Book Title: Shantipath Pradarshan
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति-पथ प्रदर्शन • जिनेन्द्र वर्णी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति-पथ प्रदर्शन जिनेन्द्र वर्णी Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला ५८/४, जैन स्ट्रीट, पानीपत (हरियाणा) - १३२१०३ दूरभाष : ०१७४२-६३८६५५ © सर्वाधिकार सुरक्षित प्रथम संस्करण द्वितीय संस्करण २००० प्रतियाँ १००० प्रतियाँ २००० प्रतियाँ तृतीय संस्करण चतुर्थ संस्करण पाँचवा संस्करण छठा संस्करण सातवाँ संस्करण ३००० प्रतियाँ आठवाँ संस्करण ३००० प्रतियाँ नवम् संस्करण ३००० प्रतियाँ ३००० प्रतियाँ मूल्य ९०/ २००० प्रतियाँ २००० प्रतियाँ मुद्रक विद्या प्रकाशन मन्दिर लि० (प्रैस यूनिट) सन् १९६० सन् १९६३ सन् १९७६ सन् १९८२ सन् १९८८ सन् १९९२ सन् १९९४ सन् १९९८ सन् २००१ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EasirationaOMMMARAgram श्री जिनेन्द्र वर्णी (जन्म 14 मई 1921, सल्लेखना 24 मई 1983) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचयिता का चमत्कार जैनेन्द्र प्रमाण कोष की रचना 'जैनेन्द्र सिद्वान्त कोश' के रचयिता तथा सम्पादक श्री जिनेन्द्र वर्णीका जन्म १४ मई १९२२ को पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री जयभगवान् जी जैन एडवोकट के घर हुआ। केवल १८ वर्ष की आयु में क्षय रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण आपका एक फेफड़ा निकाल दिया गया जिसके कारण आपका शरीर सदा के लिए क्षीण तथा रुग्ण हो गया । सन् १९४९ तक आपको धर्म के प्रति कोई विशेष रुचि नहीं थी । अगस्त १९४९ के पर्यूषण पर्व में अपने पिता-श्री का प्रवचन सुनने से आपका हृदय अकस्मात् धर्म की ओर मुड़ गया। पानीपत के सुप्रसिद्ध विद्वान् तथा शान्त- परिणामी स्व० पं० रूपचन्द जी गार्गीय की प्रेरणा से आपने शास्त्र- स्वाध्याय प्रारम्भ की और सन् १९५८ तक सकल जैन-वाड्मय पढ़ डाला । जो कुछ पढ़ते थे उसके सकल आवश्यक सन्दर्भ रजिस्ट्रों में लिखते जाते थे, जिससे आपके पास ४-५ रजिस्टर एकत्रित हो गए । स्वाध्याय के फलस्वरूप आपके क्षयोपशम में अचिन्त्य विकास हुआ, जिसके कारण प्रथम बार का यह अध्ययन तथा सन्दर्भ-संकलन आपको अपर्याप्त प्रतीत होने लगा। अतः सन् १९५८ में दूसरी बार सकल शास्त्रों का आद्योपान्त अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया। घर छोड़कर मन्दिर जी के कमरे में अकेले रहने लगे । १३-१४ घण्टे प्रति दिन अध्ययन में रत रहने के कारण दूसरी बार वाली यह स्वाध्याय केवल १५-१६ महीनों में पूरी हो गई । सन्दर्भों का संग्रह अबकी बार अपनी सुविधा की दृष्टि से रजिस्ट्रों में न करके खुले परचों पर किया और शीर्षकों तथा उपशीर्षकों में विभाजित उन परचों को वर्णानुक्रम से सजाते रहे । सन् १९५९ में जब वह स्वाध्याय पूरी हुई तो परचों का यह विशाल ढेर आपके पास लगभग ४० किलो प्रमाण हो गया । परचों के इस विशाल संग्रह को व्यवस्थित करने के लिए सन् १९५९ में आपने इसे एक सांगोपांग ग्रन्थ के रूप में लिपिबद्ध करना प्रारम्भ कर दिया, और १९६० में 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष' के नाम से आठ मोटे-मोटे खण्डों की रचना आपने कर डाली, जिसका चित्र शान्ति- पथ प्रदर्शन के अध्याय २५ में अंकित हुआ दिखाई देता है । स्व० पं० रूप चन्द जी गार्गीय ने अप्रैल १९६० में 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष ' की यह भारी लिपि, प्रकाशन की इच्छा से देहली ले जाकर, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मी चन्द जी को दिखाई। उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरन्त उसे प्रकाशन के लिए मांगा । घरन्तु क्योंकि यह कृति वर्णी जी ने प्रकाशन की दृष्टि से नहीं लिखी थी और इसमें बहुत सारी कमियां थीं, इसलिए उन्होंने इसी हालत में इसे देना स्वीकार नहीं किया, और पण्डित जी के आग्रह से वे अनेक संशोधनों तथा परिवर्धनों से युक्त करके इसका रूपान्तरण करने लगे। परन्तु अपनी ध्यान समाधिकी शान्त साधना में विन समझकर मार्च १९६२ में आपने इस काम को बीच में ही छोड़कर स्थगित कर दिया । पण्डित जी की प्रेरणायें बराबर चलती रहीं और सन् १९६४ में आपको पुन: यह काम अपने हाथ में लेना पड़ा । पहले वाले रूपान्तरण से आप अब सन्तुष्ट नहीं थे, इसलिए इसका त्याग करके दूसरी बार पुनः उसका रूपान्तरण करने लगे जिसमें अनेकों नये शब्दों तथा विषयों की वृद्धि के साथ-साथ सम्पादन विधि में भी परिवर्तन किया । जैनेन्द्र प्रमाण कोष का यह द्वितीय रूपान्तरण ही आज 'जैनेन्द्र सिद्वान्त कोष' के नाम से प्रसिद्ध है । इसलिये 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' के नाम से प्रकाशित जो अत्यन्त परिष्कृत कृति आज हमारे हाथों में विद्यमान है, वह इसका प्रथम रूप नहीं है । इससे पहले भी यह किसी न किसी रूप में पाँच बार लिखी जा चुकी है। इसका यह अन्तिम रूप छठी बार लिखा गया है। इसका प्रथम रूप ४-५ रजिस्ट्ररों में जो सन्दर्भ संग्रह किया गया था, वह था । द्वितीय रूप सन्दर्भ संग्रह के खुले परचों का विशाल ढेर था। तृतीय रूप 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष' नाम वाले वे आठ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) मोटे-मोटे खण्ड थे जो कि इन परचों को व्यवस्थित करने के लिए लिखे गये थे। इसका चौथा रूप वह रूपान्तरण था जिसका काम बीच में ही स्थगित कर दिया गया था। इसका पाँचवां रूप वे कई हजार स्लिपें थीं जो कि जैनेन्द्र प्रमाण कोष तथा इस रूपान्तरण के आधार पर वर्णी जी न ६-७ महीने लगाकर तैयार की थीं तथा जिनके आधारपर कि अन्तिम रूपान्तरण की लिपि तैयार करनी इष्ट थी । इसका छठा रूप यह है जो कि 'जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष' के नाम से आज हमारे सामने विद्यमान है। यह एक आश्चर्य है कि इतनी रुग्ण काया को लेकर भी वर्णी जी ने कोष के संकलन सम्पादन तथा लेखन का यह सारा कार्य अकेले सम्पन्न किया है । सन् १९६४ में अन्तिम लिपि लिखते समय अवश्य आपको अपनी शिष्या ब्र० कुमारी कौशल का कुछ सहयोग प्राप्त हुआ था, अन्यथा सन् १९५९ से सन् १९६५ तक १७ वर्ष के लम्बे काल में आपको तृण मात्र भी सहायता इस सन्दर्भ में कहीं से प्राप्त नहीं हुई। यहाँ तक कि कागज जुटाना उसे काटना तथा जिल्द बनाना आदि का काम भी आपने अपने हाथ से ही किया। यह केवल उनके हृदय में स्थित सरस्वती माता की भक्ति का प्रताप है कि एक असम्भव कार्य भी सहज सम्भव हो गया और एक ऐसे व्यक्ति के हाथ से सम्भव हो गया जिसकी क्षीण काया को देखकर कोई यह विश्वास नहीं कर सकता कि इसके द्वारा कभी ऐसा अनहोना कार्य सम्पन्न हुआ होगा। भक्ति में महान शक्ति है, उसके द्वारा पहाड़ भी तोड़े जा सकते हैं । यही कारण है कि वर्णी जी अपने इतने महान कार्य का कर्तृत्व सदा माता सरस्वती के चरणों में समर्पित करते आए हैं, और कोष को सदा उसी की कृति कहते आये हैं । यह है भक्ति तथा कृतज्ञताका आदर्श। __ यह कोष साधारण शब्द-कोष जैसा कुछ न होकर अपनी जाति का स्वयं है। शब्दार्थ के अतिरिक्त शीर्षकों उपशीर्षकों तथा अवान्तर शीर्षकों में विभक्त उसकी वे समस्त सूचनायें इसमें निबद्ध हैं, जिनकी कि किसी भी प्रवक्ता लेखक अथवा संधाता को आवश्यकता पड़ती है। शब्द का अर्थ, उसके भेद प्रभेद, कार्य कारण भाव, हेयोपादेयता, निश्चय व्यवहार तथा उसकी मुख्यता गौणता, शंका समाधान, समन्वय आदि कोई ऐसा विकल्प नहीं जो कि इसमें सहज उपलब्ध न हो सके । विशेषता यह कि इसमें रचयिता ने अपनी ओर से एक शब्द भी न लिखकर प्रत्येक विकल्प के अन्तर्गत अनेक शास्त्रों से संकलित आचार्यों के मूल वाक्य निबद्ध किये हैं। इसलिए यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जिसके हाथ में यह महान् कृति है उसके हाथ में सकल जैन-वाङ्मय है। -सुरेश कुमार जैन गार्गीय Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुखबन्ध (भारत के सुप्रसिद्ध चिन्तक व हिन्दी साहित्यकार श्री जैनेन्द्र कुमार देहली ) सब प्राणियों में मनुष्य की यह विशेषता है कि वह जीना ही नहीं चाहता, जानना भी चाहता है। असल में रहने और जीने में यही अन्तर है। रहते हम विवशता से हैं। विचार-विवेक के साथ रहने का आरम्भ होता है, कि तभी जीवन का सच्चा अर्थ भी आरम्भ होता है । स्वतन्त्रता का प्रारम्भ भी यही है। अर्थात् विचार- विवेक स्वाधीन जीवन के अविभाज्य अंग हैं। विचार-हीनता से मनुष्य, मनुष्यता पशुता में आ गिरता है । किन्तु विचार की मर्यादा है वह द्वैत को जन्म देता है, उसे लांघ नहीं सकता। जीवन के सम्बन्ध में भी उठकर धारा के मध्य से विचार इस या उस तट की ओर बढ़ने को बाध्य हैं। नदी में पानी हो तो दो तट हो ही जाते हैं, वैसे ही विचार में यदि सत्य हो तो तट दो बन ही जाने वाले हैं। जड़-चेतन, कर्म-धर्म, भौतिक-आध्यात्मिक, ये ही वे तट हैं। धर्म और कर्म के बीच सदा तनाव रहा है। धर्म यहाँ तक गया कि पापको कर्म की संज्ञा दे दी और मुक्ति में उस कर्म को ही बाधा और बन्धन बताया। उसी तरह कर्मवादियों ने धर्म को वहम कहा और उन्नति में उसे ही बाधा और बन्धन के रूप में दिखलाया । अध्यात्मवाद और भौतिकवाद, इस तरह परस्पर विलग और विमुख बने रहे हैं। धर्म और अध्यात्म के बाद ने निवृत्ति पर और अकर्मपर बल दिया है, उसके विरोध में प्रवृत्ति और पदार्थ की उन्नति ने सदा कर्म के आरम्भ समारम्भ पर जोर डाला है। इस विवाद में से अधिकांश विघटन और वितण्डा ही फलित हुए हैं, जिज्ञासुता नहीं बढ़ी है, न किसी आत्मोकर्षकी अनुभूति ही हो पाई है। , आज की मनः स्थिति यह है कि प्रचलित और अनिवार्य इन दोनों तटों को परस्पर की विमुखता से अधिक सम्मुखता में देखा जाए और समन्वयपूर्वक जीवन को दोनों से मुक्त अथवा युक्त बनाने का यत्न किया जाए। जीवन अपनी स्थिति और गति के लिए दोनों तटों का निर्वाह करता और दोनों को ही स्पर्श करता हुआ प्रवाहित रहता है। मुझे प्रसन्नता है कि ब्रह्मचारी श्री जिनेन्द्र कुमारजी का यह ग्रन्थ 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' जीवन को धर्म तत्त्व के नाम पर किसी ऐकान्तिक व्याख्याकी ओर नहीं खेंचता है, अपितु उस तत्व का जीवन के साथ मेल साधने में योग देता है। अपने अमुक मन्तव्य को, आवश्यकता से अधिक उस पर बल डालकर, मतवादी और साम्प्रादायिक भी बना दिया जा सकता है। उससे असहिष्णुता और जड़ता पैदा होती है एवं आत्म-चैतन्यपर क्षति आती है। प्रस्तुत ग्रन्थ में वह दोष नहीं है। आधार उसकी रचना में जैन शब्दावली का लिया गया है और तत्त्व निरूपण में भी जैन तत्त्ववादको भूमिका है। किन्तु पारिभाषिक भाषाका जीवनानुभव से मेल बैठाकर रचनाकार ने ग्रन्थ को पन्थगत से अधिक जीवनगत बना दिया है। इन गुणों से यह ग्रन्थ यदि जैनों के लिए विशेष, तो सामान्यतया हरेक के लिए उपादेय बन गया है। मानो ग्रन्थकार ने अपनी ओर से ही साम्प्रदायिक अभिनिवेशों का ध्यान रखा है और उन्हें उद्दीपन देने से बचाया है। शब्द की इयत्ता से अधिक सूचकताकी ओर उनका संकेत रहा है। इस प्रकार अन्यान्य मतवादों के साथ जैन मत के संगम को यह ग्रन्थ सुगम कर देता है। आत्मा और पुद्गल जैन विचार में ये दो ही प्रधान तत्त्व हैं। आत्मा शुद्ध परमात्मा है, और कर्म शुद्ध पुद्गल है। इस तरह पर-तत्त्व जैन विचार क्रम से नितान्त उत्तीर्ण और मुक्त है । किन्तु ब्रह्मवादी के परब्रह्म और 'एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' को भी ग्रन्थकारने परमानन्द के भाव के साथ अपना लिया है और अपनी भाषा में समा लिया है। सर्व धर्म समभाव की यही भूमिका है। आज के दिन अहिंसा का प्रश्न भी तरह-तरह से लोगों को विकल कर रहा मालूम होता है। राष्ट्र-संघर्ष की अवस्था में आसानी से हिंसा अहिंसा के प्रश्न को उलंझा और सुलझा लिया जा सकता है। इस जगह पर धर्म-विचार की दृष्टि से बड़ी सावधानी की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि हिंसा से परिपूर्ण मुक्ति सदेहावस्था में अकल्पनीय है। इसीसे अहिंसा परम धर्म मानना होता है और हिंसा की अपरिहार्यता को लेकर उस सम्बन्ध में भ्रम उत्पन्न नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत ग्रन्थ में उस सावधानी के लक्षण दिखाई देते हैं। सत्य का तत्त्व उससे भी जटिल है और नाना प्रश्नों को जन्म देता है। उस सम्बन्ध में ग्रन्थकार का यह वचन मार्मिक है कि “स्वपरहित का अभिप्राय रखकर की जाने वाली क्रिया सत्य है।” दूसरे शब्दों में सत्य क्रियमाण है, स्थिर ज्ञानस्थ वह नहीं है। यह भी उसमें गर्भित है कि वह क्रियात्मक से अधिक अभिप्रायात्मक या भावात्मक है। अतः मूलतः वह सत्य स्वपरहित मूलक हो जाता है। इस पद्धति से सत्य को अमुक मत तथा मंतव्य से हटाकर स्वपरहित के अभिप्राय से जोड़ देना में परम हितकारी मानता हूँ धर्म को यदि तत्त्ववाद की चट्टान से टकराकर टूटना नहीं है, बल्कि जीवन को प्रशस्त और उज्जवल बनाने में लगना है तो उसके अभिप्राय और क्रिया के शोधन का दायित्व वक्ता और व्याख्याता पर आता है और जिनेन्द्र जी इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रबुद्ध रहे हैं। 1 कुल मिलाकर इस ग्रन्थ और इसके ग्रन्थकार का मैं अभिनन्दन करता हूँ। जैनों में साम्प्रदायिक मतवाद एवं तत्त्ववाद का साहित्य तो मिलता रहा है, उस सबका जीवन क्रम के साथ मेल बैठाकर प्रकटाने वाला साहित्य अधिक देखने में नहीं आता। इस ग्रन्थ की गणना उसमें की जा सकती है और मुझ जैसे एक जैन के लिये यह परम हर्ष का विषय है। -जैनेन्द्र कुमार २५-१-६३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओउम प्राक्कथन प्रस्तुत ग्रन्थ अध्यात्म-विज्ञान से ओतप्रोत है । अध्यात्म-विज्ञान अत्यन्त परिष्कृत और कोमल रुचि वाले व्यक्तियों के लिए है । इस विज्ञान के छात्र का मन इतना कोमल होता है कि स्व अथवा परके तनिक से भी दुःख को देखकर उसे निवारण करने के लिए छटपटाने लगता है। उसे केवल शान्ति की आकांक्षा होती है । लौकिक सुख भोग वस्तुतः स्थूल रूचिवाले व्यक्तियों को लुभा सकते हैं, कोमल रुचि वालों को नहीं। लौकिक सुख-भोगों के साथ अनिवार्य रूप से लगा रहने वाला तृष्णा-जनक दुःख जब किसी ऐसे सूक्ष्म रुचिवाले व्यक्ति को संसार से उदासीन बना देता है, तब ही वह व्यक्ति अध्यात्म-विज्ञान के रहस्य को समझ पाता है, और यह विज्ञान उसी व्यक्ति के लिए कार्यकारी भी हो सकता है । शेष व्यक्तियों में तो इसका पठन-पाठन, मात्र भोग है, योग नहीं— 'भुक्त्ये न तु मुक्तये' । साथ किन्तु ऐसे व्यक्ति मन से कोमल होने पर भी अत्यन्त दृढ़ संकल्प शक्ति के होते हैं । जिन विपत्तियों के ध्यान मात्र से हम लौकिक व्यक्तियों का मन काँपने लगता है, उन्हीं विपत्तियों का सामना वह एक शीतल मधुर मुस्कान किया करते हैं । उनका नारा होता है करेंगे या मरेंगे, 'कार्यं वा साधयेयम् देहं वा पातयेयम्' । यह मार्ग कोमल-हृदय, परन्तु वीर पुरुषों का है । अध्यात्म-विज्ञान जीवन - विज्ञान है। इसमें जीवन की कला निहित है । जीवन का सौम्य विकास इसका प्रयोजन है । जिस प्रकार लौकिक जीवन अर्थात् रहन-सहन का स्तर ऊँचा उठाने के लिए अर्थशास्त्र, भौतिक शास्त्र अथवा रसायन शास्त्र पढ़ा जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन को ऊँचा उठाने के लिए अध्यात्म - विज्ञान पढ़ा जाना चाहिए । इस विज्ञान की प्रयोगशाला जीवन है। मन, शरीर और वाणी इस विज्ञान की प्रयोगशाला के यन्त्र । यह विज्ञान जीवन को मृत्यु से अमरत्व, अन्धकार से ज्योति और असत् से सत् की ओर ले जाता है। भारत के बालक-बालिकाओं को इस विज्ञान के मूल सिद्धान्त पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त होते हैं । वे सिद्धान्त हैं- दया, दान और दमन । भौतिक विज्ञान ने हमें जो कुछ दिया उसका विरोध या अनुमोदन करना यहाँ अभिप्रेत नहीं है, परन्तु यह आवश्यक है कि हम उसकी सीमायें समझें। जीवन के उपकरणों का अर्थात् धन, ऐश्वर्य और शरीर का जीवन से तादात्म्य सम्बन्ध मानना समस्त अनर्थ का मूल है। इनमें साधन-साध्य सम्बन्ध है, तादात्म्य सम्बन्ध नहीं । विज्ञान ने हमें नये-नये मनोरंजन और यातायात के साधन दिये, तदर्थ विज्ञान का स्वागत है, किन्तु विज्ञान की चकाचौंध में पड़कर अपने को भूल जाने का कोई अधिकार हमें नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक बीसवीं शती के एक साधक वैज्ञानिक हैं। भारत में अध्यात्म-विज्ञान जानने वाले पहले बहुत से साधक हुए, परन्तु उनकी परिभाषावली और लेखनशैली हम बीसवीं शती के लोगों के लिए न उतनी सुगम है और न उतनी आकर्षक । वर्तमान समय में अध्यात्म-विज्ञान के प्रति अरुचिका यह भी एक कारण है । प्रस्तुत ग्रन्थ निश्चय ही इस अभाव की पूर्ति करेगा । - डॉ० दयानन्द भार्गव, एम० ए० रामजस कॉलेज २५-११-६० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ३म एक सम्मति (डॉ० दयानन्द भार्गव एम० ए० संस्कृत विभागाध्यक्ष रामजस कालेज दिल्ली) मिट्टी की बहुत महिमा है। प्रत्यक्षत: मिट्टी से ही हमारा जन्म होता है, मिट्टी में हमारी स्थिति है तथा मिट्टी में ही हम अन्तत: विलीन हो जाते हैं। ऐसा आभास होता है मानों मिट्टी ही हम सब की परम प्रतिष्ठा है । परन्तु परमार्थत: मिट्टी स्वाश्रित नहीं, जलाश्रित है। न जल ही स्वाश्रित है, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर तथा वायु आकाश पर प्रतिष्ठित है। तो क्या आकाश ही परम प्रतिष्ठा है? क्या सब प्राणी अन्तत: आकाश में विलय हो जाते हैं ? आभासत: ऐसा ही प्रतीत होता है, परन्तु परमार्थत: आकाश स्वप्रतिष्ठ नहीं है, वह भी ज्ञानालोक पर प्रतिष्ठित है । इस ज्ञानालोक से ही लोकालोक आलोकित हैं। इस ज्ञानालोक को ही हम सब 'मैं ' की संज्ञा देते हैं। यह 'मैं ' अथवा आत्मतत्त्व स्वयं प्रकाश है, स्वप्रतिष्ठ है। मेरे मानस मे अहर्निश प्रवर्तमान संकल्प-विकल्प सब इसी आत्म-प्रकाश के रूपान्तर हैं। संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थान्तर सब इसी आत्मा के निमित्त ही तो मुझे प्रिय हैं। कितना शान्त एवं सौम्य है मेरा यह चिद्रूप? तनिक अपने मानस में झाँककर देखू । अहो ! कैसा अनोखा संसार बस रहा है मेरे अन्तर में ? मेरे मानस के माँसल कूल (सुदृढ़ किनारे) को विचारों की लहर पर लहर चाटे जा रही है। यह राग, यह द्वेष, यह करुणा, यह शत्रुता, यह मैत्री, यह उत्साह । अद्भुत भावों के सतरङ्गी इन्द्रधनुष मेरे मानसाम्बर में निकले रहते हैं। विचार-वीचिपर विचार-वीचि चली आ रही हैं। क्या एक क्षण के लिए इनकी गति को अवरु किया जा सकता? क्या मैं इन विचार-वीचियों का प्रवर्तक ही हूँ, नियन्ता नहीं हूँ ? अहो ! मानव की असहायता !! इष्टानिष्ट, हिताहित एवं प्रियाप्रिय, जैसे-कैसे भी विचार उसे जिस ओर भी धकेलते हैं वह बेबस उसी ओर चाहे-अनचाहे चल देता है। विचार-वीचि आती है और लौट जाती है, परन्तु वह खाली आती है और न खाली लौटती है। वह अपने साथ कुछ नवीन रजकण लेकर आती है और कुछ पुराने रजकण बहा ले जाती है । व्यष्टि रूप में रजकण बदलते रहते हैं, परन्तु समष्टि रूप में रजकणों की वह परत सदा बनी रहती है। क्या इन रजकणों की मोटी तहके नीचे दबा हुआ आपके मानस का कोमल धरातल कभी इनके भार से छटपटाया है ? ये रजकण नवीन विचार-वीचियों के लिए चुम्बक का काम करते हैं। इन रजकणों की चिर-पिपासा को मानो विचार-वीचियाँ ही शान्त कर सकती हैं। तथा वे विचार-वीचियां इनके निमन्त्रण पर आपके सब निमन्त्रणों को विफल बनाकर उछलती-कूदती नित्य नूतन रजकणों सहित आपके मानस में उतर जाती हैं । जिन रजकणों को ये वीचियां मानस के धरातल पर छोड़ जाती हैं वे रजकण पुन: नूतन वीचियों को बुला लेते हैं । और यह क्रम सदा चलता रहता है। मेरे अन्तर्मन का यह इतिहास कितना रोचक है ? परन्तु इस इतिहास के उर में छिपी हुई एक कसक है, एक टीस है। विचार-वीचियों के निरन्तर नर्तन ने मेरे मन में एक दुःखद ममता, एक रागात्मक भावना उत्पन्न कर दी है । वह ममता धन, पुत्र, कीर्ति और न जाने अन्य किन-किन पदार्थों में व्याप्त हो गई है । सांस उखड़ा हुआ है, होश गुम है, किन्तु फिर भी यह ममता-माया मुझे बेबस दौड़ा रही है । लक्ष्य अज्ञात है, केवल गतानुगतिक न्याय से दौड़ रहा हूँ। इस दौड़ में जो रुके वह पागल है, जो आपसे रुकने को कहे वह मूर्ख है, जो दौड़ से पृथक् होकर एक किनारे पर खड़ा होकर शान्त-भाव से दौड़ को केवल देख रहा है वह निठल्ला है। इनकी ओर ध्यान दिए बिना केवल दौड़ते रहो । स्वेद आये तो पौंछ लो, अश्रु आयें तो रोक लो, ठोकर लगे, रक्त बहे तो पट्टी बांध लो, परन्तु बिना यह पूछे कि जाना कहां है बस केवल दौड़ते रहो। इस दौड़को देखकर हंसना भी आता है और रोना भी । यों तो इस दौड़ में बहुत रस है, आकर्षण है। किन्तु क्या आपके जीवन में ऐसे क्षण भी आये हैं जब यह आभास हुआ हो कि दौड़ निरर्थक है, निरी मूर्खता है, कोरी मृगतृष्णा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vii) है। इस दौड़ में ठोकर खानेपर या किसी अन्य दौड़ने वाले से टकरा जानेपर क्या झनझनाकर आपके मनने कभी यह भी कहा है कि इस दौड़ से दूर हट जायें तो अच्छा है। किन्तु इस दौड़ से दूर हटना क्या सरल है ? कुछ समय के लिए बाह्य दौड़-धूप से बलात् निग्रहकर भी लिया जाये तो भी आन्तरिक द्वन्द्व तो रुकता नहीं। यह भी स्पष्ट है कि वास्तविक समस्या तो यह आन्तरिक द्वन्द्व ही है, बाह्य दौड़-धूप तो उस आन्तरिक द्वन्द्व का प्रतीक मात्र है। इस आन्तरिक द्वन्द्व को नियन्त्रित करना संसार का कठिनतम तथा कठोरतम साधन-साध्यकार्य है। इन कठोर साधनों की सिद्धि के लिए ऐसा सुदृढ़ साधक अपेक्षित है, जो राग-द्वेष के ज्वार भाटों में शिला के समान अडिग रहे, तनिक भी विचलित न हो। और इस सबके विनिमय में उसे क्या प्राप्त होता है ? कुछ नहीं और सब कुछ । इस दौड़-धूप का अवसान हो जाता है, रज क्षीण हो जाता है, तथा उस एकात्मरस चिदानन्द आनन्दघनैकरस शुद्ध बुद्ध निजस्वरूप की उपलब्धि हो जाती है जिसे प्राप्त करके प्राणी कृतकृत्य हो जाती है । उस अवाङ्मनसगोचर प्रपंचोपशम अद्वैत दशा का, शेष भी अशेषत: वर्णन करने में अशक्त है, अस्मदादि अकिंचन प्राकृत जनों की तो कथा ही क्या है? ___कदाचित् यह दौड़ एकान्तत: समाप्त न भी हो, तो भी साधक की दौड़ में नियमितता तो आ ही जाती है। वह दौड़ते हुए भी विवेक नहीं खो बैठता । दौड़ते हुए भी वह यथासम्भव न किसी को ठोकर मारता है, एवं फलस्वरूप न किसी की ठोकर खाता है । वह दौड़ते हुए भी नहीं दौड़ता । उसकी दौड़ का भी अन्त निकटवती ही समझना चाहिए। __ वाष्कलि मुनि ने बाध्व से आत्मा का स्वरूप पूछा । बाध्वने कहा, “ब्रह्म स्वरूप सुनो"। यह कहकर बाध्व मौन हो गए। वाष्कलि ने कहा, “भगवन् ! आप मौन क्यों हैं? आत्मा का स्वरूप बताइये न?” बाध्व फिर भी मौन रहे । वाष्कलि ने कहा, “भगवन् ! आप ब्रह्म का स्वरूप क्यों नहीं बतलाते?" बाध्व बोले, “मैं तो ब्रह्म का स्वरूप बतला रहा हूँ, किन्तु तू नहीं समझता । यह आत्मा उपशान्त है।" । ऐसी शब्दातीत उपशान्त आत्मा का वर्णन इस शान्तिपथ-प्रदर्शन में है। पन्द्रह वर्ष पूर्व स्टेशनों पर पीने के पानी पर 'हिन्दु-पानी' और 'मुस्लिम-पानी' लिखा रहा करता था। अब केवल पीने का पानी' लिखा रहता है। सौभाग्य से अब हम यह समझने लगे हैं कि पानी हिन्दू या मुस्लिम नहीं होता, वह 'पीने के लिए होता है। क्या सभी मानव जाति यह भी समझेगी कि धर्म हिन्दू या मुस्लिम, जैन या बौद्ध अथवा इसाई और यहूदी नहीं होता, वह तो वस्तु के स्वभाव का नाम है ? यदि कभी ऐसे सहज मानव धर्म की नींव पड़ेगी, तो प्रस्तुत ग्रन्थ-रत्न उस नींव में सुदृढ़ पाषाण का स्थान ग्रहण करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। मुझे पुस्तक के प्रणेता के मुखारविन्द से इन प्रवचनों के अमृतपान का सौभाग्य मिला है। लेखक के क्षल्लक दीक्षा ग्रहण करने के अवसर पर एक पत्र में, इन प्रवचनों की जो प्रतिक्रिया मुझपर हुई वह मैने श्लोकबद्ध करके लेखक की सेवा में प्रेषित की थी। उसी पत्र के अन्तिम अंश के कतिपय श्लोक उद्धृत करते हुए मैं अपनी लेखनी को विश्राम देता हूँ। पं० रूपचन्दजी गार्गीय के आग्रहपर मूल संस्कृत का पञ्च चामर छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद भी दे रहा हूँ। श्लोक संख्या में तथा प्रत्येक श्लोक के अन्तिम चरण में सोऽहम् महावाक्य आता है, अत: चाहें तो इसे सोऽहमष्टक भी कह सकते हैं : (सोऽहम्-अष्टक) अपापविद्धो य इति प्रसिद्धः, स्वयं स्वकीयैर्नियमैर्निबद्धः ।। सिद्धः प्रबुद्धः सततं विशुद्धः सोऽहं न पापे करवाणि बुद्धिम् ॥१॥ ज्ञानानि सर्वानि यदाश्रितानि, ज्ञाने च यस्या सफलानि खानि । सर्वाणि शास्त्राणि च यत्पराणि, सोऽहं न पापे करवाणि वाणीम् ॥२॥ अध्यात्मशास्त्राणि चिदात्मकं यं, सुखात्मरूपं परमात्मसंज्ञम् । देहादिभिन्नं शिवमाहुरेनं, सोऽहं न पापे करवाणि देहम् ॥३॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ix) जन्मादिहेतुः जगत: परन्तु, संसारपाथोनिधिपारसेतुः । विमोक्षदेवालयतुङगकेतुः, सोऽहं परंब्रह्म निरंजनोऽस्मि ॥४॥ 'कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू' - 'रणोरणीयान् महतो महीयान् ।' भान्तं यमेवानुविभाति सर्वं, स ज्योतिषां ज्योतिरहं विधूम: ॥५॥ यथा स्वपुत्रं परिचुम्ब्य माता, न वेत्ति किञ्चिद्धि सुखातिरिक्तम् । नान्तर्विपश्यन्त्र बहिर्न चोभौ, सोऽहं तथानन्दसमुद्रलीन: ॥६॥ आनन्द चैतन्यविलासरूपं, क्रियाकलापादिकसाक्षिणं यत् । जानामि नित्यं हृदये विभान्तं, सोऽहं स्वयं ज्ञानधनप्रकाश: ॥७॥ येन स्वयं सा निरमायि माया, तथा च लीलामनुसृत्य बद्धः । वेदोऽपि जानाति न यस्य भेदं, मायापति: सोऽहमचिन्त्यरूप: ।।८।। (पञ्च चामर छन्द) अपापबिद्ध जो प्रसिद्ध, शुद्ध बुद्ध सिद्ध है, स्वयं स्वकीय-पाससे निबद्ध भी स्वतन्त्र है । प्रसिद्ध शास्त्र में सुखात्म-रूप ज्ञानकी प्रभा, विदेह-रूप कौन है ? अहो, यही स्वयम् 'अहम्' । अशेष-वेद-शास्त्र नित्य कीर्ति को बखानते, न इन्द्रियादि-गम्य जो समस्त-ज्ञान-मूल है । गिरा-शरीर-बुद्धि की मलीनता-विहीन है, समस्त-शास्त्र-सार-भूत है यही स्वयम् 'अहम् ॥ प्रपञ्च-हेतु भी यही, प्रपञ्च-सेतु भी यही, विमोक्ष-देव-मन्दिरोच्य-भव्यकेतु भी यही । यही महान से महान, सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म है, कवीन्द्र, प्राज्ञ, सर्वभू, विधूम-ज्योति है यही । यथा स्वकीय-पुत्र का विशाल भाल चूमती, न जन्मदा स्व-देहको, न अन्य वस्तु जानती । तथा प्रमोद के पयोधिकी तरंग में रंगा हआ 'अहं' न बाह्य को, न अन्त को विलोकता॥ निजात्म-जन्म-हेत, यह समस्त लोककी प्रभा, धन-प्रकाश-रूप, चित्स्वरूप, रूप के बिना। क्रिया-कलाप-साक्षिभूत, चिद्विलास-रूपिणी, प्रमोदकी परा स्थली, अहो यही स्वयम् 'अहम्' । न वेद भी अभेद्य भेद जानता परेशका, कभी यहाँ कभी वहाँ, कभी कहीं कभी कहीं। बना स्वयं विशाल एक जाल खेल खेलता, __परन्तु जो कि वस्तुत: विमुक्त है, स्वतन्त्र है ।। इति शम् -डॉ० दयानन्द भार्गव, एम० ए० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य (प्रथम संस्करण) स्वदोष-शान्त्या विहिताऽत्मशान्ति:, शान्तेर्विधाताशरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश-भयोपशान्त्यै, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्य: ।। जिन्होने अपने दोषों की अर्थात् अज्ञान तथा राग-द्वेष काम-क्रोधादि विकारोंकी शान्ति करके (पूर्ण निवृत्ति करके) आत्मा में शान्ति स्थापित की है (पूर्ण सुख स्वरूप स्वाभाविक स्थिति प्राप्त की है) और जो शरणागतों के लिए शान्ति के विधाता हैं, वे शान्ति-जिन मेरे शरणभूत हों। __सर्व साधारण मनुष्य-समाज के हितार्थ 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' ग्रन्थ का प्रकाशन करते हुए मुझे बड़ा हर्ष व उल्लास हो रहा है, क्योंकि यह मेरी उन भावनाओं का फल है जो मेरे हृदय से उस समय उठी थीं, जब कि मैंने यह सुना कि ब० जिनेन्द्र कुमार जी के अपूर्व प्रवचनों के द्वारा मुजफ्फरनगर की मुमुक्षु समाज में अध्यात्म पिपासा जागृत हुई है और उसके प्रति एक अद्वितीय बहुमान भी। तब मैंने सोचा कि ये प्रवचन तो बहुत थोड़े व्यक्तियों को सुनने को मिल सकेंगे और हमारे देश का एक बहुत बड़ा भाग इनके सुनने से वञ्चित रह जायेगा। मैंने उनसे प्रार्थना की कि यह प्रवचन लिपिबद्ध कर दें। मेरी तथा मुजफ्फरनगर समाज की प्रार्थना पर उन्होंने वे सब प्रवचन संकलित कर दिये । फलस्वरूप इस बड़े ग्रन्थ शान्तिपथ-प्रदर्शन की रचना हो गई, जिसमें जैन दर्शन का सार अत्यन्त सरल व वैज्ञानिक भाषा में जगत के सामने प्रगट हुआ। यह ग्रन्थ धार्मिक साम्प्रदायिकता के विष से निर्लिप्त है जिसके कारण सभी विचारों, सभी जातियों व सभी देशों के लोग इससे लाभ उठा सकते हैं । अन्य स्थानों पर भी यही प्रवचन चले जिनसे वहाँ की समाज बड़ी प्रभावित हुई और उदार हृदय से इसके प्रकाशनार्थ योग दान दिया। मैं इस सहयोग के लिए उन सबका हृदय से आभारी हूँ। ब्र० जिनेन्द्र कुमारजी ने विश्व जैन मिशन के धर्म-प्रचार कार्य की प्रगति, तथा असाम्प्रदायिक मानव प्रेम को देखकर इस ग्रन्थ के प्रकाशन का श्रेय इस संस्था को देने का विचार प्रकट किया, और विश्व जैन मिशन के प्रधान संचालक डॉ० कामता प्रसाद जी की स्वीकृति से पानीपत केन्द्र द्वारा इसके प्रकाशन की योजना की गई। ब्र० जिनेन्द्र कुमार जी, जैन, वैदिक, बौद्ध व अन्य जैनेतर साहित्य के सुप्रसिद्ध पारंगत विद्वान् पानीपत निवासी श्री जय भगवान् जी जैन एडवोकेट के सुपुत्र हैं। यही सम्पति पैतृक धन के रूप में हमारे युवक विद्वान् को भी मिली। अध्यात्म क्षेत्र में आपका प्रवेश बिना किसी बाहर की प्रेरणा के स्वभाव से ही हो गया। बालपने से ही अपने हृदय में शान्ति प्राप्ति की एक टीस छिपाये वे कुछ विरक्त से रहते थे। फलस्वरूप वैवाहिक बन्धनों से मुक्त रहे । इलैक्ट्रिक व रेडियो विज्ञान का गहन अध्ययन करने के पश्चात् आपने अपनी प्रतिभा-बुद्धि का प्रयोग, व्यापार क्षेत्र में इण्डियन ट्रेडर्स फर्म की स्थापना करके दस साल तक किया और खूब प्रगति की । परन्तु धन व व्यापार के प्रति इनको कभी आकर्षण न हुआ। अपने दोनों छोटे भाइयों को समर्थ बना देने मात्र के लिए आप अपना एक कर्तव्य पूरा कर रहे थे। इसीलिए कलकत्ता में ठेकेदारी का काम सम्भालने में ज्यों ही वे समर्थ हो गये, आप व्यापार छोड़कर वापस पानीपत आ गये और सच्चे हृदय से शान्ति की खोज में व्यस्त हो गये । शीघ्र ही आप इस रहस्य का कुछ-कुछ स्पर्श करने लगे। यह साधना इन्होंने केवल आठ वर्ष में कर ली। सन् १९५० में इन्होंने स्वतन्त्र स्वाध्याय प्रारम्भ किया, सन् १९५४ व५५ में सोनगढ़ रहकर इन्होंने उस स्वाध्याय के सार को खूब मांजा । अध्यात्म ज्ञान के साथ-साथ अन्तर-अनुभव व वैराग्य भी बराबर बढ़ता गया, यहाँ तक कि सन् १९५७में आप व्रत धारण करके गृह-त्यागी हो गये । सन् १९५८ में आप ईसरी गये और पूज्य गणेश प्रसाद जी वर्णी के सम्पर्क में रहकर आपने सैद्धान्तिक ज्ञान को बढ़ाया और विशेष अनुभव प्राप्त किया। आपका हृदय अन्तर शान्ति व प्रेम से ओतप्रोत साम्य व माधुर्य का आवास है । सन् १९५९ में प्रथम बार मुजफ्फरनगर की ममक्ष समाज के समक्ष इनको अपने अनुभव का परिचय देने का अवसर प्राप्त हुआ। तब से इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि अनेक स्थानों से निमन्त्रण आने लगे और उनको पूरा करना इनके लिए असम्भव हो Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xi) गया। ज्ञान व अन्तर-शान्ति के अतिरिक्त, शारीरिक स्वास्थ्य अत्यन्त प्रतिकूल होते हुए भी इनकी बाह्य चारित्र सम्बन्धी साधना अति प्रबल है, जिसकी साक्षी कि इनका समय-समय पर किया हुआ परिग्रह-परिमाण व जिह्वा इन्द्रिय सम्बन्धी नियन्त्रण देता रहा है । पौष व माघ की सर्दियों में भी आप दो धोतियों व एक पतली सी सूती चादर में सन्तुष्ट रहे हैं। अब तो आपने वैराग्य बढ़ जाने के कारण विकल्पों से तथा परिग्रह से मुक्ति पाने के लिए भादों शु० तीज सं. २०१९ (सन् १९६२) को ईसरी में क्षुल्लक दीक्षा भी ले ली है। आप इस वैज्ञानिक युग में रूढ़ि व साम्प्रदायिक बन्धनों से परे एक शान्ति-प्रिय पथिक हैं । आपकी भाषा बिल्कुल बालकों सरीखी सरल व मधुर है । आठ वर्षों के उनके गहन स्वाध्याय के फलस्वरूप 'जैनेन्द्र कोष' जैसी महान् कृतिका निर्माण हुआ है जो जैन वाङ्मय में अपनी तरह की अपूर्व कृति है । इसकी आठ मोटी-मोटी जिल्दें हैं । इसके अतिरिक्त भी इनके हृदय से अनेकों ग्रन्थ स्वत: निकलते चले आ रहे हैं, जो उचित व्यवस्था होनेपर प्रकाश में आयेंगे। यद्यपि इस ग्रन्थ में संकलित विषयों को परम्परागत शान्ति-पथ अर्थात् मोक्ष मार्ग के उद्योतक व साधक भगवन् कुन्दकुन्द, श्री उमास्वामी श्री पूज्यपाद स्वामी, श्री शुभचन्द्र आदि महान् आचार्यों द्वारा रचित आगम से प्रेरणा लेकर लिखा है तो भी श्री ब्र० जिनेन्द्र कुमार जी ने अपने अध्यात्म बल व सम्यक आचार-विचार की दृढ़ता से प्राप्त अनभव के आधार पर ही आधुनिकतम वैज्ञानिक ढंग से अत्यन्त सरल भाषा में इसका सम्पादन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ केवल सिद्धान्त पर आधारित शास्त्र नहीं है, किन्तु सिद्धान्त पर आधारित शान्ति-पथ प्रदर्शक है । पथ पर चलकर ही ध्येय की पर्ति होती है। जब पथ पर चलता है तब अन्तरंग में ध्येय का साक्षात रहना आवश्यक है और जब अन्तरंग में ध्येय का साक्षात् है तो पथ पर चलना सरल हो जाता है । इन दिनों अध्यात्म व आचार विषयक साहित्य का बहुत बड़ा निर्माण हुआ है तथा शिक्षण-संस्थायें व आध्यात्मिक सन्त भी इस दिशा में बहुत योग दे रहे हैं, परन्तु विषय की जटिलता व अलौकिकता और तत्सम्बन्धी जैन परिभाषाओं के लोक-व्यवहरित न रहने के कारण भौतिक आवेशों से रंगा हुआ आज का युवक अध्यात्म परम्परा से च्युत होता चला जा रहा है। इन कठिनाइयों को दूर करने में यह ग्रन्थ अवश्यमेव महत्त्वशाली सिद्ध होगा तथा विश्व को सुख व शान्ति का मार्ग दिखाने में सहायक होगा। यद्यपि अध्यात्म-विद्या स्वानुभूति से ही प्राप्त होती है तो भी अनुभव प्राप्त पुरुषों के मार्ग-प्रदर्शन से यह साध्य अधिक सरल हो जाता है।। छले जमाने में अध्यात्म-विद्या, परिक्षोत्तीर्ण अधिकारियों को छोड़कर, सर्व साधारण से गोपनीय रहती चली आयी है परन्तु जब से कागज का निर्माण हुआ है और प्रकाशन-कला का विकास बढ़ा है, इस विद्या का साहित्य दिनोंदिन लोक-सम्पर्क में बढ़ता जा रहा है, और इस विज्ञान की चर्चा वार्ता बहुत होने लगी है। यह ज्ञान-प्रधान युग है परन्तु आचरण में दिन-दिन शिथिलता आती जा रही है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस ग्रन्थ में ज्ञान के अनुकूल आचरण धारण करने की ओर अधिक ध्यान आकर्षित किया गया है। आप्तमीमांसा में कहा है “अज्ञानान्मोहतो बन्धो नाज्ञानाद्वीतमोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्ष: स्यात् मोहान्मोहितोऽन्यथा ॥९८ ॥" मोहीका अज्ञान बन्धका कारण है, परन्तु निर्मोही का अज्ञान (अल्प ज्ञान) बन्ध का कारण नहीं है । अल्प ज्ञान होते हुए भी मुक्ति हो जाती है परन्तु मोही को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। __ "जम्मणमरणजलौघं दुहयरकिलेससोगवीचीयं । इय संसार-समुदं तरंति चदुरंगणावाए।" अर्थ-यह संसार समुद्र जन्म-मरणरूप जलप्रवाह वाला, दुःख क्लेश और शोक रूप तरंगोवाला है। इसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यक् तप रूप चतुरंग नावसे मुमुक्षुजन पार करते हैं। "छीजे सदा तन को जतन यह, एक संयम पालिये। बह रुल्यो नरक निगोद माहीं, विषय कषायनि टालिये। शुभ करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ।। फाल्गुन शु० ८ वी० नि० सं. २४८९ रूपचन्द्र गार्गीय जैन, पानीपत Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतियें शान्तिपथ-प्रदर्शन का प्रथम संस्करण पढ़ने के पश्चात् पाठकों के सैकड़ों प्रशंसा पत्र मेरे पास आये हैं । उनमें से इस ग्रन्थ के विषय में कुछ महत्वपूर्ण सम्मतियाँ ही यहाँ पर प्रकाशित कर रहा हूँ । रूपचन्द गार्गीय जैन 1 १. निर्विकल्प ध्यान के अभ्यासी, आदर्शत्यागी ९१ वर्षीय १०५ क्षु० विमल सागर जी शोलापुर - शान्तिपथ-प्रदर्शन नाम का ग्रन्थ मैंने देखा, आधुनिक ढंग पर सरल भाषा में लिखा हुआ ग्रन्थ बहुत अच्छा है सामान्य जनता में इसका प्रचार होना संभव है । श्रीमान् ब्र० जिनेन्द्र कुमार के शान्ति पथ का पुरुषार्थ लेख बहुत अच्छा है । ब्रह्मचारीजी सम्यक् ज्ञानी हैं, अच्छे लेखक हैं, और अच्छे व्याख्यान- पटु भी हैं । उनको मेरा आशीर्वाद । २८. १. ६३ के पत्र में लिखते हैं- "बाल ब्रह्मचारी रहकर क्षुल्लक दीक्षा ली इससे बड़ा सन्तोष है । ख्याति पूजा आदि के प्यासे नहीं हैं। मैंने बहुत से क्षुल्लक व्रती देखे मगर ऐसे नहीं देखे । " २. १०५ क्षु० पद्मसागरजी दक्षिण प्रान्त ब्र० जिनेन्द्र जी ने ग्रन्थ अच्छे ढंग से लिखा है, उन्होंने अपने उद्गार बहुत अच्छी तरह प्रकट किये हैं। सचमुच यह ग्रन्थ विश्वव्यापी होना चाहिये। जैसा ग्रन्थ का नाम है वैसा ही उसका भाव है। मुझे तो स्वाध्याय करने से अि आह्लाद प्रगट हुआ है । ३. १०५ क्षु० चिदानन्दजी - ६.१.६३ 1 आपने शान्तिपथ-प्रदर्शन का प्रकाशन कराकर समाज का बहुत ही उपकार किया है। वर्तमान में उसका ही स्वाध्याय कर रहा हूँ । श्री १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमार जी ने यह ग्रन्थ बहुत अनुभव-पूर्ण आधुनिक सरल भाषा में लिखा है । गृहस्थ धर्म का पूर्णरीति से दिग्दर्शन कराया है और समझाया है कि अपना कल्याण किस प्रकार हो सकता है। इस ग्रन्थको अधिक से अधिक संख्या में छपाकर इसका घर-घर में प्रचार होना चाहिये । ४. ब्र० श्री छोटेलालजी वर्णी अधिष्ठाता श्री शान्तिनिकेतन बावनगजाजी बड़वानी- १८. ८.६१ सौभाग्य से शान्तिपथ-प्रदर्शन देखने को मिला। पुस्तक की लेखन शैली व भाषा बिल्कुल समयोपयोगी है। वर्तमान पाठकों और अध्ययनार्थियों को तत्त्वाधान करने में बड़ी ही सरल है। निःसन्देह श्री ब्र० जिनेन्द्र जी ने इसे लिखकर बड़ी भारी कमी को पूरा किया है। ५. श्री ब्र० बाबूलाल अधिष्ठाता दि० जैन उदासीन आश्रम इन्दौर मुझे शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ के स्वाध्याय का अवसर मिला। इतना रोचक लगा कि कई बार पढ़ा। जो रसास्वाद आया उसका वर्णन लेखनी से नहीं कर सकता । इन्दौर में जिन उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों ने इसे पढ़ा अथवा ब्र० जी के प्रवचन सुने वे आश्चर्य चकित हो गये और अन्तरंग से उद्गार निकले कि 'मानव के लिये शान्ति- प्रदायक धर्म के स्वरूप व कर्त्तव्य का ऐसा सुगम वर्णन हमने आज तक पढ़ा न सुना।' प्राचीन ऋषियों द्वारा लिखित सिद्धान्त-ग्रन्थों में श्रुतज्ञान का महत्त्वपूर्ण अटूट भण्डार भरा है, परन्तु उसकी भाषा व प्रतिपादन शैली इतनी सुगम व आकर्षक नहीं हैं जो आज का जनसाधारण उससे लाभ उठा सके। इस बात की पूर्ति सही अर्थ में इस ग्रन्थ द्वारा हुई है, जिसकी भाषा व शैली अत्यन्त सुगम व सरल है। एक बार पढ़ना प्रारम्भ करके छोड़ने को जी नहीं चाहता तथा जिसके पढ़ने मात्र से शान्ति की प्राप्ति होती है, तो उसे जीवन में उतारने से क्यों न होगी ? मैं लेखक का परम उपकार मानता हुआ कामना करता हूँ कि मानस- मानस के हृदय मन्दिर में शान्ति हेतु शान्तिपथ-प्रदर्शन बसे । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiii) ६. श्री गोकुलचन्द गंगवाल उदासीन आश्रम बूंदी-१४.७.६१ जिस सरल शान्ति के उपाय की खोज में था वास्तव में वह विवरण शान्तिपथ-ग्रन्थ में पाया। ७. डॉ० कामता प्रसाद जैन प्रमुख संचालक विश्व जैन मिशन, अलीगंज 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' बाल ब्र० (अब क्षु० जिनेन्द्र वर्णी) श्री जिनेन्द्र कुमार जी के प्रवचनों का संग्रह है। कोई भी वस्तु ज्ञान में यद्यपि एक है, परन्तु उसका विवेचन करने की शैलियाँ अनेक हैं । जैनागम की भाषा में इसे नय कहा जाता है । क्षु० जी की अपनी निराली शैली है, अपनी बात अपनी शैली में विश्लेषणात्मक ढंग से कहते हैं, रोचक भी बनाते हैं जिससे कि वह सर्व साधारण जनता के गले उतर जावे ।अत: उनके प्रवचन का मूल्यांकन उनकी कथन शैली और विचाराधीन नय के अनुकूल ही ठीक-ठीक किया जा सकता है । दार्शनिक क्षेत्र में विषमता तब ही उत्पन्न होती है जब कि विचारक दूसरे के मत अथवा कृति को अपने दृष्टिकोण से देखता है और विपक्षी के मत और दृष्टिकोण को नजर-अन्दाज कर देता है। जैन विद्वानों में भी कुछ इसी प्रकार का पक्ष-मोह जड़ पकड़ता जा रहा है। वे सोचें कि इससे अनेकान्त धर्म की सिद्धि किस प्रकार होगी? संसार में सब कुछ अशुद्ध ही अशुद्ध है, न जीव शुद्ध है न पुद्गल। इसका अर्थ यह कि सब कुछ पर्यायाधीन है। परन्तु इसके कारण ही शुद्धरूप अथवा वस्तुरूप-द्रव्य का यथार्थ ज्ञान सम्भव है। जैसे अन्धकार के होने पर ही प्रकाश का परिज्ञान होता है, वैसे ही अशुद्धि है तभी शुद्धि का बोध होता है, अज्ञान है तभी ज्ञान दीखता है । क्षु० जी की शैली में यह विशेषता है कि वे बाहर से अन्दर की ओर चले हैं, क्योंकि सारा संसार बहिर्द्रष्टा है और बहिर्जगत में उलझा हुआ है। क्षु० जी बाहरी स्थितियों के खरेखोटे का मूल्यांकन करते हुये अन्तर की ओर बढ़ते हैं। इसीलिये उन्होंने सैद्धान्तिक परिभाषाओं को नये रंग ढंग में ला रखा है, जो बिल्कुल स्वाभाविक है । उनके प्रवचनों में ज्ञान का चमत्कार उत्तरोत्तर बढ़ता चले, इसी में हम सबका कल्याण है। ८. वर्तमान में आर्य-गुरुकुल भैंसवाल(रोहतक) के प्रिंसिपल, वेदों और उपनिषदों के मर्मज्ञ, प्रकाण्ड विद्वान पं० विद्यानिधि शास्त्री, व्याकरणाचार्य साहित्याचार्य, साधू आश्रम होशियारपुर-२४.४.६१ ___ मैं ब्र० जिनेन्द्र जी यतिवर का प्रोक्त अति गम्भीर परन्तु सरल भाषा में वर्णित जैनागम प्रतिपादित शान्तिपथ-प्रदर्शन का अध्ययन मनन करके कृतार्थ हो रहा हूँ। ग्रन्थ क्या है सचमुच एक अमूल्य चिन्तामणि है जिसकी प्राप्ति होने पर सब कामनाओं के अभावरूप शान्तिपथ का दर्शन होता है । प्रत्येक प्रकरण को सुगमता से समझाते हुए अत्यन्त नम्र तथा अहंकार रहित अपने को तुच्छातितुच्छ मानकर अत्युज्ज्वल निर्मल आत्मतत्त्व का दर्शन कराया है। आश्रव बन्ध का प्रकरण तो इतना हृदय-ग्राही है जिसे मैं बार-बार पढ़ता नहीं थकता। शुभ क्रियाओं से भी हमारा जीवन अपराधमय है यह एक अद्भुत आत्मशोधन का मंत्र बताया है। ये शब्द स्मरण करने योग्य हैं-शुभ क्रियाओं को करने के लिए कहा जाय तो वे सुख देनेवाली हैं ऐसा मानकर उनको ही हितरूप समझने लगता है,अभिप्राय को बदलने के लिए कहा जाय तो उन क्रियाओं को ही छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है । दोनों प्रकार मुश्किल है, किस प्रकार समझायें । ऐसे कहें तो भी नीचे की ओर जाता है और वैसे कहें तो भी नीचे की ओर ही जाता है। नीचे की ओर जाने को नहीं कहा जा रहा है भगवन् ! ऊपर उठने को कहा जा रहा है । कमाल कर दिया है । मैं तो लटू हो रहा हूँ, जब उनका जीवन भी वैसा देखता हूँ । हे प्रभु ! कृपा करो, जिनेन्द्र जी शतवर्ष-जीवी हों। ९. श्री हीराचन्द वोहरा 3. A. L... " कलकत्ता-२८.६.६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक पढ़कर हृदय अत्यधिक प्रभावित हुआ। बहुत सुन्दर ढंग से लिखी गयी है ।ऐसा लगता है कि मोक्षमार्ग प्रकाशक (पं० टोडरमलजी रचित) के बाद इस प्रकार की यह रचना अपने ढंग की अद्वितीय है। ऐसी सुन्दरतम पुस्तक का बड़ा व्यापक प्रभाव हो सकता है। प्रत्येक धर्म तथा सम्प्रदाय के व्यक्ति के लिए पठनीय सामग्री का संकलन श्री पूज्य ब्र० जी की अपूर्व देन है। वे चिरंजीवी हों। इस पुस्तक की सराहना के पत्र मेरे पास अजमेर के कई मित्रों से आये हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xiv) १०. डॉ० कस्तूरून्द जैन एम. ए रिसर्च स्कॉलर जयपुर - ४. ४. ६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक मिली, हार्दिक धन्यवाद । पुस्तक बहुत सुन्दर है एवं आध्यात्मिक रससे ओतप्रोत है । ब्रo जी ने अपने हृदय के उद्गारों को पाठकों के समक्ष उपस्थित किया है, जिनसे आत्मिक शान्ति का अनुभव होता है । सरल एवं सरस भाषा से पुस्तक की उपयोगिता में और भी वृद्धि हुई है। पानीपत मिशन शाखा ने इसे प्रकाशित करके प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय कार्य किया है। ११. श्रीमान दानवीर जैन रत्न सेठ हीरालाल जैन इन्दौर मैंने श्री शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ का आद्योपान्त अध्ययन किया है। यह ग्रन्थ वास्तव में यथा-नाम तथा गुण है । भाषा सरल मधुर एवं आकर्षक है । अशान्त से अशान्त मानव भी कहीं से कोई भी प्रकरण पढ़ना प्रारम्भ करते ही शान्ति का अनुभव करने लगता है । गहन से गहन बात को सरलता से समझाया गया है। वर्तमान के शिक्षित ग्रेजुएटों को स्वाध्याय की रुचि इससे होती है। जैनेतर समाज के लिए भी इसमें अध्ययन एवं मनन के लिए उत्कृष्ट सामग्री है। यह ग्रन्थ साम्प्रदायिकता से परे मात्र धर्म को ही सम्यक् रूप से निरूपण करनेवाला है, जो कि आज के समय की परमावश्यकता है । लेखक की विशाल दृष्टि, गहन अध्ययन एवं अनुभव का इसमें पूरा-पूरा आभास मिलता है । सांसारिक दुःखों से त्रस्त मानव को यह ग्रन्थ श्रेष्ठ पथप्रदर्शक एवं परम शान्ति का दाता है। वास्तव में सन्तों की वाणी स्व-परोपकारी होती है जो कि मानव को शान्ति की ओर आकृष्ट कर लेती है । इसीलिए शान्ति पाने के इच्छुक सज्जन इस ग्रन्थ का मनन कर लाभ प्राप्त करते रहें, यही कामना है। १२. श्रीमान टीकमचन्द जैन मालिक फर्म श्री घीसालाल जतनलाल बैंकर्स नसीराबाद - २१. २. ६३ भौतिक बाह्याडंबरों की चकाचौंध और इस युग - विशेष की अर्थोपार्जन की विभीषिका ने जब इस नश्वर संसार के मानव प्राणी की स्व पर की आध्यात्मिक चिन्तन शक्ति पर वज्रपात कर चैतन्यस्वरूप ज्ञाता दृष्टा, चिदानन्द चिद्स्वरूप आनन्दधन आत्मा को अज्ञान आवरण से आच्छादित कर दिया, तब ऐसे दुर्दम समय में शान्तिपथ के पथिक बनने में निराशा झलकती थी । परन्तु आशा की अलौकिक एवं विमल किरण उदित हुई कि हम सब मुमुक्षुओं को सौभाग्य से यह ग्रन्थराज जीवन के उपहार स्वरूप उपलब्ध हुआ । यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' ग्रन्थराज संजीवनी ने हम अल्पज्ञों को पुनर्जीवित ही नहीं किया है वरन् अमृतपान कराया है। इसके लिए हम सब शान्ति के उपासक, वन्दनीय पूज्य श्री १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमार वर्णी जी के अत्यधिक आभारी हैं कि जिनकी कुशाग्र एवं विमल बुद्धि के फलस्वरूप, तात्विक विवेचना इतनी वैज्ञानिक सरल भाषा में अनुपम उदाहरणों के साथ हो सकी है कि पाठकों के लिए हृदयस्पर्शी होकर नित्य स्वाध्याय की वस्तु हो गई है। इसी कारण यह मूल में भूल की वास्तविकता को बतलानेवाला यथावत् ग्रन्थ किसी एक ही समुदाय विशेष का न रहकर जाति-पाँति और वर्ण-भेद की संकीर्णता को छोड़कर इस युग-विशेष का जन-मानस ग्रन्थ बन गया है जो इस जैन समाज का गौरव है । अन्त में यह अनुमोदन करता हुआ कि— "परम शान्ति दीजे हम सबको पढ़ें जिन्हें पुनि चार संघ को " १३. उगमराज मोहनोत, मुंसिफ मैजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी नसीराबाद (राज०)— शान्तिपथ-प्रदर्शन पढ़कर मेरी आत्मा को अत्यन्त शान्ति प्राप्त हुई। इसमें कही हुई बातें आत्मा ही गहराई से निकली हुई अनुभव की बातें हैं । जो भाव व्यक्त किंवा अव्यक्त रूप से मेरे अन्तरंग में जोश मार रहे थे, लेकिन शास्त्र- ज्ञान से अपरिचित होने के करण जिन्हें प्रगट करने का साहस नहीं होता था, उन्हें डंके की चोट इस पुस्तक में देखकर आत्मा को बहुत सन्तोष हुआ। इसके लिए मैं लेखक का बहुत आभार मानता हुँ । इसके पढ़ने के बाद समयसार, प्रवचनसार, नियमसार इत्यादि अमूल्य ग्रन्थ रत्न आसानी से समझ में आ जाते हैं। मुमुक्षु बन्धुओं के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपकारी सिद्ध होगा. इसमें मझे सन्देह नहीं मालूम पड़ता । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xv) १४. पं० ज्ञानचन्द जैन 'स्वतन्त्र' सम्पादक और व्यवस्थापक 'जैनमित्र' सूरत - ३१. ७.६१ 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' ग्रन्थ ऐसे मर्मज्ञ विद्वान् और अखण्ड ब्रह्मचारी महानुभाव द्वारा लिखा गया है जो सचमुच में शान्ति- पथ पर चल रहा है। फिर इस ग्रन्थ द्वारा मानव समाज को शान्ति का मार्ग न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता और न माना जा सकता है । ग्रन्थ की यही विशेषता महानता और लोकप्रियता है कि कुछ महीनों में ही ग्रन्थ हाथों हाथ उठ गया है । अब इसके दूसरे संस्करण की प्रतीक्षा की जा रही है। मैं इस ग्रन्थ का एक बार अक्षरशः स्वाध्याय कर चुका हूँ, फिर भी यही बलवती भावना हो रही है कि पुनः एकबार पढूं । जिस साहित्य के पढ़ने में मन भीगा रहे और दोबारा पढ़ने की इच्छा हो और नवीनता मिले वही सत्साहित्य है । इससे अच्छी परिभाषा सत्साहित्य की और कोई नहीं हो सकती । ग्रन्थ के रचयिता महानुभाव को अत्यन्त शान्ति सुख की प्राप्ति हो । १५. पं० उग्रसेन M. A. LL. B. रोहतक - ३१. १२.६२ पूज्य बाल ब्र० १०५ क्षु० जिनेन्द्र कुमार जी द्वारा रचित शान्ति पथ-प्रदर्शन ग्रन्थ को पढ़ा। उनका यह कार्य अत्यन्त प्रशंसनीय है । इस ग्रन्थ में जैन धर्म का दिग्दर्शन विद्वान् लेखक ने बड़ी ही सरल तथा आकर्षक भाषा में वैज्ञानिक ढंग से कराया है। जैन धर्म का परिचय प्राप्त करने के इच्छुक जैन तथा अजैन सभी बन्धु इसको पढ़कर लाभ उठायेंगे । ग्रन्थ बड़ा उपयोगी है, जैन नवयुवकों में इस ग्रन्थ का प्रचार खूब होना चाहिये ताकि वे इसे पढ़कर अपने धर्म के सम्बन्ध में कुछ बोध प्राप्त कर सकें। परिषद् परीक्षा बोर्ड की उच्च कक्षाओं के धर्म शिक्षा कोर्स में यदि इसे रख लें तो अच्छा होगा । १६. जैन समाज के प्रसिद्ध कवि धन्यकुमार जैन 'सुधेश' - २७. ३. ६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ की उपयोगिता एवं महत्ता से मैं प्रभावित हुआ हूँ। श्री जिनेन्द्र जी स्वयं शान्तिपथ के सफल पथिक हैं । अत: उनकी इस रचना में सर्वत्र अनुभूति के दर्शन होते हैं । उनके द्वारा प्रदर्शित शान्ति- पथ पर चलकर संसार शान्ति प्राप्त कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं। उनका यह ग्रन्थ वास्तव में शान्ति पथ के पथिकों के लिए ज्योति स्तम्भ का कार्य करेगा। अतः श्री ब्र० जिनेन्द्रजी का यह प्रशस्त प्रयास प्रत्येक मानव द्वारा अभिनन्दनीय है । १७. श्री आदीश्वर प्रसाद जैन M.A. सेक्रेटरी जैन मित्र मण्डल, देहली शान्ति पथ-प्रदर्शन ग्रन्थ को सभी रूचि पूर्वक पढ़ रहे हैं। हमें यह बहुत ही उपयोगी व शिक्षाप्रद प्रतीत हुआ है । अन्य ग्रन्थों के पढ़ने में कभी इतनी रुचि और आनन्द नहीं आया। लेखन शैली बहुत ही आधुनिक है । १८. श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय डाल्मियानगर ब्रo जिनेन्द्र जी ने अध्यात्म सागर में बहुत गहरी डुबकी लगाकर मूल्यवान् रत्न निकाले हैं । १९. श्री मनोहर लाल जैन M. ५. श्री महावीर जी – १७.७.६१ 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' जैसे वैज्ञानिक एवं आधुनिक शैलीवाले ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए हार्दिक बधाई । प्राचीन शैलीवाले ग्रन्थों के पढ़ने में अभिरुचि न रखनेवाले युवकों के लिए इस प्रकार की शैली जहाँ आकर्षण का कार्य करती है वहाँ धार्मिकता के अंकुर उत्पन्न करने में भी सहायक बनती है । २०. श्री निहालचन्द पाण्डया, सेल्स टैक्स इन्सपेक्टर, टौंक शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ बहुत ही रहस्यमय प्रतीत हुआ। यहांकी जैन समाज उसे बहुत ही रुचि पूर्वक पढ़ रही है। २१. कु० विद्युल्लता शाह BA.B.T. प्रमुख दि० जैन श्राविकाश्रम शोलापुर - १२. २.६२ शान्तिपथ-प्रदर्शन पुस्तक बहुत पसन्द आयी । आश्रम की बाइयाँ इसे बहुत रुचि पूर्वक पढ़ रही हैं। मैं इसका मराठी में अनुवाद करना चाहती हूँ। इस विषय में ब्र० जिनेन्द्र जी की अनुमति तथा आशीर्वाद भेजने की कृपा करें । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xvi) २२. श्री पूरनचन्द जैन, मु० गढ़ाकोटा(सागर) -२.४.६१ शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ यथा-नाम तथा-गुण को चरितार्थ करता है । जिस मनोवैज्ञानिक ढंग से सरल रोचक शैली में ग्रन्थ कार ने विषयों को रखा है वह अतीव आकर्षक व प्रभावोत्पादक है। कोई भी प्रवचन शरू करने पर छोड़ने को जी नहीं चाहता। पूरे ग्रन्थ में किसी भी आचार्य के मूल शब्दों को न रखकर किसी विषय का अपनी शैली से विवेचन करना अतीव परिश्रम व अनुभव का कार्य है व मौलिक सूझ-बूझ है। भोजन-शुद्धि की सार्थकता का प्रतिपादन रूढ़ि के ढंग पर न करके वैज्ञानिक ढंग से किया है जो प्रभावशाली है। श्री वीरप्रभु से हार्दिक अभिलाषा है कि इस ग्रन्थ का प्रचार हो और लेखक को इस शैली के नये-नये ग्रन्थ रचने का उत्साह द्विगुणित हो । २३. दि० जैन स्वाध्याय मण्डल दमोह सौभग्य से शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ का स्वाध्याय कर शान्ति-प्रेमियों ने जो शान्ति का अनुभव किया है वह अवर्णनीय है, अतएव आप जयवन्त व प्रकाशवन्त रहें। २४. श्री प्रकाश हितैषी शास्त्री सम्पादक सन्मति सन्देश मैंने शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ आद्योपान्त पढ़ा। इसमें आत्म-कल्याण में प्रवृत्ति कराने के लिए अनुभवपूर्ण एवं शास्त्र-सम्मत विचारधारा देखने को मिली। श्री पूज्य क्षु० जिनेन्द्र जी वर्णी ने बड़े सरल एवं वैज्ञानिक ढंग से आर्ष सिद्धान्तों को अनुभव पूर्ण भाषा में प्रतिपादन कर समाज का महान् उपकार किया है। २५. स्वामी गीतानन्दजी, गीता भवन पानीपत___मैं श्री ब्र० जिनेन्द्र जी रचित शान्तिपथ-प्रदर्शन ग्रन्थ का अध्ययन करके यह प्रमाणित करता हूँ कि वास्तव में यह ग्रन्थ अपने नाम के अनुसार ही पाठकों को शान्तिपथ-प्रदर्शन करने में यथा योग्य सम्पूर्णतया समर्थ है । यद्यपि इस ग्रन्थ का अध्ययन मैंने अभी संक्षेप में ही किया है किन्तु अल्पकाल के थोड़े से अध्ययन मात्र से ही मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि लेखक ने किसी मत-मतान्तर का पक्ष न लेते हुये वैज्ञानिक ढंग से सरल हिन्दी भाषा में जो अपने अनुभवपूर्ण भाव प्रकट किये हैं वे नि:संदेह प्रशंसनीय हैं । अत: मैं शान्ति की इच्छुक श्रद्धालु जनता को प्रेरणा करता हूँ कि एक बार इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्यमेव करें। २६. श्री जय भगवान्जैन ऐडवोकेट शान्तिपथ-प्रदर्शन में संकलित प्रवचनों के प्रवक्ता का जहाँ यह अभिप्राय व्यक्त है कि वे लोक कल्याणार्थ सभी को शान्तिपथ-प्रदर्शन करा सकें उनका यह भी अभिप्राय रहा है कि तदर्थ प्रयुक्त होने वाली भाषा ऐसी सरल व सुबोध हो कि वह शिक्षित तथा अशिक्षित सभी के समझ में आ सके । कोई जमाना था कि तत्त्वज्ञों के अनुभूत व अनुसन्धानित तथ्यों को समझने के लिए उनके द्वारा आविष्कृत गूढ़ विशिष्ट परिभाषाओं को जान लेना आवश्यक होता था, जिसका परिणाम यह हुआ कि तात्त्विक विद्यायें कुछ इने-गिने विद्वानों की ही सम्पत्ति बन कर रह गई और जन-साधारण उनके रसास्वादन से वंचित रह गया, जो कभी भी तत्त्वज्ञों को अभिप्रेत न था। भाषा अन्तत: भाव-अभिव्यंजन का एक माध्यम मात्र है, इसीसे उसका महत्त्व व उपयोगिता बनी है, जैसा कि समयसार गाथा में भगवन् कुन्दकुन्द ने कहा है—'न शक्योऽनार्योऽनार्या भाषां बिना तू ग्राहयितुम्'। अनार्य जन आर्यभाषा को नहीं समझते अत: प्रवक्ता का कर्तव्य है कि जिस देश और युग की जनता को सन्देश देना अभीष्ट हो उन्हीं की भाषा और मुहावरों को अपनावे । इन प्रवचनों के प्रवक्ता ने इस दिशा में जो कदम उठाया है वह अत्यन्त सराहनीय और अभिनन्दनीय है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन के आरम्भ से ही जो लोकप्रियता मिली है उसके लिए नि:संदेह इसके प्रवक्ता महान् श्रेय के पात्र हैं। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य (नवम् संस्करण) अति हर्ष का विषय है कि “शान्ति पथ प्रदर्शन" की लोकप्रियता के फलस्वरूप इस ग्रन्थ का नवम् संस्करण प्रकाशित हो रहा है, इस ग्रन्थ का अष्टम् संस्करण सन् १९९८ में प्रकाशित हुआ था। उस समय भी अर्थ की व्यवस्था करके ३००० प्रतियाँ प्रकाशित कराई गयी थी, किन्तु दो वर्ष के अल्प समय में ही यह संस्करण समाप्त हो गया । श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला के प्रबन्धक श्री सुरेश कुमार जैन, वर्णी जी के परम शिष्य कर्मठ कार्यकर्ता ब्र० अरहंत जैन एवं विदूषी बा० ब० डा० मनोरमा जैन से विचार विमर्श के उपरान्त ही सभी प्रकार के प्रकाशन कार्य सम्पन्न किये जाते हैं । ग्रन्थमाला के कार्यों में गाजियाबाद निवासी श्री सूरजमल जैन एवं बा० ब्र० डॉ० कु० निर्मला जैन, वाराणसी का भी सहयोग प्राप्त होता रहता है । श्रुतज्ञान के पारगामी श्रद्धेय गुरुवर का साहित्य उनकी गहनतम् अनुभूतियों को मुखरित करता है। जैन तथा जैनेतर वाङ्मय के सूक्ष्म रहस्यों को जानने के लिये, उनका साहित्य कुन्जी का कार्य करता है, जिसके द्वारा स्वाध्यायशील व्यक्ति किसी भी ग्रन्थि को आसानी से खोल सकता है । समस्त स्वाध्याय प्रेमियों तथा मुमुक्षु जनों के प्रति मेरा विशेष आग्रह है, कि वे इसके अध्ययन से वंचित न रहें । २३ मई १९८१ को परम श्रद्धय गुरुदेव श्री जिनेन्द्र वर्णी जी के सानिध्य में ही स्थापित 'श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला' नामक यह संस्था उनके महत्वपूर्ण ग्रन्थों को प्रकाशित कराने में सक्षम हुई है। इस सफलता का समस्त श्रेय, श्रद्धेय गुरुदेव को ही है, जिनके शुभाशीर्वाद से हम उनके अमुल्य ग्रन्थों को प्रकाशित कराने में सफल हो सके हैं। अब तक इस ग्रन्थमाला के द्वारा, अनेक संस्करणों में ये साहित्य, १ शान्तिपथ प्रदर्शन, २ नय दर्पण, ३ वर्णी दर्शन, ४ कर्म रहस्य, ५ कर्म सिद्धान्त, ६ पदार्थ विज्ञान, ७ कुन्दकुन्द दर्शन, ८ सत्य दर्शन, ९ अध्यात्म लेखमाला, १० प्रभुवाणी, ११ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त एक अध्ययन, प्रकाशित हो चुका है। प्रकाशन में प्रेस का सारा कार्य भाई अरिहंत जी की देखरेख में होता है, ग्रन्थमाला आप की बहुत आभारी है। प्रस्तुत संस्करण में निम्न महानुभावों ने आर्थिक सहयोग देकर अपने धन का सदुपयोग किया है । ग्रन्थमाला सभी का हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करती है। जिनवाणी के प्रकाशनार्थ की गई उनकी यह निःस्वार्थ सेवा उनके अध्यात्म पथ को अवश्य ही प्रशस्त करेगी । १. बा० ब्र० डॉ० कुमारी मनोरमा जैन, रोहतक २. श्री अनिल कुमार जैन सुपुत्र श्री गोविन्द राम जैन, रोहतक ३. श्री सूरजमल जैन सुपुत्र स्व० श्री चतरसेन जैन, गाजियाबाद ४. श्री दिगम्बर जैन समाज, विकासनगर, देहरादून ५. श्रीमती सरोज जैन धर्मपत्नी स्व० रामगोपाल जैन (श्रीमती दर्शन देवी व श्री फकीर चन्द जैन की स्मृति में) ६. श्रीमती राजबाला जैन, पानीपत ११०००/ ५१००/ ५१००/ ५१००/ २१००/ ५०१/ श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला पानीपत Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र सूची चित्र सं० अध्याय धर्म का प्रयोजन शान्ति ___ शान्ति मार्ग जीव तत्त्व अजीव तत्त्व नियतिवाद सम्यग्दर्शन साधना साधना १२३ १२६ चित्र विवरण संसार वृक्ष वास्तव में महान हैं ये (ध्यानस्थ योगी) जो सबको तत्त्व दृष्टि से देखते हैं और स्वयं सच्ची शान्ति में निमग्न रहते हैं। उड़ रे पंछी ऊँचे-ऊँचे, आ अपने शिवपुर में। अरे जीव बारह भावनाओं से धर्म नौका की रक्षा कर ले, इसे संसार सागर में डूबने से बचा ले चल भले धीरे-धीरे चल । परन्तु जीव व अजीव तत्त्व का विवेक उत्पन्न करता चल। विवेक जागृत होने पर साधु बन जाएगा तू। समस्त वादों से अतीत आत्मस्वरूप में स्थित भगवचरणों में जाति विरोधी जीवों की मैत्री। सम्यग्दर्शन को प्राप्त जीवात्मा का परमात्मा स्वरूप। अन्त: शून्यं बहिशून्यं, चित्त शून्यं विकल्प मुक्तं । अन्त: पूर्ण बहिपूर्णं, शान्ति पूर्णं हि मोक्ष तत्त्वं ।। षट्लेश्या वृक्ष गुरु देशना को प्राप्त शिष्य साधना द्वारा समस्त विघ्नों को परास्त कर अपने भीतर अपना स्वरूप देख कर आश्चर्य चकित रह गया। शुभ करम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। धन्य है आपका वीरत्व, अन्तरंग तथा बहिरंग कोई भी शत्रु जिसे परास्त करने को समर्थ नहीं गुरु देशना को प्राप्त जीव बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् से शून्य केवल चिज्ज्योति, सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। यह है स्वाध्याय का प्रताप 'जैनेन्द्र प्रमाण कोष' । अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधो वैर त्याग: । ' बैक्टेरिया कर्व दया कर ओ मानव दया कर । जिनके गले पर तू छुरी चला रहा है, वे भी बाल बच्चेदार हैं। ये हैं दयालुता के आदर्श भगवान महावीर । अहिंसक का प्यार ही वाण से हत हंस की औषधि बन गया। "रूपातीत शक्लध्यान में स्थित नीरंग, निस्तरंग. शन्य चित्त ध्यानस्थ साधु ।” वीर भामाशाह का आदर्श अपरिग्रह व्रत । यह सब सम्पत्ति मेरी है ही कब विश्व की है, विश्व की रहेगी। गृहस्थ धर्म गुरु उपासना १२.८ १५५ गुरु उपासना १५७ स्वाध्याय अहिंसा भोजन शुद्धि भोजन शुद्धि १६४ १८० १८७ १९५ भोजन शुद्धि १९९ साधु धर्म २२७ अपरिग्रह . २३५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (xix) उत्तम क्षमा २४१ उत्तम आर्जव २४८ चित्त की शान्ति ही उत्तम क्षमा है। शान्त सरोवर में पड़े चन्द्रबिम्ब की भाँति इसी में तत्त्व प्रकाशित होता है । ज्ञानी बाहर में सोते हुए भी अन्तरंग में सदा जागते हैं। संस्कार सेना उनसे भय खाकर भाग जाती है। लोभ और माया की कुटिल वासनाओं के चक्कर में फंसकर क्यों पतिव्रता शान्ति सुन्दरी को अन्तर्गृह से नीचे धकेल रहा उत्तम शौच २५२ उत्तम सत्य २५६ उत्तम तप उत्तम तप उत्तम तप जिस प्रकार इस नारियल के भीतर उसकी सारभूत गिरी है उसी प्रकार तेरे शरीर के भीतर सत्य स्वरूप चेतन है। आतापन योग्य। वर्षा योग। संयम ही परम तप है। संयम अहिंसा है, संयम सत्य है, संयम विश्वप्रेम है, संयम चित्त विश्रान्ति है और संयम ही परम पद २६३ २६३ २६९ है। उत्तम त्याग २८३ उत्तम आकिंचन्य २८७ उत्तम ब्रह्मचर्य २९१ त्याग में है शान्ति और ग्रहण में है संघर्ष । (किले से निकलती सेना) । ज्यों ही मानस्तम्भ में विराजित समतामूर्ति पर दृष्टि गई, इन्द्रभूति की अन्तर्चेतना जागृत हो गई, अभिमान गलित होकर आकिंचन्य अवस्था को प्राप्त हो गए। पूर्ण ब्रह्मचारी हैं ये, उर्वशी तथा रम्भा सी देव कन्याएं भी जिन्हें विचलित करने को समर्थ नहीं। काल रूपी सिंह से कोई बचाने वाला नहीं। चारों गतियों में जो दुःख तूने भोगे उन्हें याद कर। अकेला ही सब सुख-दुःख भोगता है। -- इससे अधिक अपवित्र क्या है। तनिक चेचक निकल आए तो देख इसकी सुन्दरता तथा स्वच्छता तपसा निर्जराश्च । (आतापन तथा वर्षा योग) ३०. ३२. ३३. अशरण भावना संसार भावना एकत्व भावना अशुचि भावना २९५ २९६ २९७ २९८ निर्जरा भावन २९८ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूची सं० ६२ सं० विषय पृष्ठ विषय १. दर्शन खण्ड | ११. कार्यकारण व्यवस्था १. अध्ययन पद्धति १.कार्य शब्द. २. पंच समवाय, ३. स्वभाव, १. कार्य की प्रयोजकता, २. अध्ययन के विन, ४. निमित्त, ५. निमित्तोपादन मैत्री, ३. वक्ता की प्रमाणिकता, ४. विवेचन के दोष, ६. पुरुषार्थ । ५. श्रोता के दोष, ६. महाविध पक्षपात, १२. नियतिवाद ६८ ७. वैज्ञानिक बन, ८. पक्षपात निरसन। १. नियति तथा भवितव्य, २. नियति की २. धर्म का प्रयोजन सिद्धि, ३. अनेकों प्रश्न, ४. नियति पुरुषार्थ, १. अन्तर की माँग, २. विज्ञान-विधि, ३. सत्य ५.नियति निमित्त, ६. अकाल मृत्यु, पुरुषार्थ, ४. इच्छा गर्त, ५. संसारवृक्ष । ७. आगम आज्ञा, ८. सर्वांगीण मैत्री। ३. शान्ति २०|१३. आस्रव तत्त्व ७६ १. भोग महारोग, २. चतुर्विध शान्ति, . १. पारमार्थिक अपराध, २. कार्मण शरीर, ... ३. सच्ची शान्ति । ३. द्विविध अपराध, ४. रागद्वेष, ५. क्रिया की ४. धर्म का स्वरूप अनिष्टता। १. सच्चा धर्म, २. धर्म का लक्षण, पुण्यास्त्रव ८० ३. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार । १. पुण्य भी अपराध, २. पुण्य भी पाप, ५. शान्ति मार्ग ३. इच्छा दर्शन, ४. पुण्य में पाप, ५. ज्ञानी १. वयात्मक पथ, २. लक्ष्य बिन्दु, ३. श्रद्धा, का पुण्य, ६. अभिप्राय का फेर, ४. चारित्र। ७. पुण्य-समन्वय, ८. मनोविज्ञान, ६. तत्त्वार्थ ९. चतुर्विध क्रिया। १. सात तथ्य, २. तत्त्व, ३. तत्त्वार्थ । | १५. बन्ध तत्त्व ७. जीव तत्त्व १. बड़ी भूल, २. संस्कार-निर्मिति । १. 'मैं' की खोज, २. जीवराशि, | १६. संवर तत्त्व ३. स्थावरकाय में जीवन-सिद्धि, ४. अन्तस्तत्त्व, १. भूल-निवृत्ति, २. संस्कार-निवृत्ति । ५. शान्ति मेरा स्वाभाव, ६. शान्ति की खोज, | १७. निर्जरा तत्त्व ७. जल में मीन प्यासी। १. निर्जरा, २. संस्कार-क्षति, ३. प्रतिकूल अजीव तत्त्व वातावरण, ४. संवर में निर्जरा । १. द्विविध जगत्, २. अजीव तत्त्व, मोक्ष तत्त्व ३. शरीर। १. मोक्ष तत्त्व, २. काल्पनिक मोक्ष, ३. भाव ९. विवेक ज्ञान मोक्ष। १. विवेक, २. सदसद् विवेक, ३. स्व-पर | १९. सम्यग्दर्शन १०१ विवेक, ४. षट्कारकी स्वतन्त्रता, ५. जन्ममृत्यु १.पंचलक्षण समन्वय, २.विविध अंग। रहस्य, ६. उत्पाद व्यय ध्रौव्य,७. भेद-विज्ञान । २०. समन्वय १११ ज्ञानधारा कर्मधारा १. सप्त तत्त्व समन्वय, २. रत्नत्रय समन्वय, १.स्व भज पर तज.२.जानकर्म-विवेक. ३. स्याद्वाद, ४. उपसंहार । ३. सत्य पुरुषार्थ । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ | सं० (xxi) विषय विषय पृष्ठ २. साधना खण्ड २९. तप २०० २१. साधना ११९ १. सामान्य परिचय, २. भय-निवृत्ति, १. महाविध, २. षट्लेश्या वृक्ष, ३. शक्ति-वर्द्धन, ४. शरीर का सार्थक्य, ३. आभ्यन्तर साधना, ४. बाह्य साधना, ५. मानस तप,६. नव-संस्कार। ५.