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विवाहमें वर्जित सपिण्ड
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वक्ष्यामः । यवीयसी वयसा प्रमाणतश्व न्यूनामुद्वहेत् परिणयेत् स्वगृह्योक्त विधिना । ५२
भावार्थ-असपिण्डका अर्थ है जो सपिण्ड न हो अर्थात् जिसका देह अपने देहके संग न हो । क्योंकि सपिण्डता तभी होती है जब शरीरके अवयव एक हों जैसे पुत्रका पिताके साथ सापिण्ड्य है क्योंकि पिताके अवयवों का सम्बन्ध वीर्य द्वारा पुत्रमें है। इसी तरहपर पिताके द्वारा पितामह आदिमें भी सपिण्डता होती है क्योंकि उनके शीरोंके अवयवोंका सम्बन्ध एक दूसरे से है । इसी प्रकार माताके शरीरके अवयवोंके सम्बन्धसे माताके द्वारा मातामह (नाना ) आदिके साथ सपिण्डता होती है। एवं परंपरासे एक शरीरका सम्बन्ध होनेसे मौसी और मामा, तथा चाचा और बुवाके साथ सपिण्डता होती है। इसी तरह पति के साथ पत्नीकी सपिण्डता है क्योंकि वह अापसमें मिलकर एक शरीर पैदा करते हैं । भ्राताओं की स्त्रियों के संग सपिण्डता होती है क्योंकि भ्राताओंके संग अपने शरीरकी एकता है और उनके (भ्राताओं) शरीरोंके संग उनकी स्त्रियोंके देहों की एकता है अर्थात् भाइयोंकी स्त्रियां भी एक दूसरेके सपिण्ड हैं क्योंकि वह मिलकर एक शरीर पैदा करती हैं या यों कहिये कि वह इकट्ठी उन लोगोंसे मिलकर जो एक शरीरसे पैदा हुये हैं पुत्र पैदा करती हैं । यानी वह स्त्रियां एक ही मनुष्यकी सन्तानसे युक्त होकर पुत्र उत्पन्न करती हैं और इसलिये उनके पतिका बाप ही सबका बंधन है जो सब को सपिण्डमें जोड़ता है। इसलिये जहां जहां सपिण्ड शब्द हो वहां वहां साक्षात् वा परंपरा सम्बन्धसे शरीरके अवयवोंका एकही सम्बंध जानना अर्थात् जहांपर सपिण्ड शब्द किसी दो मनुष्योंके बीच में व्यवहार किया जाता है तो उसका अर्थ यह है कि किसी एक शरीरले उन दोनोंका सम्बंध स्वयं ही या सन्तान होनेके कारण माना जाता है ।
यहां पर यह शंका होती है कि अगर मातामह ( नाना ) आदि भी मा के द्वारा सपिण्ड हैं तो उनका भी दश दिनका सूतक मानना चाहिये क्यों के यह कहा गया है कि--
'दशाहं शावमाशौच सपिण्डेषु विधीयते'
इस वचनके अनुसार उनके मरनेका दश दिनका सूतक मानना चाहिये इसका उत्तर यह दिया गया है कि हां ऐसा होता अगर कोई विशेष ववन इस सम्बंध नहीं होता “प्रत्तानामितरेकुर्युः" इस बचनमें यह विशेषआज्ञा दी गई है कि-विवाही हुई कन्याओं का अशौच वही माने जिनको वह विवाही गयी हों' इसलिये जिन सपिण्डोंके बारे में कोई विशेष वचन न हो वहांपर दश दिनके अशौचका बोधक समझना चाहिये इससे यह सिद्ध हुआ कि एक