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विवाह
[ दूसरा प्रकरण
होती है। और भी देखो सेक्रेड बुक्स आफ दि ईस्ट Vol. 25 pp. 77, 78 उपरोक्त वचनोंका सारांश यह है कि अनुलोमज विवाह की आज्ञा नहीं दी गयी है वलि मञ्जूर कर लिया गया है।
याज्ञवल्क्य स्मृति प्राचारे० श्लोक ५६, ५७ से यह विषय बहुत साफ हो जाता है देखो--
यदुच्यते द्विजातीनां शूद्रा दारोप संग्रहः नैतन्मम मतं यस्मात्तत्रायं जायते स्वयम् । ५६ तिस्रो वर्णानु पूर्वेण द्वै तथैका यथाक्रमम् ब्राह्मण क्षत्रिय विशां भार्या स्वा शूद्रजन्मनः। ५७
भावार्थ--द्विजातियों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को शूद्रकी स्त्रीसे विवाह करना मुझे ( याज्ञवल्क्यको ) पसन्द नहीं है क्योंकि स्त्री में पुरुष स्वयं पैदा होता है । अर्थात् पुरुष ही पुत्ररूपसे जन्मता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इनकी क्रमसे ३, २, १ वर्णों की स्त्रियां होती हैं और शूद्रकी सिर्फ १ यानी शूद्राही स्त्री होती है। विज्ञानेश्वःने अपने टीका मिताक्षरा में कहा है कि विवाह तीन प्रकारके होते हैं. (१) रतिके लिये. (२) पत्रके लिये (३) धर्मके लिये। इनमें दूसरा विवाह जो पुत्रके लिये होता है वह दो प्रकार का है एक 'नित्य' दूसरा 'काम्य' नित्य विवाह सवर्ण में होता है और 'काम्य' कामकी इच्छा होनेमें । नित्य और काम्य विवाहोंमें नित्य श्रेष्ट और काम्य गौण (दूसरा दरजा ) है।
यद्यपि उपरोक्त याज्ञवल्क्य के वचनसे द्विजोंको शूद्रा स्त्रीके साथ विवाह करनेका मत नहीं पाया जाता किन्तु दूसरा व तीसरा विवाह करना मजूर किया जाता है।
मनु और विष्णुने द्विजातियोंको शूद्रा स्त्रीके साथ विवाह करना मजूर किया है याज्ञवल्क्य कहते हैं कि "नैतन्मममतम्" यह मेरा मत नहीं हैं। आगे अन्य वाँकी स्त्रियों से उत्पन्न पुत्रोंके बटवारे में नियम किया गया है । इससे सिद्ध होता है कि अनुलोमज विवाह स्वीकार किये गये हैं । मैंने इन प्रमाणों को वर्तमान मुक़द्दमेके मतलबके लिये उद्धृत किया है न कि इस प्रकारके अन्य पुत्रोंके मामलोंके लिये ( तजवीज़ आर्ष प्रमाणोंसे भरी है बहुत अंश छोड़कर आगे जस्टिस शाह कहते हैं ) नीलकंठकी रायसे अनुलोमज और प्रतिलोमज विवाहका प्रश्न बहुत कुछ साफ हो जाता है। देखो-नीचे के प्रमाण