समन्वय। |३०. दान २०८ २२. गृहस्थ धर्म १२७ | १. सहज दान, २. दानधर्म, ३. पात्रापात्र १. सामान्य परिचय। विचार, ४. पात्र दान, ५. सामाजिक दान । २३. देवपूजा १२९/३१. श्रावक धर्म २१३ १. आदर्श भिखारी, २. आदर्श दाता, १. शान्ति का संस्कार, २. स्वाभाविक ३. आदर्श देव, ४. आदर्श पूजा, ५. अष्ट द्रव्य वैराग्य. ३. अभ्यास की महत्ता. ४. शल्य पूजा, ६. शंका समाधान—( देव विषयक, ५. अणुव्रती, ६. सामायिक, ७. दोषों की ii. पूजा विषयक, iii. प्रतिमा विषयक, सम्भावना, ८. अतिचार और अनाचार, in मन्दिर विषयक)। ९. आगे बढ़। २४. गुरु उपासना १५०/३२. साधु धर्म २२० १. पुनरावृत्ति, २. गुरु कौन, ३. आदर्श शिक्षा, १. सामान्य परिचय, २. इन्द्रिय-जय, ४. आदर्श उपासना, ५. पराश्रय में स्वाश्रय, ३. महाव्रत, ४. समिति, ५. षड् आवश्यक, ६. सच्चे गुरु। ६. गुप्ति, ७. धर्म, ८. अनुप्रेक्षा, २५. स्वाध्याय १५८ ९. परिषहजय, १०. चारित्र, ११. तप, १. स्वाध्याय का महत्त्व, २. शास्त्रविनय, १२. महिमा। ३. शास्त्र क्या, ४. प्रयोजनीय विवेक । ३३. अपरिग्रह २२८ २६. संयम १६५ | १. दिगम्बरत्व, २. लंगोटी भी भार, १. संयम सामान्य, २. प्रेरणा, ३. इन्द्रियविषय , । ३. लक्ष्य पूर्ति, ४. अपरिग्रहता साम्यवाद, विभाजन, ४. अन्तरंग व बाह्य संयम, ५. आंशिक अपरिग्रहता, ६. परिग्रह स्वयं ५. इन्द्रिय संयम, ६. प्राण संयम, ७. पंच पाप, दुःख,७. अपरिग्रहता स्वयं सुख। ८. हिंसा, ९. संयम का प्रयोजन, १०.विश्व । ३४. उत्तम क्षमा २३६ प्रेम, ११. तात्त्विक समन्वय। १. सामान्य परिचय, २. गृहस्थ की क्षमा, २७. अहिंसा १७८ क्षमा, ४. अध्यात्म सम्बोधन, १. कर्त्तव्य विवेक, २. यत्नाचारी अहिंसा, ५. गृहस्थ को प्रेरणा। ३. विरोधी हिंसा में अहिंसा, ४. शत्रु कौन, |३५. उत्तम मार्दव २४२ ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं। १. अभिमान, २. आत्म सम्बोधन, २८. भोजन शुद्धि १८४] ३. लोकेषणा दमन। १. तामस राजस विवेक, २. भक्ष्याभक्ष्य विवेक, उत्तम आर्जव २४६ ३. बैक्टेरिया विज्ञान, ४. मर्यादा काल, १. सामान्य परिचय, २. गृहस्थ की ५. छूआछूत, ६. मन वचन काय शुद्धि, कुटिलता, ३. साधु की कुटिलता, ७. आहार शुद्धि,८. मांस निषेध, ९. मछली ४. आत्म-सम्बोधन। अण्डा निषेध, १०. चर्म निषेघ, ११. दूध दही ३७. उत्तम शौच २४९ की भक्ष्यता, १२. समन्वय। १. सच्चा शौच, २. गंगा तीर्थ, ३. लोभ पाप का बाप। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० ३८. विषय उत्तम सत्य १. सत्यासत्य विवेक, २. दशविध सत्य, ३. परम सत्य । ३९. उत्तम संयम ९. यम व नियम, २. इन्द्रिय संयम, ३. प्राण संयम, ४. परम संयम । ४०. उत्तम तप १. परिचय, २. षड्विध बाह्य तप, ३. षड्विध आभ्यन्तर तप । ४१. ध्यान १. ध्यान सामान्य, २. ध्यान विधि, ३. आर्त्तरौद्र ध्यान, ४. धर्म्म ध्यान, ५. मन्त्र जाप्य, ६. स्तोत्र पाठ, ७. भावना भावन, ८. तत्त्व चिन्तन, ९. निरीह वृत्ति, १०. पदस्थार्दि ध्यान, ११. शुक्ल ध्यान । ४२. उत्तम त्याग १. त्याग व ग्रहण, २. आदर्श त्याग । ४३. उत्तम आकिञ्चन्य १. साध्यासाध्य विवेक, २. दृढ़ संकल्प, ३. आकिञ्चन्य, ४. सच्चा त्याग । (xxii) पृष्ठ सं० २५३ ४४. २५७ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २६० २७० २८१ विषय उत्तम ब्रह्मचर्य १. ब्रह्मचर्य, २. ब्रह्मचारी, ३. क्रमोन्नत विकास । २८४ १. परिषहजय, २. अनुप्रेक्षा, ३. कल्पनाओं का माहात्म्य, ४. बारह भावनायें । ४६. चारित्र १. सामान्य परिचय, २ . पंचविध चारित्र, ३. समन्वय - ४७. सल्लेखना १. उपासक की गर्जना, २. देह - सम्बोधन, ३. समता, ४. समाधि-मरण, ५. आत्महत्या नहीं । ४८. उपसंहार १. निश्चय व्यवहार मैत्री । पृष्ठ २८८ २९२ ३०० ३०३ ३०७ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य मुनि श्री विद्यासागर जी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( शान्ति पथ प्रदर्शन ) ॐ मंगलाचरण ॐ कार्तिक के पूर्ण चन्द्रमा वत तीन लोक में शान्ति की शीतल ज्योति फैलाने वाले हे शान्ति चन्द्र वीतराग प्रभु ! जिस प्रकार प्रारम्भ में ही जग के इस अधम कीट को, भाई बन्धुओं की राग रूप कर्दम से बाहर निकाल कर आपने इस पर अनुग्रह किया है, उसी प्रकार आगे भी सदा उसकी सम्भाल करना। संस्कारों को ललकार कर उनके साथ अद्वितीय युद्ध ठानने वाले महा पराक्रमी बाहुबली ! जिस प्रकार कर्दम से बाहर निकाले गए इस कीट के सर्व दोषों को क्षमा कर इसका बाह्य मल आपने पूर्व में ही धोया था, उसी प्रकार आगे भी इस निर्बल को बल प्रदान करना । ताकि पुन: मल की ओर इसका गमन न हो। महान उपसर्ग विजयी हे नागपति ! जिस प्रकार व्रतों की यह निधि प्रदान कर, इस अधम का आपने उस समय उद्धार किया था, उसी प्रकार आगे भी इसे उस महान विधान से वञ्चित न रखना। हे विश्व मातेश्वरी सरस्वती ! कुसंगति में पड़ा मैं आज तक तेरी अवहेलना करता हुआ, अनाथ बना दर दर की ठोकरें खाता रहा। माता की गोद के सुख से वंचित रहा। अब मेरे सर्व अपराधों को क्षमा कर । मुझे अपनी गोद में छिपा कर भव के भय से मुक्त कर दे। हे वैराग्य आदर्श गुरूवर ! मुझको अपनी शरण में स्वीकार किया है, तो अब अत्यन्त शुभ चन्द्र ज्योति प्रदान करके मेरे अज्ञान अन्धकार का विनाश कीजिये। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन खण्ड सर्व-समभावी-धर्म, स्वानुभूति-रस-मर्म निर्द्वन्द्व - मनो - विश्रान्ति चन्दासम शीतल शान्ति Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अध्ययन पद्धति १. कार्य की प्रयोजकता; २. अध्ययन के विघ्न; ३. वक्ता की प्रमाणिकता; ४. विवेचन के दोष; ५. . श्रोता के दोष; ६. महाविघ्न पक्षपात ७. वैज्ञानिक बन; ८. पक्षपात निरसन । चिदानन्दैक रूपाय शिवाय परमात्मने । परमलोकप्रकाशाय नित्यं शुद्धात्मने नमः ॥ “नित्य शुद्ध उस परमात्म तत्त्व को नमस्कार हो, जो परम-लोक का प्रकाशक है, कल्याणस्वरूप है और एक मात्र चिदानन्द ही जिसका लक्षण है ।" स्वदोष - शान्त्या विहिताऽत्मशान्तिः, शान्तेर्विधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भव-क्लेश- भयोपशान्त्यै, शान्तिर्जिनो मे भगवान् शरण्यः ॥ जिन्होंने अपने दोषों को अर्थात् अज्ञान तथा काम क्रोधादिको शान्त करके अपनी आत्मा में शान्ति स्थापित की है, और जो शरणागतों के लिये शान्ति के विधाता हैं वे शान्तिनाथ भगवान् मेरे लिये शरणभूत हों । १. कार्य की प्रयोजकता — अहो ! शांति के आदर्श वीतरागी गुरुओं की महिमा, जिसके कारण आज इस निकृष्ट काल में भी, जब कि चहुं ओर हाय पैसा हाय धन के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता, कहीं-कहीं इस कचरे में दबी यह धर्म की इच्छा दिखाई दे ही जाती है । आप सब धर्म- प्रेमी बन्धुओं में उसका साक्षात्कार हो रहा है। यह सब गुरुओं का ही प्रभाव है। सौभाग्य है हम सभी का, कि हमें वह आज प्राप्त हो रहा है। लोक पर दृष्टि डालकर जब यह अनुमान लगाने जाते हैं, कि ऐसे व्यक्ति जिनको कि गुरुओं का यह प्रसाद प्राप्त हुआ है कितने हैं, तो अपने इस सौभाग्य प्रति कितना बहुमान उत्पन्न होता है अपने अन्दर ? सर्वलोक ही तो इस धर्म की भावना से, या इसके सम्बन्ध में सुनने मात्र की भावना से शुन्य है। आज के लोक को तो यह 'धर्म' शब्द भी कुछ कडुआ सा लगता है। ऐसी अवस्था हमारे अन्दर धर्म के प्रति उल्लास ? सौभाग्य है यह हमारा । परन्तु कुछ निराशा सी होती है यह देखकर, कि धर्म के प्रति की भावना का यह भग्नावशेष क्या काम आ रहा है मेरे ? पड़ा है अन्दर में यों ही बेकार सा । कुछ दिन के पश्चात् विलीन हो जायेगा धीरे-धीरे, और मैं भी जा मिलूंगा उन्हीं की श्रेणी में, जिनको कि इसके नाम से चिड़ है। बेकार वस्तु का पड़ा रहना कुछ अच्छा भी ती नहीं लगता। फिर उसके पड़े रहने से लाभ भी क्या है ? समय बरबाद करने के सिवाय निकलता ही क्या है उसमें से ? उस भावना के दबाव के कारण कुछ न चाहते हुए भी, रुचि न होते हुए भी, जाना पड़ता है मन्दिर में, या पढ़ता हूँ शास्त्र, या कभी चला जाता हूँ किसी ज्ञानी के उपदेश में। मैं स्वयं नहीं जानता कि क्यों ? क्या मिलता है वहां ? कभी-कभी उपवास भी करता हूँ देखादेखी, पर क्षुधा की पीड़ा में रखा ही क्या है ? चलो फिर भी यह सोचकर कि लाभ न सही हानि भी तो कुछ नहीं है, अपनी एक मान्यता ही पूरी हो जायेगी, चला जाता हूँ मन्दिर में। बाप दादा से चली आ रही मान्यता की रक्षा करना भी तो मेरा कर्त्तव्य है ही । भले मूर्ति के दर्शन से कुछ मिल न सकता हो, वह मेरी रक्षा न कर सकती हो मुझ पर प्रसन्न होकर, परन्तु कुछ न कुछ पुण्य तो होगा ही । भले समझ न पाऊँ, क्या लिखा है शास्त्र में, पर इसे पढ़ने का कुछ न कुछ फल तो मिलेगा ही आगे जाकर, अगले भव में मुझे । इन पण्डित जी ने या इन क्षुल्लक महाराज ने या इन ब्रह्मचारी जी ने क्या कहा है, भले कुछ न जान पाऊँ, पर कान में कुछ पड़ा ही तो है ? कुछ तो लाभ हुआ ही होगा उसका, और इस प्रकार की अनेक धारणाएँ धर्म के सम्बन्ध में होती हैं। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. अध्ययन के विन १. अध्ययन पद्धति निष्प्रयोजन उपर्युक्त क्रियायें करके संतुष्ट हो जानेवाले भी चेतन ! क्या कभी विचार किया है इस बात पर, कि तू क्या कर रहा है, यहाँ क्यों कर रहा है, और इसका परिणाम क्या निकलेगा? लोक में कोई भी कार्य बिना प्रयोजन तू करने को तैयार नहीं होता, यहाँ क्यों हो रहा है ? अनेक जाति के व्यापार हैं लोक में, अनेक जाति के उद्योग धन्धे हैं लोक में, परन्तु क्या तू सबकी ओर ध्यान देता है कभी? उसी के प्रति तो ध्यान देता है कि जिससे तेरा प्रयोजन है? अन्य धन्धों में भले अधिक लाभ हो पर वह तेरे किस काम का? किसी भी कार्य को निष्प्रयोजन करने में अपने पुरुषार्थ को खोना मूर्खता है। आश्चर्य है कि इतना होते हए भी उस भावना के इस भग्नावशेष को कहा जा रहा है तेरा सौभाग्य । ठीक है प्रभ! वह फिर भी तेरा सौभाग्य है । क्योंकि उन व्यक्तियों को तो, जिन्हें कि इसका नाम सुनना भी नहीं रुचता इसके प्रयोजन व इसकी महिमा का भान होना ही असम्भव है ; इसको अपनाकर लाभ उठाने का तो प्रश्न ही क्या? परन्तु इस तुच्छमात्र निष्प्रयोजन भावके कारण तुझे वह अवसर मिलने का तो अवकाश है ही कि जिसे पाकर तू समझ सकेगा इसके प्रयोजन को व इसकी महिमा को । और यदि कदाचित् समझ गया तो, कृतकृत्य हो जायेगा तू, स्वयं प्रभु बन जायेगा तू । क्या यह कोई छोटी बात है ? महान् है यह । क्योंकि तुझे अवसर प्राप्त हो जाते हैं कभी-कभी ज्ञानी जनों के सम्पर्क में आने के जो बराबर प्रयत्न करते रहते हैं तुझे यह समझाने का कि धर्म का प्रयोजन क्या है और इसकी महिमा कैसी अद्भुत है । यह अवसर उनको तो प्राप्त ही नहीं होता, समझेंगे क्या बेचारे? अनेक बार आज तक तुझे ऐसे अवसर प्राप्त हो चुके हैं, पूर्व भवों में, और प्राप्त हो रहे हैं आज । बस यही तो तेरा सौभाग्य है, इससे अधिक कुछ नहीं। “अनेक बार सुना है मैंने धर्म का स्वरूप व उसका प्रयोजन व उसकी महिमा । परन्तु सुनकर भी क्या समझ पाया हूँ कुछ ? अत: यह सौभाग्य भी हुआ न हुआ बराबर ही हुआ", ऐसा न विचार । क्योंकि अबतक भले न समझ पाया हो, अबकी बार अवश्य समझ जायेगा, ऐसा निश्चय है। विश्वास कर, आज बही सौभाग्य जाग्रत हो गया है जो पहले सुप्त था। २. अध्ययन के विघ्न न समझने के कारण कई हैं। वे सब कारण टल जायें तो क्यों न समझेगा? पहला कारण है तेरा अपना प्रमाद, जिसके कारण तू स्वयं करता हुआ भी, अन्दर में उसे कुछ फोकट की व बेकार की वस्तु समझे हुए है, जिसके कारण कि तू इसके समझने में उपयोग नहीं लगाता ; केवल कानों में शब्द पड़ने मात्र को सुनना समझता है, वचनों के द्वारा बोलने मात्र को पढ़ना समझता है और आँख के द्वारा देखने मात्र को दर्शन समझता है । दूसरा कारण है वक्ता की अप्रमाणिकता। तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता । चौथा कारण है विवेचन-क्रम का लम्बा विस्तार जो कि एक दो दिन में नहीं बल्कि महीनों तक बराबर कहते रहने पर ही पूरा होना सम्भव है। और पाँचवा कारण है श्रोता का पक्षपात। पहिला कारण तो तू स्वयं ही है। जिसके सम्बन्ध में कि ऊपर बता दिया गया है। यदि इस बात को फोकट की न समझकर वास्तव में कुछ हित की समझने लगे, कानों में शब्द पड़ने मात्र से सन्तुष्ट न होकर वक्ता के या उपदेष्टा के या शास्त्रों के उल्लेख के अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करने लगे, तो धर्म की महिमा अवश्य समझ में आ जावे। शब्द सुने जा सकते हैं पर अभिप्राय नहीं। वह वास्तव में रहस्यात्मक होता है, परोक्ष होने के कारण और इसीलिये उन-उन वाचक शब्दों का ठीक वाच्य नहीं बन रहा है। क्योंकि किसी भी शब्द को सुनकर उसका अभिप्राय आप तभी तो समझ सकते हैं, जबकि उस पदार्थ को, जिसकी ओर कि वह शब्द संकेत कर रहा है, आपने कभी छूकर देखा हो, सूंघ कर देखा हो, आँख से देखा हो, अथवा चखकर देखा हो । आज मैं आपके सामने अमरीका में पैदा होने वाले किसी फल का नाम लेने लगं, तो आप क्या समझेंगे उसके सम्बन्ध में? शब्द कानों में पड़ जायेगा और कुछ नहीं। इसी प्रकार धर्म का रहस्य बताने वाले शब्दों को सुनकर क्या समझेंगे आप? जब तक कि पहले उन विषयों को जिनके प्रति कि वे शब्द संकेत कर रहे हैं, कभी छूकर, सूंघकर, देखकर व चखकर न जाना हो आपने । इसीलिये उपदेश में कहे जानेवाले अथवा शास्त्र में लिखे शब्द ठीक-ठीक अपने अर्थका प्रतिपादन करने को वास्तव में असमर्थ हैं । वे केवल संकेतकर सकते हैं किसी विशेष दिशा की ओर । वह बता सकते हैं कि अमुक स्थान पर पड़ा है आपका अभीष्ट । यह Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अध्ययन पद्धति ३. वक्ता की प्रमाणिकता भी बता सकते हैं, कि वह आपके लिये उपयोगी है कि अनुपयोगी । परन्तु वह पदार्थ आपको किसी भी प्रकार दिखा नहीं सकते । हां, यदि शब्द के उन संकेतों को धारण करके, आप स्वयं चलकर, उस दिशा में जायें, और उस स्थान पर पहँचकर स्वयं उसे उपयोगी समझकर चखेंउसका स्वाद लें. किसी भी प्रकार से. तो उस शब्द के रह अवश्य सकते हैं। ३. वक्ता की प्रमाणिकता—'धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा क्या है ? ' यह समस्या है, उसको सुलझाने के पाँच कारण बतलाये गये थे कल । पहिला कारण था इस विषय को फोकट का समझना तथा उसको रुचिपूर्वक न सुनना । उसका कथन हो चुका । अब दूसरे कारण का कथन चलता है। दूसरा कारण है वक्ता की अपनी अप्रमाणिकता । आज तक धर्म की बात कहनेवाले अनेक मिले, पर उनमें से अधिकतर वास्तव में ऐसे थे, कि जिन बेचारों को स्वयं उसके सम्बन्ध में कुछ खबर न थी। और यदि कुछ जानकार भी मिले तो उनमें से अधिकतर ऐसे थे जिन्होंने शब्दों में तो यथार्थ धर्म के सम्बन्ध में कछ पढा था. शब्दों में कछ जाना भी था, पर स्वयं उसका स्वाद नहीं चखा था। अव्वल तो कदापि ऐसा मिला ही नहीं, जिसने कि उसकी महिमा को जाना हो, और यदि सौभाग्यवश मिला भी तो कथन पद्धति आगम के आधार पर रही। उन शब्दों के द्वारा व्याख्यान करने लगा, जिनके रहस्यार्थ को आप जानते न थे, सुनकर समझते तो क्या समझते? ज्ञान की अनेक धारायें हैं । सर्व धाराओं का ज्ञान किसी एक साधारण व्यक्ति को होना असम्भव है। आज लोक में कोई भी व्यक्ति अनधिकृत विषय के सम्बन्ध में कुछ बताने को तैयार नहीं होता। यदि किसी सुनार से पूछे कि यह मेरी नब्ज तो देख दीजिये, क्या रोग है, और क्या औषध लूं? तो कहेगा कि वैद्य के पास जाइये, मैं वैद्य नहीं हूँ, इत्यादि । यदि किसी वैद्य के पास जाकर कहूँ कि देखिये तो यह जेवर खोटा है कि खरा? खोटा है तो कितना खोटा है? तो अवश्य यही कहेगा कि सुनार के पास जाओ, मैं सुनार नहीं हूँ, इत्यादि । परन्तु एक विषय इस लोक में ऐसा भी है, जो आज किसी के लिए भी अनधिकृत नहीं। सब ही मानो जानते हैं उसे। और वह है धर्म । घर में बैठा, राह चलता, मोटर में बैठा, दुकान पर काम करता, मन्दिर में बैठा या चौपाल में झाडू लगाता कोई भी व्यक्ति आज भले कुछ और न जानता हो पर धर्म के सम्बन्ध में अवश्य जानता है वह । किसी से पूछिये, अथवा वैसे ही कदाचित् चर्चा चल जाये, तो कोई भी ऐसा नहीं है कि इस फोकट की वस्तु 'धर्म' के सम्बन्ध में कुछ कल्पना के आधार पर बताने का प्रयत्न न करे। भले स्वयं उसे यह भी पता न हो कि धर्म किस चिड़िया का नाम है। भले इस शब्द से भी चिड़ हो उसे, पर आपको बताने के लिये वह कभी भी टांग अड़ाये बिना न रहेगा। स्वयं उसे अच्छा न समझता हो अथवा स्वयं उसे अपने जीवन में अपनाया न हो, पर आपको उपदेश देने से न चूकेगा कभी। सोचिये तो, क्या धर्म ऐसी ही फोकट की वस्तु है ? यदि ऐसा ही होता तो सबके सब धर्मी ही दिखाई देते । पाप, अत्याचार, अनर्थ आदि शब्द व्यर्थ हो जाते। परन्तु सौभाग्यवश ऐसा नहीं है। धर्म फोकट की वस्तु नहीं है। यह अत्यन्त महिमावन्त है। सब कोई इसको नहीं जानते । शास्त्रों के पाठी बड़े-बड़े विद्वान भी सभी इसके रहस्य को नहीं पा सकते । कोई बिरला अनुभवी ही इसके पार को पाता है। बस वही हो सकता है प्रमाणिक वक्ता । इसके अतिरिक्त अन्य किसी के मुख से धर्म का स्वरूप सुनना ही इस प्राथमिक स्थिति में, आपके लिये योग्य नहीं। क्योंकि अनेक अभिप्रायों को सुनने से, भ्रम में उलझकर झुंझलाये बिना न रह सकोगे। जितने मुख उतनी ही बातें, जितने उपदेश उतने ही आलाप, जितने व्यक्ति उतने ही अभिप्राय । सब अपने-अपने अभिप्राय का ही पोषण करते हुए वर्णन कर रहे हैं धर्म के स्वरूप का सच्ची समझोगे ? क्योंकि सब बातें होंगी एक दूसरे को झूठा ठहराती, परस्पर विरोधी। वक्ता की किञ्चित प्रमाणिकता का निर्णय किए बिना जिस किसी से धर्म चर्चा करना या उपदेश सुनना योग्य नहीं। परन्तु इस अज्ञान दशा में वक्ता की प्रमाणिकता का निर्णय कैसे करें? ठीक है तुम्हारा प्रश्न । है तो कुछ कठिन काम पर फिर भी सम्भव है। कुछ बुद्धि का प्रयोग अवश्य माँगता है, और वह तुम्हारे पास है। धेले की वस्तु की परीक्षा करने के लिए तो आप में काफी चतुराई है। क्या जीवन की रक्षक अत्यन्त मूल्यवान इस वस्तु की परीक्षा न कर सकोगे? अवश्य कर सकोगे। पहिचान भी कठिन नहीं। स्थूलत: देखने पर जिसके जीवन में उन बातों की झांकी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. श्रोता के दोष १. अध्ययन पद्धति में इस दिखाई देती हो जो कि वह मुख से कह रहा हो, अर्थात् जिसका जीवन सरल, शान्त व दयापूर्ण हो, जिसके शब्दों में माधुर्य हो, करुणा हो और सर्व सत्व का हित हो, सभ्यता हो, जिसके वचनों में पक्षपात की बू न आती हो, जो हठी न हो, सम्प्रदाय के आधार पर सत्यता को सिद्ध करने का प्रयत्न न करता हो. वाद विवाद रूप चर्चा करने से डरता हो आपके प्रश्नों को शान्तिपूर्वक सुनने की जिसमें क्षमता हो, तथा धैर्य से व कोमलता से उसे समझाने का प्रयत्न करता हो, आपकी बात सुनकर जिसे क्षोभ न आ जाता हो, जिसके मुख पर मुस्कान खेलती हो, विषय भोगों के प्रति जिसे अन्दर से कुछ उदासी हो, प्राप्त-विषयों के भोगने से भी जो घबराता हो तथा उनका त्याग करने से जिसे सन्तोष होता हो, अपनी प्रशंसा सुनकर कुछ प्रसन्नसा और अपनी निन्दा सुनकर कुछ रुष्टसा हुआ प्रतीत न होता हो, तथा अन्य भी अनेक इसी प्रकार के चिन्ह हैं जिनके द्वारा स्थूल रूप से आप वक्ता की परीक्षा कर सकते हैं। ४. विवेचन के दोष-तीसरा कारण है विवेचन की अक्रमिकता। अर्थात् यदि कोई अनुभवी ज्ञानी भी मिला और सरल भाषा में समझाना भी चाहा तो भी अभ्यास न होने के कारण या पढ़ाने का ठीक ठीक ढंग न आने के कारण, या पर्याप्त समय न होने के कारण, क्रम पूर्वक विवेचन कर न पाया, क्योंकि उस धर्म का स्वरूप बहुत विस्तृत है, जो थोड़े समय में या थोड़े दिनों में ठीक-ठीक हृदयंगत कराया जाना शक्य नहीं है। भले ही वह स्वयं उसे ठीक समझता हो, पर समझने और समझाने में अन्तर है । समझा एक समय में जा सकता है, और समझाया जा सकता है क्रमपूर्वक काफी लम्बे समय में । समझाने के लिये 'क' से प्रारम्भ करके 'ह' तक क्रमपूर्वक धीरे-धीरे चलना होता है, समझने वाले की पकड़ के अनुसार । यदि जल्दी करेगा तो उसका प्रयास विफल हो जायेगा। क्योंकि अनभ्यस्त श्रोता बेचारा इतनी जल्दी पकड़ने में समर्थ न हो सकेगा। इसलिए इतने झंझट से बचने के लिए तथा श्रोता समझ बात की परवाह किये बिना अधिकतर वक्ता, अपनी रुचि के अनुसार पूरे विस्तार में से बीच-बीच के कुछ विषयों का विवेचन कर जाते हैं, और श्रोताओं के मख से निकली वाह-वाह से तप्त होकर चले जाते हैं। श्रोता के कल्याण की भावना नहीं है उन्हें, है केवल इस 'वाह-वाह' की। क्योंकि इस प्रकार सब कुछ सुन लेनेपर भी, वह तो रह जाता है कोरा का कोरा । उस बेचारे का दोष भी क्या है? कहीं-कहीं के टूटे हुए वाक्यों या प्रकरणों से अभिप्राय का ग्रहण हो भी कैसे सकता है ? _ और यदि बुद्धि तीव्र है श्रोता की, तो इस अक्रमिक विवेचन को पकड़ तो लेगा पर वह खण्डित पकड़ उसके किसी काम न आ सकेगी। उल्टा उसमें कुछ पक्षपात उत्पन्न कर देगी, उन प्रकरणों का, जिन्हें कि पकड़ पाया है। और वह द्वेषवश काट करने लगेगा उन प्रकरणों का, जिन्हें कि वह या तो सुनने नहीं पाया और यदि सुना भी है तो पूर्वोत्तर मेल न बैठने के कारण, एक दूसरे के सहवर्तीपन को जान नहीं पाया। दोनों को पृथक-पृथक अवसरों पर लागू करने लगा और प्रत्येक अवसर पर दूसरे का मेल न बैठने के कारण काट करने लगा उसकी । इस प्रकार कल्याण की बजाय कर बैठा अकल्याण; हित की बजाय कर बैठा अहित, प्रेम की बजाय कर बैठा द्वेष । अथवा यदि सौभाग्यवश कोई अनुभवी वक्ता भी मिला और क्रमपूर्वक विवेचन भी करने लगा, तो श्रोता को बाधा हो गई। अधिक समय तक सुनने की क्षमता न होने के कारण, या परिस्थितिवश प्रतिदिन न सुनने के कारण या अपने किसी पक्षपात के कारण किसी श्रोता ने सन लिया उस सम्पर्ण विवेचन का एक भाग, और किसी ने सन लिया दूसरा भाग। फल क्या हुआ? वही जो कि अक्रमिक विवेचन में बताया गया। अन्तर केवल इतना ही है, कि वहाँ वक्ता में अक्रमिकता थी और यहाँ है श्रोता में । वहाँ वक्ता का दोष था, और यहाँ है श्रोता का। परन्तु फल वही निकला पक्षपात, वाद-विवाद तथा अहित। ५. श्रोता के दोष ऊपर बताये गये दोष के अतिरिक्त श्रोता में और भी कई दोष हैं । जिनके कारण प्रमाणिक व योग्य वक्ता मिलने पर भी वह उसके समझने में असमर्थ रहता है। उन दोषों में से मुख्य है उसका अपना पक्षपात, जो किसी अप्रमाणिक अथवा अयोग्य वक्ता का विवेचन सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है अथवा प्रमाणिक और योग्य वक्ता के विवेचन को अधूरा सुनने के कारण उसमें उत्पन्न हो गया है, अथवा पहले से ही बिना किसी का सिखाया कोई अभिप्राय उसमें पड़ा है । यह पक्षपात वस्तु-स्वरूप जानने के मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अध्ययन पद्धति ६. महाविघ्न पक्षपात क्योंकि इस पक्षपात के कारण अव्वल तो अपनी रुचि या अभिप्राय से अन्य कोई बात उसे रुचती ही नहीं और इसलिए ज्ञानी की बात सुनने का प्रयत्न ही नहीं करता वह । और यदि किसी की प्रेरणा से सुनने भी चला जाये, तो समझने की दृष्टि की बजाय सुनता है वाद-विवाद की दृष्टि से, शास्त्रार्थ की दृष्टि से, दोष चुनने की दृष्टि से। अपनी रुचि के विपरीत कोई बात आई नहीं कि पड़ गया उस बेचारे के पीछे, हाथ धोकर, तथा अपने अभिप्राय के पोषक कुछ प्रमाण उस ही के वक्तव्य में से छांटकर, पूर्वापर मेल बैठाने का स्वयं प्रयत्न न करता हुआ, बजाय स्वयं समझने के समझाने लगा वक्ता को। “वहाँ देखो तुमने या तुम्हारे गुरु ने ऐसी बात कही है या लिखी है, और यहाँ उससे उल्टी बात कह रहे हो?" और प्रचार करने लगता है लोक में इस अपने पक्षका, तथा विरोध का । फल निकलता है तीव्र द्वेष । श्रोता का दूसरा दोष है धैर्य-हीनता । चाहता है कि तुरन्त ही कोई सब कुछ बता दे । एक राजा को एकबार कुछ हठ उपजी। कुछ जौहरियों को दरबार में बुलाकर उनसे बोला कि मुझे रत्ल की परीक्षा करना सिखा दीजिये, नहीं तो मृत्यु का दण्ड भोगिये । जौहरियों के पांव तले की धरती खिसक गई। असमंजस में पड़े सोचते थे कि एक वृद्ध जौहरी आगे बढ़ा । बोला कि “मैं सिखाऊँगा, पर एक शर्त पर । वचन दो तो कहूँ ।” हां हां तैयार हूँ, मांगो क्या मांगते हो? जाओ कोशाध्यक्ष ! दे दो सेठ साहब को लाख करोड़ जो भी चाहिये।" वृद्ध बोला, “कि राजन्? लाख करोड़ नहीं चाहिए बल्कि जिज्ञासा है राजनीति सीखने की और वह भी अभी, इसी समय । शर्त पूरी कर दीजिये और रत्न-परीक्षा की विद्या ले लीजिये।" "परन्तु यह कैसे सम्भव है" राजा बोला, “राजनीति इतनी से देर में थोड़े ही सिखाई जा सकती है? वर्षों हमारे मंत्री के पास रहना पड़ेगा।" "बस तो रत्न परीक्षा भी इतनी जल्दी थोड़े ही बताई जा सकती है ? वर्षों रहना पड़ेगा दुकान पर ।" और राजा को अकल आ गई। इसी प्रकार धर्म सम्बन्धी बात भी कोई थोड़ी देर में सुनना या सीखना चाहे तो यह बात असम्भव है । वर्षों रहना पड़ेगा ज्ञानी के संग में, अथवा वर्षों सुनना पड़ेगा उसके विवेचन को । जब स्थूल, प्रत्यक्ष, इन्द्रिय गोचर, लौकिक बातों में भी यह नियम लागू होता है, तो सूक्ष्म, परोक्ष, इन्द्रिय-अगोचर, अलौकिक बात में क्यों लागू न होगा? इसका सीखना तो और भी कठिन है । अत: भो जिज्ञासु ! यदि धर्म का प्रयोजन व उसकी महिमा का ज्ञान करना है तो धैर्य पर्वक वर्षों तक सनना होगा, शान्त भाव से सनना होगा, और पक्षपात व अपनी पूर्व की धारणा को दबाकर सुनना होगा। ६. महावित पक्षपात-धर्म के प्रयोजन व महिमा को जानने या सीखने सम्बन्धी बात चलती है, अर्थात् धर्म सम्बन्धी शिक्षण की बात है । वास्तव में यह जो चलता है, इसे प्रवचन न कहकर शिक्षण-क्रम नाम देना अधिक उपयुक्त है। किसी भी बात को सीखने या पढ़ने में क्या-क्या बाधक कारण होते हैं उनकी बात है। पांच कारण बताये गये थे। उनमें से चार की व्याख्या हो चुकी, जिस परसे यह निर्णय कराया गया कि यदि धर्म का स्वरूप जानना है और उससे कछ काम लेना है तो, १-उसके प्रति बहमान व उत्साह उत्पन्न कर, २-निर्णय करके यथार्थ वक्ता से उसे सन ३-अक्रमरूप न सुनकर 'क' से 'ह' तक क्रमपूर्वक सुन,४-धैर्य धारकर बिना चूक प्रतिदिन महीनों तक सुन । अब पांचवें बाधक कारण की बात चलती है। वह है वक्ता व श्रोता का पक्षपात । वास्तव में यह पक्षपात बहुत घातक है। इस मार्ग में साधारणत: यह उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। कारण पहले बताया जा चुका है। पूरा वक्तव्य क्रमपूर्वक न सुनना ही उस पक्षपात का मुख्य कारण है। थोड़ा जानकर 'मैं बहुत कुछ जान गया हूँ' ऐसा अभिमान अल्पज्ञ जीवों में स्वभावत: उन्पन्न हो जाता है, जो आगे जानने की उसे आज्ञा नहीं देता। वह 'जो मैंने जाना सो ठीक है, तथा जो दूसरे ने जाना सो झूट है'। और दूसरा भी 'जो मैंने जाना सो ठीक तथा जो आपने जाना सो झूठ' एक इसी अभिप्राय को धार परस्पर लड़ने लगते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं, वाद-विवाद करते हैं । उस वाद-विवाद को सुनकर कुछ उसकी रुचि के अनुकूल व्यक्ति उसके पक्ष का पोषण करने लगते हैं, तथा दूसरे की रुचि के अनुकूल व्यक्ति दूसरे के पक्ष का । उसके अतिरिक्त कुछ साधारण व भोले व्यक्ति भी, जो उसकी बात को सुनते हैं उसके अनुयायी बन जाते हैं, और जो दूसरे की बात को सुनते हैं वे दूसरे के बिना इस बात को जाने कि इन दोनों में से कौन क्या कह रहा है ? और Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. महावित पक्षपात १. अध्ययन पद्धति इस प्रकार निर्माण हो जाता है सम्प्रदायों का, जो वक्ता की मृत्यु के पश्चात् भी परस्पर लड़ने में ही अपना गौरव समझते हैं, और हित का मार्ग न स्वयं खोज सकते हैं और न दूसरे को दर्शा सकते हैं। मजे की बात यह है कि यह सब लड़ाई होती है धर्म के नाम पर। यह दुष्ट पक्षपात कई जाति का होता है। उनमें से मुख्य दो जाति हैं—एक अभिप्राय का पक्षपात तथा दूसरा शब्द का पक्षपात । अभिप्राय का पक्षपात तो स्वयं वक्ता तथा उसके श्रोता दोनों के लिए घातक है और शब्द का पक्षपात केवल श्रोताओं के लिये । क्योंकि इस पक्षपात में वक्ता का अपना अभिप्राय तो ठीक रहता है, पर बिना शब्दों में प्रकट हुए श्रोता बेचारा कैसे जान सकेगा उसके अभिप्राय को? अत: वह अभिप्राय में भी पक्षपात धारण करके, स्वयं वक्ता के अन्दर में पड़े हुए अनुक्त अभिप्राय का भी विरोध करने लगता है। यदि विषय को पूर्ण सुन व समझ लिया जाये तो कोई भी विरोध अभिप्राय शेष न रह जाने के कारण पक्षपात को अवकाश नहीं मिल सकता। इस पक्षपात का दूसरा कारण है श्रोता की अयोग्यता, उसकी स्मरण शक्ति की हीनता, जिसके कारण कि सारी बात सुन लेने पर भी बीच-बीच में कुछ-कुछ बात तो याद रह जाती है उसे और कुछ-कुछ भूल जाता है वह । और इस प्रकार एक अखण्डित धारावाही अभिप्राय खण्डित हो जाता है, उसके ज्ञान में । फल वही होता है जो कि अक्रम रूप से सुनने का है । पक्षपात का तीसरा कारण है व्यक्ति विशेष के कुल में परम्परा से चली आई कोई मान्यता या अभिप्राय । इस कारण का तो कोई प्रतिकार ही नहीं है, भाग्य से ही कदाचित् प्रतिकार बन जाये। तथा अन्य भी अनेकों कारण हैं, जिनका विशेष विस्तार करना यहाँ ठीक सा नहीं लगता। हमें तो यह जानना है, कि निज-कल्याणार्थ धर्म का स्वरूप कैसे समझें? धर्म का स्वरूप जानने से पहले इस पक्षपात को तिलांजलि देकर यह निश्चय करना चाहिये, कि धर्म सम्प्रदाय की चारदीवारी से दूर किसी स्वतन्त्र दृष्टि में उत्पन्न होता है, स्वतन्त्र वातावरण में पलता है व स्वतन्त्र वातावरण में ही फल देता है । यद्यपि सम्प्रदायों को आज धर्म के नाम से पुकारा जाता है, परन्तु वास्तव में यह भ्रम है, पक्षपात का विषैला फल है । सम्प्रदाय कोई भी क्यों न हो धर्म नहीं हो सकता । सम्प्रदाय पक्षपात को कहते हैं, और धर्म स्वतन्त्र अभिप्राय को कहते हैं जिसे कोई भी मनुष्य, किसी भी सम्प्रदाय में उत्पन हुआ, छोटा या बड़ा, गरीब या अमीर, यहाँ तक कि तिर्यंच भी, सब धारण कर सकते हैं, जबकि सम्प्रदाय इसमें अपनी टांग अड़ाकर, किसी को धर्म पालन का अधिकार देता है और किसी को नहीं देता। आज के जैन-सम्प्रदाय का धर्म भी वास्तव में धर्म नहीं हैं, सम्प्रदाय है, एक पक्षपात है । इसके आधीन क्रियाओं में ही कूपमण्डूक बनकर वर्तने में कोई हित नजर नहीं आता। पहले कभी नहीं सनी होगी ऐसी बात. और इसलिये कछ क्षोभ भी सम्भवतः आ गया हो। धारणा पर ऐसी सीधी व कडी चोट कैसे सहन की जा सकती है? यह धर्म तो सर्वोच्च धर्म है न जगत का? परन्त क्षोभ की बात नहीं है भाई । शान्त हो । तेरा यह क्षोभ ही तो वह पक्षपात है, साम्प्रदायिक पक्षपात जिसका निषेध कराया जा रहा है । इस क्षोभ से ही तो परीक्षा हो रही है तेरे अभिप्राय की । क्षोभ को दबा, आगे चलकर स्वयं समझ जायेगा, कि कितना सार था तेरे इस क्षोभ में । अब जरा विचार कर, कि क्या धर्म भी कहीं ऊँचा या नीचा होता है ? बड़ा या छोटा होता है ? अच्छा या बुरा होता है ? धर्म तो धर्म होता है उसका क्या ऊँचा-नीचापना? उसका क्या जैन व अजैनपना? क्या वैदिकपना व मुसलमानपना? धर्म तो धर्म है जिसने जीवन में उतारा उसे हितकारक ही है, जैसा कि आगे के प्रकरणों से स्पष्ट हो जायेगा । उस हित को जानने के लिये कुछ शान्तचित्त होकर सुन । पक्षपात को भूल जा थोड़ी देर के लिये। तेरे क्षोभ के निवारणार्थ यहाँ इस विषय पर थोड़ा और प्रकाश डाल देना उचित समझता हूँ। किसी मार्ग-विशेष पर श्रद्धा न करने का नाम सम्प्रदाय नहीं है सम्प्रदाय तो अन्तरंग के किसी विशेष अभिप्राय का नाम है, जिसके कारण कि दूसरों की धारणाओं के प्रति कुछ अनदेखा सा भाव प्रकट होने लगता है। इस अभिप्राय को परीक्षा करके पकड़ा जा सकता है, शब्दों में बताया नहीं जा सकता। कल्पना कीजिये कि आज मैं यहाँ इस गद्दीपर कोई ब्रह्मद्वैतवाद का शास्त्र ले बैलूं और उसके आधारपर आपको कुछ सुनाना चाहूं, तो बताइये आपकी अन्तरवृत्ति क्या होगी? क्या आप उसे भी इसी प्रकार शान्ति व रुचि पूर्वक सुनना चाहेंगे, जिस प्रकार कि इसे सुन रहे हैं ? सम्भवत: नहीं। यदि मुझसे Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अध्ययन पद्धति ११ ७. वैज्ञानिक बन लड़ने न लगे तो, या तो यहाँ से उठकर चले जाओगे और या बैठकर चुपचाप चर्चा करने लगोगे, या ऊंघने लगोगे और या अन्दर ही अन्दर कुछ कुढ़ने लगोगे, “सुनने आये थे जिनवाणी, और सुनने बैठ गये अन्य मत की कथनी ।" बस इसी भाव का नाम है साम्प्रदायिकता । इस भाव का आधार है गुरु का पक्षपात । अर्थात् जिनवाणी की बात ठीक है, क्योंकि मेरे गुरुने कही है, और यह झूठ है क्योंकि अन्य के गुरु ने कही है। यदि जिनवाणी की बात को भी युक्ति व तर्क द्वारा स्वीकार करने का अभ्यास किया होता, तो यहां भी उसी अभ्यास का प्रयोग करते । यदि कुछ बात ठीक बैठ जाती तो स्वीकार कर लेते, नहीं तो नहीं। इसमें क्षोभ की क्या बात थी ? बाजार में जायें, अनेक दुकानदार आपको अपनी ओर बुलायें, आप सब ही तो सुन लेते हैं। किसी से क्षोभ करने का तो प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। किसी से सौदा पटा तो ले लिया, नहीं पटा तो आगे चल दिये। इसी प्रकार यहाँ क्यों नहीं होता ? T बस इस अदेखस के भाव को टालने की बात कही जा रही है। मार्ग के प्रति जो तेरी श्रद्धा है, उसका निषेध नहीं किया जा रहा है । युक्ति व तर्क पूर्वक समझने का अभ्यास हो तो सब बातों में से तथ्य निकाला जा सकता है। भूल भी कदापि नहीं हो सकती । यदि श्रद्धान सच्चा है तो उसमें बाधा भी नहीं आ सकती, सुनने से डर क्यों लगता है ? परन्तु 'क्योंकि मेरे गुरु ने कहा है इसलिये सत्य है' तेरे अपने कल्याणार्थ इस बुद्धि का निषेध किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का यह मार्ग नहीं है । वे अपने गुरु की बात को भी बिना युक्ति के स्वीकार नहीं करते। यदि अनुसन्धान या अनुभव में कोई अन्तर पड़ता प्रतीत होता है, तो युक्ति द्वारा ग्रहण की हुई को भी नहीं मानते हैं। बस तत्त्व की यथार्थता को पकड़ना है तो इसी प्रकार करना होगा। गुरु के पक्षपात से सत्य का निर्णय ही न हो सकेगा, अनुभव तो दूर की बात है । अपनी दही को मीठी बताने का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है । वास्तव में मीठी हो तथा उसके मिठास को चखा हो, तब उसे मीठी कहना सच्ची श्रद्धा है I देख एक दृष्टान्त देता हूँ । एक जौहरी था, उसकी आयु पूर्ण हो गई । पुत्र था तो, पर निखट्टू । पिताजी की मृत्यु के पश्चात् अलमारी खोली, और कुछ जेवर निकालकर ले गया अपने चचा के पास । 'चाचाजी, इन्हें बिकवा दीजिये ।' चाचा भी जौहरी था, सब कुछ समझ गया। कहने लगा बेटा ! आज ने बेचो इन्हें, बाजार में ग्राहक नहीं हैं, बहुत कम दाम उठेंगे । जाओ जहाँ से लाये हो वहीं रख आओ इन्हें और मेरी दुकान पर आकर बैठा करो, घर का खर्चा दुकान से उठा लिया करो । वैसा ही किया, और कुछ महीनों के पश्चात् पूरा जौहरी बन गया वह । अब चचाने कहा, 'कि बेटा ! जाओ आज ले आओ वे जेवर । आज ग्राहक हैं बाजार में ।' बेटा तुरन्त गया, अलमारी खोली और जेवर के डब्बे उठाने लगा । पर हैं ! यह क्या ? एक डब्बा उठाया, रख दिया वापिस ; दूसरा उठाया, रख दिया वापिस ; और इसी तरह तीसरा, चौथा आदि सब डब्बे ज्यों के त्यों अलमारी में रख दिये, अलमारी बन्द की और चला आया खाली हाथ दुकान पर, निराशा में गर्दन लटकाये, विकल्प सागर में डूबा, वह युवक। “जेवर नहीं लाये बेटा ?” चचाने प्रश्न किया। और एक धीमी सी, लज्जित सी आवाज निकली युवक के कण्ठ से “क्षमा करो चाचा, भूला था, भ्रम था । वह सब तो काँच है, मैं हीरे समझ बैठा था उन्हें अज्ञानवश । आज आपसे ज्ञान पाकर आँखें खुल गई हैं मेरी । " बस इसी प्रकार तेरे भ्रम की, पक्षपात की सत्ता उसी समय तक है, जब तक कि धैर्यपूर्वक कुछ महीनों तक बराबर उस विशाल तत्त्व को सुन व समझ नहीं लेता । उस सम्पूर्ण को यथार्थ रीत्या समझ लेने के पश्चात् तू स्वयं लज्जित हो जायेगा, हंसेगा अपने ऊपर । ७. वैज्ञानिक बन—- जैसा कि आगे स्पष्ट हो जायेगा, धर्म का स्वरूप साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक है । अन्तर केवल इतना है, कि लोक में प्रचलित विज्ञान भौतिक विज्ञान है और यह है आध्यात्मिक विज्ञान। धर्म की खोज तुझे एक वैज्ञानिक बनकर करनी होगी, साम्प्रदायिक बनकर नहीं। स्वानुभव के आधार पर करनी होगी, गुरुओं के आश्रय पर नहीं । अपने ही अन्दर से तत्सम्बन्धी 'क्या' और 'क्यों' उत्पन्न करके तथा अपने ही अन्दर से उसका उत्तर लेकर करनी होगी, किसी से पूछकर नहीं। गुरु जो संकेत दे रहे हैं, उनको जीवन पर लागू करके करनी होगी, केवल शब्दों में नहीं । तुझे एक फिलासफर बनकर चलना होगा, कूपमण्डूक बनकर नहीं । स्वतन्त्र वातावरण में जाकर विचारना होगा, साम्प्रदायिक बन्धनों में नहीं । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. पक्षपात निरसन १. अध्ययन पद्धति देख एक वैज्ञानिक का ढंग, और सीख कुछ उससे। अपने पूर्व के अनेकों वैज्ञानिकों व फिलास्फरों द्वारा स्वीकार किये गये सर्व ही सिद्धान्तों को स्वीकार करके, उसका प्रयोग करता है वह अपनी प्रयोग-शाला में, और एक आविष्कार निकाल देता है। कुछ अपने अनुभव भी सिद्धान्त के रूप में लिख जाता हैं, पीछे आनेवाले वैज्ञानिकों के लिये । और वे पीछेवाले भी इसीप्रकार करते हैं । सिद्धान्त में बराबर वृद्धि होती चली जा रही है, परन्तु कोई भी अपने से पूर्व सिद्धान्त को झूठा मानकर 'उसको मैं नहीं पढूंगा' ऐसा अभिप्राय नहीं बनाता। सब ही पीछे-पीछेवाले अपने से सिद्धान्तों का आश्रय लेकर चलते हैं। उन पर्व में किये गये अनसन्धानों को पनः नहीं दोहराते । इसी प्रकार तुझे भी अपने पूर्व में हुए प्रत्येक ज्ञानी के, चाहे वह किसी नाम व सम्प्रदाय का क्यों न हो अनुभव और सिद्धान्तों से कुछ सीखना चाहिये, कुछ न कुछ शिक्षा लेनी चाहिये । बाहर से ही, केवल इस आधार पर, कि 'तेरे गुरु ने तुझे अमुक बात, अमुक ही शब्दों में नहीं बताई है' उनके सिद्धान्तों को झूठा मानकर, उनसे लाभ लेने के बजाय उनसे द्वेष करना योग्य नहीं हैं । वैज्ञानिकों का यह कार्य नहीं है। जिस प्रकार प्रत्येक वैज्ञानिक जो-जो सिद्धान्त बनाता है, उसका आधार कोई कपोल कल्पना मात्र नहीं होता, बल्कि होता है उसका अपना अनुभव, जो वह अपनी प्रयोगशाला में प्रयोग-विशेष के द्वारा प्राप्त करता है । पहले स्वयं प्रयोग करके उसका अनुभव करता है, और फिर दूसरों के लिये लिख जाता है, अपने अनुभव को। कोई चाहे तो उससे लाभ उठा ले न चाहे तो न उठाये । परन्तु वह सिद्धान्त स्वयं एक सत्य ही रहता है, एक ध्रुव सत्य । __इसी प्रकार अनेक ज्ञानियों ने अपने जीवन की प्रयोगशालाओं में प्रयोग किये, उस धर्म सम्बन्धी अभिप्राय की पूर्ति के मार्ग में । कुछ उसे पूर्ण कर पाये और कुछ न कर पाये, बीच में ही मृत्यु की गोद में जाना पड़ा । परन्तु जो कुछ भी उन सबने अनुभव किया, या जो-जो प्रक्रियायें उन्होंने उन-उन प्रयोगों में स्वयं अपनाईं, वे लिख गये हमारे हित के लिये, कि हम भी इनमें से कुछ तथ्य समझकर अपने प्रयोग में कुछ सहायता ले सकें । सहायता लेना चाहें तो लें, और न लेना चाहें तो न लें परन्तु वे सिद्धान्त सत्य हैं, परम सत्य । इस मार्ग में इतनी कमी दुर्भाग्यवश अवश्य रहती है, जोकि वैज्ञानिक मार्ग में देखने में नहीं आती। और वह यह है कि यहाँ कुछ स्वार्थी अनुभव-विहीन ज्ञानाभिमानी जन विकृत कर देते हैं उन सिद्धान्तों को, पीछे से अपनी धारणायें उनमें मिश्रण करके । और वैज्ञानिक मार्ग में ऐसा होने नहीं पाता । पर फिर भी वे विकृतियां दूर की जा सकती हैं कुछ अपनी बुद्धि से, अपने अनुभव के आधार पर । भो जिज्ञासु ! तनिक विचार तो सही, कि कितना बड़ा सौभाग्य है तेरा कि उन ज्ञानियों ने जो बातें बड़े बलिदानों के पश्चात् बड़े परिश्रम से जानी, बिना किसी मुल्य के दे गये तुझे । अर्थात् बड़े परिश्रम से बनाया हुआ अपना भोजन परोस गये तुझे । और आज भूखा होते हुए भी, तथा उनके द्वारा परोसा यह भोजन सामने रखा होते हुए भी, तू खा नहीं रहा है इसे, कुछ संशय के कारण या साम्प्रदायिक विद्वेष के कारण, जिसका आधार है केवल पक्षपात । तुझसा मूर्ख कौन होगा? तुझसा अभागा कौन होगा? भो जिज्ञासु ! अब इस विष को उगल दे और सुन कुछ नई बात, जो आज तक सम्भवत: नहीं सुनी है और सुनी भी हो तो समझी नहीं है । सर्व दर्शनकारों के अनुभव का सार, और स्वयं मेरे अनुभव का सार, जिसमें न कहीं है किसी का खण्डन, और न है निज की बात का पक्ष । वैसा वैसा स्वयं अपने जीवन में उतार कर उसकी परीक्षा कर । बताये अनुसार ही फल हो तो ग्रहण करले, और वैसा फल न हो तो छोड़ दे। पर वाद-विवाद किस के लिये और क्यों? बाजार का सौदा है, मर्जी में आये ले, मर्जी में आये न ले। यह एक नि:स्वार्थ भावना है, तेरे कल्याण की भावना और कुछ नहीं। कछ लेना देना नहीं है तझसे । तेरे अपने कल्याण की बात है। निज हित के लिये एक बार सन तो सही. तझे अच्छी लगे बिना न रहेगी। क्यों अच्छी न लगे, तेरी अपनी बात है, घर बैठे बिना परिश्रम के मिल रही है तुझे, इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है? निज हित के लिये अब पक्षपात की दाह में इसकी अवहेलना मत कर । ८. पक्षपात निरसन–परन्तु पक्षपात को छोड़ कर सुनना । नहीं तो पक्षपात का ही स्वाद आता रहेगा इस बात का स्वाद न चख सकेगा। देख एक दृष्टान्त देता हूँ। एक चींटी थी नमक की खान में रहती थी। कोई उसकी सहेली उससे मिलने गई। बोली “बहन तू कैसे रहती है यहाँ ? इस नमक के खारे स्वाद में । चल मेरे स्थान पर चल, वहाँ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अध्ययन पद्धति ८. पक्षपात निरसन बहुत अच्छा स्वाद मिलेगा तुझे, तू बड़ी प्रसन्न होगी वहाँ जाकर ।” कहने सुनने से चली आई वह, उसके साथ उसके स्थान पर, हलवाई की दुकान में । परन्तु मिठाई पर घूमते हुए भी उसको विशेष प्रसन्नता न हुई। उसकी सहेली ताड़ गई उसके हृदय की बात, और पूछ बैठी उससे "क्यों बहिन आया कुछ स्वाद ?” “नहीं कुछ विशेष स्वाद नहीं, वैसा ही सा लगता है मुझे तो, जैसा वहाँ नमक पर घूमते हुए लगता था ।” सोच में पड़ गई उसकी सहेली । यह कैसे सम्भव है ? मीठे में नमक का ही स्वाद कैसे आ सकता है ? कुछ गड़बड़ अवश्य है । झुककर देखा उसके मुख की ओर । “परन्तु बहन ! यह तेरे मुख में क्या है ?" "कुछ नहीं, चलते समय सोचा कि वहाँ यह पकवान मिले कि न मिले, थोड़ा साथ ले चल । और मुँह में धर लाई छोटी सी नमक की डली । वही है यह " । "अरे ! तो यहाँ का स्वाद कैसे आवे तुझे ? मुँह में रखी है नमक की डली, मीठे का स्वाद कैसे आयेगा ? निकाल इसे।” डरती हुई ने कुछ-कुछ झिझक व आशंका के साथ निकाला उसे । एक ओर रख दिया इसलिये कि थोड़ी देर पश्चात् पुनः उठा लेना होगा इसे, अब तो सहेली कहती है, खैर निकाल दो इसके कहने से । और उसके निकलते ही पहुंच गई दूसरे लोक में वह । “उठाले बहन ! अब इस अपनी डली को " सहेली बोली । लज्जित हो गई वह यह सुनकर, क्योंकि अब उसे कोई आकर्षण नहीं था, उस नमक की डली में । १३ बस तुम भी जबतक पक्षपात की यह डली मुख में रखे बैठे हो, नहीं चख सकोगे इस मधुर आध्यात्मिक स्वाद को । आता रहेगा केवल द्वेष का कड़वा स्वाद । एकबार मुँह में से निकालकर चखो इसे। भले फिर उठा लेना इसी अपने पहले खाजे को । परन्तु इतना विश्वास दिलाता हूं, कि एक बार के ही इस नई बात के आस्वाद से, तुम भूल जाओगे उसके स्वाद को, लज्जित हो जाओगे उस भूल पर। उसी समय पता चलेगा कि यह डली स्वादिष्ट थी कि कड़वी । दूसरा स्वाद चखे बिना कैसे जान पाओगे इसके स्वाद को ? अतः कोई भी नई बात जानने के लिये प्रारम्भ में ही पक्षपात का विष अवश्य उगलने योग्य है । किसी बात को सुनकर या किसी भी शास्त्र में पढ़कर, वक्ता या लेखक के अभिप्राय को ही समझने का प्रयत्न करना । जबरदस्ती उसके अर्थ को घुमाने का प्रयत्न न करना । वक्ता या लेखक के अभिप्राय का गला घोंटकर अपनी मान्यता व पक्ष के अनुकूल बनाने का प्रयत्न न करना । तत्त्व को अनेकों दृष्टियों से समझाया जायेगा। सब दृष्टियों को पृथक-पृथक जानकर ज्ञान में उनका सम्मिश्रण कर लेना । किसी दृष्टि का भी निषेध करने का प्रयत्न न करना अथवा किसी एक ही दृष्टि आवश्यकता से अधिक पोषण करने के लिये शब्दों में खेंचतान न करना । ऐसा करने से भी अन्य दृष्टियों का निषेध ही हो जायेगा । तथा अन्य भी अनेकों बातें हैं जो पक्षपात के आधीन पड़ी हैं। उन सब को उगल डालना | समन्वयात्मक दृष्टि बनाना, साम्यता धारण करना । इसी में निहित है तुम्हारा हित और तभी समझा या समझाया जा सकता हे तत्त्व । उपरोक्त इन सर्व पाँचों कारणों का अभाव हो जाय तो ऐसा नहीं हो सकता कि तुम धर्म के उस प्रयोजन को व उसकी महिमा को ठीक-ठीक जान न पाओ; और जानकर उससे इस जीवन में कुछ नवीन परिवर्तन लाकर, किञ्चित् इसके मिष्ट फल की प्राप्ति न कर लो; और अपनी प्रथम की ही निष्प्रयोजन धार्मिक क्रियाओं के रहस्य को समझकर उन्हें सार्थक न बना लो । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. धर्म का प्रयोजन १. अन्तर की मांग; २. विज्ञान विधि; ३. सत्य पुरुषार्थ; ४. संसार वृक्ष । १. अन्तर की मांग- धर्म सम्बन्धी वास्तविकता को जानने के लिये वक्ता व श्रोता की आवश्यकताओं को तथा शिक्षण पद्धति क्रम को जानने के पश्चात्, और धर्म सम्बन्धी बात को जानने के लिये उत्साह प्रकट हो जाने के पश्चात् ; अब यह बात जानना आवश्यक है, कि धर्म कर्म की जीवन में आवश्यकता ही क्या है ? जीवन के लिये यह कुछ उपयोगी तो भासता नहीं। यदि बिना किसी धार्मिक प्रवृत्ति के ही जीवन बिताया जाए तो क्या हर्ज है ? फिलास्फर बनने के लिये कहा गया है न मुझे । प्रश्न बहुत सुन्दर है, और करना भी चाहिये था । अन्दर में उत्पन्न हुए प्रश्न को कहते हुए शर्माना नहीं चाहिए, नहीं तो यह विषय स्पष्ट न होने पायेगा । प्रश्न बेधड़क कर दिया करो, डरना नहीं । वास्तव में ही धर्म की कोई आवश्यकता न होती यदि मेरे अन्दर की सभी अभिलाषाओं की पूर्ति साधारणतः हो जाती। कोई भी पुरुषार्थ किसी प्रयोजनवश ही करने में आता है। किसी अभिलाषा विशेष की पूर्ति के लिये ही कोई कार्य किया जाता है। ऐसा कोई कार्य नहीं, जो बिना किसी अभिलाषा के किया जा रहा हो । अतः उपरोक्त बात का उत्तर पाने के लिए मुझे विश्लेषण करना होगा अपनी अभिलाषाओं का। ऐसा करने से स्पष्टतः कुछ ध्वनि अन्तरंग से आती प्रतीत होगी। इस रूप में कि "मुझे सुख चाहिए, मुझे निराकुलता चाहिये ।" यह ध्वनि छोटे बड़े सर्व ही प्राणियों की चिरपरिचित है। क्योंकि कोई भी ऐसा नहीं है जो इस ध्वनि को बराबर उठते न सुन रहा हो। और यह ध्वनि कृत्रिम भी नहीं है। किसी अन्य से प्रेरित होकर यह सीख उत्पन्न हुई हो ऐसा भी नहीं है, स्वाभाविक है । कृत्रिम बात का आधार वैज्ञानिक नहीं लिया करते परन्तु इस स्वाभाविक ध्वनि का कारण तो अवश्य जानना पड़ेगा । अपने अन्दर की इस ध्वनि से प्रेरित होकर, इस अभिलाषा की पूर्ति के लिए, मैं कोई प्रयत्न न कर रहा हूँ ऐसा भी नहीं है। मैं बराबर कुछ न कुछ उद्यम कर रहा हूँ। जहाँ भी जाता हूँ कभी खाली नहीं बैठता, और कबसे करता आ रहा हूँ यह भी नहीं जानता । परन्तु इतना अवश्य जानता हूँ कि सब कुछ करते हुए भी, बड़े से बड़ा धनवान या राजा आदि न जानेपर भी यह ध्वनि आज तक शान्त होने नही पाई है। यदि शान्त हो गई होती, या उसके लिये किया जानेवाला पुरुषार्थ जितनी देरतक चलता रहता है, उतने अन्तराल मात्र के लिये भी कदाचित् शान्त होती हुई प्रतीत होती तो अवश्य ही धर्म आदि की कोई आवश्यकता न होती। उसी पुरुषार्थ के प्रति और अधिक उद्यम करता और कदाचित् सफलता प्राप्त कर लेता । वह शान्ति की अभिलाषा ही मुझे बाध्य कर रही है कोई नया आविष्कार करने के लिये, जिसके द्वारा मैं उसकी पूर्ति कर पाऊँ । आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। इसी कारण धर्म का आविष्कार ज्ञानीजनों ने अपने जीवन में किया और उसी का उपदेश सर्व जगत को भी दिया तथा दे रहे हैं, किसी स्वार्थ के कारण नहीं, बल्कि प्रेम व करुणा के कारण कि किसी प्रकार आप भी सफल हो सकें अभिलाषा को शान्त करने में । २. विज्ञान विधि - किस प्रकार किया उन्होंने यह आविष्कार ? कहां से सीखा इसका उपाय ? कहीं बाहर से नहीं, अपने अन्दर से । उपाय ढूंढने का जो वैज्ञानिक ढंग है, उसके द्वारा उपाय ढूंढने का वैज्ञानिक व स्वाभाविक ढंग यद्यपि सबके अनुभव में प्रतिदिन आ रहा है, पर विश्लेषण न करने के कारण सैद्धान्तिक रूप से उसकी धारणा किसी को नहीं है । देखिये उस कबूतर को जिसकी अभिलाषा है कि आपके कमरे में किसी न किसी प्रकार प्रवेश कर पाये, अपना घोंसला बनाने के लिये । कमरे में प्रवेश करने का उपाय किस से पूछे ? स्वयं अपने अन्दर से ही उपाय निकालता है, अत: प्रयत्न करता है। कभी उस द्वार पर जाता है और बन्द पाकर वापस लौट आता है। कुछ देर पश्चात् उस खिड़की के निकट जाता है, वहां सरिए लगे पाता है । सरियों के बीच में गर्दन घुसाकर प्रयत्न करता है घुसने का परन्तु सरियों में अन्तराल कम होने के कारण उसका शरीर निकल नहीं पाता, उनके बीच में से। फिर लौट आता है, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. धर्म का प्रयोजन ४. इच्छा -गर्त दूसरी दिशा में जाता है, वहाँ भी वैसा ही प्रयत्न । फिर तीसरी में और फिर चौथी दिशा में, कहीं से मार्ग न मिला। सामनेवाले मुंडेर पर बैठकर सोच रहा है वह, अब भी उसी का उपाय । निराश नहीं हुआ है वह । हैं ! यह क्या है, ऊपर छतके निकट ? चलकर देखू तो सही? एक रोशनदान । झुककर देखता है, अन्दर की ओर । कुछ भय के कारण तो नहीं हैं वहां? नहीं, नहीं कुछ नहीं है । रोशनदान में घुस जाता है, कमरे की कार्नस पर बैठकर प्रतीक्षा करता है, कुछ देर कमरे के स्वामी के आने की। स्वामी आता है, तो देखता है गौर से उसकी मुखाकृति को । क्रूर तो नहीं है? नहीं, भला आदमी है। और फिर जाता है और आता है, बे रोकटोक, मानो उसके लिए ही बनाया था यह द्वार । इसी प्रकार एक चींटी भी पहुँच जाती है अपने खाद्य पदार्थ पर, और थोड़ी देर इधर-उधर घूमकर मार्ग निकाल ही लेती है। विश्लेषण कीजिए इन छोटे से जन्तुओं की इस प्रक्रिया का । धैर्य और साहस के साथ बार-बार प्रयत्न करना। असफल रहने पर भी एकदम निराश न हो जाना । एक द्वार न दीखे तो दूसरी दिशा में जाकर ढूँढ़ना या दूसरे द्वार पर प्रयल करना और अन्त में सफल हो जाना । यह है, क्रम किसी अभीष्ट विषय के उपाय ढूँढ़ने का। इसे वैज्ञानिक जन कहते हैं 'Trial & Error Theory', 'सफल न होने पर प्रयत्न की दिशा घुमा देने का सिद्धान्त ।' आप स्वयं भी तो इस सिद्धान्त का प्रयोग कर रहे हैं, अपने जीवन में । कोई रोग हो जानेपर, आते हो वैद्यराज के पास, औषधि लेते हो । तीन चार दिन खाकर देखने के पश्चात् कोई लाभ होता प्रतीत नहीं होता, तो वैद्यजी से कहते हो, औषधि बदल देने के लिये। उसमें भी यदि काम न चले तो पुन: वही क्रम । और अन्त में तीन बार औषधि बदली जाने पर, मिल ही जाती है, कोई अनुकूल औषधि । इस प्रक्रिया का विश्लेषण करने पर भी उपरोक्त ही फल निकलेगा। बस यही है वह सिद्धान्त, जो यहाँ शान्ति-प्राप्ति के उपाय के सम्बन्ध में भी लागू करना है। किसी अनुभूत व दृष्ट विषय का विश्लेषण करके एक सिद्धान्त बनाना, तथा उसी जाति के किसी अनुभूत व अदृष्ट विषयपर लागू करके अभीष्ट की सिद्धि कर लेना ही तो वैज्ञानिक मार्ग है, कोई नवीन खोज करने का। शान्ति की नवीन खोज करनी है तो उपरोक्त सिद्धान्त को लागू कीजिये । एक प्रयत्न कीजिये, यदि सफल न हो तो उस प्रयत्न की दिशा घुमाकर देखिये, फिर भी सफलता न मिले तो पुन: कोई और प्रयोग कीजिये, और प्रयोगों को बराबर बदलते जाइये, जब तक कि सफल न हो जायें। ३. सत्य पुरुषार्थ-अब प्रश्न होता है कि क्या आज तक प्रयल नहीं किया? नहीं ऐसी तो बात नहीं है । प्रयत्न तो किया और बराबर करता आ रहा है । प्रयत्न करने में कमी नहीं है। धन उपार्जन करने में, जीवन की आवश्यक वस्तुएँ जुटाने में, उनकी रक्षा करने में तथा उनको भोगने में अवश्य तू पुरुषार्थ कर रहा है, और खूब कर रहा है । फिर कमी कहाँ है जो आज तक असफल रहा है, उसकी प्राप्ति में? कमी है प्रयोग को बदल कर न देखने की। प्रयत्न तो अवश्य करता आ रहा है, पर अव्वल तो आज तक कभी तुझे यह विचारने का अवसर ही नहीं मिला, नहीं मिल रही है, और यदि कुछ प्रतीति भी हुई, तो प्रयोग बदलकर न देखा । वही पुराना प्रयोग चल रहा है, जो पहले चलता था-धन कमाने का, भोगों की उपलब्धि व रक्षा का तथा उन्हें भोगने का। कभी विचारा है यह कि अधिक से अधिक भोगों को प्राप्त करके भी यह ध्वनि शान्त नहीं हो रही है तो अवश्यमेव मेरी धारणा में, मेरे विश्वास में कहीं भूल है? धन या भोग शान्ति की प्राप्ति के उपाय ही नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो अवश्य ही मैं शान्त हो गया होता। आवाज का न दबना ही यह बता रहा है कि मेरा उपाय झूठा है । वास्तव में उपाय कुछ और है, जिसे मैं नहीं जानता। अत: या तो किसी जानकार से पूछकर या स्वयं पुरुषार्थ की दिशा घुमाकर देखू तो सही । इस उपरोक्त प्रयोग को यदि अपनाता, तो अवश्य आज तक वह मार्ग पा लिया होता। ___ अब सुनने पर तथा अपनी धारणा बदल जाने के कारण कुछ इच्छा भी प्रगट हुई हो यदि प्रयत्न बदलने की, तो उससे पहले तुझको यह बात जान लेनी आवश्यक है, कि किस चीज का आविष्कार करने जा रहा है तू, क्योंकि बिना किसी लक्ष्य के किस और लगायेगा अपने पुरुषार्थ को? केवल शान्ति व सुख कह देने से काम नहीं चलता। उस शान्ति या सुख की पहचान भी होनी चाहिए, ताकि आगे जाकर भूलवश पहले की भाँति उस दुःख या अशान्ति को सुख या शान्ति न मान बैठे, और तृप्तवत् हुआ चलता जाये उसी दिशा में, बिल्कुल असफल व असन्तुष्ट । ४. इच्छा-गर्त शान्ति की पहिचान भी अनुभव के आधार पर करनी है, किसी की गवाही लेकर नहीं और बड़ी सरल है वह । केवल अन्तरंग के परिणामों का या उस अन्तर्ध्वनि का विश्लेषण करके देखना है । असन्तोष में डूबी लता Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. संसार-वृक्ष २. धर्म का प्रयोजन आज की ध्वनि प्रतिक्षण माँग रही है, तुझसे, 'कुछ और' । 'कुछ और चाहिये अभी तृप्त नहीं हुआ, अभी कुछ और भी चाहिये', बराबर ऐसी ध्वनि सुनने में आ रही है। वास्तव में इस ध्वनि का नाम ही तो है अभिलाषा, इच्छा या व्याकुलता । क्या कुछ सन्देह है इसमें भी? यदि है तो देख, आज तुझे इच्छा है अपनी युवती कन्या का जल्दी से जल्दी विवाह करने की, पर योग्य वर न मिलने के कारण कर नहीं पा रहा है । तेरी इच्छा पूरी नहीं हो रही है । बस यही तो है तेरे अन्दर की व्याकुलता, व्यग्रता, अशान्ति या दुःख। पुरुषार्थ करके अधिकाधिक कमा डाला, पर उस ध्वनि की ओर उपयोग गया तो आश्चर्य हुआ यह देखकर कि ज्यों-ज्यों धन बढ़ा वह 'कुछ और' की ध्वनि और भी बलवान होती गई। ज्यों-ज्यों भोग भोगे, भोगों के प्रति की अभिलाषा और अधिक बढ़ती गई। क्या कारण है इसका? जितनी कुछ भी धन-राशि की प्राप्ति हुई थी, उतना तो इसको कम होना चाहिए था या बढ़ना? बस सिद्धान्त निकल गया कि इच्छाओं का स्वभाव ही ऐसा है, कि ज्यों-ज्यों मांग पूरी करें त्यों-त्यों दबने की बजाय और अधिक बढ़े । इच्छा के बढ़ने में भी सम्भवत: हर्ज न होता, यदि यह सम्भव होता कि एकदिन जाकर इसका अन्त आ जायेगा, क्योंकि इच्छा का अन्त आ जाने पर भी मैं पुरुषार्थ करता रहूंगा और अधिक धन कमाने का, और एक दिन इतना संचय कर लूंगा कि उसकी पूर्ति हो जाये । परन्तु विचारने पर यह स्पष्ट प्रतीति में आता है कि इच्छा का कभी अन्त नहीं होगा। इच्छा असीम है और इसके सामने पड़ी हुई तीन लोक की सम्पत्ति सीमित । सम्भवत: इतनी मात्र कि इच्छा के खड्डे में पड़ी हुई इतनी भी दिखाई न दे, जैसा कि कोई परमाणु। इस पर भी इसको बंटवाने वाली इतनी बड़ी जीवराशि? क्योंकि सब ही को तो इच्छा है उसकी, तेरी भाँति । बता क्या सम्भव है ऐसी दशा में इस इच्छा की पूर्ति? इसका अनन्तवां अंश भी तो सम्भवत: पूर्ण न हो सके? फिर कैसे मिलेगी तुझे शान्ति, धन प्राप्ति के पुरुषार्थ से ? बस बन गया सिद्धान्त । धन व भोगों की प्राप्ति का नाम सुख व शान्ति नहीं, बल्कि उनका अभाव शान्ति है, और इस लिए धनोपार्जन या भोगों सम्बन्धी पुरुषार्थ, इस दिशा का पुरुषार्थ नहीं है। ५. संसार-वृक्ष-देख तेरी वर्तमान दशा का एक सुन्दर चित्र दर्शाता हूं। एक व्यापारी जहाज में माल भरकर विदेश को चला। अनेकों आशायें थी उसके हृदय में । पर उसे क्या खबर थी कि अदृष्ट उसके लिये क्या लिये बैठा है। दूर क्षितिज में से साँय-साँय की भंयकर ध्वनि प्रगट हुई, जो बराबर बढ़ती हुई उसकी ओर आने लगी। घबरा गया वह । हैं ! यह क्या? तूफान सरपर आ गया। आन्धी का वेग मानों सागर को अपने स्थान से उठाकर अन्यत्र ले जाने की होड़ लगाकर आया है। सागर ने अपने अभिमान पर इतना बड़ा आघात कभी न देखा था। वह एकदम गर्ज उठा, फुकार मारने लगा और उछल-उछलकर वायुमंडल को ताड़ने लगा। वायु व सागर का यह युद्ध कितना भयंकर था । दिशायें भंयकर गर्जनाओं से भर गई। दोनों नये-नये हथिायर लेकर सामने आ रहे थे। सागर के भयंकर थपेड़ों से आकाश का साहस टूट गया । वह एक भयंकर चीत्कार के साथ सागर के पैरों में गिर गया। घडडडड़ । ओह ! यह क्या आफत आई ? आकश फट गया और उसके भीतर से क्षण भर को एक महान प्रकाश की रेखा प्रकट हुई । रात्रि के इस गहन अन्धकार में भी इस वज्रपात के अद्वितीय प्रकाश में सागर का क्षोभ तथा इस युद्ध का प्रकोप स्पष्ट दिखाई दे रहा था । व्यापारी की नब्ज ऊपर चढ़ गई, मानो वह निष्प्राण हो चुका है। इतने ही पर बस क्यों हो? आकाश की इस पराजय को मेघराज सहन न कर सका। महा-काल की भाँति काली राक्षस सेना गर्जकर आगे बढ़ी और एक बार पुन: घोर अन्धकार में सब कुछ विलीन हो गया। व्यापारी अचेत होकर गिर पड़ा। सागर उछला, गड़गड़ाया, मेघराज ने जलवाणों की घोर वर्षा की । मूसलाधार पानी पड़ने लगा। जहाज में जल भर गया । व्यापारी अब भी अचेत था। दो भयंकर राक्षसों के युद्ध में बेचारे व्यापारी की कौन सुने? सागर की एक विकराल तरंग-ओह ! यह क्या? पुन: वज्रपात हुआ और उसके प्रकाश में. ..? जहाज जोर से ऊपर को उछला और नीचे गिरकर जल में विलप्त हो गया। सागर की गोद में समा गया। उसके अगोंपांग इधर उ गये । हाय, बेचारा व्यापारी, कौन जाने उसकी क्या दशा हुई। प्रभात हुआ। एक तखते पर पड़ा सागर में बहता हुआ कोई अचेत व्यक्ति भाग्यवश किनारे पर आ लगा । सूर्य की किरणों ने उसके शरीर में कुछ स्फूर्ति उत्पन्न की। उसने आँखें खोली । मैं कौन हूं? मैं कहाँ हूँ? यह कौन देश है ? किसने मुझे यहाँ पहुँचाया है ? मैं कहाँ से आ रहा हूं? क्या काम करने के लिए घर से निकला था? मेरे पास क्या है ? कैसे निर्वाह करूँ? सब कुछ भूल चुका है अब वह । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ २. धर्म का प्रयोजन ५. संसार-वृक्ष उसे नवजीवन मिला है, यह भी पता नहीं है उसे। किसकी सहायता पाऊँ, कोई दिखाई नहीं देता। गर्दन लटकाये चल दिया जिस और मुंह उठा । एक भंयकर चीत्कार । अरे ! यह क्या ? उसकी मानसिक स्तब्धता भंग हो गयी। पीछे मुड़कर देखा। मेघों से भी काला, जंगम-पर्वत तुल्य, विकराल गजराज सूंड़ ऊपर उठाये, चीख मारता हुआ, उसकी ओर दौड़ा। प्रभु ! बचाओ । अरे पथिक ! कितना अच्छा होता यदि इसी प्रभु को अपने अच्छे दिनों में भी याद कर लिया होता । अब क्या बनता है, यहां कोई भी तेरा सहारा नहीं । दौड़ने के अतिरिक्त शरण नहीं थी। पथिक दौड़ा, जितनी जोर से उससे दौड़ा गया। हाथी सरपर आ गया और धैर्य जाता रहा उसका । अब जीवन असम्भव है । “नहीं पथिक तूने एकबार जिह्वासे प्रभु का पवित्र नाम लिया है, वह निरर्थक न जायेगा, तेरी रक्षा अवश्य होगी", आकाशवाणी हुई । आश्चर्य से आँख उठाकर देखा, कुछ सन्तोष हुआ, सामने एक बड़ा वटवृक्ष खड़ा था। एक बार पुन: साहस बटोरकर पथिक दौड़ा और वृक्ष के नीचे की ओर लटकती दो उपशाखाओं को पकड़कर वह ऊपर चढ़ गया। हाथी का प्रकोप और भी बढ़ गया, यह उसकी मानहानि है । इस वृक्ष ने उसके शिकार को शरण दी है। अत: वह भी अब रह न पायेगा । अपनी लम्बी सूंड से वृक्ष को वह जोर से हिलाने लगा। पथिक का रक्त सूख गया । अब मुझे बचानेवाला कोई नहीं। नाथ ! क्या मुझे जाना ही होगा, बिना कुछ देखे, बिना कुछ चखे? “नहीं, प्रभु का नाम बेकार नहीं जाता। ऊपर दृष्टि उठा कर देख", आकाशवाणी ने पुन: आशा का संचार किया। ऊपर की ओर देखा। मधु का एक बड़ा छत्ता, जिसमें से बुन्द-बून्द करके झर रहा था उसका मद । ___ आश्चर्य से मुंह खुला रह गया। यह क्या? और अकस्मात् ही-आ हा हा, कितना मधुर है यह? एक मधुबिन्दु उसके खुले मुंह में गिर पड़ा। वह चाट रहा था उसे और कृतकृत्य मान रहा था अपने को । एक बूंद और । मुंह खोला, और पुन: वही स्वाद । एक बूंद और... । और इसी प्रकार मधुबिन्दु के इस मधुर स्वाद में खो गया वह, मानो उसका जीवन बहुत सुखी बन गया है। अब उसे और कुछ नहीं चाहिए, एक मधुबिन्दु । भूल गया वह अब प्रभु के नाम को । उसे याद करने से अब लाभ भी क्या है ? देख कोई भी मधुबिन्दु व्यर्थ पृथ्वी पर न पड़ने पावे। उसके सामने मधुबिन्दु के अतिरिक्त और कुछ न था । भूल चुका था वह यह कि नीचे खड़ा वह विकराल हाथी अब भी वृक्ष की जड़ में सूंड से पानी दे देकर उसे जोर-जोर से हिला रहा है। क्या करता उसे याद करके, मधुबिन्दु जो मिल गया है उसे, मानों उसके सारे भय टल चुके हैं। वह मग्न है मधुबिन्दु की मस्ती में। _वह भले न देखे, पर प्रभु तो देख रहे हैं। अरेरे ! कितनी दयनीय है इस पथिक की दशा । नीचे हाथी वृक्षको समूल उखाड़ने पर तत्पर है और वह देखो दो चूहे बैठे उस डाल को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं जिसपर की वह लटका हुआ है। उसके नीचे उस बड़े अन्धकूप में, मुँह फाड़े विकराल दाढ़ों के बीच लम्बी लम्बी भयंकर जिह्वा लपलपा रही है जिनकी । लाल-लाल नेत्रों से, ऊपर की ओर देखते हुए चार भयंकर अजगर मानो इसी बात की प्रतीक्षा में हैं कि कब डाल कटे और उनको एक ग्रास खाने को मिले। उन बेचारों का भी क्या दोष, उनके पास पेट भरने का एक यही तो साधन है । पथभ्रष्ट अनेकों भूले भटके पथिक आते हैं, और इस मधुबिन्दु के स्वाद में खोकर अन्त में उन अजगरों के ग्रास बन जाते हैं । सदा से ऐसा होता आ रहा है, तब आज भी ऐसा ही क्यों न होगा? गड़ गड़ गड़, वृक्ष हिला । मधु-मक्षिकाओं का सन्तुलन भंग हो गया। भिनभिनाती हुई, भन्नाती हुई वे उड़ीं । इस नवागन्तुकने ही हमारी शान्ति में भंग डाला है । चिपट गई वे सब उसको, कुछ सर पर , कुछ कमर पर, कुछ हाथों में, कुछ पावों में । सहसा घबरा उठा वह ....यह क्या? उनके तीखे डंको की पीड़ा से व्याकुल होकर एक चीख निकल पड़ी उसके मुंह से, 'प्रभु ! बचाओ मुझे' । पुन: वही मधुबिन्दु । जिस प्रकार रोते हुए शिशु के मुख में मधुभरा रबर का निपल देकर माता उसे सला देती है. और वह शिश भी इस भ्रम से कि मझे स्वाद आ रहा है. सन्तष्ट होकर सो जाता है: उसी प्रकार पुन: खो गया वह उस मधुबिन्दु में, और भूल गया उन डंकों की पीड़ा को। पथिक प्रसन्न था, पर सामने बैठे परम करुणाधारी, शान्तिमूर्ति जगतहितकारी, प्रकृति की गोद में रहने वाले, निर्भय गुरुदेव मन ही मन उसकी इस दयनीय दशापर आँसू बहा रहे थे। आखिर उनसे रहा न गया। उठकर निकल आये । “भो पथिक ! एक बार नीचे देख, यह हाथी जिससे डरकर तू यहाँ आया है, अब भी यहाँ ही खड़ा इस वृक्ष को उखाड़ रहा है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. संसार वृक्ष १८ २. धर्म का प्रयोजन ऊपर वह देख, सफेद व काले दो चूहे तेरी इस डाल को काट रहे हैं । नीचे देख वे अजगर मुंह बाये तुझे ललचाई- ललचाई दृष्टि से ताक रहे हैं। इस शरीर को देख जिसपर चिपटी हुई मधु मक्षिकायें तुझे चूंट-घूंट कर खा रही हैं। इतना होने पर तू प्रसन्न है । यह बड़ा आश्चर्य है। आंख खोल, तेरी दशा बड़ी दयनीय है। एक क्षण भी विलम्ब करने को अवकाश नहीं । डाली कटने वाली है। तू नीचे गिरकर निःसन्देह उन अजगरों का ग्रास बन जायेगा । उस समय कोई भी तेरी रक्षा करने को समर्थ न होगा । अभी भी अवसर है । आ मेरा हाथ पकड़ और धीरे से नीचे उतर आ । यह हाथी मेरे सामने तुझे कुछ नहीं कहेगा । इस समय मैं तेरी रक्षा कर सकता हूं । सावधान हो, जल्दी कर ।" संसारी ज‍ संसार वृक्ष परन्तु पथिक को कैसे स्पर्श करें वे मधुर वचन । मधुबिन्दु के मधुराभास में उसे अवकाश ही कहाँ है यह सब कुछ विचारने का ? “बस गुरुदेव, एक बिन्दु और, वह आ रहा है, उसे लेकर चलता हूं अभी आपके साथ ।” बिन्दु गिर चुका । "चलो भय्या चलो,” पुनः गुरुजी की शान्त ध्वनि आकाश में गूंजी, दिशाओं से टकराई और खाली ही गुरुजी के पास लौट आई । “बस एक बूंद और, अभी चलता हूं, ” इस उत्तर के अतिरिक्त और कुछ न था पथिक के पास । तीसरी बार पुनः गुरुदेव का करुणापूर्ण हाथ बढ़ा। अब की बार वे चाहते थे कि इच्छा न होने पर भी उस पथिक को कौली भरकर वहाँ से उतार लें । परन्तु पथिक को यह सब स्वीकार ही कब था ? यहाँ तो मिलता है मधुबिन्दु और शान्तिमूर्ति इन गुरुदेव के पास है भूख व प्यास, गर्मी व सर्दी, तथा अन्य अनेकों संकट कौन मूर्ख जाए इनके साथ ? लात मारकर गुरुदेव का हाथ झटक दिया उसने और क्रुद्ध होकर बोला, “जाओ अपना काम करो, मेरे आनन्द में विघ्न मत डालो ।” गुरुदेव चले गये, डाली कटी और मधुबिन्दु की मस्ती को हृदय में लिये, अजगर के मुँह में जाकर अपनी 200 Aa सद्गुरू का विमान Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. धर्म का प्रयोजन ५. संसार-वृक्ष जीवनलीला समाप्त कर दी उसने । कथा कुछ रोचक लगी है आपको, पर जानते हो किसकी कहानी है? आपकी और मेरी सबकी आत्मकथा है यह । आप हँसते हैं उस पथिक की मूर्खता पर, काश एक बार हँस लेते अपनी मूर्खता पर भी। इस अपार व गहन संसार-सागर में जीवन के जर्जरित पोत को खेता हुआ मैं चला आ रहा हूँ । नित्य ही अनुभव में आनेवाले जीवन के थपेड़ों के कड़े अधातों को सहन करता हुआ, यह मेरा पोत कितनी बार टूटा और कितनी बार मिला, यह कौन जाने ? जीवन के उतार चढ़ाव के भयंकर तूफान में चेतना को खोकर मैं बहता चला आ रहा हूँ, अनादि काल से। माता के गर्भ से बाहर निकलकर आश्चर्य भरी दृष्टि से इस सम्पूर्ण वातावरण को देखकर खोया-खोया सा मैं रोने लगा क्योंकि मैं यह न जान सका कि मैं कौन हूँ, मैं कहां हूँ, कौन मुझे यहां लाया है, मैं कहां से आया हूँ, क्या करने के लिए आया हूँ, और मेरे पास क्या है जीवन निर्वाह के लिये । सम्भवत: माता के गर्भ से निकलकर बालक इसीलिए रोता है। 