्ड्य है पुत्रसे मातामें आई नहीं सकता इससे वह दानका अधिकारी नहीं हो सकता। दूसरे दान वह कर सकता है जिसमें पिताका भाव आ सकता हो । पुत्रमें पिताका भाव आही नहीं सकता इससे पुत्र अपनी माताका दान नहीं कर सकता । जब कोई इस मतलबके लिये नहीं जीवित रहता तो और शख़्श धर्म पिता बनकर या कोई स्त्री धर्म माता बनकर दान करती है । भाव पिता या माताका होना अत्यावश्यक है ।
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कन्याके दान करनेपर भी बापका, कन्यामें जन्मसापिण्ड्य रहता है। इस लिये पति के मरनेपर विधवा दानके मतलब के लिये फिर पिताके पास वापिस आ गयी । पिताके दुबारा दान करते ही, विधवाकी हैसियत से प्राप्त समग्र अधिकार और हक़ उसके छूट जाते हैं । क़ानूनकी दृष्टिसे ऐसा माना जावेगा कि मानो विधवा मर गयी । अर्थात् विधवा के मरनेपर जिसके जो अधिकार या हक़ प्राप्त होते वह प्राप्त होंगे ।
पिता अपनी विधवा लड़की का दान पिताकी हैसियतसे करता है न कि सापिण्ड्य की हैसियत से ।
४ -- विधवा विवाहकी विधि प्रार्थना समाजने बनाई है। मंत्र व विधान सब एकही हैं । कन्या शब्द या कन्या वाचक वाक्योंके स्थानपर विधवा शब्द या तत्सम्बन्धी भाव वाचक वाक्योंका प्रयोग किया जाता है । कन्या शब्द की जगह विधवाका उच्चारण होगा और कन्याका भाव जहां स्वीकार किया गया है वह बदल दिया जायगा ।
५ - विधवा विवाहका ज़ोर असलमें इस क़ानूनसे आया है । विडोरि मेरेज एक्ट नं० १५ सन १८५६ ई० जो तारीख २५ जुलाई सन १८५६ ई० को पास हुआ। ज़रूरत यह बताई गयी कि इस समय ( सन १८५६ ई० में ) विधवाओं की संतानको अदालतों में घरासत आदिका हक़ नहीं मिलता एवं बहुतसे हिन्दू आवश्यक समझते हैं कि विधवा विवाहसे उत्पन्न संतान के हक़ उसी तौर पर माने जावें जैसाकि कन्याके साथ जायज़ विवाहकी संतानके माने जाते हैं । इसका असर ख़ास तौरसे विधवाकी संतानको क़ानूनी हक़ दिलाने का है और यही एक डर था जिससे विधवा विवाह न होते थे । हिन्दू धर्म शास्त्रों के वचन यदि विधवा की स्पष्ट बात नहीं कहते तो किसी दशामें स्वीकार करते हैं मगर उसके पुत्रोंको हक़ जायदादमें नहीं देते, इस क़ानूनने