'मानो मैं कोई अपूर्व व्यक्ति हूँ', ऐसा सोचकर मैं इस वातावरण में कोई सार देखने लगा। दिखाई दिया मृत्युरूपी विकराल हाथी का भय । डरकर भागने लगा कि कहीं शरण मिले। बचपन बीता, जवानी आई और भूल गया मैं सब कुछ। विवाह हो गया, सुन्दर स्त्री घर में आ गई, धन कमाने और भोगने में जीवन घुलमिल गया, मानो यही है मेरी शरण, अर्थात् गृहस्थ-जीवन जिसमें हैं अनेक प्रकार के संकल्प विकल्प, आशायें व निराशायें। यही हैं वे शाखायें व उपशाखायें जिनसे समवेत यह गृहस्थ जीवन है वह शरणभूत वृक्ष । आयुरूपी शाखा से संलग्न आशा की दो उपशाखाओं पर लटका हुआ मैं मधुबिन्दु की भान्ति इन भोगों में से आनेवाले क्षणिक स्वाद में खोकर भूल बैठा हूँ सब कुछ। कालरूप विकराल हाथी अब भी जीवन तरु को समूल उखाड़ने में तत्पर बराबर इसे हिला रहा है । अत्यन्त वेग से बीतते हुए दिन रात ठहरे सफेद और काले दो चूहे, जो बराबर आयु की इस शाखा को काट रहे हैं। नीचे मुँह बाये हुए चार अजगर हैं चार गतिये-नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव, जिनका ग्रास बनता, जिनमें परिभ्रमण करता मैं सदा से चला आ रहा हूँ और अब भी निश्चित रूप से ग्रास बन जाने वाला हूँ, यदि गुरूदेव का उपदेश प्राप्त करके इस विलासिता का आश्रय न छोड़ा तो। मधमक्षिकायें हैं स्त्री, पत्र व कुटुम्ब जो नित्य चंट-चंटकर मझे खाये जा रहे हैं, तथा जिनके संताप से व्याकुल हो मैं कभी-कभी पुकार उठता हूँ 'प्रभु ! मेरी रक्षा करें' । मधुबिन्दु है वह क्षणिक इन्द्रिय सुख, जिसमें मग्न हुआ मैं न बीतती हुई आयु को देखता हूँ, न मृत्यु से भय खाता हूँ, न कौटुम्बिक चिन्ताओं की परवाह करता हूँ और न चारों गतियों के परिभ्रमण को गिनता हूँ। कभी कभी लिया हुआ प्रभु का नाम है वह पुण्य, जिसके कारण कि यह तुच्छ इन्द्रियसुख कदाचित् प्राप्त हो जाता है। यह मधुबिन्दु रूपी इन्द्रिय सुख भी वास्तव में सुख नहीं, सुखाभास है। जिस प्रकार कि बालक के मुख में दिया जानेवाला वह निपल, जिसमें से कुछ भी स्वाद बालक को वास्तव में नहीं आता, क्योंकि रबर के बन्द उस निपल में से किञ्चित् मात्र भी मधु बाहर निकलकर उसके मुँह में नहीं आता । जिस प्रकार वह केवल मिठास की कल्पना मात्र करके सो जाता है उसी प्रकार इन इन्द्रिय-सुखों में मिठास की कल्पना करके मेरा विवेक सो गया है, जिसके कारण गुरुदेव की करुणाभरी पुकार मुझे स्पर्श नहीं करती तथा जिसके कारण उनके करुणा भरे हाथ की अवहेलना करते हुए भी मुझे लाज नहीं आती। गुरुदेव के स्थान पर है यह गुरुवाणी, जो नित्य ही पुकार-पुकारकर मुझे सावधान करने का निष्फल प्रयास कर रही है। यह है संसार-वृक्ष का मँह बोलता चित्रण व मेरी आत्मगाथा। भो चेतन ! कबतक इस सागर के थपेड़े सहता रहेगा? कब तक गतियों का ग्रास बनता रहेगा? कब तक कालद्वारा भग्न होता रहेगा? प्रभो ! ये इन्द्रियसुख मधुबिन्दु की भाँति नि:सार हैं, सुख नहीं सुखाभास हैं, 'एक बिन्दुसम'। ये तृष्णा को भड़काने वाले हैं, तेरे विवेक को नष्ट करनेवाले हैं। इनके कारण ही तुझे हितकारी गुरुवाणी सुहाती नहीं । आ ! बहुत हो चुका, अनादिकाल से इसी सुख के झूठे आभास में तूने आज तक अपना हित न किया। अब अवसर है, बहती गंगा में मुँह धोले । बिना प्रयास के ही गुरुदेव का यह पवित्र संसर्ग प्राप्त हो गया है। छोड़ दे अब इस शाखा को, शरण ले इन गुरुओं की और देख अदृष्ट में तेरे लिये वह परम आनन्द पड़ा है, जिसे पाकर तृप्त हो जायेगा तू, सदा के लिये प्रभु बन जायेगा तू। । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शान्ति १. भोग महारोग, २. चतुर्विध शान्ति, ३. सच्ची शान्ति १. भोग महारोग-शान्ति की पहिचान की बात चलती है। धनोपार्जन या विषय-भोगों में शान्ति नहीं है, यह बात कल बताई गई । परन्तु सन्तोष न हुआ उसे सुनकर। अभी भी अंतरंग में बैठा कोई अभिप्राय यह कह रहा है कि भले इच्छाका अन्त न आये, पर भोग आदि के क्षणों में तो उस मधु-बिन्दुवत् कुछ सुख प्रतीत होता ही है । फिर सर्वथा उसे दुःख किस प्रकार कह सकते हैं ? ठीक है भाई ! प्रश्न सुन्दर है। यह बात ही आज बताई जायेगी कि वह क्षणिक सुख जो भोग भोगते समय प्रतीत होता है, झूठा है। मेरे कहने मात्र पर विश्वास न कर लेना, और किसी के कहने से विश्वास आता भी तो नहीं। हृदय कब मानता है ? ले तो इस बात की प्रमाणिकता स्वयं तेरी अंतर्ध्वनि से ही सिद्ध करता हूं । एक बात तो आ चुकी कि ज्यों-ज्यों भोगों की प्राप्ति होती है त्यों-त्यों इच्छा बढ़ती है, हितकारी बात भी नहीं सुहाती । इसलिये भोगों की प्राप्ति में शान्ति नहीं। दूसरी बात यह है कि भोग भोगते समय भी तो उसे शान्ति नहीं कह सकते । जरा यह तो विचार कि वह क्षणिक सुखाभास सुख है या क्षणिक तीव्र वेदना का प्रतिकार ? देख भोग भोगने से पहले उस भोग के प्रति अकस्मात् ही कोई तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है । यह इच्छा तेरी पूर्ववाली इच्छाओं के अतिरिक्त कोई नवीन ही होती है, किसी तीव्र- रोगवत् । भोगद्वारा इस नवीन इच्छा का प्रतिकार मात्र किया गया, जिसके कारण कुछ क्षणों के लिए वह इच्छा दबसी गई । पर यह न विचारा तूने कि इसके इस प्रकार दबाने का (आफ्टर इफैक्ट) उत्तर फल क्या हुआ ? पूर्व की इच्छा में और वृद्धि । भोग पूर्व नवीन तीव्र इच्छा और भोग के पश्चात पूर्व-इच्छा में वृद्धि होते हुए भी, क्या इस भोग को सुख कहा जा सकता है ? किसी प्रकार भी इसे सुख कह लिया जा सकता यदि भोगते समय भी पुरानी इच्छा में कोई क्षणिक कमी आ जाती । उसमें तो उस समय भी कुछ न कुछ वृद्धि हुई प्रतीत होती है । भोग भोगते समय जो वह इच्छा प्रतीति में नहीं आती, वह भ्रम है। देख, कल्पना कर कि तेरे दांतो में दर्द है, बड़ा तीव्र । तड़फ रहा है तू उसकी पीड़ा से । इसी हालत में बैठा दिया तुझे कुछ खड़ी सुइयोंपर । तो बता दांत की पीड़ा भासेगी या सुइयों के चुभने की ? स्पष्ट है कि उस समय दांत की पीड़ा तेरे उपयोग में ही न आ सकेगी। क्या पीड़ा चली गई ? नहीं, ज्यों की त्यों है। अब उठा लिया गया उन सुइयों पर से। तब कुछ सुखसा लगा, या दुःख ? स्पष्ट है कि कुछ सुख सा महसूस होगा। क्योंकि सुइयों की तीव्र पीड़ा जिसने दांत की पीड़ा को ढक दिया था, अब दूर हो गई है। बता तो सही कि क्या दांत की पीड़ा में कुछ कमी पड़ी? नहीं ज्यों की त्यों है। बल्कि सुइयों पर से उठने के पश्चात् अवशेष रही सुइयां चुभने की कुछ पीड़ा बढ़ गई है। इसमें । और कुछ देर पश्चात् वही दांत की पीड़ा, वही तड़पन, साथ साथ सुइयों की थोड़ी सी पीड़ा भी । बस इसी प्रकार भोग भोगते हुए समझना। भोग की तीव्र अभिलाषा कुछ देर के लिये, पहले की इच्छा पर हावी होकर उसे उपयोग में आने से अवश्य रोक लेती है, पर उसका अभाव नहीं कर देती । भोग भोगते समय इस नवीन तीव्र इच्छा का कुछ प्रतिकार हो जाने के कारण, उपयोग में आई वह इच्छा दबी सी अवश्य प्रतीत होती है, पर पूर्व इच्छा अब भी कोई कमी नहीं आती बल्कि इस नवीन इच्छा के प्रतिकार के उत्तरफलरूप में उसमें वृद्धि अवश्य हो जाती है, जैसे कि मियादी बुखार को औषधि के द्वारा दबा देने पर दिल की कमजोरी आदि कई नवीन रोग उत्पन्न हो जाने पर भी रोगी अपने को अच्छा हुआ मान लेता है । यह उसका भ्रम नहीं तो और क्या है ? T 2. चतुर्विध शान्ति - लोक में अनुभव की जाने वाली शान्ति कई प्रकार की होती हैं। उसके कुछ भेदों को दर्शा देना यहाँ आवश्यक है । क्योंकि उनको जाने बिना सच्ची व झूठी शान्ति में विवेक नहीं किया जा सकेगा और उसके अभाव में अपने पुरुषार्थ की दिशा की भी ठीक प्रकार से परीक्षा नहीं की जा सकेगी। क्योंकि वास्तव में मार्ग की परीक्षा का आधार आगम नहीं बल्कि शान्ति का अनुभव है । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ३. शान्ति २. चतुर्विध शान्ति शान्ति को मुख्यत: चार कोटियों में विभाजित किया जा सकता है, जो उत्तरोत्तर कुछ अधिक निर्मलता व सन्तोष लिये हुये हैं। एक शान्ति तो वही है जो ऊपर दर्शा दी गई अर्थात् भोग की नवीन-तीव्र इच्छा के किञ्चित प्रतिकार से, क्षण भर के लिये प्रतीति में आने वाली, इन्द्रिय भोगों सम्बन्धी । दूसरी शान्ति, जो इससे कुछ ऊँची है वह प्राय: अपने कर्तव्य की पूर्ति होने पर कदाचित अनुभव करने में आती है। भोगों से निरपेक्ष होने के कारण वह कुछ पहली की अपेक्षा अधिक निर्मल है। दृष्टान्त द्वारा इसका अनुमान किया जा सकता है। कल्पना कीजिये कि आपकी कन्या की शादी है । नाता करने के दिन से ही आपकी चिन्तायें सामान जुटाने के सम्बन्ध में बढ़ रही हैं, यहाँ तक कि उस दिन जिस दिन कि बारात घर पर आई हुई है आप पागल से बन गये हैं। न आपको चिन्ता नहाने की है न खाने की । आपको यह भी याद नहीं कि आज कमीज.ही नहीं है बदन में । बौखलाये हुए से, सबकी कुछ-कुछ बातें सुनने पर भी, किसी को कुछ उत्तर नहीं दे सकते । “मैं कुछ नहीं जानता भाई, तुम करलो जो चाहो” बस होता था एक वाक्य, जो कभी-कभी निकल जाता था मुँह से। बारात विदा हुई, डोला आंखों से ओझल हआ, घर को लौटे और बैठ गये चबूतरे पर दो मिनिट को कुछ सन्तोष की ठण्डी साँस लेने। आ हा हा ! अब कछ बोझ हल्का हआ.मानो किसी ने मनों की गठरी सर से उतार ली हो। भले ही अगले मिनट में अन्य अनेकों चिन्तायें आकर घेर लें, पर उस क्षण में तो कछ हल्कापन सा, कछ शान्ति सी अवश्य प्रतीति में आई ही; जिसका सम्बन्ध न खाने से था, न धन की उपज से, न अन्य किसी भोग विलास से। फिर भी यह शान्ति क्यों? केवल इसलिये कि गृहस्थ के कर्त्तव्य का एक भार था जो आज हल्का हो गया। तीसरी शान्ति का दृष्टान्त सुनिये । कल्पना कीजिये कि आप बस में चले जा रहे हैं । बस रुकी कुछ व्यक्ति चढ़ गये और कुछ रह गये । एक व्यक्ति चलती गाड़ी में चढ़ने लगा, डण्डा हाथ में न आया, गिर पड़ा, सर फूट गया, सारा शरीर छिल गया, लहुलुहान हो गया और बस रुकी। सारे यात्री उतर गये और घायल व्यक्ति को घेर कर खड़े हो गये । कोई कण्डक्टर को धमकाने लगा और कोई ड्राईवर को गालियाँ देने लगा। परन्तु आपका ध्यान केवल उस व्यक्ति की ओर था। करुणा के मारे आप अपना काम भी भूल गये । एक टैक्सी रोकी और उसे उसमें डालकर आप हस्पताल ले गये। डाक्टर से कहा कि जो खर्चा लगेगा दूंगा, इसे अच्छा कर दीजिये। तीन दिन तक लगातार सवेरे शाम आप हस्पताल जाते और उस व्यक्ति से प्रेमपूर्वक संभाषण करते हुये आपको एक अपूर्व प्रकार की शान्ति का अनुभव होता। तीन दिन पश्चात् यह निर्णय हो जाने पर कि उसकी हालत अब बहुत अच्छी है और यह खतरे से निकल चुका है, आपने सन्तोष की सांस ली। इस प्रकार प्राणियों की नि:स्वार्थ सेवा से उत्पन्न होने वाली यह तीसरी शान्ति, दूसरी की अपेक्षा बहुत स्वच्छ है । यह उसकी अपेक्षा अधिक स्थायी भी है। यहाँ भी नि:स्वार्थता है और भोगाभिलाष का अभाव है । दूसरी की भाँति कर्तव्य परायणता से उत्पन्न हई है। पर यहाँ आपका कर्तव्य पाँच व्यक्तियों के कदम्ब में सीमित न रहकर सारे विश्व में व्याप गया है। आपकी यह व्यापक-दृष्टि ही इस शान्ति की उज्ज्वलता का कारण है । अब चौथी शान्ति की बात सुनिये । वास्तव में उसका दृष्टान्त सम्भव नहीं है क्योंकि दृष्टान्त उसी वस्तु का दिया जा सकता है जो कि जानी देखी हो । परन्तु इस जाति की शान्ति का दर्शन आप को अब तक नहीं हुआ है । अत: इसके प्रति संकेतमात्र दिया जा सकता है। वह अकथनीय है, केवल अनुभवनीय है। इतना मात्र इसके सम्बन्ध में अवश्य अनुमान कराया जा सकता है कि तीसरी कोटि से भी अनन्त गुणी है इसकी निर्मलता । और उसका कारण भी है उसकी अपेक्षा अनन्तगणी साम्यता, निरभिलाषिता तथा दष्टि की व्यापकता। यद्यपि व्याख्या करते समय इस शान्ति का वर्णन निषेध के आश्रय पर ही किया जाना सम्भव है, जैसे कि “जहाँ चिन्ताओं व अभिलाषाओं का अथवा विकल्पों व बुद्धियों का अभाव होता है, वहाँ ही वह शान्ति है।" परन्तु इसके साथ में रहने वाले साम्यता व व्यापकता के विशेषण इसमें कुछ विचित्रता बता रहे हैं। यह शांति वास्तव में सुषप्तिवत् केवल अभावात्मक नहीं है बल्कि कुछ सद् भावात्मक है। नि:स्वप्न दशा में भी निर्विकल्पता होती अवश्य है पर उसका कारण तो है वह अन्धकार जिसमें अन्त:करण शून्यवत् हो जाता है, क्योंकि उस समय वहाँ कुछ दिखाई देता ही नहीं। पदार्थों का ही नहीं बल्कि ज्ञान के भास का या चित्प्रकाश का भी अभाव हो जाता है वहाँ, परन्तु जिस शान्ति की Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. शान्ति ३. सच्ची शान्ति तरफ मेरा संकेत है वह प्रकाशस्वरूप है, ऐसा प्रकाश जिसमें अखिल विश्व युगपत् अपने कार्य में व्यस्त दिखाई दे, जिसमें यह विश्व एक महान नाट्यशाला के रूप में दिखाई दे, जिसे मैं दर्शक बनकर केवल देखता मात्र हूं पर उसमें 'क्या' और 'क्यों' करने को मेरे लिये कोई अवकाश नहीं है । जिसको मैं देखता हूं पर बता नहीं सकता। अर्थात् देखता हुआ भी कुछ नहीं देखता और न देखता हुआ भी सब कुछ देखता हूं । जहाँ एक विशाल व तरंगित सागर मेरे सामने है, परन्तु इसमें कितनी तरंगे हैं और कहाँ कहाँ हैं यह जानने का विकल्प नहीं । जहाँ मैं या मेरे ज्ञान ने ही विश्व का रूप धारण किया है, जहाँ विश्व खटपट करते एक बड़े भारी कारखानेवत् दिखाई देता है पर इसमें कितने पुर्जे हैं और कहाँ कहाँ हैं, यह जानने का विकल्प नहीं । ऐसी शांति कांतिरूप है और सुषुप्ति की शांति अन्धयारी है।' ३. सच्ची शान्ति–तीन प्रकार की शान्तियों पर से विश्लेषण कर लेने पर, हम शान्ति की यर्थाथता व निर्मलता सम्बन्धी एक सिद्धान्त बना सकते हैं । शांति वहाँ है जहाँ अभिलाषा न रहे, शान्ति वहाँ है जहाँ सर्व के प्रति साम्यता हो, शान्ति वहाँ है जहाँ दृष्टि में व्यापकता हो, शान्ति वहाँ है जहाँ कोई लौकिक स्वार्थ न हो। इसके अतिरिक्त एक पाँचवीं बात और भी है, जो इन तीन में तो नहीं पर उस चौथी शान्ति में पाई जाती है। वही चिन्ह वास्तव में उसमें और इस तीसरी में भेद दर्शाता है। और वह है सर्व लोकाभिलाषा का सर्वथा प्रशमन, एक मात्र उसी शान्ति के प्रति का बहुमान । जहाँ अन्तर में उठने वाली, 'कुछ और' की ध्वनि सिमटकर, रूप धरले 'बस यही' का । “बस यही चाहिए मुझे, कुछ और नहीं। तीन लोक की सम्पत्ति भी धूल है, इसके सामने।" ऐसा भाव जहां उत्पन्न हो जाए, वह है चौथी शान्ति । तीसरी शान्ति में इस चिह्न का न पाया जाना इस बात का द्योतक है कि इसमें कहीं छिपी पड़ी है कोई अभिलाषा, और जहाँ अभिलाषा का कण मात्र भी शेष है जहाँ निरभिलाषिता का लक्षण घटा नहीं कहा जा सकता। बस जिस उपाय से यह चौथी शान्ति प्रकट हो सके, उसे ही धर्म समझो, क्योंकि वही मेरा अभिप्रेत व लक्ष्य है, वही मेरी अन्तर्ध्वनि की मांग है, उसकी परीक्षा 'बस यही' वाले लक्षण से की जा सकती है। 'बस यही' की पूर्ति नहीं कही जा सकती और इसी कारण तीसरी शान्ति इस मांग को पूरा करने में असमर्थ है। AMS TA " X वास्तव में महान हैं ये जो सबको समान समझते हैं, सबको तत्त्वदृष्टि से देखते हैं और परम शान्ति को प्राप्त करते हैं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धर्म का स्वरूप १. सच्चा धर्म ; 2. धर्म का लक्षण, 3. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार । १. सच्चा धर्म - अहो ! शान्तिमूर्ति वीतरागी जनों की निःस्वार्थता, कि इतने बड़े उद्यम से बड़े से बड़े कष्ट सहकर, अपने जीवन की प्रयोगशाला में अनुभव प्राप्त करके, महान वस्तु, शान्ति, आज बांट रहे हैं वे निःशुल्क मुफ्त | जो चाहे वह ले । मनुष्यों को ही दें, यह बात नहीं तिर्यंचों को भी। राजा हो कि रंक, सत्ताधारी हो कि फकीर, स्त्री हो कि पुरुष, बाल हो कि वृद्ध पतित समझे जाने वाले वे व्यक्ति हों जिनको कि आज शूद्र कहा जा रहा है या हो कोई तिलकधारी ब्राह्मण, सब उनकी दृष्टि में एक हैं। सबको अधिकार है उसे लेने का । उदारता, महान् उदारता । परन्तु खेद है कि फिर भी मैं हाथ खेंच लूं उससे, कुछ बेकार की वस्तु समझकर। ऐसा न कर प्रभु । हाथ बढ़ा, तू भी इन गुरुओं के प्रसाद से वंचित न रह, तेरे ही हितकी बात है, बहुत स्वाद लगेगी तुझे । विश्वास कर कि एक बार चखने के पश्चात् पूरी की पूरी खाकर पेट भरे बिना छोड़ेगा नहीं। कृतकृत्य हो जायेगा तू, भव-भव की इच्छा छोड़कर भाग जायेंगी तुझे, और निरभिलाष स्वयं बन जायेगा तू पूर्ण शान्त व सन्तुष्ट, पूर्ण प्रभु । एक बार थोड़ी सी अवश्य चख ले, मेरे कहने से चख ले। बहुत स्वाद है इसमें, मैने स्वयं इसे चखा है, विश्वास कर। और फिर तुझसे कुछ ले तो नहीं रहे हैं, कुछ न कुछ दे ही रहे । अच्छा न लगेगा तो छोड़ देना, पर एक बार लेकर देख तो सही । धर्म बेकार की वस्तु नहीं बल्कि वह महान वस्तु है, जो मुझे मेरा सबसे बड़ा अभीष्ट, जिसके लिये कि मैं न मालूम कब से असफल पुरुषार्थ करता आ रहा हूं अर्थात् शान्ति प्रदान करता है, इच्छाओं को परास्त करता है । वैसे तो पूर्व में कहे अनुसार कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो धर्म के सम्बन्ध में कुछ न कुछ अपनी टांग न अड़ाता हो, अपनी रुचि व कल्पनाओं के आधार पर कुछ न कुछ मनघड़न्त व कपोल कल्पित धर्म का स्वरूप न बता रहा हो, बिना इस बात का निश्चय किये कि मैं क्या कहे जा रहा हूं । परन्तु यहाँ जो बात इसके सम्बन्ध में बताई जायेगी, वह कपोल-कल्पित नहीं होगी । वह वही होगी, जिसका कि आविष्कार योगीजनों ने किया है, अनुभव द्वारा, स्वयं अपने जीवन में उतारकर । यह बात वही है जिसकी एक धीमी सी रेखा का, आज इस निकृष्ट युग में भी, मैं स्वयं साक्षात्कार कर रहा हूँ। यह बात वह है जिसका आधार कल्पना नहीं, युक्ति है, कल्याण है, जिसका मूल शान्ति है, जिसकी कसौटी शांति है, जिसकी परीक्षा का आधार अनुभव है, साम्प्रदायिकता या पक्षपात नहीं । माना कि आज लोक के कोने-कोने से धर्म का बाना पहनकर बरसाती मेंढ़कों की भाँति निकल पड़ने वाले वक्ताओं की अनेकों परस्पर विरोधी बातें सुन-सुनकर एक झुंझलाहट सी उत्पन्न हो चुकी है, तेरे अन्दर । एक अविश्वास सा उत्पन्न हो चुका है तेरे अन्दर, धर्म के प्रति । परन्तु एक बार और सही, यह बात अवश्य सुन, सब झुंझलाहट, सब अविश्वास दूर हो जायेगा। समझ में न आये, ऐसी भी बात नहीं है, बड़ी सरल बात है, तेरे अपने जीवन पर से गुजरी हुई, तेरी आप बीती, क्यों न समझ में आयेगी ? डर मत ! इधर आ एक बार केवल एक बार । २. धर्म का लक्षण — धर्म के अनेकों लक्षण सुनने में आ रहे हैं, पर किसी न किसी प्रकार प्रत्येक में कुछ न कुछ स्वार्थ छिपा पड़ा है, उन वक्ताओं का । अतः परीक्षा करके तू स्वयं पहिचान सकता है उनकी असत्यार्थता । कोई, जिसे रोटी खाने को नहीं मिलती, कहता है कि भूखों को भोजन बांटना धर्म है । कोई, जिसे ख्याति की भावना है, कह रहा है कि ब्राह्मणों की सेवा करना धर्म है। कोई जिसे पैसे की भूख लगी है, कह रहा है कि दिवाली पर जूआ खेलना धर्म है। कोई, जिसे मांस की चाट पड़ी है कह रहा है कि देवता पर बकरे की बलि चढ़ाना धर्म है । कोई, जिसे स्वयं धनिकजनों से द्वेष है, कह रहा है कि इनका धन छीन लिया जाना धर्म है। कोई, जिसे भोगों की अभिलाषा है, कह रहा है कि धर्म-कर्म कुछ नहीं, 'खाओ पीओ मौज उड़ाओ' यही धर्म है। कोई, जो उपायहीन है, कह रहा है कि भगवान को भोग लगाना धर्म है । कोई, जिसमें द्वेष की अग्नि अधिक है, कह रहा है कि शास्त्रार्थ करना धर्म है । कोई, जिसे धन की हाय लगी है, कहता है कि भगवान को रिश्वत देना, अर्थात् बोलत-कबूलत करना धर्म है । यहाँ तक कि सन् ४७ के Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ४. धर्म का स्वरूप २. धर्म का लक्षण हत्याकांड में हिन्दुओं के द्वारा मुसलमानों का और मुसलमानों के द्वारा हिन्दुओं का क्रूरता से रक्त बहाया जाना भी धर्म था। चोरों तक का कोई न कोई धर्म है । फलितार्थ, जितने मुँह उतनी बातें, जितनी जाति की रुचि उतनी ही जाति के धर्म । इस जाति के लक्षणों की असत्यार्थता तो स्पष्ट ही है, कुछ कहने की आवश्यकता नहीं। क्योंकि इसमें स्वार्थ का ही नग्न नृत्य दिखाई दे रहा है । सब लक्षणों में है प्रथम कोटि की शान्ति की अभिलाषा। इसके अतिरिक्त भी धर्म के अनेकों लक्षण हैं, जो ज्ञानीजनों ने भिन्न-भिन्न अभिप्रायों को दृष्टि में रखते हुये किए हैं। उदाहरण के रूप में, दया धर्म का मूल है; अहिंसा परम धर्म है; नि:स्वार्थ सेवा धर्म है; परोपकार धर्म है; दान या त्याग धर्म है; श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र धर्म है; तथा अन्य अनेकों। इन सब पर तथा अन्य अनेकों लक्षणों पर विशेष दृष्टि डालने से, बहुत से लक्षण एकार्थ-वाचक से दिखाई देते हैं । जैसे दया, अहिंसा, सेवा व परोपकार एकार्थ वाचक से हैं। गणों को यदि संकुचित करके देखें तो मुख्यत: तीन रूप में देख पाते हैं-दया (अहिंसा), दान (त्याग), दमन (संयम)। ये तीनों गर्भित किये जा सकते हैं एक चारित्र में, अर्थात् जीवन चर्या में। और इस प्रकार श्रद्धा, ज्ञान चारित्र वाला लक्षण कुछ व्यापक सा दिखाई देने लगता है। इन सब ही लक्षणों का विशेष विस्तार तो आगे के प्रकरणों में आयेगा । यहाँ तो केवल इनकी सत्यार्थता व असत्यार्थता का विचार करना है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, धर्म का फल चौथी कोटि की शान्ति होना चाहिये । यही कसौटी है, धर्म के किसी भी लक्षण की सत्यार्थता व असत्यार्थता का निर्णय करने की । अत: उपरोक्त तथा अन्य भी, जिन क्रियाओं के करने से, मुझे आंशिक रूप से 'बस यही' वाली शान्ति का कुछ वेदन अन्तर में होता हुआ प्रतीत होता हो, वे सब क्रियायें सत्यार्थ धर्म कहला सकती हैं। उसके अभाव में सब वही क्रियायें असत्यार्थ हैं। क्योंकि सभी क्रियायें दो ढंग की होती हैं। एक उस शान्ति के साथ-साथ चलने वाली और एक उस शान्ति से निरपेक्ष, किसी भावुकता या साम्प्रदायिकता वश चलने वाली। इसीलिये तुझे अभी से इन दोनों सम्बन्धी विवेक जागृत करके, अपने को सावधान कर लेना चाहिये। ताकि आगे आगे के कथन क्रम में आने वाली, अथवा लोक में यत्र-तत्र दीखने वाली, उन्हीं या उस ही जाति की किन्हीं क्रियाओं में तुझे धर्म सम्बन्धी भ्रम न हो जाये और तेरा पुरुषार्थ फिर निष्फलता की दिशा मे प्रवाहित न होने लग जाये। इतने ही नहीं, कुछ और भी लक्षण ज्ञानी-जनों ने किये हैं, जो बहुत अधिक आकर्षक प्रतीत होते हैं। उनमें से दो मुख्य हैं—१. 'वस्तु का स्वभाव धर्म कहलाता है' । २. जो जीवन को संसार के दुःखों से उठाकर उत्तम सुख में धरं दे सो धर्म है। ये दोनों ही लक्षण बहुत अधिक स्पष्ट हैं। क्योंकि दोनों शान्ति की ओर संकेत कर रहे हैं। पहले लक्षण को यद्यपि जीव के अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी लागू किया जा सकता है, जैसे कि जल का स्वभाव शीतल होने से शीतलता जल का धर्म है, और अग्नि का स्वभाव उष्ण होने से उष्णता अग्नि का धर्म है, इत्यादि । परन्तु यहाँ जीव के धर्म का प्रकरण है, अत: लक्षण में कहे गए 'वस्तु' शब्द का अर्थ प्रकरणवश यहाँ जीव ग्रहण करना चाहिये । जीव का स्वभाव स्पष्टत: चिदानन्द अर्थात् ज्ञान व शान्ति होने से, शांतिपना जीव का धर्म है। दूसरा लक्षण स्पष्टत: ही उत्तम सुख अर्थात् शान्ति प्राप्ति के उपाय को धर्म बता रहा है। अल्पज्ञों के लिये धर्म के ये दो लक्षण बहुत अधिक स्पष्ट और आकर्षक हैं। ऊपर बताये गये दया आदि से इस सुख पर्यन्त के अनेकों लक्षणों को सुनकर उलझने की आवश्यकता नहीं। इनमें से कौन से लक्षण को सत्य मानूं, इस संशय को अवकाश नहीं । क्योंकि जैसा कि दया आदि के लक्षणों की सत्यार्थता व असत्यार्थता बताते हुये समझा दिया गया है, यदि वे दया आदिक लक्षण अन्तरंग शान्ति-सापेक्ष हैं, तो ये सर्व ही इस एक शान्ति वाले जीव-स्वभाव में गर्भित हो जाते हैं। किस प्रकार ? सो देखिये श्रद्धा ज्ञान व आचरण का अर्थ है, शान्ति के प्रति अत्यन्त रुचि, प्रतीति व बहुमान, शान्ति के सच्चे स्वरूप का तथा जीवन में कछ इस प्रकार के कार्य करना जिससे कि आंशिक रूप से आपको शांति का वेदन होता रहे। इसका विस्तार अगले अधिकारों में किया जाने वाला है। अहिंसा या इसमें गर्भित होने वाले अन्य दया आदि के लक्षणों का अर्थ है अपनी शांति के वेदन से प्रकटे, उसके बहुमानवश, दूसरे जीवों को भी शान्त देखने की इच्छा । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य मुनि श्री शान्तिसागर जी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धर्म का स्वरूप ३. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार फलस्वरूप उनको स्वयं दुखी करने या पीड़ा देने से दूर रहना अथवा किसी दूसरे से पीड़ित हुआ देखकर, उनके कष्ट को जिस किस प्रकार भी दूर करके उन्हें पुन: शान्ति प्रदान करना । त्याग या दमन का अर्थ है, सभी उन वस्तुओं तथा कार्यों का त्याग करना, जिनके द्वारा विकल्पोत्पादक अशांति में अथवा व्याकुलता की जननी अभिलाषा में वृद्धि होने की सम्भावना हो। अत: वे सर्व ही लक्षण एक शांति की सिद्धि के लिये हैं। अन्तर केवल इतना है कि पहले वाले वाले दया आदि के लक्षण चारित्र या पुरुषार्थ को आश्रय करके लिखे गये हैं, स्वभाव लक्षण श्रद्धा व ज्ञान को आश्रय करके लिखा गया है, तथा सुख में धरने वाला लक्षण उपरोक्त क्रियाओं के फल को दृष्टि में रखकर किया गया है। इस प्रकार धर्म की आवश्यकता तथा सत्यार्थ-शांति व धर्म की पहिचान जान लेने के पश्चात् अब उस धर्म की सिद्धि के उपाय या क्रम की बात चलती है जो कल से प्रारम्भ होगी। ३. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार-अनादि काल से आज तक के इतने लम्बे जीवन में पहिला अवसर है जबकि मैं धर्म प्रारम्भ करने चला हूँ । नवजात शिशु चलना प्रारम्भ करने का प्रयास करता है। आज अत्यन्त सौभाग्य का दिन है। प्रभु की शरण में आना ही शुभ चिह्न है । इससे उत्तम शुभ मुहूर्त और कौन सा हो सकता है? मुझे आशीर्वाद दीजिये गुरुवर ! वह कौन सा आधार है, जिसको पकड़कर मुझे अपने डगमगाते हुये पग इस धर्म मार्ग पर रखने होंगे? बच्चे को गडीलना दिया जाता है, मुझे किसका सहारा लेना होगा गुरुवर? क्या आपका सहारा पर्याप्त है ? नहीं, मेरा सहारा तुझे अधिक लाभ नहीं पहुँचा सकता । मेरा सहारा तो केवल इतना ही है, कि मैं किन्हीं दिशा-विशेषों की ओर संकेत करके आगे आने वाली ठोकरों से तुझे सावधान कर दूं। पर चलना तो तुझे ही होगा अपना सहारा लेकर, अर्थात् अन्तर्ध्वनि का सहारा लेकर । मैं तो केवल उस अन्तर्ध्वनि को पढ़ने का उपाय तुझे दर्शा सकता हूँ पर उसे तेरे अन्दर उत्पन्न नहीं करा सकता। अत: उस अन्तर्ध्वनि की मेरे कहे अनुसार पहिचान कर, वही तेरे मार्ग का सबसे बड़ा साथी होगा, पद-पद पर वही तेरी रक्षा करेगा। देख ! कोई भी बुरा काम करके क्या तेरा अन्त:करण तुझे धिक्कारता हुआ प्रतीत नहीं होता? विचार तो सही कि कौन शक्ति है जो उस बालक को अपने साथी की पुस्तकं चुराते हुये कंपा देती है ? किसकी प्रेरणा से वह इधर उधर ताकने लगता है ? पुस्तक उठाता और सीधे चल देता घर । वहाँ कौन था उसे रोकने वाला? किसी व्यक्ति की चुगली कर देने के पश्चात् तू क्यों उस व्यक्ति से आँख नहीं मिला सकता? कौन शक्ति है जो तुझे उस व्यक्ति से आँख चुराने के लिये मजबूर करती है ? नदी में डूबते हुये किसी अपरिचित बालक को नदी से निकालकर तू क्यों पुलकित सा हो जाता है ? उसको साथ लेकर उसके घर तक जाते हये क्यों तझे गर्व सा प्रतीत होता है? भखा होते हये भी. किसी दसरे के हाथ पर से रोटी क्यों नहीं उठा लेता त? कौन है वह शक्ति जिसकी प्रेरणा से त शभ कार्यों को करते हये हर्षित होता है, और अशभ कार्यों को करते हुये डरता है ? बाहर में तो कोई भी तुझे रोकता नहीं, या करने के लिये कहता नहीं। बस इसी तेरे अन्त:करण की शक्ति-विशेष को यहाँ अन्तर्ध्वनि' शब्द का वाच्य बनाया जा रहा है । सर्व जीवों की यह कोई स्वाभाविक ध्वनि है, जो अन्तर में छिपी, स्वत: बिना पूछे, अशुभ कार्य करने का निषेध और शुभ कार्य करने की प्रेरणा देती रहती है। इसके सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि यह सर्व-परिचित है। इतनी बात अवश्य है कि किन्हीं व्यक्तियों में, किन्हीं कार्य विशेषों के लिये यह बड़ी जोर से पुकारा करती है, और किन्हीं व्यक्तियों में, किन्हीं कार्य-विशेषों के लिये इसकी आवाज बहुत धीमी होती है । सम्भवत: इतनी धीमी कि वह स्वयं भी उसे सुनने न पाये । आज का एक डाकू चोरी करने का निषेध करती हुई उस अन्तर्ध्वनि को सुन नहीं पाता, परन्तु वही उस काम को करने के प्रारम्भिक दिवस में बहुत जोर से सुन रहा था उसे । इतने पर से यह नहीं कहा जा सकता कि आज उसकी अन्तर्ध्वनि सर्वथा मर चुकी है। 'अचेत हो गई है' यह भले कहो । क्योंकि आज भी अपने सहायक डाकुओं की सम्पत्ति पर हाथ डालने का साहस उसे नहीं है ? आज के युग का एक विशेष आविष्कार उसके हृदय में दबी हई उस अन्तर्ध्वनि की किसी तेजहीन कणिका के अस्तित्व को दर्शा रहा है ? भारत में न सही पर इंगलैण्ड की न्यायशालाओं में यह यन्त्र काम में आ रहा है। कितना भी बड़े से बड़ा तथा सिद्ध हस्त दोषी इस यन्त्र पर हाथ रखकर अपने को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करे तो इस यन्त्र को धोखा नहीं दे सकता । उसकी कांपती हई सई यह बता ही देती है कि अब तक भी इसके हृदय में अपने दोष के प्रति कुछ कम्पन पड़ा हुआ है जो इसको बराबर धिक्कार रहा है । यह भले ही उसको सुनने न पावे, पर इस यन्त्र को वह स्पष्ट सुनाई दे रहा है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. धर्म का स्वरूप २६ ३. अन्तर्ध्वनि तथा संस्कार इस वक्तव्य व दृष्टान्त में से एक बहुत बड़ा सिद्धान्त निकल रहा है। प्रत्येक प्राणी के अन्त:करण में एक स्वाभाविक अन्तर्ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है । यह ध्वनि सदा उसे दोषों से हटाने का उपदेश देती है, दोष हो जाने पर उसे धिक्कारती है, कुछ भले कार्य करने के लिये उसे उत्साहित करती है, और ऐसा कोई कार्य हो जाने पर उसकी प्रशंसा करती है, कमर थपथपाती है। किसी भी कार्य के प्रारम्भ में इसकी आवाज ऊँची होती है, पर ज्यों-ज्यों उस कार्य-विशेष में अभ्यास बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वह आवाज धीमी पड़ती जाती है, और एक दिन कुछ अचेत सी होकर पड़ी रहती है । आवाज के दबने का कारण है, उसकी अवहेलना । पुन: पुन: सचेत करती हुई उस आवाज को सुनते हुये भी, जब मैं उसकी परवाह किए बिना, कुछ अपनी मनमानी करता हूँ तो एक प्रकार से उसकी अवहेलना करता हूँ, उसका अपमान करता हूँ, उसको ठुकरा देता हूँ। और यदि मैं बराबर उसका अपमान करता चला जाऊँ तो कहाँ तक और कब तक दे सकेगी वह मेरा साथ ? आखिर धीमी पड़ते-पड़ते अचेत हो जायेगी । इतना सौभाग्य अवश्य है कि वह अमर है, अवसर पाने पर पुन: सचेत होकर मुझे झंझोड़ डालती है और मैं सावधान होकर अपने पहले कृत्य पर पश्चाताप करने लगता है। इस अन्तर्ध्वनि को अंग्रेजी में 'कौन्रॉस' कहते हैं। यह सदा प्राणी को हित की ओर ले जाने तथा अहित से हटाने का प्रयत्न किया करती है। इसके अतिरिक्त एक दूसरी शक्ति भी है, जिसे मैं 'संस्कार' शब्द से पुकारता हूँ। यह उस उपरोक्त अन्तर्ध्वनि का शत्रु है। इसकी आवाज सदा उसके विरोध में उठा करती है.? वह जिधर ले जाना चाहे, ये संस्कार उससे विपरीत दिशा में ही खेंचने का प्रयत्न करते हैं। प्रत्येक प्राणी के ये संस्कार, उसके द्वारा ही स्वयं आगे पीछे बनाये जाते हैं, जिस प्रकार बचपन से धीरे-धीरे चोरी का अभ्यास करते हुये आज वह डाकू बन गया है। जिस चोरी को करते हुये पहले वह डरता था, वही आज उसके लिये खेल है । कम्पन के साथ प्रारम्भ किया जाने वाला वह कार्य आज उसकी आदत बन चुका है, एक संस्कार बन चुका है। अंग्रेजी में इसका नाम 'Instinct' है। क्योंकि इसका प्रारम्भ अन्तर्ध्वनि की अवहेलना-पूर्वक होता है इसलिये यह उसका शत्रु बनकर रहता है और उसकी अवहेलना करने के लिये मुझे उकसाता रहता है। इसकी शक्ति यहाँ तक बढ़ जाती है कि फिर मैं अन्तर्ध्वनि को सनना भी पसन्द नहीं करता। वैदिक कवियों ने इसी भाव को देवासुर-संग्राम के अति सुन्दर अलंकारिक रूप में चित्रित किया है। ये दो शक्तियाँ प्रत्येक प्राणी में पाई जा रही हैं, इनमें से एक शान्तिपथ-प्रदर्शक है और एक इच्छा तथा चिन्तापथ-प्रदर्शक, एक स्वाभाविक है और दूसरी कृत्रिम, एक अमर है और एक विनाशीक क्योंकि प्राणियों के ये संस्कार तो बदलते हुये देखे जाते हैं पर अन्तर्ध्वनि नहीं। इसलिये यही वह सहायक साथी है जो सदा तेरा साथ देगा, इसका आश्रय लेकर चलना। आज तक संस्कार को साथ लेता और अन्तर्ध्वनि की अवहेलना करता चला आया है, इसी कारण दुःखी व अशान्त बना हुआ है। अब औषधि बदल देनी होगी, क्रम को उल्टा कर देना होगा, अन्तर्ध्वनि का आश्रय लेकर संस्कार की अवहेलना करके चलना होगा। इसके विरुद्ध सत्याग्रह करना होगा, जो यह कहे उसे स्वीकार न करना होगा, चाहे कितने भी कष्ट क्यों न उठाने पड़ें। और इस प्रकार अवहेलना को सहन करने में असमर्थ, ये संस्कार तेरा देश छोड़कर सदा के लिये विदा हो जायेंगे। रह जायेगी वह अमर अन्तर्ध्वनि अकेली, जिसके साथ शांतिपथ पर ही चलता रहेगा तू, विचलित न होने पायेगा तू। परन्तु उस अन्तर्ध्वनि को सुनकर उसका ठीक-ठीक अर्थ लगाना प्रत्येक का काम नहीं। उसके लिये कुछ विवेक चाहिये जिसके बिना कि अन्तर्ध्वनि व संस्कार इन दोनों की आवाजों व प्रेरणाओं में ठीक-ठीक भेद नहीं हो पाता। कभी कभी उनका अर्थ ठीक भी लगा लेता है और कभी गलती भी खा जाता है । अर्थात् अन्तर्ध्वनि की आवाज को मान बैठता है संस्कार की, और संस्कार की आवाज को मान बैठता है अन्तर्ध्वनि की। कभी-कभी ठीक-ठीक जान लेने पर भी संस्कार के प्राबल्य के कारण अन्तर्ध्वनि का अर्थ ज़बरदस्ती घुमा डालता है, और इस प्रकार सर्वदा हित से वंचित ही रहा है। इस विवेक को उत्पन्न करने के लिये कुछ विशेष सामग्री चाहिये, वह ही बड़े विस्तार के साथ अगले प्रकरणों में चलेगी। जरा धीरज धरकर ध्यान-पूर्वक सुनना, सम्भवत: कई महीनों तक बराबर सनना पड़े नहीं तो इधर के रहोगे न उधर के। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग १. त्रयात्मक पथ, २. लक्ष्य बिन्दु, ३. श्रद्धा, ४. चारित्र । १. त्रयात्मक पथ — स्वतन्त्र रीति से शान्ति की खोज करने की बात है। सहायता लेनी है अन्तर्ध्वनि की, बचना है संस्कार से । इन दोनों विरोधी बातों में विवेक उत्पन्न करने के लिये कुछ विशेष बातें चलनी हैं अब, अर्थात् मूल विषय, शान्ति - पथ, धर्म-मार्ग अथवा मोक्ष मार्ग । किसी भी कार्य में प्रवृत्ति करने के क्रम का यदि विश्लेषण करने बैठते हैं तो उसे त्रयात्मक पाते हैं । अर्थात् तीन मुख्य बातों का एक पिंडरूप ही वह प्रवृत्ति होती है । वे तीन अंश है श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र । देखिये डाक्टरी के कार्य में प्रवृत्ति का विश्लेषण करके। 'मुझे डाक्टर बनना है', ऐसा लक्ष्यबिन्दु अर्थात् 'मेरे लिये यही हितकर है और कुछ नहीं,' ऐसी दृढ़ श्रद्धा व रुचि रोगनिदान, रोग के कारण, और रोग की औषधि सम्बन्धी ज्ञान; तथा दुकान पर बैठकर रोगियों पर उस ज्ञान का प्रयोगरूप चारित्र । यही तो है डाक्टर की प्रवृत्ति । यदि एक अंग की भी कमी हो, तो विचारिये कि क्या उसका डाक्टरी कर सकना सम्भव है ? लक्ष्यबिन्दु यदि फोटो ग्राफर बनने का हो, या फोटोग्राफरी को ही अपने लिये हितकर समझता हो और उसी की रुचि रखता हो, तो क्या सम्भव है कि वह डाक्टरी करे, भले ही डाक्टरी का ज्ञान भी क्यों न हो? और यदि लक्ष्य में तो डाक्टरी करना हो तथा उसको हितकर मानकर उसमें रुचि रखता हो, पर तत्सम्बन्धी ज्ञान न हो, तो क्या चित्त मसोसकर ही न रह जाएगा वह ? और यदि लक्ष्य व रुचि भी हो, तथा डाक्टरी का ज्ञान भी हो, पर दुकान पर बैठे नहीं, या बैठकर रोगियों को देखें नहीं, और पढ़ा करे नाविल तो क्या डाक्टरी कर सकेगा वह ? इसी प्रकार जौहरी की, बज़ाज़ की या किसी और की प्रवृत्ति का भी विश्लेषण करके यही फलितार्थ निकलेगा । प्रत्येक प्रवृत्तित्रयात्मक ही होगी । बस इसी प्रकार शान्ति-पथ पर चलने की प्रवृत्ति भी त्रयात्मक ही है । शान्ति का लक्ष्यबिन्दु अर्थात् इस ही को हितकर मानकर, अन्तरंग से इसकी रुचि व श्रद्धा करना, शान्ति सम्बन्धी ज्ञान करना तथा उन क्रिया विशेषों में प्रवृत्ति जिनके करने पर कि उस शान्ति का अनुभव हो, अर्थात् चारित्र करना, जिसका उल्लेख कि आगे किया जाने वाला है । २. लक्ष्य बिन्दु - इन श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र के सच्चे झूठेपने की परीक्षा लक्ष्यबिन्दु से होती है। डाक्टरी का लक्ष्यबिन्दु रखने वाले के लिये शान्ति-पथ सम्बन्धी श्रद्धा झूठी है। उस लक्ष्यबिन्दु की पूर्ति के लिये शान्ति या शान्तिपथ सम्बन्धी ज्ञान तथा चारित्र झूठा है । और इसी प्रकार शान्ति का लक्ष्य रखने वाले के लिये डाक्टरी सम्बन्धी श्रद्धान, ज्ञान व चारित्र झूठा है। लक्ष्यबिन्दु के अनुकूल ही यह त्रयात्मकता कार्यकारी है। इसलिये शान्ति - पथ की जिज्ञासा रखने वाले भो भव्य ! तनिक अपने अन्दर में उतरकर इस जिज्ञासा व रुचि की परीक्षा तो कर। कहीं ऐसा न हो कि लक्ष्यबिन्दु तो पड़ा रहे धन कमाने या भोग भोगने का और सीखने या सुनने लगे शान्तिपथ सम्बन्धी बातें । यदि ऐसा है तो सुना सुनाया बेकार हो जायेगा। क्योंकि जो बात बताई जायेगी उससे तेरे लक्ष्यबिन्दु की सिद्धि न हो सकेगी। यह मार्ग जो कि बताया जाने वाला है, धन कमाने का नहीं है। इससे कदाचित् धनहानि तो होना सम्भव है पर धनलाभ नहीं । अतः देख ले, दिल कड़ा करना होगा, और उसके लिये बदलना होगा अपना लक्ष्यबिन्दु । बिना लक्ष्यबिन्दु बनाये चला किस ओर और चला जायेगा किस ओर, यह कौन जाने ? लक्ष्य-रहित व्यक्ति वनों में भटकने के अतिरिक्त और करेगा ही क्या ? यद्यपि पहले भी बता दिया गया है, परन्तु एक विस्तृत विषय चालू करने से पहले उसको पुन: याद दिला देना आवश्यक है कि वह विस्तृत कथन केवल लक्ष्य-बिन्दु को आधार बनाकर चलेगा । पद-पद पर, वाक्य वाक्य में उस ही की ओर संकेत कराया जायेगा। एक क्षण को भी उसे भूलना न होगा, क्योंकि उसे भूल जाने पर कथन का रहस्य समझ में न आ सकेगा। वह सब विस्तार कुछ मनघड़ंत सा, कुछ साम्प्रदायिक सा दिखाई देने लगेगा। वह लक्ष्यबिन्दु है 'शान्ति' । वह शांति जिसके प्रकट हो जाने पर अन्तर से उठने Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ३. श्रद्धा वाली 'और चाहिये' की ध्वनि बदल जायेगी 'बस यही चाहिये, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। तीन लोक की सम्पत्ति, हीरे मोती आदि सब धूल-समान हैं, ठुकरा दिये जाने योग्य हैं इसके सामने, इस रूप में। यह लक्ष्यबिन्दु दृढ़ता से हृदयंगम कर लेना योग्य है । यह तुझे शक्ति प्रदान करेगा, उस विस्तृत कथन को समझने की तथा उससे कुछ हित उत्पन्न करने की। इस लक्ष्यबिन्दु का बड़ा महत्त्व है प्रत्येक कार्य में। क्योंकि किसी भी दिशा में जाने की, या कोई भी कार्य करने की, उस कार्य में सफलता व असफलता का निर्णय करने की, कार्यक्रम की सत्यार्थता व असत्यार्थता बताने की शक्ति इसी से मिला करती है । उत्तर दिशा में चलता चलता दूर निकल जाने वाला कोई व्यक्ति, यदि उस दिशा में चलना बन्द करके, दक्षिण की ओर मुख करके खड़ा हो जाय, उस ओर चलने का लक्ष्य रखकर, तो क्या उसे दक्षिण देश के निकट हुआ न कहेंगे? भले अभी वहीं खड़ा हो, पग भी आगे रखे बिना। इसी प्रकार शान्ति के उपाय को जीवन में घटित किये बिना भी, अशान्ति की ओर जाने वाले भो चेतन ! यदि केवल अशान्ति के अभिप्राय के कार्यों को छोड़कर, शान्ति ५. शान्ति मार्ग अभिप्राय मात्र को धारण करके, तू शान्ति का लक्ष्यबिन्दु बनाले तो अपने को शान्ति के निकट ही समझ । परन्तु सच्चा लक्ष्यबिन्दु उसे कहते हैं जो अन्तरंग से रुचिपूर्वक उस दिशा में ही चलने के लिये व्यक्ति को उकसाये और अन्य दिशा में चलने से रोके । अतः यहाँ लक्ष्यबिन्दु का तात्पर्य केवल शाब्दिक शान्ति या मोक्ष की अभिलाषा से नहीं है । ऐसी अभिलाषा या मोक्ष के प्रति का झूठा लक्ष्यबिन्दु तो आज भी बना हुआ है, सबको। सब ही तो कहते हैं कि प्रभु ! किसी प्रकार मुझे शान्ति प्रदान करें। आज के इस लक्ष्य-बिन्दु की असत्यार्थता का पता चलता है इस दृष्टान्त से : —— एक सेठ जी थे । भगवान के बड़े भक्त थे, प्रभु के सामने अपने उद्गार प्रकट करते, स्तुति करते तथा अपने दोषों के लिये रोते हुये कई-कई घण्टे मन्दिर में व्यतीत करते । यही थी उनकी एक पुकार, कि भगवन् ! किसी प्रकार मोक्ष प्रदान कीजिये । उनकी भक्ति की परीक्षा का अवसर आया। एक देव आकर कहने लगा, “सेठ जी ! आपकी भक्ति से बड़े प्रसन्न हुये हैं भगवान, मुझे भेजा है आपकी इच्छा पूर्ति के लिये ।" सेठ जी की बाँछे खिल गई । आज उन्हें मोक्ष मिलने वाली थी । पर वे स्वयं नहीं जानते थे कि मोक्ष किसे कहते हैं ? देव बोला “ सेठजी ! आपके दस पुत्र हैं तथा दस कारखाने । एक पुत्र प्रति दिन मरेगा और एक कारखाना रोज फेल होगा। दस दिन पीछे तुम पुत्र हीन हो जाओगे और कंगाल भी । बस ग्यारहवें दिन मैं ले जाऊँगा तुम्हें आकर ।" परन्तु सेठ जी सहम गये, यह बात सुनकर। पुत्रों की मृत्यु भी सम्भवतः ली पड़ती, पर कंगाल होना ? नहीं-नहीं, यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है, गले से नीचे न उतर सकेगी। देव से बोले “ भाई; बड़ा कष्ट किया है तुमने मेरे लिये, एक कष्ट और देता हूँ, क्षमा करना । प्रभु से यह प्रार्थना करना कि यदि किसी और क्वालिटी की, किसी और प्रकार की मोक्ष हो तो प्रदान करने की कृपा करें, परन्तु इस क्वालिटी की मोक्ष तो सम्भवत: मुझे पच न सकेगी।" बस ऐसा ही है हमारा भी लक्ष्यबिन्दु । धन न छूटे, कुटुम्ब न छूटे, खूब भोग भोगता रहूँ, और शान्ति भी चखता रहूँ । अर्थात् विष भी पीता रहूँ और अमृत का स्वाद भी लेता रहूँ। ऐसा लक्ष्य वास्तव में लक्ष्यबिन्दु कहलाता ही नहीं, सुनी-सुनाई सी कोई बात है जो रट सी गई है। चौथी जाति की सच्ची शान्ति के प्रति सच्चा लक्ष्यबिन्दु बनाने के लिये कहा जा रहा है; वह लक्ष्यबिन्दु जिसके कारण लौकिक सर्व बाधायें आ पड़ने पर भी उसके मार्ग पर से तेरी प्रगति मन्द न पड़ने पावे । ३. श्रद्धा — मार्ग की त्रयात्मकता कल बताई गई उसमें से पहला अंग है श्रद्धा, उसकी बात चलेगी। श्रद्धा का अर्थ है लक्ष्यबिन्दु, रुचि, प्रतीति व अभिप्राय । किसी बात को बिना परीक्षा किये मुझे स्वीकार नहीं करना है | मैं वैज्ञानिक बनकर चला हूँ साम्प्रदायिक नहीं। 'श्रद्धा' इस मार्ग का सर्वप्रथम व सर्वप्रमुख अंग है, क्योंकि बिना ठीक-ठीक लक्ष्यबिन्दु व रुचि के उसका तत्सम्बन्धी ज्ञान व चारित्र अकार्यकारी है। इन अगले दो अंशों की सत्यार्थता का आधार यह श्रद्धा ही है । यद्यपि श्रद्धा व लक्ष्यबिन्दु दोनों एक ही बात हैं, परन्तु फिर भी श्रद्धा के सम्बन्ध में साधारणतः बहुत भ्रम चलता है । लक्ष्यबिन्दु रहित केवल साम्प्रदायिक श्रद्धा को सच्ची माना जा रहा है और उसी पर सन्तोष धरकर कुछ क्रियायें केवल अन्धविश्वास के आधार पर की जा रही हैं, जिनका कोई फल नहीं । निष्फल उस पुरुषार्थ से ऊबकर आज I Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग ३. श्रद्धा का जगत् धर्म की जिज्ञासा ही छोड़ बैठा है और भोग विलास के तीव्र वेग में बहा चला जा रहा है, बेसुध । अत: श्रद्धा की सत्यार्थता व सुन्दरता बता देना आवश्यक है, जिससे कि भ्रमात्मक उस झूठे सन्तोष से पग-पग पर सावधान रहा जा सके; उस अभिप्राय के अनुकूल श्रद्धा की, जिस अभिप्राय को रखकर कि उसका स्वरूप दिखाया जा रहा है। जैसा कि आगे के प्रकरणों में दिखलाने में आयेगा। अभिप्राय या श्रद्धा पर ही किसी क्रिया विशेष की सत्यार्थता व असत्यार्थता निर्भर है। श्रद्धा के सम्बन्ध में कछ ऐसी धारणा बन रही है, कि मैं तो ठीक ही स्वीकार करता हूँ। अमक ही प्रकार के देव, गुरु व धर्मादि को स्वीकार करता हूँ, अन्य प्रकार वाले को नहीं और यही गुरुदेव की आज्ञा है । गुरु-वचनों में कभी संशय नहीं करता, भले वे समझ में आवें या न आवें, हृदय उसे स्वीकार करे या न करे, क्योंकि भय है इस बात का कि कहीं मेरी श्रद्धा झूठी न पड़ जाय, संशय उत्पन्न करने से । परन्तु भाई ! कभी विचारा है यह कि वह श्रद्धा सच्ची है ही कब, जो झूठी पड़ जायेगी? पहले ही से जो झूठी है उसका क्या झूठा पड़ना? भले बाहर से शब्दों में शंका न कर, पर अन्तरंग की शंका को कैसे दबायेगा? और यदि अन्तरंग में शंका नहीं है तो तत्त्व समझते समय 'यह तो बिल्कुल ठीक है परन्तु .............?' यह ‘परन्तु' कहाँ से आ रही है ? इसके अतिरिक्त शास्त्र के आधार पर तत्त्वों सम्बन्धी कुछ जानकारी सी करके “यह बिल्कुल ठीक है, ऐसा ही है, अन्य मतों के द्वारा प्ररूपित तत्त्व ठीक नहीं हैं", इस प्रकार के साम्प्रदायिक अन्ध-श्रद्धान को श्रद्धा की सच्ची कोटि में गिना जाता है परन्तु यदि ऐसा ही होता तो ऐसी श्रद्धा तो सब को ही है । मुसलमानों द्वारा प्ररूपित तत्त्व को माने सो मोमिन और न माने तो काफिर । वेद को माने तो आस्तिक और न माने तो नास्तिक । उनके इस कथन में तथा तेरे उपरोक्त कथन में अन्तर ही क्या रहा? यदि अपनी-अपनी दही को मीठा बताने का नाम ही सच्ची श्रद्धा है तो लोक में कोई भी झूठी श्रद्धा नहीं रहेगी, सब शान्ति-पथ गामी होंगे। अत: साम्प्रदायिक श्रद्धा का नाम सच्ची श्रद्धा नहीं है यह साम्प्रदायिक नहीं वैज्ञानिक मार्ग है। अन्ध-श्रद्धा को यहाँ अवकाश नहीं। बिना 'क्या' और 'क्यों' किये स्वीकार की गई बात स्वीकृत नहीं कही जा सकती, क्योंकि ऐसा ही है' इस श्रद्धा का विषय, केवल उस तत्त्व सम्बन्धी शब्द हैं, उस तत्त्व का रहस्यार्थ नहीं । अर्थात् ऐसी श्रद्धा केवल शाब्दिक है तात्त्विक नहीं। जीव, अजीव आदि के भेद-प्रभेदों को शब्दों में जानते हुये भी वास्तव में वह नहीं जानता कि जीव किस चिड़िया का नाम है और अजीव आदि के साथ इसका क्या सम्बन्ध है। इस प्रकार के शाब्दिक ज्ञान से विद्वान बन सकता है, तार्किक बन सकता है, वक्ता बन सकता है, पर श्रद्धालु नहीं। कुल परम्परा के आधार पर अन्धविश्वास करने वाले की तो बात नहीं, वह तो है ही कोरा अन्धश्रद्धालु, परन्तु 'तत्वों आदि को जानने वाला भी सच्चा श्रद्वालु नहीं', यहाँ तो यह बताया जा रहा है। किसी भी विषय सम्बन्धी सच्ची श्रद्धा तो वास्तव में उस समय तक सम्भव नहीं जब तक कि उस विषय का अनुभव न हो जाय। अनुभव से पहले की जाने वाली श्रद्धा की पोचता की परीक्षा भी की जा सकती है। दृष्टान्त सुनिये- कल्पना करो किसी ऐसी परिस्थिति की, जिसमें कि आप स्वयं घिर गये हैं। किसी गाँव को लक्ष्य में रखकर चलते-चलते पहुँच गये किसी भयानक वन में, जहाँ से बहुत सी पगडण्डियाँ फूट जाती हैं। असमंजस में पड़े विचारने लगे कि कौन सी पगडण्डी पर चलूँ? किसी राहगीर की प्रतीक्षा करते हो । सौभाग्य से एक व्यक्ति दिखाई दिया जिसका शरीर नंगा, केवल घुटनों से ऊँची मैली कुचैली एक धोती थी उसकी टाँगों में कुछ अस्त-व्यस्त सी उलझी हई, कन्धे पर एक लट्ठ, हट्टा कट्टा काला कलूटा सा एक मानव, जिसे रात को देखें तो भय के मारे सम्भवत: प्राण ही निकल जायें। खैर, साहस करके पूछा भी तो उत्तर मिला इतना कर्कश कि मानो खाने को ही दौड़ता है। “चला जा अपनी दाईं ओर । मार्ग जानता नहीं, आ गया पथिक बनकर।" आप ही बताइये कि क्या उसके द्वारा बताई गई दिशा में आप एक भी पग रखने को समर्थ हो सकोगे? भले ही रात वन में बितानी पड़े, पर उसके कहे पर आपको कदापि विश्वास नहीं आयेगा। परन्तु कुछ ही देर पश्चात् दिखाई दिया एक और भला परन्तु अपरिचित कोई अन्य व्यक्ति सफेद सादे वस्त्र पहने, मस्तक पर तिलक लगाये, और हाथ में डोरी लोटा लिये। उससे भी पूछा अपना इष्ट मार्ग । बड़े मधुर व सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में उत्तर मिला । करुणा ही टपक रही थी उन शब्दों से । “ठीक मार्ग पर नहीं आये हो पथिक, वन Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग ३. श्रद्धा बड़ा भयानक है, भयानक जन्तुओं का वास; है यहाँ, यदि रात्रि पड़ गई तो जीवित न बचोगे । खैर अब भी समय है, इस दाहिनी ओर वाली पगडण्डी पर चलो। लगभग डेढ़ मील जाने पर एक नाला मिलेगा, जिस पर पड़ा होगा खजूर का एक तना, पुल के रूप में । नाले को पार कर जाओ, एक मील और आगे दिखाई देगा वृक्षों का एक बहुत बड़ा झुण्ड । बड़ा साया रहता है वहाँ । वहाँ पहुँचकर बाईं ओर मुड़ जाना, आधा मील ही रह जायेगा वहाँ से आपका स्थान ।" विचारिये, क्या अब भी उस दिशा में आपका पग न उठेगा? आपको अवश्य उसके कहने पर विश्वास आ जायेगा और आप प्रसन्न-चित्त चल पड़ोगे उस दिशा में। भला क्या अन्तर था पहिले तथा इस व्यक्ति के संकेत में? मार्ग तो उसने भी वही बताया था जो कि इसने । परन्तु पहले मैं अविश्वास और अब विश्वास? क्या कारण है ? कारण है वक्ता की प्रामाणिकता। इसी प्रकार यहाँ धर्म के सम्बन्ध में वीतरागी गुरुओं ही की बात आपको स्वीकार है, रागीजनों की नहीं । कारण कि आपको दिखती है वहाँ नि:स्वार्थता व करुणा । जो बात वे मुख से कहते हैं उसकी झांकी उनके जीवन में स्पष्ट दिखाई देती है । और इन्हीं गुणों के कारण वे आपकी दृष्टि में प्रामाणिक हैं। श्रद्धा के पथ पर आपका यह पहला पग है, जिसमें क्या कमी है सो आगे दर्शाता हूँ। चले अवश्य जा रहे हो उसी मार्ग पर परन्तु हृदय में है कुछ कम्पन सा-“यदि यह भी मार्ग ठीक न निकला तो? या आगे जाकर फिर भटक गया तो? बीहड़ वन है कौन जाने पहुँच भी पाऊँगा या नहीं? खैर चलो भगवान सहायी हैं, और इस प्रकार के अनेकों विकल्प । तनिक विचारो, पक्ष को छोड़कर, क्या यही अवस्था न होगी आपके हृदय की इस श्रद्धा की प्रथम श्रेणी में ? बस स्पष्ट हो गया इस श्रद्धा का झूठापना या अन्धविश्वासपना । अन्तर्ध्वनि से आने वाली यह 'तो' इस बात की साक्षी है कि स्वीकार करते हुये भी आपका संशय दूर नहीं हुआ है अभी । इसी प्रकार यहां धर्म-मार्ग में भी, यद्यपि स्वीकार हैं गुरुओं की बातें परन्तु “निश्चय से न सही, व्यवहार से तो ठीक है न यह हमारी पहले की धारणा?" इस प्रकार जो पोषण करने का प्रयत्न किया जा रहा है, अपने ही अभिप्राय का, यह कहाँ से निकल रहा है ? बस यही है बात की कि वास्तविक तत्त्व आपको स्वीकार ही नहीं है, अन्यथा आपकी धारणा बदल जानी चाहिये थी। आगे चलिये, नाला दिखाई दिया और साथ में वह खजूर का पुल भी। विचारिये तो कि कुछ कमी पड़ेगी उस कम्पन में या नहीं? अवश्य पड़ेगी। “नहीं नहीं, यह मार्ग ठीक ही होगा, वही पहिला चिह्न जैसे बताया था आ गया, अब कुछ संशय नहीं रहा इसमें, अब तो आ ही जायेगा गांव ।" कुछ ऐसी सी बात प्रकट हो जायेगी। यद्यपि संशय बहत मन्द पड़ चुका है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि उसका सर्वथा अभाव हो गया है, जिसकी 'ठीक ही होगा,' 'आ ही जायेगा' ये कुछ शब्द दे रहे हैं। दृढ़ श्रद्धान में सन्देह-सूचक शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ करता। और इसी प्रकार इस धर्म-क्षेत्र में भी गुरुवाणी से तत्त्वों को सीखकर यद्यपि कुछ व्रतादि धारण कर लिये हैं, परन्तु फिर भी उन तत्त्वों की श्रद्धा में सन्देह पड़ा हुआ है। जिसकी साक्षी इस अभिप्राय से मिलती है कि भले आज न सही पर व्रतादि करते-करते आगे कभी तो 'होगी ही' मोक्ष । यह श्रद्धा की दूसरी कोटि है, यद्यपि पहले से कुछ दृढ़, पर सच्ची नहीं। आगे चलिये, वृक्षों का झुण्ड आया, हृदय में एक आह्लाद उत्पन्न हुआ, मानो टांगों में शक्ति आ गई हो, और तेजी से कदम उठने लगे। “बस अब गांव आ ही गया समझो, बस इस मार्ग में किंचित भी संशय नहीं, यह ठीक ही है ।" इस प्रकार की दृढ़ता, यद्यपि इस श्रद्धा की दृढ़ता को सूचित कर रही है, तदपि श्रद्धा अब भी दृढ़ नहीं है । यह बात गले उतरनी कुछ कठिन पड़ती है, परन्तु विचार करने से अवश्य इसकी सत्यता ध्यान में आ जायेगी । कल्पना कीजिये कि कुछ ही दूर झुण्ड से आगे निकल जाने पर, आपका कोई चिरपरिचित मित्र मिल जाता है, और कुछ आश्चर्य में पड़कर आपसे पूछ बैठता है, “कहां जा रहे हो मित्र इस मार्ग से? बाल बच्चों का प्रबन्ध कर आये हो या नहीं?" स्वभावत: हा जायेंगे उसकी इस बात पर कि क्या कारण है उसके इस आश्चर्य का? और यदि वह बताये कि तम्हें गलत मार्ग पर डाला गया है, आगे उसी ठग का गाँव पड़ेगा जिसने कि तुम्हें मार्ग बताया है, तो क्या आप कांप न उठोगे? बताइये कहाँ चली जायेगी आपकी इस समय तक की दृढ़ श्रद्धा? बस यही बात साक्षी है कि यह तीसरी कोटि की अत्यन्त दृढ़ दीखने वाली Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग ३१ ३. श्रद्धा श्रद्धा भी वास्तव में सच्ची नहीं है। इसी प्रकार धर्म-क्षेत्र में भी व्रतों आदि या विद्वत्ता आदि के कारण, सम्मान से मिली प्रतिष्ठा से भ्रमित होकर, भले आप यह मान बैठें कि मेरी श्रद्धा बिल्कुल सच्ची है, यही गुरुओं के द्वारा प्रतिपादित मार्ग है, इतने बड़े-बड़े प्रसिद्ध व्यक्ति तथा विद्वान इस मेरी श्रद्धा का समर्थन कर रहे हैं; परन्तु वास्तव में यह श्रद्धा भी सच्ची नहीं है । क्योंकि भले बाहर में आपके मुख से कोई शब्द ऐसा न निकले जिस पर से तार्किक आपके अभिप्राय में भूल निकाल सकें, भले ही बाहर में यह कहते सुने जायें कि मुझको बड़ा आनन्द आ रहा है इस जीवन में, परन्तु आप स्वयं यह जान नहीं पाते कि यह आनन्द जीवन में से आ रहा है कि प्रतिष्ठा के कारण लोकैषणा में से ? आपके अन्तरंग में तो यह मार्ग कुछ कठिन सा भास रहा है, असिधारा के समान । बस जीवन में इस कठिनाई का वेदन ही इस बात का साक्षी है कि आपकी यह तीसरी कोटि की श्रद्धा भी सच्ची नहीं है, भले दूसरों की अपेक्षा अधिक दृढ़ हो यह । और आगे चलिये, वह देखो कलशे सर पर रखे गांव की स्त्रियाँ कुएँ पर से पानी लाती दिखाई दे रही हैं । सामने मन्दिर के शिखर पर लहराती ध्वजा मानो हाथ की झोली दे-देकर आपको बुला रही है, और कह रही है कि चले आइये, यही है वह गांव जहाँ आप जाना चाहते थे । अब विचारिये कि स्वयं वीर प्रभु भी आकर यह कहने लगें कि “किधर जाते हो ? यह मार्ग ठीक नहीं है।" तो क्या उनकी बात स्वीकार करेंगे आप ? कदापि नहीं । आपकी आंखों के सामने गांव है। इस चाक्षुष प्रत्यक्ष के सामने आप भगवान की बात को भी स्वीकार करके कोई संशय उत्पन्न करने को तैयार नहीं। बस इसी प्रकार धर्म-क्षेत्र में भी साक्षात् चौथी कोटि की शान्ति की रूप रेखाओं का जीवन में संवेदन हो जाने पर, लोक की कोई शक्ति आपको आपके शान्ति पथ से विचलित करने में समर्थ न हो सकेगी। संवेदन-प्रत्यक्ष के सामने आपको गुरुजनों के आश्रय की भी आवश्यकता नहीं रहेगी । अनुभवात्मक चौथी कोटि की यह श्रद्धा ही वास्तव में सच्ची श्रद्धा कही जा सकती है। I यहाँ शान्ति के इस वैज्ञानिक मार्ग की त्रयात्मकता में अभिप्रेत श्रद्धा से तात्पर्य इस उपरोक्त चौथी कोटि की श्रद्धा है । कुल परम्परा के आधार पर हुई, या साम्प्रदायिक पक्षपात के आधार पर हुई, या गुरुओं पर भक्ति आदि की भावुकतावश हुई, या विद्वत्तावश हुई, या लोक-प्रतिष्ठावश हुई श्रद्धाओं का नाम यहाँ श्रद्धा नहीं कहा जा रहा है। श्रद्धा वास्तव में वह होती है जो बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं रुचिपूर्वक उस व्यापार विशेष के प्रति अन्तरंग झुकाव उत्पन्न करा देती है। जिसके कारण शीघ्रातिशीघ्र वह अपने जीवन को उस श्रद्धा के अनुरूप ढालने का प्रयत्न करने लग जाता है, शक्ति को नहीं छिपाता, न ही कोई बहाने तलाश करता है, अपनी श्रद्धा को दूसरों पर जताने के लिये। जैसे- "क्या करूँ, करना तो बहुत चाहता हूँ पर कर्म करने नहीं देते। अजी गृहस्थी के जंजाल में फँसा हूँ बुरी तरह, " इत्यादि । उपरोक्त कथन पर से यह भी ग्रहण न कर लेना कि उत्तरोत्तर वृद्धि को पाती वे तीन कोटि की श्रद्धायें सर्वथा बेकार हैं । नहीं, ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो आप उस मार्ग पर पग ही न रखते। इसलिये पहले पहल मार्ग पर अग्रसर कराने के लिये, तथा उस ओर का उत्तरोत्तर अधिकाधिक उल्लास उत्पन्न कराने के लिये वे श्रद्धायें अवश्य अपना महत्त्व रखती हैं । परन्तु उनमें सन्तोष पा लिया है जिसने, उसका निषेध करने के लिये, तथा वास्तविक सच्ची श्रद्धा का सुन्दर रूप दर्शाने के लिये अथवा भ्रम मिटाने के लिये ही इतना कथन किया गया है। अन्धविश्वास भी जिसको नहीं है, ऐसे विलासी जीवों की अपेक्षा तो वह कुछ अच्छा ही है क्योंकि भले अन्धविश्वास के आधार पर ही सही, शान्ति की खोज करने तो लगा है वह । शान्ति का अनुभव कर लेने पर खुल जायेगा इस अन्ध-श्रद्धान का रहस्य, और प्रसन्न होगा यह जानकर कि उसके द्वारा किया गया वह झूठा श्रद्धान भी सच्चे के अनुरूप ही निकला । परन्तु अन्धश्रद्धान आँख मीचकर ही नहीं कर लेना चाहिये । बात-बात में परीक्षा करते हुये चलना है । अत: केवल उन्हीं की बात पर श्रद्धा करनी योग्य है, जिनका जीवन स्थूल दृष्टि से शान्त दिखाई दे, जिनके उपदेश का लक्ष्य शान्ति हो तथा जिनकी कथन पद्धति भी शान्त हो । स्वार्थी जनों का भोगों के प्रति आकर्षण कराने वाला उपदेश, इस मार्ग का बाधक व अभिलाषा-वर्धक होने के कारण स्वीकार करने योग्य नहीं है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग ४. चारित्र ४. चारित्र-त्रयात्मक मार्ग के प्रथम अंग का कथन पूरा हुआ। ज्ञान नामक द्वितीय अंग का कथन आगे यथास्थान किया जाएगा। अब उसके तृतीय अंग ‘चारित्र' का कथन चलता है । "चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिहिट्ठो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥" चारित्र का अर्थ है धर्म अर्थात् जीव का स्वभाव और वह होता है समता स्वरूप । आत्मा या जीव की वह स्वाभाविक परिणति ही समता का लक्षण है जिसमें न है मोह और न है क्षोभ, अर्थात् जिसमें न है स्थान तात्त्विक अविवेक को और न है अवकाश इन्द्रिय मन तथा चित्त की चंचलता को । तात्त्विक अविवेक की निवृत्ति हो जाती है विवेक ज्ञान से, जिसका उल्लेख आगे किया जाने वाला है। चंचलता क्या और उसका अभाव क्या इस विषय में थोडी नकारा यहा दे देना आवश्यक है । इस सम्बन्ध में आप कुछ न जानते हों ऐसा भी नहीं है । नित्य के अनुभव की बात है। कौन नहीं जानता कि उसकी पाँचों इन्द्रियाँ एक क्षण को भी विश्रान्त होकर नहीं बैठती । एक विषय को छोड़कर दूसरे पर और दूसरे को छोड़कर तीसरे पर सदा भागती रहती हैं। अभी चलो होटल में और अभी सिनेमा में । अब रेडियो सुनो और अब करो शरीर का श्रृंगार । इन्द्रियाँ बेचारी क्या करें? ये तो ठहरी सेविकायें मन की। जो आज्ञा मिलती है वही करती हैं। इन सबका स्वामी तो मन है । विविध प्रकार के संकल्प-विकल्प करना ही उसका स्वरूप है। यह वस्तु मुझे इष्ट है यह अनिष्ट, यह शत्रु है यह मित्र, यह सज्जन है यह दुर्जन, यह सुख है यह दुख, यह जन्म है यह मरण, यह पुण्य है यह पाप, यह धर्म है यह अधर्म इत्यादि न जाने कितने परस्पर विरोधी द्वन्द्वों की वासनायें पड़ी हैं इसके गर्भ में । अनन्त है उसका विस्तार । इन्हीं वासनाओं से प्रेरित होकर सदा आज्ञा देता रहता है यह इन्द्रियों को, सदा दौड़ाता रहता है यह इन्द्रियों को, इस वस्तु को प्राप्त करो, इसका त्याग करो, इसका संरक्षण करो, इसका नाश करो और जाने क्या क्या । यही कारण है कि एक क्षण को भी विश्राम नहीं मिलता जीवन में। चिन्ताओं का भार लिये प्रात: बिस्तर से उठना, दो चार लोटे पानी के जल्दी से शरीर पर डाल, उल्टे सीधे कपड़े पहन, मोटरकार पर सवार हो किसी एक दिशा में चल देना, घर में बीवी-बच्चों को तथा माता-पिता को एक निराशा की उलझन में छोड़कर । कुछ घण्टों में जल्दी-जल्दी कभी इधर दौड़ और कभी उधर आगे-आगे दौड़ और पीछे-पीछे छोड़ करता लगभग ३० मील का चक्कर लगा लिया। दस दफ्तरों में स्वयं जाकर हो आये,३० से टेलीफोन पर बात कर ली, और दोपहर को खाना खाने के समय लौट आए घर पर, कुटुम्बियों के चेहरे पर संतोष की धीमी सी रेखा खेंचते । खाना खाने बैठे, दो चार टुकड़े खाए, टेलीफोन की घण्टी बजी और खाना बीच में ही छोड़ भागे । पुन: वही मोटरकार, वही सड़क, वही दफ्तर, घर में बीवी-बच्चे व माता-पिता पुन: उदास । बिना खाए चले जो गए हैं आप । दिन भर की दौड़ धूप से थके-मांदे लौटे घर पर रात्रि को ९ बजे बिल्कुल सोने के समय । न बीवी से बात, न बच्चों से हँसी, न माता-पिता को सांत्वना के दो शब्द, सो गए । सो क्या गए, रात बिता दी चिन्ताओं में कि कल को यह करना है और वह करना है । प्रात: हो गई, पुन: वही चक्र। यह है बाह्य जीवन का स्थूल-क्षोभ, जिसका कारण है मनोगत उपर्युक्त सूक्ष्म-क्षोभ । दोनों ही प्रकार के क्षोभ का अभाव चारित्र या धर्म है और वह है वास्तव में वही विश्रान्ति या शान्ति जिसका कथन चल रहा है। इसे आप समता कहो, साम्यता कहो, माध्यस्थता कहो, शुद्धभाव कहो, या कहो वीतरागता । सभी शब्दों का अवसान होता है उसी प्रधान अर्थ में अर्थात् शान्ति में। . समता का अर्थ है सब में समान भाव-मैं तू में, यह वह में, स्त्री पुरुष में, बालक वृद्ध में, निर्धन सधन में, मूर्ख विद्वान् में, ऊँच नीच में, ब्राह्मण चाण्डाल में, मनुष्य तिर्यंच में, गाय कुत्ते में, हाथी चींटी में, स्वर्ण पाषाण में, लाभ अलाभ में । मोह का अभाव हो जाने के कारण अथवा तात्त्विक विवेक जागृत हो जाने के कारण, सभी पदार्थों में तत्त्व का दर्शन करने वाले उस महाभाग के चित्त में इन विषमताओं को अवकाश कहाँ ? और इन विषमताओं के अभाव में इष्टानिष्ट आदि उपर्युक्त द्वन्द्वों को प्रवेश कहाँ ? न है उसके लिये कुछ इष्ट न अनिष्ट, न शत्रु न मित्र, न सज्जन न दुर्जन, न सुख न दुख, न जन्म न Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोमूर्ति श्री 105 क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. शान्ति मार्ग ३३ ४. चारित्र मरण, न पुण्य न पाप, न धर्म न अधर्म, न ग्राह्य न त्याज्य । और यही है क्षोभ का अभाव, पूर्ण वीतरागता, पूर्णकामता, कृतकृत्यता । इसे ही कहते हैं चारित्र और यही है धर्म । पूजा आदि क्रियाओं को धर्म कहना तो उपचार है। वास्तव में वस्तु का स्वभाव ही धर्म का लक्षण है । क्योंकि शान्ति अर्थात् निर्विकल्पतारूप होने के कारण यह समता मेरा स्वभाव है, इसलिये यही मेरा धर्म है। विचित्र बात सुन रहे हैं। हम तो सनते थे कि “यह छोड़, यह कर, यह खा, यहाँ रह", इत्यादि क्रियाओं का नाम चारित्र है, और देव पूजा आदि का नाम धर्म, परन्तु आप तो कुछ और ही कह रहे हैं ? शान्त हो प्रभु ! शान्त हो, तेरा सुना हुआ भी गलत नहीं है। वह वास्तव में चारित्र नहीं चारित्र की साधना है। वैसा-वैसा करते हुये धीरे-धीरे जीवन की भाग-दौड़ समाप्त होती जाती है, पहिले बाह्य जीवन की और फिर भीतरी जीवन की। और इस प्रकार एक लम्बे काल तक अभ्यास करते रहने पर वह दिन भी आ जाता है जबकि साधक का द्विविध क्षोभ शान्त हो जाता है और निज स्वभाव-स्वरूप साक्षात् चारित्र की उपलब्धि करके, खो जाता है वह उसमें सदा के लिये। जिस प्रकार 'अन्न' प्राण नहीं, परन्त प्राणों को टिकाये रखने का कारण है. और इसीलिये लोक-व्यवहार में 'अन्न ही प्राण है ऐसी उक्ति प्रचलित है. उसी प्रकार ग्रहण-त्याग आदि की उक्त क्रियायें चारित्र नहीं परन्तु उसकी प्राप्ति का कारण या उपाय हैं, और इसीलिये लोक-व्यवहार में ‘ग्रहण-त्याग, शुद्ध-भोजन, देव-दर्शन, सामायिक ध्यान आदि चारित्र अथवा धर्म हैं', ऐसी उक्ति प्रचलित है. उड़ रे पंछी ऊँचे ऊँचे आ अपने शिवपुर में । खोज रहा क्या इस भव वन में, क्या भूला विभ्रम में | स्वच्छ लोक का वासी तू है, दिव्य लोक का वासी। ऊर्ध्व गमन है परिणति तेरी, तू असीम विलासी ॥MATI Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. तत्त्वार्थ १. सात तथ्य, २. तत्त्व, ३. तत्त्वार्थ। १. सात तथ्य-किसी भी कार्य को प्रारम्भ करने से पहले श्रद्धा का महत्त्व दर्शाया जा चुका है, परन्तु श्रद्धा किस बात की की जाय यह नहीं बताया गया। कोई पदार्थ तैयार करने के लिये एक कारखाना लगाने से पहले स्वाभाविक रीति से हमारे मन में तथा एक वैज्ञानिक के मन में सात प्रश्न उठते हैं। वे सात बातें ही किसी कार्य की सफलता के लिये यथार्थत: जानने व श्रद्धा करने योग्य हैं। क्योंकि उनके जाने व श्रद्धा किये बिना वह कार्य प्रारम्भ ही नहीं किया जा सकेगा। यदि उन सात बातों में से किसी एक दो बातों मात्र का ज्ञान व श्रद्धान रखकर अन्य बातों की परवाह न करके कार्य प्रारम्भ कर दिया जाय, तो अन्धवत् ही इधर-उधर हाथ पाँव मारने पड़ेंगे, और फल निकलेगा निष्फल पुरुषार्थ या पूंजी का विनाश । दृष्टान्तर से यह बात स्पष्ट हो सकेगी। _वे सात बातें निम्न प्रकार हैं.-१. मूल पदार्थ (रॉ मैटीरियल) क्या है ? २. उसके सम्पर्क में आने वाले अन्य पदार्थ (इम्पोरिटीज) क्या हैं? ३. मिश्रण का कारण क्या है ? ४. पदार्थ का मिश्रित स्वरूप क्या है ? ५. मिश्रण के प्रति सावधानी का उपाय । ६. मिश्रित अन्य पदार्थों के शोधन का उपाय । ७. शुद्ध पदार्थ का स्वरूप क्या है; देखिये एक डेयरीफार्म लगाना इष्ट है, तो ये सात बातें जाननी पड़ेंगी। १. मूल पदार्थ (दूध) क्या है। २. इसके साथ रहने वाले 'पानी' 'बैक्टेरिया' आदि (सूक्ष्म जन्तु) क्या हैं । ३. बैक्टेरिया की उत्पत्ति के कारण क्या हैं । ४. जल व बैक्टेरिया से मिश्रित दध का स्वरूप क्या है। ५.बैक्टेरिया की नवीन उत्पत्ति रोकने का उपाय। ६.पर्व बैक्टेरिया के विनाश का तथा दुग्ध शोधन का उपाय । ७. शुद्ध दूध (प्योर मिल्क) का स्वरूप क्या है । इसी प्रकार किसी रोग का प्रतिकार इष्ट है तो ये सात बातें जाननी व श्रद्धा करनी पडेंगी। १.मैं नीरोग हैं. २. वर्तमान में रोगी हँ, ३. रोग का कारण अपथ्य सेवन, ४. रोग का निदान, ५. अपथ्य सेवन का निषेध, ६. योग्य औषधि, ७. नीरोगी अवस्था का स्वरूप। अब आप ही विचारिये कि क्या इन सात बातों के ज्ञान व श्रद्धान बिना कारखाना या डेयरीफार्म लगाना या रोग का दूर किया जाना सम्भव है । और यदि इन सात बातों में से किसी एक दो मात्र बातों के ज्ञान व श्रद्धान के आधार पर कार्य प्रारम्भ करने का दुःसाहस भी कर लिया तो क्या फल होगा। लाभ की बजाय हानि । बैक्टेरिया की उत्पत्ति व उसके दूर करने का उपाय न जानने के कारण उसके प्रति सावधानी न रह सकेगी, फलत: दूध सड़ जायेगा। रोग के कारणों अर्थात् अपथ्यका या ठीक औषधि का ज्ञान न होने के कारण अपथ्य-सेवन न छोड़ सकूँगा, तथा गलत औषधि ले लूँगा, फलत: रोग घटने की बजाय बढ़ जायेगा इत्यादि । अत: श्रद्धा की विषयभूत सात बातें जाननी आवश्यक हैं। यहाँ जीवन का शान्तिरूप कार्य अभीष्ट है । अत: सात बातें जाननी व श्रद्धा करनी योग्य हैं । १. 'मैं', जिसे शान्ति चाहिये, वह क्या है। २. सम्पर्क में आने वाले अन्य पदार्थ क्या हैं । ३. अशान्ति क्यों । ४. अशान्ति क्या है। ५. नवीन अशान्ति को रोकने का उपाय । ६. पूर्व-अशान्ति के कारणों का विनाश कैसे । ७. शान्ति क्या । इन सब बातों का आगम में सात तत्त्व कहकर निर्देश किया गया है। इन सातों तत्त्वों के नाम हैं-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष । इन सबका विस्तृत स्वरूप आगे चलेगा, क्योंकि उनके विस्तार का ज्ञान हुये बिना श्रद्धा किस पर करेंगे। नाममात्र जानने से तो काम चलता नहीं। नाम तो भले कछ और रख लीजिये, पर शान्ति-पथ में उपयोगी इन उपरोक्त बातों का स्वरूप जानना अत्यावश्यक है । ज्ञानी जनों ने कहीं भी अन्धविश्वास करने को नहीं कहा है । आगम, अनुभव इन तीनों से परीक्षा करके ही स्वीकार करने का निर्देश किया है। इन तीनों में भी अनभव प्रधान है जैसा कि कलवाले श्रद्धान के प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है। २. तत्त्व इसीलिये यहाँ तथ्य शब्द का प्रयोग न करके तत्त्व शब्द का प्रयोग किया गया है। तत्त्व अर्थात् तत् + त्व। तत्' का अर्थ है 'वह' और 'त्व' का अर्थ 'पना' या स्वभाव; जैसे अग्नि का स्वभाव उष्णत्व, जल का स्वभाव Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. तत्त्वार्थ ३५ ३. तत्वार्थ शीतलत्व, जीव का स्वभाव चेतनत्व । इस प्रकार तत्त्व शब्द का अर्थ हुआ वह का वहपना, अर्थात् जिस किसी भी पदार्थ का, द्रव्य का अथवा भाव का कथन करना अभिप्रेत है, उसका स्वभाव । इस प्रकार दृष्टि को विशालता प्रदान करता है यह शब्द, द्वैत से अद्वैत की ओर ले जाता है यह शब्द । वह कैसे, सो देखिए । स्वभाव कहते हैं किसी पदार्थ की उस जातीयता को जो कि उस ही प्रकार के अनेक पदार्थों में अनुगत हो। जैसे अनेक अग्नियों में अनुगत एक अग्नित्व अर्थात् एक अग्नि-जातीयता, अनेक जीवों में अनुगत एक चेतनत्व अर्थात् एक चेतन-जातीयता, अनेक जड़ परमाणुओं में अनुगत एक जड़त्व अर्थात् एक जड़-जातीयता। इस दृष्टि से देखने पर पता चलता है कि द्रव्य और तत्त्व में कुछ भेद है। तत्त्व सामान्य है और द्रव्य उसके विशेष । भले जीवद्रव्य अनेक हों परन्तु सब में अनुगत चेतनत्व या चेतनतत्त्व एक है। भले परमाणु अनेक हों परन्तु उन सब में अनुगत जड़त्व या जड़तत्त्व एक है । इस प्रकार यह शब्द द्वैत में अद्वैत उत्पन्न करता है और बताता है कि जीवतत्त्व एक है, भले ही जीवद्रव्य अनेक हुआ करें । इसी प्रकार अजीवतत्त्व एक है, भले ही अजीव द्रव्य अनेक हुआ करें । इसी प्रकार आश्रव-बन्ध तथा संवर-निर्जरा ये चारों तत्त्व भी एक-एक हैं, भले आश्रव तथा बन्ध के अन्तर्गत आने वाले रागद्वेषादि भाव अनेक हों अथवा संवर निर्जरा के अन्तर्गत गिनी जाने वाली व्रत, समिति, गुप्ति आदि क्रियायें तथा वैराग्य आदि भाव अनेक हों । इसी प्रकार मोक्षतत्त्व भी एक है भले ही मुक्तजीव अनेक हुआ करें । तत्त्व शब्द के द्वारा निर्दिष्ट यह अद्वैत-दृष्टि शान्तिपथ का प्राण है क्योंकि इस दृष्टि से देखने पर न रहता है मैं-तू का तथा य का भेद, न रहते हैं अच्छे-बुरे के तथा हेय-उपादेय आदि के द्वन्द्व, और न रहता है करने-धरने का विकल्प । प्रकट हो जाती है व्यापक समता, शान्ति, आनन्द । ३. तत्त्वार्थ-तत्त्व मात्र न कहकर तत्त्वार्थ कहना और भी अधिक रहस्यात्मक है । वह कैसे? देखिये-किसी भी शब्द का अर्थ बताते या समझते समय कोषकार का अथवा विद्यार्थी का लक्ष्य किधर होता है-उन शब्दों की ओर जिनके द्वारा कि उस अर्थ का प्रतिपादन किया जा रहा है, अथवा उस पदार्थ की ओर जिसके प्रति वे शब्द संकेत कर रहे हैं ? 'गाय' शब्द का अर्थ पुस्तक में लिखा 'गाय' अथवा बोला या सुना गया 'गाय' शब्द है या कि है उस शब्द का वाच्य, जीता जागता वह पशु-विशेष जिसके दूध का हम नित्य पान करते हैं। अत: स्पष्ट है कि तत्त्वार्थ पद में प्रयुक्त 'अर्थ' इस बात की चेतावनी देता है कि इस प्रकरण में जीव आदि शब्दों द्वारा जिन सात बातों या तत्त्वों का उल्लेख किया जाना है, यहाँ उन शब्दों का अथवा उनकी लम्बी चौड़ी व्याख्याओं का श्रद्धान कराना इष्ट नहीं है, प्रत्युत उन भावों का या स्वभावों का श्रद्धान कराना इष्ट है जिनके प्रति कि ये शब्द अथवा व्याख्यायें संकेत कर रहे हैं। वे भाव भी कहीं बाहर में नहीं हैं, प्रत्युत स्वयं आपके मनोलोक में, बुद्धि लोक में, अथवा हृदय लोक में निहित हैं। इसलिये न वे इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के विषय हैं और न आगम अथवा अनुमान के। केवल स्वानुभव-प्रत्यक्ष ही एकमात्र शरण है उनको जानने के लिये। सम्प्रदाय को अवकाश.नहीं इस वैज्ञानिक मार्ग में । इसका साया भी यहाँ न पड़ने पाये, ऐसी सावधानी रखने की आवश्यकता है। अत: इन जीवादि सात बातों का स्वरूप कुछ इस प्रकार से सुनना या विचारना इष्ट है, जिस पर विचार करके तथा अपने जीवन में उस-उस उपाय से उस-उस विषय को पढ़ने का प्रयत्न करके उसका किंचित अनुभव हो सके । उसका अनुभव हो जाने के पश्चात् ही शान्ति-मार्ग प्रारम्भ होगा। परन्तु उसको अनुभव करने से पहले भी यह आवश्यक है कि एक बार शब्दों में उसे अवश्य ग्रहण कर लिया जाय, और तर्क व युक्ति से उसकी सत्यार्थता का निर्णय कर लिया जाय। उस अपने निर्णय को वीतराग-प्रणीत आगम से भी मिलान करके देख लिया जाय । क्योंकि बिना ऐसा किये अव्वल तो मैं अनुभव करने का प्रयत्न ही किस विषय के प्रति करूँगा और यदि अन्धों की भाँति शब्दों का स्पष्ट रहस्यार्थ समझे बिना करने लगा तो लाभ क्या होगा? अत: अब आगे के प्रकरणों में इन सात बातों का ही क्रमश: विस्तृत विवेचन चलेगा। लम्बा कथन है। सुनते-सुनते ऊब न जाना, सारा का सारा सुनना । बीच में एक भी प्रकरण के छूट जाने पर आगे के प्रकरणों का रहस्य पकड़ में न आ सकेगा। बिना क्रम से और बिना पूरा सुने अभीष्ट की सिद्धि होना असम्भव है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व १. मैं की खोज, २. जीव राशि, ३. स्थावरकाय में जीवन सिद्धि, ४. अन्तस्तत्त्व, ५. शान्ति मेरा स्वभाव, ६. शान्ति की खोज, ७. जल में मीन प्यासी । १. 'मैं' की खोज — अहो ! चैतन्यघन का अतुल प्रकाश, जिसने पुन: पुन: प्रेरित करते हुये तथा अन्तरंग में चुटकियां भरते हुये इस गहन भोग विलास के अन्धकार में भी, मुझे आज यह सौभाग्य प्रदान किया कि किंचित मात्र अपनी महिमा के दर्शन पाकर मैं कृतार्थ हो सकूँ। धर्म की जिज्ञासा के सार-स्वरूप शान्ति तथा उसकी प्राप्ति के लिये कुछ प्राथमिक आवश्यक सामान्य बातें जान लेने के पश्चात्, आज मेरे अन्दर यह जानने की जिज्ञासा जागृत हो उठी है कि मैं कौन हूँ, जिसमें यह शान्ति की पुकार उठ रही है, अर्थात् जीव तत्त्व क्या है ? बहुत प्रयत्न किया है, गुरुजनों ने मुझे मेरी महिमा दर्शाने का, मुझे मेरा स्वरूप बताने का, पर देखिये कितने आश्चर्य की बात है कि नित्य ही 'मैं हूँ', 'मैं हूँ' की पुकार करता मैं आज तक 'मैं' को जान न सका। क्या-क्या कल्पनायें बनाता रहा अपने सम्बन्ध में । कभी विचार करता कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि की जो आकृतियाँ दीख रही हैं, वे ही 'मैं' हूँ । कभी विचार करता कि ये जो पुत्र, स्त्री आदि परिवार दिखाई दे रहा है, अपने चारों ओर, वही 'मैं' हूँ । कभी विचार करता कि ये जो गृह, स्वर्णादि कुछ आकर्षक पदार्थ दिखाई दे रहे हैं वही 'मैं' हूँ । अर्थात् इन सबमें 'मैं', और मुझमें 'ये सब' ओत प्रोत हो रहे हैं, मानो । देखो कितना बड़ा आश्चर्य है कि अपने को देखने की इच्छा करते हुये मैं स्वयं कहाँ कहाँ खोजता फिरता हूँ इस 'मैं' को । इस महत् के अर्थात् इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त आकाश के एक-एक प्रदेश पर इधर से उधर, और उधर से इधर टक्करें मार-मार कर मैंने खोज की इसकी । कैसी दशा बनी हुई थी उस समय मेरी कि बिना सुधबुध उस प्रदेश से इस पर और इससे उस पर फिर रहा था मारा-मारा, तृषातुर मृगवत् । इस प्रदेश पर दिखाई देती है कुछ मेरी चमक-सी, भागा उधर । अरे यहाँ तो कुछ नहीं । नहीं-नहीं, यहाँ नहीं थी, वह देख कुछ दूरी पर दिखाई दे रही है, कितनी तेज चमक, आँखें चुन्धिया रही हैं जिसे देखकर । भागा वहाँ, पर यह क्या ? यहाँ भी कुछ नहीं । और इसी प्रकार बेचैन बेहोश घूमता था, मारा-मारा। कितनी तीव्र गति थी उस समय मेरी, अभी पाताल के उस छोर पर और अगले ही क्षण लोक के शिखर पर, बिल्कुल अपने पिता सिद्ध-प्रभु के निकट । अभी ऊर्ध्व-लोक में देवों के निकट और अगले ही क्षण अधो-लोक में नारकियों के निकट । अभी मध्य लोक की एक पृथ्वी पर और अभी असंख्यात योजन दूर उस अन्तिम पृथ्वी पर । अभी समुद्र में और अभी वायुमण्डल मे । अभी इन चलते-फिरते दिखने वाले मनुष्य, पशु व पक्षियों के शरीर में और अगले ही क्षण वनस्पतियों में । कहाँ तक गिनाऊँ ? एक प्रदेश भी तो इस आकाश का खाली नहीं छोड़ा, जहाँ जाकर मैंने 'मैं' को न खोजा हो । कितना व्यग्र था उस समय इसकी खोज के पीछे, कि आने और जाने, जीने और मरने के सिवाय, मुझे और कुछ चिन्ता ही नहीं थी । एक एक श्वास में अठारह अठारह बार बदल डाला मैंने अपना चोला । पर मृगतृष्णा थी, कोरा बालू का ढेर, कुछ भी न था वहाँ । जाता, दौड़ता, जन्म लेता और निराश हो जाता । तुरन्त ही आगे कुछ प्रतीत होता, बस मर जाता, वहां जाकर जन्म लेता, और फिर निराशा हो जाता। किसी कारणवश रोता- रोता शिशु जिस प्रकार स्वयं भूल जाता है कि क्यों रोना प्रारम्भ किया था उसने, केवल याद रह जाता है रोना उसे, उसी प्रकार दौड़ते-दौड़ते, एक श्वास में अठारह अठारह बार मरते, मैं स्वयं भूल गया कि क्यों यह दौड़ धूप या जीना मरना प्रारम्भ किया था मैने ? केवल याद रह गया जल्दी-जल्दी जीना और मरना मात्र । खाने की सुध थी न पीने की, न किसी से बोलने की न पूछने की, न कुछ सूंघने की न देखने की, न सुनने की न विचारने की, बेहोश हो गया था, थककर चूर-चूर । छूकर जान तो सकता था उस समय, पर कहाँ थी होश मुझे छूने की Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ३७ २. जीव राशि वहा भी? इधर से उधर दौड़ने अथवा जीने-मरने के सिवा फुर्सत ही कहाँ थी, कुछ और करने की? कई बार तो पूरी तरह जन्मने भी नहीं पाया कि मर गया। और यदि पूरा जन्मा भी तो कितना छोटा था मेरा शरीर जो किसी को दिखाई भी न पड़ सके। माइक्रोस्कोप के भी तो गम्य नहीं था वह ? पहाड़ व लोहखण्ड में भी घुसकर आर-पार हो सकता था वह । निगोद कहा करते थे ज्ञानी लोग उस समय मुझे । सर्वसाधारणजन तो मेरी सत्ता से भी अपरिचित थे । न देख सकने के कारण, वे यह भी नहीं जान पाते थे कि मैं कोई हूँ भी या नहीं। छ पता न चला. तो पथ्वी बनकर. जल बनकर. अग्नि बनकर. वाय बनकर पडा रहा सदियों लोगों की ठोकरें खाता. इधर-उधर बिखरता या उबाला जाता आग पर पवन के द्वारा ताडित किया जाता, पंखों की मार सह पड़ा रहा सदियों, कि कभी तो कहीं तो स्पर्श कर ही जाऊंगा मैं, 'मुझ' को। पर निराश, कुछ न दीखा। वहाँ से भी भागा, वनस्पति बन गया, कभी जल पर की काई बना और कभी अचार पर की फई, कभी घास बना और कभी झाड़ी, कभी बेल तो कभी वृक्ष, कभी पत्ता तो कभी फल, कभी खट्टा बना तो कभी मीठा, कभी सुगन्धित तो कभी दुर्गन्धित । क्या-क्या रूप धारे थे उस समय मैंने? याद कर-करके कलेजा कांप उठता है। चीरा जाकर और अग्नि में जल-जलकर अनेकों कष्ट सहे, इस 'मैं' को स्पर्श करने के लिये पर निराश, कुछ न देखा वहाँ भी। स्पर्श ही न कर पाया, फिर चखने, सूंघने, देखने, सुनने व विचारने का तो प्रश्न ही क्या? निराश लौट पड़ा। सर्व-साधारणजन मुझे सोचते रहे जड़, केवल अपने भोग की कोई वस्तु, परन्तु मैं भले यह न जानता हूँ कि मैं क्या हूँ, पर उस समय भी इतना अवश्य जानता था कि मैं वह नहीं हूँ जो वे समझते थे मुझे । चित्त मसोसकर रह जाता था, क्योंकि शक्ति ही नहीं थी बताने की। छूने मात्र से तो पता न चला, चलो अब चखकर भी देखो, सम्भवत: कुछ पता चल जावे और इस अभिप्राय को रखकर, धारण किये लट व केंचुआ आदि के अनेकों रूप, कभी कुछ और कभी कुछ । सूंघने, देखने, सुनने व विचारने की चिन्ता किये बिना, केवल छूकर व चखकर खोज करनी चाही मैंने अपनी, पर निरर्थक। निराश दौड़ा, चींटी, कनखजूरा आदि अनेकों रूपों में, जहाँ छूने व चखने के अतिरिक्त सूंघने की शक्ति का भी प्रयोग किया मैने । इतना ही नहीं, मक्खी, भंवरा आदि बनकर देखने के यन्त्र को भी प्रयोग में लाया और चिड़िया, गाय, मछली, व मनुष्यादि बन-बनकर सुनने के, यहाँ तक कि विचारने तक के यन्त्रों का निर्माण कर डाला, पर किसी प्रकार भी तो उस रहस्यात्मक 'मैं' का पता न चला । क्या आकाश में, क्या पृथ्वी पर और क्या जल में, कहां नहीं खोजा मैंने इसे? अत्यन्त दु:ख व पीड़ा की भी परवाह न करते हुए, मैं इसकी खोज के लिये नारकी तक बना, पर इसका पता न चला। तात्पर्य यह कि नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य व देवों की चौरासी लाख योनियों में; पृथ्वी, अप, तेज, वायु व वनस्पति भूतों में, भ्रमण करते-करते आज तक न मालूम कहाँ-कहाँ घूमा, कितना समय बीत गया, तथा इस काल में क्या-क्या दुःख सहे इसकी खोज के लिये, पर इस 'मैं' का पता न चला। छोटे से छोटा माइक्रोस्कोप से भी न दीखने वाला तथा बड़े से बड़ा पर्वत सरीखा शरीर बनाया, पर उसका पता न चला। २. जीव राशि—यह बताने की आवश्यकता नहीं कि इस प्रकरण में जीवतत्त्व की लोकप्रसिद्ध ८४ लाख योनियों का अर्थात् उनकी अनेकविध जातियों का परिचय देने का प्रयत्न किया गया है। आगे साधना खण्ड में प्राणसंयम का विवेचन करने के लिये तथा उसे ठीक प्रकार से समझने के लिये जीव की इन विविध जातियों का अवधारण अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये इन सभी का स्पष्ट उल्लेख यहाँ कर देना उचित प्रतीत होता है। जीव जातियों का यह विभाजन प्रधानत: ४ अपेक्षाओं से किया जा सकता है.---गतियों की अपेक्षा, इन्द्रियों की अपेक्षा, प्राणों की अपेक्षा और कायकी अपेक्षा । इन चारों अपेक्षाओं का पृथक्-पृथक् कथन करता हूँ। (१) गतियों की अपेक्षा कथन करने पर जीव चार प्रकार के हैं—नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य तथा देव । इनमें से नारक, मनुष्य तथा देव तो एक-एक ही प्रकार के हैं, परन्तु तिर्यञ्च गति का विस्तार बहुत अधिक है । पृथ्वी, अप, तेज वायु, वनस्पति, कीट, पतंग, पशु, पक्षी सब तिर्यञ्च हैं । माइक्रोस्कोप से न दीखने वाली उपर्युक्त सूक्ष्म जीव-राशि भी इसी में अन्तर्भूत है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व २. जीव राशि (२) जानने के द्वार इन्द्रिय कहलाते हैं। वे पाँच हैं-स्पर्शन, रसना, घ्राण, नेत्र व श्रोत्र । इन सबको आप अच्छी तरह जानते हैं । इन पाँचों इन्द्रियों की अपेक्षा जीव भी पाँच प्रकार के होते हैं—एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय । केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय के धारी होने के कारण पृथ्वी आदि हैं एकेन्द्रिय जीव, जिनमें केवल छूकर जानने की शक्ति है। इनकी सिद्धि आगे की जायेगी। स्पर्शन तथा रसना (जिह्वा) इन दो इन्द्रियों के धारी होने के कारण पेट के बल रींगकर चलने वाले जोख, केंचुआ, कीड़ा आदि हैं द्वीन्द्रिय जीव । स्पर्शन रसना और घ्राण (नासिका) इन तीन इन्द्रियों के धारी होने के कारण छोटे-छोटे अनेक पाँव पर चलने वाले चींटी, कनखजूरा आदि हैं त्रीन्द्रिय जीव । इन तीन के साथ नेत्रेन्द्रिय को भी धारण करने के कारण उड़ने वाले समस्त क्षुद्र प्राणी मक्खी, मच्छर, भँवरा आदि हैं चतुरिन्द्रिय जीव। और पांचों इन्द्रियों को धारण करने वाले मनुष्य पशु-पक्षी आदि हैं पंचेन्द्रिय जीव । इनमें भी मनुष्य तो मन नाम की छठी इन्द्रिय से युक्त होने के कारण समनस्क या संज्ञी ही होते हैं, परन्तु पशु-पक्षियों में समनस्क तथा अमनस्क दोनों विकल्पों वाले पाये जाते हैं । जितने कुछ भी परिचय में आते हैं वे सब प्राय: समनस्क हैं । अमनस्क के दृष्टान्त अतिविरल हैं। (३) प्राण १० होते हैं—पाँच तो उपर्युक्त इन्द्रियाँ तथा इनके अतिरिक्त मन, वचन, काय, श्वासोच्छवास और आयु । इनको धारण करने क कारण जीव प्राणी कहलाते हैं। इस अपेक्षा से वे ६ प्रकार के हैं । एक, दो व तीन प्राणों वाला कोई जीव नहीं होता । कम से कम चार प्राणों वाले होते हैं। आयु, श्वासोच्छवास और काय ये तीन सभी में पाये जाते हैं। इनके साथ एक स्पर्शनेन्द्रिय मिल जाने के कारण सकल एकेन्द्रिय जीव चार प्राणधारी हैं। पाँच प्राणधारी कोई जीव नहीं होता, क्योंकि रसना इन्द्रिय युक्त हो जाने पर द्वीन्द्रिय जीव में युगपत दो प्राणों की वृद्धि हो जाती है-चखकर जानने की शक्ति तथा बोलने की शक्ति । इसलिये सकल द्वीन्द्रिय जीव छ: प्राणवाले हैं । घ्राणेन्द्रिय युक्त होने से त्रीन्द्रिय जीव सात प्राणधारी, नेत्रेन्द्रिय युक्त होने से चतुरिन्द्रिय जीव आठ प्राणधारी और श्रोत्रेन्द्रिय युक्त होने से पञ्चेन्द्रिय जीव नौ प्राणों के धारी हैं। इनमें अमनस्क तो नौ ही प्राणों वाले हैं परन्तु एक मन और मिल जाने से समनस्क जीव दस प्राणवाले होते हैं। इनमें चार प्राणधारी एकेन्द्रिय जीव के अनेकों भेद-प्रभेद हैं, जो आगे 'काय' वाले विकल्प में बताये जाने वाले हैं। (४) काय कहते हैं शरीररूप परमाणु पिण्ड को। इसकी अपेक्षा देखने पर जीव दो प्रकार के होते हैं- स्थावर तथा त्रस । भय का कारण उपस्थित हो जाने पर भी जो स्वयं अपनी रक्षार्थ भागने दौड़ने के लिये समर्थ नहीं हैं, वे स्थावर कहलाते हैं और इस प्रकार की सामर्थ्य से युक्त जीव त्रस कहे जाते हैं । स्थावर जीवों का शरीर पाँच जातियों का होता है-प्रथम है पार्थिव जाति जिसमें मिट्टी, पाषाण, कोयला धातु आदि सभी खनिज पदार्थ सम्मिलित हैं। द्वितीय है जलीय जाति जिसमें जल, हिम, ओस आदि सम्मिलित हैं। तृतीय है तेजो जाति जिसमें अग्नि, ज्वाला, चिनगारी, अंगार आदि सम्मिलित हैं । चतुर्थ है वायु जाति जिसमें धनञ्जय आदि अनेक प्रकार की वायु सम्मिलित हैं और स्थावर काय की पञ्चम जाति है वनस्पति, जिसका बड़ा लम्बा चौड़ा विस्तार है । माइक्रोस्कोप के भी अगम्य जिस सूक्ष्म निगोद-राशि का पहले वर्णन किया जा चुका है वह इसी में सम्मिलित है। आगे भोजन-शुद्धि वाले प्रकरण में माइक्रोस्कोप गम्य जिस बैक्टेरिया का कथन किया जाने वाला है, वह भी वनस्पति काय में ही गर्भित है । इनको आदि लेकर फूई, काई, घास, झाड़ी, बेल, पौधा, वृक्ष, पत्ता, प्रवाल, फूल, फल, जड़ी-बूटियाँ, अन्न, काष्ठ, कपास आदि सब वनस्पति की ही सन्तान हैं। त्रसजीव यद्यपि द्वीन्द्रिय से लेकर समनस्क तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पर्यन्त अनेक प्रकार के हैं, परन्तु उन सबकी काय एक मांसास्थि पञ्जर वाली जाति की ही होती है। देव व नारकी का शरीर यद्यपि मांसजातीय नहीं माना गया है तदपि उसका संग्रह इसी भेद में कर लिया जाता है । इस प्रकार काय की अपेक्षा जीवराशि कुल छ: प्रकार की हो जाती है—पाँच प्रकार की स्थावरकाय और एक प्रकार की त्रसकाय। आज का मानव जीवों के इन सर्व भेद-प्रभेदों में से एक मनुष्य को ही जीव मानता है, अन्य को नहीं । आज बकरी आदि तक को भी वह अपनी भोग की वस्तु समझता है तथा उनके भी प्राण हैं, उनको भी पीड़ा होती होगी', इस बात का उसे भान नहीं है । इससे आगे भी यदि बढ़ा तो मनुष्य व गाय दो को ही जीव मानने लगा, अन्य को नहीं । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ३. स्थावर काय में जीवन सिद्धि यदि बकरी आदि को जीव स्वीकार भी किया तो गाय की अपेक्षा उसमें प्राणों की कमी देखते हुये । और यही कारण है कि आज जहाँ मानव की रक्षा के लिये प्रत्येक देश में शक्तिशाली राज्य स्थापित हैं, वहाँ अन्य जीवों की रक्षा के लिये कोई शासक या समाज नहीं है। अधिक से अधिक कहीं दिखाई भी दी तो गोरक्षक समाज मिलती है। इससे भी आगे कोई बढ़ा तो पशु-पक्षी को जीव की कोटि में गिन लिया। इन बेचारे मक्खी, मच्छर, चींटी, भिर्र, सर्प, बिच्छू, मेंढक, मछली आदि की बात पूछने वाला यहाँ कोई नहीं है। फिर भी यदि समझाने बुझाने पर कोई और कुछ आगे बढ़े भी तो प्रत्यक्ष में चलते फिरते दीखने वाले इन स्थूल दो इन्द्रिय तक के जीव को भले ही स्वीकार कर ले परन्तु माइक्रोस्कोप से दीखने वाले छोटे शरीर के धारी उस ही जाति के जीवों को, तथा पाँच भेदरूप पृथ्वी से वनस्पति पर्यन्त तक के एकेन्द्रिय जीवों को कौन जीव स्वीकार करता है ? इनको जीव कहना उनकी दृष्टि में मानो कुछ कपोल कल्पना सी लगती है परन्तु ऐसा नहीं है, अपनी स्थूल दृष्टि के कारण ही वह ऐसा कहता है। भाई ! तू आया है शान्ति की खोज में। तू उन लोगों की अपेक्षा भिन्न रुचि लेकर आया है। अतः प्रत्यक्षज्ञानियों द्वारा जानी गई इस सम्पूर्ण जीव-राशि को स्वीकार कर, क्योंकि ऐसा स्वीकार किए बिना तू अपने जीवन को संयमित न बना सकेगा । यदि केवल स्थूल चलते फिरते जीवों के सम्बन्ध में संयमित बना भी, तो आगे जाकर पूर्ण-संयमित न हो सकेगा। इन सूक्ष्म व एकेन्द्रिय प्राणियों को बाधा न पहुँचाने का विवेक तुझमें जागृत न हो सकेगा। अविवेक के रहते शान्ति की पूर्णता न कर सकेगा। और इनको स्वीकार कर लेने पर तू इस व्योममण्डल के एक-एक प्रदेश पर जीवतत्त्व के दर्शन करेगा तथा उसके आधार पर निजतत्त्व के और उसके स्वभाव के अर्थात् शान्ति के ।' ३९ ३. स्थावर काय में जीवन सिद्धि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति, इन पाँचों में स्थूल दृष्टि से देखने पर चेतन तत्त्व का ग्रहण यद्यपि नहीं होता, जड़वत् से भासते हैं, परन्तु इन पाँचों में से वनस्पति शरीरधारी प्राणियों के सम्बन्ध में कुछ सूक्ष्म विचार करने से उनके प्राणधारी होने का विश्वास इस अल्प परोक्ष ज्ञान से भी हो सकना सम्भव है। आज के विज्ञान ने भी उनमें प्राणों को स्वीकार किया है। तू भी इन्द्रिय- प्रत्यक्ष द्वारा वनस्पति में प्राणों के चिन्ह देख सकता है। देख योग्य आहार जल आदि के न मिलने पर वे बेचारे कुम्हला जाते हैं, पीड़ा को न सह सकने के कारण बेहोश हो जाते हैं, और आहार मिल जाने पर पुनः सचेत हो जाते हैं, प्रसन्न होकर नाच उठते हैं। कुछ विशेष जाति की मांसभक्षक वनस्पति झाडियां व घास भी देखेन में आती हैं। अफ्रीका के जंगलों में झाड़ियों के रूप में और भारत के वनों में घास के रूप में पाई जाने वाली यह वनस्पति कितने भयानक रूप से पशु पक्षी या मनुष्य को पकड़कर उसका खून चूस लेती है, यह बात सुनी होगी। नहीं सुनी हो तो सुन। इस जाति की झाड़ियां खूब लम्बी-लम्बी बड़ी मजबूत कांटेदार टहनियों वाली पाई जाती हैं, ऊपर की ओर मुँह किये खड़ी रहती हैं, और इसी प्रकार से इस जाति की घास भी। अपने शिकार को निकट आया जान वे एकदम सब की सब टहनियां झुककर उसके ऊपर गिर पड़ती हैं और लिपटकर इतनी फुर्ती से उसके शरीर को बांध लेती हैं कि वह बेचारा स्वयं यह नहीं जान पाता कि अकस्मात् ही यह क्या आफत आ गई, यहाँ तो कुछ भी नहीं दिखाई देता । पर वनस्पति में प्राण न स्वीकार करने वाला वह मानव यह न जानता था कि वनस्पति का रूप धारण किये हुये उसका भक्षक यहाँ विद्यमान है। उन टहनियों के अग्रभाग की नोकें उसके शरीर में प्रवेश करके कुछ ही देर में उसका रक्त चूस लेती हैं और ढाँचा मात्र शेष रह जाने पर उस कलेवर को छोड़कर पुनः पूर्ववत् ऊपर की ओर मुँह करके खड़ी हो जाती हैं। आहार या जल में विष मिलाकर सिंचन किये जाने पर पेड़ पौधों की मृत्यु होती देखी जाती है। इस प्रकार वनस्पतियों में मनुष्योंवत ही आहार ग्रहण करने की क्रियायें व भावनायें स्पष्ट देखने में आती हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु काय के जीवों में इस प्रकार स्पष्ट रीति से प्राणों की सिद्धि नहीं होती जैसी कि वनस्पति में, परन्तु फिर भी खानों में पड़े सर्व ही खनिज पदार्थों के शरीरों की वृद्धि का होना वहाँ उनके अन्दर जीवन को दर्शा रहा है, तथा खान में से निकल जाने पर उनकी वृद्धि का रुक जाना उनकी मृत्यु को या प्राणों के निकल जाने को दर्शा रहा है, क्योंकि खान में पड़े पत्थर की भाँति ये अब बढ़ते दिखाई नहीं देते। बाढ़ के समय जल का, तूफान के समय वायु का और पवन से ताड़ित होकर अग्नि का प्रत्यक्ष दीखने वाला प्रकोप जिसके सामने मनुष्य की शक्ति हार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व मानती है, उन पदार्थों में जीवन का द्योतक है, प्राणों को सिद्ध करता है। प्रत्यक्ष ज्ञानियों ने तो प्रत्यक्ष ही उनमें प्राणों को देखा है, इन सबको सुख-दुख का वेदन करते हुये जाना है, परन्तु कुछ व्यक्ति वर्तमान में भी वृक्षों के हावभाव पर से तथा उनके हिलने डुलने पर से उनकी अन्तरंग पीड़ा या हर्ष के भावों को पहिचानने में समर्थ हैं। अतः विश्वास कर कि इन पाँचों जाति के एकेन्द्रिय जीवों में प्राण हैं, उन्हें भी सुख दुख का वेदन होता है, उनमें भी कुछ इच्छायें या आकांक्षायें छिपी हैं । माइक्रोस्कोप से दीखने वाले द्वीन्द्रिय आदि जीव प्रत्यक्ष ही चलते फिरते दिखाई देते हैं, और एकेन्द्रिय जीव बैक्टेरिया आदि बढ़ते हुये दिखाई देते हैं। विशेष प्रक्रियाओं के प्रयोग द्वारा प्रयोगशालाओं में ४ या ५ दिनों में ही उनका वृद्धिंगत रूप कदाचित् कुछ झाड़ियों के रूप में ऊपर भी प्रत्यक्ष दीखने लगता है, तथा सौभाग्यवश आज के विज्ञान ने उनको प्राणधारी स्वीकार किया है । ४० ४. अन्तस्तत्त्व—कहाँ तक करता फिरूँ मैं इनकी सिद्धि और कहाँ तक करता फिरूँ मैं इनकी गिनती ? क्या लाभ है व्यर्थ की इन तर्कणाओं से ? अन्धकार में हाथ मारने से क्या कुछ मिलता है किसी को ? अनन्तकाल बीत गया यही तर्कणायें करते-करते । तर्कणायें ही क्यों, मैंने स्वयं जा-जाकर देखा है चारों गतियों में, स्वयं धार धारकर देखा है पाँचों इन्द्रियों को और दशों प्राणों को और स्वयं ओढ़-ओढ़कर देखा है छहों कायों को, पर उस 'मै' का पता नहीं चला कहीं भी मुझे, जिसे खोजने का उद्देश्य लेकर कि यह महा-पुरुषार्थ प्रारम्भ किया था मैने । चलता भी कैसे ? घर में खोई हुई सूई को सड़क पर खोजने जाऊँ तो क्या मिलेगी ? 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर मैंने उसे आकाश में खोजा तथा खोजा ऊपर संकेत किये गये विभिन्न जाति के चौरासी लाख शरीरों में । कैसे पता चलता उसका ? 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर मैंने खोजा स्त्री व पुरुष में, काले-गोरेपन में धनवान व निर्धनों में प्राकृतिक सुन्दरताओं व विकारों में, तूफानों में व बाढ़ों में, झोपड़ियों में व महलों में। पर कैसे मिलता वह वहाँ, जबकि वहाँ वह था ही नहीं ? और आज भी इस उन्नत विज्ञान की सहायता से बड़े-बड़े आविष्कारों के द्वारा अनुसन्धानशालाओं में, मैं बराबर खोज रहा हूँ इसको, पर व्यर्थ । ४. अन्तस्तत्त्व आज परम सौभाग्य से इन वीतराग गुरुदेव की शरण को प्राप्त हो, मानो मैं कृतकृत्य हो गया हूँ । इतने काल तक इसकी खोज के पीछे व्याकुल होकर भटकता हुआ मैं आज इनकी कृपा से इस रहस्य को पाकर कितना सन्तुष्ट हुआ हूँ कह नहीं सकता, मानो मेरा भ्रम ही मिट गया है। आज उसे जानकर मुझे स्वयं अपने ऊपर हँसी आ रही है। कितनी सरल सी बात थी और कितना भटका इसके पीछे । यह भ्रम की ही कोई अचिन्त्य महिमा थी, जो आज तक मुझे इसके दर्शन नहीं होने देती थी । आज गुरुदेव के प्रसाद से यह भ्रम दूर हो गया और मैं जान पाया कि वह मेरे अत्यन्त निकट है, जिसे मैं इतनी-इतनी दूर खोजने गया । विचारिये तो सही कि कोई हीरे की अंगूठी आप तिजोरी में रखने 'जाते हो, मार्ग में 'मैं' मिल जाऊँ और आपको कोई आवश्यक कार्य बता दूं । आप अंगूठी को अपनी अंगुली में पहनकर काम में जुट जायें। साँझ पड़े घर आयें तो अंगूठी याद आये । हैं ! कहाँ गई ? तिजोरी में पुनः पुनः देखें, सन्दूक खोलें, रसोई घर में एक बर्तन को उठाकर और कभी दूसरे को, सम्भवतः उन्हें ठोक ठोककर भी देखने लगें, कि कहीं ये बर्तन निगल ही न गये हों उसे । और व्याकुलता में न मालूम क्या-क्या करने लगें। पर क्या इस प्रकार वह अंगूठी मिलेगी ? यदि मैं आपसे पूछें कि क्यों जी, उस अंगूठी का ढूंढना सरल है कि कठिन, तो क्या कहोगे ? न सरल कहते बनता है न कठिन । जब तक नहीं पाती तब तक कठिन और अंगुली पर दृष्टि जाने के पश्चात् क्या सरल और क्या कठिन ? ढूंढने का प्रश्न ही कहाँ है ? और यह गई ही कहाँ थी ? इसका ढूँढना तो न सरल था न कठिन, मेरे भ्रम का दूर होना ही कठिन सा था । बस तो इस प्रकार भो चेतन ! तू व्यर्थ ही इधर-उधर भटक रहा है। जिसे तू खोज रहा है वह तो यहाँ ही है, तेरे अत्यन्त निकट । निकट भी क्या, तू स्वयं ही तो है वह । किधर देख रहा है बाहर की ओर ? उधर कुछ नहीं है, उधर तो यह चमड़े हड्डी का कुछ ढेर मात्र ही पड़ा है। वह शरीर है, तू नहीं। इधर देख भाई ! इधर देख । अरे ! फिर उधर ही ? उधर नहीं, इधर देख। मैं जिस ओर संकेत कर रहा हूँ, उधर देख । अरे! फिर उधर ही ? अरे भाई, देख इस अंगुली की बिल्कुल सीध में, उस निशाने पर, जहाँ से यह मैं की ध्वनि चली आ रही है, जहाँ से शान्ति की इच्छा प्रकट Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ४१ ४. अन्तस्तत्त्व होती दिखाई दे रही है, जहाँ सुख-दुख का वेदन हो रहा है, जहाँ विचारनाओं का काम किया जा रहा है । नेत्र इन्द्रिय से देखने का प्रयत्न मत कर भाई ! इन्हें बन्द करके देख कुछ अपने ही अन्दर डुबकी लगाकर, अपने से ही प्रश्न करके उत्तर ले। मैं की ध्वनि स्वरूप अन्तरंग में प्रतीत होने वाले हे परमतत्त्व, तू कौन है ? 'मुझे शान्ति चाहिए' 'मुझे शान्ति चाहिए' हर समय इस प्रकार की टेर लगाने वाले, तू कौन है। अरे ! यह क्या? 'तू' किसे कह रहा है? यह स्वयं मैं ही तो हूँ । अन्तरंग में प्रकाशमान, स्वानुभव-गोचर, अमूर्तीक, इन्द्रियातीत, चैतन्य-विलासरूप, शाश्वत, परब्रह्म, यह 'तू' मैं ही तो हूं। क्योंकि, यह देख- प्रश्न करने वाला कौन ? 'मैं'। प्रश्न का उत्तर देने वाला कौन है ? 'मैं' । सर्वत्र 'मैं' ही 'मैं' हुआ। 'तू' को कहाँ अवकाश रहा? कितना बड़ा आश्चर्य, बगल में छोरा और नगर में ढंढोरा । “दिल के आइने में में है तस्वीरे यार, जब जरा गर्दन झुकाई देख ली।' व्यर्थ ही इधर-उधर दूर-दूर भटकता रहा, ठोकरें खाता रहा, कष्ट सहता रहा, पर जिसे ढूंढता रहा, वह स्वयं 'मैं' ही तो था। चार ब्राह्मण पुत्र बनारस से पढ़कर आये। मार्ग में नदी पड़ी। चारों पार हो गये। उस पार पहुँचने पर गिनने लगे। चारों ने गिना पर संख्या तीन ही थी। एक कौन सा डूबा? क्या मैं डूबा? नहीं मैं तो हूं। क्या ये डूबे? नहीं ये तो हैं । पर एक, दो, तीन, चौथा कहाँ गया? बस वही हालत थी मेरी अब तक । निगोद से लेकर मनुष्य तक सारे शरीरों को गिन डाला, पर अपने को गिनना सदा ही भूलता रहा । आश्चर्य की बात, अपनी मूर्खता न कहूँ, तो क्या कहूँ इसे? चला हूँ शान्ति लेने, पर यह पता नहीं कि शान्ति भोगेगा कौन? चला हूँ लडडू खाने, पर यह पता नहीं कि इसे उठाकर मुँह में देने वाला कौन? समझ चेतन ! समझ, तुझे इस 'मैं' का लक्षण दर्शाता हूँ। जिसमें जानने का कार्य हो रहा है, जिसमें कुछ चिन्तायें उत्पन्न हो रही हैं, जिसमें सुख-दुख महसूस किया जा रहा है, जिसमें विचारने का काम चल रहा है। वह एक चेतन तत्त्व है, ज्ञानात्मक तत्त्व, इन्द्रियातीत-अमूर्तीक तत्त्व । निगोद आदिक रूपों में एक वही तो प्रकाशमान हो रहा है, वही तो ओत-प्रोत हो रहा है। वे सर्व इसी की तो कोई अवस्थायें हैं, जिनका निर्माण अपनी कल्पनाओं के आधार पर स्वयं इसने किया है, जिसके होने से ही ये सब चेतन हैं और जिसके न होने से जड़। इसलिये ईश्वर, परब्रह्म व जगत का स्रष्टा यही तो है। परमात्मा व प्रभु इसी का तो नाम है। अचिन्त्य है इसकी महिमा । उसी परम-तत्त्व का नाम 'मैं' है। इसी को आगमकार जीवात्मा कहते हैं, कोई इसे 'सोल' कहते हैं, कोई इसे 'रूह' कहते हैं । पर इन सब नामों की अपेक्षा इसका नाम 'मैं' लिया जाना अधिक उपयुक्त है, क्योंकि 'मैं' शब्द को सुनकर साक्षात् रूप से मेरा विकल्प उस परम चेतन तत्त्व की ओर जाता है, और जीव या आत्मा सुनकर मैं इसे कहीं अन्यत्र खोजने लगता हूँ। देखिये, क्या अनेकों बार मेरे में यह विकल्प उत्पन्न होता नहीं देखा जाता कि एक दिन मैं भी मरूंगा, लोग मुझे अर्थी पर लादकर ले जायेंगे और जला देंगे, और यह आत्मा इसमें से निकलकर कहीं अन्यत्र जाकर जन्म धारण कर लेगा? मानो कि वह आत्मा मुझसे पृथक् कोई दूसरा पदार्थ हो । इसलिये इस सब लम्बे वक्तव्य में जीव शब्द के स्थान पर 'मैं' शब्द का प्रयोग करूंगा। बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि क्राइस्ट ने 'बाईबिल' में और वेद-व्यास जी ने 'गीता' में किया है। जितना छोटा शब्द उतना ही महान् तत्त्व । एक अक्षर वाले इस छोटे से शब्द का वाच्य यह महातत्त्व यद्यपि साधारण दृष्टि से देखने पर दीखता है केवल देह प्रमाण, वायु की भाँति संकोच-विस्तार द्वारा यथालब्ध छोटे या बड़े शरीर में समा जाने वाला; तदपि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर यह है विभु, सर्वव्यापक, सर्वगत । “आदाणाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुद्दिटुं। णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं तु सव्वगयं ।" आत्मतत्व वास्तव में ज्ञानप्रमाण है, अर्थात् वह शरीरादि की भाँति उठाई धरी जाने वाली वस्तु नहीं है, प्रत्युत है ज्ञानमात्र । ज्ञान अर्थात् चिज्ज्योति ही उसका स्वरूप है । इसीलिये ज्ञानीजन उसे 'भा' 'ज्ञ' 'चिन्मात्र' कहते हैं । और यह ज्ञान या चिज्ज्योति है ज्ञेयप्रमाण अर्थात् दर्पण की भाँति जो कुछ भी इसके समक्ष आये उस सबको अपने भीतर प्रतिबिम्बित कर लेने वाला, उस सबको ग्रस जाने वाला । अब प्रश्न होता है यह कि 'ज्ञेय' क्या? जो जाना जाने योग्य हो वही ज्ञेय । तीन लोक में कौन सी ऐसी वस्तु है जो जानी जाने योग्य न हो? सभी इस महिमावन्त ज्ञान के प्रति Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ४२ ४. अन्तस्तत्व अपना स्वरूप अर्पण कर रहे हैं, लोक तथा तद्गत वस्तुयें ही नहीं, उसके बाहर स्थित आकाश का वह अनन्त भाग भी जहाँ कि आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु नहीं, और इसलिये 'अलोक' कहलाता है जो । लोक तथा अलोक सभी ज्ञेय हैं, सभी इस महिम्न की उपासना कर रहे हैं, इसके चरणों में अपनी श्रद्धांजलियाँ अर्पण कर रहे हैं। इसलिये सर्वगत है यह । जहाँ जाना चाहे वहाँ चला जाये, जिसे जानना चाहे उसे ही जान ले । चला जाने का यह अर्थ नहीं कि शरीर की भाँति इसे पांव से चलकर ज्ञेय के पास जाना पड़े, प्रत्युत यह है कि ज्ञेय स्वयं चलकर इसके पास आ जाते हैं, जिस प्रकार कि पदार्थ स्वयं आकर दर्पण में प्रतिबिम्बत हो जाते हैं। और इसलिये आत्मा या जीव-तत्त्व है वास्तव में विभु, सर्वव्यापक, सर्वगत। बात कुछ नई सी लगती है, क्योंकि आज तक यही सुनते चले आये हैं कि आत्मा तो देहप्रमाण होता है, और अपनी संकोच-विस्तार शक्ति के द्वारा यथा-प्राप्त छोटे या बड़े जिस किस भी शरीर में समाकर रह जाता है । ठीक है भाई ! तूने भी गलत नहीं सुना है दृष्टिभेद है वह बात ज्ञानियों ने किसी और दृष्टि से कही है और यह बात किसी और दृष्टि से कही जा रही है । वहाँ है इन्द्रिय आदि दश प्राणों की अपेक्षा और यहाँ है उन दश प्राणों के भी प्राण किसी महाप्राण की अपेक्षा, जिसके प्राण से अनुप्राणित हैं ये सब, जिसकी दीप्ति से दीप्तिमन्त है यह लोक और जिसके आलोक से आलोकित है असीम अलोक । दस प्राणों से जो जीता है, जीता था तथा जीवेगा, वह कहलाता है जीव परन्त इस चेतन प्राण से, इस लोकालोक व्यापी ज्ञान प्राण से जो जीता है, जीता था और जीवेगा, उसे क्या कहें? समस्त स्थूल तथा सूक्ष्म ज्ञेयों को अपने एक छोटे से कोने में समेट लेने वाले इस महातत्त्व को क्या कहें? कौन कर सकता है बखान उसका शब्दों में ? केवल स्वानुभव गोचर है वह, केवल रसास्वादनरूप है वह । इसीलिये ज्ञानीजन कहते हैं उसे सच्चिदानन्द भगवान आत्मा। सत्ताधारी मौलिक पदार्थ होने के कारण 'सत्', चिन्मात्र होने के कारण 'चित्', और आनन्दानुभूति-रूप से परिचय में आने के कारण 'आनन्द' । ज्ञान, दर्शन, वैराग्य, समता, सुख, शान्ति, वीर्य आदि अनन्त ऐश्वर्य का नित्य उपभोग करते रहने के कारण भगवान है वह, और स्वयं मेरा निजस्वरूप होने के कारण 'आत्मा' । " उत्तम गुणाणधाम, सव्वदव्वाण उत्तमं दव्वं । तच्चाण परं तच्चं, जीवं जाणेह णिच्छयदो ।।" भले ही साधारण-जनों को समझाने के लिये 'जीव' नाम से कहा गया हो यह, परन्तु वास्तव में देखा जाय तो सर्व गणों का धाम यह महातत्त्व सर्व द्रव्यों में उत्तम द्रव्य है और सर्व तत्त्वों में उत्तम तत्त्व है। ५. शान्ति मेरा स्वभाव-गुरुओं के प्रसाद से सच्चिदानन्द भगवान के अथवा निज परम चेतन तत्त्व के दर्शन कर लेने के पश्चात् इससे पहले कि मैं शान्ति में बाधक अन्य पदार्थों के स्वरूप का वर्णन करूं, यह जानना आवश्यक प्रतीत होता है कि यह शान्ति क्या है और कहां रहती है ? क्योंकि शान्ति का निवास जाने बिना, 'मैं इसकी रक्षा कहां जाकर करूं' यह शंका बनी रहेगी। पूर्वकथित सात बातों में इस प्रश्न का अन्तर्भाव पहली बात में अर्थात् 'मैं क्या हूँ, वाले प्रश्न में हो जाता है क्योंकि 'मैं' का लक्षण करते हुये उस लक्षण के अंग स्वरूप एक बात यह भी कही गई है कि जिसमें से शान्ति की इच्छा उत्पन्न हो रही है. वही 'मैं' हैं । शान्ति की यह इच्छा ही शान्ति की ओर मेरे झकाव को सिद्ध करती है। स्वतंत्र रूप में जिस ओर वस्तु का झुकाव होता है उसे स्वभाव कहते हैं, जैसे कि अग्नि के द्वारा गरम किया गया जल अग्नि के सम्पर्क से जुदा होकर स्वतन्त्र रूप से शीतलता की ओर ही झुकता है, और यदि देर तक पुन: अग्नि का संयोग प्राप्त न होने पावे तो वह स्वयं शीतल हो जाता है । इसलिये जल का स्वभाव उष्ण न होकर शीतल है । इसी प्रकार अगले प्रकरणों में बताये जाने वाले अन्य पदार्थों से सम्पर्क दूर होने पर मैं स्वतन्त्र रूप से शान्ति की ओर ही झुकता हूँ। विरोध दूर हो जाने पर झुकाव शान्त होने के प्रति ही होता है । अत: मेरा स्वभाव शान्ति है, भले अन्य के सम्पर्क में आकर अशान्त हो रहा हूँ। इसलिये 'शान्ति क्या' है और शान्ति कहाँ है इन दोनों प्रश्नों का अन्तर्भाव, 'मैं क्या हूँ' इस पहले प्रश्न में हो जाता है । अत: इस स्थान पर इसकी व्याख्या कर देना योग्य है । 'शान्ति क्या है ?' इसके सम्बन्ध में अधिकार न० ३ में साधारणत: चार प्रकार की शान्ति का प्रदर्शन करते हुये काफी प्रकाश डाला जा चुका है। अब 'शान्ति कहाँ है' यह बात चलती है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ७. जल में मीन प्यासी 'मुझे सुख चाहिये', 'मुझे सुख चाहिये' हरदम अन्तर में उठने वाली इस प्रकार की पुकार से प्रेरित हुआ मैं आज तक, क्या खाली बैठा रहा? क्या मैंने आज तक उसे नहीं खोजा ? नहीं ऐसी बात नहीं हैं, जिस प्रकार आज तक मैं अपने को खोजता फिरा, उसी प्रकार इस शान्ति की खोज भी कुछ कम न की, और आज भी बराबर कर रहा हूँ । ६. शान्ति की खोज-अनादि काल के इस भव-संतापसे संतप्त होकर मैंने विचारा कि मेरा ज्ञान ही सम्भवतः अशान्ति का कारण है । यदि इसका विनाश हो जाय तो अशान्ति का वेदन कौन करेगा ? यह विचार कर अपने ज्ञान ४३ मूर्छित कर सदियों पड़ा रहा मैं अचेत निगोद अवस्था में, इस बात का अनुभव करने के लिये कि सम्भवतः मुझे शान्ति मिल जाय, परन्तु वह न मिली । यद्यपि अचेत हो जाने के कारण मुझे कुछ बाह्य बाधाओं सम्बन्धी कष्ट प्रतीत न हो सका, और कुछ अशान्ति व व्याकुलता का भान भी न हो सका, तदपि मैं शान्ति का भी अनुभव न कर सका । जैसे कि क्लोरोफार्म सूँघाकर अचेत किये गये रोगी को भले उस समय आपरेशन का कष्ट प्रतीत न हो, पर इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि वह सुखी है बल्कि बेहोशी दूर हो जाने पर अवश्यमेव उसे बड़े कष्ट का वेदन हो जाने वाला है, इस अपेक्षा से उसे दुखी कहा जा सकता है। इसी प्रकार 'निगोद अवस्था से कभी भी सचेत होने पर मुझे अशान्ति का वेदन ही होगा' इस अपेक्षा तथा 'अज्ञान स्वयं दुख है' इस अपेक्षा, मैं वहाँ इस ज्ञानहीन दशा में भी शान्ति की बजाय अशान्त बना रहा । 'मैं' की खोज के अन्तर्गत बताये गये क्रम से मैंने पृथ्वी मनुष्य व देव पर्यन्त अनेकों विचित्र रूप धरकर इसे खोजा, पर सदा अशांत बना रहा । शान्ति की खोज में जहाँ भी मैं गया, मेरे विश्वास के विरुद्ध वहाँ ही अनेकों बाधायें सहनी पड़ीं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति के रूपों में रह-रहकर कुदालियों की चोट, ऊपर से नीचे गिराये जाने का कष्ट, पंखे से ताड़ित होने की पीड़ा, कुल्हाड़ियो से काटे जाना आदि अनेकों कष्ट सहे । दो इन्द्रियों से पंचेन्द्रिय तक के छोटे रूपों में रहते हुये कुचले जाना, अग्नि में जलाये जाना आदि अनेकों कष्ट सहे । पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों के रूप में रहते हुये गाड़ीवान के हंटरों तथा डंडो के द्वारा तथा गरमी सर्दी के द्वारा प्रत्यक्ष प्रतिदिन देखने में आनेवाले कष्ट सहे, जिनको सहस्त्र जिह्वाओं के द्वारा भी कहा जाना शक्य नहीं है। मनुष्यों में आया तो परस्पर की लड़ाई, मारपीट, द्वेष आदि के अतिरिक्त धनोपार्जन सम्बन्धी वचनातीत चिन्ताओं के द्वारा आज प्रत्यक्ष दुःख सह रहा हूँ। नारकियों के दुखों का तो ठिकाना ही , देवों में जाकर भी मुझे चैन न मिला । अन्य देवों की सम्पत्ति को देखकर उठी हुई अन्तर्दाह में जलता रहा । गया शान्ति खोजने, मिली अशान्ति । मैंने इसे ठण्डे, गरम व चिकने रूखे पदार्थों में खोजा, खट्टे मीठे व चपरे, पदार्थों में खोजा; सुगन्धि में खोजा, नृत्यों में खोजा, सिनेमा थियेटरों में खोजा, मधुर गीत वादित्र में खोजा, सुन्दर वस्त्रों में खोजा, बड़े-बड़े महलों में खोजा, हीरे पन्ने माणिक में खोजा, स्वर्ण रतन में खोजा, बर्तनों में फर्नीचरों में खोजा, स्वादिष्ट पदार्थों में खोजा, क्रीम पाउडर में खोजा, परन्तु फिर भी अशान्त बना हुआ हूँ। राजा व चक्रवर्ती बनकर खोजा, दूसरों को दास बनाकर खोजा, एटमबम बनाकर खोजा, चन्द्र सूर्य तक जा-जाकर खोजा और कहाँ नहीं खोजा, सर्वत्र खोजा पर आज तक अशान्त क्या, हुआ हूं । प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं, मेरा अपना इतिहास है कौन नहीं जानता ? ७. जल में मीन प्यासी—बड़ी विचित्र बात है कि पुरुषार्थ करूँ शान्ति का, और मिले अशान्ति ? भोजन खाऊँ और पेट न भरे ? परन्तु ऐसा वास्तव में नहीं है। भोजन किया तो सही पर मुँह में डालकर नहीं, शरीर पर पोतकर। कैसे पेट भरे ? पुरुषार्थ किया तो सही, पर जिस दिशा में करना चाहिये था उस दिशा में नहीं। आश्चर्य है इस बात का कि असंतुष्ट रहता हुआ भी आज तक मेरे हृदय में यह बात उत्पन्न न हुई कि सम्भवतः कहीं न कहीं मेरी भूल रह रही है पुरुषार्थ करने । क्योंकि पुरुषार्थ का फल भले अल्प हो, पर उल्टा नहीं हुआ करता। रोग शमन न होते हुये भी औषधि बदलकर आज तक न देखा । एक द्वार से मार्ग का पता न चलने पर भी दूसरे द्वार की ओर जाकर न देखा । पूर्वकथित (ट्रायल एण्ड एरर थियोरी) सिद्धान्त पर न चला। फिर क्यों न होती असफलता ? सिद्धान्त के निरादर से और निकलता ही क्या है ? खोज की, परन्तु वैज्ञानिक दृष्टि छोड़कर, केवल पूर्व-अभ्यास से प्रेरित होकर, एक ही दिशा में । आज महान् सौभाग्यवश शान्ति-भंडार वीतरागी गुरु की शरण में आकर भी क्या इसे न खोज सकूँगा ? नहीं नहीं, अब इसे अवश्य खोज निकालूंगा। गुरुवर ने वास्तविक वैज्ञानिक सिद्धान्त के प्रयोग द्वारा खोज निकाला है, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. जीव-तत्त्व ७. जल में मीन प्यासी अपनी जीवन की प्रयोगशाला में बैठकर । यही मार्ग मुझको बता रहे हैं कि प्रभु ! इस नई प्रयोगशाला में अर्थात् अपने चेतनघन स्वरूप में आकर इसे खोज, इन्द्रिय-विषय सम्बन्धी भोगों में नहीं । वहाँ इसका साया भी नहीं है, न मालूम क्यों तुझे वहाँ ही अपनी शान्ति के होने का भ्रम हो गया है? सम्भवत: इस कारण से हो कि उनके भोग के समय किंचित शान्ति सी प्रतीत होती है। परन्तु भाई वह सच्ची शान्ति नहीं है, अशान्ति को और भी भड़का देने के लिये दावानल है । चार प्रकार की शान्ति का स्वरूप दर्शाते हुये पहले ही इस बात को सिद्ध किया जा चुका है। 'जल में मीन प्यासी, मुझे सुन-सुन आवे हांसी।' एक बार कोई जिज्ञासु, गुरु से जाकर पूछने लगा कि प्रभु ! शान्ति दे दीजिये। कहने लगे कि इतनी छोटी सी वस्तु देते हुये मैं क्या अच्छा लगूं। जाओ, सामने नदी में एक मगरमच्छ रहता है, उससे जाकर कहना, वह देगा तुम्हें शान्ति । नदी पर गया, मगर को आवाज लगाई और गुरु का आदेश कह सुनाया। मगर बोला, शान्ति अवश्य दे दूंगा परन्तु कुछ प्यास लगी है। पहले पानी पिला दो पीछे दूंगा, पथिक यह सनकर हँस पडा और एकाएक निकल पडा उसके मख से वही उपरोक्त वाक्य 'जल में मीन प्यासी. मझे सुन-सुन आवे हांसी।' मच्छ बोला, जा यही उपदेश है शान्ति की खोज का । शान्ति में वास करने वाले भो जिज्ञासु ! शान्ति सागर में रहते हुये भी शान्ति की खोज करता फिरता, बड़े आश्चर्य की बात है। तू तो स्वयं शान्ति का मन्दिर है, शान्ति तेरा स्वभाव है। जो पुरुषार्थ तू कर रहा है वह भले ही तू शान्ति का समझकर कर रहा है परन्तु वास्तव में शान्ति का नहीं है, अशान्ति का है। भोगों की प्राप्ति के प्रति प्रयत्न करना इच्छाओं की अग्नि में घी डालना है । क्योंकि भोगों की अधिकाधिक उपलब्धि के द्वारा इच्छाओं में गुणाकार होता देखा जाता है। (देखो पृ० २४) । अत: इस दिशा से, अर्थात् भोगसामग्री या किसी अन्य पदार्थ से अपने उपयोग को हटाकर वहाँ लगाने से शान्ति की प्राप्ति हो सकती है जहाँ कि उसका वास है अर्थात् निज स्वभाव में एकाग्र होना ही शान्ति प्राप्ति के प्रति स्वाभाविक पुरुषार्थ है। उसी का कारण व उपाय अगले प्रकरण में दर्शाया गया है। ( M अरे जीव बारह भावनाओं से धर्म नौका की रक्षा कर ले, इसे संसार सागर में डूबने से बचा ले। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अजीव-तत्त्व १. द्विविध जगत्, २. अजीव तत्त्व, ३. शरीर । १. द्विविध-जगत् — अहो ! वीतरागी गुरुओं की शरण, उनकी महान् करुणा तथा यह महान् अवसर कि जिसके प्रसाद से आज मैं अपनी महिमा जान पाया, स्वयं अपने दर्शन करने को समर्थ हो सका। जिनकी कृपा से आज मेरी भव-भव की इच्छा पूर्ण हुई, संताप मिटा, शान्ति के प्रति सच्चा पुरुषार्थ जागृत हुआ, अतुल प्रकाश मिला, और वह बड़ी भूल भासी जो अनादि काल से बिना किसी से सीखे बराबर पुष्ट होती चली आ रही थी, अर्थात् 'मैं' को 'मैं' में न खोजकर अन्य में खोजना जो स्वयं विचार करने से 'मैं' रूप भासते नहीं, जिनमें 'मैं' कार अर्थात् अहं प्रत्यय का नाम नहीं, जो सुख-दुःख का स्वयं अनुभव कर सकते नहीं, जिनमें स्वयं विचार करने की शक्ति नहीं, जो चैतन्यवत् दीखते हैं। अवश्य पर वास्तव में अचेतन हैं, जिनके पीछे भ्रमता हुआ आज तक अपनी शान्ति को खोजता हुआ मैं अशान्त बना रहा, संतप्त व व्याकुल बना रहा। देख तो चेतन ! जरा अपनी मूर्खता, स्वयं हँसी आ जायेगी अपने ऊपर । 'मैं' शब्द निकलते ही किस ओर जाना चाहिये था तेरा लक्ष्य, और किस ओर जा रहा है वह ? उस विचारशील अन्तरंग में प्रकाशमान सुख व शान्ति के भण्डार परब्रह्म परमेश्वर - स्वरूप, 'अहं प्रत्यय' के तथा चैतन्य तत्त्व के प्रति न जाकर तू उलझा जाता है शरीर में, इसके पृथ्वी से पर्यन्त तक के अनेक आकारों में, इसकी इन्द्रियों में, इसके स्त्री पुरुष नपुंसक चिन्हों में ? तू खोजने लगता है अपनी महिमा इसमें, अपनी शान्ति इसमें, मान बैठता है इसके जन्म में अपना जन्म, इसकी मृत्यु में अपनी मृत्यु, इसके नाम में अपना नाम, इसके विनाश में अपना विनाश, इसकी बाधा में अपनी बाधा, इसकी रक्षा में अपनी रक्षा, इसकी भूल में अपनी भूल, इसकी नग्नता में अपनी नग्नता, इसके इष्ट में अपना इष्ट, इसके अनिष्ट में अपना अनिष्ट, इसके नातेदारों को अपना नातेदार, इसके सेवक को अपना सेवक, इसके घातक को अपना घातक, इसके माता-पिता को अपना माता-पिता, इससे निर्मित धनादि पदार्थों को अपने पदार्थ, इसके कार्य को अपना कार्य, और न मालूम क्या-क्या ? परन्तु भो 'मैं' ! क्या विचारा है तूने कभी यह कि इन्द्रियों से दिखने वाला बाहर का यह स्थूल जगत वास्तव में क्या है, और इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ अन्य है या नहीं ? तनिक देख अपने भीतर उतर कर और खुल जायेगी इस ढोल की पोल । स्थूल-शरीरों के संग्रह के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है इस अजायबघर में। कोई है पृथिवी, अप, तेज, वायु तथा वनस्पति इन पाँच में से किसी एक स्थावर- कायिक जीव का शरीर और कोई है चींटी से मनुष्य पर्यन्त तक के विविध जीवों में से किसी एक त्रस - कायिक जीव का शरीर; कोई है सजीव, कोई है निर्जीव और कोई है इनमें से किन्हीं दो चार आदि शरीरों का सम्मिश्रण। इनके अतिरिक्त और क्या दिखता है तुझे यहाँ ? I पृथ्वी आदि की तो बात नहीं क्योंकि वे तो नाम मात्र को ही हैं चेतन तेरे लिये, चींटी से मनुष्य पर्यन्त के जो प्राणी चेतन दिखते हैं तुझे, वे कौन हैं— चेतन तत्त्व या उसके शरीर ? क्या इन्द्रियों के द्वारा बाहर में चेतन तत्त्व दृष्ट होता है किसी को ? उनकी बाहरी चेष्टाओं को देखकर भले कह ले तू उन्हें जीव या चेतन, परन्तु वास्तव में जो तुझे दीख रहा है वह तो उसका शरीर है। इस प्रकार चेतन दीखने वाले सब पदार्थ शरीर हैं, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । और ये जिन्हें कि तू जड़ कहता है, क्या शरीर के अतिरिक्त कुछ और हैं ? निर्जीव शरीर ही तो हैं ये किन्हीं तेरे भाईयों के अथवा स्वयं तेरे, जिन्हें तू अब पीछे छोड़ आया है। देख ! यह मकान, मशीनें, जेवर, बर्तन आदि क्या हैं ? पृथिवी - कायिक किसी जीव के मृत शरीर या कुछ और ? और इसी प्रकार जल, अग्नि तथा वायु जिनका तू नित्य सेवन कर रहा है अपने प्रत्येक कार्य में, क्या हैं? अप, तेज तथा वायु-कायिक जीवों के मृत शरीर या कुछ और ? अन्न जो तू खाता है, वस्त्र जो तू पहनता है, कुर्सी पलंग आदि जिन पर तू बैठता है अथवा सोता है, कागज जिस पर तू लिखता है। इत्यादि सर्व वस्तुयें क्या हैं? वनस्पति- कायिक जीव के मृत शरीर या कुछ और ? इस प्रकार शरीर संघात के Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अजीव-तत्त्व २. अजीव तत्व अतिरिक्त कुछ नहीं है यहाँ, इस बाह्य जगत् में। शरीर भी स्थूल न कि सूक्ष्म और इसीलिये अतिस्थूल है यह बाह्यजगत् । कर्मों या संस्कारों का जनक होने के कारण तथा उनका जन्य होने के कारण, उनको उत्पन्न करने में सहायक होने के कारण तथा उन्हीं के हेतु से निर्मित होने के कारण, आगम भाषा में कहा गया है इसे नोकर्म। इसी प्रकार भीतर भी बसा हुआ है एक विशाल जगत् । इस बाह्य जगत से भी अनन्तगुणा है उसका विस्तार । ही सुक्ष्म होने के कारण साधारण दृष्टि का विषय न बन पावे वह, परन्तु ज्ञानीजनों की सूक्ष्म-दृष्टि से कैसे ओझल रह सकता है वह ? इसमें सम्मिलित हैं पूर्वोक्त दस प्राण–पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन तथा कायबल, आयु और श्वासोच्छवास। इनका विस्तार है वचनातीत । बद्धि तथा इसकी विविध तर्कणायें, धारणायें व स्मतियाँ: अहंकार तथा इसकी विविध वासनायें, कामनायें, इच्छायें व कषायें; मन तथा इसके विविध संकल्प विकल्प, इष्टानिष्ट रूप द्वन्द्व व राग द्वेष; वचन तथा इसके विविध अन्तर्जल्प और बाह्यजल्प; श्वासोच्छ्वास या प्राण तथा देह में स्फूर्ति गरमी व कान्ति उत्पन्न करने वाली इसकी विविध शक्तियाँ, ये सब हैं वास्तव में इन दस प्राणों का कुटुम्ब । आगम भाषा में 'कर्म' नाम से प्रसिद्ध है यह ‘भाव कर्म', और जैसा कि आगे बताया जाने वाला है, यही है भगवान आत्मा का यथार्थ बन्धन जिससे मुक्त होने का प्रयास कर रहा है यह। इस प्रकार देखने से कर्म तथा नोकर्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है इस जगत् में । अभ्यन्तर जगत् है 'कर्म' और बाह्यजगत् है 'नोकर्म'। २. अजीव तत्त्व यह कहने की आवश्यकता नहीं कि बाह्यजगत् के अंगभूत अनेकविध त्रस व स्थावर शरीर जड़ हैं, जड़ परमाणुओं के पिण्ड हैं, अजीव तत्त्व हैं, और मृत्यु के समय इनका जड़त्व सबको प्रत्यक्ष भी हो जाता है। परन्तु जिस तात्त्विक क्षेत्र में प्रवेश पाने के लिये यह सब कथन किया जा रहा है, वहाँ तो अभ्यन्तर का यह विस्तार भी जड़ से अधिक कुछ नहीं। यद्यपि मुक्ति के समय इनका जड़त्व प्रत्यक्ष हो जाता है, परन्तु साधारण जनों के लिये उसे जानने का कोई साधन नहीं है । इसलिये युक्ति से सिद्ध करने का प्रयत्न करता हूँ। जिस पदार्थ का जो स्वभाव होता है वह सदा उस पदार्थ के साथ ही रहता है उससे विलग नहीं होता, और जो ल उसके साथ रहकर विलग हो जाय वह उसका स्वभाव नहीं कहला सकता। जब मैं अपने अन्दर में डबकी लगाकर उस चेतना में रागादि भावों को खोजने के लिये जाता हूँ तो वहाँ उनका अभाव पाता हूँ, और जब बाह्य में डुबकी लगाकर उन्हें खोजने जाता हूँ तो वे प्रत्यक्ष हो जाते हैं । बताइये उन्हें किसके कहें, चेतन के या बाह्य-जगत् के? जिस वस्तु में जिसकी सत्ता दिखाई दे उसी वस्तु की उसे कहा जा सकता है, दूसरे की कैसे कहें? अत: रागादि भावों को चेतन या जीव के न कहकर अध्यात्म के उन्नत क्षेत्र में जड़ या ज्ञेय-पदार्थों के कहा जाता है। __ अग्नि में डालने से लोहा लाल हो गया, अग्निरूप हो गया। लोहे में रहने वाली यह अग्नि वास्तव में लोहे की नहीं है, क्योंकि वैसा गर्म व लालपना लोहे का स्वभाव नहीं है। अत: वह लाली अग्नि की ही कही जाती है। इसी हआ जल गर्म हो गया। जल के अन्दर रहने वाली यह गरमी वास्तव में जल की नहीं है, क्योंकि वैसा गरमपना उसका स्वभाव नहीं है। अत: वह गरमी जल की न कही जाकर अग्नि की कही जाती है। इसी प्रकार बाह्य-जगत् के संयोग से ज्ञान रागात्मक हो गया । ज्ञान में दीखने वाले ये रागादिक ज्ञान के नहीं हैं, क्योंकि वे ज्ञान के स्वभाव नहीं हैं। अत: इन्हें बाह्य-जगत् का ही कहा जा सकता है, चेतन तत्त्व का नहीं। किसी की कोई धरोहर मेरे पास रखी है, कुछ दिन के पश्चात् वह ले जाता है । जब ले गया तब तो उसकी है ही, पर जब तक मेरे पास रखी रही तब तक भी क्या वह मेरी कही जा सकती है? भले ही मेरे सारे जीवन मेरे पास रखी रहे, पर मेरी नहीं कही जा सकती। इसी प्रकार जो रागादिक क्षण भर मेरे पास रहकर चले जाते हैं वे मेरे कैसे कहे जा सकते हैं? एक राग आया चला गया. दसरा राग आया चला गया. और इसी तरह यह राग सन्तति भले ही अनादि काल से मेरे साथ चली आ रही हो पर मेरी नहीं कही जा सकती । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि एक बैंक में अनेकों व्यक्तियों का पैसा आता रहता है और जाता रहता है, पर वह पैसा वास्तव में बैंक का नहीं कहा जा सकता, उपचार मात्र से ही उसका कहा जाता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अजीव-तत्त्व ४७ ३. शरीर सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर यह पता चलता है कि राग की व्याप्ति चेतन के साथ नहीं है बल्कि मोह के साथ है, अर्थात् बहिर्मुखी वृत्ति के साथ है। जिसके होने पर जो हो और जिसके न होने पर जो न हो उसे व्याप्ति कहते हैं । धूम होने पर अग्नि होती ही है और अग्नि न होने पर धूम होता ही नहीं है । इस दृष्टान्त में तो एक तरफा व्याप्ति है, क्योंकि धूम होने पर अग्नि होती ही है परन्तु अग्नि होने पर धूम हो भी अथवा न भी हो इसी प्रकार जीव में और राग में एक तरफा व्याप्ति है, क्योंकि राग होने पर तो जीव होता ही है परन्तु जीव होने पर राग हो भी अथवा न भी हो । हाँ जीव न होने पर राग सर्वथा नहीं होता। परन्तु उपर्युक्त मोह तथा राग में दो तरफ़ा व्याप्ति है, क्योंकि जिस-जिस क्षेत्र में व जिस-जिस काल में यह होता है उस-उस क्षेत्र में व उस-उस काल में राग होता ही है, और जिस-जिस क्षेत्र में व जिस-जिस काल में वह नहीं होता है उस-उस क्षेत्र में व उस-उस काल में राग होता ही नहीं है, भले ही वहाँ जीव विद्यमान हो । मोह सहित संसारी-जीव में राग होता ही है और मोह-रहित मुक्त-जीव में वह होता ही नहीं है। इस व्याप्ति पर से ही यह निर्णय किया गया है कि रागादिक को जीव के न कहकर मोह के कहना च कहकर जड़ कर्मों के कहना चाहिये। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि रागादिक पाषाण जाति वाले किन्हीं जड़ कर्मों की कोई अवस्थायें हैं। वे हैं तो चेतन की ही अवस्थायें परन्तु इस व्याप्ति के कारण, कारण में कार्य का उपचार करके, इनको जड़ कर्मों की कह दिया जाता है । जिस दृष्टि में 'चेतन' चेतन मात्र ही हो, उस दृष्टि में राग को चेतन का नहीं कहा जा सकता। यह दृष्टि की विचित्रंता है । वास्तव में रागादिक चमगादड़वत् हैं । जिस प्रकार चमगादड़ चौपाया होने के कारण पशु तथा पंख होने के कारण पक्षी भी है, उसी प्रकार रागादि चेतन के साथ व्याप्त होने के कारण चेतन और कर्मों के साथ व्याप्त होने के कारण जड़ भी हैं। जिस प्रकार चमगादड़ की क्रिया अधिकतर पक्षियों से मेल खाने के कारण उसे पक्षी ही कहने में आता है पशु नहीं, उसी प्रकार रागादि की अधिक व्याप्ति कर्मों के साथ होने के कारण इन्हें कर्मों का ही कहा जाता है चेतन का नहीं। जिस खाते में जड़ व चेतन इन दो व्यक्तियों के ही हिसाब पड़े हों, तीसरा कोई हिसाब ही न हो, वहाँ इस चमगादड़ राग को किसके हिसाब में डालें? शुद्धचेतन 'जीव तत्त्व' है और जड़ कर्म 'अजीव तत्त्व' । अशुद्ध-चेतन का इस दृष्टि में कोई हिसाब ही नहीं है। फिर आप ही बताइये कि इन रागादि को किसके नाम लिखें? जिसके साथ अधिक मित्रता है उसके ही नाम लिखा जाना उचित है । अत: रागादि को जड़ कर्मों के हिसाब में ही लिखा जा सकता है चेतन के हिसाब में नहीं। भले ही पाषाणवत् अथवा उपर्युक्त शरीरोंवत् जड़ न कहें आप, परन्तु चेतन भी नहीं कह सकते हैं आप इन्हें, क्योंकि यदि ऐसा होता तो मुक्त हो जाने के पश्चात् भी ज्ञान व शान्ति आदि की भाँति जीव में इनकी सत्ता दिखाई देनी चाहिये थी। इसलिये अधिक चर्चा में न पड़कर अपना काम साधने के लिये 'चिदाभासी' कह लीजिये इन्हें आप, अर्थात् चेतन सरीखा दीखने वाला जड़। और इसीलिये जिस प्रकार बाह्य जगत् के पृथिवी से लेकर मनुष्य पर्यन्त के सकल त्रस स्थावर शरीर अजीव तत्त्व में गर्भित हैं, उसी प्रकार आभ्यन्तर जगत् के इन्द्रिय-मन-बुद्धि, वासनायें आदि भी अजीव तत्त्व में ही गिनी जाने योग्य हैं, जीव तत्त्व में नहीं। ३. शरीर—जिस प्रकार अनेक परमाणुओं का प्रचय अथवा पिण्ड होने के कारण बाहर का यह शरीर कहलाता है 'काय', उसी प्रकार अनेकविध सूक्ष्म संकल्प-विकल्पों आदि का पिण्ड होने के कारण आभ्यन्तर का यह विस्तार भी कहलाता है 'काय' अथवा जिस प्रकार हाथ-पाँव आदि अनेक अवयवों का संघात होने के कारण यह कहलाता है 'पिण्ड' उसी प्रकार मन बुद्धि आदि अवयवों का संघात होने के कारण आभ्यन्तर जगत् भी कहलाता है 'पिण्ड' । जिस प्रकार जीर्ण-शीर्ण हो जाने के कारण बाह्यपिण्ड कहलाता है 'शरीर', उसी प्रकार जीर्ण-शीर्ण स्वभावी होने के कारण अभ्यन्तर-पिण्ड भी कहलाता है शरीर । विशेषता केवल इतनी ही है कि इन्द्रियगम्य होने के कारण बाह्यपिण्ड है स्थूलशरीर और इन्द्रियगम्य न होने के कारण अभ्यन्तरपिण्ड है सूक्ष्मशरीर । स्थूल-शरीर को आगम भाषा में कहा गया है 'औदारिक' और सूक्ष्म-शरीर को दो विभागों में विभाजित करके कहा गया है 'तेजस' और 'कार्मण' । इन्द्रियों में Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. अजीव-तत्त्व ३. शरीर तथा शरीर में स्फूर्ति, गरमी तथा कान्ति उत्पन्न करने वाला प्राणात्मक विभाग तो कहलाता है 'तेजस', और जड़ कर्मों के साथ-साथ इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को उत्पन्न करने वाला रागद्वेषात्मक विभाग कहलाता है 'कार्मण' । आभ्यन्तर जगत् में इन दोनों ही प्रकारके शरीरों का प्रत्यक्ष किया जाना सम्भव है। स्थूल हो अथवा सूक्ष्म दोनों ही शरीर शीर्ण-स्वभावी हैं। विशेषता है केवल इतनी कि पहला तो शीर्ण हो जाता है केवल एक भव में और दूसरा होता है अनन्तों भवों में। मृत्यु के समय स्थूल शरीर तो अपना त्याग-पत्र देकर महाप्रभु-जीव-तत्त्व से विलग हो जाता है, परन्तु यह सूक्ष्म शरीर एक सच्चे मित्र की भाँति भव-भवान्तरों में भी अपनी सेवा से निवृत्त नहीं होता। जब-जब, जहाँ-जहाँ, जिस-जिस भव में भी चेतन भगवान जाने की इच्छा करते है, यह तुरन्त उनको वहाँ पहुँचाने का प्रबन्ध कर देता है। इतना ही नहीं, स्वयं भी उनके साथ जाकर उनकी वासना के अनुसार, उनके रहने के लिये, तुरन्त एक नया भवन बनाकर खड़ा कर देता है ताकि वहाँ परदेश में किसी प्रकार का कष्ट न होने पावे उन्हें । अर्थात् भव-भव में जीव के साथ जाकर नये-नये शरीरों का निर्माण करते रहना ही इस विश्वकर्मा का काम है। समय तक जब तक कि इसका स्वामी यह जीव राजा स्वयं अपने स्वामित्व को समझकर इसके चंगल से बाहर नहीं निकल जाता। उसी समय पता चलता है उसे कि यह वास्तव में उसका मित्र था या मीठा शत्रु । यदि पारमार्थिक मित्र होता तो प्रथम क्षण में ही सारे रहस्य का उद्घाटन करके वह इसे भव-भ्रमण से बचा लेता। इस प्रकार बाह्य और अभ्यन्तर का यह सकल विस्तार अजीव है, जड़ है अथवा चिदाभासी है। MERS SME ४ . ANWAR ना WCOM Indline २ ॥ - CI - (G चल भले धीरे धीरे चल । परन्तु जीव व अजीव तत्त्व का विवेक उत्पन्न करता चल। विवेक जागृत होने पर साधु बन जाएगा तू। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक-ज्ञान १. विवेक, २. सदसद् विवेक, ३. स्व-पर विवेक, ४. षट्कारकी स्वतन्त्रता, ५. जन्म-मृत्यु रहस्य, ६. उत्पाद व्यय ध्रौव्य, ७. भेद-विज्ञान। १. विवेक-शान्ति-पथ के अन्तर्गत श्रद्धा के विषयभूत सात तत्त्वों में से जीव अजीव नाम वाले प्रथम दो प्रधान तत्त्वों की बात चलती है। दोनों तत्त्वों का रहस्यात्मक परिचय पा लेने के उपरान्त कुछ प्रश्न स्वत: समक्ष आकर खड़े हो जाते हैं। (i) पहला प्रश्न तो यह है कि इस बाह्याभ्यन्तर अनन्त विस्तार में मैं इन दोनों तत्त्वों के यथार्थ दर्शन कैसे करूँ। यह सब कुछ वैसा ही है जैसा कि दिखाई दे रहा है, या कुछ और है? अर्थात् क्या यह सत् है महातत्त्वों का कोई स्वांग जो कि उन दोनों ने परस्पर में मिलकर मझे ठगने के लिये धारण किया है? अर्थात सदसत विवेक । (ii) दूसरा प्रश्न यह है कि दूध पानी की भाँति एकमेक होकर धारण किये गये इन दोनों तत्त्वों के इस स्वांग में मैं तथा मेरा क्या व कितना अंश है और मुझसे भिन्न परका क्या व कितना अंश है ? अर्थात् स्व-पर विवेक । (iii) तीसरा प्रश्न यह है कि अतिमहिमावन्त तथा स्वतन्त्र चेतन तत्त्व होते हुये भी मै इस जड़ या अजीव तत्त्व के अधीन कैसे बन बैठा हूँ, हजार प्रयत्ल करने पर भी इसके चंगुल से छुटकारा सम्भव नहीं हो पा रहा है । (iv) चौथा प्रश्न यह है कि वह कौन सी विधि है जिससे कि इस जगत् में रहते हुये भी मैं प्रपंच का स्पर्श न करते हुये केवल इसका द्रष्टा बना रहूँ। (v) पांचवां प्रश्न यह है कि ये दोनों तत्त्व किस प्रकार परस्पर में मिलकर बाह्याभ्यन्तर प्रपञ्चरूप इस अखिल विश्व की तर्कातीत कार्य-व्यवस्थाका संचालन कर रहे हैं? अर्थात् कारण-कार्य-व्यवस्था । अब लीजिये क्रम से एक-एक प्रश्न पर विचार करते हैं। २. सदसद विवेक-पहला प्रश्न है सत-असत विवेक । यह बताने की आवश्यकता नहीं कि जो कुछ भी बाहर में अथवा भीतर में दिखाई दे रहा है, वह सब असत् है, सत् नहीं । बड़ी विचित्र बात सुन रहे हैं । आँखों से प्रत्यक्ष दिख रहा है और असत् ? नित्य प्रयोग में ला रहा हूँ और असत् ? कोई स्वप्न थोड़े ही देख रहा हूँ कि असत् समझ लूँ इसे? केवल आपके कहने मात्र से कैसे असत् मान लूँ ? देखो आपके शरीर पर चुटकी भरता हूँ। कुछ पीड़ा होती है कि नहीं? फिर असत् कैसे समझ लूँ इसे? ठीक है भाई ! तेरी शंकायें बिल्कुल उचित हैं । व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर तो ऐसा ही है। परन्तु मैं जिस पारमार्थिक दृष्टि की बात कर रहा हूँ, जिस तात्त्विक दृष्टि की बात कर रहा हूँ, उससे देखने पर यह सर्वथा असत् ही है। देख, 'सत्' किसे कहते हैं? जिसकी अपनी कोई मौलिक या पारमार्थिक स्वतन्त्र सत्ता हो। हल्दी तथा चूने के संयोग से उत्पन्न होने वाले लाल रंग की क्या अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता है? हल्दी पीली और चूना सफेद । फिर यह लाल रंग कहाँ से आ टपका । सत् कहें इसे कि असत् ? बस यही है वह दृष्टि जिससे देखने पर, यह अखिल प्रपञ्च असत् होकर रह जाता है । हल्दी और चूने के संयोग से उत्पन्न लाल रंग की भाँति बाह्याभ्यन्तर यह सकल विस्तार भी वास्तव में मौलिक सत्ताभूत कुछ न होकर उनके संयोग से उत्पन्न होने वाली पर्यायें हैं, कुछ द्रव्य-पर्यायें और कुछ भाव-पर्यायें । बाह्य जगत् के मृत शरीर या जड़ द्रव्य हैं। केवल परमाणुओं के पिण्ड और जीवित-शरीर हैं जीवात्मा सहित परमाणुओं के पिण्ड । इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत् के बौद्धिक ज्ञान तथा मानसिक राग-द्वेष हैं ज्ञान के साथ ज्ञेय का संयोग हो जाने के कारण उत्पन्न होने वाले भावात्मक पिण्ड । पयायें होने के कारण सभी हैं उत्पन्न-ध्वंसी। भले, पर्यायार्थिक दृष्टि से देखने पर इनकी व्यावहारिक सत्तायें प्रतीत होती हों, परन्तु द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखने पर इनकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं। जो आज है और कल नहीं, उसका भरोसा ही क्या, और सत् कैसे कहा जा सकता है उसे, सत्ताभूत कैसे समझा जा सकता है उसे? जिस प्रकार सागर से भिन्न उसकी तरंग की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं इसी प्रकार जीव अजीव तत्त्व से भिन्न इस बाह्याभ्यन्तर जगत् की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। इसलिये जिस प्रकार स्वतन्त्र सत्ताधारी होने से सागर ही सत् है तरंग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक ज्ञान ३. स्व-पर विवेक नहीं, इसी प्रकार स्वतन्त्र सत्ताधारी होने से जीव अजीव तत्त्व ही सत् हैं, यह बाह्याभ्यन्तर जगत् नहीं । जिस प्रकार लाल रंग चूने और हल्दी का संयोगी स्वाँग है अन्य कुछ नहीं, इसी प्रकार यह बाह्याभ्यन्तर जगत् भी जीव अजीव तत्त्वों का संयोगी स्वाँग है अन्य कुछ नहीं । ३. स्व-पर विवेक अब तक दो तत्त्व बताये गये, जीव और अजीव । इनमें से कौन स्वतत्त्व है और कौन परतत्त्व यह बात खोजनी है यह स्पष्ट है कि स्व का अर्थ "मैं" है, और "मैं" चेतन है, इसलिये स्वतत्त्व जीव ही हो सकता है, अजीव कदापि नहीं । अजीव तत्त्व दो कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-एक वह अजीव जो दूध-पानीवत् मेरे साथ इस प्रकार मिला पड़ा है कि उस मिश्रण में जीव कौन व अजीव कौन यह विवेक भी स्थूल दृष्टि से होना असम्भव है, और दूसरा अजीव वह है कि मुझसे तथा मेरे इस शरीर से पृथक् पड़ा हुआ प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है । पहले के अन्तर्गत आते हैं बाहर तथा भीतर के मेरे अपने स्थूल व सूक्ष्म शरीर और दूसरे के अन्तर्गत आते हैं अन्य व्यक्तियों के शरीर तथा स्त्री, कुटुम्ब, धन, मकान आदि । अजीव होने के कारण ये सब परतत्त्व हैं । अब लीजिये जीव तत्त्व | जीव तत्त्व यद्यपि स्वपदार्थ कहा गया है, परन्तु सर्व ही ऐसा नहीं है । अत: जिस जीव- विशेष में चैतन्य के अतिरिक्त इस "मैं" पने का लक्षण विशेष तो स्वपदार्थ है, और केवल चैतन्य लक्षण वाले शेष सर्व जीव परपदार्थ हैं। इसमें तो किसी संशय को अवकाश नहीं, परन्तु इसका भी एक विशेष अंश ऐसा है जिसे यहाँ परपदार्थ रूप से दिखाना अभीष्ट है । साधारण दृष्टि से तो वह अंश स्वपदार्थ रूप ही दिखाई देता है क्योंकि वह स्वयं मेरी ही कोई अवस्था - विशेष है, जो भले ही उपरोक्त पर - पदार्थों का आश्रय लेकर उत्पन्न होता हो, पर है चैतन्यरूप, जड़रूप नहीं । मेरा संकेत अभ्यन्तर के उस चिदाभासी जगत् की ओर है जिसका कि संग्रह अजीव तत्त्व के अन्तर्गत किया गया है । ५० जीव स्वपदार्थ कहे जा सकें घटित होता हो वह एक जीव यहाँ इतना ही बताना इष्ट है कि स्थूलदृष्टि से दीखने वाले, भिन्न क्षेत्र में स्थित, जड़ पदार्थ अर्थात् धनादिक और चेतन पदार्थ पुत्र आदिक; कुछ सूक्ष्म दृष्टि से दीखने वाले एक क्षेत्र में स्थित जड़पदार्थ अर्थात् शरीर व कर्म आदिक और अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से दीखने वाले अत्यन्त निकट व तन्मयरूप से प्रकाशमान मन-बुद्धि आदिक; तथा उनमें नित्य-निरन्तर नृत्य करने वाले रागादिक, इन सबको पर पदार्थ रूप से ग्रहण करना चाहिये । तात्पर्य यह कि सकल बाह्याभ्यन्तर विस्तार परतत्त्व है। धन कुटुम्बादिक तथा शरीर इन पदार्थों को पर कहना तो बहुत स्थूल बात है क्योंकि बिना परिश्रम के ही समझ में आ जाती है। चेतन व इन द्रव्यों की जाति में ही भेद है। तीन काल में भी एक नहीं हो सकते । शरीरादि को जीव कहना स्पष्ट असत्यार्थ है । अध्यात्मवादी कभी भी यह कहना स्वीकार नहीं कर सकता । परन्तु हम तो तुम्हें इससे भी कहीं आगे ले जाना चाहते हैं, वहाँ जहाँ कि अध्यात्मका सूक्ष्म रहस्य छिपा है । त्रिकाली भिन्न सत्ताधारी द्रव्यों में पृथकता देखना स्थूल अध्यात्म है और एक ही पदार्थ के दो क्षणिक भावों में पृथकता देखना सूक्ष्म अध्यात्म है। पहले का विषय द्रव्य है और दूसरे का पर्याय अर्थात् द्रव्य की अवस्था । पहला द्रव्यार्थिक नयका विषय है और दूसरा पर्यायार्थिक नयका । यह दृष्टि पदार्थ के अपने अन्दर में पड़ी उस सूक्ष्म सन्धि को देखती है, जो लौकिक-स्थूल दृष्टि में आनी असम्भव है। प्रज्ञा छैनी के द्वारा ही उस सूक्ष्म सन्धि का साक्षात्कार किया जा सकता है। पदार्थ शुद्धस्वभाव अर्थात् पारिणामिक-भाव को लक्ष्य में लेकर पदार्थ का विचार करने पर ही यह रहस्य समझा जा सकता है, उसकी पर्यायों को लक्ष्य में लेकर नहीं । इन्द्रिय-अग्राह्य चेतन और इन्द्रिय-ग्राह्य जड़ दोनों ही द्रव्यों में दो प्रकार के क्षणिक भाव या अवस्था - विशेष देखने को मिलती हैं— स्वभाव- अवस्था तथा उसके विपरीत विभाव- अवस्था । जिसमें किसी का मेल या संयोग न पाया जाय वह स्वभाव-भाव है और जिसमें किसी प्रकार से भी अन्य का मेल या संयोग पाया जाय वह विभाव-भाव है। अकेला परमाणु जो इन्द्रिय के द्वारा दृष्ट नहीं हो सकता, उसके स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध आदि जड़ पदार्थ के स्वभाव-भाव हैं और जो ये सम्पूर्ण दृष्ट-स्थूलपदार्थ हैं, उनके स्पर्श, रस, वर्ण, गन्ध आदि उनके विभाव-भाव हैं, क्योंकि अनेक सूक्ष्म- परमाणुओं का संयोग हुये बिना उनका निर्माण होता नहीं । इसी प्रकार लोक-शिखर परम धाम में विराजमान नित्य निरंजन व शरीर रहित निराकार सिद्ध-भगवान या मुक्त-आत्मा तथा उसके सर्वज्ञत्व आदि गुण जीव के स्वभाव-भाव हैं और ये सब शरीरधारी संसारी जीव तथा उनके क्रोधादि गुण Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक-ज्ञान ४. षट्कारकी स्वतंत्रता जीव के विभाव-भाव हैं । 'स्वभाव-भाव' निज-भाव या स्व-भाव कहलाते हैं और 'विभाव-भाव' पर भाव कहलाते हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्य के अपने भावों में ही स्व व पर का विभाजन करके द्वैत दर्शाना सूक्ष्म दृष्टि का कार्य है। पर्याय या अवस्था कभी द्रव्य से जुदी होकर पृथक् नहीं रहती। द्रव्य स्वयं प्रति क्षण बदलता हुआ अनेक अवस्थाओं में से गुजरता है। अत: इन स्व व पर भावों या अवस्था-विशेषों से तन्मय अखण्ड-द्रव्य में भी किञ्चित् विजातीयता का आभास होने लगता है। यहाँ जड़ द्रव्य को छोड़कर केवल जीव-द्रव्य में ही उस विजातीयता की सिद्धि करते हैं। तहाँ जड़-द्रव्य में यथायोग्य रूप से स्वयं लगा लेना । जीव-द्रव्य एक विचित्र प्रकार का वस्तुभूत या सत्ताधारी अमूर्तीक पदार्थ है, कल्पना मात्र हवा नहीं है। वह अपने को भी जान सकता है और परको भी। जानना मात्र ही हुआ होता तो कोई हर्ज न होता । यहाँ जानने के साथ-साथ कुछ और भाव भी पैदा होता है । अपने को जानते हुये तो इसको स्व व पर दोनों ही पदार्थ दिखाई देते हैं, क्योंकि ज्ञान दर्पण के समान है। जिस प्रकार दर्पण खते समय दर्पण तथा अन्य पदार्थों के प्रतिबिंब सब ही दिखाई देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान के सम्बन्ध में भी समझना। किन्तु पर को जानते हुये इसे निजरूप दिखाई नहीं देता। अपने को जानते समय इसका भाव अपने साथ तन्मय होता है और परको जानते समय परके साथ । तन्मय का अर्थ यहाँ उस पदार्थ रूप बन जाना नहीं क्योंकि चेतन का जड़ बन जाना तीन काल में भी सम्भव नहीं है। अपने को भूलकर केवल उस पदार्थ को ही देखना पर-पदार्थ के साथ तन्मयता कहलाती है। अपने साथ तन्मय होने के कारण पहला ज्ञान स्व-भाव है और परके साथ तन्मय होने के कारण दूसरा ज्ञान पर-भाव है । मानसिक संकल्प विकल्प, बौद्धिक तर्कणायें, राग-द्वेषादि कषायें तथा वासनायें उसका स्वरूप हैं। इस प्रकार यथायोग्य रूप से अनेक प्रकार इन रागादिक भावों रूप अभ्यन्तरजगत को जीव का नहीं कहा जा सकता। यही विशुद्ध-अध्यात्म का भेद-विज्ञान है, जिसका ग्रहण अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि में ही होना सम्भव है । एक ज्ञान में ही विवक्षावश स्व व पर का द्वैत उत्पन्न कराया गया है। साधारण दृष्टि में तो स्व व पर की कल्पना अत्यन्त स्थूल है, पर यहाँ स्व-पर की व्याख्या अत्यन्त सूक्ष्म है । पहले वाली स्थूल दृष्टि द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टि है, पर यहाँ पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र नयका विषय है, जिसकी अपेक्षा जो बालक है उसे बूढ़ा नहीं कहा जा सकता और जो बूढ़ा है उसे बालक नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि में बालक व बूढ़ा पृथक्-पृथक् दो स्वतन्त्र व्यक्ति हैं । ज्ञान के साथ तन्मय रहने वाला ज्ञाता व्यक्ति कोई और है और बाह्यजगत् के साथ तथा तत्सम्बन्धी करने धरने रूप विकल्पों के साथ तन्मय रहने वाला कर्ता व्यक्ति कोई और हैं इसीलिये कहा है कि “जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं और जो कर्ता है वह ज्ञाता नहीं।" इस प्रकार यहाँ इस प्रकरण में भली-भांति स्व-पर का सूक्ष्म विवेक जागृत कराया गया । यद्यपि विषय कुछ कठिन सा है, पर भाई ! इसके समझे बिना छटकारा नहीं है। आगे आने वाले सारे मार्ग का मल आधार यही विवेक-ज्ञान है। अन्तरंग जीवन की वास्तविकता इसके बिना होनी असम्भव है। अत: जिस किस प्रकार भी इसे तू अवश्य समझ और जीवन के २४ घण्टों की प्रवृत्तियों में इस सिद्धान्त को विचारणा का विषय बनाने का प्रयल कर । शान्ति-पथ का यह प्राण है । इसके बिना सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान निष्फल हैं। ४. षट्कारकी स्वतंत्रता–शान्ति-पथ की सिद्धि के अर्थ जीव अजीव तत्त्वों की बात चलती है। उनकी मिली-जुली अवस्था में विवेक उत्पन्न करने के लिये कुछ प्रश्नों पर विचार किया जा रहा है । सत्-असत् विवेक तथा स्व-पर विवेक विषयक प्रश्नों का समाधान हो जाने के उपरान्त अब तीसरा प्रश्न आता है यह कि, अति महिमावन्त तथा स्वतन्त्र चेतनतत्त्व होते हुये भी मैं इस जड़ या अजीव तत्त्व के आधीन कैसे बन बैठा, जो हजार प्रयत्न करने पर भी इसके चंगुल से छुटकारा सम्भव नहीं हो पा रहा है । प्रश्न बड़े महत्त्व का है । इस पर विचार करते हैं । अभी-अभी तीन कोटि के पर-पदार्थ बताये गये हैं—एक तो भिन्न क्षेत्रावगाही धन, कुटुम्बादि, दूसरा एक क्षेत्रावगाही स्थूलशरीर और तीसरा मेरे साथ कुछ तन्मयसा दीखने वाला रागद्वेषात्मक सूक्ष्मशरीर । यह तीसरा शरीर ही मेरा वास्तविक बन्धन है, न है धन कुटुम्बादि और न है यह स्थूलशरीर । इससे मुक्त होने के लिये मुझे यह ज्ञान होना चाहये कि इसकी मेरे अन्दर उत्पत्ति किस प्रकार तथा किस कारणं से होती है । इसी का उत्तर आज चलेगा। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक-ज्ञान ४. षट्कारकी स्वतंत्रता अपने आज के विकल्पात्मक संसार पर दृष्टिपात करके यदि में इसका विश्लेषण करूँ तो स्पष्टत: यह बात ध्यान में आ जाती है कि क्यों और किस प्रकार मैं आज प्रतिक्षण नये-नये विचार व विकल्प उठा-उठाकर उनमें स्वयं फंसा हुआ व्याकुल बना रहता हूँ । इन विकल्पों का मूल वास्तव में शरीर है, क्योंकि जितने भी विकल्प हो रहे हैं वे सब उसकी इष्टता के लिये हो रहे हैं । मेरे आजके विकल्पों में मुख्य धनोपार्जन का विकल्प है, धनोपार्जन की इच्छा केवल पंचेन्द्रिय विषयों की पूर्ति के लिये है और पंचेन्द्रियों का आधार शरीर है । इसी प्रकार धनोपार्जन कुटुम्ब पालने के अर्थ भी है और कुटुम्ब-पालन भी इसी लिये है कि उसको मैं इस शरीर का रक्षक व वृद्धावस्था में इसका सहायक मानता हैं। इन विषयों में, कटम्ब में या धनोपार्जन में बाधा पड़ जाने पर मझे चिन्ता होती है। उस चिन्ता की निवत्ति के लिये मैं और-और विकल्प करता हूँ और इस प्रकार एक जाल में उलझ जाता हूँ । ज्यों-ज्यों इस जाल से निकलने का प्रयत्न करता हूँ, त्यों-त्यों मकड़ी के जाल में उलझी मक्खीवत् अधिक-अधिक उलझता जाता हूँ । इन विकल्पों से निवृत्ति पाने की इच्छा रखते हुये भी मैं इनसे क्यों नहीं निकल पा रहा हूँ, इसका कारण ही नीचे बताया जाता है । इसका कारण स्व-पर-पदार्थों का मिश्रण है। मिश्रण भी एक प्रकार से नहीं, दो प्रकार से। एक तो फ़िजीकल अर्थात् प्रादेशिक रूप से, क्षेत्र रूप से और दूसरा मैण्टल अर्थात् मानसिक रूप से । यहाँ प्रादेशिक मिश्रण की तो बात छोड़ दीजिये क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। मैण्टल या मानसिक मिश्रण की बात विचारणीय है, क्योंकि प्रादेशिक मिश्रण मेरे लिये विशेष बाधाकारक नहीं है, मानसिक मिश्रण ही मुख्य बाधक है जोकि मेरी शान्ति को घात रहा है। इस मानसिक मिश्रण का आधार मेरे अन्दर में पड़ा एक विश्वास है जिसके आधार पर मैं सर्व-पदार्थों की स्वतन्त्रता स्वीकार न करके उन्हें परतन्त्र बनाने का प्रयत्न किया करता हूँ। उनकी परतन्त्रता को ही मैं भ्रमवश अपनी स्वतन्त्रता समझता हूँ। बात केवल इतनी ही नहीं है, मैं अपनी स्वतन्त्रता को भी स्वीकार नहीं करता, इसको परतन्त्र मान बैठता हूँ। मैं व्यक्तिगत रूप में अकेला ही ऐसा कर रहा हूँ ऐसा भी नहीं है । आप सब तथा सर्व लोक के अनन्तानन्त प्राणी भी उसी विश्वास के आधीन प्रवृत्ति कर रहे हैं । इस प्रकार कल बताई गई तीन कोटियों में से प्रथम दो कोटि के पर-पदार्थों को मैं अपने आधीन तथा अपने को उनके आधीन मान बैठा हूँ। इसी प्रकार से वे पर-पदार्थ भी मुझे अपने आधीन तथा अपने को मेरे आधीन मान बैठे हैं अर्थात् मेरे किये बिना उन पर-पदार्थों का कोई भी कार्य नहीं चल सकता और उनकी सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरी प्रेरणा पाकर ही वे चित्र-विचित्र कार्य कर रहे हैं और उनकी प्रेरणा पाकर ही मैं यह विकल्पात्मक राग-द्वेषादि कार्य कर रहा हूँ। मेरे पाले बिना कुटुम्ब का पोषण नहीं हो सकता और कुटुम्ब की सहायता के बिना मैं जीवित नहीं रह सकता। मेरे हिलाये बिना शरीर हिल नहीं सकता। और शरीर की सहायता के बिना मैं जान नहीं सकता। और इसी प्रकार अनेकों चिन्तायें तथा विकल्पात्मक पराश्रित धारणायें हैं । स्वतन्त्रता मिले तो कैसे मिले और परतन्त्रता में शान्ति कैसे जीवित रहे? मजे की बात यह कि इस प्रकार अधिकाधिक परतन्त्रता के पुरुषार्थ को ही शान्ति का पुरुषार्थ समझता हूँ। अधिकाधिक भोगों की प्राप्ति से शान्ति मिलेगी, भोगों की प्राप्ति इस शरीर की क्रिया से होगी, शरीर की क्रिया को मैं करूँगा इस प्रकार मैं अपनी शान्ति का वेदन कर लूँगा। अत: मेरा सर्व पुरुषार्थ शान्ति के लिये ही तो है। हे शान्ति-भण्डार चिदानन्द भगवान ! शान्ति तो स्वतन्त्रता में बसती है, परतन्त्रता में नहीं । अब इस परतन्त्रता को छोड़, स्वतन्त्र दृष्टि उत्पन्न कर, जिसमें प्रत्येक पदार्थ जड़ हो कि चेतन, स्व हो कि पर, स्वतन्त्र दिखाई देने लगे। सुन-सुनाकर या पढ़-पढ़ाकर यह कह देना मात्र पर्याप्त नहीं कि “हाँ हाँ, सर्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं, कोई किसी का नहीं, मैं पृथक् हूँ, शरीर पृथक् हैं” इत्यादि । इस प्रकार तो सभी कहा करते हैं। दो द्रव्यों की पृथकता का अर्थ इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाता कि उनकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार कर लें। सत्ता त्रयात्मक होती है उत्पाद-व्यय ध्रौव्य स्वरूप अर्थात् बराबर बनी रहते हुये भी बराबर बदलते रहना उसका काम है। यह बात आगे बताई जाने वाली है। स्वभाव किसी दूसरे की सहायता नहीं मांगता, जिस प्रकार कि जल को शीतल बनाने के लिये किसी दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं। सत्ता को उसी समय स्वतन्त्र माना कहा जा सकता है जबकि इसके तीनों अंशों को स्वतन्त्र मान लिया जावे, अर्थात् उसका बदलते रहना भी स्वतंत्र माना जावे। विचारिये तो सही कि किसी भी पदार्थ को बदलने के Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक-ज्ञान ५. जन्म-मृत्यु रहस्य लिये किसी सहायक की प्रतीक्षा करनी पड़ती है क्या? कि अमुक सहायक आये तो मैं बदलें, नहीं तो बदलना चाहते हुये भी कैसे बदलूँ ? और जब तक योग्य सहायक न मिले तो बदले बिना ही पड़ा रहूँ? नहीं नहीं, ऐसा नहीं है और न सैद्धान्तिक रूप से आप ऐसा स्वीकार ही करते हैं । करें भी कैसे? सब घोटमटाला हो जाए, विश्व कूटस्थ हो जाए अर्थात् सत्ता का ही विनाश हो जाए, सब शून्य जो जाय। और यदि सत्ता को उत्पाद-व्यय धौव्यरूप स्वीकार करते हो अर्थात् टिके रहते हुये भी स्वाभाविक रूप से स्वयं बदलती हुई स्वीकार करते हो तो, 'इसे मैने बदला' इस प्रकार के अहंकार को कहाँ अवकाश है? चलती गाड़ी के नीचे चलता कुत्ता भले यह विचारे कि गाड़ी को वह चला रहा है परन्तु उसके भ्रमात्मक विचार के कारण गाड़ी उसके आधीन नहीं हो जायेगी। इसी प्रकार तू भले यह कल्पना करे कि मैं इस विश्व का काम कर रहा हूँ, मेरे किये बिना बेचारा यह जड़ क्या करेगा, परन्तु तेरे भ्रमात्मक विकल्प के कारण विश्व तेरे आधीन नहीं हो जायेगा। सारा लोक भी यही भ्रम बनाये क्यों न बैठा रहे. पर विश्व अर्थात सर्व पदार्थ-समह तो स्वतन्त्र ही रहेगा. अपनी सर्व पलटने की क्रियाओं में । अपने स्वभाव के अतिरिक्त उसे अन्य किसी का आश्रय नहीं है। उपरोक्त सर्व वक्तव्य पर से मेरा प्रयोजन केवल यह सिद्ध करना है कि किसी दृष्टि-विशेष से देखने पर प्रत्येक पदार्थ जड़ हो कि चेतन, अपना-अपना कार्य करने को पूर्ण स्वतन्त्र है। प्रत्येक पदार्थ बिना दूसरे की सहायता के परिवर्तन करने को स्वयं समर्थ है और कर रहा है । षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वयं बदलने की शक्ति रखता है । इसलिये वह स्वतन्त्र रूप से बदलता हुआ ही अपनी किसी विशेष अवस्था को स्वयं उत्पन्न करता है, स्वयं अपने द्वारा उत्पन्न करता है, स्वयं अपने लिये उत्पन्न करता है अर्थात् उस अवस्था को उत्पन्न करके स्वयं ही साथ तन्मय हो जाता है, अपने में से ही निकालकर उत्पन्न करता है, अपने स्वभाव में रहते हुये ही उत्पन्न करता है और इसलिये यह अवस्था-विशेष उस ही की है, किसी अन्य की नहीं। इसी को षट्कारकी स्वतन्त्रता कहते हैं। अवस्था उत्पन्न करना ही पदार्थ का काम है। इसलिये कह सकते हैं कि उपरोक्त षट्कारकों रूप से प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपना कार्य करता है, किसी दूसरे की सहायता की उसे आवश्यकता नहीं। जैसा कि अगले अधिकार में बताया जाने वाला है, भले ही वस्तु की कार्य-व्यवस्था में निमित्तों आदि की सहायता का कोई स्थान हो परन्तु वस्तु-स्वभाव को देखने वाली इस तात्त्विक दृष्टि में उसका कोई स्थान नहीं है। ५. जन्म-मृत्यु रहस्य-लीजिये इसी तथ्य को दृष्टान्त देकर समझाता हूँ । दृष्टान्त भी तुम्हारा अपना। थोड़ी देर के लिये लौट आइये वहीं जहाँ कि अजीव तत्त्व का वर्णन करते हए इस चेतन की मुर्खता का दिग्दर्शन कराया जा रहा था, उस मूर्खता का जिसके कारण कि वह 'मैं' की खोज निज शान्ति स्वभाव में न करके करता है विविध शरीरों में, इनके नातेदारों में तथा इनके जन्म मरण में । फिर आप ही सोचिये कि कैसे सम्भव हो सकते हैं चेतन भगवान के दर्शन? जड़ शरीरों में जब वह है ही नहीं तो वहाँ वह मिलेगा कैसे? युगों बीत गए, परन्तु आज तक न सम्भला। घर में पुत्र उत्पन्न हुआ, अहा हा ! कितनी अनोखी बात हुई, कितने हर्ष का स्थान हुआ, एक नवीन वस्तु जो बना डाली है मैंने मानो कि उसकी सत्ता ही बना डाली हो, इससे पहले वह लोक में ही न हो । एक महान् काम जो किया है मैंने, अपने ही जैसे एक नवीन व्यक्ति का सृजन करके, परन्तु अपनी ही भाँति मूर्ख । मूों की टोली में एक की वृद्धि जो कर दी है मैने । और यह क्या ? अरे काल ! हाय हाय ! नहीं तू तो चला जा यहाँ से । देख देख ! जरा दूर रह, यहाँ मत आ । यह तो मेरा पुत्र है, मेरी सृष्टि है, इस पर तो मेरा अधिकार है। तू कहाँ ले जाना चाहता है इसे, मेरे बिना पूछे ? व्यापार में कुछ लाभ हुआ। अहा हा ! कितना बड़ा काम किया है मैंने, कितना चतुर हूँ मैं जो इतना धन ले आया हूँ ? मानों कोई नई वस्तु ही, बनाकर लाया हूँ। इससे पहले यह इस जगत् में थी ही नहीं ! अरे रे ! यह क्या ? हानि? अरे रे । तुझे किसने बुलाया ? जा जा, जब बुलावें तब आना, बिना बुलाये आना सेवक की मूर्खता है। मानो मेरी ही तो आज्ञा चल रही है विश्व पर, मेरे ही आधीन रहना चाहिये सबको, मैं स्वामी जो हूँ सबका। मूों को सब ही मूर्ख न दिखाई दें तो क्या दिखाई दे ? और इसी प्रकार कभी हँसता और कभी रोता चला आ रहा हूँ न जाने कब से? Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक ज्ञान ५४ ५. जन्म-मृत्यु रहस्य मेरे अन्दर आत्मा बोल रही है, मेरी मृत्यु एक दिन आ जायेगी, मुझे चिता पर रखकर फूँक दिया जायेगा और आत्मा उड़ जायेगी इसमें से, एक फूँक सी निकलकर । और इसके पश्चात् मैं ? मैं तो जला दिया गया न ? एक अन्धकारसा, जिसमें कुछ नहीं भासता कि मैं रहा या विनश गया। नहीं-नहीं, मैं तो विनश ही गया। मृत्यु जो आ गई । अब कहाँ दीखूँगा मैं ? किसे दीखूंगा मैं ? किसे पुकारेंगे लोग अमुक नाम लेकर ? जन्म से पहले कब था मैं ? किसे दीखता था मैं ? कौन पुकारता था मुझे अमुक नाम लेकर ? हाँ हाँ, ठीक है, जन्म से पहले मैं था ही नहीं और मृत्यु के पश्चात् मैं रहूँगा नहीं । जन्म से मृत्यु तक के लिये, बस इतना ही तो हूँ मैं, इतना ही तो है मेरा जीवन । जितनी मौज उड़ाई जाये उड़ाले, जितनी सम्पत्ति खाई जाये खाले, फिर कौन जानता है कि रहे या न रहे। सदा से जी-जीकर मरता आ रहा है आज तक इसी प्रकार । सदा से बराबर विनश रहा है तू, सदा से चिता में जलाया जा रहा है तू । पर मजे की बात यह कि 'मैं हूँ' यह कहने वाला आज भी तू अपने होने का पोषण कर रहा है। सदा से भोग रहा है तथा खा रहा है इस लोक की सम्पत्ति को, पर आज भी यह ज्यों की त्यों बनी हुई है, इस धरातल पर । अरे भाई ! यह विचारा है कभी कि यह जिसे तू फूँक सी उड़ जाने वाली आत्मा कह रहा है, जिसे तू अपने अन्दर बोलता हुआ देख रहा है, वही तो तू है, चेतन-ज्योति परमतत्त्व, अबाध्य व अकाट्य । जिसे तू जलता हुआ देख रहा है, वही तो है 'अजीव तत्त्व' चेतन-शून्य जड़ । यदि विश्वास नहीं आता तो अपने को, उस फूँकसी को निकालकर देखले इस ढोल की पोल । कहाँ चली जाती है इसकी ज्योति व तेज ? आँख होते हुए भी क्यों नहीं देख सकता है यह ? मुँह होते हुए भी क्यों नहीं बोल सकता है यह ? कान होते हुए भी क्यों नहीं सुन सकता है यह ? नाक होते हुए भी क्यों नहीं सू सकता है यह ? अग्नि पर रख देने पर भी क्यों पीड़ा नहीं होती है इसे अब ? क्यों चीख-पुकार नहीं करता है आज यह ? यह तू ही था कि जिसके कारण इसमें ज्योति थी, तेज था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह देखता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह बोलता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह सुनता था । यह तू ही तो था जिसके कारण यह सूंघता था, और यह तू ही तो था जिसके कारण अग्नि लगने से यह चीखता था । परन्तु विचार तो कर अपनी बुद्धि के फेर पर। अपने को फूंकवत् फोकट की वस्तु मान बैठा और इसे 'मैं' मान बैठा है। अपनी महत्ता भूलकर इसकी महत्ता गिनता है । अपने को जड़ व इसे चेतन मानता है । भाई ! तू आज तक कभी मरा नहीं । मरता तो आज बैठा 'मैं' कहने वाला तू कहाँ से आता ? यदि विश्वास नहीं आता तो पुनर्जन्म के उन प्रत्यक्ष दृष्टान्तों को देख जो आज के समाचार पत्रों के युग में प्रत्यक्ष पढ़ने, सुनने, देखने व अनुभव करने में आ रहे हैं। अपने को मैं कहने वाला कोई भी व्यक्ति-विशेष, पुनर्जन्मपर विश्वास न करने वाले वातावरण में उत्पन्न होकर भी, अर्थात् मुसलमानों व ईसाईयों में जन्म धारण करके भी क्या आज यह कहता सुना नहीं जाता कि मैं इससे पहले अमुक देश में, अमुक ग्राम में, अमुक माता-पिता का पुत्र या पुत्री, अमुक का पिता या माता, अमुक का पति या स्त्री था । अमुक व्यापार करता था, अमुक मकान मेरा ही था। यह मेरी ही दुकान थी, अमुक व्यक्ति को इतना पैसा देना था मुझे अमुक स्थान पर अमुक वस्तु रखी हुई थी मैंने तथा अन्य भी अनेकों ऐसी बातें जिनकी खोजबीन व परीक्षा कर लेने के पश्चात्, उन सर्व बातों की सत्यता प्रकाशित हो जाने के पश्चात्, यह कहे बिना न बनेगा कि निःसन्देह अपने को आ 'मैं' कहने वाला यह व्यक्ति वही है जो इस बार जन्म लेने से पहले इससे पूर्वकी अवस्था में भी अपने को 'मैं' ही कहता विद्यमान था। भले ही पहले अन्धविश्वास पर आधारित रहा हो यह तथ्य, पर आज के युग में तो सौभाग्यवश अन्धविश्वास का विषय नहीं रह गया है यह । हस्तामलकवत् आज प्रत्यक्ष हो रहा है, इस परम सत्य का । ६. उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य—- इसप्रकार देखने पर आज जो जन्मा है वह वही है जो पहले कहीं से मरा है कोई नया नहीं । और यदि ऐसा ही है तो जन्म लेते समय कौन नई वस्तु जन्मी और मरण पाते समय कौन पहली वस्तु विनशी ? बिल्कुल इसी प्रकार जिस प्रकार कि विचार करने पर यह बात ध्यान में आ जाती है कि धन-लाभ होते कौन नई वस्तु आ गई और धन-हानि होते कौन वस्तु विनश गई ? यहाँ ही थी यहाँ ही रही, न कुछ आई न कुछ गई। इसी प्रकार तू भी यहीं था यही रहा, न कुछ जन्मा न कुछ मरा । तेरे इस जन्म से या धन-लाभ से लोक में न कुछ लाभ हुआ न वृद्धि हुई और तेरी इस मृत्यु से या धन-हानि से लोक में न कुछ घटोतरी आई न कुछ हानि हुई । 'मैं' कहने वाले जितने Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक - ज्ञान ६. उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य व्यक्ति थे अब भी उतने ही रहे। जितनी सम्पत्ति थी अब भी उतनी ही रही। केवल 'मैं' के शरीरों की कुछ आकृतियें या स्थान मात्र बदल गये और इसीप्रकार सम्पत्ति के भी रूप व स्थान मात्र बदले । पहले कलकत्ते के एक ब्राह्मण कुल में था और आज इस मुजफ्फरनगर के एक वैश्य कुल में। पहले कभी पशु के शरीर में था अब मनुष्य के शरीर में, पहले कभी चींटी के रूप में था अब मनुष्य के रूप में और इसी प्रकार सर्व रूपों में, सर्व शरीरों में, बराबर क्रम से परिवर्तन करता, एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता रहता, आज भी अपने अस्तित्व को तेरा यह 'मैं' प्रत्यक्ष प्रकाशित कर रहा है। और इसी प्रकार यह सम्पत्ति भी, पहले विष्टारूप थी और आज अन्नरूप, पहले पृथ्वी रूप थी और आज स्वर्णरूप, पहले पत्थर रूप थी और आज आपकी सुन्दर अंगूठी रूप, पहले किसी के पास थी और अब आपके पास, पहले पशुओं की भोज्य थी और आज आपकी। इसी प्रकार अनेकों रूपों में परिवर्तन करती, एक स्थान से अन्य स्थान पर जा-जाकर भ्रमण करती, आज भी यह किसी न किसी रूप में अपने अस्तित्व को सिद्ध कर रही है । ५५ इसी प्रकार यह शरीर भी तो पहले विष्टारूप था, फिर मिट्टी हो गया, अन्न बन बैठा, किसी के द्वारा भक्षण किये जाने पर उस ही शरीर के अंगोपांग रूप से परिवर्तित हो चमड़ा हड्डी बन गया, जलकर राख हो गया, और राख फिर पृथ्वी बन गई। या उस भोज्य का ही कुछ भाग विष्टा बनकर फिर पीछे मिट्टी बन गया अथवा माता-पिता के द्वारा ग्रहण किया गया वह भोजन किसी अन्य बालक के शरीर रूप बन गया और एक दिन अकस्मात् प्रकट होकर आश्चर्य में डाल दिया उसने सबको । बताइये तो क्या जन्मा क्या मरा? शरीर का पदार्थ भी तो कोई नया उत्पन्न हुआ नहीं और न ही विनशा, रूप से रूपान्तर होता तथा स्थान से स्थानान्तर होता यह वही तो है जो पहले था। न कुछ विनशा न कुछ उपजा । यदि कहीं इतनी योग्यता हुई होती कि इस चेतन के तथा इस शरीर के अंगस्वरूप इन पृथ्वी-जल आदि तत्त्वों के, प्रत्येक क्षण में होने वाले परिवर्तन का बराबर निरीक्षण कर सकता तो यह स्पष्ट प्रतिभास हो जाता कि इस पृथ्वी का एक कण कोंपल में आ गया, और देखो वही अब अन्न में बैठा हुआ है, और देखो अब इस शरीर में बैठा हुआ अपने अस्तित्व बराबर दर्शा रहा है । अथवा यह 'मैं' कहने वाला व्यक्ति जो आज कुत्ते के शरीर में बोलता दीख रहा है, देखो वह उड़ा रहा है आकाश में पूर्व की दिशा को, यह देखो इस फूल में आ बैठा और ओह ! कितना बड़ा रूप धारण कर, ये देखो वही इस वृक्ष में बैठा है अथवा इस माता के गर्भ में प्रवेश पा गया और देखो आज यह तेरे शरीर में बैठा अपने को उसी 'मैं' शब्द के द्वारा पुकारता हुआ अपने लम्बे अस्तित्व का परिचय दे रहा है । तब यह भ्रम न रह पाता मुझे, जो आज है । भले प्रत्यक्ष रूप न सही पर सौभाग्यवश आज भी परोक्षरूप से, तर्क व अनुमान के आधार पर ये सब उपरोक्त बातें प्रत्यक्षवत् हो रही हैं और अपनी सत्यता को सिद्ध कर रही हैं । प्रभो ! तुझे बुद्धि मिली है। विचार व अनुभव के आधार पर किसी छिपे हुए रहस्य का पता लगाने का प्रयत्न कर। यह सर्व तथ्य परोक्ष हों, ऐसा भी नहीं, है। मेरे गुरुवर तथा योगीजनों को इसका प्रत्यक्ष भी हुआ है, जिसके आधार पर कि मुझे सम्बोधन के लिए तथा मेरी भूल दूर हो जाय इस अभिप्राय से परम करुणापूर्वक लिख गये हैं वे, इन शास्त्रों में। और इसीलिये मेरे अनुमान व तर्क की साक्षी देने वाला यह आगम भी उस तथ्य की सत्यता को सिद्ध कर रहा है। उपरोक्त सर्व कथन पर से सिद्धान्त निकला यह कि : १. लोक में दो जाति के पदार्थ हैं। एक चेतन तथा दूसरा अचेतन (जड़) । एक विचारने व सुख-दुःख का वेदन करने की शक्ति रखने वाला और दूसरा इन शक्तियों से रहित । एक अमूर्तिक तथा दूसरा मूर्तीक। एक इन्द्रियों से देखा जाने तथा जाना जाने योग्य और दूसरा इन्द्रियों से अगोचर । चेतन व अमूर्तिक तत्त्व का नाम जीव या (सोल) और दूसरे जड़ व मूर्तीक तत्त्व का नाम पुद्गल यां (मैटर) है । २. दोनों ही सदा से हैं और सदा रहेंगे, न नये पैदा होते हैं और न कभी विनशते या अपनी सत्ता खोते हैं। दोनों ही अपनी-अपनी अवस्थायें अपने-अपने में बराबर बदल रहे हैं अर्थात् उनमें सदा नई अवस्थायें उत्पन्न होती रहती हैं। तथा पुरानी अवस्थायें विनशती रहती हैं। अर्थात् वस्तु उत्पाद-व्यय-धौव्य इन तीनों अंशों का अखण्ड पिण्ड है । वे दोनों ही एक स्थान से अन्य स्थान को प्राप्त होते रहते हैं । अवस्था बदलते रहते भी जीव सदा जीव ही बना रहता और पुद्गल सदा पुद्गल । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. विवेक-ज्ञान ५६ ७. भेद विज्ञान ३. जीव-तत्त्व रूप 'अहं प्रत्यय' के द्वारा सदा सुख-दुःख का वेदन होता रहता है और पुद्गल के द्वारा शरीर का निर्माण । शरीर और शरीरधारी के सम्बन्ध में जकड़े हुए ये दोनों दूध और पानीवत् एकमेक होकर रहते हैं । एकमेक होकर रहते हुए भी जीव कभी पुद्गल और पुद्गल कभी जीव बन नहीं सकता। यह सिद्धांत शान्ति-पथ का प्राण है। बिना इसे जाने शान्ति पा लेना असम्भव है । अत: भो चेतन ! अपनी भूल सुधारने के लिये इस रहस्य को सुन । तर्क, अनुमान, अनुभव व आगम के आधार पर उसका निर्णय कर और अपने क्षण-क्षण की विचारणाओं में उसे अवकाश दे । ऐसा करने से तुझे अपने जीवन के सकल व्यवहार में सर्वत्र एक मात्र वस्तु-स्वभाव देखने का अभ्यास हो जायेगा, जिसके कारण तू अपने या किसी अन्य के कार्यों में एक दूसरे की सहायता न देखकर उन्हें स्वतन्त्र रीति से होता हुआ ही देखेगा, किया जाता हुआ नहीं। ७. भेद विज्ञान-इसी का नाम है स्वपर-पदार्थों की पृथकता, ज्ञान का अचिन्त्य महात्म्य । मिले जुले रहते हुए भी, मिश्रित पदार्थों में ज्ञान से भेद देखा जा सकता है, पृथकता देखी जा सकती है । निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध पड़े रहते हुए भी षट्कारकी स्वतन्त्रता देखी जा सकती है। यदि मिले-जुले में भेद न देखे तो ज्ञानी काहे का? पृथक् पदार्थों को पृथक् तो अन्धा भी कह देगा । उसमें कौन चतुराई है ? जौहरी तो तभी कहला सकता है कि जब खोटे जेवर में स्वर्ण व खोट का सही-सही अनुमान करके, उसी अवस्था में उन दोनों को पृथक् पृथक् देखे और खोट को जानते हुए भी केवल स्वर्ण का मूल्य आँके, खोट का नहीं, यद्यपि उसे पता है कि कुछ न कुछ मूल्य तो खोटका भी है ही। इसी प्रकार निमित्त-नैमित्तिक-रूप से षट्कारको सम्बन्ध रहते हुए भी षटकारकी भेद देखना ही ज्ञान का माहात्म्य है। इन दोनों का प्रत्यक्ष भेद हो जाने पर तो अन्धा भी इनमें कर्ता-कर्म आदि भाव न घटायेगा। उस समय उनमें स्वतन्त्रता देखना कहाँ की चतुराई है ? ज्ञानी तो तभी कहला सकता है कि जब बद्ध-अवस्था में दोनों के कार्य की सीमाओं का पृथक्-पृथक् निर्णय करने, केवल उपादान् अर्थात् स्वपदार्थ का ही मूल्य आँके, निमित्त या पर-पदार्थ का नहीं, यद्यपि उसे पता है कि कुछ न कुछ काम तो निमितत का भी है ही। - तू ज्ञानियों की सन्तान है, अन्धों की नहीं। अत: यही योग्य है कि परतंत्र दृष्टि को छोड़कर स्वतन्त्र दृष्टि को अपना । निमित्त को जानते हुए भी उसका मूल्य न गिन । स्व व पर दोनों को पूर्ण स्वतन्त्र देख, षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र अर्थात् स्वयं अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में ही अपना काम करते हुए देख । 'सुनार ने जेवर बनाया' ऐसा न विचारकर, 'स्वर्ण से जेवर बना' ऐसा विचार । 'मैंने कुटुम्ब पाला या शरीर के अर्थ धन कमाया' ऐसा न विचारकर, 'मैंने केवल विकल्प उत्पन्न करके अपना अहित किया' ऐसा विचार । इसका नाम है दो द्रव्यों की पृथकता, शरीर आदि का मुझसे जुदापना, या स्वपर-भेद विज्ञान । केवल 'शरीर जुदा और मैं जुदा' या 'शरीर मेरा नहीं, कुटुम्बसे मेरा कोई नाता नहीं' इतना कहने से काम न चलेगा। 'मेरा नहीं' का अर्थ, 'षट्कारकी रूप से मेरा नहीं' ऐसा है । अर्थात् न मैं इसका कोई काम कर सकता हूँ और न यह मेरा । न मैं इसके द्वारा कोई काम करा सकता हूँ, न यह मेरे द्वारा । न मैं इसके लिये कोई काम करता हूँ, न यह मेरे लिये । न मैं इसके स्वभाव में जाकर कोई काम करता हूँ न यह मेरे स्वभाव में आकर। अपने-अपने स्वभाव तथा अपनी-अपनी सत्ता से दोनों पृथक् हैं। अपने-अपने प्रदेशों से भी दोनों पृथक् हैं। अपने-अपने काल या अवस्थाओं से भी दोनों पृथक् हैं । अर्थात् पृथक्-पृथक् रह कर अपनी-अपनी अवस्थायें स्वतन्त्र रूप से उत्पन्न कर रहे हैं। अपने भावों के भी स्वयं स्वामी हैं । इस प्रकार है स्वपर-पदार्थों की पृथकता। अजायबघर की वस्तुओं में आपको यह विश्वास है कि ये मेरे द्वारा प्राप्त नहीं की जा सकतीं, इनको प्राप्त करने का मुझको अधिकार नहीं है। और इसी कारण उनको प्राप्त करने का विकल्प आपको नहीं आता, भले ध्यान से उनको देखा करो। परन्तु बाजार की वस्तुओं के प्रति आपको विश्वास है कि उनको ग्रहण करने या बनाने बिगाड़ने का आपको अधिकार है । इसलिये विकल्प उठ जाते हैं, उनको ग्रहण करने के या बनाने बिगाड़ने के। उपर्युक्त स्वतन्त्र दृष्टि में इस बनाने बिगाड़ने सम्बन्धी कर्तापने के विश्वास को ही तुड़ाने का प्रयत्न किया गया है। इसके दूर हो जाने पर अजायबघर की वस्तुओं की भाँति, आप इस विश्व के समस्त पदार्थों को देखोगे ही, बनाने बिगाड़ने आदि के भाव नहीं करोगे । बस यही प्रयोजन है स्व-पर भेद विज्ञान का, या षट्कारकी भेद का । क्योंकि ज्ञाता दृष्टा ही वह साम्यता या शान्ति है जिसकी खोज में कि मैं निकला हूँ। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा १.स्व भज पर तज, २. ज्ञान-कर्म विवेक, ३. सत्य पुरुषार्थ । १. स्व भज पर तज–जीव अजीव तत्त्व-विषयक विवेक-ज्ञान जागृत करने के लिये अनेकों प्रश्न उत्पन्न हुए थे। उनमें से तीन प्रश्नों का क्रमश: उत्तर देकर वस्तु-स्वातन्त्र्य का दिग्दर्शन करा दिया गया। अब चतुर्थ प्रश्न है यह कि किस विधि से इस जगत में विचरण करूँ जिससे कि यह प्रपञ्च मुझे स्पर्श न कर सके, और मैं केवल दृष्टा बना इसका तमाशा देखता रहूँ, मेरी शान्ति अक्षुण्ण बनी रहे, विविध विकल्पों के नीचे दबकर अचेत न हो जाय । उत्तर तो सरल है पर किया जाना कठिन । उत्तर में तो इतना मात्र कह देना पर्याप्त है कि “स्व को भज और पर को तज।” परन्तु इसका तात्पर्य क्या? मैं तो स्वयं 'मैं' हूँ ही, इसका भजना क्या? और पर पदार्थ मुझमें हैं ही नहीं, उनका तजना क्या? घर-बार धन-कुटुम्ब हैं, लो इन्हें छोड़कर वन में चला जाता हूँ। “भैया ! इतना मात्र ही नहीं है, तेरा भण्डार अनन्त है, उस सबको छोड़ने की बात है।" अच्छा लो यह वस्त्र भी उतार देता हूँ। “भैया ! इससे क्या होगा? केवल बाहर का गिलाफ उतरेगा। तेरा भण्डार भरा का भरा ही रह जायेगा।" तब कैसे करूँ ? और कुछ तो यहाँ दीखता नहीं, यह शरीर अवश्य है। लो इसे भी गड़ा माँ के चरणों में समर्पित कर देता हूँ। “परन्तु ऐसा करने से भी क्या होगा? तुरन्त दूसरा मिल जायेगा।" तब क्या करूँ? बडी विचित्र समस्या है। इनके अतिरिक्त और है ही क्या, जिनका कि मैं त्याग करूँ। __ भैया ! तेरी दृष्टि बाह्य जगत में ही घूम रही है इसीलिये तुझे अपना अक्षय भण्डार दिखाई नहीं देता है । देख अपने भीतर उस अभ्यन्तर-जगत की ओर जिसका विवेचन अजीव-तत्त्व के अन्तर्गत किया गया है, और जिसे विवेक-ज्ञान ने पर पदार्थ स्वीकार कर लिया है। यही है तेरा वह अक्षय कोष जिसका त्याग करना है । धन, कुटुम्ब, वस्त्र तथा देह के त्याग की बात नहीं है-मन, बुद्धि, अहंकार आदि के त्याग की बात है। “परन्तु इनका त्याग कैसे करूँ ? क्या शरीर को काटकर इसमें से मन-बुद्धि आदि को निकालकर बाहर फेंक दूं ? परन्तु इससे क्या होगा? तुरन्त दूसरे मिल जायेंगे । इसलिये माँस-पिण्डरूप द्रव्य-मन आदि के त्याग की बात नहीं है, भाव-मन आदि के त्याग की बात है, संकल्प-विकल्पों के तथा उनमें नित्य उदित हो-होकर लीन होने वाले इष्टानिष्टादि विविध द्वन्द्वों के त्याग की बात है, तक-वितकों के त्याग की बात है, इच्छाओं कामनाओं तथा वासनाओं के त्याग की बात है।" । परन्तु इनका त्याग कैसे करूँ? ये तो ज्ञान के साथ एकमेक हुए पड़े हैं। क्या ज्ञान का त्याग कर दूं? ज्ञान का त्याग कर दिया तो फिर रह ही क्या गया? ज्ञान ही तो मेरा स्वरूप है । उसके त्याग का अर्थ है अपना त्याग, अपना नाश। और फिर ऐसा करना सम्भव भी तो नहीं है। क्या अग्नि कभी उष्णता का त्याग कर सकती है? "बात ठीक है भैया ! सक्षम होने के कारण कछ अटपटी सी अवश्य लगती है परन्त वास्तव में ऐसा नहीं है। ले समझाता हूँ। तनिक सूक्ष्म-दृष्टि से समझने का प्रयल कीजियो।” __ जीव-पदार्थ में ज्ञान गुण ही प्रमुख है, अन्य सब उसका विस्तार है। चेतन के सब गुण ही चेतन हैं अर्थात् ज्ञानात्मक व अनुभवात्मक हैं । ज्ञान तो ज्ञान है ही, श्रद्धा भी ज्ञानात्मक है और चारित्र या प्रवृत्ति भी, क्योंकि ज्ञान के संशय-रहित रूप को श्रद्धा कहते हैं और उसी के समताभावी रूप को चारित्र कहते हैं । शान्ति भी ज्ञानात्मक है क्योंकि अनुभव करना ज्ञान का ही नाम है। इसी कारण आत्मा चित्पिड कहा जाता है । या यों कहिये कि ज्ञानमात्र ही 'जीव' है । अत: ज्ञान के कार्यों को ही ज्ञान का विषय बनाना इष्ट है । यह बात न भूलना कि यह सूक्ष्म-दृष्टि पर्याय की क्षणिक सत्ता को लक्ष्य में लेकर चली है, द्रव्य की ध्रव सत्ता को नहीं। यद्यपि ज्ञान का कार्य जानना है, पर उसके साथ कुछ और भाव भी संलग्न हैं। जानना दो प्रकार का होता है—एक केवल जानना और दूसरा कल्पना विशेष के साथ जानना । अजायबघर में रखी वस्तुओं को जानना केवल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा २. ज्ञान कर्म विवेक जानने का उदाहरण है । अथवा राह चलते किसी भी साधारण व्यक्ति को जानना केवल जानने का उदाहरण है और घर में पड़ी वस्तुओं को अथवा अपने पुत्र को जानना कल्पना-सहित जानने का उदाहरण है। अजायबाघर में कोई वस्तु इष्ट-अनिष्ट या तेरी-मेरी नहीं; पर घर की वस्तुओं में कोई इष्ट है कोई अनिष्ट, कोई मेरी है और कोई तेरी । इसी प्रकार में चलता साधारण व्यक्ति मेरे लिये अच्छा है न बरा. शत्र है न मित्र: परन्त अपना पत्र मेरे लिये अच्छा है. मेरा अपना है, मेरी सेवा करने वाला है। अजायबघर की वस्तये न ग्राह्य हैं न त्याज्य, न बनाने योग्य हैं और न बिगाड़ने योग्य; परन्तु घर की वस्तुओं में कोई ग्राह्य है और कोई त्याज्य, कोई बनाने योग्य है और कोई बिगाड़ने योग्य । इसी प्रकार राह चलता व्यक्ति न प्रेम किया जाने योग्य है और न द्वेष किया जाने योग्य, न बाधा पहुँचाया जाने योग्य है और न सहायता किया जाने योग्य; परन्तु अपना पुत्र प्रेम किया जाने योग्य है द्वेष किया जाने योग्य नहीं, सहायता किया जाने योग्य है बाधा पहुँचाये जाने योग्य नहीं । इसी प्रकार अन्यत्र भी जान लेना। यहाँ अजायबघर की वस्तुओं को जानना अथवा राह चलते व्यक्ति को जानना तो कर्तापने या भोक्तापने की कल्पनाओं से अतीत केवल जानना है, और घर की वस्तुओं को जानना अथवा अपने पुत्र को जानना कर्ता-भोक्ता की कल्पनाओं सहित होने के कारण जानने के साथ कछ और भी है। ज्ञान की पहली जाति के कार्य को 'ज्ञानधारा' कहते हैं और दूसरी जाति के कार्य को 'कर्मधारा' कहा गया है। इन पारिभाषिक शब्दों को याद रखना, क्योंकि अगले प्रकरणों में इनका अधिक विस्तार आने वाला है। ज्ञानधारा ज्ञातादृष्ट्रा-भावरूप है और कर्मधारा क्रोधादि विकारों रूप। ज्ञानधारा ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव के साथ तन्मय है अर्थात् उसके बिल्कुल अनुरुप है, इसलिए यह चेतनभाव है । और कर्मधारा पर-पदार्थों के करने धरने के विकल्पों-सहित होने के कारण ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव के साथ तन्मय नहीं है अर्थात् उसके बिल्कुल अनुरूप नहीं है, अत: परभाव है, चेतन-भाव से अन्य है और इसीलिए वह अचेतन या जड़ भाव है। . इन दोनों जाति की क्रियाओं में ज्ञान एक समय एक ही कार्य कर सकता है, क्योंकि उपयोग-विशेष अर्थात् जानना-विशेष ज्ञान की एक क्षणिक अवस्था है। पहले कुछ और जानता है पीछे कुछ और, पहले कुछ और तरह से जानता है पीछे कुछ और तरह से। एक ही क्षण एक ही ज्ञान की दोनों अवस्थायें नहीं हो सकतीं। इसलिये 'ज्ञानधारा' के सद्भाव में 'कर्मधारा' और 'कर्मधारा' के सद्भाव में 'ज्ञानधारा' होनी असम्भव है। अर्थात् क्रोध व रागादि विभाव-भावों के समय ज्ञाता-दृष्टापने की साम्यता और साम्यता के समय क्रोध व रागादि विभाव-भाव होने असम्भव हैं। ___ज्ञानधारा से तन्मय चेतन 'ज्ञाता' कहलाता है और कर्मधारा से तन्मय चेतन 'कर्ता' । इसका कारण भी यही है कि ज्ञान का अपने जानना-स्वभाव के अनुरूप कार्य अथवा पर्याय ही ज्ञान की जाति का कार्य या पर्याय कहा जा सकता है। कर्ता-भोक्तापने की कल्पनायें ज्ञान के पारिणामिक भाव या स्वभाव की जाति की नहीं होने के कारण, उन्हें ज्ञान की जाति का कार्य या पर्याय नहीं कहा जा सकता । ज्ञानभाव से तन्मय ज्ञान का कार्य 'ज्ञान' कहलाता है और कल्पनाओं या विकल्पों में तन्मय ज्ञान का कार्य विकल्प या 'राग' कहलाता है। २. ज्ञान कर्म विवेक-इस प्रकार ज्ञान के रूपों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि वह दो जाति का है—एक तो केवल वस्तु के वर्तमान स्वरूप को अथवा उसके भूतभावी स्वरूप को या त्रिकाली स्वरूप को जानने मात्र रूप और दूसरा उस वस्तु के साथ अपना षट्कारकी नाता उत्पन्न करके उसमें अच्छे बुरे की कल्पना करने रूप । ज्ञान के पहले रूप का नाम ज्ञानधारा है और दूसरे का कर्मधारा । ज्ञानधारा व ज्ञाता-द्रष्टापना एकार्थवाची हैं, और कर्मधारा व कर्ताबुद्धि एकार्थवाची हैं। यह ज्ञान किसी भी पदार्थ के सम्बन्ध में क्यों न हो, दोनों जाति का हो सकता है। ऐसा नहीं है कि निज-आत्मा या भगवान सम्बन्धी ज्ञान ता ज्ञानाधारारूप हो और अन्य पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारा रूप हो । निजस्वरूप व भगवान सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारारूप होना सम्भव है और लौकिक पदार्थों सम्बन्धी ज्ञान ज्ञानधारारूप होना सम्भव है । सो कैसे वही दर्शाता हूँ। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा ३. सत्य पुरुषार्थ ___ “मै हूँ, ज्ञान-स्वभावी हूँ, शान्ति मेरा स्वभाव है, पहले भव में मैं कुत्ते के रूप में था, अगले भव में मैं देव के रूप में हो जाने वाला हूँ", आत्मा सम्बन्धी यह सब विचारणायें ज्ञानधारारूप हैं । अर्थात् जहाँ भूत, वर्तमान व भविष्यत् काल सम्बन्धी अनेकों अवस्थाओं में गुंथे हुए मेरे एक अखण्ड रूप की सत्ता मात्र दिखाई देती है, वहाँ ज्ञानधारा है। क्योंकि यहाँ पर 'था, हूँ और हूँगा' के अतिरिक्त किसी भी अन्य पदार्थ के साथ या अपनी ही किसी अवस्था विशेष के साथ षट्कारकी सम्बन्ध जोड़कर उनमें इष्टता-अनिष्टता उत्पन्न नहीं की गई, केवल होने मात्र की स्वीकारता है । परन्तु "मैं पहले भव में बहुत निकृष्ट दशा में पड़ा था, बहुत दुखी था, अब मैं कुछ धर्म करूँगा या भोग भोगूंगा। देव बन जाऊँ तो बहुत अच्छा लगेगा", इस प्रकार का सर्व-ज्ञान कर्मधारारूप है, क्योंकि यहाँ अन्य पदार्थों तथा अपनी ही किन्हीं विशेष अवस्थाओं के साथ षट्कारकी सम्बन्ध जोड़कर उनमें इष्टता-अनिष्टता की कल्पना की जा रही है । इसी प्रकार “भगवान पूर्ण शान्ति में स्थित हैं, वे तीन लोक को देख रहे हैं, पहले निगोद में रहते थे, आगे सदा आनन्द में मग्न रहेंगे”, भगवान सम्बन्धी ये सब विचारणायें ज्ञानधारारूप हैं। और “भगवान अधमोद्धारक हैं, उनकी पूजा व भक्ति मेरे लिये बड़ी हितकारी है । वे अपने आश्रितों को अपने समान कर लेते हैं", इत्यादि प्रकार का ज्ञान कर्मधारा-रूप है। इसी प्रकार “यह विष्टा नाम का एक पदार्थ है, इसका रंग पीला है, इसमें एक विशेष प्रकार की गन्ध है, उसकी उत्पत्ति इस प्रकार होती है, यह पहले अनरूप थी, अब खेतों में खाद के रूप में डाली जाती है," इत्यादि विष्टा-सम्बन्धी सर्व ज्ञान ज्ञानधारारूप है। परन्तु “यह बहुत घिनावनी है, दुर्गन्धित है, इसे मेरे पास से हटाओ" इत्यादि प्रकार का उसी विष्टा सम्बन्धी ज्ञान कर्मधारारूप है । “यह युद्धस्थल है। यहाँ अनेकों योद्धा परस्पर में लड़कर मृत्यु की गोद में सो जाया करते हैं। यह युद्ध सिकन्दर व पोरस के मध्य हुआ था,” इत्यादि प्रकार सर्व-ज्ञान ज्ञानधारारूप है । परन्तु यह "युद्ध मेरे देश के लिये बड़ा हानिकारक सिद्ध हुआ भविष्य में हमें ऐसे युद्धों के प्रति रोक-थाम करनी चाहिये” इस प्रकार का सर्व ज्ञान कर्मधारारूप है । “आज का दिन बहुत गरम रहा है" यह ज्ञानधारा है और “इससे मुझे बड़ी पीड़ा हुई है, गर्मी कुछ कम हो जाती तो अच्छा होता" यह कर्मधारा है । इसी प्रकार अन्य भी। वास्तव में देखा जाय तो ज्ञानधारा बुद्धि के प्रयास द्वारा विचारणायें उत्पन्न करने रूपं नहीं होती, क्योंकि ऐसा करने से तो वह सब ज्ञान कर्मधारा रूप बन जायेगा। वह केवल सहज प्रतिभास रूप होती है। जैसा-कैसा भी, जिस-किस भी वस्त का प्रतिभास हो जाने पर मन की सर्व विचारणायें शान्त हो जाती हैं तथा वह व्यक्ति कछ उस प्रतिभास के साथ तन्मय सा होकर खोया-खोया सा महसूस करने लगता है । वह दशा कुछ अद्वैत-सी होती है और इसलिये शान्ति रूप है । जितनी देर भी ऐसी स्थिति रहती है मन को थकान नहीं होती बल्कि आनन्द में कुछ झूमता-सा रहता है परन्तु वहाँ से हटकर यदि कर्मधारा में आ जाता है तो बुद्धिपूर्वक का प्रयास प्रारम्भ होने के कारण, तब उसे उन्हीं विचारणाओं में कुछ थकान महसूस होने लगती है। ३. सत्य पुरुषार्थ-इस कथन पर से मानवीय पुरुषार्थ के ही दो रूप दर्शा दिये गये। उनमें से कर्मधारारूप पुरुषार्थ तो सर्व-लोक सदा से करता आ रहा है । शान्ति का उपासक इसे छोड़कर ज्ञानधारा रूप पुरुषार्थ का आश्रय लेता है और जीवन को तदनुरूप ढालने का धीरे-धीरे अभ्यास करता है । लौकिक और अलौकिक पुरुषार्थमें यही अन्तर है। यद्यपि उसका बाह्य जीवन तो एकदम वैसा होने नहीं पाता, परन्तु उसका दार्शनिक जीवन, जिसका आधार कि केवल श्रद्धा है, अवश्य पलटा खाता है, और करने-धरने की या कारण-कार्य-भाव खोजने की टेव विराम पाती है। इस अभ्यास या प्रयत्न का नाम ही मोक्ष मार्ग या शान्तिपथ है । यद्यपि व्यवहारिक जीवन में उसकी कर्मधारा चलती रहती है पर दार्शनिक अन्तरंग जीवन में सर्वत्र ज्ञानधारा व्याप जाती है। जिसके फलस्वरूप वह सदा ही अपने सर्व बाह्य रागात्मक कर्मधारावा रावाले कत्यों के लिये अपने को धिक्कारता हआ बराबर अन्दर ही अन्दर उनसे पीछे हटने का. तथा जानधारा में टिकने का प्रयास करता रहता है। ऐसी मिश्रित दशा उसकी उस समय तक चलती रहती है जब तक कि कर्मधारा का अभ्यास पूर्णत: शमन न हो जाये । यही व्यवहार व निश्चय मार्ग की मैत्री है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह दोनों को उपादेय मानता है । कर्मधारारूप व्यवहार करते हुए भी वह उसे सर्वथा अपराध ही समझता रहता है और ज्ञानधारा को सत्य समझता रहता है। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा ३. सत्य पुरुषार्थ यह बात उस श्रद्धा या अभिप्राय की है जो बाहर में दृष्ट नहीं हो पाती, साधक के अन्दर ही अन्दर चुटकियें लिया करती हैं. जिसे वह स्वयं जान सकता है. दसरा नहीं। अन्य लौकिक प्राणी तो उसे पर्ववत ही कर्मधारा में उलझा हआ देखते हैं. पर वह अन्दर ही अन्दर ज्ञानधारा की ओर झकता जाता है. कर्मधारा के अपने सर्व-विकल व मिथ्या प्रपञ्चरूप अङ्गीकार करता जाता है। फिर भला वह कब अभिप्राय-पूर्वक यह कह सकता है कि अमुक कार्य अमुक ने किया या अमुक कारण से हुआ। किसने किया? स्वभाव ने । निमित्त का क्या स्थान? हुआ करे, पर वह भी स्वाभाविक ही है। उसके देखने का ढंग बदल जाता है । लौकिक जीवों को भले उसकी बात अटपटी लगे पर उसके लिये वह सत्य है, परम सत्य । विश्व की स्वतन्त्र व स्वाभाविक कार्य-व्यवस्था वह प्रत्यक्षवत् देखता है, और इसीलिये विरोध करने वाले साधारण अनभिज्ञ व अज्ञानी जनों के आक्षेपों पर वह केवल मुस्करा देता है। वह जानता है कि सर्व साधारण जन इस रहस्य को समझ न सकेंगे । इसलिये वाद-विवाद करना व्यर्थ समझता है। और केवल वीतराग गुरुओं के आदर्श को ही एक मात्र शरण समझता हुआ निर्भीक अपने मार्ग-पर बढ़ता चला जाता है । ज्ञानधारा को पुष्ट करने वाले चर्चाग्रस्त प्राणी उस चर्चा में उलझे हुए पीछे पड़े रह जाते हैं। उनके प्रति उसे केवल माध्यस्थता ही रहती है, द्वेष या विरोध नहीं; क्योंकि वह जानता है कि ये बेचारे वस्तु स्वरूप की या निमित्त-उपादान की बातें ही करना सीखे हैं, ज्ञानधारा में बैठकर वस्तु-व्यवस्था को देखना नहीं सीखे हैं । इसी कारण निश्चय या स्वभाव की बात कहते तो अवश्य सुने जाते हैं, पर कर्मधारा की पकड़ छोड़ते नहीं देखे जाते । कर्मधारा का कांटा गले में अटका हुआ है; इसीलिये, 'व्यवहार से तो मेरे अहंकार की या कर्तापने की अथवा निमित्त-कारणों की सार्थकता खरी' इस प्रकार की बात सामने आये बिना नहीं रहती। ये लक्षण ही कर्मधारा की ओर उनके अन्तरंग अभिप्राय के या झुकाव के साक्षी हैं । यही कर्मधाराकी अतीव वेदना है जिसमें पडा समस्त जगत तड़प रहा है। क्या किया जाये, यह भी स्वतन्त्र रीति से ही हो रहा है। सर्व जगत तो न कभी समझा है और न कभी समझ सकेगा। समझने वाले ही समझते हैं और वे बिरले ही होते हैं। इसलिये उसे जगत की इस अहंकार पूर्ण बुद्धि पर केवल हंसी आती है और कुछ करुणा भी। साधक के विचार सदा ज्ञानधारा रूप रहते हैं। यदि विचारों में भी यह परिवर्तन न हुआ होता तो साधक काहे का? यदि लौकिक जीवों की भाँति निमित्तों में ही कर्ता या कारणपना देखता रहा या उस ही की बात करता रहा, तो लौकिक जीवों में और उसमें क्या अन्तर रहा ? दोनों का झुकाव ही कर्मधारा की ओर रहा। भले ही बाह्य क्रियाओं में अभी कर्मधारा के दर्शन होते हों, पर साधक के अन्तरंग अभिप्राय में ज्ञानधारा व्याप चुकी है। वह जो भी बात या चर्चा या उपदेश दार्शनिक अथवा सैद्धांतिक दृष्टि से करता है, वह सब ज्ञानधारा की ओर झुककर ही करता है। इसलिये वस्तु की स्वतन्त्र कार्य व्यवस्था के प्रतिपादन में उसके द्वारा निमित्तों के कर्तापने का या उसके अहंकार का कोई स्थान स्वीकार नहीं किया जाता। भले ही कर्मधारा में जाने पर उनका भी कोई स्थान वहाँ दिखाई देता हो, पर ज्ञानधारा में तो सब कार्य स्वत: होते हुए ही दिखाई देते हैं, किसी के द्वारा किये जाते हुए नहीं। इस होनेपने मे निमित्त अपना योग्य स्थान लेते हुए अवश्य दिखाई देते हैं, पर इस कल्पना को कहीं अवकाश मिलने नहीं पाता कि, 'यदि यह न होता तो यह हो जाता।' ज्ञानधारा का ऐसा ही कोई अचिंत्य माहात्म्य है। भले ही इसे एकान्त कहो पर साधक को यही सुन्दर लगता है। यह उसकी आन्तरिक साधना है। इसी साधना के आधार पर, जल में कमलवत् वह संसार में रहता हुआ भी इससे भिन्न रहता है । जिस प्रकार कि पुत्र की मृत्यु के एक महीने पश्चात् ही अपनी कन्या का विवाह करने वाला कोई व्यक्ति, बाहर में सब कुछ रागरंग करता हुआ भी अन्दर में रोने के सिवाए कुछ नहीं कर पाता । वह हंसता बोलता अवश्य है, बाजा आदि भी बजवाता अवश्य है, मिठाई भी बनवाता अवश्य है, हंस-हंसकर अतिथियों का सत्कार भी करता अवश्य है, पर अन्दर से नहीं बाहर से । उसका अन्तष्करण तो यह सब कुछ करता हुआ भी अपने पुत्र के शोक से विह्वल, केवल रो ही रहा है। यह सब कुछ खेल-तमाशा मानो उसका गला घोंट रहा हो, ऐसा उसे प्रतीत होता है । इसी प्रकार शान्ति-पथ का साधक भी व्यापार आदि करता अवश्य है, भोग आदि भी भोगता अवश्य है, पर अन्दर से नहीं केवल बाहर से । अन्दर से तो इन सब कार्यों को करता हुआ वह रोता मात्र है, मानो वह सब कुछ आडम्बर उसके Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा ६१ ३. सत्य पुरुषार्थ आन्तरिक जीवन का गला घोंट रहा हो । लोक को वह अवश्य सब कुछ करता हुआ दिखता है, पर वास्तव में वह स्वयं कुछ भी नहीं कर पाता । इसी को अरुचि पूर्वक करना कहते हैं । यही 'गीता' का अनासक्त योग है। यही जल में कमलवत् भिन्न रहने का अभिप्राय है । घर में रहते हुए भी विरागी इसी का नाम है । लौकिकजन इस स्थिति को साधना का अन्त मानते हैं, पर वास्तव में अध्यात्ममार्ग की साधना यहाँ से प्रारम्भ होती है । यह तो लौकिक दिशा की बात कही । धार्मिक दिशा में भी वह पूजा, उपवास, व्रत, उपदेश आदि सब कुछ करता है, पर अन्दर से नहीं केवल बाहर से । इन कार्यों को वह इसलिये नहीं करता कि यह सब कार्य उसे अच्छे या हितरूप लगते हैं, बल्कि इसलिये करता है कि ऐसा करते हुए उसे क्षण भर के लिये अधिक पुष्ट कर्मधारा से हटकर हीनाधिक रूप से ज्ञानधारा में प्रवेश पाने का अवसर मिल जाता है। वह ही वास्तव में उसके लिये अमृत है, हित है । जिस प्रकार अन्न खा प्राणों की रक्षा होती है और इसलिये अन्न को ही प्राण कह देते हैं; उसी प्रकार इन बाह्य धार्मिक क्रियाओं का आश्रय लेने से उसे उपरोक्त अमृत या हित की प्राप्ति होती है, इसलिये इन धार्मिक क्रियाओं को भी हित कहा जाता है । परन्तु वास्तव में यह सब धार्मिक कार्य करना उसे अन्दर में सदा अखरता रहता है। 'उन कार्यों को करने के सर्व विकल्प कर्मधारा रूप हैं' यह समझता हुआ वह उन विकल्पों को सदा त्याज्य मानकर उनसे पीछे हटने का प्रयत्न करता रहता है। I पर इस का अर्थ यह न समझ जाना कि इन धार्मिक क्रियाओं को सर्वथा अनिष्ट मानकर, वह अन्य लौकिक कार्य तो करे, परन्तु इनको न करे। अभिप्राय ठीक-ठीक समझना। आगे भी 'आस्रव' के प्रकरण में इन धार्मिक क्रियाओं के निषेध का कथन आयेगा, अतः यहाँ ही अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करें अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। ज्ञानधारा में उतरने की अतीव उत्कण्ठा के कारण वह उनको छोड़कर ध्यान निमग्न हो जाना चाहता है, यही उपरोक्त वक्तव्य का प्रयोजन है। उन क्रियाओं को छोड़कर लौकिक कर्मधारा में उलझना जीवन को ऐसे अन्धकूप में गिरा देगा जहाँ से निकलना अनन्त-काल में भी सम्भव न हो सकेगा । देव, गुरु, शास्त्र व उपरोक्त धार्मिक अनुष्ठान उस समय तक अत्यन्त आवश्यक हैं, जब तक कि साक्षात् ज्ञानधारा की उपलब्धि हो नहीं जाती, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि अन्न खाने की उस समय तक अत्यन्त आवश्यकता रहती है जब तक कि इस शरीर के प्रति का किञ्चित् भी राग हृदय में वास करता है । प्रत्येक बात पुनः दोहराई जानी सम्भव नहीं है, अतः इसको यहाँ ही दृढ़तया हृदयंगम कर लेनी योग्य है, नहीं तो आगे के प्रकरणों में उलटा अर्थ ग्रहण हुए बिना न रह सकेगा। और यदि ऐसा हो गया तो प्रभु ही जाने कि क्या होगा । नाथ ! ऐसी कुबुद्धि से सबकी रक्षा हो । करना और बात है और विचारना और । करने और विचारने में महान् अन्तर है । साधक का सर्व ही शुभ व अशुभ क्रियाओं का करना तो कर्मधारारूप होता है पर विचारना ज्ञानधारारूप। उसकी चर्चा का विषय भी ज्ञानधारा की ओर ही झुका रहता है, क्योंकि अन्दर से उसे वही भाती है। बाहर और अन्दर में इस महान् अन्तर को देखने में असमर्थ जगत उसकी चर्चा में आगम-विरोध व एकान्त के दर्शन करता है, पर उसे स्वयं को ऐसा प्रतीत नहीं होता । इसे ही कहते हैं व्यवहार व निश्चय-मार्ग की सन्धि । अन्दर व बाहर की क्रियाओं में यह अन्तर कैसे सम्भव है, इस बात का उत्तर आगे आस्रव प्रकरण में दिया जायेगा । यदि अन्दर व बाहर में यह अन्तर न हो तो केवल एक शुभाशुभ कर्मधारा में ही रहे या केवल एक शुद्ध ज्ञानधारा में ही रहे । परन्तु ये दोनों ही 'मोक्षमार्गी' नहीं कहलाये जा सकते। केवल कर्मधारावाला तो निःसन्देह संसारमार्गी है ही; परन्तु केवल ज्ञानधारा वाला भी मोक्षमार्गी नहीं है। वह या तो स्वयं भगवान है और या स्वछन्दाचारी -ज्ञानवादी- एकान्त दृष्टि है, या तो मोक्ष रूप है और या घोर-संसारी है। जो स्वयं मोक्षरूप हो जाता है वह 'मोक्षमार्गी' नहीं होता । मोक्षमार्गी के अन्दर के अभिप्राय में तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञानधारा का ही वास है, परन्तु बाह्य प्रवृत्ति में दो बातें दिखाई देती हैं- प्रत्यक्ष रूप से तो निषिद्ध-बुद्धिपूर्वक शुभ व अशुभ कर्मधारा और परोक्ष या अदृष्ट रूप से आंशिक ज्ञान व कर्मधारा का मिश्रण । यही मोक्षमार्ग है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक अर्थात् नीचे से ऊपर तक की साधना विषयक श्रेणियों में वह उत्तरोत्तर ज्ञानधारा की ओर झुकता चला जाता है, यहाँ तक कि उसके अन्त में जाकर पूर्ण ज्ञानधारा में निश्चल स्थिति पा जाता है । इस रहस्य को समझे बिना अध्यात्म-चर्चा लाभ की बजाए हानि पहुँचाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में वह वादविवाद रूप विजिगीषु कथा बन जाती है, वीतराग-कथा रहने नहीं पाती । O Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ( १. कार्य शब्द; २. पंच समवाय; ३. स्वभाव; ४. निमित्त; ५. निमित्तोपादन मैत्री; ६. पुरुषार्थ । अहो दृष्टि की व्यपाकता ! जिसके प्रकट हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था का स्वातन्त्र्य हस्तामलकवत् स्पष्ट दीखने लगता है । जिसके प्रकट हो जाने पर कर्ताबुद्धि स्वत: किनारा कर जाती है और एक ज्ञायक-मात्र-भाव, साक्षी रहने मात्र का भाव जागृत हो जाता है, साम्यता अवतार लेती है और जीवन शान्त हो जाता है । सुन प्रभो सुन ! आज स्वातन्त्र्य की जय घोषणा हो रही है, विश्व का कण-कण आज हर्ष के हिंडोले में झूल रहा है। क्यों न खुशी मनाये आज वह ? जीव अजीव तत्त्व विषयक विवेक-ज्ञान के अन्तर्गत उठने वाले विविध प्रश्नों में से चार प्रश्नों प प्रश्नों पर विचार किया जा चुका । अब चलता है पाँचवा प्रश्न, “ये दोनों तत्त्व किस प्रकार परस्पर में मिलकर बाह्याभ्यन्तर प्रपञ्चरूप इस विश्व की तर्कातीत कार्य-व्यवस्था का संचालन कर रहे हैं?” विषय कुछ कठिन तथा जटिल है । परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं। यथासम्भव सरल बनाने का प्रयत्न करूँगा। इस विषय की जटिलता को देखकर ग्रन्थ को छोड़ न देना। आगे पुन: सरल तथा रोचक हो जायेगा। १. 'कार्य' शब्द-अपने जीवन की अशान्ति का मल खोजने जाऊँ तो प्रत्यक्ष ही है। २४ घन्टे की यह करने-धरने की, बनाने-बिगाड़ने की, मिलाने-हटाने की दौड़धूप ही तो जीवन की वह अशान्ति है जिसे दूर करना इष्ट है। अर्थात मैं हर समय कछ न कछ काम करना चाहता हूँ, और कर रहा है, इस बात से बिल्कल बेखबर कि मैं क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहता हूँ। इस तथ्य की खोज निकालने के लिये पहले मुझे यह निर्णय करना है कि काम, जिसके पीछे में हर समय लगा रहता हूँ, वह वास्तव में है क्या बला।। आइये विचार करें । देखो मैं कह रहा हूँ “मुझे आज देहली जाना है।" विचारिये कि क्या करना है । सहारनपुर से उठकर देहली जाने का या अपना स्थान-परिवर्तन कर देने का नाम ही तो देहली जाना है या कुछ और ? अर्थात् देहली जाने का काम अपना स्थान परिवर्तन कर लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। "पुस्तक उठाकर लाओ", यह दूसरा वाक्य है । इसमें भी छिपा है एक काम । विचारिये, पुस्तक उठाकर लाना, उसके स्थान परिवर्तन के अतिरिक्त और क्या? एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर पहँचा देना ही तो पस्तक उठाकर लाना है या कछ और ? “मेरे लिये एक मेज बना दो" यह तीसरा वाक्य है । विचार करें तो लकड़ी की हालत बदलकर अन्य हालत-विशेष में लाना ही तो मेज बनाना है या कुछ और? अर्थात लकड़ी का रूप-परिवर्तन करना ही वास्तव में मेज बनाने का काम है। औ इसी प्रकार कोई भी लोक का काम करने का विचार कीजिये, वह इन दोनों कोटियों में से किसी न किसी प्रकारका हेगा। या तो होगा अपना व किसी अन्य का स्थान परिवर्तन करने रूप और या होगा अपना या किसी अन्य का रूप-परिवर्तन करने रूप। बस सिद्धान्त निकल आया, इसे याद रखना, आगे के प्रकरणों में इसे लागू करना होगा। “काम कहते हैं स्व तथा पर किसी भी पदार्थ के स्थान परिवर्तन को या रूप-परिवर्तन को।" २. पंच समवाय अब देखना है कि वस्तु में यह कार्य करने किये जाने की व्यवस्था किस प्रकार हो रही है अर्थात् काम कौन करता है, किसके द्वारा करता है, किसके लिये करता है, किसमें-से करता है और किस के सहारे करता है । जब तक स्पष्ट रूप से यह बात जान न लूँगा, मेरी पूर्व की धारणाओं में अन्तर पड़ना असम्भव है, जिसके बिना इस करने धरने की व्यग्रता से छुटकारा मिलना असम्भव है। अत: शान्ति के उपासक के लिये वस्तु की कर्ता-कर्म या कार्य-कारण व्यवस्था का परिचय पाना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि विषय कुछ सैद्धान्तिक रूप धारण करके अवतरित हुआ है, जो मेरी शैली के विरुद्ध है, पर क्या करूँ इसके बिना काम चलेगा नहीं । अपनी पुरानी धारणाओं को तोड़ने के लिये मुझे वस्तु-व्यवस्था पढ़नी ही होगी। विषय सम्भवत: कुछ कठिन लगे परन्तु ध्यान दोगे तो कुछ कठिन न पड़ेगा, क्योंकि हर बात अनुभव में आ रही है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ६३ २. पंच समवाय आवश्यकता केवल इस बात की है कि यदि धारणाओं में पहले का कोई पक्ष पड़ा है तो थोड़ी देर के लिये उसे छोड दीजिये। अभिप्राय में खेंचतान न रखिये। क्योंकि वस्त-व्यवस्था बडी जटिल व उलझी हई है। यद्यपि एक ही बार सब कुछ देखने में तो खेंचतान का काम नहीं है परन्तु शब्दों में उसे एक ही बार दर्शाने की शक्ति न होने के कारण क्रम से ही व्याख्या की जानी सम्भव है। अत: कथन-क्रम में कभी तो ऐसी बात आयेगी जो कि आपमें से कुछ व्यक्ति पहले से ही स्वीकार करते हैं और शेष व्यक्ति नहीं और कुछ बात ऐसी आयेगी जो कि वे शेष व्यक्ति तो स्वीकार करते हैं पर पहले वाले कुछ नहीं। इसका कारण यही है कि हमने कुछ व्यक्ति-विशेषों से सुनकर या किन्हीं शास्त्र विशेषों से पढ़कर वे बातें अवधारित कर ली हैं, परन्तु उनके अतिरिक्त शेष बातों का या तो निषेध सुनने में आया है या वे सुनने पढ़ने को ही मिली नहीं हैं। इसलिये उन-उन बातों का कुछ पक्ष पड़ा हुआ है। वह सम्भवत: अब भी आपको वस्तु-व्यवस्था समझने में बाधक पड़े। अपने अनुकूल बात सुनकर स्वभावत: ही कुछ प्रसन्नता तथा प्रतिकूल बात सुनकर कुछ खिंचाव सा चित्त में उत्पन्न हुआ करता है, जिसमें से अनेकों शंकायें व प्रश्न खेंचतान का रूप धारण करके निकल पड़ते हैं। क्योंकि व्यवस्था जटिल है और एक दिन में ही बताई नहीं जा सकती, इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी शंकाओं को तब तक के लिये दबा रखें जब तक कि प्रकरण पूरा न हो जाये । विश्वास दिलाता हूँ कि प्रकरण पूरा हो जाने के पश्चात् आपके हृदय में कोई शंका नहीं रह पायेगी और फिर भी यदि रह गई तो अन्त में प्रश्न कर लेना, अभी नहीं। धीरे-धीरे आपकी सर्व शंकाओं का समाधान हो जायेगा। दूसरी आवश्यकता इस बात की है कि शब्दों म की पकड़ को छोड़कर वस्तु में कुछ पढ़ने का प्रयत्न करें। जो बातें उसमें नित्य अनुभव में आये या दिखाई दें उन सबको सरलता पर्वक स्वीकार करें और एक का भी निषेध करने का प्रयत्न न करें. क्योंकि इस प्रकार आपके ज्ञान में वस्तु का तदनुरूप प्रतिबिम्ब न पड़ने पायेगा; वह लंगड़ा हो जायेगा। इसलिये वह ज्ञान बजाय साधन होने के आपके मार्ग का बाधक बन बैठेगा और हानि आपको होगी मुझे नहीं, क्योंकि मेरी धारणा तो जैसी है वैसी ही रहेगी। अपने हित-अहित को सोचकर अब ज्ञान को ढीला करके सुनिये। पदार्थ के स्वभाव अर्थात् पारिणामिक भाव को लक्ष्य में लेकर पदार्थ का विचार करने पर ही यह रहस्य समझा जा सकता है, उसकी शुद्ध व अशुद्ध व्यञ्जन पर्यायों को लक्ष्य में लेने से नहीं। अत: सूक्ष्म अध्यात्म का परिचय पाने के लिये अन्तर में स्थिर दृष्टि करने की आवश्यकता है। चञ्चल दृष्टि में उसका प्रवेश नहीं। क्योंकि प्रसंग आने पर वह दृष्टि अपने लक्ष्य से बहक जाती है । 'ज्ञान से तन्मय होने के कारण आत्मा का काम जानने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है' इस बात को स्वीकार कर लेने पर भी, 'घट बनाना कुम्हार का काम नहीं' जब ऐसा समझाने का अवसर आता है, तो तुरन्त वह दृष्टि अपने पूर्व के लक्ष्य पर से बहककर इस चिन्ता में पड़ जाती है कि कुम्हार के बनाये बिना घट बना कैसे? अर्जुन को लक्ष्य साधते समय जिस प्रकार कौवे की आँख के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता था, भले ही वहाँ वृक्षादि अनेकों पदार्थ पड़े हों, इसी प्रकार पदार्थ का लक्ष्य साधते हुए तुम्हें भी उसके पारिणामिक भाव या स्वभाव के अतिरक्ति कुछ अन्य दिखाई नहीं देना चाहिये, भले ही वहाँ निमित्त-नैमित्तिक अनेकों संयोग पड़े हों। ऐसे स्थिर लक्ष्य में निमित्त-नैमित्तिक भाव भी अभेद व अखण्ड वस्तु के अपने अन्दर ही देखा जाता है, जैसा कि ग्रन्थाधिराज समयसार की १०० वीं गाथा की टीका करते समय भगवत्-अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि “ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी घट बना नहीं सकता। उपादान-रूप से तो नहीं पर निमित्तरूप से भी नहीं बना सकता। अज्ञानी भी निमित्त रूप से यदि कुछ कर सकता है तो केवल घट बनाने का विकल्प ही कर सकता है, इसके आगे कुछ नहीं।" अत: इस सूक्ष्म दृष्टि को समझने के लिये अब लक्ष्य को स्थिर कीजिये।। वस्तु की कार्य-व्यवस्था में हम पाँच बातें देखते हैं । १. वस्तु का स्वभाव, २. किसी न किसी अन्य बात का संयोग या निमित्त, ३. वस्तु का पुरुषार्थ, ४. काल या समय का नियतिपना या काल लब्धि, ५. भवितव्य । इन पाँचों का क्रम से विश्लेषण किया जाना है, ध्यान से सुनना और ज्ञान में सबको एकत्रित करते रहना, क्योंकि कार्य व्यवस्था में Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ६४ ४. निमित्त पाँचों ही बातें समान रूप से आवश्यक हैं। या यह कहिये कि ये पाँचों ही वस्तु-व्यवस्था के आवश्यक अंग हैं। एक अंग के होने पर पाँचों अंग होते ही हैं और एक के न होने पर पाँचों ही नहीं होते । इन पाँचों में आगे-पीछे होने का भी कोई क्रम नहीं है, परन्तु कथन-क्रम में अवश्य आगे-पीछे कहे जाने का भेद है। वस्तु-व्यवस्था तथा कथन-क्रम में अन्तर है। अत: किसी एक समय में जो कथन किया जाता है उसे वस्तु-व्यवस्था का पूर्ण रूप न समझ बैठना, केवल एक अंग मात्र ही समझना। हाँ ज्ञान में सर्व अंगों को घुटमिट करके जो दिखाई दे वह वस्तु की पूर्ण व्यवस्था अवश्य है । ज्ञान में पूर्ण व्यवस्था देखने की शक्ति है पर वचन में कहने की नहीं। इसीलिये अनेकान्तवाद तथा स्याद्वादने जन्म धारा है। अब सुनिये पाँचों अंगों का क्रम से विवेचन । ३. स्वभाव—पहले सिद्ध कर आये हैं कि वस्तु परिवर्तनशील है । (देखो ९.६) अर्थात् प्रतिक्षण वह एक रूप को छोड़कर अन्य रूप को तथा एक स्थान को छोड़कर अन्य स्थान को प्राप्त कर रही है। रूपों व स्थानों में नित्य परिवर्तन करते रहना वस्तु का स्वभाव है, और स्वभाव अहेतुक होता है, उसमें तर्क नहीं चलता। ऐसा परिवर्तन वस्तु में नित्य दिखाई दे रहा है। यदि किसी भी एक पदार्थ में किसी भी एक क्षण यह परिवर्तन रुका हुआ दिखाई दिया होता तो उसे हम स्वभाव कभी न कहते, क्योंकि स्वभाव में कभी ऐसी बाधा नहीं पड़ा करती कि कभी तो दिखाई दे जाए और कभी नहीं। यदि वस्तु में स्वयं ऐसा परिवर्तन करने का स्वभाव न हुआ होता तो लोक की कोई भी शक्ति उसे परिवर्तन कराने में समर्थ न हुई होती। जलने योग्य पदार्थ को ही जलाया जा सकता है, अबरक को नहीं। यदि परिवर्तन करना वस्तु का स्वभाव न हुआ होता तो लोक में कोई भी कार्य देखने में न आता, लोक कूटस्थ हो जाता। विश्व में दीखने वाली यह भाग दौड़ कैसे दृष्टि में आती? और यह तो स्पष्ट देखने में आ रही है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष दीखने वाले को अस्वीकार करना पक्षपात् है । अत: निश्चित् हुआ कि वस्तु में कार्य अर्थात् परिवर्तन, उस वस्तु के अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण हो रहा है, यह कार्य-व्यवस्था का एक अंग हुआ। ४. निमित्त स्वभाव से केवल परिवर्तन हो सकता है विशेष कार्य नहीं । कार्य किसी भी योग्य अन्य वस्तु का संयोग प्राप्त करके ही होता है । संयोग-विहीन कोई भी कार्य आज विश्व में दिखाई नहीं देता । यह पुस्तक मेरे हाथ के बिना उठ नहीं रही है । इस लकड़ी का यह चौकी वाला रूप भी बिना खाती के बन नहीं पाया है । एक अणु भी दूसरे अणुओं से आकर्षित हुए बिना गतिमान होता दिखाई नहीं देता। यह खम्बा भी बिना हवा-पानी या गर्मी-सर्दी का संयोग मिले जीर्ण नहीं हो रहा है। यदि यथायोग्य संयोग न हो तो कार्य होना असम्भव है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है, अत: सरलता-पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिये । देखते हुए भी मात्र भ्रम कहकर इसे टाल देना और स्वीकार न करना पक्षपात् है, ज्ञान की खेंच है । ज्ञान को ढीला करके देखें तो न स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। यहाँ भले किसी भी पक्षवश स्वीकार न करें पर जीवन प्रवाह के २४ घन्टों में भी इनकी स्वीकृति न हो, तब मानें। अरे अरे ! मुखपर यह उदासी सी क्यों दीखने लगी? निराशा की रेखायें क्यों खिंचने लगी? सम्भल प्रभु सम्भल ! पहले ही सावधान कर दिया था और अब फिर कर रहा हूँ। अन्तरंग की इस खेंचतान को छोड़, तेरे हृदय में उठने वाली इस शंका का मुझे भान है । 'वस्तु -स्वतन्त्रता के प्रकरण में यह परतन्त्रता कैसी?" यही है तेरा प्रश्न या कुछ और? घबरा नहीं, कथन-क्रम में यथा स्थान उत्तर आ जायेगा और विषय स्पष्ट कर दिया जायेगा। यहाँ वस्तु को परतन्त्र बनाने का अभिप्राय नहीं है, “संयोग होते दिखाई देते हैं या नहीं" बस इतनी बात है । संयोग हुए बिना क्या कोई कार्य होता दिखाई देता है? यदि नहीं तो क्यों स्वीकार नहीं कर लेता? बस इतनी ही बात स्वीकार करने को कह रहा हूँ कि संयोग होता है संयोग जबरदस्ती करता या कराता है। यह सिद्ध नहीं किया जा रहा है, और न ही ऐसा अभिप्राय है । जितनी बात कही जाये उतनी ही बात ग्रहण करें, बिना कहे अपनी ओर से उसमें कुछ अन्य बात मिलाने का प्रयत्न न करें । संयोग प्राप्त होने पर कार्य कैसे होता है और कौन करता है, यह बात आगे कही जायेगा। अत: कार्य-व्यवस्था में संयोग या निमित्त का होना भी एक अंग अवश्य है जिसके बिना कार्य होना असम्भव है। निमित्त केवल उपस्थित मात्र हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि वस्तु में कार्य या परिवर्तन होने के समय उपस्थित तो अनेक पदार्थ हुआ करते हैं, पर वे सब निमित्त नहीं हुआ करते । निमित्त तो उन सब उपस्थित-पदार्थों में से हम उसी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ५. निमित्तोपादन मैत्री पदार्थ विशेष को कह सकते हैं, जो स्वयं भी उस परिवर्तन के अनुरूप ही कुछ कार्य कर रहा हो और उसके अनुरूप या उसके साथ परिवर्तन करने की शक्ति-विशेष को ले करके वहाँ आया हो? देखो, इस पुस्तक के उठते समय यहाँ मेरे हाथ के अतिरिक्त यह चौकी व वेष्टन भी उपस्थित अवश्य हैं पर इन तीनों में से इससमय इस पुस्तक के उठने में निमित्त मेरा हाथ ही है, ये दोनों नहीं । इसलिये केवल उपस्थित मात्र कहकर स्वीकार करना न करने के बराबर है। इसलिए शब्दों की खेंचतान को छोड़कर व्यवहार में नित्य कहे जाने वाले निमित्त के कर्तापने के वाक्यों पर हँसने की बजाय, उनको यथा योग्य स्वीकार कर लेना ही तेरे ज्ञान की सरलता का द्योतक होगा। यहाँ पुन: कह देना आवश्यक है कि ऐसी स्वीकृति से वस्तु परतन्त्र नहीं बनेगी, ऐसा विश्वास रख, जैसा कि अगले प्रकरणों में सिद्ध कर दिया जायेगा। यह ध्यान रख कि यहाँ संयोग की दृष्टि से बात हो रही है, स्वभाव या अन्य अंगों की दृष्टि से नहीं। जब उनका नम्बर आयेगा तब वैसी ही बात होगी। किसी एक बात की सिद्धि के लिये उसमें दूसरी बात को बीच में लाने से एक भी बात समझ में न आ सकेगी। ५. निमित्तोपादन मैत्री-दृष्टान्त पर से समझिये मेरे अभिप्राय को, अन्न बोना अर्थात् खेती करना एक काम है। मेरे आ र बीजने स्वयं बदलकर अन्न बोने का काम किया. अपने द्वारा बदलकर किया. अपने लिये किया, अर्थात् उस नवजात अन्न के साथ तन्मय होकर किया, अपने से किया अर्थात् अपने स्वभाव में रहते हुए किया, किसान बनकर नहीं। कुछ हँसी-सी आयेगी यह बात सुनकर आज तक ऐसी बात सुनी नहीं। परन्तु नहीं भाई ! विचार करके देख, इसकी सत्यता प्रकाशित हो जायेगा । यद्यपि लोक में साधारणत: तू किसी भी काम को न इस प्रकार करता हुआ देखता है, न इस भाषा में कहा जाते हुए सुनता है, और न इस प्रकार स्वयं कभी कहता है, परन्तु वास्तव में है ऐसा ही । देखो दृष्टांत देता हूँ। उपरोक्त खेती का ही दृष्टांत लीजिये। यद्यपि लोक में यह प्रसिद्ध है और किसान भी यही कहता है कि “मैंने खेती बोई," परन्तु विचार कीजिये कि यदि बैल इस बात को सुन पावे तो बेचारे के हृदयपर क्या बीते ? "खून पसीना एक कर डाला पर तनिक भी तो श्रेय न दिया। अहंकार में अन्ध हो गया है यह किसान, किसी दूसरे की मेहनत को मेहनत ही नहीं समझता" और इस प्रकार विचारता हआ वह बैल रूठ जाये तो क्या हो? किसान का सारा अहंकार पानी बनकर बह जाये, और सुलह करनी पड़े आखिर उस बैल से । अच्छा भाई ! बिगड़ मत, क्षमा कर, गलती हुई, सारे काम में आधा साझा तेरा स्वीकार किया। चल उठ अब्र, और इसी प्रकार हल से, कुएँ से, रहट से, पानी से, मिट्टी से और बीज से सुलह करते-करते उसे पता चल जाये कि खेती बोने में तूने कितना काम किया है। केवल सातवाँ हिस्सा । परन्तु किसान तो चेतन पदार्थ है। शरीर और वह पृथक्-पृथक् हैं । अत: शरीर की माँग भी रुक न सकी। किसान को स्वीकार करना ही पड़ा कि हाँ भाई ! तेरा भी हिस्सा सही। हम सब आठों ने मिलकर ही की है खेती, इसलिये सबने आठवाँ-आठवाँ हिस्सा काम किया है. मझे स्वीकार है। परन्त बीज बेचारा कैसे संतष्ट हो । उसके काम में और शेष सात के कामों में तो महान अन्तर है। शेष सबने तो कुछ-कुछ काम ही किया है, परन्तु रहे अपने रूप में ही। उन्हें स्वयं अपना रूप तो न बदलना पड़ा। पर उस बेचारे ने तो अपना सर्वस्व ही अर्पण कर दिया, अन्न उगाने के लिये, यहाँ तक कि आज उसका पता भी नहीं कि कहाँ है वंह? इस प्रकार स्वयं सारे अन्न के साथ घुल-मिल ही गया है, अथवा स्वयं ही वह रूप धारण कर लिया है। आठवें हिस्से में कैसे सन्तोष पावे ? स्वीकार करना पड़ेगा कि तेरे काम की जाति ही भिन्न प्रकार की है। घोड़े और गधों का क्या मेल? तेरे काम का मुकाबला हम सातों मिलकर भी नहीं कर सकते । अर्थात् कुछ बाह्य मात्र सहायता सम्बन्धी कार्य का सातवाँ हिस्सा हम सब ने किया, परन्तु अन्न उगाने का काम तो वास्वत में तेरा ही है। साझे की खेती का मिला-जुला काम किसी एक का नहीं है, सबका है। इसलिये इस एक मिले-जुले काम का विश्लेषण करना चाहिये । तभी पता चल सकेगा कि आठों में से प्रत्येक ने कौन-कौन काम किया है। विचारने से पता चल सकता है कि अन्तः प्रकाशरूप चैतन्य किसान का काम केवल “मैं अन्न उत्पन्न करूँ" इस विकल्प के अतिरिक्त और कुछ नहीं । वह बेचारा अमूर्तीक और कर भी क्या सकता है, जानने देखने व विकल्प उत्पन्न करने के अतिरिक्त ? Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ६. पुरुषार्थ शरीर का काम है कुछ विशेष प्रकार से हिलना-डुलना और इसी प्रकार बैल आदि सर्व पदार्थों के पृथक्-पृथक् कार्य की भी कोई सीमा है, जिसको उसने ही किया है और वह ही कर सकता है। न अन्य ने किया है और न अन्य कर सकता है। यद्यपि यह बात सर्वथा मिथ्या भी नहीं है कि आठों के ही कार्यों में परस्पर कोई निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, अर्थात् किसान के निमित्त से शरीर और शरीर की प्रेरणा से बैल, बैल के निमित्त से हल व रहट और इसी प्रकार अन्य भी अपना-अपना कार्य कर सके हैं। यदि ये न होते तो कर न सकते । परन्तु यह दृष्टि तो लौकिक है, विकल्पोत्पादक है। इसके त्यागने के लिये ही तो सब पुरुषार्थ है। अत: है भव्य ! इस दृष्टि द्वारा परम कल्याणकारी उस अलौकिक दृष्टि का घात करने का प्रयत्न मत कर । इस दृष्टि को ही ऊपर परतन्त्र शब्द से कहा गया है और उस अलौकिक दृष्टि को स्वतन्त्र शब्द से। दोनों ही दृष्टियें अपने-अपने स्थान पर सत्य हैं । पर मुझे तो जिस-किस प्रकार भी शान्ति का प्रयोजन सिद्ध करना है। जिस भी दृष्टि से सिद्ध होता जानूं उसे ही अपना कर्त्तव्य मानूं दूसरी को नहीं । जानना और बात है, मानना और । यद्यपि एक वीतरागी को भी जानता हूँ और एक चाण्डाल को भी परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों मेरे उपास्य हैं । उपास्य तो वीतरागी ही है चाण्डाल नहीं । उपास्य न कहने से चाण्डाल का अभाव नहीं हो जायेगा। इसी प्रकार परतन्त्र-दृष्टि को तो पहले से ही जानता था, अब स्वतन्त्र दृष्टि भी जान गया । जानता दोनों को हूँ पर इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों दृष्टि ही लक्ष्य में रखनी या आश्रय करनी योग्य हैं । शान्ति-पथ में केवल एक स्वतन्त्र दृष्टि ही लक्ष्य में रहती है, परतन्त्र-दृष्टि नहीं । लक्ष्य में न रहने मात्र से दूसरी दृष्टि के आधार पर निमित्त की निमित्तता का लोप नहीं हो जाता। ___यदि दूसरी दृष्टि पर ही लक्ष्य रखना है तो निम्न प्रकार क्यों नहीं रखता कि जिससे तेरी दृष्टि में भी बाधा न पड़े और विकल्प भी हट जावें । विशाल-दृष्टि करके सम्पूर्ण विश्व को युगपत् अनुमान में ले, तो एक बहुत बड़े कारखाने के रूप में दिखाई देता है जिसमें स्व तथा पर सर्व पदार्थ बड़ी व छोटी गरारियों वत् परस्पर सम्पर्क में रहते बराबर बदल रहे हैं. और कारखाना काम कर रहा है। यदि कोई एक छोटी सी गरारी भी निकाल ली जाए मशीन बन्द हो जाए, या जबरदस्ती कोई नई गरारी ठोक दी जाय तो भी सारी मशीन बन्द हो जाए। पर क्या ऐसा होना सम्भव है ? क्या ऐसा आज तक कभी हुआ है ? सब द्रव्य परस्पर निमित्त-नैमित्तिक रूप से बराबर काम कर रहे हैं। निमित्त को हटाने वाला या मिलाने वाला तू कौन है? तुझे यह अधिकार किसने दिया? तुझमें इतनी शक्ति है भी या नहीं? समस्त विश्व की अद्वैत क्रिया को दृष्टि में रखकर इन प्रश्नों का उत्तर खोजें तो इस दिशा में अपनी असमर्थता का भान हुए बिना न रहे । निमित्त मिलाने व हटाने के सर्व विकल्प दूर हो जायें, विशाल-दृष्टि उत्पन्न हो जाए, ज्ञाता दृष्टा मात्र रह जाए । यही तो इष्ट है। आज के तेरे विकल्पों का मूल कूपमण्डूक बने हुए परतन्त्र-दृष्टि का रखना है, और इसी कारण अन्य के कर्तापने का अहंकार होता है। अतः परतन्त्र-दृष्टि को संकुचित करने का निषेध किया जा रहा है, सर्वथा निषेध नहीं। यदि विशाल दृष्टि से नहीं देख सकता, तो इस परतन्त्र दृष्टि पर के लक्ष्य को सर्वथा मिटाने का प्रयत्न कर । भ्रम न कर, शंका न कर, दृष्टि मिटाने से पदार्थ न मिटेगा। तुझे अपना कल्याण करना है, निमित्त की रक्षा नहीं। आम खाने हैं पेड़ नहीं गिनने हैं। दोनों दृष्टियों में से स्वतन्त्र दृष्टि ही इस मार्ग में अत्यन्त उपादेय व हितकर है और साधारण रूप से परतन्त्र दृष्टि महान अनिष्ट, जैसाकि आगे-आगे के प्रकरणों में सिद्ध हो जायेगा। ६. पुरुषार्थ-कार्य-व्यवस्था का तीसरा अंग है 'पुरुषार्थ' । उनके बिना भी लोक का कोई कार्य होता देखा नहीं जाता । यहाँ पुरुषार्थ शब्द का वह अर्थ न समझना जो कि लोक में प्रयोग किया जाता है। लोक में तो केवल मनुष्य के या अधिक बढ़े तो चेतन पदार्थ के पुरुषार्थ को ही पुरुषार्थ कहा जाता है । जड़-तत्त्व में साधारण-जनों को कोई पुरुषार्थ होता दिखाई नहीं देता। 'पुरुषार्थ' यह शब्द भी, पुरुष या जीव तत्त्व का इच्छापूर्वक होने वाला जो प्रयत्न या प्रवृत्ति है, उसके प्रति संकेत करता है। यही कारण है कि अहंकार को धारण करने वाला लोक जड़-पदार्थों को बिल्कुल नि:शक्त की माग Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ६७ ६. पुरुषार्थ तथा अपने आधीन मान बैठा है । अध्यात्म में किसी भी शब्द का इतना संकुचित अर्थ ग्रहण नहीं किया जाता । यहाँ पुरुषार्थ शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है। प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई पुरुषार्थ प्रति-समय पाया जाता है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ, जड़ हो कि चेतन, छोटा हो कि बड़ा, अपनी एक अवस्था-विशेष को तजकर दूसरी अवस्था-विशेष को धारण करने के प्रति या एक स्थान को तजकर अन्य स्थान को प्राप्त करने के प्रति बराबर झुकने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे अग्नि पर रख देने से जल का धीरे-धीरे ऊष्णता की ओर झुकना, अथवा भाप को किसी बर्तन में रोक देने पर उसका वहाँ से निकलने के प्रति उद्यम करना। यह बात अवश्य है कि आपके पुरुषार्थ की जाति किसी अन्य प्रकार की है और जड़ के पुरुषार्थ की जाति अन्य प्रकार की । जो काम लाखों व्यक्ति मिलकर नहीं कर सकते वह एक अणु कर सकता है। आप चेतन पदार्थ हैं, विचारशील हैं, अत: आपके पुरुषार्थ की जाति भी विचारणाओं रुप हैं । परमाणु जड़ है, अत: उसके पुरुषार्थ की जाति भी जड़ात्मक है। आपका विकल्प करने रूप पुरुषार्थ इन्द्रियगोचर नहीं है, पर उसका गमनागमनरूप कार्य के प्रति का अथवा अग्नि आदि लगाने रूप कार्य के प्रति का या अन्य किसी कार्य के प्रति का झुकाव, साक्षात् अथवा यन्त्र-विशेषों की सहायता से इन्द्रियगोचर है। अत: सिद्धान्त यह निकला कि प्रत्येक पदार्थ में पुरुषार्थ होता है, भले वह जड़ हो या चेतन । अन्तर केवल इतना है कि जड़ का पुरुषार्थ जड़ात्मक है और चेतन का पुरुषार्थ चेतनात्मक । जड़ात्मक होने के कारण उस जड़-पदार्थ में पुरुषार्थ का अभाव नहीं कह सकते । यदि कोई पदार्थ स्वयं अपने अन्दर अपने द्वारा अपने लिये नवीन अवस्था को उत्पन्न करने के प्रति न झुके तो पुरानी अवस्था विनश जाने पर वह पदार्थ अवस्था-विहीन हो जाए, और ऐसा हो जाए तो इस विश्व में कुछ भी दिखाई न दे, सर्व-शून्य हो जाए। पुरुषार्थ का यह आध्यात्मिक व्यापक रूप यदि 'पुरुषार्थ' शब्दों में आपको दिखाई न दे सके तो भले ही इस शब्द को बदलकर 'परिणति' ऐसा शब्द कह लीजिये परन्तु 'पुरुषार्थ' शब्द का इस स्थल पर प्रयोग करने का मेरा क्या अभिप्राय है, उसे समझ लीजिये। आगम-भाषा में कहने पर, सर्व पदार्थों में वीर्य नाम का एक सामान्य गुण स्वीकार किया गया है । जड़ का वीर्य जड़ात्मक और चेतन का वीर्य चेतनात्मक होता है । इस वीर्य-गुण की पर्याय या प्रवृत्ति-विशेष को पुरुषार्थ कहते हैं। कहा भी है 'जो परिणमन करे सो कर्ता कहलाता है, उसका जो परिणमन सो उसका कर्म या कार्य कहलाता है, और जो उसकी अर्थात् एक अवस्था को तजकर दूसरी अवस्था के प्रति गमन करने की प्रवृत्ति-विशेष है सो उसकी क्रिया कहलाती है।' परिणमन और परिणति में इतना ही अन्तर है कि परिणति क्रिया है और परिणमन उसका फल । अर्थात् जो नवीन पर्याय उत्पन्न हुई उसे परिणमन कहते हैं, और परिणति उस परिणमन को उत्पन्न करने की प्रवृत्ति या झुकाव-विशेष का नाम है । बस वस्तु की इस परिणति को ही यहाँ पुरुषार्थ शब्द का वाच्य बनाया जा रहा है। ठीक है कि यह अर्थ बादल आदि की वैस्रसिक अर्थात् अन्य-निरपेक्ष क्रियाओं में तो स्पष्ट लागू होता है, परन्तु घट पट बनाने रूप प्रायोगिक या अन्य-सापेक्ष क्रियाओं में लागू होता प्रतीत नहीं होता; परन्तु दृष्टान्त देकर इस प्रकार के प्रायोगिक कार्यों का विश्लेषण ऊपर किया जा चुका है। जैसे साझेकी खेती में किसान अकेले अमूर्तीक चेतन का कार्य या क्रिया राग या विकल्प करना है, उसके शरीर का कार्य या क्रिया हिलन-डुलन करना है, तथा इस एक मिले-जुले कार्य में बैल, हल आदि सर्व ही साझेदारों का पृथक्-पृथक् कार्य दृष्टि में ला दिया गया है, उसी प्रकार घट-पट आदि सर्व ही लौकिक व व्यवहारिक कार्यों का विश्लेषण करके प्रत्येक साझीदारके पृथक्-पृथक् कार्य का ग्रहण हो जाने पर, लोक का कोई भी कार्य उस दृष्टि में प्रायोगिक न दीख सकेगा बल्कि वैस्रसिक ही दीखेगा। ल कार्य है। जब कार्य को ही पदार्थ का स्थान व रूप-परिवर्तन-मात्र स्थापित कर दिया गया तब 'पुरुषार्थ' परिणति के अतिरिक्त और किसे कह सकते हैं। वस्तु की इस अपनी परिणतिरूप पुरुषार्थ के अभाव में, वस्तु की अवस्थाओं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना असम्भव होने के कारण, पुरुषार्थ भी कार्य व्यवस्था का एक अंग अवश्य है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुषार्थ ही पर्याप्त है, क्योंकि निमित्त आदि अन्य अंगों के अभाव में वह अकेला कुछ न कर सकेगा। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद १. नियति तथा भवितव्य; २. नियति की सिद्धिः ३. अनेकों प्रश्न; ४. नियति पुरुषार्थ; ५. नियति निमित्त; ६. अकाल मृत्यु, ७. आगम आज्ञा; ८. सर्वांगीण मैत्री।। १. नियति तथा भवितव्य वस्तु की कार्य-व्यवस्था में चौथा और पाँचवा अंग है 'नियति' तथा 'भवितव्य'। आध्यात्मिक प्रकरणों में यह विषय सबसे अधिक जटिल तथा विवादग्रस्त है । यह प्रकरण सुनकर आपको ऐसा लगेगा मानो पहले कहे गये निमित्त व पुरुषार्थ वाले अंगों पर पानी ही फेरा जा रहा हो, पर वास्तव में ऐसा अभिप्राय नहीं है । सर्व अंगों को युगपत् कहा जाना सम्भव नहीं है, इसलिये एक-एक अंग को पृथक्-पृथक् ग्रहण करके कहा जा रहा है। पहले जब स्वभाव की बात कही थी तब केवल उस ही का पक्ष किया था अन्य अङ्गों का नहीं। इसी प्रकार जब निमित्त व पुरुषार्थ का नम्बर आया तो उनका ही पक्ष किया गया अन्य अङ्गों का नहीं । अब नियति व भवितव्य की बारी आई है, अत: इस प्रकरण में केवल इन्हीं का पक्ष किया जायेगा अन्य अङ्गों का नहीं। वचनों के द्वारा एक समय में एक ही अङ्गका प्रतिपादन किया जाना शक्य है, इसीलिये वचन सर्वदा एकान्तरूप होते हैं। एक पक्ष को पकडकर उसका ही कथन करना और अन्य अङ्गों का कथन उस समय पीछे डाल देना, इसको आगम में 'नय' कहते हैं । यदि इसमें से दूसरे अङ्गों का अभिप्राय सर्वथा लोप कर दिया जाय तो यह नय 'दुर्नय' या 'एकान्त' कहलाती है, और यदि अभिप्राय में अन्य अङ्गों की मैत्री बराबर बनी रहे तो 'सुनय' कहलाती है । 'एकान्त' या 'दुर्नय' व्यक्ति के अध:पतन का कारण है, क्योंकि वह उसमें पक्षपात् उत्पन्न कर देती है, परन्तु 'सुनय' वस्तु-व्यवस्था का ठीक-ठीक निर्णय कराके व्यक्ति के ज्ञान को व्यापक व सरल बना देती है, पक्षपात् का विनाश करती है। अत: नियति के इस प्रकरण को सुनकर केवल इसी का पक्ष पकड़ लेना योग्य नहीं है, बल्कि जैसाकि आगे समन्वय करते समय पाँचों अङ्गों की मैत्री दर्शाई जायेगी उसी प्रकार ज्ञान में सर्व अङ्गों को अवकाश देते हुए वस्तु-व्यवस्था में सर्व को ही युगपत् देखने का प्रयल करना, अन्यथा पहले सर्व कथन पर इस नियति से अवश्य ही पानी फिर जायेगा। कर्मधारारूप मानवीय अहंकार पर यह 'नियति' इतनी कड़ी चोट है, कि उसे वह सहन नहीं कर सकता और बड़े जोर से चीखने लगता है। इस 'नियति' से काँपता हुआ वह कभी आगम की दुहाई देता है और कभी पुरुषार्थ व कर्तव्य की. कभी निज-स्वतन्त्रता का द्वार खटखटाता है और कभी प्रत्यक्ष रूप से दष्ट कार्यों की साक्षी कभी निमित्तों से रक्षा की प्रार्थना करता है और कभी स्वच्छन्दाचार का भय दिखता है। गरज उस तत्त्व को पचाना तो दूर उसके सुनने की भी शक्ति आज के मानव में नहीं है । उसके सुनते ही हृदय में खलबली उत्पन्न हो जाती है। मन बौखला उठता है और शंकाओं का तूफान उमड़ पड़ता है। अत: भाई इन शंकाओं को कुछ देर के लिये दबाकर धैर्यपूर्वक सुनने का प्रयत्न कर । विश्वास दिलाता हूँ कि अन्त में तेरी सब शंकायें दूर हो जायेंगी। __ 'नियति' शब्द काल-सूचक है और 'भवितव्य' भाव-सूचक । 'नियति' का अर्थ है निश्चित समय पर किसी कार्य का होना, और 'भवितव्य' का अर्थ है वह कार्य जोकि उस निश्चित समय में होने योग्य है । 'नियति' का निर्देश आगम में 'काल-लब्धि' शब्द द्वारा किया गया है, और सौराष्ट्र से आने वाली 'क्रमबद्धता' की गुञ्जार इसी की ओर संकेत करती है । 'नियति' या निश्चित समय, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, निमित्त व पुरुषार्थ सब पर लागू होता है । अर्थात् जिस द्रव्य में कार्य या अवस्था उत्पन्न होनी होती है वह उस समय निश्चित रूप से वही होता है, जिस स्थान पर वह कार्य होना होता है वह क्षेत्र भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है, जिस समय में वह कार्य होना होता है वह समय भी निश्चित रूप से वही होता है, जिस प्रकार का तथा जो कार्य होना होता है वह कार्य या भवितव्य भी उस समय वही होता है, जिस निमित्त से होना होता है, वह निमित्त भी उस समय वही होता है, और जिस प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा होना होता है वह भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है, दूसरे शब्दों में यों कह लीजिये कि “जिस पदार्थ को, जहाँ, जब, जिस प्रकार से, जिस निमित्त के द्वारा, जिस प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा, जो कार्य या भवितव्य करना होता है; वह Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद २. नियति की सिद्धि पदार्थ, वहाँ, तब, उसी प्रकार से, उसी निमित्त के द्वारा, उसी प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा, वही कार्य या भवितव्य निश्चित रूप से करता है; इसमें जिनेन्द्र या देवेन्द्र कोई भी फेरफार करने को समर्थ नहीं है, ऐसी इस सिद्धान्त की निर्भीक घोषणा है । ६९ देख इस बात को सुनते ही उथल पथल मचने लगी तेरे भीतर - १. पुरुषार्थ का अभाव हो जायेगा । २. मोक्ष जब होना होगा हो जायेगा, साधना क्यों करूँ ? ३. नियति के आधीन होकर पंगु बन जाऊँगा मैं । ४. सब कुछ नियत है तो निमित्तों के ग्रहण-त्याग की भी क्या आवश्यकता रह जायेगी हमें, जीवन के प्रत्येक कार्य में ? ५. अकाल-मृत्यु नाम की कोई चीज नहीं रह जायेगी । ६. आगम में नियतिवाद को मिथ्यात्व कहा गया है। उसके साथ विरोध आयेगा । ७. नियति को स्वीकार कर लेने पर वस्तु परतन्त्र हो जायेगी । इत्यादि-इत्यादि अनेकों प्रश्न उठने लगे तेरे हृदय में । तेरा कोई दोष नहीं । विषय ही अति जटिल है । यदि समझना है तो इन शंकाओं को कुछ देर के लिये दबा, ज्ञान को सरल कर, अहंकार को पीछे हटा, व्यापक दृष्टि उत्पन्न कर, कर्मधारा की ओर से हट, पूर्वोक्त ज्ञानधारा में प्रवेश पा, क्योंकि यह विषय कर्मधारा का नहीं है ज्ञानधारा का है। कर्मधारा में जाने पर तेरे सारे ही प्रश्न सार्थक हैं और उस अवस्था में मैं उन सबको तेरी मान्यता के अनुसार सहर्ष स्वीकार करता हूँ । परन्तु यहाँ तो एक अलौकिक विचित्र दृष्टि का परिचय दिया जा रहा है, जोकि शान्तिपथ का मूल आधार है। और सब बातें तो जानी देखी हैं, परन्तु यह बात सर्वथा अपरिचित है, इसलिये अनोखी लगती है। समझने का प्रयत्न कर, समझ में बैठ जाने पर ये सर्व आशंकायें स्वतः दूर हो जायेंगी । यहाँ ज्ञातादृष्टा बनाने की बात है, हृदय में प्रभुत्व उत्पन्न करने की बात है, वर्तमान में ही सर्वज्ञ बनाने की बात है, तेरे ज्ञान की महिमा दर्शाने की बात है। बात अलौकिक है, अतः लौकिक दृष्टि से नहीं दिव्य दृष्टि से समझी जा सकती है | भगवान का विराट रूप दिखाने के लिये गीता में अर्जुन को दिव्यचक्षु प्रदान की गई थी, उसी के द्वारा देखने का प्रयत्न कर । सर्व ही मतों सम्प्रदायों की भाँति जैन दर्शन ने भी भविष्यग्राही ज्ञान स्वीकार किये हैं। भविष्य में होने वाले किसी कार्य तथा संयोगों आदि को वर्तमान में ही प्रत्यक्ष तथा निश्चित् रूप से जानने वाले ज्ञान को भविष्यग्राही ज्ञान कहते हैं । यद्यपि वर्तमान में इन ज्ञानों का प्रत्यक्ष नहीं होता है परन्तु सर्व ही सम्प्रदायों के आगमों में उसकी सत्ता पर विश्वास अवश्य किया जाता है । एक ज्ञान तो ऐसा है कि आगे होने वाले घट पट आदिक दृष्ट कार्यों को, अथवा मानवीय व्यापार धन्धों को, अथवा जन्म-मरण को अथवा धन की लाभ-हानि को, अथवा शत्रु-मित्र या अन्य पदार्थों के संयोग-वियोग को तथा इसी प्रकार के अन्य भी अनेकों स्थूल कार्यों को, कई वर्ष पहले से जान लेता है। ऐसे ज्ञान को 'अवधिज्ञान' कहते हैं । यह ज्ञान इन सर्व कार्यों को वर्तमान में ही प्रत्यक्षवत् देखता है। ज्योतिष ज्ञान भी इन सर्व कार्यों का पहले से निश्चित अनुमान लगा लेता है । यह यद्यपि अवधिज्ञानवत् प्रत्यक्ष नहीं होता परन्तु निश्चित अवश्य होता है, जैसे कि सूर्य ग्रहण का निश्चित समय बताने वाला ज्ञान। इसको आगम में निमित्तज्ञान कहते हैं। यह भी स्वर, चिह्न आदि आठ प्रकार का होता है । विस्तार के भय से यहाँ उनके भेद-प्रभेद कहना इष्ट नहीं है। एक ज्ञान ऐसा होता है जो आगे होने वाले मानवीय बुद्धि के अदृष्ट विकल्पों को भी पहले से प्रत्यक्ष जान लेता है । वह यहाँ तक बता देता है कि दो महीने पीछे अमुक समय अमुक व्यक्ति ऐसा विचार करेगा। इसको आगम में 'मन:पर्ययज्ञान' कहा गया है। चौथा ज्ञान सर्वज्ञ का है, जो जड़ व चेतन के सकल चराचर, सूक्ष्म व स्थूल, दृष्ट व अदृष्ट, शुद्ध व अशुद्ध, स्वाभाविक व वैभाविक, भूत- वर्तमान- भवष्यित के सर्व ही कार्यों को हस्तामलकवत् वर्तमान में देखता है । उसे आगमकारों ने 'केवलज्ञान' के नाम से कहा है । यह ज्ञान अत्यन्त व्यापक व निर्विकल्प होने के कारण हमारे अनुमान का विषय नहीं है तथा विवादास्पद भी है, परन्तु अवधि आदि पहले तीन भविष्यग्राही ज्ञान स्पष्ट रूप से विकल्पात्मक स्वीकार किये गये हैं । २. नियति की सिद्धि नियति की सिद्धि यद्यपि आगम, अनुभव, तर्क व विज्ञान इन चारों प्रकारों से की जानी सम्भव है, तदपि ग्रन्थ-विस्तार के भय से, विषय लम्बा खिंच जाने पर कदाचित् इस पक्ष का पोषण आवश्यकता से अधिक न हो जाए इस भय से, तथा निमित्त आदि अन्य अङ्ग निःसार भासने न लग जायें इस भय से, केवल आगम तथा अनुभव से ही सिद्ध करके छोड़ देता हूँ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० १२. नियतिवाद ४. नियति-पुरुषार्थ यहाँ इतना ही अनुमान किया जाता है कि यदि कोई भी भविष्यग्राही ज्ञान की सत्ता स्वीकारणीय है तो 'नियति' को स्वीकार करना ही होगा। बिना नियत-वस्तु-व्यवस्था को स्वीकार किये इस प्रकार के ज्ञान, कल्पना मात्र बनकर रह जायेंगे। क्योंकि जैसा कार्य पहले हुआ था वैसा ही ज्ञान वर्तमान में जानता है और जैसा जानता है वैसा ही हुआ था। इसी प्रकार जैसा कार्य वर्तमान में हो रहा है वैसा ही ज्ञान जानता है और जैसा वह जानता है वैसा ही हो रहा है । इसी प्रकार यह भी मानना होगा कि जैसा कार्य आगे भविष्य में होगा वैसा ही वह ज्ञान वर्तमान में जानता है, और जैसा वह जानता है वैसा ही होगा। जिस प्रकार जानने के अनुसार ही भूतकाल का कार्य निश्चित है, उसमें फेर फार सम्भव नहीं। ज्ञान के आधार पर कार्य की निश्चिति अवलम्बित नहीं है, प्रत्युत कार्य की निश्चिति पर ज्ञान अवलम्बित है । ज्ञान ने जाना है इसलिये वैसा नहीं होता, प्रत्युत कार्य का होना इस प्रकार से निश्चित है इसलिये ज्ञान वैसा जानता है । जिस प्रकार दर्पण में जैसा प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, निश्चित रूप से वैसा ही पदार्थ उसके सामने विद्यमान है; इसी प्रकार ज्ञान में जैसा प्रत्यक्ष हो रहा है, निश्चित रूप से वैसा ही ज्ञेय अथवा कार्य उसके सामने विद्यमान है। इस प्रकार ज्ञान से नियति सिद्ध होती है। अनुभव के आधार पर भी सिद्ध की जा सकती है यह । आप सबके जीवन में नित्य अनेकों ऐसे अवसर आते हैं, जबकि आप करना तो कुछ और चाहते हैं और समय आने पर हो कुछ और जाता है। कदाचित् ज्योतिषी के द्वारा बताई गई भविष्यत सम्बन्धी किसी बात को झूठा करने का अपनी ओर से पूरा-पूरा उद्यम करते हो, पर फिर भी वह घटना समय आने पर उसी प्रकार घट जाती है, जिस प्रकार कि बताई गई थी। पूज्य वर्णीजी के जीवन की एक घटना योतिषी ने बताया कि अमुक दिन ९ बजे की गाड़ी से सम्मेदशिखर जाओगे। बराबर याद रखने का प्रयत्न किया उस बात को, परन्त जब वह दिन आया तो इतनी तीव्र जिज्ञासा उदित हई यात्रा करनेकी कि सब कछ भल गए।९ बजे वाली गाड़ी से ही रवाना हो गए, और गाड़ी चल चुकने पर याद आया कि मैं ज्योतिषी की बात को झूठा करने की सोचता था पर कर न सका । न चाहते हुए भी समय आने पर आपको कदाचित् कोई ऐसा कार्य करना पड़ जाता है जिसका आपको पहले भान तक नहीं था। विस्तार के भय से उदाहरण नहीं देता, पर मेरे तात्पर्य को आप समझ गए होंगे। नियति के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं इसे ? ३. अनेकों प्रश्न-यहाँ अनेकों प्रश्न मन को क्षुब्ध करने लगते हैं। यथा-१. नियति को स्वीकार कर लेने पर पुरुषार्थ का जीवन में कोई स्थान नहीं रह जाता । २. मोक्ष जब होनी होगी तब हो ही जायेगी, साधना करके क्या करूँ। ३. यदि पुरुषार्थ भी नियत है तो मैं हर प्रकार से नियति के आधीन होकर पंगु बन जाऊँगा। ४. यदि निमित्त का मिलना भी नियत है तो उनके ग्रहण त्यागकी क्या आवश्यकता। ५. नियति स्वीकार करने पर अकाल मृत्य का तथा कर्मों के उत्कर्षण अपकर्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि शास्त्रों में उनका स्पष्ट निर्देश किया गया है । ६. आगम में नियति की स्वीकृति को मिथ्यात्व बताया गया है। इन सबका समाधान क्रम से किया जायेगा, थोड़ा चित्त को शान्त करके सुनिये। यद्यपि इनके अतिरिक्त भी अन्य अनेकों प्रश्न उदित हो सकते हैं, यथा—१. जो होना था हुआ, करने वाले का क्या दोष । इस प्रकार जगत में अपराध नाम की कोई वस्तु नहीं रह जायेगी। २. यदि आचार्य, का यह सिद्धान्त मान्य है तो उन्होंने धर्म कर्म का उपदेश क्यों दिया । ३. नियति क्या वस्तु है, द्रव्य है, गुण है या पर्याय है । ४. अनेकान्त के अनुसार नियति के सामने अनियति कैसे घटित होती है, इत्यादि । परन्तु इन सबके पृथक्-पृथक् उत्तर यहाँ दिये जाने सम्भव नहीं है । उपरोक्त ६. में ही इनके उत्तर स्वयं गर्भित हो जाते हैं। ४. नियति-पुरुषार्थ लीजिये अब क्रम-पूर्वक आपकी शंकाओं का समाधान करता हूँ । प्रथम शंका है यह कि 'नियति को स्वीकार कर लेने पर परुषार्थ का अभाव हो जायेगा।' भाई । परुषार्थ का अर्थ समझाते समय पहले यह भली भाँति बताया जा चुका है कि प्रत्येक पदार्थ, जड़ हो या चेतन, परिवर्तन-स्वभावी है। प्रत्येक क्षण नवीन-नवीन परिवर्तन या कार्य करते रहने वाली उसकी निज परिणति ही उसका पुरुषार्थ है। तू भी एक चेतन वस्तु है। अवस्था-परिवर्तन रूप कार्य करते रहना तेरा स्वभाव है । स्वभाव का अभाव तीन काल में सम्भव नहीं। बिना कोई न कोई पुरुषार्थ किये तू रह ही नहीं सकता। अत: तेरा यह प्रश्न निरर्थक है। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद ७१ ५. नियति-निमित दूसरा प्रश्न है 'मोक्ष जब होनी होगी हो जायेगी, साधना क्यों करूँ, सो भी ठीक नहीं क्योंकि खाली तो तू बैठ नहीं सकता, कुछ न कुछ तो करना ही होगा। अब बता कि क्या करना अच्छा लगता है तुझे? यदि कर्मधारा-रूप लौकिक कार्य करना भाता है तब तो 'नियति' पर श्रद्धा हुई कैसे कही जा सकती है, क्योंकि नियति की तो यह घोषणा है कि “लौकिक विषय हो या अलौकिक किसी को भी अपने अनुकूल बनाने का अधिकार तुझे नहीं है । अत: दोनों ही दशाओं में करने-धरने सम्बन्धी विकल्प को छोड़कर, जो कुछ हो रहा है या होने वाला है, उसे केवल देख तथा जान।" मोक्षमार्ग को नियति पर छोड़ना और संसार मार्ग को पुरुषार्थ की ओर बैंचना, यही तो बता रहा है कि तेरे अभिप्राय में कर्मधारा है ज्ञानधारा नहीं। सब कुछ नियत देखना ही ज्ञान धारा है । बाहर में कुछ अपनी कल्पना के अनुसार परिवर्तन करने का विकल्प कर धिारा है, जिसका आधार नियति नहीं अनियति है। क्योंकि कार्य-व्यवस्था को अनियत जानने वाला ही बाहर में कुछ करने-धरने का प्रयत्न करता है, उसे नियत जानने वाला नहीं। तात्पर्य यह कि कर्मधारा नियति के अनुरूप नहीं प्रत्युत अनियति के अनुरूप पुरुषार्थ है। दोनों ही दशाओं में पुरुषार्थ बाधित नहीं होता। नियति में रहता है ज्ञानधारारूप पुरुषार्थ और अनियति में रहता है कर्मधारारूप पुरुषार्थ । तीसरा प्रश्न है यह कि मैं 'नियति के अधीन होकर पंगु बन जाऊँगा' । इस प्रश्न का उत्तर भी पूर्वोक्त दो प्रश्नों में आ चुका है । जब तक कर्मधारारूप पुरुषार्थ कर रहा है तब तक तो तुझे नियति पर विश्वास ही नहीं है । उसके आधीन कैसे हो सकता है ? और जब नियति पर विश्वास करके उसके आधीन बन जायेगा, तो उस समय ज्ञानधारारूप पुरुषार्थ करता हुआ होगा तू । पंगु कैसे बनेगा? उसकी यह आधीनता तो इष्ट ही है।। ५. नियति-निमित्त—अब चौथा प्रश्न है कि 'निमित्तों का मिलना भी यदि नियति ही है तो फिर उनको ग्रहण-त्याग करने की आवश्यकता ही क्या?' इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हम तुझसे पूछना चाहते हैं कि यह प्रश्न किस रुचि से कर रहा है-ज्ञानधारा की रुचि से या कर्मधारा की रुचि से? ऐसा प्रतीत होता है कि अन्दर में तो रुचि पड़ी है कर्मधारा की और बाहर में बात कर रहा है ज्ञानधारा के विषयभूत नियति की । मेल बैठे तो कैसे बैठे ? किसी भी कार्य करने की प्रेरणा नियति नहीं, रुचि देती है। देख वर्तमान में तुझे धन कमाने की रुचि है तो तू उसी प्रकार की प्रवृत्ति भी करता है । उपार्जित धनका उपयोग करने के लिये तदनुकूल विषय-सामग्री का संगह करता है और उस भोग के आधारभूत इस शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयत्न भी करता है । इस प्रकार से इन सकल निमित्तों के प्रति प्रवृत्त होना ही तो धनोपार्जन विषयक पुरुषार्थ है या कुछ और? और इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप धन तथा विषय-सामग्री की प्राप्ति का होना ही है उसका फल या भवितव्य । इस प्रकार के पुरुषार्थ पर से तेरी अन्तरंग श्रद्धा का तथा रुचि का परिचय मिलता है। यदि यह रुचि बदलकर शान्ति-प्राप्ति की दिशा के प्रति झुक जाये तो उसके लिये तू कुछ प्रयत्न करेगा या नहीं ? क्या सर्वथा निठल्ला बैठ जाना सम्भव है ? मन से, वचन से तथा काय से, तीनों से कुछ न कुछ तो करेगा ही। या तो सर्व मानसिक विकल्पों को हटाकर ज्ञानधारा में निश्चल रहने का प्रयत्न करेगा और यदि वैसी सामर्थ्य नहीं है तो देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर तदनुकूल कोई धार्मिक अनुष्ठान करेगा। इस दिशा में तीसरा कोई कार्य किया जाना सम्भव नहीं। साक्षात् रूप से ज्ञानधारा में निश्चल रहने को तो अभी तू समर्थ नहीं है, इसलिये तदनुकूल कर्मधारा रूप कोई व्यवहारिक पुरुषार्थ ही कर सकता है। और सकल व्यवहारिक पुरुषार्थ का स्वरुप है वही जो कि धनोपार्जन की दिशा में ऊपर बताया जा चुका है, अर्थात् अनुकूल निमित्तों का ग्रहण और प्रतिकूल का त्याग । अत: यह कैसे सम्भव है कि धर्म या शान्ति की रुचि जागत हो जाने पर और कर्मधारा की भमि पर स्थित रहते हए त धर्म के साधक निमित्तों का ग्रहण तथा उसके बाधक निमित्तों का त्याग न करे । यही तेरा इस दिशा का पुरुषार्थ है, जो कि बता रहा है कि नियति या काललब्धि अब सुधर गई है तेरी । पुरुषार्थ के फलस्वरूप धीरे-धीरे विकल्पों की निवृत्ति-पूर्वक तेरा ज्ञानधारा में प्रविष्ट हो जाना निश्चित है, और यही है इस पुरुषार्थ का भवितव्य । तात्पर्य यह कि यदि तू देव-गुरु-शास्त्र आदि की शरण में जाकर अपनी शक्ति के अनुसार धर्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्त होने का प्रयत्न करे तो अवश्य ही मोक्ष का पात्र बन जाये । इसी में नियति-दर्शक ज्ञानधाराकी रूचि भी स्वत: सिद्ध है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद ७. आगम आज्ञा निमित्तादि का ग्रहण - त्याग तो करता रहे धनोपार्जन की दिशावाला, और बात करता रहे नियति की तथा ज्ञानधारा की, यह तो नियति की स्वीकृति कहलाती नहीं । यथाशक्ति धनोपार्जन की दिशावाले कार्यों से हटकर धार्मिक दिशावाले कार्यों में प्रवृत्त होने का पूरा-पूरा प्रयत्न करे, तो उसी में नियति की अनुक्त स्वीकृति निहित है, क्योंकि ऐसा करने से ही तेरी बुद्धि धीरे-धीरे विकल्पों से हटकर ज्ञानधारा में प्रवेश पाने के योग्य होती चली जायेगी । जानने, श्रद्धा- करने तथा प्रवृत्ति करने में बड़ा अन्तर है । जाना कुछ और जाता है और किया कुछ और जाता है। जाना तो जाता धनोपार्जन, और दुकान में माल भरने के लिये किया जाता है धन व्यय । इसी प्रकार जानी तो जाती है ज्ञानधारा वाली निर्विकल्पता, और प्रवृत्ति की जाती है तदनुकूल निमित्तों के ग्रहण त्याग रूप विकल्पों की। इसी प्रवृत्ति में पड़ी है नियति की स्वीकृति । क्योंकि विकल्पात्मक होते हुए भी इस प्रकार की प्रवृत्तिका लक्ष्य है निर्विकल्पता । इस लक्ष्य की पूर्ति का यहाँ सर्वथा अभाव हो ऐसा भी नहीं है। आंशिक रूप से उसकी प्राप्ति भी बराबर हो ही रही है । लौकिक दिशा वाली तीव्र कर्मधारा धीरे-धीरे विराम पाती जा रही है और शान्ति की दिशा वाली मन्द ज्ञानधारा धीरे-धीरे उदित होती जा रही है । ७२ ६. अकाल-मृत्यु — पाँचवां प्रश्न है अकाल-मृत्यु सम्बन्धी । समय से पहले विषभक्षण आदि से होने वाली मृत्यु को 'अकालमृत्यु' कहते हैं । कर्म-सिद्धान्त के अन्तर्गत पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति आदि के घटने बढ़ने को ' अपकर्षण' व 'उत्कर्षण' कहते हैं और प्रकृति के बदल जाने को 'संक्रमण' कहते हैं। समय से पहले कर्म को उदय में लाना 'उदीरणा' कहलाती है और समय से पहले उन्हें झाड़ देना 'निर्जरा' कहलाती है। 'आगम-कथित ये सब विषय नियति के बाधक हैं, ऐसी आशंका भी करनी योग्य नहीं, क्योंकि उसका उत्तर तो वही उपरोक्त विकल्प है, जिसके आने पर तदनुरूप ही प्रवृत्ति स्वत: होती है। तीव्र-क्रोध आने पर ही विषभक्षण आदि का कार्य होता है, उसके अभाव में नहीं। इसी प्रकार अपकर्षण, उदीरणा व निर्जरा आदि के सम्बन्ध में भी जानना । क्योंकि अकाल मृत्यु का अर्थ आयु-कर्म की उदीरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अकाल तो केवल इसलिये कही जाती है कि जितनी आयु बंधी, उतनी स्थिति पूरी नहीं की । वास्तव में कोई भी कर्म ऐसा नहीं जिसकी स्थिति बन्ध के अनुसार ही उदय में आती हो । बुद्धिहीन सूक्ष्म प्राणियों में भी ये उत्कर्षण आदि बराबर हो रहे हैं। जैसा जैसा विकल्प उस-उस समय आता है, वैसी वैसी प्रवृत्ति उस-उस समय होती है, तत्फलस्वरूप वैसा-वैसा ही नवीन बन्ध व उत्कर्षण आदि होता है । उत्कर्षण आदि के परिणाम कोई और हों और बन्ध के कोई और, ऐसा नहीं है। एक समय के जिस एक परिणाम या प्रवृत्ति से बन्ध होता है, उसी से उसी समय यथायोग्य उत्कर्षण, अपकर्षण आदि भी होते हैं, अतः इनसे नियति बाधित नहीं हो सकती । ७. आगम आज्ञा—छठा प्रश्न है यह कि 'नियति की स्वीकृति को 'आगम में मिथ्यात्व बताया गया है' । सो भाई ! यह बात भी दृष्टि की संकीर्णता के कारण ही निकल रही है । गोमट्टसार आदि ग्रन्थों में जहाँ इसे मिथ्यात्व बताया है, वहाँ यह देख कि प्रकरण क्या चल रहा है, और फिर उसके अनुसार ही उसका अर्थ लगा। आश्चर्य होगा यह सुनकर कि जहाँ पर तुझे नियति का निषेध दिख रहा है, वहाँ पर ही तुझे नियति का समर्थन दिखने लगेगा। सो कैसे ? वही बताता हूँ । वहाँ पर प्रकरण एकान्त - मिथ्यात्वका है, जिसके ३६३ भेद करके दिखाये हैं । अस्ति नास्ति आदि सप्त भंग, जीवादि सप्त तत्त्व या नव पदार्थ, नित्य अनित्य आदि विकल्प तथा लोक में प्रसिद्ध ८ वादों को परस्पर में गुणा करके क्रियावादियों आदि के अनेकों भंग बनाये गये हैं, जिन सबका जोड़ ३६३ होता है । वे आठवाद भी ये हैं - १. स्वभाववाद, २. आत्मवाद, ३. ईश्वरवाद, ४. कालवाद ५. संयोगवाद, ६. पुरुषार्थवाद, ७. नियतिवाद, ८. दैववाद । उस स्थल पर इन आठों वादों के लक्षण मात्र किये गये हैं उनका निषेध नहीं । हाँ प्रकरणवश उनके निषेधका तात्पर्य वहाँ अवश्य है, परन्तु सर्वथा निषेध का प्रयोजन नहीं है । उन-उनको एकान्त रूप से ग्रहण करना, अर्थात् अपनी रुचि के अनुसार उनमें से कोई एक या दो आदि वाद तो स्वीकार कर लें और अन्य का निषेध कर दें, ऐसा करना एकान्त मिथ्यात्व है । इस प्रकार यदि गौर से देखा जाये तो वहाँ एक नियतिवाद को ही मिथ्यावाद बताया गया हो, ऐसा नहीं है । वहाँ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद ७३ ८. सर्वाङ्गीण मैत्री तो सप्त भंग, सात तत्त्व, नव पदार्थ, इन सबकी स्वीकृति को एकान्त बताया गया है। तू यदि पुरुषार्थ या संयोग व निमित्त के गान गाता है तो वहाँ उनकी स्वीकृति को भी मिथ्यात्व कहा गया है । वहाँ तो स्वभाव की स्वीकृति को भी मिथ्यात्व कहा है। जैनागमका कौन-सा ऐसा तत्त्व है जिसे वहाँ मिथ्यात्व न कहा गया हो । यदि उस कथन पर से नियति का निषेध करना है तो अन्य सर्व वादों व अंगों का भी निषेध करना पड़ेगा। और यदि ऐसा कर दे तो रह ही क्या गया ? क्या सर्व शून्य की स्वीकृति को सम्यक्त्व कहेगा ? भाई ! वहाँ नियति का निषेध नहीं किया है बल्कि सप्त तत्त्वों आदि की भाँति उसको भी स्वीकार करने के लिये कहा है । वहाँ तो यह बताया है कि जिस प्रकार निमित्त व पुरुषार्थ से हीन नियति की स्वीकृति एकान्त है उसी प्रकार नियति से हीन पुरुषार्थ व निमित्त आदि की स्वीकृति भी मिथ्यात्व है । क्योंकि सर्व कथन कर देने के पश्चात् आचार्य स्वयं वहाँ एक गाथा कह रहे हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि, “एकान्त मिथ्यात्व के ये ३६३ भेद कह दिये गये, पर ये इतने ही नहीं हैं, असंख्यात हैं, क्योंकि जितने वचन विकल्प हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही एकान्त हैं । अन्य मतवादियों के वही वचन मिथ्या हैं क्योंकि वे 'सर्वथा' शब्द के साथ वर्तते हैं, परन्तु जैन या अनेकान्त वादियों के वही वचन सम्यक् हैं क्योंकि वे 'कथञ्चित्' पद से चिन्हित हैं ।" इस गाथा के अनुसार 'नियति' का सर्वथा निषेध करके शेष बचे ३६२ की स्वीकृति भी एकान्त कहलायेगी । किसी न किसी प्रकार इन ३६३ तथा इनके अतिरक्ति अन्य अनेक बातों को युगपत् स्वीकार करना ही वास्तव में व्यापक-अनेकान्त-दृष्टि है और वही सम्यक्त्व है । अब तू ही निर्णय करले कि यहाँ नियति का निषेध कराया गया है। या स्वीकार ? ८. सर्वाङ्गीण मैत्री - प्रश्न समाप्त हो गए, परन्तु हृदय अब भी समाहित नहीं हुआ । नियति का बल स्वीकार कर लेने पर वस्तु परतन्त्र सी होती प्रतीत होने लगती है। सो भाई ! बड़ी मुश्किल की बात है। स्वभाव को कहने जाता हूँ तो वस्तु स्वभाव के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है, निमित्त को कहने जाता हूँ तो वस्तु निमित्त के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है और नियति को कहनें जाता हूँ तो वस्तु नियति के आधीन होकर परतन्त्र होने लगती है, समाधान करूँ तो कैसे करूँ ? भैया ! वस्तु का तथा उसकी कार्य-व्यवस्था का स्वरूप बड़ा जटिल है। वास्तव में जो कुछ भी एक समय में कहा जाता है, वस्तु-व्यवस्था वैसी है नहीं। वह है इन पाँचों समवायों का एक अखण्ड-पिण्ड । केवल ज्ञानधारा ही समर्थ है उसे देखने के लिये, जिसका उल्लेख निमित्तोपादान मैत्री में पहले किया जा चुका है । 1 किसी भी कार्य के लिये अनेकों कारणकूटों की आवश्यकता होती है । यहाँ तो केवल पाँच ही का उल्लेख किया है, उसमें तो अनन्तों अंग एक ही समय पड़े हैं। जब तक वस्तु को पढ़ने का प्रयत्न न करेगा प्रश्न उठते ही रहेगें । यद्यपि सभी का तर्कपूर्ण उत्तर उपलब्ध है, तदपि स्थानाभाव के कारण सबका उल्लेख यहाँ किया जाना सम्भव नहीं है । सभी बातों को युगपत् देखे तो स्वतः सबका समाधान प्राप्त हो जाय। किसी एक मशीन के पुर्जे यथा स्थान जड़े रहते हुए भी यदि उसमें से एक छोटी सी कील निकाल ली जाए तो सब घोटमटाला हो जाए। भले ही पैसे की दृष्टि से उसका मूल्य न के बराबर हो, परन्तु मशीन की कार्य-व्यवस्था में उसका भी उतना ही मूल्य है जितना कि किसी बड़ी भारी गरी का। इसी प्रकार विश्व की सहज कार्य-व्यवस्था में सभी अंगों या समवायों का समान मूल्य है, न किसी का कम न अधिक । भले ही तत्त्व - दृष्टा की दृष्टि में निमित्त का कोई मूल्य न हो परन्तु वस्तु की कार्य-व्यवस्था में उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती, और इसी प्रकार अन्य अंगों की भी । अतः शब्दों की खेंचतान छोड़कर साक्षी - भाव से इस बाह्याभ्यन्तर जगत का तमाशा देख | इन पाँचों समवायों में वस्तु का 'उत्पाद-व्यय-धौव्य' स्वभाव तो त्रिकाल सत् है और इसलिये उसमें कुछ भी किये जाने का प्रश्न नहीं । नियति कोई वस्तुभूत पदार्थ नहीं है । न वह कोई द्रव्य है, न किसी द्रव्य का कोई गुण है और न किसी की कोई पर्याय । वह है उस काल का नाम जिसमें कि कोई विवक्षित कार्य सिद्ध होना होता है। इस प्रकार भवितव्य भी है मात्र उस कार्य का नाम जो कि उस काल में सिद्ध होना होता है। अतः इन दोनों अंगों में भी व्यक्ति को करने के लिये कुछ नहीं है। अब रह गए निमित्त तथा पुरुषार्थ । तहाँ निमित्त के रूप में यह गुरुवाणी तथा तेरे अपने Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. नियतिवाद ७४ ८. सर्वाङ्गीण मैत्री ज्ञान की शक्ति वर्तमान में तुझे सहज प्राप्त है, इसलिये उसे प्राप्त करने के लिये भी तुझे कुछ करना नहीं है । प्राप्त को प्राप्त करने का प्रयत्न कौन करता है ? रह गया अकेला पुरुषार्थ । वही करने की बात है । गुरुवाणी रूप इस निमित्त की शरण में जाकर उसकी आज्ञानुसार सत्य पुरुषार्थ करे तो ये निमित्त भी सार्थक हैं, अन्यथा तेरे लिये वे निमित्त भी नहीं कहे जा सकते । परन्तु पुरुषार्थ क्या ? इस बात का उत्तर पहले दिया जा चुका है (देखो १०.३) । तीव्र लौकिक कर्मधारा से हटकर मन्द कर्मधारा का अर्थात् धार्मिक क्रियाओं का आश्रय ले। फिर उससे भी हटकर साक्षात् ज्ञानधारा में प्रवेशकर, और साक्षी-भाव से इस जगत का तमाशा देख । यही है सत्य पुरुषार्थ । और यदि कदाचित इन पाँचों में से कोई भी एक आकर अपनी शेखी बघारने लगे तथा अपने सहवीं अन्य समवायों का तिरस्कार करने लगे तो इस प्रकार समझाकर उसे शान्तकर देना चाहिये (१) जब स्वभाव का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत हाने लगे कि स्वभाव ही सब कुछ है, निमित्तादि का कुछ मूल्य नहीं है तो मन्ता का कर्त्तव्य है कि वह पुरुषार्थ की ओर देखकर ऐसा विचार करे कि स्वभाव तो एक कालातीत सामान्य बात है । वह तो न कुछ करता है न किसी को कुछ करने की प्रेरणा देता है। कार्य करना तो मेरे पुरुषार्थ के आधीन है। जब जैसा पुरुषार्थ करूँगा तब वैसा ही कार्य होगा और यही है उसकी नियति और भवितव्य । (२) जब निमित्त का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होने लगे कि निमित्त ही सर्वेसर्वा है, नियति आदि का मूल्य नहीं, तो मन्ताका कर्तव्य है कि तत्सहभावी स्वभाव, पुरुषार्थ और नियति इन तीनों की ओर देखकर ऐसा विचार करे कि यदि मेरा स्वभाव परिणमन करने का न होता तो निमित्त बेचारा क्या करता । अथवा यदि उसके सद्भाव में भी मैं पोस्ती बना बैठा रहता है तो वह बेचारा क्या करता । यदि प्रेरक निमित्त आकर यह कहने लगे कि मैं तुझे पुरुषार्थ करने के लिये बाध्य कर सकता हूँ तो साथ में रहने वाली नियति की ओर देखकर तू उसके इस अहंकार को दूर करदे और उसे कह दे कि जैसी नियति होगी वैसा ही निमित्त आयेगा । अपनी मर्जी से कोई भी निमित्त जब चाहे प्राप्त हो जाए, यह सम्भव नहीं । नियति के आधीन होने के कारण जो स्वयं परतन्त्र है वह दूसरे को क्या परतन्त्र बनायेगा। रुषार्थ आकर यह अहंकार करने लगे कि सर्वत्र मेरी ही प्रधानता है, अन्य सर्व बातें तुच्छ हैं, तो मन्ताका कर्त्तव्य है कि वह नियति की ओर देखकर उसे यह समझा दे कि देख भाई ! तेरा पक्ष यद्यपि प्रबल है, परन्तु तनिक यह विचार कि बिना हार्दिक रुचि के भी क्या त जागृत हो सकता है कभी? और हृदय के राज्य में किसी भी प्रकार की कृत्रिमता को अवकाश नहीं । वह तो समय आने पर स्वत: स्फुरित हो जाती है न जाने क्यों तथा कैसे। इस प्रकार रुचि नियति के आधीन है, और वही तेरी जननी है । जब जैसी नियति होती है, तब वैसी ही रुचि होती है, जब जैसी रुचि होती है तब वैसा ही पुरुषार्थ जागृत होता है और जब जैसा पुरुषार्थ होता है तब वैसा ही कार्य या भवितव्य होता है । अत: व्यर्थ का गर्व मत कर। (४) जब नियति का विचार करते हुए ऐसा प्रतीत हाने लगे कि इसने वस्तु को सर्व ओर से जकड़ लिया है, तो साथ में रहने वाले पुरुषार्थ की आरे देखते हुए उसे यह कहकर शान्त कर दे कि हे माता ! तू तो कुछ करने की प्रेरणा किसी को देती नहीं, तू तो मात्र उस काल का नाम है जिस काल में कि वह कार्य होना होता है। कार्य करना तो पुरुषार्थ के आधीन है । जब जैसा पुरुषार्थ करूँगा तब वैसी ही मेरी प्रवृत्ति होगी, तब वैसे ही निमित्तों का ग्रहण-त्याग होगा और जब जैसे निमित्तों का ग्रहण-त्याग होगा तब वैसा ही कार्य या भवितव्य सिद्ध होगा। (४) जब भवितव्य आकर अपनी डींग हाँकने लगे तो साथ में रहने वाले शेष चार अंगों की ओर देखते हुए उसे यह कहकर जरा डरा दे कि तेरा तो अपना कोई स्वतन्त्र स्वरूप ही नहीं है। जहाँ जब जैसा पुरुषार्थ जागृत होकर जैसे कैसे निमित्तों का ग्रहण-त्याग करता है, तहाँ तब वैसा ही कार्य सिद्ध हो जाता है, और होने योग्य वह कार्य ही तेरा स्वरूप है। ___ इस प्रकार पाँचों का युगपत् एक दूसरे के साथ गुंथे रहना ही वस्तु-व्यवस्था है। किसी एक अंग को भी हटा दिया जाए तो कार्य की गति रुक जाए । स्वभाव न हो तो परिवर्तन ही न हो, कार्य कैसे होगा, चाहे जोर लगालें सब मिलकर । यदि निमित्त न हो तो परिवर्तन ही न हो । काल नामक सामान्य निमित्त न हो तो मृत्तिका में अथवा तन्तुओं में सामान्य परिवर्तन न हो, और चक्र-चीवर आदि विशेष निमित्त न हों तो उनमें घटरूप या पटरूप विशेष परिवर्तन न हो, Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ १२.नियतिवाद ८. सर्वाङ्गीण मैत्री स्वभाव या पुरुषार्थ क्या करेंगे बेचारे ? यदि पुरुषार्थ न हो तो प्रवृत्ति ही न हो, बैठे रहें स्वभाव, निमित्त तथा नियति हाथ पर हाथ रखे । यदि नियति न हो तो हृदय में काम करने की रुचि ही जागृत न हो और उसके अभाव में पुरुषार्थ का जन्म ही न हो । यदि भवितव्य न हो तो कार्य ही न हो, क्योंकि कार्य का नाम ही तो भवितव्य है । जब कार्य ही नहीं तो सर्व अंगों का मिलना व्यर्थ। पाँच अंगों से समवेत यही है वस्तु की स्वतन्त्र कार्य व्यवस्था, जिसे देखा जा सकता है और देखकर आनन्द लूटा जा सकता है, केवल ज्ञानधारा के द्वारा । कर्मधारा को आज्ञा नहीं है इसके राज्य में प्रवेश पाने की । अत: अपने ज्ञान को कुछ सरल कर, खेंचतान छोड़, अपने किसी पक्ष के कारण वस्तु-स्वरूप का या सिद्धान्त का निरादर न कर । पाँचों समवायों को यथोचित रूप में स्वीकार कर । वस्तु स्वातन्त्र्य का यह अर्थ नहीं कि उसमें निमित्त का कोई स्थान नहीं, और निमित्त की स्वीकृति का यह अर्थ नहीं कि नियति तथा भवितव्य कोई वस्तु नहीं और न ही नियति तथा भवितव्य की स्वीकृति का यह अर्थ है कि पुरुषार्थ तथा निमित्त व्यर्थ हैं । सबको युगपत् देखने का प्रयत्न कर और वह तभी सम्भव है जब कि तू शब्दों के घरोंदे से निकलकर ऊपर व्योम में चला जाए और वहाँ स्थिर रहकर देखा करे इस सकल विस्तार का तमाशा। MATH SARMPARAN B y . समस्त वादों से अतीत आत्मस्वरूप में स्थित भगवद् चरणों में जाति विरोधी जीवों की मैत्री। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आस्त्रव-तत्त्व ( १. पारमार्थिक अपराध; २. कार्मण शरीर; ३. द्विविध अपराध; ४. रागद्वेष; ५. क्रिया की अनिष्टता। १. पारमार्थिक अपराध-अहो ! अपराधों से अतीत वीतरागी गुरु, आपका उपकार करुणा व नि:स्वार्थता । निपट अन्धे को आँखे प्रदान करके इसे अपराधों के प्रत्यक्ष दर्शन करा देने वाले है गरुवर ! इसके अपराधों को अब शान्त करो। शान्ति-पथ के पथिक को स्वपर-भेद करा चुकने के पश्चात्, अब यह बात चलती है कि कौन सा ऐसा अपराध है जिसका कि दण्ड उसे इस व्याकुलता के रूप में मिल रहा है । गुरुदेव के द्वारा प्रदान की गई दिव्य चक्षु से आज मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है वास्तव में मेरा सारा जीवन ही अपराध है। चौबीस घण्टे में करता ही क्या हूँ, अपराध के अतिरिक्त ? यहाँ अपराध से तात्पर्य राजदण्ड्य लौकिक अपराध न ले लेना, बल्कि वह पारमार्थिक अपराध लेना जिसके कारण कि व्याकुलता का दण्ड उठाना पड़े। कौन देने वाला है वह दण्ड ? कोई दूसरा नहीं, मैं स्वयं ही हूँ, क्योंकि जो अपराध में करता हूँ वह स्वयं व्याकुलता रूप ही है । इसी अपराध को आगमकारों ने 'आस्रव' नाम से कहा है। २. कार्मण शरीर-आस्रव अर्थात् आ+ स्रव। 'आ' का अर्थ चारों ओर से और 'सव' का अर्थ स्रवना, रिसना या धीरे-धीरे प्रवेश करना । अर्थात् जो धीरे-धीरे प्रवेश कर रहे हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। दो वस्तुएँ हैं जो इस प्रकार प्रवेश कर रही हैं—एक तो मेरा अपना चैतन्यात्मक अपराध और दूसरा वह जड़ पदार्थ, जो कि इसके कारण से कुछ एक विशेष निमित्त बनने की शक्ति को लेकर आता है। इसे 'कर्म' कहते हैं। मेरा अपराध मेरे जीवन में प्रवेश पाता है और कर्म शरीर में। मेरे अपराध से आगे बताये जाने वाले मेरे संस्कारों का निर्माण होता है औन इन कर्मों से सूक्ष्म-शरीर का अथवा कार्मण-शरीर का।। ___ वास्तव में सूक्ष्म शरीर ही मेरा बन्दीगृह है, स्थूल-शरीर नहीं। यदि ऐसा न होता तो इस शरीर को आत्महत्या के द्वारा त्यागकर सम्भवत: मैं इस बन्दीगृह से निकल भागता, और इस प्रकार इसका अभाव हो जाने पर इस सम्बन्धी इच्छाएँ मुझे प्रकट न हो सकतीं, मैं शान्त हो जाता । परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं है । स्थूल शरीर का विच्छेद हो जाने पर इच्छाओं का विच्छेद नहीं होता, और यह कामर्ण-शरीर पुन: नये शरीर का निर्माण कर देता है। अत: शान्ति का उपाय स्थूल-शरीर का विच्छेद करना नहीं है, बल्कि कुछ और है। ___ यदि उस सूक्ष्म शरीर का किसी प्रकार विच्छेद कर दिया जाए तो सहायक के अभाव में यह स्थूल शरीर भी टिका नहीं रह सकता, त्यागपत्र देकर स्वयं चला जाता है, और उसका यह त्यागपत्र सदा के लिये होता है। प्रतिदिन-वाली यह मृत्यु वास्तविक नहीं है, तब इसकी मृत्यु वास्तविक होती है। यह फिर मुझको बन्दी नहीं बना सकता, परन्तु उस सूक्ष्म-शरीर का विच्छेद कैसे किया जाए, सो विचारनीय है। सूक्ष्म व अदृष्ट होने के कारण तथा दूध-पानीवत् मेरे साथ मिलकर पड़ा होने के कारण, किसी यन्त्र के द्वारा उसका विनाश किया जाना असम्भव है । अग्नि के द्वारा भी उसे भस्म नहीं किया जा सकता । वास्तव में उसका विच्छेद करना मेरे बसकी बात नहीं। जिसे मैं छू व देख तक नहीं सकता, उसके विच्छेद करने का स्वप्न देखना भ्रम है । हाँ मैं उस अपराध का विच्छेद अवश्य कर सकता हूँ जिसके कारण से कि इसका प्रवेश हो रहा है। ___ अपराध को करने वाला स्वयं मैं हूँ और वह अपराध तत्क्षण व्याकुलता के रूप में मेरे अनुभव में आ रहा है । मैं उससे भली भाँति परिचित हूँ। उसे करने का व न करने का मुझे पूरा अधिकार है और यदि मैं स्वयं अपराध न करूँ तो कोई शक्ति जबरदस्ती मुझे अपराध करने के लिये बाध्य नहीं कर सकती। इन उपरोक्त कर्मों का दास बना आज का जगत अपने को उस सूक्ष्म शरीर के आधीन मानता है। “मुझसे तो अपराध वह करा रहा है। जब तक वह रास्ता न देगा, मैं क्या कर सकता हूँ ? उसका उदय होगा तो मुझे अपराध करना ही पड़ेगा। मैं क्या करूँ ? मैं स्वयं तो अपराध करना चाहता नहीं, पर यह मेरा पीछा छोड़ता नहीं। यदि गुरुदेव दया करके इससे मेरा पीछा छुड़ा दें तो मैं अपराधी कभी न बनें।" और इस प्रकार अपना दोष दूसरों के गले मँढ़ता है, स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयत्न करता है। अपने अपराध को स्वीकार करने तक का साहस जिसमें नहीं है, वह बेचारा पामर व्यक्ति कभी यह नहीं विचारता कि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आस्रव-तत्त्व ३. द्विविध अपराध क्या इस प्रकार तुझे शान्ति मिलनी सम्भव है ? यह शरीर तो सदा से है और सदा रहता रहेगा, तुझसे अपराध कराता रहेगा । स्वभावत: ही उस तेरे अपराध से उसमें और वृद्धि होती रहेगी, इस प्रकार न कभी उसका विनाश होगा न तेरे अपराध का । तू सदा बन्दी बना खाता ही रहेगा ठोकरें, इस व्याकुलतामय जगत की । प्रभो ! अब विपरीत बुद्धि को छोड़, तुझे आज प्रकाश मिल रहा है, कुछ देख, अपने अपराध को स्वीकार कर और इसे तोड़ने का प्रयत्न कर। इस पर तेरा बस चल सकता है, उस बेचारे जड़ शरीर को अपने अपराध के कारण क्यों कोसता है । ७७ प्रकाश को पीटने से प्रकाश का अभाव नहीं हो जाता, दीपक बुझाने से ही होगा। गोली का उठाकर छेतने से गोली लगने का भय नहीं जाता, उसके लिये व्याध (शिकारी) पर आघात करना होता है, जैसाकि सिंह करता है । परन्तु श्वान उससे उल्टा व्याधपर न झपटकर गोली पर झपटता है, तथां मारने वाले पर न झपटकर लाठी पर झपटता है। भला विचारो तो, लाठी बेचारी का क्या दोष ? व्यक्ति उठाकर लाया तो वह आई, उसे घुमाया तो वह घूम गई । उसी प्रकार इस बेचारे जड़ शरीर का क्या दोष ? तूने अपराध करके उसे बुलाया तो आकर बैठ गया । अपराध करने में ही रस मान- मानकर तू उसे घुमाता है तो घूम जाता है, अर्थात् उदय में आ जाता है। वह बेचारा तो तेरा दास है, जैसी तुझसे आज्ञा पाता है वैसा करता है। वेतन न दे तो स्वयं भाग जायेगा। नया-नया अपराध करके आनन्द मानना ही उसको वेतन देना है । प्रभु जाग ! देख तू सिंह की सन्तान है, श्वान की नहीं, लाठी को मत पकड़, उस बेचारे को मत कोस, मूल पर आघात कर, अपने अपराध को देख और उसको स्वीकार कर । 1 भगवन् ! तू स्वतन्त्र है। स्वपर- भेदविज्ञान किया है, फिर भी अपने को इस बेचारे जड़ कार्मण शरीर के आधीन क्यों मानता है ? 'जो यह करायेगा वही तुझे करना पड़ेगा', अर्थात् तुझमें अपना तो कुछ बल है ही नहीं । कोई कह रहा है कि ईश्वर जैसा करायेगा वैसा करना पड़ेगा और तू कह रहा है कि कर्म जैसा करायेगा वैसा करना पड़ेगा; बात तो एक ही रही, केवल नाम का भेद रहा। उसका ईश्वर आकाश में बैठा कोई काल्पनिक व्यक्ति है, और तेरा ईश्वर कर्म । अनादि से परतन्त्र दृष्टि बनी रही, व्याकुलता का निशाना बनता रहा, आज सौभाग्य से गुरुदेव का उपदेश प्राप्त हुआ । यहाँ भी पुरानी टेव न छोड़ी। उसी परतन्त्रता का पोषण किया। कुत्ते की दुम को बारह वर्ष नलकी में रखा पर जब निकली टेढ़ी ही निकली। अपनी स्वतन्त्र शक्ति को अब तक नहीं पहिचाना, गुरुदेव के बताने पर भी विश्वास नहीं करता । कैसे होगा कल्याण ? क्या कहा ? गुरुदेवपर व उनकी वाणी पर तो पूरा विश्वास है ? पर बात तो वास्तव में ठीक नहीं जँचती । केवल कहने मात्र का विश्वास हो तो हो, पर सच्चा विश्वास तो है नहीं । विश्वास वह होता है जिसका प्रतिबिम्ब जीवन में दिखाई दे । जीवन में तो अविश्वास ही दिखाई दे रहा है। 'आपकी बात स्वीकार है, पर करूँगा तो वही जो करना है' कुछ ऐसी बात है । फिर बता कैसे कहें कि विश्वास है ? क्या भेद विज्ञान इसी का नाम है कि 'शरीर जुदा मैं जुदा ' इतना कहा और हो गया ? यदि पूर्वकथित रूप से गुरुदेव के समझाने पर शरीर में और अपने में षट्कारकी भेद का निश्चय किया है, तो बता तू कैसे कह सकता है कि कर्म तेरा काम कर सकेंगे ? भाई ! अपना अपराध करने वाला तू स्वयं है, स्वतन्त्र रहकर करता है, अपने द्वारा करता है। कर्म बेचारे का क्या दोष ? यदि तेरे-निकट पड़ा भी है तो पड़ा रहने दे, क्या माँगता है तेरा ? वह अपना काम करता रहे और तू अपना वह तुझे काम करने से तो रोकता नहीं। जिधर चाहे जा, जिस प्रकार चाहे विचार कर, चाहे तो इन अपराधों में रस ले, चाहे तो न ले । ये बेचारे जड़ तुझे क्या कहते हैं ? अब गुरुदेव की शरण में आया है । स्व-परका स्वरूप निश्चय किया है तो बस पर को पर समझ, उस पर से लक्ष्य हटा और 'स्व' पर लक्ष्य कर । गुण या दोष जो कुछ भी देखना है स्व में देख, स्व में ही पुरुषार्थ कर, तभी कल्याण सम्भव है। कर्मों से भिक्षा माँगकर भिखारी बना हुआ क्यों अपने कुल को कलंक लगाता है ? आ तुझे समझायें, वह तेरा अपराध क्या है, जो क्षण प्रति क्षण बराबर तेरे जीवन में प्रवेश कर रहा है। ३. द्विविध अपराध — शान्ति के घातक तथा व्याकुलता के कारणभूत आस्रव का कथन चलता है। जड़ आस्रव अर्थात् कर्मास्रव की बात हो चुकी । अब मुख्य आस्रव की बात चलेगी जो प्रत्यक्ष रूप से शान्ति का घातक ही नहीं बल्कि स्वयं व्याकुलता स्वरूप है, जो अपने अनुभव में आता है, जो स्वयं मेरा ही कोई दुष्कृत है, जिसको स्वतन्त्र रूप मैं कर रहा हूँ, और इसलिए यदि चाहूँ तो स्वतन्त्र रूप से रोक भी सकता हूँ। यह आस्रव भी यद्यपि कर्म कहलाता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ १३. आस्त्रव-तत्व ४. रागद्वेष पर यह जड़ात्मक नहीं है, चेतनात्मक है, मेरी ही कोई अवस्था-विशेष है। क्योंकि व्याकुलता स्वरूप है इसलिये शान्ति के प्रति कर्त्तव्य नहीं है, अपराध है। यह अपराध भी दो प्रकार का है, शुभ और अशुभ । शुभ है पुण्य और अशुभ है पाप । पहले अशुभ अर्थात् पाप की बात चलनी है। 'आस्रव' जो सर्व ओर से प्रतिक्षण मुझमें प्रवेश पा रहा है, अर्थात् वह अपराध जो प्रतिक्षण मैं किये जा रहा हूँ, इस बात से बिल्कुल बेखबर कि इससे मुझे शान्ति मिलेगी कि अशान्ति । जैसा कि साक्षात् अनुभव में आ रहा है, मैं प्रतिसमय कोई न कोई नई-नई क्रिया मन से, वचन से व काय से किया करता हूँ । यदि विचार करके देखू तो उन सब क्रियाओं का मूल अन्तरंग में उठने वाले वे विकल्प हैं, जो इन्द्रिय-भोगों से कुछ न कुछ सम्बन्ध रखते हैं तथा उन भोगों के प्रति शृङ्खलाबद्ध इच्छाओं में से उत्पन्न होते हैं। मन में उठे हुए ये विकल्प ही इस शरीर को तथा जिह्वा को प्रेरित करके कोई न कोई शारीरिक या वाचिक क्रिया करने को बाध्य करते हैं। यदि मन में ये विकल्प न आयें तो शरीर व वचन से वैसी क्रियायें न हों। मन-वचन-काय की ये सब भोग-विषयक क्रियायें इच्छाओं के आधीन हैं तथा परम्परा रूप से इच्छा की उत्तेजक होने के कारण शान्ति की घातक हैं, स्वयं व्याकुलतारूप हैं। अत: शान्ति-पथगामी मेरे लिये सब अपराध-स्वरूप हैं, पाप हैं । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म तथा परिग्रह ये पाँचों पाप इसी के अन्तर्गत हैं। ४. रागद्वेष-शरीर की चमड़ी को सुन्दर देखकर, इसे हृष्ट-पुष्ट देखकर, इसे सुन्दर वस्त्रालंकार देखकर, इसको चिकना-चुपड़ा देखकर न मालूम क्यों मुझे एक प्रकार का आनन्द सा आता है । रसीले व मिष्ट पदार्थों को खाते, सुगन्धित व स्वादिष्ट पदार्थों का भक्षण करते न मालूम क्यों मुझे एक प्रकार का आनन्द सा आता है । अकस्मात् ही किसी पुष्प की या किसी मिष्टान्न की या इतर-तेल आदि की सुगन्धि नाक में पड़ते ही न मालूम क्यों अपने को मैं उस ओर कुछ खिंचा खिंचा सा अनुभव करने लगता हूँ। बाजार में कोई सुन्दर चीज या मूर्ति देखकर, या हलवाई की दुकान में सजी हुई मिठाई देखकर, कोई सुन्दर रेडियो, ग्रामोफोन आदि देखकर, सिनेमा के चलचित्र पर कुछ चलते फिरते चित्र देखकर, या थियेटर-सर्क सके कछ सीन देखकर.या नत्य देखकर या किसी सन्दर स्त्री का मख देखकर. या अपने किसी परम मित्र को देखकर, न मालूम मन में कहाँ से उथल-पुथल मचाता यह एक आकर्षणसा आ घुसता है कि किसी प्रकार मैं ये पदार्थ प्राप्त कर पाऊँ तो कितना अच्छा हो? कहीं से आती हुई मीठे राग की ध्वनि तथा मेरी प्रशंसा के शब्द न जाने क्यों मेरे कान खड़े कर देते हैं, और मुझे सब काम छोड़कर अपनी ओर ही ध्यान देने तथा कुछ अभिमान करने को बाध्य कर देते हैं ? अन्य भी अनेकों प्रकार के ये पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी विषय मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनमें मुझे कुछ आनन्द सा भासता है । साक्षात् उनकी प्राप्ति तो दूर, उनकी कल्पना मात्र से ही अन्तरंग में कुछ मिठाससा वर्तता है । विषयों के प्रति इस प्रकार के आर्कषण का नाम 'राग' है और इस जाति के ये विषय 'इष्ट-विषय' कहे जाते हैं। अधिक गरमी में या धूप में चलते हुए, या सर्दी में काम करते हुए, मैले या खुरदरे वस्त्र शरीर पर धारण करते हुए, शरीर पर मैल जमी जानते हुए, इस पर किसी प्रकार चोट आदि खाते हुए अथवा इस पर मच्छर आदि के काटने पर न मालूम क्यों कुछ पीड़ासी, कुछ हटावसा, कुछ बुरा सा प्रतीत होने लगता है ? कोई भी कड़वा या कसैला या रूखा पदार्थ खाते हुए, या स्वत: ही मुँह में से या किसी कुष्टी के शरीर में से या कहीं अन्यत्र से किसी प्रकार की दुर्गन्ध नाक में आ जाने पर, न जाने क्यों मुँह फेरने को या शीघ्र से शीघ्र वहाँ से हट जाने को जी चाहता है ? किसी कुरूप से कुष्टी को देखकर, या किसी भी मैले-कचैले व्यक्ति को देखकर, या विष्टा को देखकर, अपने किसी शत्रु को देखकर अथवा किसी रोगी को देखकर न जाने कहाँ से कुछ घृणा सी, कुछ भय सा उत्पन्न होने लग जाता है ? गाली का या व्यंग का कोई वचन सनकर या अपनी निन्दा का वचन सुनकर या वैसे ही कोई कर्कश सा शब्द सुनकर न जाने क्यों कुछ बुरासा लगने लगता है, क्यों क्रोध सा आने लगता है ? तथा अन्य भी अनेकों प्रकार के ये पाँच इन्द्रियों सम्बन्धी विषय मुझमें कुछ अदेखस का-सा, कुछ हटाव का-सा, कुछ क्रोध का-सा, कुछ बुरा सा भाव उत्पन्न कर देते हैं। उनमें कुछ मुझे हटावसा वर्तता है । साक्षात् उनकी प्राप्ति तो दूर, उनकी कल्पना मात्र से अन्तरंग में कुछ हलचल-सी मच जाती है । विषयों के प्रति इस प्रकार के अदेखसके भाव का नाम 'द्वेष' है और इस जाति के ये विषय अनिष्ट विषय' कहे जाते हैं। इष्ट विषयों की प्राप्ति में राग तथा उनकी अप्राप्ति या विनाश में द्वेष होता है । और इसके विपरीत अनिष्ट विषयों की प्राप्ति में द्वेष तथा अप्राप्ति व विनाश में राग वर्तता है । बस यह राग द्वेष ही मझे प्रतिक्षण मन द्वारा इनकी यथायोग्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. आस्त्रव-तत्त्व ५.क्रिया की अनिष्टता प्राप्ति व अप्राप्ति सम्बन्धी कल्पनायें करने के लिये, उपाय सोचने के लिये बाध्य करते हैं । वचन द्वारा किसी को प्रेमपूर्ण वाक्य कहने के लिये और किसी को गाली आदि देने के लिये मजबूर करते हैं । शरीर द्वारा इधर दौड़ उधर दौड़, इधर आ उधर जा, ऊपर चढ़ नीचे उतर, हाथ उठा हाथ घुमा, झुकने या सीधे खड़े रहने, बैठने या लेटने आदि-रूप कार्य करने की प्रेरणा देते हैं । उन-उन विषयों की प्राप्ति हो जाने पर ही ये कार्य होते तो भी खैर थी, परन्तु उनकी निकट सम्भावना न होने पर भी शेखचिल्ली की भाँति ये क्रियायें बराबर चला करती हैं। कोई एक ही क्रिया बहुत देर तक चलती रहती हो, सो भी नहीं, प्रतिक्षण बदलती रहती है । अगले-अगले क्षणों में पहले से अपूर्व ही कोई नई क्रिया हुआ करती है। ५.क्रिया की अनिष्टता-प्रभो ! सोचा है कभी इस सम्बन्ध में कि यह क्या है ? यही तो है वह अपराध जिसे विकल्प नाम से कहा जाता है । आगे-आगे के प्रकरणों में आने वाले 'इन्द्रिय विषय' 'रागद्वेष' 'विकल्प' आदि शब्दों का यही तो तात्पर्य है । क्या इन क्रियाओं को करते हुए प्रतिक्षण व्याकुलता सी नहीं भासती है ? क्या बराबर होती रहने वाली इन क्रियाओं से तू कुछ थका-थका सा नहीं महसूस करता है ? साक्षात् व्याकुलतारूप इन क्रियाओं में फिर भी तू बड़ी लगन से प्रवृत्ति करता है, महान आश्चर्य है । वास्तव में तूने आजतक विचारकर देखा ही नहीं कि ये क्रियायें सुख रूप हैं कि दुःख रूप । विचारता भी कैसे, इन दो महा सुभट 'राग' व द्वेष' की असीम इच्छा-सेना से कौन भयभीत नहीं हो जाता? इन इच्छाओं से संतप्त ही तू आज तक बिना विचारे, किये जा रहा है यह कार्य, प्रतिक्षण नया-नया अपराध । यदि एक क्षण को भी इधर ध्यान दे तो सदा के लिये इससे मुक्ति मिल जाये, इन विकल्पों से छुट्टी मिल जाए। फिर ये कार्य करने की आवश्यकता ही न पड़े । इसलिये वास्तव में इच्छायें करना ही वह अपराध है, जिसके प्रति कि संकेत करना इष्ट है। स्व व पर में भेद-ज्ञान न होने या झूठा भेद-ज्ञान होने के कारण ही इन पूर्व कथित पदार्थों का आश्रय वर्तता है, जिनकी महिमा से अपरिचित रहने के कारण इस शरीर या भोग-सामग्री आदि पर पदार्थों की महिमा तेरी दृष्टि में आती है। यदि यह समझ लेता कि इन पदार्थों से तेरा कोई कार्य सिद्ध होने वाला नहीं है, क्योंकि ये पर पदार्थ हैं, षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र हैं, तो इन क्रियाओं को अवकाश न रहता। यदि यह समझ लेता कि ये षट्कारकी रूप से स्वतन्त्र पर पदार्थ तेरे आधीन नहीं हैं, तो इनकी प्राप्ति व विनाश की इच्छा तुझमें जागृत न होती। यदि यह समझ लेता कि ये षट्कारकी रूप से स्वयं अपना सर्वकार्य करने को समर्थ हैं, तो तुझे अन्य की सहायता करने की आवश्यकता न पड़ती। यदि यह समझ लेता कि षटकारकी रूप से स्वतन्त्र तू स्वयं शान्ति का भण्डार है तो इन वस्तुओं में अपनी शान्ति की खोज करने की भूल कभी न करता । यदि यह समझ लेता कि षटकारकी रूप से स्वतन्त्र तू इनके आधीन नहीं है तो कदापि इनका आश्रय लेने का प्रयत्न न करता । स्वतन्त्र रूप से, अपने द्वारा, अपने लिये, अपने में से, अपने ही स्वभाव के आधार पर प्रयत्न करता शान्ति प्राप्ति के लिये, और शीघ्र ही सफल हो जाता। विकल्प मिट जाते, सर्व इच्छाओं का लोप हो जाता और ये सुभट राग व द्वेष अपना रास्ता नापते दिखाई देते। भाई ! जरा तो बुद्धि से काम ले । इच्छाओं की ज्वाला में घी डालने वाली ये तेरी मानसिक, वाचिक व शारीरिक क्रियायें तेरे लिये हितकारी हैं कि अहितकारी, सुख रूप हैं कि दुःख रूप ? इच्छाओं का दास बनकर अपनी प्रभुता को भूल गया, इस भूल की महिमा गिनता है, इससे आकर्षित होता है, अपनी शान्ति की बराबर अवहेलना किये जा रहा है, अपमान किये जा रहा है, भोगों का रूप धारण किये इन इच्छाओं रूपी वेश्याओं को घर में वास दिये जा रहा है। पर धन्य है वह पतिभक्ता शान्ति रानी, जो अनादि काल से अपमानित होते हुए भी आज तक तेरे घर में बैठी है । अब भी उसकी ओर देख । सुन ! कितनी मधुरता से यह तुझे अपनी ओर बुला रही है । “स्वामिन् ! आइये, एक बार केवल एक बार मेरे मुख पर दृष्टि डाल लीजिये, फिर भले चले जाना उधर ही । मैं अपको रोकूँगी नहीं। इतना ही खेद है कि जब से आये हो एकबार भी तो आँख उठा कर मेरी ओर नहीं देखा।" भाई ! ठीक तो कहती है, एक बार देखने में क्या हर्ज है ? नहीं अच्छी लगेगी तो छोड देना। यदि निर्विकल्प इस शान्ति के दर्शन करे तो विकल्पात्मक इस मन-वचन-काय सम्बन्धी क्रिया को अपराध स्वीकार किये बिना न रहे और तेरा जीवन बदल जाए । जो जब इच्छाओं की ज्वाला में स्वाहा होने जा रहा है, वही फिर शान्ति-सुधा के निर्मल सरोवर में स्नान करने लगे। . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव १. पुण्य भी अपराध; २. पुण्य भी पाप; ३. इच्छा दर्शन; ४. पुण्य में पाप; ५. ज्ञानी का पुण्य; ६. अभिप्राय का फेर;७. पुण्य समन्वय; ८. मनोविज्ञान; ९. चतुर्विध क्रिया। १. पुण्य भी अपराध-शान्ति के घातक तथा इच्छा-ज्वाला में नित्य मुझे भस्म करने वाले आस्रव की बात चलती है । इसके दो अंगों में से अशुभ आस्रव अर्थात् अशुभ अपराध की बात हो चुकी। अब चलेगी शुभ अपराध की बात । इस प्रकरण को प्रारम्भ करने से पहले यह बात यहाँ बता देनी आवश्यक है कि इस प्रकरण में धर्म-कर्म सम्बन्धी पुण्य रूप क्रियाओं का निषेध करने में आयेगा। उसका अभिप्राय ठीक-ठीक ग्रहण कर पर महान अनर्थ हो जायेगा। पण्य क्रियाओं के निषेध का यह अर्थ नहीं है कि उन्हें छोडकर लौकिक पाप-कार्यों में प्रवृत्ति करने लगे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि यद्यपि साधक दशा में अशुभ राग को छोड़ने के लिये शुभ राग का आश्रय कथंचित् इष्ट है, पर शुभ राग से भी धीरे-धीरे हटते हुए अधिकाधिक स्वरूप-निमग्न होने का प्रयत्न कर, यहाँ तक कि अन्त में जाकर इनको सर्वथा तजकर ध्यानस्थ हो जा। इनकी अनिष्टता दिखाने का यही प्रयोजन है कि कहीं इनको ही जीवन का सार मानकर तू इन ही में उलझकर न रह जाए, अर्थात् पुण्य में रस लेने न लग जाए। क्योंकि ऐसा होने पर तेरा पतन अवश्यम्भावी है। वर्तमान की अल्प स्थिति में हेय बुद्धि पूर्वक, अपने प्रयोजन की किञ्चित् सिद्धि करने के लिये इन शुभ धार्मिक क्रियाओं का आश्रय लेना आवश्यक है, यह बात आगे के प्रकरण में स्पष्ट बताई जायेगी। कल के प्रकरण में बताई गई ही वे मन-वचन-काय की क्रियायें हों, ऐसा नहीं है। धर्म-कर्म के सम्बन्ध में भी उनकी क्रियायें चला करती हैं। उन क्रियाओं का आधार भी किसी विशेष जाति की इच्छायें ही हैं और इच्छा मूलक होने के कारण इन क्रियाओं का समावेश भी आस्रव या अपराध के प्रकरण में किया जा रहा है, क्योंकि इच्छा व्याकुलता की जननी है और व्याकुलता सर्व ही अपराध रूप है। धर्म-कर्म सम्बन्धी वे क्रियायें मन के द्वारा, वचन के द्वारा या काय के द्वारा, सच्चे देव की पूजा व भक्ति के रूप में, अथवा शान्त-मूर्ति वीतरागी गुरु की उपासना के रूप में अथवा शान्तिपथ-प्रदर्शक प्रवचन के अध्ययन मनन के रूप में, अहिंसा, सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य व परिग्रह-त्याग आदि व्रतों के रूप में प्राणियों पर दया के रूप में धर्मोपदेश के रूप में, परोपकार के रूप में, देश-सेवा के रूप में, साधर्मी जनों पर प्रेम के रूप में, तप-जप शील-संयमादि के रूप में, इत्यादि अनेकों रूपों में, मैं नित्य ही किया करता हूँ। इन सब क्रियाओं का वर्णन आगे क्रम से किया जाने वाला है। यहाँ केवल इतना मात्र दर्शाना इष्ट है कि ये सर्व क्रियायें आस्रव हैं, अपराध हैं। ओह ! क्या कहा जा रहा है ? मानो बाण ही फेंके जा रहे हैं । कलेजा छलनी हुआ जाता है ये वचन सुनकर । धार्मिक क्रियायें और अपराध ? निकाल दो इस वक्ता को बाहर, कौन से देश की बात सुनाने आया है, नास्तिक कहीं का। बस-बस बन्द करो यह वचनालाप, ऐसी बात सुनने को हम तैयार नहीं । जप, तप, शील, संयम, पूजा, दान, भक्ति, सेवा सब अपराध ? अरे रे ! कितना कठोर है तेरा हृदय ? प्राणियों की रक्षा करना और अपराध ? हम से नहीं तो ईश्वर से तो डर । और इस प्रकार की अनेकों बातों का मानो तूफान ही उठ गया हो, आप सबके हृदय में । ऐसी बात कभी न सुनी, न देखी। एक अनोखी बात । इतनी कठिनाई उठा-उठाकर जिन क्रियाओं को बड़े-बड़े योगीश्वरों ने किया, आज उन्हें अपराध बताया जा रहा है । यह कोई नई जाति का धर्म चलाना चाहता है, सबको ही नास्तिक बनाना चाहता है। शान्त हो प्रभु ! शान्त हो ! यह नास्तिक बनाने की बात नहीं है, शान्ति दिलाने की बात है । तेरा कोई दोष नहीं, वास्तव में कभी इतनी निर्भीकता से ऐसी बात का न सुनना ही तेरे इस क्षोभ का कारण है । 'मन-वचन व काय की ये क्रियायें अत्यन्त हितरूप हैं, धर्मरूप हैं, मोक्ष देने वाली हैं, इस प्रकार की तेरी पुरानी धारणायें ही तेरे इस क्षोभ की Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ३. इच्छा दर्शन कारण हैं। शान्त होकर सुन, तू स्वयं पछतायेगा अपनी इस भूलपर । बात कठिन नहीं है समझ में आ जायेगी। अब तक सुनी नहीं, इसलिये समझी नहीं। अब शान्तचित्त होकर सुन । मेरे कहने मात्र पर विश्वास न कर, तेरा अन्त:करण स्वयं 'हाँ' कर दे तो स्वीकार कर नहीं तो न कर । मेरी बात मेरे पास ही तो रहेगी, तुझसे कुछ छीन तो न लूँगा। २. पुण्य भी पाप-कल बताई गई अशुभ क्रियाओं को तो दुनिया ही पाप बताती है, अपराध बताती है, परन्तु देखो वीतराग के मार्ग की अलौकिकता कि धार्मिक क्रियाओं को भी अपराध बताया जा रहा है, पाप कहा जा रहा है । पुण्य व पाप में अन्तर देखने वाला शान्ति का उपासक नहीं है, यह कहा जा रहा है । कुछ आश्चर्य की बात है । कितनी निर्भीकता है वीतरागी गुरुओं की बात में ? सर्व लोक एक ओर और वे अकेले एक ओर, बेधड़क धार्मिक क्रियाओं को पाप बताने वाले । यहाँ तक कह दिया है ज्ञानीजनों ने कि भगवन् ! मुझे सब कुछ हो, बड़े से बड़ी बाधा भी स्वीकार है, पर पुण्य कभी न हो। अरे ! कैसी अजीब बात है यह कि जिस पुण्य को, जिस धर्म को सब चाहते हैं उसे ज्ञानी इन्कार करते हैं। याद होगी आगरे के विरागी गृहस्थ श्री बनारसी दास जी के जीवन की वह घटना जब उन्होंने बादशाह अकबर से यह माँगा था कि अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो कृपया आज के पीछे मुझे अपने दरबार में न बुलाना । और आश्चर्य में पड़ गया था सारा दरबार उस समय । क्या माँगा इसने? पागल हो गया है शायद ? जिसकी नज़र के लिये आज सारा देश तरसता है, वह व्यक्ति उसके पास बुलाने पर भी आना नहीं चाहता । बस ऐसी ही अटपटी बात है ज्ञानियों की । सामान्य मनुष्य को यह रहस्य समझ में नहीं आ सकता और वही हालत है आपकी। परन्तु घबराइये नहीं, गुरुदेव की शरण में आये हो, अज्ञानी न रहोगे, इस रहस्य को अवश्य समझ लोगे। विषय समझने से पहले यह बात अवश्य हृदयंगत कर लीजिये कि सिद्धान्त वही होता है जो सर्वत्र समान रीति से लागू हो। कहीं लागू हो जाय और कहीं नहीं, उसे सिद्धान्त नहीं कहते, वह कल्पना है, पक्षपात् है। वैज्ञानिक मार्ग में पक्षपात् को अवकाश नहीं, भले ही पहले की पोषी सर्व धारणाओं का त्याग क्यों न करना पड़े। 'सत्य' सत्य ही रहेगा। आपकी कल्पनाओं के अनुकूल हो तो सत्य, नहीं तो असत्य, ऐसा सत्य का लक्षण नहीं है। कोई भी स्वीकार न करे तो भी 'सत्य' तो सत्य है । आपकी कल्पनाओं के कारण सत्य न बदलेगा, सत्यके कारण आपको ही धारणायें बदलनी होंगी। यह तो विचारिये कि यदि आपकी धारणायें व क्रियायें सच्ची होती तो आज दुःखी क्यों होते ? अधिक नहीं तो कुछ न कुछ शान्ति तो अवश्य होती और प्रारम्भ से ही तो यह बताया जा रहा है कि वास्तविक सिद्धान्त व रहस्य से अपरिचित तेरी सब धारणायें भूल के आधार पर टिकी हुई हैं। वहाँ तो सुनकर क्षोभ नहीं आया था, यहाँ क्यों आ गया? प्रतीत होता है कि अन्य धारणाओं की अपेक्षा इस धारणा की शक्ति सबसे प्रबल है, इसकी पकड़ बहुत मजबूत है । इसलिये ही सर्व शक्ति लगाकर इसे हटाने का प्रयत्न किया जा रहा है । यह बात तेरे हित के लिये है, अहित के लिये नहीं। ३. इच्छा दर्शन-देखिये पहले तो यह याद कीजिये कि आप क्या प्रयोजन लेकर निकले हैं ? 'शान्ति' । अच्छा तो अब बताइये कि शान्ति का क्या लक्षण आपने स्वीकार किया है ? 'निरभिलाषता या निर्विकल्पता।' ठीक । अब यह बताइये कि आप अभिलाषायें चाहते हो या उनका निरोध? 'उनका निरोध'। शाबाश. शान्ति के उपासक के मुँह से इसके अतिरिक्त और निकल भी क्या सकता है? सिद्धान्त को तो आप खूब समझे हुये हो, परन्तु फिर भी उपरोक्त बाधा क्यों ? खैर धीरे-धीरे दूर हो जाएगी। अब यह बताइये कि यदि कुछ इच्छाओं को निकालकर कुछ इच्छायें बाकी छोड़ दी जायें तो ? 'किसी भी जाति की एक भी इच्छा नहीं रहनी चाहिये।' वाह, कितना सुन्दर उत्तर है। अनेकों पीड़ायें पहुँचाकर जब थक गये तो अंग्रेजोंने भी यही प्रश्न पूछा था गान्धी से कि कुछ स्वतन्त्रता तो ले लो और कुछ हमारे हाथ में रहने दो । उस समय गान्धी ने भी यही उत्तर दिया था जो आज आपने दिया है । “चाहे आप स्वर्ण के भी बनकर आयें, चाहे मुझे सब कुछ देने को तैयार हो जायें पर मुझसे यह आशा न करना कि मैं परमाणु मात्र भी अधिकार तुम्हारे हाथ में रहने दूं। मुझे पूर्ण स्वतन्त्रता चाहिये, और पूर्ण ही लूँगा, रत्ती भर कम नहीं।” अच्छा निर्णय हो चका कि सब इच्छाओं का अभाव करना ही आपका प्रयोजन है । अब याद रखना इसे, आगे आ जाइये अब मूल विषय पर । विचारिये कि उपरोक्त धार्मिक क्रियायें इच्छा के बिना की जाती हैं या इच्छा सहित ? देखिये हमारी आज की कोई क्रिया भी चाहे पुण्य रूप हो या पापरूप, चाहे धर्मरूप हो कि अधर्मरूप, बिना इच्छा के नहीं हो रही है । यह बात अलग है कि इच्छायें कई जाति की होती हैं, अशुभ भी होती हैं, और शुभ भी। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ३. इच्छा दर्शन अशुभ इच्छायें कहते हैं भोगाभिलाष को, जिनका कथन कि कल के प्रवचन में आ चुका है, और शुभ इच्छायें कहते हैं। भोगाभिलाष से निरपेक्ष देव पूजा या गुरुसेवा आदि उपरोक्त कार्य करने की इच्छा को । भोगाभिलाष के अभाव के कारण ही इन क्रियाओं को निष्काम-कर्म कहते हैं, जिसका कि गीता में कथन आया है। परन्त विचारिये कि क्या भोगाभिलाष का अभाव हो जाने के कारण उन क्रियाओं को निरभिलाष मान लें ? यदि इन धार्मिक क्रियाओं को भी करने की अभिलाषा न होती तो बताइये उन क्रियाओं में प्रवृत्ति ही कैसे होती ? मेरी हर शुभ या अशुभ क्रिया के पीछे किसी न किसी इच्छा की प्रेरणा अवश्य होती है। अब देखना यह है कि वे इच्छायें जो इस धर्म-क्षेत्र में मेरे अन्तरंग में उत्पन्न होकर मुझे वे क्रियायें करने की प्रेरणा दे रही हैं, कितने प्रकार की हैं। ये सब उपरोक्त क्रियायें अनेकों प्रकार की इच्छाओं व अभिप्रायों से प्रेरित होकर की जा रही हैं। विचारने से सब स्पष्ट हो जाती हैं। १. पहली इच्छा तो अत्यन्त स्थल भोगों की प्राप्ति के प्रति है। जिसके कारण कि उन क्रियाओं का रूप अन्तरंग में कुछ ऐसा सा होता है कि इन क्रियाओं को करने से मुझे धर्म होगा। धर्म का फल धन-धान्य की प्राप्ति, राज्य सम्पदा, सुन्दर स्त्रियें, आज्ञाकारी पुत्र तथा सेवक आदि ही तो हैं, इसलिये ये क्रियायें मुझे इष्ट हैं । अथवा प्रभु मुझपर प्रसन्न होकर मुझे उपरोक्त सम्पदा प्रदान कर देंगे, मुकदमा जिता देंगे, परीक्षा में सफल करा देंगे, शत्रु पर विजय करा देंगे इत्यादि । इस प्रकार की इच्छायें रखकर पूजा करना, छत्र चढ़ना, बोलत-कबूलत करना आदि अनेकों ऐसी स्थूल क्रियायें होती हैं जिनमें कि उनके अन्तरंग की इच्छायें स्पष्ट प्रकट हो जाती हैं। २. दूसरी इच्छा वह है जिसके आधार पर इस भव-सम्बन्धी भोगों का तो नहीं परन्तु अगले भवसम्बन्धी भोगों का अभिप्राय अन्तरंग में छिपा रहता है। उसका रूप कुछ इस ढंग का है-तिर्यञ्च व नरक गति तो बड़ी दुखदाई हैं, वहाँ तो धर्म-कर्म भी होना बड़ा कठिन है, किसी प्रकार देव गति मिले तो अच्छा, या भोग-भूमि मिले तो अच्छा । वहाँ सुख है, सर्व अनुकूल है, कोई चिंता नहीं है, जीवन सुखपूर्वक बीतेगा, इत्यादि । इस प्रयोजन की सिद्धि क्योंकि व्रत, उपवास, पूजा, प्रभावना, पात्रदान आदि के द्वारा बताई गई है, अत: ये क्रियायें मुझे इष्ट है ।" इस अभिप्राय-पूर्वक अधिकाधिक भक्ति, तप व दान आदि क्रियायें करता है । यद्यपि स्थूलत: बाहर में वह अभिप्राय पूर्ववत् प्रगट होने नहीं पाता, परन्तु बातबात में वह अवश्य प्रगट हो जाता है, इसलिये यह इच्छा भी स्थूल भोगों सम्बन्धी ही है। ३. तीसरी इच्छा वह है जिसके आधार पर स्वर्गादि सम्बन्धी न सही, पर मोक्ष सम्बन्धी अभिप्राय अन्दर में छिपा रहता है। परन्तु यहाँ मोक्ष का स्वरूप किसी अन्य प्रकार की कल्पनारूप रहता है। इसका रूप कुछ इस प्रकार का है-"देवगति के सुख को तो गुरुजन दुःख बताते हैं, अत: ठीक है, मुझे वह सब कुछ नहीं चाहिये, परन्तु मोक्ष के लिये तो स्वयं वे भी प्रयत्न कर ही रहे हैं। इन क्रियाओं का फल मोक्ष भी तो है ही। कहा जाता है कि मोक्ष में अनन्त सुख है, सर्व इन्द्रों के सुख से भी अनन्तगुणा । वाह वाह । इससे अच्छी बात क्या? वहाँ तो खूब मौज में रहूँगा। मोक्षशिला भी सुन्दर बताई जाती है, उस पर बैठने मात्र से ही बड़ा सुख मिलेगा। फिर अनन्तों सिद्ध वहाँ विराजमान हैं, उनको साक्षात् स्पर्श करने का अवसर मुझे मिलेगा। पवित्रात्माओं के स्पर्श से तथा उनके दर्शन से कितना सुख मिलेगा जबकि साधुओं तक के स्पर्श की व दर्शन की बड़ी महिमा गाई जाती है ? और कुछ न सही, लोक में ख्याति तो हो ही जायेगी कि बड़ा धर्मात्मा है । अत: मुझे इन धार्मिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करना इष्ट है।" यह अभिप्राय भी वचनों पर से जाना जा सकता है, जो कि स्थूल है। यद्यपि साधारणत: देखने पर भोगाभिलाष प्रतीत नहीं होती, परन्तु है यह भी भोगाभिलाष की कोटि में ही क्योंकि मोक्षसुख से अनभिज्ञ केवल शिलास्पर्श, सिद्धों का सम्पर्क और उनका स्पर्श भी इन्द्रियसुख ही है अतीन्द्रिय नहीं।। ४. चौथी इच्छा वह है जिसके अन्तर्गत विदेह-क्षेत्रों में जाकर सीमन्धर-प्रभु के दर्शन का अभिप्राय छिपा है। उसका रूप कुछ ऐसा है—“पुण्य करने से देव-गति में जाऊंगा और वहाँ से प्रभु के दर्शन को ।अथवा यहाँ से सीधा विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊंगा, प्रभु के दर्शन करके सम्यक्तव प्राप्त करूंगा, और फिर मोक्ष ।” परन्तु यहाँ पर भी मोक्ष का स्वरूप पहला ही रहा और सीमन्धर-प्रभु के दर्शन में भी उसी जाति के किसी सुख की कल्पना रही, या रही कोरी भावुकता । सो भी तीसरी इच्छा के समान ही है और यह वचनालाप से प्रगट हो जाती है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ४. पुण्य में पाप ५. पांचवी इच्छा है सच्चे मोक्ष की इच्छा, जिसका रूप कुछ इस प्रकार का है—"मुझे केवल शान्ति चाहिए और कुछ नहीं। मुझे मोक्षशिला लेकर क्या करना है ? दूसरे सिद्धों से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होगा? अत: मेरे हृदय में उस लोकशिखर वाले सिद्ध लोक के प्रति कोई आकर्षण नहीं । यह ठीक है कि वहाँ ही जाना होगा परन्तु इसकी कोई महत्ता नहीं। नरक लोक में जाकर भी यदि शान्ति रहती हो तो वह भी मेरे लिये मोक्ष है । और कहीं जाने की मुझे क्या आवश्यकता, मुझे तो यहाँ ही शान्ति बर्तती है, यही मेरी मोक्ष है, कुछ कमी है पूरी हो जायेगी। ये धार्मिक क्रियायें शान्ति की दृष्टि से कुछ प्रयोजनीय नहीं है । जो कुछ भी इनका फल बताया जाता हो पर मेरे लिये इनका कोई फल नहीं। जो इनका फल धनादि की प्राप्ति है वह मुझे चाहिये नहीं। वर्तमान में साक्षात् विकल्पात्मक होने से ये क्रियायें स्वयं अशान्तिरूप हैं। भले कुछ शान्तिरूप हों पर वह शान्ति नहीं जो निर्विकल्प समाधि में होती है। परन्तु फिर भी जब समाधि में स्थिर न रह सकू तब क्या करूं? अशान्ति में तो जाना ही होगा। कहीं भोगादिकों की ओर प्रवाह हो गया तो गजब हो जायेगा, सब कमाई लुट जायेगी। अत: 'सारा जाता देखिए तो आधा लीजिए बांट' इस उक्ति के अनुसार, चलो इन्हीं क्रियाओं में मन को उलझा दो।" इत्यादि प्रकार से इन क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है । यद्यपि यह प्रवृत्ति सच्ची है, यहाँ किसी भी रूप में भोगों की अभिलाषा की रेखा दिखाई नहीं देती, न ही बाह्य क्रियाओं से या वचन से कोई भी उस प्रकार का अभिप्राय प्रगट होने पाता है, तो भी 'मुझे किसी प्रकार शीघ्र शान्ति मिले', इतनी तो व्यग्रता है ही । बस इसीलिये अत्यन्त सूक्ष्म भी यह इच्छा ही तो है। अब सिद्धान्त लागू कीजिए। क्योंकि पाँचों में ही कोई न कोई इच्छा है, अत: सब धार्मिक क्रियायें अपराध हैं। इतनी विशेषता है कि नं०१ से नं० ४ तक की इच्छायें तो भोगाभिलाष सम्बन्धी होने के कारण अशुभ हैं, अनिष्ट है। इसलिए उन इच्छाओं-पूर्वक की गई वे क्रियायें बड़ा अपराध है । परन्तु नं० ५ की इच्छा अत्यन्त सूक्ष्म व भोगाभिलाष से निरपेक्ष होने के कारण तथा उस इच्छा का भी अन्तरंग में निषेध वर्तते रहने के कारण शुभ है तथा इष्ट है । उस सूक्ष्म इच्छा के साथ वर्तनेवाली क्रियायें शान्ति में इतनी बाधक नहीं पड़ेंगी, जितनी कि पहली चार । बल्कि साधक की, भोगाभिलाष में उलझने से रक्षा करने के कारण, कुछ सहायक ही रहेंगी अत: इस दशा में वे क्रियायें कथञ्चित् इष्ट हैं। परन्तु सिद्धान्त बाधित नहीं होना चाहिए। जितनी कुछ भी इच्छा है, इतना अपराध ही है। अत: यह पाँचवीं भी है अपराध ही, आस्रव ही। ४. पुण्य में पाप-अहो ! शान्त आत्माओं से मुझमें प्रतिबिम्बित होने वाली शान्त आभा जयवन्त रहो । वह शान्ति जिसने भवसंतप्त मुझ अधम को एक अपूर्व शीतलता प्रदान की, वह शीतल शान्ति जिसके सामने दाहोत्पादक ये पंचेन्द्रिय के भोग चितातल्य हैं. वह मधर शान्ति जिसके सामने भोगों के सब रस फीके हैं. देने वाली वह द्युतिवन्त शान्ति जिसके सामने भोगों की चमक फीकी है, वह महिमावन्त शान्ति जिसके सामने भोगों की महिमा तुच्छ है, वह मूल्यवान शान्ति जिसके सामने तीन लोक की विभूतिका भी कोई मूल्य नहीं । हे देवी ! अपना मुख दिखाया है तो अब छिपा न लेना, मैं तेरे लिये सर्वस्व न्योछावर कर देने को तैयार हूँ। तेरी ओर निहारकर अब मैं कभी इस सम्पदा की ओर आँख उठाकर न देखूगा। हे नाथ ! मुझको शक्ति प्रदान कीजिये कि इस आपदाजनक सम्पदा की ओर इस भव में तो क्या आगे किसी भव में भी मैं दृष्टि न उठाऊँ, सदा इसे ठुकराता चलूँ । शान्ति-रानी को पाकर कौन ऐसा है जो इस कुलटा का मुख देखेगा। और जब इस सम्पदा ही की ओर से दृष्टि हट गई तो फिर इसके कारणभूत पुण्य को मैं क्या समझू ? वह भी मेरे द्वारा अपमानित हुए बिना न रह सकेगा । मैं पाप के फल का स्वागत करने को तैयार हूँ पर पुण्य के फल का नहीं, वह पुण्य जो पाप से अधिक भयानक है। पाप तो ऊपर से ही भय दिला देता है, जिससे कि इसके प्रति स्वाभाविक घृणा उत्पन्न हो जाय। परन्तु पुण्य ऐसा लुभावना जाल फैलाता है कि स्वत: आकर प्राणी इसमें फंस जाते हैं, और तड़प-तड़पकर प्राण दे देते हैं। वह पुण्य तीसरे भव में नरक का द्वार दिखलाता है और वर्तमान भव में इच्छाओं की ज्वाला में घी डालता है। क्योंकि स्वाभाविक रीति से ही इच्छित पदार्थ की प्राप्ति हो जाने पर उसमें आसक्ति हुए बिना रह नहीं सकती, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ६. अभिप्राय का फेर इसलिये भोग-सम्पदा या देवादि पदों की इच्छा से की जाने वाली पुण्य रूप क्रियाओं के कारण भोगादिक प्राप्त हो जाने पर उनमें आसक्ति हुए बिना रह नहीं सकती, यह बात सर्व सम्मत है। बहुत प्रतीक्षा के पश्चात् मिली हुई स्त्री में क्या अत्यन्त आसक्तता होती नहीं देखी जाती ? और आसक्तता का फल क्या होना चाहिये, सो सब जानते हैं । देखिये अपनी भूल का विषैला फल । धार्मिक क्रियाओं को भोगाभिलाष के कारण अपने हितरूप मानकर उन क्रियाओं को करने में सन्तोष धारण किया, 'मैंने बहुत अच्छा काम किया है, मैं बहुत धर्मात्मा हूँ', ऐसा अभिमान उत्पन्न हुआ। यह वर्तमान भव में फल मिला। भोगों की तीव्र इच्छा के कारण सन्ताप उत्पन्न हुआ, यह दूसरे भव में फल पाया। तीसरे भव में उस आसक्ति के फलस्वरूप कुगतियों में अनेक दुःख सहे, यह मिला तीसरे भव में उन क्रियाओं का फल। फिर भी उन क्रियाओं को अत्यन्त हितरूप मानता है, खेद है इसकी इस भूल पर । इसी से ज्ञानीजन उनको अपराध कहते हैं। ५. ज्ञानी का पुण्य-उन क्रियाओं को अपराध बता देने से यह तेरे अन्दर में उत्पन्न हुआ क्षोभ ही यह बात दर्शाता है कि उनके प्रति तुझे मिठास वर्तता है। तर्क किया जा सकता है कि ज्ञानी को भी तो उन क्रियाओं में मिठास ही आता है ? नहीं वह क्रियायें करता अवश्य है पर उसे इनमें मिठास कभी नहीं आता । मिठास तो एक मात्र शान्ति में ही आता है और इसलिए उसको इनका निषेध सुनकर क्षोभ नहीं आता। स्वयं अन्तरंग से वह यही भावना किया करता है कि ये क्रियायें करने की आवश्यकता उसे न पड़े। फिर तेरी मिठास और उसकी मिठास में अन्तर भी तो महान् है। तेरी मिठास अपनी शान्ति से अपरिचित रहने के कारण केवल तेरे उन चार जाति के भोगाभिलाष सम्बन्धी अभिप्रायों में से निकल रही है, जिनके सम्बन्ध में कि कल बताया गया था, परन्तु उसकी मिठास पाँचवीं जाति के शान्ति-सम्बन्धी उस अभिप्राय में से निकल रही है, जिसमें केवल शान्ति की अपेक्षा है, अन्य किसी बात की नहीं। उन क्रियाओं में तुझे जो तन्मयतासी दीखती है, उसका आधार वे मधुर सुर, ताल, लय, मजीरे, ढोलक आदि हैं, जिनके द्वारा भक्ति करने को तू बहुत महत्ता देता है; परन्तु उसकी तन्मयता का आधार अपनी वह शान्ति है जोकि उसे उस समय भगवान की शान्ति को देखकर याद आ जाती है, और अपने अन्दर जिसका वह प्रत्यक्ष वेदन करने लगता है । तू इन क्रियाओं को करते हुए उन्हें हितरूप समझता है, और इन क्रियाओं सम्बन्धी अपने पुरुषार्थ को हित रूप समझता है, इनके प्रति अपने झुकाव को हित रूप समझता है; परन्तु वह इन क्रियाओं को करते हुए भी इन्हें हित रूप नहीं समझता, इन क्रियाओं की इच्छा को भी हितरूप नहीं समझता, इन क्रियाओं सम्बन्धी उपने पुरुषार्थ को भी हितरूप नहीं समझता, तथा उनके प्रति अन्तरंग में उसे कभी झुकाव भी उत्पन्न नहीं होता । उसका सच्चा झुकाव है तो केवल शान्ति के वेदन के लिये। अभिप्रायों में महान् अन्तर होने से उनके फलों में भी महान् अन्तर पड़ जाता है। फल तो दोनों को ही यद्यपि भोग-सम्पदा मिलना है, तुझको कदाचित् जितनी मिल पाती है उससे भी हजारों गुना उसे मिल जाती है। परन्तु तू उस सम्पदा में उलझ जाता है, क्योंकि क्रियायें करते हुए उसी की अभिलाषा मन में बैठी हुई थी; और वह उसे प्राप्त करके भी उससे उदासीन बना रहता है तथा समय पड़ने पर उसे ठुकरा देता है; वह उसे जञ्जाल भासती है। देव गति को तू अच्छा समझता है और वह उसे तेंतीस सागर की कैद, क्योंकि यह मार्ग में न आती तो वह इतने समय पहले ही अपने प्रयोजन को सिद्ध कर चुका होता। तुझे तीसरे भव में उसका फल पाप में मिलता है और उसे सदा पुण्य ही पुण्य में। और इसी कारण तेरी वे क्रियाये कही जाती हैं, पापानुबन्धी पुण्य, और उसकी वे ही क्रियायें कहलाती हैं पुण्यानुबन्धी पुण्य । देख बाहर में क्रियायें एक होते हुए भी केवल अभिप्रायों के फेरसे कितना महान् अन्तर पड़ गया है दोनों में। अपने अन्दर में झुककर ज़रा गौर से देख, वही या उसी जाति के कुछ और अभिप्राय बैठे हुये हैं या नहीं? शान्ति के प्रति का अभिप्राय तो तुझे हो नहीं सकता, क्योंकि तेरा हृदय स्वयं कह रहा है कि उसका वेदन तुझे अभी हो नहीं पाया है, वह अब भी उसके लिए तड़प रहा है। अत: भाई ! क्षोभ तजकर अन्तर के अभिप्राय को बदलने का कुछ प्रयत्न कर जिससे कदाचित् उन क्रियाओं की सार्थकता हो जाए और जैसा कि कहा जाता है, परम्परा-रूप से शान्ति-पथ में वे कुछ सहायक हो जायें। अभिप्राय बदले बिना ये परम्परा रूप से भी सहायक नहीं हो सकतीं। ६. अभिप्राय का फेर—यह सुनकर आश्चर्य कर रहा होगा कि भिन्न अभिप्राय रखते हुए भी कार्य कैसे हो सकता है ? ठीक है तेरा प्रश्न । आगे भी संयम आदि के प्रकरणों में तुझे यही शंका उत्पन्न होगी। ज्ञानी गृहस्थ की Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यास्त्रव ६. अभिप्राय का फेर महिमा का बखान किया जाने पर कि वह भोग भोगते भी वैरागी है, तुझे यह शंका हुए बिना न रहेगी। अत: इस शंका के निवारणार्थ ही यहाँ यह सिद्ध करने का प्रयत्न करता हूँ कि ‘ऐसा होना सम्भव है कि अभिप्राय कुछ और हो तथा क्रिया कुछ और ।' अभिप्राय में उसका निषेध वर्तते हुए भी बाह्य में वह क्रिया करता हुआ दीखता है । अन्तरंग में रस न लेते हुए भी बाहर में कुछ लेता हुआ सा प्रतीत होता है। ले सुन ! आगम में भी इस बात का समाधान भरत-चक्री सम्बन्धी एक सुन्दर दृष्टान्त देकर किया गया है। यह प्रश्न किसी व्यक्ति के द्वारा किया जाने पर, एक तेल-भरा कटोरा उसके हाथ में दिया और आज्ञा दी कि सारे नगर में घूमकर आये, पर तेल की एक बूंद भी न गिरने पाये। गिरी तो तत्क्षण सर उड़ा दिया जायेगा। आज्ञाका पालन हुआ। लौट आने पर उस व्यक्ति से पूछा गया कि उसने नगर में क्या देखा । क्या बताता बेचारा? तेल और अपना सर या तलवार के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं दिया था उसे, नगर में क्या देखता ? बस ज्ञानी को भोग भोगते समय कैस रस आवे? उसे तो दिखाई देता है केवल अपनी शान्ति का लक्ष्य या वर्तमान में उपलब्ध किञ्चित् शान्ति के वेदन में बाधा पड़ने की सम्भावना। दूसरा आगम का दृष्टान्त है अर्जुन का । कौवे के नेत्र बींधने को धनुष बाण चढ़ाये अर्जुन खडा है । गुरु पूछते हैं कि क्या दिखाई देता है। जवाब मिला कि कौवे का एक नेत्र और वह भी उस समय जब कि वह पुतली में आता है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं । वहाँ उस कौवे का इतना बड़ा शरीर विद्यमान होते हुए भी उसे दिखाई कैसे देता? उसके लक्ष्य में तो था केवल एक नेत्र । इसी प्रकार पुण्य क्रियाओं में ज्ञानी को मिठास क्यों आवे? उसे तो वर्तमान में या भविष्यत में दिखाई देती है केवल एक शान्ति । लक्ष्य लगा है केवल उसी पर । यह है लक्ष्यबिन्दु या अभिप्राय की महिमा। इनके अतिरिक्त सुनिए एक लौकिक उदाहरण । कल्पना करो कि आप किसी मुकदमे में उलझ गए। अपनी रक्षा के लिए कुछ सामान व रूपया लेकर मैजिस्ट्रेट के घर गए और बड़े प्रेम से वह सामान घूस के रूप में भेंट किया। बोले बच्चों के लिए है। उसके बच्चों के प्रति प्रेम भी बहुत दिखाया। उन्हें खिलाता, बाजार ले जाता, जो कुछ उन्हें चाहता लाकर दे देता। बच्चों की माँ भी समझती कि उसे बड़ा मोह पड़ गया है बच्चों से और पिता भी समझता कि उसे प्रेम है हमारे कुटुम्ब से परन्तु आप जानो कि कैसा प्रेम है आपको? मुकदमा जीता कि सब प्रेम हवा में उड़ा । बस ज्ञानी को पता है कि कैसी रुचि है उसे इन धार्मिक क्रियाओं के प्रति । शान्ति मिली कि सब रुचि भागी। वर्तमान की यह झूठी रुचि दिखावटी है, अशभ बातों में विकल्प न चले जायें, केवल इस भय के कारण है। उससे विपरीत तेरी रुचि है, उन बच्चों के साथ माता के प्रेमवत् हित बुद्धि रखकर। और भी उदाहरण है, जिससे सम्भवत: अभिप्राय की अत्यन्त सूक्ष्मता का स्पर्श किया जा सके । कल्पना कीजिए कि आपकी आयु ६० वर्ष की हो चुकी हैं, और सन्तान नहीं हुई। स्त्री ने बहुत इलाज कराए पर निराश रही। निराश होकर अपने भाई का कोई बच्चा रख लिया अपने पास। खूब प्रेम करते थे इस अभिप्राय से कि दो तीन वर्ष में परच जाएगा, तब गोद ले लेंगे। एक दिन गाँव जाते-जाते मार्ग में सौभाग्यवश वृक्ष के नीचे बैठे दिखाई दिए एक अवधिज्ञानी दिगम्बर साधु । भक्ति उमड़ी, नमस्कार किया और कह डाली अपने मन की व्यथा । उत्तर मिला कि जाओ एक वर्ष पश्चात् पुत्र होगा। सन्तोष हुआ तथा अतीव प्रसन्नता भी । घर आकर स्त्री से बताया। पर बेचारी बिल्कुल निराश हो चुकी थी, कैसे विश्वास करती ? ऊपर से हाँ हूँ कर दी, पर भीतर से यही आवाज आती रही कि अरे ! क्या रखा है बच्चा होने को ? स्वामी को तो साधु की भक्तिवश ऐसे ही विश्वास हो गया है, बच्चा होना असम्भव है। अब भी उस दत्तक पुत्र पर दोनों का स्नेह बराबर था। परन्तु विचारिए कि स्त्री व आपके स्नेह में कुछ अन्तर पड़ा कि वैसा ही है ? यद्यपि स्त्री का स्नेह ज्यों का त्यों रहा पर आपके स्नेह में कुछ अन्तर पड़ गया है, क्योंकि विश्वास था कि दो तीन साल पीछे उस बालक को चले जाना होगा अपने घर । तीन महीने बीत गए। गर्भ के चिह्न दिखाई दिए । बताइए कि क्या कुछ अन्तर पड़ेगा उस दूसरी स्थिति के प्रेम में ? अवश्य पड़ेगा। आपका प्रेम पहले की अपेक्षा भी कुछ कम हो जाएगा और स्त्री के प्रेम में भी कुछ अन्तर पड़ जाएगा। अब चौथी स्थिति, बालक पैदा हो Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ८६ ७. पुण्य समन्वय गया। क्या कुछ अन्तर पड़ा तीसरी स्थिति के प्रेम में? अवश्य पड़ा और सम्भवत: अब तो उस दत्तक पुत्र पर भी वह अन्तर कुछ प्रकट सा होने लगा। कभी-कभी धमकाने की भी नौबत आने लगी। अब बालक हो गया दो वर्ष का। बताइए अब भी प्रेम रहा उस पहले बालक पर ? नहीं, अब तो कुछ भार दीखने लगा वह । यद्यपि शर्म व लिहाज के कारण स्वयं बालक को विदा न किया पर यह इच्छा अवश्य रही कि जितनी जल्दी चला जाए अच्छा है। देखिये, विश्वास में अन्तर पड़ते ही प्रेम में अन्तर पड़ गया। पहली स्थितियों में वह अन्तर सूक्ष्म रहा, बाहर प्रकट नहीं होने पाया और आगे की स्थितियों में उत्तरोत्तर स्थूल होता गया तथा अब बाहर भी उसके चिन्ह दिखाई देने लगे। इस उदाहरण पर से यह बात भली भाँति जानी जा सकती है कि अभिप्राय बदल जाने पर किस क्रम से क्रिया में धीरे-धीरे अन्तर पड़ा करता है तथा अभिप्राय में क्रिया का निषेध वर्तते हुए भी पहली स्थितियों में क्रिया बराबर होती रहती है। और भी एक सुन्दर व स्पष्ट उदाहरण है। एक किसान खेती करता है और एक कैदी भी। दोनों ही दत्तचित्त काम में जटे हए दिखाई देते हैं. दोनों ही खेती को फली देखकर प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं। क्रिया दोनों से हो रही है. पर क्या अभिप्राय दोनों का समान है ? किसान हित बुद्धि से खेती करता है और कैदी दण्ड समझकर । किसान की तन्मयता हित बुद्धि के कारण ध्रुव है और कैदी की क्षणिक । आज छुट्टी मिले तो चाहे खेती में आग लगे, उसकी बला से। खेती के लिये जेल में रहने को तैयार नहीं। परन्तु किसान को मृत्यु-शय्यापर पड़े हुए भी सम्भवत: यही विचार रहे कि कहीं खेत में गाय न घुस गई हो। किसान की प्रसन्नता उसके फल को भोगने के लिये है और कैदी की प्रसन्नता केवल अपने परिश्रम को फलित हुआ देखने के कारण, भोक्तापने से निरपेक्ष । किसान की खेती अभिप्राय के अनुकूल और कैदी की खेती अभिप्राय के प्रतिकूल। बस इस प्रकार तेरी धर्मिक क्रियायें हैं अभिप्राय के अनुकूल, हितबुद्धिपूर्वक, उनमें मिठास लेते हुए; और ज्ञानी की क्रियायें हैं अभिप्राय से प्रतिकूल, अहित बुद्धि रखकर, उसमें कुछ कड़वास लेते हुए। महान अन्तर है, आकाश-पाताल का अन्तर । धान्य कूटते समय देखने-वाले को क्या पता कि यह धान्य कूटता है या तुष ? ओखली में ऊपर तो तुष ही दिखाई देता है । इसी प्रकार ज्ञानी को पूजा आदि करते देखकर तू क्या समझे कि यह भगवान की पूजा करता है या अपनी शान्ति की? ऊपर से तो भगवान की ही पूजा करता है। देखम देखी वह देखने वाला अपने घर जाकर तुष कूटने लगे तो क्या निकलेगा उसके परिश्रम का फल ? यद्यपि परिश्रम तो उतना ही करना पड़ेगा जितना कि धान्य कूटने-वाले को। उसी प्रकार ज्ञानी की देखम देखी तू भी पूजा आदि करने लगे तो क्या निकलेगा उस परिश्रम का फल ? यद्यपि परिश्रम तो उतना ही करना पड़ेगा जितना कि ज्ञानी को। ७. पुण्य समन्वय-धार्मिक क्रियाओं को अपराध बताया जा रहा है । तेरी तथा ज्ञानी की उन क्रियाओं सम्बन्धी अन्तरंग अभिप्राय में क्या अन्तर है यह बात कल दर्शाई गई। इन क्रियाओं को अपराध कहता सुनकर उपजा क्षोभ यद्यपि शान्त हो चुका है पर उसका स्थान एक संशय ने ले लिया है । उसका स्पष्टीकरण ही आज किया जायेगा। _ तो क्या इन शुभ क्रियाओं को त्याग दें ? यदि यह बात है तो बड़ा ही अच्छा हुआ। आज तक भूलकर व्यर्थ ही समय गवाता रहा, दुकान का भी व्यर्थ ही हर्ज करता रहा। यह रहस्य खोलकर तथा मुझे जगाकर बड़ा उपकार किया आपने । आज से मन्दिर में न जाऊँगा। बेकार ही लोग धन बरबाद करते हैं मन्दिर आदि बनवाकर या प्रतिमा स्थापित करवाकर” इत्यादि अनेकों विकल्प उठ रहे होंगे आज आपके मन में। नहीं भाई ऐसा नहीं है । सम्भल ! देख कहाँ जा रहा है तू ? तेरे इस प्रवाह को रोकने के लिये ही तो ज्ञानी-जनों ने ये क्रियायें तेरे लिये अच्छी बताई हैं । धन्य है उनकी करुणा, जिसमें ज्ञानी अथवा अज्ञानी सबको बराबर स्थान प्राप्त है। ज्ञानीजन मूर्ख नहीं थे कि तेरे ऊपर कोई व्यर्थ का साम्प्रदायिक भार लाद देते । उनके उपदेश में जन-कल्याण के अतिरिक्त कोई अन्य अभिप्राय नहीं होता। प्रभु ! विचार कर, अपने हित अहित को पहिचान, कुछ बुद्धि लगा, केवल दूसरों के संकेत पर मत चल । तुझे ज्ञानी बनने के लिये कहा जा रहा है, मूढ़ता त्यागने के लिए कहा जा रहा है । परन्तु हर बात का उल्टा ही अर्थ ले तो कहने वाले का क्या दोष ? उन क्रियाओं को करने के लिये कहा जाय तो 'मुझे सुख प्रदान करने वाली है' ऐसा मानकर उनको ही हितरूप समझ जाता है और अभिप्राय को बदलने के लिये कहा जाय तो उन क्रियाओं को Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ९. चतुर्विध क्रिया ही छोड़ने के लिये तैयार हो जाता है । दोनों प्रकार मुश्किल है । किस प्रकार समझायें । ऐसे कहें तो भी नीचे की ओर जाता है और वैसे कहें तो भी नीचे की ओर जाता है। नीचे की ओर जाने को नहीं कहा जा रहा है भगवन् !ऊपर उठने को कहा जा रहा है। दोनों ही प्रकार से नीचे ही जाने का प्रयत्न क्यों करता है ? ऊपर उठने का प्रयत्न कर। जरा विचार तो सही कि इन क्रियाओं को छोड़कर यह समय तू किस कार्य में बितायेगा ? यदि दुकान आदि के धन्धों में, तो लाभ क्या हुआ? कुछ हानि ही हुई, पुण्य की बजाए पाप ही हुआ, धर्म अर्थात् शान्ति तो न हुई। पाप में धकेलने के लिये तो अपराध नहीं बताया जा रहा है इन क्रियायों को, धर्म में ले जाने के लिये बताया जा रहा है, जिससे कि तेरी दृष्टि पाप व पुण्य से अतीत उस तीसरी बात पर जा सके जो तेरे लिये साक्षात् हितकारी है, जिसे तू आज तक भूला हुआ है। दुकान आदि के धन्धे में न जाकर यदि शान्ति में स्थिति पाने सम्बन्धी पुरुषार्थ करना इष्ट है इस समय में, तो इससे अच्छी बात ही क्या है ? अवश्य इन क्रियाओं को त्याग दे शीघ्र त्याग दे, और शान्ति का वेदन करने में निश्चलता धार। ८. मनोविज्ञान–देख सिद्धान्त घटित करते हैं। पहली बात तो यह है कि कोई भी समय ऐसा नहीं कि तू बिना कुछ काम किये रह रहा हो । दुकान का काम, कहीं जाने का काम, कुछ उठाने-धरने का काम, इत्यादिक अनेक कार्यों के अतिरिक्त यदि खाली भी बैठा है तो भी कुछ न कुछ विचारने का काम तो हर समय किया ही करता है । और किसी काम से फरसत मिल जाये तो मिल जाय पर विचार धाराओं से अवकाश पाना कठिन है। मन वह राक्षस है जो हर समय तुझसे काम माँगता है । इसे काम में लगा दे तो लगा दे नहीं तो वह स्वयं तुझे अपने काम में लगा लेगा। 'हातमताई' एक पिक्चर आई थी, उसमें था यह सीन । मन्त्रों द्वारा अपने कार्य की सिद्धि के अर्थ वश किया एक राक्षस अपने स्वामी से कहता है कि 'काम दे नहीं तो तुझे खा जाऊँगा।' यह काम बताया, वह काम बताया, आखिर कब तक? इतने काम थे ही कहाँ कि एकसमय के लिये भी खाली न रहने पावे वह ? विचारा कि यह तो अच्छी बला मोल ले ली, अच्छाई के लिए सिद्ध किया था इसे परन्तु गले ही पड़ गया। वह अब छोड़े से भी तो नहीं छटता। विचार-विचार कर एक उपाय सूझा । ठीक है, आओ काम बताता हूँ। एक जीना बनाओ, ऊपर चढ़ो और उतरो, वह टूट जाए तो फिर बनाओ, फिर चढ़ो और उतरो । बराबर इसी भाँति करते रहो जब तक कि मैं तुम्हें न बुलाऊँ । अब तो सब राक्षसपना हवा हो गया। वह खाली न रहने पाया और स्वामी भय से मुक्त हो गया। इसी प्रकार तू भगवान आत्मा, मन तेरा सेवक, परन्तु एक ऐसा सेवक जो हर समय काम माँगता है, एक क्षण को भी खाली नहीं रह सकता है। कार्य न दे तो विकल्प-जाल में उलझाकर ऐसा धक्का दे तुझे कि धरातल पर आकर तड़फने लगे। भाई ! इस राक्षस को किसी न किसी काम में उलझाये रखना ही श्रेय है, भले ही वह कार्य निष्प्रयोजन क्यों न हो। ९.चतुर्विध क्रिया-अब यह देखना है कि वे काम कितनी जाति के होने सम्भव हैं जिनमें कि मन को उलझाया जा सके । कुल क्रियाओं को शान्ति-पथ की दृष्टि से तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है । एक अशुभ-आस्रव के अन्तर्गत बताई गई भोगाभिलाष-सहित तथा भोगों में रमणतारूप अशुभ क्रिया। दूसरी शुभ-आस्रव के अन्तर्गत बताई गई दो जाति की शुभ क्रियायें, एक भोगाभिलाष सहित और दूसरी इससे निरपेक्ष केवल शान्ति की अभिलाषा-सहित । तीसरी है साक्षात् शान्ति के वेदन के साथ तन्मयतारूप शुद्ध क्रिया। शुभ क्रिया के दो भेद हो जाने से कुल क्रियायें चार प्रकार की हो जाती हैं। पहली क्रिया को अशुभ या पाप कहते हैं। शुभ के प्रथम भेद रूप दूसरी क्रिया को पापानबन्धी पुण्य रूप शुभ-क्रिया कहते हैं। शुभ के द्वितीय भेदरूप तीसरी क्रिया को पण्यानबन्धी रूप शभ क्रिया कहते हैं और चौथी क्रिया शुद्ध क्रिया कहलाती है। इन चार क्रियाओं में से एक समय में एक ही क्रिया की जानी शक्य है दो नहीं, अर्थात् मन में एक समय में एक क्रिया सम्बन्धी ही विचार उठ सकते हैं, दो क्रिया सम्बन्धी नहीं। ऐसा हो सकना सम्भव है कि वचन व काय किसी दूसरी क्रिया को करते हों और मन किसी दूसरी क्रिया को, जैसा कि प्रतिदिन अनुभव करते हैं, काय या वचन से तो भगवान की पूजा आदि कार्य करते हैं और मन बाजार में घूमता है । परन्तु यह नहीं हो सकता कि मन ही भगवान की पूजा सम्बन्धी विचार कर रहा हो और उसी समय बाजार में भी घूमता हो । जैसे कि ध्यान-पूर्वक यह प्रवचन सुनते हुए Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यात्रव ९. चतुर्विध क्रिया आपको क्लाक की टन-टन सुनाई नहीं देती। अपनी चञ्चलता के कारण यह बड़ी द्रुतगति से गमन कर सकता है। अभी गृहस्थ सम्बन्धी विचार कर रहा है तो अगले ही क्षण मोक्ष व शान्ति सम्बन्धी । इन दो विचारों के बीच का अन्तराल कभी अधिक भी हो जाता है और कभी कम भी। अधिक अन्तराल होने पर तो हमें यह जान पड़ता है कि एक समय में एक ही कार्य हुआ और दूसरा कार्य कुछ देर पश्चात् दूसरे समय में हुआ, परन्तु अल्प अन्तराल होने पर हमें ऐसा लगने लगता है कि काम युगपत् हो रहे हैं। जैसे कि यह प्रवचन सुनते हुए भी इस क्लाक की टन-टन आप कदाचित् सुन लेते हो। यद्यपि मन, वचन व काय इन तीनों की क्रियाओं में स्वतन्त्रता देखने को मिलती है, परन्तु ये सब क्रियायें बुद्धि पूर्वक नहीं हुआ करती, स्वत: चला करती हैं । बुद्धिपूर्वक की मन, वचन व काय की क्रियाओं में भेद नहीं हुआ करता, मन से बुद्धि राजाना. उसी दिशा में शरीर से गमन किया जाना. उसी के मकान पर जाकर रुक जाना और उसी व्यक्ति विशेष से वही बातें की जाना । इसी प्रकार मनकी विचारणाओं के ऊपर भी शरीर व वचन की क्रियाओं का प्रभाव बराबर पड़ा करता है। क्रिया ठीक चल रही है या नहीं यह देखने को मन स्वत: लौटा करता है। मन, वचन व काय इन तीनों की उपरोक्त प्रवृत्तियों से सब परिचत हैं । केवल विश्लेषण न कर पाने के कारण हमें उनके क्रम का पता नहीं चलता। १. मन को हर समय कुछ न कुछ विचारने को चाहिये । यह खाली नहीं रह सकता । २. मन एक समय में एक ही विचार कर सकता है । ३. बुद्धिपूर्वक की गई शरीर व वचन की क्रियाओं से मन भी उसी ओर आकर्षित हो जाता है। इस सिद्धान्त पर से यह स्पष्ट हो गया कि मन को किसी एक क्रिया-विशेष में जुटा देने पर वह उस समय दूसरी क्रिया न कर सकेगा और शरीर व वचन की सहायता से उसको कुछ देर कदाचित् वहाँ ही अटकाये रखा जा सकता है। अब यह विचारना है कि कौन-सी क्रिया में जुटाना अधिक श्रेयस्कर है। हमारे पास चार क्रियायें हैं-पाप, पापानुबन्धी पुण्य, पुण्यानुबन्धी पुण्य तथा शुद्धक्रिया । इन चारों में कौन क्रिया हितरूप है और कौन क्रिया अहितरूप, इसका तोल हमें शान्ति की तुला से करना है । जिसमें सर्वथा अशान्ति है वह सर्वथा हेय है, जिसमें अधिक अशान्ति है वह अधिक हेय है, जिसमें कुछ शान्ति है वह कुछ उपादेय है, तथा जिसमें सर्वथा शान्ति है वह सर्वथा उपादेय है। उपरोक्त चारों क्रियाओं का तोल करनेसे, इसमें तो कोई संशय है ही नहीं कि पहली पाप और चौथी शुद्ध क्रिया, इन दोनों में पहली अत्यन्त हेय है और चौथी अत्यन्त उपादेय। विचारना तो दूसरी व तीसरी क्रिया के सम्बन्ध उन्हें हेय माने या उपादेय ? इस बात का उत्तर लेने के लिये हमें यह विचारना होगा कि ये क्रियायें अशान्तिरूप ही हैं या कुछ शान्ति रूप भी। एक उपयोग में एक ही कार्य सिद्ध होने के कारण यद्यपि एक ही कार्य में शान्ति और अशान्ति दोनों अंशों का सद्भाव एक समय में रहना कुछ अँचता नहीं है, परन्तु विचार करने पर एक ही कार्य में ये दोनों अंश रहने असम्भव प्रतीत नहीं होते । शान्ति और अशान्ति पृथक्-पृथक् भी रह सकती हैं और मिश्रित रूप में भी। देखिये समझिये। उपयोग व शान्ति में कुछ अन्तर हैं—उपयोग केवल जानने का नाम है और शान्ति है स्वाद का नाम, उपयोग ज्ञान है और शान्ति ज्ञेय, उपयोग प्रकाशक है और शान्ति प्रकाश्य । ज्ञान में भले क्रम रहे पर ज्ञेय में क्रम रहने की आवश्यकता नहीं । यदि दो या अधिक ज्ञेय मिलकर एकमेक हो जायें तो एक ही समय में क्या ज्ञान उसे जान न लेगा ? जैसे कि अनेक पुद्गलों के पिण्ड रूप स्कन्धको या जीव-पुद्गल मिश्रित मनुष्य को जानने में क्या आगे पीछे जानने की आवश्यकता पड़ती है ? या नमक मिर्च आदि अनेको मसालों के मिश्रित स्वाद को जानने या अनुभव करने के क्या क्रम की आवश्यकता पड़ती है ? अर्थात् नमक का स्वाद पहले जानोगे, फिर मिर्च का, पीछे अन्य किसी मसाले का, क्या इस प्रकार जानोगे? इतना अवश्य है कि जिस प्रकार मिश्रित मसाले का स्वाद चखते समय नमक-मिर्च आदि का भिन्न-भिन्न स्वाद न आकर एक विजातीय ही प्रकार का मिश्रित स्वाद आता है, जो न अकेले नमक-सरीखा है न सरीखा: इसी प्रकार मिश्रित शान्ति का स्वाद लेते समय भी शान्ति तथा अशान्ति का भिन्न-भिन्न स्वाद न आकर, शान्ति-अशान्ति-मिश्रित कोई विजातीय ही स्वाद आता है, जो न अकेला शान्ति रूप है, और न अकेला अशान्तिरूप, बल्कि इनके मध्यवर्ती किसी तीसरी ही जातिरूप है, जिसका निर्णय मिश्रण में पड़े शान्ति व अशान्ति के Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. पुण्यास्त्रव ९. चतुर्विध क्रिया अंशों पर से किया जा सकता है । शान्ति का अंश अधिक रहने पर कुछ शान्ति की ओर झुका हुआ और अशान्ति का अंश अधिक रहने पर कुछ अशान्ति की ओर झुका हुआ स्वाद आता है । फलितार्थ निकला यह कि पाप क्रिया तीव्र अशान्तिरूप है क्योंकि वहाँ भोगाभिलाष के साथ-साथ भोगने की व्यग्रता का स्पष्ट वेदन हो रहा है; दूसरी क्रिया सर्वथा मन्द अशान्ति रूप है क्योंकि वहाँ भोगाभिलाष सम्बन्धी ही रागद्वेषादि हैं, भोगने सम्बन्धी व्यग्रता नहीं। तीसरी क्रिया शान्ति अशान्ति के मिश्रणरूप है, क्योंकि यहाँ भोगाभिलाष का अभाव है और उसके भोगने की व्यग्रता का भी। जितने अंश में क्रिया करने के प्रति व्यग्रता है, उतनी अशान्ति है और जितने अंश में वीतरागता है उतने अंश में शान्ति । चौथी क्रिया सर्वथा शान्तिरूप है। इसपर-से इन चारों की हेयोपादेयता का निर्णय करना बड़ा सहज हो जाता है । पहली पाप क्रिया अशान्ति के कारण सर्वथा हेय है। दूसरी क्रिया अशान्ति के कारण यद्यपि हेय है पर पहली की अपेक्षा मन्द अशान्ति होने के कारण कथञ्चित् उपादेय भी है। तीसरी क्रिया यद्यपि क्रियारूप न होकर भावरूप है, शान्ति का अंश रहने के कारण उपादेय है, परन्तु चौथी क्रिया की अपेक्षा अशान्ति का अंश रहने के कारण हेय है। चौथी क्रिया पूर्ण शान्ति रूप होने के कारण पूर्ण उपादेय है। यह चौथी क्रिया वास्तव में आस्रवरूप नहीं है, अपराध रूप किसी तरह भी नहीं है। यह संवररूप तथा निर्जरारूप है । अर्थात् ज्ञानधारा में रंगी सर्वक्रियायें उपादेय हैं और कर्मधारा में रंगी सर्व क्रियायें हेय हैं । आंशिक ज्ञानधारा में रंगी क्रियायें प्रथम भूमिका में अभ्यास करने के अर्थ प्रयोजनवान् हैं। इस सारे प्रकरण में पाप के अतिरिक्त दोनों शुभ-क्रियाओं को सर्वथा तथा कथञ्चित् अपराधरूप बताया गया था, सो सिद्ध कर दिया गया। परन्तु इसका तात्पर्य उन शुभ-क्रियाओं का जीवन में से सर्वथा निषेध करना नहीं है बल्कि अभिप्राय बदलना है । उन क्रियाओं में जो 'बहुत अच्छी हैं, हितरूप हैं, ऐसा मिठास वर्तता है, उसे छुड़ाने का तात्पर्य है। ऐसा अभिप्राय सर्वथा हेय ही है । परन्तु अभिप्राय के हेय हो जाने पर क्रियायें एक दम छोड़ दी जायें, ऐसा नहीं हुआ करता, जैसाकि पहले दृष्टान्त द्वारा समझा दिया गया है। अब प्रश्न होता है यह कि अभिप्राय बद्ल जाने के पश्चात् क्रिया कौन-सी करें, क्योंकि कुछ करना तो पड़ेगा ही, निष्क्रिय तो रह नहीं सकता? इस प्रश्न का उत्तर लेने के लिये हमें उपरोक्त चारों क्रियाओं में से छाँट करनी है। परन्तु जिसमें चारों प्रकार की क्रिया करने की शक्ति न हो वह कितनी में से छाँट करेगा ? उतनी में से ही तो करेगा जितनी कि वह कर सकता है । ज्ञानी जीव जिन्होंने कुछ भी शान्ति का वेदन कर लिया है वे तो चारों क्रियायें कर सकते हैं और इसीलिये उन्हें तो,चारों में से छाँट करनी है, परन्तु वे व्यक्ति जिन्होंने कुछ भी शान्ति का परिचय प्राप्त नहीं किया है, केवल पहली दो क्रियायें ही कर सकते हैं । अगली दो उनके पास हैं ही नहीं, क्या करें ? यद्यपि अभिप्राय में से भोगाभिलाष जाती रही है, परन्तु शान्ति के वेदन-रहित होने से इनका समावेश तीसरी क्रिया में नहीं किया जा सकता । इसलिये उन्हें केवल पहली दो क्रियाओं में से ही छाँट करनी है। विषय स्पष्ट हो गया । ज्ञानी व्यक्ति तो चौथी क्रिया करने का ही भरसक प्रयत्न करेगा, परन्त अल्प भमिका में शक्ति की हीनता वश वहाँ अधिक समय न टिका रह सके तो शेष समय तीसरी क्रिया में बिताने का प्रयल करेगा। दूसरी क्रिया उससे होगी ही नहीं क्योंकि शुभ-क्रियाओं में उसकी प्रवृत्ति तीसरी कोटि में चली जायेगा। गृहस्थ दशा में, करने का अभिप्राय न होते हुए भी पूर्व-संस्कारवश यदि कदाचित् पहली क्रिया हुई भी तो उसके प्रति अपना बहुत अधिक निन्दन ग्रहण करेगा। परन्तु अज्ञानी जीव अभिप्राय बदल जाने पर और शान्ति की जिज्ञासा जागृत हो जाने पर दूसरी क्रिया को करने का तथा तीसरी क्रिया की कोटि में प्रवेश पाने का भी भरसक प्रयत्ल करेगा। पहली क्रिया करने का स्वयं प्रयत्न नहीं करेगा, परन्तु यदि संस्कारवश हो ही गई तो उसके लिये अपनी निन्दा करेगा। __शास्त्र से उधार ली हुई 'शुद्धोऽहं', 'प्रबुद्धोऽहं', 'निरञ्जनोऽहं', अथवा ब्रह्मास्मि' की रट लगाने से तो तू वह बन जायेगा. क्रमपर्वक अभ्यास करने से ही बनेगा। प्रथम क्रिया के सोपान को छोडकर द्वितीय क्रिया के सोपानपर. उस पर पाँव जमने के उपरान्त उसे छोड़कर तृतीय सोपान पर, और इसमें भी अभ्यस्त हो जाने पर चतुर्थ सोपान पर चढ़ते जाना ही वह क्रम है । बताइये अब कहाँ रहा विरोध को अवकाश ? परन्तु अपराध रूप तो वे क्रियायें रही ही रहीं। सिद्धान्त तीन काल भी बाधित नहीं हो सकता। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. बन्ध-तत्त्व ( १. बड़ी भूल; २. संस्कार निर्मिति। १. बड़ी भूल-स्वतन्त्रता की उपासना के द्वारा सम्पूर्ण बन्धनों का विच्छेद करके, पूर्ण स्वतन्त्रता सहित, निज चैतन्य-देश में शान्ति-रानी के संग विलास करने वाले, परब्रह्म अनन्तसिद्ध भगवन्त मुझे भी शक्ति प्रदान करें कि उनकी भाँति मैं भी इन बन्धनों का विच्छेद करके निज साम्राज्य का भोग कर सकूँ। परन्तु बन्धन क्या है ? यह बात पहले जाननी पड़ेगी। क्या किसी ने बेड़ी डाली है पाँव में, या बन्द किया है जेलखाने में ? कुछ भी तो ऐसी बात दिखाई नहीं देती, फिर भी बन्धन क्या ? ऐसा नहीं है भाई ! यह बन्धन बेड़ियों रूप नहीं है पर बेड़ियों से भी अधिक दृढ़ है । यह बन्धन जेलखाने रूप नहीं है पर जेलखाने से भी अधिक प्रबल है । सो दो प्रकार से देखा जा सकता है--एक अन्तरंग में और दूसरा बाहर में। यदि मैं स्वयं अन्तरंग में न बन्यूँ तो बाहर में मुझे बाँधने वाली कोई शक्ति नहीं । इस शरीर को अपना मानकर निष्प्रयोजन इसकी सेवा में जुटे रहना अथवा इसके लिए कुछ इष्ट से दीखने वाले धनादिक अचेतन पर पदार्थों की तथा कुटुम्ब आदि चेतन पर पदार्थों की सेवा में जुटे रहना तो अन्तरंग बन्धन है, जो स्वयं मैंने अपने सर लिया हुआ है। कुटुम्ब आदि वास्तव में बन्धन नहीं हैं। यदि मैं इनकी सेवा न करूँ तो कोई शक्ति ऐसी नहीं जो मुझे इनका सेवक बना सके। सेवक बने रहना मेरी अपनी भूल है और मज़ा यह कि इस भूल में भी मैं आनन्द मानता हूँ। यह मेरी भूल ही अन्दर में मुझे कुछ प्रियसी, कुछ मधुर सी लगती है। यदि मेरा कोई अत्यन्त हितैषी मुझे इससे छुड़ाने के लिए इनकी स्वार्थता दर्शाए भी तो मुझे वह भाता नहीं। मैं अन्तरंग में किसी दाह से व्याकुल हुआ, हाय-हाय करता अन्तरंग से पुकार अवश्य करता हूँ, पर उसकी मानने को एक भी तैयार नहीं । कितना दृढ़ है यह बन्धन ? इसके कारण से आस्रव-तत्त्व में दर्शाये गये कार्मण-शरीर या सूक्ष्म-शरीर में उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि होते जाना, इस शरीर का नित्य नये-नये जड़ कर्मों के प्रवेश द्वारा पुष्ट होते रहना, सो बाह्य बन्धन है अर्थात् कर्मबन्ध है। यद्यपि अत्यन्त सक्षम होने से यह शरीर हम को दृष्टिगत नहीं होता, परन्तु प्रत्यक्ष-ज्ञानी इसे हस्तामलकवत् देखते हैं। तदपि मेरे कल्याण में यह बेचारा जड़ क्या बाधा पहुंचा सकता है ? यदि मैं स्वयं भूल न करें तो पड़ा है, पड़ा ही रहेगा। पड़ा रहने दे, क्या माँगता है बेचारा । “कर्म बेचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई। अग्नि सहे घनघात लोह की संगत पाई।" यदि मैं इन पर पदार्थों की सेवा स्वयं स्वीकार न करूं तो कोई शक्ति नहीं कि जबरदस्ती मुझे इनकी सेवा करने को बाध्य कर सके । इनकी सेवा स्वीकार करने वाला मैं हूँ, बिना किसी बाह्य के दबाव के स्वतन्त्र रूप से स्वीकार करता हूँ और पीछे पुकारा करता हूँ कि हाय-हाय इन कर्मो न मुझे पक़डा, कोई छुड़ाओ कोई छुड़ाओ। अरे ! कैसी मर्खता है? वृक्ष की कौली भरकर यदि मैं आते जाते पथिकों से यह पकार करूँ कि भाई ! मेरी सहायता करो, देखो इस वृक्ष ने मझे पकड़ा है, इससे मुझे छुड़ाओ, तो कितनी मूर्खता होगी ? मैं नित्य अन्य को उपदेश देता हूँ, तोते का दृष्टांत सुना-सुना कर मानो जगत को रिझाता हूँ। शिकारी के द्वारा लटकाई गई नलकी पर बैठा तोता नलकी घूम जाने के कारण जब स्वयं घूमने लगता है तो यह जानकर कि 'अरे मैं तो नीचे गिरा', नलकी को और दृढ़ पकड़ लेता है और उस पर उल्टा लटका रहता है, परन्तु विचारता यह रहता है कि नलकी ने मुझे पकड़ लिया है । पर फड़फड़ाता है उड़ने के लिये परन्तु पाँव न छोड़े तो कैसे उड़े ? 'नलकी ने मुझे पकड़ा कोई छुड़ाओ' । वही दशा तो मेरी है । स्वयं दासता स्वीकार करके, 'हाय इस दासता से मुझे छुड़ाओ' । कितनी हंसी की बात है ? देखो बन्दर की मूर्खता, शिकारी के द्वारी पृथ्वी में गाड़ी चनों से भरी हंडिया में चनों के लालचवश हाथ डाले स्वयं, चनों की मुट्ठी भरे स्वयं और बन्द मुट्ठी हंडिया के मुँह मे से न निकल सके तो पुकार करे, हाय-हाय हंडिया ने मुझे पकड़ा, कोई छुड़ाओ कोई छुड़ाओ। यदि उस समय उसको यह कहा जाए कि भाई ! मुट्ठी को खोल दे, छुटा ही तो Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. बन्य-तत्त्व २. संस्कार निर्मिति पड़ा है, तो मुट्ठी खोलने के लिये कभी तैयार नहीं, भले शिकारी पकड़ ले। किसने पकड़ा है उसको? हंडियाने या उसके लालच ने ? हंडिया बेचारी का क्या दोष ? अब छोड़े और भाग जाए। पड़ी रहेगी बेचारी। वह कब उसे पकड़ने को वृक्ष पर चढ़ेगी ? बन्दर की मूर्खता पर आज मैं हंस रहा हूँ पर खेद है कि अपनी मूर्खता मुझे दिखाई नहीं देती। शरीर, धन व कुटुम्बादि की सेवा स्वयं स्वीकार करके कोस रहा हूँ कर्मों को । हाय इन कर्मों ने मुझे पकड़ा, देखो निष्कारण तंग कर रहे हैं। प्रभो ! किसने पकड़ा है तुझे? विचार तो सही, सेवा चाकरी छोड़, कौन रोकता है तुझे? ये बेचारे जड़ कर्म तो बिल्कुल निरपराध हैं, ये कब पकड़ते हैं तुझे ? तू स्वयं ही बुला-बुलाकर पकड़ लेता है उन्हें । अपराध अपना और गले मंढे कर्मों के, कैसे मजे की बात है ? हे भाई ! तुझे कल्याण चाहिए, हित चाहिए,सुख चाहिए, शान्ति चाहिए, तो बाहर में इनकी ओर न देख । देख अपनी ओर, अपनी प्रभुता की ओर । तू तो पहले ही से कल्याण रूप पड़ा है, तू तो अब भी शान्ति का भण्डार है । किसने छीना है उसे ? कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है तेरा । अपनी शान्ति को सेवा चाकरी में खोजने जाता है, बस इस कल्पना ही ने तो पकड़ा है तुझे । यही वे बन्धन हैं जो महात्माओं ने तोड दिये हैं । तू भी तोड दे तो वैसा ही हो जावे । सिद्ध-प्रभु में और तुझ में तनिक भी तो भेद नहीं है, काहे दुहाई देता है । उनके द्वार पर कि तुझे शान्ति प्रदान करें । तू सर्व-समर्थ है, शक्ति का पुञ्ज है। २. संस्कार निर्मिति-शरीर व कुटुम्ब की सेवा चाकरी का भाव कौन पैदा करता है तेरे हृदय में ? क्या कोई सिखाता है तुझे ये बातें ? पैदा होते ही बालक दौड़ पड़ता है स्तन की ओर । कौन सिखाता है उसे ? स्वयं सीखा सिखाया ही तो उत्पन्न हुआ है। पहले कभी यह क्रिया करने लगा था, आज आदत बन गई, संस्कार बन गया। कहीं भी जाये, इस रूप में या उस रूप में, मनुष्य के शरीर में या तिर्यञ्च के शरीर में, नरकगति में या देव-गति में, संस्कार को सदा साथ लेकर जाता है । फिर किस सिखाने-वाले की आवश्यकता है ? स्वयं सीखता है, स्वयं संस्कार बनाता है, स्वयं साथ ले जाता है। स्वयं तू ही तो है इनका निर्माण करने वाला । तू स्वयं इनको न बनाये तो कर्म बेचारे क्यों आयें ? तू इन संस्कारों को तोड़ दे तो कर्म भी बेचारे तेरा साथ छोड़ दें। कर्मों से प्रार्थना करने से कि 'भाई ! अधिक न सताओ, कृपया मुझे रास्ता दे दो, में धर्म करने जा रहा हूँ, क्या लाभ है ? इन बेचारों को क्या सुनाई देता है ? अपने संस्कारों को पहचाने, उनका निर्माण तू नित्य किस प्रकार कर रहा है उसे जाने, तथा ऐसी भूल करना छोड़ दे तो बन्धन काहे का? स्वतन्त्र ही तो पड़ा है। अपने अन्दर में उतरकर देख, संस्कार प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं । संस्कार उस आदत का नाम है जो तूने धीरे-धीरे नित्य नये-नये अपराध करके आस्रव के द्वारा पुष्ट की है, और उसी पुरानी आदत रूप संस्कारों से प्रेरित हुआ नित्य नये-नये अपराध कर रहा है, बिल्कुल विवेक नहीं रहा है। अपराध, संस्कारों का निर्माण, आगे उनकी प्रेरणा से पुन: -पुन: वही नये-नये अपराध, संस्कारों का और पोषण, अधिक-अधिक अपराध, संस्कारों की अधिक-अधिक पुष्टि । बस यही तो वह चक्र है जिसमें तू उलझा पड़ा है। यह बात समझनी भी कठिन नहीं है, सबके अनुभव में आई है, केवल विश्लेषण करने की कमी है । ज्ञानी व अज्ञानी में तथा एक फिलास्फर व एक साधारण व्यक्ति में इतना ही तो अन्तर है कि फिलास्फर तो वस्तु का विश्लेषण करके बना लेता है सिद्धान्त और दूसरा रह जाता है ताकता उसके मुँह की ओर । सिद्धान्त का आधार अनुभव है, विश्लेषण करो तो आप भी बना सकते हो । यदि सिद्धान्त बनाने की शक्ति नहीं तो समझ तो सकते ही हो । देखिये दृष्टान्त देकर समझाता हूँ संस्कार निर्माण का क्रम तथा उस संस्कार की वह शक्ति जो तुझे नये-नये अपराध करने की प्रेरणा देती है। देखिये उस व्यक्ति की ओर जो आज का एक विश्वविख्यात डाकू है। क्या वह डाकू बनकर जन्मा था? नहीं, जन्मा था तब तो बिल्कल भोला-भाला था, छोटा सा बच्चा था, बडा प्रिय लगता था। आज का यह भयानक रूप कैसे धारण किया? डाकू बनना उसने प्रारम्भ किया था उस समय जब कि वह स्कूल में पढ़ने के लिए भेजा गया था। पहले ही दिन उसकी दृष्टि पड़ी अपने साथी की पैन्सिल पर, जो उसे कुछ सुन्दर सी लगी । न मालूम एक विचार सा कहाँ से उठा उसके अन्दर ? एक बिजली की चमक की भाँति उसे कुछ धक्का सा लगा-"और यदि उठा लूँ इसे तो? अवकाश का ही तो समय है ? रैसेस है। कोई भी तो नहीं है यहाँ ? सब साथी खेल में लगे हैं ? कोई भी तो नहीं देख रहा है ? किसी को क्या पता चलेगा कि मैंने उठाई है ?" और चारों ओर चौकन्ना होकर न जाने किसे खोज रहा Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. बन्ध-तत्त्व २. संस्कार निर्मिति है वह? हाथ यकायक बढ़ता है पैन्सिल की ओर । पर यह क्या ? 'अरे ! नहीं नहीं यह ठीक नहीं है । यदि किसी ने देख लिया तो? मार पड़ेगी बुरी तरह और वह बेचारा साथी तो रोयेगा। नहीं नहीं मत उठा', हृदय बुरी तरह काँपता हुआ सा । पुन: चौकनीसी दृष्टि चहुँ ओर । और साहस बटोर कर उठा ही लेता है उस पैन्सिल को, हृदय के कम्पन को दबाने का प्रयत्न करता हुआ। घर जाकर प्रसन्न होता है उस पैन्सिल को देखकर । अरे दो पैसे की तो होगी ही, कितनी सुन्दर है, चलो आज तो दो पैसे कमाये। और अगले दिन वही दृष्टि पड़ी एक साथी की पुस्तक पर । चौकन्नी सी आँखे घूमने लगी यकायक चारों ओर, हृदय में कम्पन, हाथ भी कुछ काँपे-काँपे से, परन्तु न तो था कल जितना विस्मय, न था कल जितना भय, न था कल जितना कम्पन, न थी कल जितनी ग्लानि । किताब उठाई और बस्ते में डाल ली । घर जाकर किताब को उलट-पलटकर देखा तो बिल्कुल नई है। वाह-वाह ! कितना अच्छा हुआ। अब तो मुझे किताब खरीदनी ही न पड़ेगी। तीसरे दिन उसी प्रकार दवात, और फिर चौथे पाँचवें दिन अन्य-अन्य वस्तुएँ। पर आगे-आगे को हीन-हीन विस्मय, हीन-हीन भय, हीन-हीन कम्पन और हीन-हीन ग्लानि । इनके साथ-साथ धीरे-धीरे साहस में वृद्धि । और आज वही है साहसी, निर्भीक डाकू जिसके अन्दर न है विस्मय, न है भय, न है कम्पन , न है ग्लानि । बस बन गया संस्कार, एक पुष्ट और प्रबल डाका डालने का संस्कार । पहली दूसरी आदि स्थितियों में ही रोकता तो रुक जाता, पर आज उसे कितना भी दण्ड मिले वह संस्कार रुकने वाला नहीं। पहले दिन जिस संस्कार का आरम्भ काँपते हुये हृदय से हुआ था, आज वह उसे प्रेरणा करता है, साहस देता है, बड़े-बड़े डाके डालने का। इसी प्रकार किसी मित्र की प्रेरणा से पहले दिन घृणा-बुद्धि से, काँपते हुए हृदय के साथ, शराब की एक घुटमात्र पी लेने वाले उस व्यकि को आज शराब के बिना चैन नहीं। पहले दूसरों के पैसे से पीनी प्रारम्भ करने वाला आज अपनी लहू-पसीने की कमाई को भी शराब के-लिये फूंक रहा है। कौन शक्ति है, कौन प्रेरणा है ? वही संस्कार की शक्ति, वही संस्कार की प्रेरणा, जिसे उपरोक्त क्रम से स्वयं उसने पुष्ट किया है। बस बन गया संस्कार-निर्माण का सिद्धान्त । कोई भी व्यक्ति कभी एक नया अपराध करता है, तब संस्कार की रूप रेखा मात्र सी अन्दर में बन जाती है जो उसे पुन: वह अपराध करने के लिये बल प्रदान करती है तथा उसके भय को हटाती है। उससे प्रेरित हुआ वह पुन: उसी जाति का अपराध करता है । उस संस्कार की पुष्टि हो जाती है और वह पुष्ट संस्कार और अधिक प्रेरणा व बल देता है । पुन: उस जाति का अपराध दोहराता है, पुन: संस्कार की पुष्टि हो जाती है और इसी प्रकार पुन:-पुन: नया-नया अपराध या आस्रव और तत्फलस्वरूप संस्कारों की पुष्टि या पूर्व-पूर्व संस्कार में नई-नई शक्ति का बन्ध । इसी प्रकार आगे जाकर बन बैठता है वह एक प्रबल संस्कार, एक आदत, एक इन्सटिंक्ट, जिसको अब यदि दबाना भी चाहेगा तो कुछ असम्भव सा प्रतीत होगा। इसी प्रकार मैं अनादि से कछ नये-नये अपराध या आस्रव करता चला आ रहा है। जिस-जिस जाति के अपराध करता हूँ उस-उस जाति के अपराध पहले किये थे, अत: उस-उस जाति के संस्कार अन्तरंग में पहले से ही पड़े हैं। अब का किया नया अपराध मिल जाता है अपनी जाति के पूर्व संस्कार के साथ और पुष्ट कर देता है उसे । इसी प्रकार सर्व ही पूर्व-संस्कारों का बराबर सिञ्चन करता चला आ रहा हूँ । बराबर आस्रव तत्त्व के द्वारा उनका पोषण करता चला आ रहा हूँ, बराबर उन्हें वेतन देता चला आ रहा हूँ । यही है वास्तव में मेरे बन्धन अर्थात् बन्धतत्त्व जिसकी प्रेरणा से करता हूँ मैं नित्य नये-नये अपराध, और जिसकी प्रेरणा से स्वीकार की है मैंने शरीर आदि की दासता ।। यदि आज इस दासता को छोड़कर नये-नये अपराध करना बन्द कर दूँ तो इन संस्कारों को आहार कहाँ से मिलेगा ? इन्हें वेतन कौन देगा? स्वयं सूख जायेंगे बेचारे या भूखे मरते छोड़ जायेंगे मुझे और कोई दूसरा द्वार जा खटखटायेंगे। अत: भाई यदि स्वतन्त्रता चाहिए तो कर्मों को कोसने से कुछ न बनेगा, न ही प्रभु से भिक्षा माँगने से काम चलेगा । स्वतन्त्र रूपसे तने ही इनका निर्माण किया है और स्वतन्त्र रूप से त् ही इन्हें काट सकता है । कैसे ? सो अगले प्रवचन में आ जाएगा। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. संवर-तत्त्व १. भूल निवृत्ति; २. संस्कार निवृत्ति । १. भूल निवृत्ति—भव - सन्तप्त इस पथिक को शान्ति प्रदान कीजिए नाथ ! आपकी शरण में आकर क्या इतना भी न मिलेगा ? सुनते आये हैं कि अपने आश्रित को आप अपने समान कर लिया करते हैं। अनेकों अधम उद्धारे हैं आपने । मैं भी तो एक अधम हूँ, मुझ पर भी कृपा कीजिए प्रभु । शान्ति माँगता हूँ और कुछ नहीं । धन सम्पत्ति माँगने आया हूँ और वह आपके पास है ही कहाँ जो कि दे देते। वही वस्तु तो दी जा सकती है जो कि किसी के पास हो । आपके पास है शान्ति का अटूट भण्डार, मुझे भी दीजिए नाथ । थोड़ी-सी ही दे दीजिए, इस ही में सन्तोष कर लूँगा । देखिए अपने द्वार से खाली न लौटाइये। मेरा तो कुछ न बिगड़ेगा क्योंकि मैं तो पहले ही रंक हूँ, अब भी रंक रह लूँगा । जगत आपकी ही निन्दा करेगा कि काहे का बड़ा जो भूखे की झोली में एक मुट्ठी चावल भी नहीं डालता । नहीं नहीं, ऐसा होना असम्भव है, आपकी शरण में जो आया है वह खाली नहीं लौट सकता। मुझमें लेने की शक्ति होनी चाहिए, आप तो मार्ग दर्शा ही रहे हैं। संवर का मार्ग, अर्थात् सम्यक् प्रकार वरण करने का मार्ग, सम्यक्-प्रकार ढक देने का अर्थात् दबा देने का मार्ग। किनको ? आस्रव अधिकार में बताये गए प्रतिक्षण होने वाले नवीन-नवीन अपराधों को जो साक्षात् व्याकुलता रूप हैं, अन्तर्दाहक हैं । उनके दब जाने का नाम ही शान्ति है, अत: यह संवर का मार्ग ही शान्ति का मार्ग है। लो सुनो ! सुनने मात्र 'काम न चलेगा, जीवन में उतारने से काम चलेगा। आजतकं जीव अजीवादि तत्त्वों की रटन्त की है, शान्ति मिले तो कैसे मिले ? अब वैसी बात न समझना, कुछ सूत्र याद करने से कोई लाभ नहीं, उनके रहस्यको जीवन में उतारने से लाभ है । ले तो उसी रहस्य को सूत्रों में नहीं, बड़ी सरल भाषा में, बड़ा सहल करके धीरे-धीरे समझाता हूँ । ध्यान से सुन, विचार कर और आज से ही अपने दैनिक जीवन में उसके अनुसार कुछ परिवर्तन लाने का प्रयत्न कर । वे बातें कुछ ऐसी नहीं होंगी जो तू-न कर सके या उनके करने में तुझे कठिनाई पड़े । गुरुदेव बड़े उपकारी हैं। छोटे छोटे बड़े से बड़े शक्तिहीन व शक्तिशाली सबका उपकार करते हैं, सबको मार्ग दर्शाते हैं, उस-उसकी श्रद्धा के अनुसार तथा उस-उसकी शक्ति के अनुसार । पक्षपात् व साम्प्रदायिकता की बात नहीं है, सर्व हित बात है। कोई भी क्यों न हो, पशु हो या देव, ब्राह्मण हो या शूद्र, जो करे सो पावे । जीवन में उतारने का काम करना है, ऊपर की कुछ दिखावे की अथवा शरीर को तोड़ने-मरोड़ने की या पदार्थों को इधर से उधर धरने की क्रियाओं का नाम करना नहीं है। अहो ! करुणा- सागर गुरुदेव ! कितना सहल बना दिया है मार्ग, हर किसी को अवकाश प्रदान कर दिया है, मानो सर्वधर्म समभाव का बिगुल ही बजाया है । आपके शासन में ब्राह्मण को ऊँचा व शूद्र को नीचा दर्जा प्राप्त हो, ऐसा भेद है ही नहीं और वास्तव में आपके शासन में शूद्र नाम का शब्द ही नहीं है । जिस मार्ग की नींव में ही द्वेष डाला गया हो, ब्राह्मण व शूद्र में द्वेष उत्पन्न कर दिया गया हो, उस मार्ग को साम्यता का मार्ग होने का दावा किया जाए, यह आश्चर्य है । द्वेष व साम्यता दोनों कैसे इकट्ठे रह सकेंगे ? शान्ति प्राप्त हो तो कैसे हो ? मूल में ही भूल है फल कैसे लगे ? भगवन् समझ ! स्वपरभेद विज्ञान प्राप्त करके इस भूल को निकाल दे और फिर साम्य-रस में भीगी उस गुरुदेव की वाणी को सुन । यद्यपि आज तक उन क्रियाओं में से आप सब बहुत सी क्रियायें पहले से करते आ रहे हैं जैसे कि देवपूजा आदि, तदपि अन्तरंग अभिप्राय ठीक न होने से उनका वह फल नहीं हुआ जोकि होना चाहिए था अर्थात् शान्ति । इसीलिए यह कहने में आता है कि जितने अधिक धर्म करने वाले व्यक्ति हैं उतने ही अधिक दुःखी हैं। यह बात झूठी भी नहीं है क्योंकि वास्तव में ऊपर से देखने से ऐसा ही दिखाई दे रहा है। उसका कारण यह है कि या तो वे क्रियायें मिथ्या अभिप्राय-पूर्वक की जा रही हैं अर्थात् आस्रव प्रकरण में बताये गए दूसरे अभिप्राय-पूर्वक की जा रही हैं, या केवल कुल परम्परा से बिना समझे की जा रही हैं। सच्चे अभिप्राय-पूर्वक अर्थात् आस्रव प्रकरण में बताए गए तीसरी कोटि अभिप्राय-पूर्वक इन क्रियाओं को करने वाला तीन-काल में भी कभी दुःखी रह नहीं सकता, ऐसा दावे के साथ कहा जा सकता है । अत: प्रत्येक क्रिया की परीक्षा अपने अभिप्राय से करते हुए चलना है। अभिप्राय पर ही जोर है, वही मुख्य है । क्रिया की इतनी महत्ता नहीं जितनी उसकी है। अतः अभिप्राय को पढ़ने का अभ्यास करना चाहिये । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. संवर-तत्त्व २. संस्कार निवृत्ति स्थल-स्थल पर दृष्टान्त आदि के द्वारा अभिप्राय पढ़ने का उपाय भी बताया जाता रहेगा। उसे पढ़कर गण-दोष को खोजने तथा अपनी भूलों को दूर करने का प्रयत्न करना, तभी वे क्रियायें सच्ची कहला सकती हैं। ___ एक उदाहरण देता हूँ। किसी साधुको स्वर्ण बनाने की रासायनिक विद्या आती थी। एक गृहस्थ को पता चल गया। विद्या लेने की धुन को लिए वह उस साधु की सेवा करने लगा। दो वर्ष बीत गए, बहुत सेवा की, साधु ने प्रसन्न होकर उसे विद्या दे दी अर्थात् वह कापी जिसमें वह उपाय लिखा था उसे दे दी । प्रसन्नचित्त गृहस्थ घर लौटा, भट्टी बनाई, सारा सामान जुटाया और जिस प्रकार कापी में लिखा था, करने लगा। बड़ी सावधानी बरती कि कहीं गलती न हो जाय। प्रत्येक क्रिया को पढ़-पढ़कर किया, पर स्वर्ण न बना । फलत: श्रद्धा जाती रही। सोचने लगा 'दो वर्ष व्यर्थ ही खो दिए, साधु ने यों ही झूठ-मूठ अपनी ख्याति फैलाने के लिए ढोंग रच रखा था, सोना आदि बनाना उसे आता ही न था। कापी में भी यों ही काल्पनिक बातें मेरे मन बहलाने को लिख दीं' । क्रोध में भर गया वह, पर क्रोध उतारे किस पर ? साधन सही उसकी कापी तो है। चौराहे पर बैठकर लगा कापी को जतों से पीटने । सहसा वही साध उस मार्ग से आ निकला। गहस्थ की मूर्खता को देखकर सब कुछ समझ गया। बोला, “क्यों इतना क्रोध करता है, भूल स्वयं करे और क्रोध उतारे कापी पर? इस बेचारी ने क्या लिया है तेरा? चल मेरे साथ मैं देखता हूँ कि कैसे नहीं बनता सोना?" भट्टी के पास दोनों आये, सामान जुटाया, प्रक्रिया चालू हुई । सब ठीक, परन्तु नींबू पड़ने का अवसर आया तो लगा चाकू लेकर नींबू काटने। साधु बीच में ही बोला, 'क्या करता है ?' 'नींबू काटता हूँ।' 'कहाँ लिखा है इसमें नींबू काटना' 'काटना न सही, नींबू का रस तो लिखा है। बिना काटे रस कैसे निकले?' साधु ने गृहस्थ से नींबू छीन लिया और दोनों हथेलियों के बीच साबुत नींबू रखकर जोर से दबा दिया । रस निचुड़ गया। बोला कि ऐसे निकलता है रस । यह न सोचा बुद्धि लगाकर कि चाकू से लोहे का अंश जाकर सारे फल का विनाश कर देगा ? सोना बन गया और गृहस्थ लज्जित हुआ अपनी भूल पर । परन्तु 'अब पछताए होतक्या जब चिडिया चग गई खेत।' विद्या को साध अपने साथ ही ले गया। तात्पर्य केवल इतना दर्शाना है कि सर्व क्रिया ठीक होते हुए भी कोई ऐसी भूल जो दृष्टि में आती नहीं सर्व फल का विनाश कर डालती है, और यथाकथित फल न मिलने पर बजाए अपनी भूल खोजने के प्राणी का विश्वास क्रिया पर से ही उठ जाता है और इस प्रकार बजाए हित के अपना अहित कर बैठता है । अत: पहले से ही अभिप्राय की सूक्ष्मता को पढ़ने के लिये कहा जा रहा है ताकि सूक्ष्म से सूक्ष्म भूल का भी सुधार किया जा सके और क्रिया से वही फल प्राप्त किया जा सके जो कि उससे होना चाहिये। २. संस्कार निवृत्ति—संवर कहते हैं प्रत्येक क्षण होने वाले नये-नये अपराध को रोक देना अर्थात् जिस प्रकार भी लौकिक-भोगादि सम्बन्धी अथवा ख्याति-प्रतिष्ठा आदि सम्बन्धी बहिर्मुखी वृत्ति रोकी जा सके उसे रोकना कर्त्तव्य है। वास्तव में पदार्थों को जानना अपराध नहीं है । जानने मात्र से राग द्वेष उत्पन्न नहीं हो सकता । राग द्वेष होता है इष्टानिष्ट बुद्धि से । देखिए आप अपने बरामदे में खड़े सड़क की ओर देख रहे हैं । अनेक पशु, पक्षी व व्यक्ति सड़कपर से गुजरते आपने देखे । कुछ परिचित थे और कुछ अपरिचित भी। कुछ देर पश्चात् उसी सड़क पर देखा अपने पुत्र को आते हुए। तुरन्त यह सोचकर कि कुछ कार्य-वश मेरे पास ही आ रहा है, एकाएक बोल उठे “क्यों ! क्या काम है ? इतनी जल्दी कैसे लौट आए आज ?" पुत्र को देखकर यह विकल्प क्यों ? कारण यही कि अन्य व्यक्तियों में थी माध्यस्थता और पुत्र में थी इष्टता । इसी प्रकार आप इन्हीं आँखों से देखते हो हस्पताल में पड़े बुरी तरह कराहते हुए अनेक रोगियों को और इन्हीं नेत्रों से देखते हो अपने रोगी पुत्र को । परन्तु जिस व्याकुलता तथा वेदना का भाव पुत्र को देखकर आप में जागृत होता है वह अन्य रोगियों को देखकर क्यों नहीं होता ? कारण यही कि पुत्र में है इष्टता और अन्य में है माध्यस्थता । और यदि कदाचित् अन्य को देखकर थोड़ी मात्रा में व्याकुलता हो भी गई तो उसका कारण है कुछ करुणा, जिसका आधार है राग या इष्टता । यदि पूर्ण माध्यस्थता होती तो उन्हें देखकर बिल्कल व्याकलता न होती। उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार हमें यह देखना है कि ऐसी कौन सी क्रियायें सम्भव हैं जिनमें इष्टता अनिष्टता को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से अवकाश न हो। अनेकों क्रियाएँ होनी सम्भव हैं। संवररूप क्रियाएँ तीन भागों में विभाजित की गई हैं-एक गृहस्थ के योग्य दूसरी श्रावक के योग्य और तीसरी साधु के योग्य । तीनों ही प्रकार की क्रियाओं का विशेष विस्तार आगे साधना-खण्ड में किया जाने वाला है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. निर्जरा - तत्त्व १. निर्जरा; २. संस्कार क्षति; ३. प्रतिकूल वातावरण; ४. संवर में निर्जरा । १. निर्जरा — यह निश्चय हो जाने के पश्चात् कि संवर तत्त्व के द्वारा अर्थात् वहाँ बताए गये विस्तृत क्रिया कलाप की साधना द्वारा शान्ति के बाधक संस्कारों का दमन किया जाना शक्य है, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इतना ही पर्याप्त है ? नहीं-नहीं, हे भव्य ! जल्दी मत कर, घबरा भी नहीं, सुनता रह, क्योंकि विषय लम्बा है। अभी मार्ग प्रारम्भ ही हुआ है, इस मार्ग की पूर्णता तो बहुत आगे जाकर होगी । संवर से बेखबर विकल्प- सागर में गोते खाते जीवों की तो बात नहीं, संवर से बाखबर के भी जीवन में से कुछ देर के लिए आंशिक रूप में या आयु पर्यन्त के लिए केवल इन विकल्पों को रोक देना मात्र पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ऐसा करनेसे भले ही वे पूर्व के संस्कार आगे को और अधिक पुष्ट न होने पावें तथा वर्तमान में जीवन कुछ हल्की सी शान्ति को लिए हुए अनुभव में आने लगे, परन्तु पूर्व से डेरा जमाए हुए उन संस्कारों से तो बच न पाएगा। भले ही आज के संवरण के कारण उनको कुछ निद्रासी या बेहोशीसी आ गई हो, परन्तु तेरे तनिक भी असावधान होने पर या यह अनुकूल वातावरण बदल जाने पर या काल चक्र द्वारा जबरदस्ती किसी प्रतिकूल वातावरण में फेंक दिए जाने पर, क्या वे संस्कार सचेत होकर एकदम तुझ पर आक्रमण न कर बैठेंगे ? उस समय सम्भवतः उस आक्रमण को तू सह सकने में समर्थ न होगा और बह जाएगा पुनः उनके द्वारा प्रेरित उसी पहली रौ में । शत्रु का बीज नाश कर देना ही नीति है । जिस प्रकार कि एक कुशा-घास के पाँव में चुभ जाने पर चाणक्य ने उस सारी जंगल की कुशा-घास का बीज नाश कर दिया था, उसी प्रकार जब तक एक भी संस्कार शेष है तुझे सन्तोष नहीं करना चाहिए। बराबर उसके उच्छेद का उद्यम करते रहना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा या अधिक-अधिक, अपनी पूरी शक्ति लगाकर । जिस प्रकार कोई राजा अपने शत्रुओं से सावधान होकर उन्हें पराजित करने लिये पहले उस दल को नहीं छेड़ता कुछ छिपा छिपा सा दूर से ही प्रहार करता है, प्रत्युत उस दल का पहले सामना करता है जो बिल्कुल उसके नगर में प्रवेश कर गया है । परन्तु उसे परास्त कर लेने के पश्चात् भी वह चैन से नहीं बैठ जाता बल्कि तुरन्त ही उस छिपकर प्रहार करने वाले शत्रु की ओर दौड़ता है तथा उसे ललकार कर गुफाओं से बाहर निकालता है। एक-एक का विनाश करता हुआ तब तक चैन नहीं लेता जब तक कि ऐसी अवस्था में न पहुँच जाए कि उसकी ललकार सुनने वाला वहाँ कोई न रहे। उसी प्रकार शान्ति नगर का राजा यह भगवान आत्मा आस्रव तथा बन्ध तत्त्वों से अर्थात् नवीन विकल्पों तथा पूर्व संस्कारों से सावधान होकर उन्हें पराजित करने के लिये, भले पूर्व- सञ्चित संस्कारों को छेड़ने की बजाय पहले नवीन-विकल्पों को परास्त करे अर्थात् संवरण करे, परन्तु केवल संवरण करने पर ही वह चैन से नहीं बैठ जाता, सन्तुष्ट नहीं हो जाता बल्कि तुरन्त ही पूर्व-संस्कारों पर दौड़ता है और क्रम-क्रम से एक-एक को ललकार कर उनसे युद्ध ठानता है । तब तक चैन नहीं लेता जब तक कि उनका मूलोच्छेद न कर दे । और भी, जिस प्रकार नवीन जल-प्रवेश के मार्ग को रोक देने मात्र से जोहड़ में भरे गन्दे पानी के कीटाणुओं से सम्भावित रोगप्रसार का भय दूर नहीं हो जाता बल्कि भयमुक्त होने के लिए उस सम्पूर्ण जल को सूर्य किरणों द्वारा सुखाना आवश्यक है। उसी प्रकार नवीन विकल्पों के प्रवेश को रोक देने मात्र से अन्तरंग में पड़े संस्कारों से सम्भावित विकल्पों के प्रसार का भय दूर नहीं हो जाता बल्कि मुक्त होने के लिये इन सम्पूर्ण संस्कारों का अन्तर्दृढ़ता, बल व साहस के साथ विनाश करना आवश्यक है। यह बात आप सबके अनुभव में भी आ रही है । मन्दिर के अनुकूल वातावरण में प्रातः की इस गुरुवाणी का श्रवण करते हुए एक घण्टे के लिये भले ही कुछ शान्ति सी, कुछ हल्कापनसा, कुछ अनोखासा प्रतीत होने लगता है कि अरे ! क्या रखा है इस गृहस्थ जञ्जाल में, जिस-किस प्रकार भी बस छोड़ दे इसे । इतनी तीव्र जिज्ञासा भी कदाचित् उत्पन्न हुई होगी कि यदि गुरुदेव होते तो अवश्य उनकी शरण को छोड़ अब मैं घर न जाता । परन्तु मन्दिर से निकलते Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. निर्जरा-तत्त्व २. संस्कार - क्षति ही गृहस्थ के वातावरण में गये और फिर वही हाल । कहाँ गई शान्ति और कहाँ गए वे विचार, कुछ पता नहीं। वही विकल्प-जाल, वही अशान्ति । कौन शक्ति है जो मेरी बिना इच्छा के मुझे धकेलकर यह सब कुछ करने पर बाध्य करती है ? वास्तव में अनादि के पड़े वे खोटे संस्कार अर्थात् पहला कर्मबन्ध ही वह शक्ति है जिससे मुझे विकल्प करने की प्रेरणा मिल रही है । इन संस्कारों के प्रति बल व साहस धारकर युद्ध ठानना ही योग्य है। तू वीर की सन्तान है, स्वयं वन, इस आध्यात्मिक युद्ध से मत घबरा । ९६ आज तेरे पास शक्ति है उस प्रकाश की, उस ज्ञान की, उस जिज्ञासा व भावना की, उस आन्तरिक प्रेरणा की जो कि गुरुवाणी सुनने से सौभाग्यवश तेरे अन्दर उत्पन्न हुई है । अब भी यदि इन संस्कारों को न ललकारा और इनके साथ युद्ध करके अपना पराक्रम न दिखाया तो कब दिखायेगा ? क्या उस समय जबकि काल चक्र द्वारा एक ऐसे वातावरण में फेंक दिया जाएगा जहाँ न होगी गुरुवाणी, न होगा देव दर्शन, न होगी आज की भावना, न होगा यह ज्ञान व प्रकाश ; परन्तु तू होगा इन संस्कारों के प्रकोप का शिकार, बहता हुआ होगा इन विकल्पों के ऐसे तीव्र वेग में कि जहाँ तेरे हाथ पाँव मारना भी निरर्थक होगा। याद रख कि ये दुष्ट संस्कार बड़े प्रबल हैं, सदा ही अपनी रक्षा के प्रति सावधान रहा करते हैं । कभी प्राणी में ज्ञान का प्रकाश नहीं होने देते क्योंकि ये जानते हैं कि इस प्रकाश की एक किरण भी यदि हृदय में प्रवेश पा गई तो लेने के देने पड़ जायेंगे। इस कारण भय व प्रलोभन के अनेकों विकल्पों से ये कभी भी प्राणी को अवकाश लेने नहीं देते । आज जो तुझे यह स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है इसे केवल अपना सौभाग्य समझ । सम्भवतः इस अवसर पर आकर इन संस्कारों को कुछ ऊंघ आ गई थी, तभी तो यह वातावरण तेरे द्वारा प्राप्त किया जाना सम्भव हो सका है । आज ये संस्कार स्वयं अपनी भूल पर पछता रहे हैं और देख कितने सहमे हुए से प्रतीत हो रहे हैं। इनका विरोधी वह प्रकाश जो प्रवेश कर गया है तेरे अन्दर ? उसी से भयभीत हैं ये । अब इनको सन्देह हो रहा है स्वयं अपने जीवन का । सोच रहे हैं कि कहीं इस घर को छोड़ने की नौबत न आ जाय । परन्तु इनके पास बड़ा सैन्य बल है, घबराये हुए भी ये आसानी से निकलने को तैयार नहीं । आज ये सामने न आकर छिप-छिपकर प्रहार करने की चिन्ता में हैं अतः गाफिल मत होना, जीवन में जितना समय शेष है उसे इनके साथ युद्ध करने में लगा देना। यदि इस भव में ही इनको परास्त न कर सको तो भी कोई चिन्ता बात नहीं, इनके बल को आप क्षति पहुँचाने में तो आज भी समर्थ हैं ही। यदि इसे आज ही युद्ध प्रारम्भ कर दिया तो आगे के भवों में भी आपकी इस ज्ञान-किरण को ये छीन न सकेंगे और इस प्रकार आपका युद्ध बाधित न हो सकेगा। तीन-चार भवों में बराबर युद्ध को चालू रखते हुए एक दिन आप इनको पूर्णत: परास्त कर देंगे और अबाध, शाश्वत् व विकल्प मुक्त शान्ति-रानी को वर लेंगे । संस्कारों को ललकार-ललकार कर इनसे ठाना जाने वाला यह युद्ध ही आगम-भाषा में कहलाता है 'तप' तथा उसके फलस्वरूप होनेवाली संस्कार - क्षति 'निर्जरा - तत्त्व' । इसमें बहुत अधिक बल लगाने की आवश्यकता है और इसीलिए इस तप को बड़े पराक्रमी तथा निर्भीक योगीजन ही मुख्यतः धारण किया करते हैं। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसको तू आंशिक रूप में भी धारण नहीं कर सकता। तू इतना नपुंसक नहीं है । जितना बल लौकिक कार्यों में लगाता है यहाँ भी लगा, शक्ति को छिपाने के लिए बहाना न बना, यह तेरे हित की बात है । २. संस्कार - क्षति - शान्ति - प्राप्ति की दिशा में पूर्व - संस्कारों को तोड़ने के लिए, तपके द्वारा वर्तमान अल्प-स्थिति में अपनाई जाने वाली उन क्रिया-विशेषों को बताने से पहले इस स्थान पर यह बतला देना आवश्यक है कि किसी भी अच्छे या बुरे लौकिक संस्कार को बनाने का क्रम पहले बताया जा चुका है । (दे० १५.२) बस उससे उल्टा क्रम संस्कार तोड़ने का होना चाहिए । यद्यपि संस्कार तोड़ने के इस क्रम को आप सब जानते हैं क्योंकि आपके अनुभव में आया हुआ है, परन्तु विश्लेषण न कर सकने के कारण वह जाना हुआ भी न जानने के समान है, क्योंकि बिना विश्लेषण किए दीखने वाली क्रिया के क्रमिक अङ्गों के भान बिना, नवीन रूप से उस क्रिया का प्रारम्भ करके उसके अन्तिम फल को प्राप्त करना असम्भव है । मैं आपको यहाँ कोई नई बात बताने वाला नहीं हूँ, यह बात वही है जिसे आप सब जानते हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि आप विश्लेषण रहित जानते हैं और मैं उसी का विश्लेषण करके दिखा रहा हूँ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. निर्जरा-तत्त्व २. संस्कार-क्षति बन्ध-तत्त्व में संस्कार को बनाने के क्रम का विश्लेषण करते हुए यद्यपि चोर का दृष्टान्त दिया गया है, परन्तु सुलभता से समझाया जा सके इस प्रयोजन से यहाँ गाली के संस्कार को तोड़ने का दृष्टान्त दिया जा रहा है। आपकी दृष्टि से बहुत से व्यक्ति ऐसे गुजरे होंगे जो हर बात में किसी गाली रूप अश्लील वचन का प्रयोग कर जाते हैं पर स्वयं यह जान नहीं पाते कि उन्होंने कोई भी अयोग्य वचन कहा है। एक लम्बे अभ्यास वश आज वह क्रिया उनकी अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में जा चुकी है। इसी को लोक में तकिया कलाम कहकर पुकारा जाता है। स्वयं जान पाने की बात तो रही दूर, आपके द्वारा संकेत करने पर भी उन्हें आपकी बात पर विश्वास नहीं आता और कह बैठते हैं कि 'नहीं-नहीं ! मैंने तो कोई अश्लील वचन नहीं कहा है।' इतना पुष्ट हो गया है वह संस्कार कि उनके विवेक को सर्वथा ढक लिया है । वे दोष करके भी उसको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। दृष्टान्त में उनके संस्कार को तोड़ने का क्रम बताना है। इसको तोड़ने के लिए साधक को उत्तरोत्तर अनेकों स्थितियों में से गुजरना पड़ेगा। पहली स्थिति तो अविवेक-पूर्णता की ऊपर कही हुई वह स्थिति है जहाँ कि उसको दोष का स्वीकार ही नहीं होता । यह है पुरुषार्ण-हीनता की स्थिति और इसलिए इसका समावेश अभीष्ट मार्ग में नहीं हो सकता। हाँ इससे आगे की उस दूसरी स्थिति से अवश्य मार्ग प्रारम्भ हो जाता है जबकि वह आपके सुझाने पर यह विचारने लगता है कि “ठीक ही होगा, गाली अवश्य मेरे मुँह से निकली होगी, नहीं तो ये मुझे क्यों टोकते, इनको मुझसे कोई द्वेष थोड़े ही है।" और इस प्रकार आपके कहने पर केवल विश्वास के आधार पर अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है। इससे आगे तीसरी स्थिति वह है जबकि कदाचित् अपने मुँह से निकली गाली पर स्वत: ही उसका उपयोग चला जाने पर उसे यह भान हाने लगे कि “हाँ, गाली निकलती तो अवश्य है, मेरे मित्र ठीक ही कहा करते हैं।” चौथी स्थिति वह है जब कि उसको अपने मुँह से निकली उस गाली की अनिष्टता का भान होने लगे कि “मेरी यह आदत अच्छी नहीं है, सभ्य-व्यक्तियों को यह शोभा नहीं देती, इसे अवश्य त्यागना चाहिए" अर्थात् अपराध-सम्बन्धी निन्दा व उसे छोड़ने की तीव्र-जिज्ञासा उसमें जागृत हो जाए । पाँचवीं स्थिति वह है कि आपके द्वारा सावधान किए जाने पर तत्क्षण ही वह उसके मुँह से निकला शब्द उसके ध्यान में आ जाए और अन्तरंग में वह अपने उस कृत्यपर पछताने लगे। छठी स्थिति वह है जबकि बिना अपकी सहायता के स्वत: ही, कह चुकने के पश्चात् उसे भान होने लगे कि वह शब्द उसके मुँह से निकल चुका है तथा अपने कृत्य पर वह पछताने लगे । यहाँ उसकी यह क्रिया अबुद्धि से बुद्धि की कोटि में आ चुकी है । सातवीं स्थिति वह है जबकि आधा शब्द निकला है और आधा शब्द निकलने को ही था कि उसने बल पूर्वक रोक लिया तथा हो चुकने वाले आधे कृत्य पर वह अन्दर ही अन्दर अपनी निन्दा कर रहा है । आठवीं स्थिति वह है जबकि अन्दर में बोलने के प्रति अभी प्रयत्न या चञ्चलता हुई ही थी कि उसे इसका पता चल जाता है और वहीं उसे दबा देता है, बाहर में बिल्कुल प्रकट होने नहीं देता और अन्तर में भी क्यों प्रकट हुआ, उसकी चिन्ता करने लगता है । नवमी स्थिति वह है जबकि अन्तर में वह चञ्चलता होनी ही बन्द हो जाती है 1 बस अब उसका वह संस्कार टूटा ही जानो। गाली का संस्कार तोड़ने का एक लम्बे समय तक चलने वाला वह पुरुषार्थ, विश्लेषण द्वारा नौ कोटियों में वभाजित करके दर्शाया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि सर्वत्र नौ ही कोटियाँ बनाने की आवश्यकता है, तत्त्व को समझने से मतलब है । यहाँ ऊपर की नौ स्थितियों में हम स्पष्ट देख रहे हैं कि प्रत्येक आगे-आगे की स्थिति इष्ट की सिद्धि में पहली-पहली से कुछ ऊँची है क्योंकि आगे-आगे संस्कार की शक्ति में कुछ हानि देखी जाती है । यदि ऐसा न हुआ होता तो पुरुषार्थ का आगे बढ़कर अन्तिम फल को प्राप्त कर लेना असम्भव था। बस जितने अंश में प्रति-स्थिति संस्का क्षति आई है उतने अंश में उस संस्कार की निर्जरा हई है। पर्ण क्षति का नाम पर्ण-निर्जरा या संस्कार से मुक्ति है। क्रोध के संस्कार को तोड़ने का भी यही नियम है । किसी भी दूषित संस्कार को तोड़ने का यही क्रम है-१. अपराध का स्वीकार, २. अपराध का अनुभव, ३. उसे तोड़ने की जिज्ञासा व उस कृत्य की निन्दा, ४. किसी अन्य की सहायता से उसका अबुद्धि से बुद्धि की कोटि में आना तथा तत्सम्बन्धी पछतावा करना, ५. बिना किसी की सहायता के बुद्धि की कोटि में आना तथा अपने कृत्य पर अपने को धिक्कारना, ६. आधा अपराध होने पर आधे को रोक लेना और पछताना, ७. सम्पूर्ण को बाहर प्रकट होने से रोक लेना तथा अन्तर में उठे तत्सम्बन्धी विकल्प को धिक्कारना, ८. अपराध सम्बन्धी अन्तर विकल्प को भी रोक लेना। DrDAK Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. निर्जरा-तत्त्व ४. संवर में निर्जरा ३. प्रतिकूल वातावरण बस यही क्रम है उन पुष्ट संस्कारों को तोड़ने का जिनके कारण मैं अपनी इच्छा के बिना भी अपने अतिरिक्त अन्य चेतन व अचेतन पदार्थों में इष्ट व अनिष्ट भाव कर बैठता हूँ और व्याकुलता-जनक विकल्पजाल में फंसकर अशान्त हो जाता हूँ। उपरोक्त दृष्टान्त पर से यह बात भी भली भाँति सिद्ध हो जाती है कि इस प्रकार किया गया पुरुषार्थ प्रतिकूल वातावरण में ही हो सकता है अनुकूल वातावरण में नहीं। घर के एकान्त कमरे में बैठकर गाली के संस्कार को तोड़ने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता। जहाँ कोई दूसरा व्यक्ति ही न हो और बोलने का अवसर ही न मिले तो कैसे चलेगा उसका पुरुषार्थ, कैसे पहुँचेगा ऊपर-ऊपर की स्थिति में ? अर्थात् क्रम चलना असम्भव हो जाएगा। यह क्रम तभी चल सकता है जबकि उसके सामने कोई अन्य व्यक्ति हो जिससे बात करने का अवसर उसे प्राप्त हो और गाली का शब्द मुँह से निकलता हो। इसी प्रकार उन-उन पदार्थों में इष्टता-अनिष्टता सम्बन्धी संस्कार भी तभी तोड़े जाने सम्भव हैं जबकि वे पदार्थ इन्द्रियों के विषय बन रहे हों और विकल्प उठ रहे हों । मन्दिर में बैठकर संस्कार-विच्छेद सम्बन्धी यह पुरुषार्थ किया नहीं जा सकता। क्योंकि जहाँ पदार्थ भी नहीं और विकल्प भी नहीं वहाँ किसको लायेगा बुद्धि की कोटि में, किसके प्रति करेगा पश्चात्ताप और अपने किस कृत्य को धिक्कारेगा? अर्थात् मन्दिर से विपरीत घर गृहस्थ के वातावरण में रहकर ही यह पुरुषार्थ किया जाना सम्भव है और वह वातावरण सहज आपको प्राप्त है। ४. संवर में निर्जरा-इसका यह तात्पर्य नहीं कि मन्दिर में आने से अथवा संवर-अधिकार में बताई जाने वाली विशेष क्रियाओं से उस पुरुषार्थ की बिल्कुल सिद्धि नहीं होती। कुछ अंश में संवर के अंग रूप उन क्रियाओं से भी इन संस्कारों की क्षति अवश्य होती है और उसे आप सब अनुभव कर रहे हैं। यदि ऐसा न हुआ होता तो आप आज उपरोक्त क्रम की चौथी कोटि में बैठे हुए न होते । अर्थात् इस प्रवचन द्वारा प्रेरित होकर अपने-अपने दोषों को स्वीकार कर, अपने जीवन में उनका अनुभव, उनके प्रति घृणा, उनको तोड़ने की जिज्ञासा तथा यहाँ बताये जाने पर उन दोषों की अपने उपयोग में पकड़ और उनके प्रति निन्दा, जो इस समय आपके हृदय में उथल-पुथल मचा रही है, कदापि प्रकट न हुई होती। - अत: यह बात स्वीकार्य है कि जहाँ संवर होता है वहाँ निर्जरा भी अवश्य होती है। जहाँ कुछ समय के लिए अनुकूल वातावरण में रहकर विकल्पों को दबाने का पुरुषार्थ होता है वहाँ संस्कार भी अवश्य क्षीण होते हैं । परन्तु यहाँ निर्जरा की मुख्यता का प्रकरण है अर्थात् संस्कार-प्राबल्य के विच्छेद की मुख्यता का, जो संस्कार कि प्रतिकूल-वातावरण में मुझे सब कुछ भुला देता है, सुने व सीखे सब पर पानी फेर देता है। तो फिर संवर व निर्जरा में अन्तर ही क्या रहा, दोनों एक ही तो हैं ? नहीं अन्तर भी है। दोनों में होने वाला पुरुषार्थ यद्यपि एक ही जाति का है अर्थात् विकल्प को रोकने का है तथापि ‘संवर' अनुकूल वातावरण में रहकर विकल्पों को दबाने का नाम है और 'निर्जरा' प्रतिकूल-वातावरण में रहकर विकल्पों को उत्पन्न ही न होने देने के प्रयत्न का। अर्थात् उत्पन्न होते हुए विकल्पों को उपरोक्त क्रम से रोकने का नाम निर्जरा है। संवर में भी पुरुषार्थ लगाना होता है, बुद्धिपूर्वक कुछ करना होता है और निर्जरा में भी। परन्तु संवर में थोड़े बल से ही काम चल जाता है जबकि निर्जरा में अधिक बल की आवश्यकता होती है। अनुकूल वातावरण की अपेक्षा प्रतिकूल-वातावरण में रहकर कोई काम करना अधिक कठिन है। ___ अनुकूल-वातावरण में रहकर संवर के साथ-साथ होने वाली निर्जरा करने का बल तो हमारे अन्दर है ही परन्तु प्रतिकूल-वातावरण अर्थात् गृहस्थ में रहकर निर्जरा करने के, अर्थात् संस्कारों की शक्ति अधिकाधिक क्षीण करने के बल से भी आज सौभाग्यवश हम शून्य नहीं हैं। अत: अपनी शक्ति को न छिपाकर संस्कार-क्षति की दिशा में उसका पूरा-पूरा प्रयोग करें, मन की गहराइयों में छिपे सस्कारों को ललकारें और उनसे युद्ध करें। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. मोक्ष-तत्त्व ( १. मोक्ष तत्त्व; २. काल्पनिक मोक्ष; ३. भाव मोक्ष। १. मोक्ष तत्त्व-समस्त संकल्पों-विकल्पों के मूल संस्कारों का निर्मूलन करके आत्यंतिकी शुद्धता व निर्मलता को प्राप्त, हे पवित्र आत्माओं ! क्या मुझपर दया न करोगे? मुझको भी शक्ति प्रदान कीजिये नाथ ! जिससे कि मैं भी इन सर्व दुःखद संस्कारों का मूलोच्छेदन कर सकूँ, इनकी निर्जरा करके मुक्ति प्राप्त कर सकूँ । शान्ति-मार्ग के विवेचन में सात तथ्य या तत्त्व विचारणा के लिये स्थापित किये गए थे। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर तथा निर्जरा इन छ: तत्त्वों पर विचार कर लिया गया अब बात चलनी है अन्तिम तत्त्व 'मोक्ष' की। 'मुच्' धातु से बने मुक्ति शब्द का अर्थ है छूटना। छूटना किसी बन्धन से ही होता है । जो बंधा ही नहीं उसका क्या छूटना ? गाय रस्से से बँधी है, रस्सा खुलने पर उससे मुक्त हो जाती है । सिंह पिंजरे में बन्द है, निकल जाने पर पिंजरे से मुक्त हुआ कहा जाता है । वन में स्वतन्त्र विचरण करने वाले सिंह की क्या मुक्ति ? बन्दी-गृह में पड़ा बन्दी ही मुक्त किया जा सकता है, स्वतन्त्र नागरिक नहीं। अत: मोक्षका अर्थ बन्धन-सापेक्ष है । जहाँ बन्धन नहीं वहाँ मोक्ष नहीं और जहाँ बन्ध है वहाँ मोक्ष भी है। मुझे अन्य पदार्थों की मोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं, मुझे तो अपनी मोक्ष खोजनी है । मोक्ष खोजने से पहले अपना बन्धन खोजना होगा। बाहर में खोजने पर तो कोई बन्धन दिखाई देता नहीं । बन्दी तो मैं हूँ नहीं, कुटुम्बादिने भी मुझे पकड़कर बिठा नहीं रखा है। स्वयं मेरी कल्पनायें ही बन्धन हैं और इसलिये इन कल्पनाओं से छटने का नाम ही मोक्ष है अर्थात अन्तरंग में पुष्ट वे संस्कार जिनसे प्रेरित होकर मैं ये संकल्प-विकल्प कर रहा हूँ उनसे छूटने का, उनके विनष्ट होने का नाम ही मेरी मुक्ति या मोक्ष है । इसका उपाय निर्जरा व तपके प्रकरण में आ चुका है । अर्थात् संस्कारों से रहित अपनी स्वाभाविक, पूर्ण-स्वतन्त्र तथा शान्त दशा का नाम मोक्ष है। २.काल्पनिक मोक्ष मोक्ष के सम्बन्ध में जो कल्पनायें अब तक की हैं वे सब झूठी हैं क्योंकि वे शान्ति से निरपेक्ष हैं। उन कल्पनाओं का झुकाव शान्ति की ओर न जाकर जा रहा है लोक के शिखर पर, आकाश के किसी विशेष क्षेत्र की ओर, अथवा अनुमानत: किसी पत्थर की बनी हुई शिला की ओर, अथवा पहले से विराजमान अनेक शुद्ध आत्माओं की ओर और इसलिए अनेकों संशय व संदेह उत्पन्न हो रहे हैं उसके सम्बन्ध में । भले मुख से कहता हुआ डरता हूँ कि कहीं गुरुवाणी के प्रकोप का भाजन न बन बैठू। पर इस प्रकार मुख बन्द कर लेने से हृदय की शंकायें तो टल नहीं जातीं? बिल्ली के आने पर यदि कबूतर आँख मूंद ले तो बिल्ली तो टल नहीं जाती ? अन्तरंग में झुककर देख, कुछ इस जाति के अनेकों संशय भरे पड़े हैं वहाँ या नहीं—“क्या रखा है मोक्ष में, न कुछ खाने को न कुछ पीने को, न कुछ बैठने को न कुछ सोने को, न चलने-फिरने को न सैर करने को, न सुसज्जित महल रहने को, और न मोटर व हवाई जहाज घूमने को, न भाई-बन्धु बोलने को, न सुन्दर स्त्रियाँ भोगने को । कुछ भी तो नहीं है वहाँ, बैठे रहो मुख सीये । बराबर में अनेकों बैठे रहें वहाँ पर सब गमसम, मानों पत्थर के बत गढ़कर बिठा दिये हों। यह भी कोई जीवन है ? ज्ञान-ज्ञान की रट सनते हैं पर क्या करें उस ज्ञान को ? ओढ़े या बिछायें ? किसी को बताया तक न जा सके, कुछ नया आविष्कार निकाला न जा सके, हुआ न हुआ बराबर है। आज इस उन्नति के युग में जब चारों ओर ज्ञान का चमत्कार दिखाई दे रहा है, ऐसे ज्ञान का क्या मूल्य ? केवल अन्ध-श्रद्धान का विषय है, किये जाओ, परन्तु कब तक ? एक रोज तो छोड़ना ही होगा।" ___ “मुझे नहीं चाहिये ऐसी मोक्ष । वर्तमान में ही क्या कमी है मेरे पास ? बड़े-बड़े महल, कीमती से कीमती वस्त्र व अलंकार, घूमने को मोटर व जहाज़, बैठने-सोने को खूब गद्देदार डनलप-पिलो के सोफ़ा-सैट व पलंग, खाने को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट व्यञ्जन, भोगने को देवांगना सरीखी स्त्री, बाल बच्चे, और क्या नहीं ? इन सबको छोड़कर एक शून्य-स्थान में जाऊँ जहाँ इनमें से कुछ भी नहीं ? पड़े रहो अकेले। इतना भी तो नहीं कि अपना गम किसी को सुना दूँ । अरे रे ! मोक्ष कहते हैं इसे? कोरी कैद है। भगवान बचाये इस मोक्ष से । भला खाली बैठे रहना कहीं शोभा देता है मनुष्य को? न भाई न ! कोई बहुत बड़ा राजपाट भी दक्षिणा में दे और कहे कि किसी प्रकार मोक्ष ले लो, तो न लूं।" Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षनहीं। १८. मोक्ष-तत्त्व १०० ३. भाव-मोक्ष फिर यह नित्य ही मोक्ष की रटना क्यों ? "मुझे क्या पता था कि वह मोक्ष इस प्रकार की होगी ? मैं तो समझा था कि कोई आकर्षक वस्तु होगी, सारा जगत जिसके गुणगान करता है । सोचता था कि वह कुछ तो होगा ही, परन्तु खोदा पहाड़ और चुहिया भी तो न निकली। भला कौन स्वीकार करेगा जड़ सम बनकर पड़े रहना ? किसे अच्छा लगता है सोफ़ा-सैट को छोड़कर पत्थर की शिला पर पड़े रहना, यों ही अचेत सा।" और इसी प्रकार की अनेकों कल्पनायें। भला विचारिये तो सही कि फिर भी इस मोक्ष की यह रटंत क्यों ? इसमें साम्प्रदायिकता के अतिरिक्त और है ही क्या ? कुछ रुढ़ियाँ व पक्षपात् और हंसी आ जाती है आज मोक्ष का नाम सुनकर, पुराने जमाने की बात कहाँ से लाये हो निकाल कर विज्ञान के इस युग में ? ३. भाव-मोक्ष-मोक्ष का स्वरूप समझे बिना कैसे दबा सकेगा इन विकल्पों को और ये कल्पनायें दबाये बिना क्यों करने लगा इतने बड़े तपश्चरणादि का परिश्रम । अत: भाई मोक्ष-तत्त्व को जानना अत्यन्त आवश्यक है । “तो क्या इसको जाने बिना या इसकी श्रद्धा किये बिना अब तक की सारी पढ़ाई बेकार है ?" वास्तव में ऐसा नहीं है, अब तक की सारी पढ़ाई एक अलौकिक देन है, उसकी अवहेलना मत कर, मोक्ष का सच्चा स्वरूप जानने का प्रयत्न कर। लोक-शिखर में स्थित आकाश के किसी टुकड़े का नाम मोक्ष नहीं । मोक्षशिला का नाम मोक्ष नहीं। वहाँ पर विराजे पूर्व आत्माओं के सम्पर्क का नाम मोक्ष नहीं तेज में तेज की भाँति अपने से भिन्न किसी सत्ता में समा जाने का नाम मोक्ष नहीं। दीपकवत बझकर अपनी सत्ता नष्ट कर देने का नाम मोक्ष नहीं। ज्ञान के अभाव का ना जड़ बनकर पड़े रहना भी मोक्ष नहीं। इतना कुछ प्रयास ऐसे मोक्ष के लिये नहीं किया जाता। ऐसा मोक्ष लेना तो बहुत आसान है, खूब जी भरकर पाप करो, बस मिल जायेगी ऐसी मोक्ष । निगोद का रूप धारण करके पड़े रहोगे सागरों के लिए अचेत, लोक-शिखर में, उसी पत्थर की शिला पर, उन्हीं पवित्र आत्माओं के सम्पर्क में।। भाई ! मोक्ष इतनी तुच्छ सी वस्तु नहीं। वहाँ से दृष्टी हटा । मोक्ष को बाहर में मत खोज, अपने अन्दर में देख, उसी प्रकार जैसे कि अब तक आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा आदि को देखता आया है । मोक्ष किसी क्षेत्र का नाम नहीं है, बल्कि तेरी अपनी ही किसी दशा-विशेष का नाम है जिसमें न संकल्प है न विकल्प, न राग न द्वेष, न इच्छायें न चिन्तायें, न बाह्य पदार्थों का ग्रहण न त्याग, न उनमें इष्टता न अनिष्टता । केवल है एक साम्यभाव जिसमें सर्वप्राणी केवल प्राणी मात्र हैं, न है कोई पुत्र, न है कोई पिता, न है कोई बहन, न है कोई माता, न है कोई मित्र, न है कोई शत्रु, न है कोई राजा, न है कोई रंक, न है कोई बड़ा, न है कोई छोटा, न है कोई ब्राह्मण, न है कोई शूद्र, न है कोई देव, न है कोई तिर्यञ्च । जहाँ है एक साम्यता व शान्ति, विकल्प उठने को अवकाश नहीं, प्रेरक संस्कारों का आत्यन्तिक विच्छेद जो किया जा चुका है पहले ही। विकल्पों के अभाव में शरीर का निर्माण किसलिये करें ? भिन्न-भिन्न रूप क्यों धारें ? क्यों किसी को पत्र मित्रादि बनायें ? किसके लिये यह सब जञ्जाल मोल लें? किसके लिये धन कमायें ? किसको वस्त्र पहनायें ? किसके लिये भोजन बनायें ? किसको पढ़ायें-लिखायें ? किसकी रक्षा करें तथा किसके लिये भीख मांगें? जहाँ विकल्प ही नहीं वहाँ इच्छा किस बात की ? जहाँ शरीर नहीं वहाँ महल, सौफा, पलंग, स्वादिष्ट पदार्थ, सुन्दर स्त्री आदि की आवश्यकता ही कैसी? मित्रों आदि से बातचीत करने की आवश्यकता ही क्या ? आवश्यकता के बिना उनके प्रतिका पुरुषार्थ कैसा? पुरुषार्थ के बिना व्यग्रता कैसी ? व्यग्रता के बिना दुःख क्या और दुःख के बिना रहा ही क्या? केवल एक शान्ति जो तेरा स्वभाव है, तेरा सर्वस्व है । इन विकल्पों के नीचे ही तो दबी पड़ी थी वह, कहीं भाग तो न गई थी जो कहीं से लानी पड़ती। ऊपर से यह सब कूड़ा-कर्कट फूंक डाला, बस यह रही तेरी पवित्रता, शान्ति-रानी । और क्या चाहिये था तुझे? इसी को तो लक्ष्य में लेकर चला था, इसी के लिए तो लक्ष्य बनाया था, इसी के लिए तो इतना लम्बा प्रयास किया था। बस मिल गई वह, अभीष्ट की प्राप्ति हो गयी। जो करना था सो कर लिया जहाँ जाना था वहाँ पहुँच गया, कृतकृत्य हो गया, मार्ग समाप्त हो गया। और क्या चाहिये? और कुछ चाहिये तो फिर वहीं जाना होगा, विकल्पों में, व्यग्रताओं व चिन्ताओं में जिनको छोड़कर कि यहाँ आया है । इस पूर्ण व आत्यन्तिकी तेरी अपनी शान्ति का नाम ही मोक्ष है। यहाँ न खोजकर वहाँ खोजने के लिए गया, तभी तो उस सेठ ने मोक्ष जाना स्वीकार न किया । क्योंकि वहाँ उसे न दिख सके अपने दस पुत्र, और न दिख सके दस कारखाने । क्या करता वहाँ जाकर? भाई ! मोक्ष की सच्ची अभिलाषा है तो अभी से इस बाह्य जञ्जाल से तथा इन सम्बन्धी अन्तरंग विकल्पों से धीरे-धीरे मुक्ति पाना प्रारम्भ कर । जितनी-जितनी इनसे मुक्ति पायेगा उतनी-उतनी अन्तरंग में शान्ति प्रकट होगी । बस उतनी-उतनी ही मोक्ष हुई समझ। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन ( १. पंच लक्षण समन्वय; २. विविध अंग । १. पंच-लक्षण-समन्वय शान्ति मार्ग की क्रियात्मकता के अन्तर्गत श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र का तथा इनके विषयभूत सात तत्त्वों का कथन पूरा हुआ। अब इस मार्ग के सर्वप्रथम अंग 'श्रद्धा' का अथवा सम्यग्दर्शन का कुछ विशेष विस्तार करना यहाँ प्रयोजनीय है। यहाँ यह सन्देह उत्पन्न होता है कि आगम में सम्यक्त्व या शान्तिमार्ग-सम्बन्धी सच्ची श्रद्धा के अनेकों लक्षण दिये गये हैं, परन्तु यहाँ उनमें से एक भी कहा नहीं गया है, केवल एक शान्ति की रट लगाते चले आये हैं । तो क्या आगम के इन लक्षणों को मिथ्या मान लें? नहीं भाई ! ऐसा भूलकर भी न करना और उन्हें मिथ्या मानने के लिए अवकाश भी तो नहीं है। तनिक समझ में फेर है, ध्यान देकर समझे तो सभी लक्षणों में एक ही बात दृष्टिगत होती है । भिन्न-भिन्न रुचिवाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ ही गुरुजनों ने एक ही बात को भिन्न-भिन्न रूपों से का हो, परन्तु सबमें अभिप्राय एक ही है । जिस प्रकार मैं बताता हूँ उस प्रकार देख, इन सबमें एक शान्ति ही नृत्य करती दिखाई दे रही हैं सम्यक्त्व सम्बन्धी लक्षण आगम में मुख्यतया चार प्रकार से करने में आता है-१. सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र या सच्चे धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धान । २. सात तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धान। ३. स्वपर-भेद-दृष्टि । ४. आत्मानुभव व स्वात्म रुचि । ५. इनके अतिरिक्त एक लक्षण वह जो कि मैं करता चला आया हूँ. 'शान्ति के प्रति रुचि व झकाव'। ये पांचों ही लक्षण वास्तव में शान्ति के प्रति संकेत करते हैं। वह कैसे ? देखिये १. यद्यपि शब्दों में ये पांचों लक्षण पृथक्-पृथक् दीख रहे हैं परन्तु गौर से देखने पर इन पांचों में कोई भेद नहीं है। देखो पहला लक्षण है, 'सच्चे देव, गुरु व धर्म पर दृढ़श्रद्धान' । इस लक्षण का स्पष्टीकरण करने के लिये मुझे आवश्यकता पड़ेगी यह पूछने की कि तू देव व गुरु किसे समझता है । यदि नग्न शरीर, केश-लुंचनादि तथा अन्य शारीरिक लक्षणों सहित को गुरु और अद्वितीय तेज:पुञ्ज-शरीरधारी तथा छत्र, चमर आदि सहित को देव मानकर, उन सम्बन्धी दृढ़ श्रद्धा करे तो उसे तो सम्यक्त्व कहेंगे नहीं क्योंकि उसका नाम देव व गुरु है ही नहीं ? वास्तविक देव व गुरु को जाना नहीं, श्रद्धा किसकी करेगा? कुल-परम्परा से नग्न-शरीर इत्यादि लक्षणों को देखकर देवादि स्वीकार करना तो साम्प्रदायिक श्रद्धा है, अन्धश्रद्धा है। बिना परीक्षा किये कोई बात स्वीकार करना श्रद्धा नहीं। साम्प्रदायिक श्रद्धा तो अपने-अपने देव व गुरु के प्रति सबको ही है। यदि कहो कि मेरी श्रद्धा सच्चे देव-गुरु के प्रति है इसलिये यह सच्ची है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि बिना परीक्षा किये सच्चे व झूठे का पता कैसे चला? तेरे पिता ने कहा है कि वह सच्चे हैं, इसका नाम तो परीक्षा नहीं। आगे साधना-खण्ड में इस विषय पर काफ़ी प्रकाश डाला जाने वाला है। शान्ति या वीतरागता के आदर्श का नाम देव व गुरु है, शान्ति व वीतरागता सम्बन्धी उपदेश का नाम शास्त्र है, शान्ति व वीतरागता को प्राप्त करने के मार्ग का नाम धर्म है । बिना शान्ति की पहचान के कौन देव, कौन गुरु, कौन धर्म व कौन शास्त्र ? इसलिए शान्ति का अनुभव,हुए बिना देव व गुरु आदि की श्रद्धा सच्ची श्रद्धा नहीं कही जा सकती। अत: इस लक्षण में शान्ति के अनुभवकी ही मुख्यता है। २. दूसरा लक्षण है सात तत्त्वोंपर दृढ़श्रद्धान । अब तू ही बता कि सात तत्त्व किसे कहता है और उनकी श्रद्धा किसे मानता है ? यदि सात तत्त्वों के नाम तथा उनके भेद-प्रभेद मात्र को जानकर तत्सम्बन्धी श्रद्धा करने को श्रद्धा कह रहा है तब तो वह सच्ची श्रद्धा है नहीं। ऐसी श्रद्धा तो प्रत्येक जैनी को है, पर सब सम्यग्दृष्टि नहीं हैं । इन सात बातों में हेयोपादेय-बुद्धि बनाकर हेय को त्यागने के प्रति और उपादेय को ग्रहण करने के प्रति झुकाव हो जावे; मोक्ष या पूर्ण शान्ति का लक्ष्य-बिन्दु बनाकर अजीव,आस्रव तथा बन्ध तत्त्वों को हेय जानकर छोड़े और जीव, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष को उपादेय मानकर ग्रहण करे; अजीव, आस्रव तथा बन्ध में आकुलता देखे और जीव, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष में Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन १०२ १. पंच-लक्षण-समन्वय शान्ति देखे। ऐसे सात तत्त्वों की एकत्व रूप श्रद्धा का नाम सच्ची श्रद्धा है । शान्ति के अनुभव के बिना वास्तविक रीति से हेयोपादेय का भेद नहीं किया जा सकता। भले गुरु के उपदेश के आश्रयपर मान लेता हो, पर वह तो श्रद्धान शब्दात्मक हुआ, रहस्यात्मक नहीं। अत: इस लक्षण में भी शान्ति के वेदन की ही मुख्यता है। ३. तीसरा लक्षण है स्वपर-भेददृष्टि । इस लक्षण में तथा उपरोक्त सात तत्त्वों वाले लक्षण में विशेष भेद नहीं है। क्योंकि यहाँ हेय तत्त्वों को 'पर' में और उपादेय तत्त्वों को 'स्व' में समाविष्ट कर दिया गया है । 'स्व' अर्थात् मैं जीव हूँ और संवर-निर्जरा के द्वारा प्राप्त शान्ति ही मेरा स्वभाव है, मोक्ष मेरे ही स्वभाव का पूर्ण-विकास है। अजीव 'पर' तत्त्व है, इसके आश्रय से उत्पन्न होने वाले आस्रव व बन्ध मेरी शान्ति के घातक हैं । अत: अजीव, आस्रव, बन्धको 'पर' तत्त्व समझकर छोड़ और जीव, संवर, निर्जराको 'स्व' तत्त्व समझकर ग्रहण कर । शान्ति के अनुभव बिना कैसे जाने कि मैं 'जीव' कौन ? जीव को अर्थात् 'स्व' को जाने बिना 'पर' किसे कहेगा? प्रकाश को जाने बिना अन्धकार किसे कहेगा? केवल शरीर ही जीव-रूप से दिखाई देगा । उसे ही तो छडाना अभीष्ट है। भले जीव का नाम बदलकर 'मै आत्मा हूँ, शरीर से पृथक् हूँ' ऐसा कह दे पर अनुभव के बिना वह आत्मा क्या यह तो पता नहीं। शब्दों में आगम के आधार पर भले लक्षण कर दे पर अनुभव के बिना तेरे वे लक्षण अन्धे के तीरवत् ही तो हैं । इसलिए 'स्वपर-भेद दृष्टि' में भी शान्ति का अनुभव ही प्रधान है। ४. चौथा लक्षण है आत्मानुभव । सो तो स्पष्ट अनुभव रूप कहने में आ ही रहा है । आत्मा का अनुभव क्या? वह भी तो शान्ति का वेदन ही है । अनुभव तो स्वाद का हुआ करता है, सुख व दुःख का हुआ करता है । जैसे सूई चुभने का अनुभव सूई के ज्ञान से कुछ पृथक् जाति का है। इसी प्रकार निजका अनुभव निजके ज्ञान से कुछ पृथक् जाति का है । ज्ञान में वस्तु के आकारादि गुणों की प्रधानता होती है और उसका प्रत्यक्ष-ज्ञान होना अल्पज्ञ को सम्भव नहीं है, परन्तु सुख व दुःख का प्रत्यक्ष होना प्रत्येक को सम्भव है । जैसे अन्धे को सूई का ज्ञान होना तो सम्भव नहीं है पर उसके चुभने का प्रत्यक्ष-वेदन होना सम्भव है। इसीलिए आत्मानुभव का अर्थ ही शान्तिरूप स्वभाव का अनुभव है। ५. स्वात्म-रुचि भी इसी का अंग है। 'उपयोग की रुचि', निज-शुद्धस्वरूप में रहना है अर्थात् निज शान्ति के अनुभव की रुचि है । पर पदार्थों में जब तक रुचि रहती है तब तक निज स्वभावभूत शान्ति की प्राप्ति नहीं होती । अत: परपदार्थों की रुचि त्यागकर स्वात्म-रुचि का होना स्वात्मानुभवका कारण है । इसलिए स्वात्मरुचिको ही सम्यक्त्व कह दिया । और वही तो मैं भी कहता चला आ रहा हूँ। अब बताओ कि इन पाँचों लक्षणों में कहाँ भेद दीखता है ? शान्ति का वेदन हो जाने के पश्चात् ही स्वात्म-रुचि व आत्मानुभव हुआ कहा जा सकता है । इसके होने पर ही अपना स्वभाव अर्थात् 'स्व' तत्त्व दृष्टि में आता है । इसके होने पर ही 'पर' तत्त्व का यथार्थ भान होता है। उसके होने पर ही शान्ति व अशान्ति, निराकुलता व व्याकुलता, सुख व दुःख उपादेय व हेय का ज्ञान होता है । जिसने आजतक शान्ति ही नहीं जानी उसे क्या पता कि अशान्ति किसे कहते हैं ? उसकी दृष्टि में तो मन्द-अशान्ति, शान्ति है और तीव्र-अशान्ति, अशान्ति । उपरोक्त प्रकार हेयोपादेय का भेद हो जाने पर ही सात तत्त्वों का भाव समझ में आता है । शान्ति का वेदन हो जाने पर ही शान्ति के आदर्शरूप देव व गुरु का तथा शान्ति के उपदेश रूप शास्त्र का अथवा शान्ति के पथरूप धर्म का भान होता है । अत: सर्व लक्षणों में एक शान्ति का ही नृत्य हो रहा है। जिसने शान्ति को नहीं चखा, वह कैसे जान सकता है कि मैं कौन हूँ ? 'मैं' को जाने बिना क्या जाने कि जीव या आत्मा किसे कहते हैं । अपने को जाने बिना दूसरे जीवों को कैसे जाने ? जिस प्रकार अपने सम्बन्ध में कल्पनायें करता है उसी प्रकार दूसरों के सम्बन्ध में भी करेगा। कैसे जान पायेगा कि जीव-तत्त्व क्या है ? जीव तत्त्व को जाने बिना व-तत्त्व की क्या पहिचान करेगा? क्योकि जीव के संसर्ग से यह (अजीव-तत्त्व) बिल्कुल जीववत् चेतन दिखाई दे रहा है। जीव की पहिचान के बिना उसमें भेद कैसे करेगा? शान्ति या निर्विकल्पता के अनुभव बिना विकल्पों की पहिचान क्या करेगा ? विकल्पों की पहिचान किये बिना आस्रव-बन्ध किसे कहेगा तथा निर्विकल्पता के अथवा शान्ति Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ १९. सम्यग्दर्शन २. विविध अंग के वेदन बिना संवर, निर्जरा व मोक्ष किसे कहेगा? कोरी कल्पनायें करेगा, और इसके अतिरिक्त कर भी क्या सकता है? शान्ति का अनुभवात्मक या रसात्मक स्वरूप जाने बिना किसे शान्ति का आदर्श कहेगा, किसे देव व गुरु कहेगा, किसे शान्ति का मार्ग व उपदेश कहेगा, किसे धर्म व शास्त्र कहेगा ? अत: सर्व-लक्षणों में शान्ति का वेदन तथा उसके प्रति की झुकाव रूप श्रद्धा ही प्रधान है। एक की प्रधानता होते हए भी भिन्न-भिन्न अभिप्राय वाले शिष्यों के प्रतिबोधनार्थ भिन्न-भिन्न लक्षण किये गये हैं। शान्ति का नमना दिखाने के लिए देव-गरु की श्रद्धा कही गई है. क्योंकि मार्ग का श्री-गणेश यहाँ से ही करना है। शान्ति का नमूना देखे बिना उसके प्रति का झुकाव कैसे होगा और झुकाव हुए बिना पुरुषार्थ क्या करेगा? झुकाव हो जाने पर भी यथार्थ उपदेश प्राप्त किए बिना पुरुषार्थ क्या करेगा? अत: प्राथमिक शिष्यको देव, गुरु, धर्म व शास्त्र की श्रद्धा वाला लक्षण बहुत हितकारी है इनके प्रति बाह्य की रुचि व श्रद्धा के आधार पर ही कदाचित् वह यथार्थ-शान्ति को स्पर्श कर सकता है। हेयोपादेय को जाने बिना किसके ग्रहण व त्याग का प्रयास करेगा, इसलिए सात तत्त्वों की श्रद्धा भी प्राथमिक शिष्य के लिए बड़ी कार्यकारी है । 'स्वपर' में ऊपरी भेद जाने बिना किसके प्रति उदासीन होगा और किसके प्रति झुकाव करेगा, इसलिए प्राथमिक दशा में ऊपरी 'स्वपर' भेद जानना भी बहुत कार्यकारी है। इस प्रकार देखने पर इन तीनों बाह्य लक्षणों में भी मात्र शान्ति का लक्ष्य ही पुकार रहा है। इस प्रकार पाँचों लक्षणों में शब्दों का भेद होते हुए भी अभिप्राय की एकता है। २.विविध अंग-अहो ! आध्यात्मिक प्रकाश की महिमा ! जिसका लक्ष्य शान्ति की ओर गया उसका जीवन बदल गया, उसकी विचारणाओं की दिशा घूम गई, उसकी रीति अटपटी-सी भासने लगी। सामान्य जगत् को उसकी बातों पर आश्चर्य होता है। वह जगत को और जगत उसे मूर्ख समझने लगता है। परन्तु साधारण व्यक्ति बेचारे क्या जानें कि उसके अन्तरंग में क्या बीत रही है । शान्ति का उपासक पद-पदपर शान्ति का स्वाद लेने में मग्न हुआ चला जा रहा है, अन्य सब स्वादों का तिरस्कार करता हआ। उसके ढंग निराले हैं, उसके जीवन में अनेकों चिह्न या लक्षण स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाते हैं, जिनको वह बुद्धिपूर्वक नहीं बनाता । लौकिकजन भी उसकी नकल करके अपने जीवन में जबरदस्ती उन लक्षणों को बनाना चाहते हैं, जिससे कि वे भी किसी प्रकार धर्मियों की श्रेणी में गिने जाने लगें । क्या करें बेचारे, धर्मी बनने की उत्कण्ठा ही ऐसी है जो उन्हें यह कृत्रिम स्वांग खेलने को बाध्य करती है । परन्तु उसके द्वारा अपने अन्दर उत्पन्न किये गये वे चिह्न बिल्कुल पेबन्द सरीखे भासते हैं, उस कौवेवत् जिसने कि मोर के पंख चढ़ाकर अपने को मोर बनाना चाहा है । धर्मी-जीव के इन लक्षणों को ही सम्यक्त्व के अंग या गुण कहते हैं। इन लक्षणों पर-से धर्मी जीव को या उस जीव को जिसका लक्ष्य शान्ति पर केन्द्रित हो चुका है, भली-भाँति पहिचाना जा सकता है अन्य भी शान्ति के इच्छुक उसके जीवन में इन गुणों का साक्षात्कार करके अपने इस विश्वास को दृढ़ बना सकते हैं और वह धर्मी स्वयं भी इन गुणोंपर-से अपनी परीक्षा कर सकता है कि कहीं मार्ग से विचलित तो नहीं हो गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-१. नि:शंकता, २. निराकांक्षता, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ़दृष्टि, ५. उपगूहन या उपबृंहण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८. प्रभावना, ९. प्रशम, १०. संवेग, ११. अनुकम्पा, १२. आस्तिक्य, १३. मैत्री, १४. प्रमोद, १५. कारुण्य और १६. निरहंकारता। आगे इन्हीं का पृथक्-पृथक् विस्तार करने में आता है। (१) शान्ति का उपासक दृढ़तया निश्चय कर बैठा है कि वह चैतन्य है, निर्बाध है, अमूर्तीक है, ज्ञानपुञ्ज है, शान्ति का स्वामी है और कोई भी उसके इन गुणों में बाधा डालने को समर्थ नहीं । इसलिये उसमें एक निर्भीकता-सी उत्पन्न हो जाती है, कोई अलौकिक साहस जागृत हो जाता है । वह इस कुछ थोड़े से वर्षों मात्र के जीवन में अपने को सीमित करके नहीं देखता, भूतकाल में अनादि से चले आये और भविष्यत काल में अनन्त काल तक चले जाने वाले सम्पूर्ण जीवनों तथा रूपों को फैलाकर एक अखण्ड जीवन के रूप में देखने लगता है । इसलिये मृत्यु उसकी दृष्टि में खेल हो जाती है । एक खिलौना लिया तोड़ दिया, दूसरा लेकर खेलने लगा, बस इसके अतिरिक्त और मृत्यु है भी क्या ? इस शरीर के त्याग का नाम वह मृत्यु समझता ही नहीं, केवल पुराने वस्त्र उतारकर नवीन वस्त्र धारण करनेवत् समझता है, सराय के एक कमरे को छोड़कर दूसरे कमरे में चला जाना मात्र समझता है जो सम्भवत: पहले वाले से कुछ अच्छा है । मृत्यु उसकी दृष्टि में Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन १०४ २.विविध अंग रूप-परिवर्तन मात्र है, विनाश नहीं । उसमें उसे कोई हानि दिखायी नहीं देती। हानि दिखायी देती है केवल एक ही बात में और वह है उसकी शान्ति में बाधा । उसे सब कुछ सहन है पर शान्ति का विरह सहन नहीं। अत: उन संकल्प-विकल्पों को मृत्यु समझता है जो क्षण-क्षण में आकर उसे बाधित करने का प्रयत्न करते हैं । उसका जीवन शरीर नहीं शान्ति है। ___ वह हर प्रकार से निर्भय रहता है । १. उसे लोक में किससे भय लगे? लौकिक कोई भी शक्ति शरीर को बाधा पहुँचा सके तो कदाचित् किसी अपेक्षा पहुँचा सके पर उसकी शान्ति को बाधा पहुँचाने में स्वयं उसके अतिरिक्त कोई समर्थ नहीं। इस जीवन में कोई उसके शरीर को बाधा न पहुँचा दे, इस बात का उसे क्या भय? २. अगले भव में कैसा शरीर या वातावरण मिले, इस बात की उसे क्या चिन्ता ? कुछ मिले या न मिले, उसकी शान्ति उसके पास है। ३. शरीर का विनाश उसका विनाश नहीं अत: उसे मृत्यु से क्या डर? ४. शरीर की ही परवाह नहीं तो रोग आने की क्या चिन्ता ? ५. अन्य के द्वारा अपनी रक्षा की क्या आवश्यकता? ६. उसकी शान्ति स्वयं उसमें गुप्त रूप से सुरक्षित है, अत: किसी गुप्त स्थान में छिपकर इस शरीर की रक्षा का भाव उसे क्यों आये ? ७. 'अकस्मात् ही कोई बड़ा कष्ट न आ पड़े, बिजली न गिर पड़े, बम न गिर पड़े' इत्यादि भय को कहाँ स्थान ? इस प्रकार सातों मुख्य भयों से मुक्त निर्भीक-वृत्ति वह सिंह की भाँति बराबर अपनी शान्ति की रक्षा करने में तत्पर हुआ, आगे बढ़ता चला जाता है। लोग कछ भी कहे पर वह किसी की सनता नहीं। उसका एक ही लक्ष्य है-'आगे बढ़ो शान्ति की ओर । मृत्य आ जाए परवाह नहीं, इससे पहले जहाँ तक हो सके बढ़ो । मृत्यु के पश्चात् अगले जीवन में पुन: वही पुरुषार्थ चालू करो, उस स्थान से आगे जहाँ कि इस जीवन में छोड़ा है।' पीछे मुड़कर देखना उसका काम नहीं। लोग बेचारे सहानुभूति करें, दया दर्शायें, पर वह किसी की नहीं सुनता। जानता है कि इन बेचारों को नहीं पता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ? अत: केवल हँस देता है उनकी बातों पर और चल देता है आगे। वह जानता है कि लोगों की सहानुभूति शरीर के साथ है, उसकी शान्ति के साथ नहीं, अत: उनके कहने पर अपना मार्ग नहीं छोड़ता। उसके हाथ में है (Excelsior) 'ऊँचे ही ऊँचे' की पताका, इसकी लाज बचाना ही उसका कर्तव्य है। ओह कितनी निर्भीकता? कोई कृत्रिम-रूप से अपने में प्रकट करना चाहे तो क्या सम्भव है ? ऊपरी प्रवृत्तियों में या शरीरादि की क्रियाओं में भले प्रकट न होने दे पर अन्तर में पड़े भय को कैसे टाले, हृदय तो कांप ही रहा है । यह निर्भीकता ही है उसका नि:शंकित गुण, अर्थात् उसे भय की शंका स्वाभाविक रीति से नहीं होती। यह शंका हो सकती है कि ज्ञानी को भी भय होता तो देखा जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगे निर्विचिकित्सा-गुण के अन्तर्गत दिया गया है, वहाँ से जान लेना। अथवा “मैं जीव हूँ, शान्ति का पुञ्ज हूँ, अन्य कुछ नहीं । अन्य से मुझे कुछ लाभ-हानि नहीं, इन क्षणिक विकल्पों के अतिरिक्त अन्य कोई मेरा शत्रु नहीं, विस्तृत रूप से साधना-खण्ड में निर्णय किया गया देवदर्शन आदि प्रवृत्तियों रूप मार्ग ही मेरा मार्ग है, पूर्ण शान्ति ही मेरी मोक्ष है।" हेयोपादेय तत्त्वों का इस प्रकार अनुभवात्मक निर्णय हो जाने पर कौन शक्ति है जो उसके इस श्रद्धान में कम्पन उत्पन्न कर सके । स्वयं भगवान भी आयें तो वह अपना विश्वास बदलने को तैयार नहीं। उसने अहित को व हित को स्वयं साक्षात रूप से मँह-दर-मँह खडा करके उसे ? उसका श्रद्धान पूर्व में बताये अनुसार चौथी कोटि की श्रद्धा में प्रवेश पा चुका है (देखो ५.३) । अत: 'यह ऐसे है कि ऐसे' इस प्रकार तत्त्वों में या गुरु-वाक्यों में उसे शंका क्यों उपजे ? स्वाभाविक रूप से ही उसकी इस प्रकार की सर्व शंकायें मर चुकी हैं । यह भी उसकी नि:शंकता का ही दूसरा लक्षण है। लौकिकजन भले उसकी देखमदेखी गुरु-वाक्यों में जबरदस्ती शंका उत्पन्न न करें । “जिन-वचन में शंका न धारो गुरु का ऐसा उपदेश है। यदि तत्त्वों आदि में शंकायें करूँगा, युक्ति व तर्क करूँगा, संशय करूँगा, तो मेरा सम्यक्त्व घाता जायेगा, अत: चुप ही रहना ठीक है" ऐसा मानकर तत्त्व समझने के लिये प्रश्न भी करते डरते हैं । अरे प्रभु ! सम्यक्त्व है ही नहीं, घाता क्या जायेगा? शान्ति पर लक्ष्य है ही नहीं, विच्छेद किसका होगा। भले शब्दों में न कहे पर हृदय में उत्पन्न हुई शंकाएँ कैसे दबायेगा? 'यदि ऐसा करूँगा तो सम्यक्त्व घाता जायेगा' ऐसा भय ही तो शंका है । वह तो उठ ही रही है। भगवन् ! यह तेरी शंका तो तुझे जागृत करने आई है । सावधान हो । अपने को झूठ-मूठ धर्मी मान बैठा है केवल बाह्य की कुछ क्रियाएँ करने के आधार पर, तो तेरी कल्पना झूठी है । ऐसा झूठा सन्तोष त्याग । वस्तु कुछ और ही है, उसे Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन २. विविध अंग तू आज तक जान नहीं पाया है, शास्त्र पढ़े हैं पर रहस्य नहीं समझा है, अत: उसे समझ और पूर्व कथित मार्ग पर चल । अपने जीवन को उस सांचे में ढाल, शान्ति का अनुभव कर और तब प्रकटेगी तेरी निःशंकता । यों नक़ल करने से तुझे क्या लाभ ? जबरदस्ती शंकाओं को दबाने का नाम निःशंकता नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से अन्तरंग अनुभवात्मक निर्णय के • कारण शंका को अवकाश ही न रहे, इसका नाम निःशंकता है। धर्मी को ऐसी ही निःशंकता होती है बनावटी नहीं । (२) शान्ति के उपासक को शान्ति के अतिरिक्त किसी बात की अभिलाषा नहीं और शान्ति स्वयं उसके पास है, बाहर कहीं से आनी नहीं है । इन्द्रिय-भोगों के प्रति उसे बहुमान नहीं, क्या माँगे बाहर के संसर्गों से ? 'इस लोक में मैं सुखी रहूँ, मुझे कोई बाधा न आवे, खूब धन हो, स्त्री हो, कुटुम्ब हो, ख्याति हो इत्यादि' तथा 'मृत्यु के पश्चात् परलोक में मुझे कोई अच्छी गति मिले, मैं नरक, पशु आदि गतियों में न जाऊँ, देव ही बनूं या राजा आदि पदों की प्राप्ति हो इत्यादि ऐसी आकांक्षायें उसे होती ही नहीं। उसके लिये सब योनि समान हैं । सब उसी के एक अखण्ड जीवन के भिन्न-भिन्न रूप हैं, (दे० ७.२) किसके प्रति आकर्षित हो ? देव-गति में ही क्या विशेष आकर्षण है जो नरक गति में नहीं ? देवगति तो उसकी दृष्टि में है तेंतीस सागर की कैद । चाहते हुए भी और शक्ति के होते हुए भी शान्ति- पथपर आगे न बढ़ सके, इससे बड़ा दुःख और क्या होगा उसे ? हृदय मसोस कर रह जाता है, क्या करे क़ैद पूरी हुए बिना उसे कुछ करने की आज्ञा नहीं है। नरक -गति में भी उसे कोई द्वेष नहीं है, उसे तो शान्ति चाहिये । नरक ही क्या, इससे भी बुरी कोई योनि हो तो स्वीकार है, परन्तु शान्ति मिलनी चाहिये । अतः धन-सम्पत्ति या सुन्दर शरीर आदि की, इस भव के लिये या अगले भवों के लिये उसे कदापि आकांक्षा नहीं होती । बाह्य-सुविधा और बाह्य- बाधा उसकी दृष्टि में समान हैं। भोगादि के सुख उसे सुख भासते नहीं, आकांक्षा किसकी करे ? व्यवहार में या निश्चय में, किसी प्रकार भी उसे आकांक्षा होती नहीं । आकांक्षा है केवल एक अपनी शान्ति की रक्षा की, अन्य कुछ नहीं । और तो और 'विदेह क्षेत्र में जाकर प्रभु के दर्शन करने से मुझे कुछ लाभ होगा, अतः किसी प्रकार विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊँ तो अच्छा', इस प्रकार की भी आकांक्षा नहीं। उसका प्रभु सर्वदा उसके पास है, नित्य ही वह उसका साक्षात्कार करता है, अत: वह आकांक्षा भी क्यों हो ? यह है उसका नि:कांक्षित गुण । १०५ उसकी देखमदेखी लोग भी शब्दों में 'मुझे स्वर्गादि भोग नहीं चाहिये, वर्तमान में भी यह भोग-सामग्री मेरे लिये कोई विशेष आकर्षक नहीं, मुझे कुछ आकांक्षा नहीं और यदि स्वर्गादि या भोगादि की आकांक्षा करूँगा तो मेरा सम्यक्त्व घाता जायेगा, इत्यादि', इस प्रकार भले शब्दों में कहता रहे पर अन्तरङ्ग में पड़े इनके प्रति के आकर्षण को कैसे बाये ? वहाँ तो बराबर आकांक्षा छिपी हुई है ही । और रूप में न सही पर 'विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊँ तो भगवान के दर्शन से कुछ लाभ उठाऊँ, ऐसी आकांक्षा तो मुखपर भी आ ही जाती है। मुख पर लाना भी देखमदेखी या सुन-सुनाकर रोकले तो अन्तरंग में पड़ी आकांक्षा का क्या करेगा ? सम्यक्त्व है ही कहाँ जो कि इस आकांक्षा से घा जायेगा । प्रभो ! यह उपाय नहीं है इसे दबाने का । यदि नकल ही करके आकांक्षा दबाना इष्ट है तो पूर्वकथित मार्ग के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न कर। स्वतः टल जायेगी सब आकांक्षाएँ । धर्मी जीवों का नि:कांक्षित गुण कृत्रिम नहीं होता, स्वाभाविक होता है वह नकल करके अपनाया नहीं जाता, जीवन में परिवर्तन करके अपनाया जाता है। (३) शान्ति व सुन्दरता में ओत-प्रोत वह लोक में सर्वत्र शान्ति ही का प्रसार देखता है। चेतन-अचेतनं पदार्थों का निर्णय किया है, उस पर दृढ़ श्रद्धान किया है, अपने सर्व लौकिक व्यवहारों में भी उस निर्णय का प्रयोग करने का सर्वदा प्रयास करता रहता है, सर्व विश्व को एक ब्रह्म के या ईश्वर के निवास के रूप में अथवा अपने द्वारा की गई सृष्टि के रूप में देखता है, (देखो २३.१०) इसीलिये पदार्थों को उनके असली रूप में देखता है। उनके क्षणिक इन बाह्य रूपों में सुन्दरता व असुन्दरता उसे दीखती ही नहीं। जड़ हो कि चेतन सर्व में उस-उस जाति के रूप को ही देखता है। लोक में दीखने वाले जड़ के सुन्दर - असुन्दर रूपों में केवल जड़त्वका और चेतन के मनुष्य- पशु, धनवान्-निर्धन, स्वस्थ-रोगी आदि रूपों में केवल चेतनत्व का ही उसे भान होता है। बाहर के इन रूपों की उसकी दृष्टि में कोई सत्ता नहीं, क्योंकि जो अब है कल नहीं, उसकी क्या सत्ता ? (देखो ९.२) अब सुन्दर है और कल असुन्दर अब मिष्टान है और कल Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन १०६ २.विविध अंग विष्टा, तीन दिन पीछे फिर अन्न और फिर मिष्टान्न । इन रूपों का क्या मूल्य ? बहुरूपिये का स्वांग है। वह ज्ञानी इस स्वांग से भली-भाँति परिचित है। उसे इस स्वांग में क्यों भ्रम होने लगा। इसीलिये उसे मिष्टान्न के प्रति आकर्षण और विष्टा के प्रति घृणा नहीं होती, किसी पुरुष में मित्रता और किसी में शत्रुता का भान नहीं होता, किसी में अपनत्व और किसी में परत्व का भाव नहीं आता । यही है उसका निर्विचिकित्सा गुण। तू तो कुछ सोच में पड़ गया है भाई ! यह सुनकर । सम्भवत: सोच रहा हो कि गृहस्थ की या ऊपर की भी यथायोग्य भूमिकाओं में, ज्ञानी की यथार्थतया यह दशा देखने में नहीं आती, क्योंकि कोई भी मिष्टान्न की बजाए विष्टा खाने को तैयार नहीं और गृहस्थ-ज्ञानी भी पिता व पथिक में एकत्व मानने को तैयार नहीं। फिर एकता कैसे कहते हो? तेरा विचार ठीक है भाई ! ऐसा ही है. तनिक गहराई में उतरकर अभिप्राय की परीक्षा कर बाहा क्रिया को मत देख। यह प्रकरण सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा के गुणों का है, चारित्र के गुणों का नहीं । अभिप्राय में साम्यता आ जाने पर तुरन्त चारित्र में साम्यता आना आवश्यक नहीं। अभिप्राय पूर्व-क्षण में ही पूरा हो जाता है परन्तु उसके अनुरूप जीवन बनाने में बहत देर लगती है। धीरे-धीरे जीवन या चारित्र भी आगे चलकर उसके अनुरूप अवश्य बन जाता है । देख गृहस्थ-अवस्था में रहते हुए जो व्यक्ति पिता व पथिक में या मित्र व शत्रु में कुछ भेद-व्यवहार करता था, साधु बनने के पश्चात् बिल्कुल नहीं करता। यह गुण क्या उसमें एकदम प्रगट हो गया? नहीं, गृहस्थ-अवस्था में ही साधना के प्रथम क्षण से प्रगट होना प्रारम्भ हुआ था, यहाँ आकर पूर्ण हुआ। पूर्ण हो जाने से पहले भले तू उसे न देख पाये, पर वह उसके जीवन में किंचित् भी न हो ऐसा नहीं था। गृहस्थ अवस्था में भी इस प्रकार का भेद-व्यवहार करने से वह संतुष्ट नहीं था, उसे अपनी इस प्रवृत्ति के प्रति घृणा थी, वह इसके लिए अपने को धिक्कारा करता था और बराबर इस भेद-बुद्धि को दूर करने का प्रयत्न करता था। उस समय उसके अभिप्राय में साम्यता अवश्य थी। उसी ने बढ़ते-बढ़ते अब चारित्र का रूप धारण किया है। इस प्रकार योगी होने के पश्चात् भी विष्टा व मिष्टान्न में भेद रहता है परन्तु अभिप्राय में जाकर देखे तो अभेद ही है। क्योंकि उसे इस बात का दृढ़ निर्णय है कि दोनों ही पदार्थ केवल ज्ञेय हैं भोज्य नहीं, भले शक्ति की हीनता व शरीर के रागवश उनको भोगने का विचार आता है परन्तु यह विचार अनिष्ट है । बाहर में प्रगट दीखने वाला यह भेद इस राग का कार्य है, अभिप्राय का नहीं। अभिप्राय में तो यही है कि कौन दिन आये कि खाने-पीने के राग से मुक्त हो जाऊँ ?' बस जिस दिन ऐसी अवस्था में प्रवेश कर जाता है अर्थात् अर्हन्त अवस्था में, तो वह अभिप्राय ही पूर्व-दृष्टान्तवत् साकार होकर सामने आ जाता हैं । साधु-अवस्था तक उसे पूर्व-दृष्टान्तवत् इस भेद-बुद्धि के प्रति बराबर आत्मनिन्दन होता रहता है। विष्टा से तू भी घृणा करता है और एक ज्ञानी भी, पर महान अन्तर है दोनों की घृणा में । तेरी घृणा के पीछे पड़ा है यह अभिप्राय कि यह घृणा तेरे लिए हितकर है और उसक अन्दर में पड़ा है यह अभिप्राय कि यह घृणा उसका दोष है, त्याज्य है, जितनी जल्दी छूट जाए अच्छा है। इसी प्रकार एक भंगी व ब्राह्मण में भी भले वर्तमान-रागवश या पूर्व संस्कारवश वह कुछ भेद करता हो, भंगी से बचने का प्रयत्न करता हो परन्तु अभिप्राय में अपने इस कृत्य की निन्दा करता है, इसे त्याज्य समझता है, जबकि तू इसे ही अपने-लिए हितकारी समझता है। बिल्कुल इसी प्रकार निःशंकित-गुण में कथित ज्ञानी व अज्ञानी की भयरूप प्रवृत्ति में भी अन्तर समझ लेना। धर्मी का ऐसा स्वभाव ही है । वह कोई बनावट करके यह बात पैदा नहीं करता। उसमें अकृत्रिम रूप से स्वत: ही यह भाव उत्पन्न होता है। किसी की देखमदेखी या सुन-सुनाकर शब्दों में कोई इस साम्यता का गुणगान करने लगे और घृणा न करे तो वह गुण प्रकट हुआ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि अन्तरंग में पड़ी घृणा को कैसे निकालेगा? बनावटी-रूप से घृणा न करे तो निर्विचिकित्सा गुण नहीं बनता। अभिप्राय में अन्तर पड़ना चाहिये जो बिना वस्तुस्वभाव समझे नहीं हो सकता अर्थात् आत्मानुभव हुए बिना नहीं हो सकता। साधारण चेतन तथा अचेतन द्रव्यों के प्रति तो उपरोक्त प्रकार घृणा का अभाव हो ही जाता है परन्तु इसके अतिरिक्त विशेष गणी जीवों के प्रति यही परिणाम कछ और विशेषता धारण कर लेता है। शान्ति सक अन्य जीवों के प्रति उसे इतना प्रेम व आकर्षण हो जाता है कि यदि कदाचित् ऐसे किसी जीव के शरीर में कोई रोग हो जावे, उसमें से मल आदि बहने लग जावे, उसमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो जावे, उसकी ऐसी दशा हो जावे कि किसी का पास खड़े Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन १०७ २. विविध अंग रहना भी कठिन हो जावे, तो वह धर्मी-जीव उसकी हर प्रकार से सेवा करने में बिल्कुल ग्लानि नहीं करता बल्कि उसकी सेवा करना अपना सौभाग्य समझता है । उसके मल-मूत्र को अपने हाथ पर उठाने में भी उसे संकोच नहीं होता, कफ़ या नासिका के मल को अपने हाथ में धारण कर लेने पर भी ग्लानि उसको नहीं होती । उन पदार्थों के प्रति अल्पावस्था के कारण जो कुछ ग्लानि उसकी प्रवृत्ति में दिखाई देती थी, वह उस पात्र के गुणों के प्रति जो बहुमान उसे उत्पन्न हुआ है, उसमें दबकर रह गई है। यह है उसका निर्विचिकित्सा गुण। ___ अहो शान्ति की महिमा ! जिसके कारण बिना प्रयास के ही इतने गुण स्वत: प्रकट हो जाते हैं। कितना बड़ा कुटुम्ब है इस शान्ति का? बात चलती है धर्मी-जीव के गुणों अथवा उसके लक्षणों की, जिनपर से यह निर्णय किया जा सके कि अमुक व्यक्ति धर्मी है कि अधर्मी अर्थात् शान्ति का उपासक है कि भोगों का? उसके अनेक गुणों में से तीन गुण निशंकता, निराकांक्षता व निर्विचिकित्सा की बात कल चल चुकी। आज अगले कुछ गुणों की बात चलती है। (४) अनुभव के आधार पर शान्ति का व शान्ति के आदर्श का दृढ़ता से निर्णय हो जाने के कारण, शान्ति के आस्वाद के प्रति अत्यन्त बहुमान उत्पन्न हो जाने के कारण तथा शान्ति के अतिरिक्त अन्य सर्व प्रयोजन लुप्त हो जाने के कारण, अब उसका स्वाभाविक बहुमान शान्ति के आदर्शभूत देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अथवा शान्ति रूप धर्म के प्रति अथवा इनके उपासकों के प्रति ही रहता है, किसी अन्यके प्रति नहीं। यह बात.कृत्रिम नहीं होती, क्योंकि लोक में भी ऐसा देखने में आता है कि जुआरी का बहुमान जुआरी के प्रति ही होता है, अन्य के प्रति नहीं। उसमें उसकी दृष्टि भ्रम को प्राप्त होती नहीं । इसी का नाम है अमूढ़दृष्टिपना। इसका यह अर्थ नहीं कि उनके अतिरिक्त अन्य सर्व से उसे द्वेष हो जाता है। अपने पत्र से प्रेम करने का यह अर्थ नहीं कि दूसरों के पुत्रों से आपको द्वेष हो । राग व द्वेष के अतिरिक्त एक तीसरी बात भी होती है जिसे माध्यस्थता कहते हैं। आप सबको भी माध्यस्थ-परिणाम का भान है, परन्तु यह पकड़ नहीं है कि माध्यस्थता उसी का नाम है । देखिये आपके घर के आगे से अनेकों व्यक्ति आ रहे हैं और जा रहे हैं। आप अपने बरामदे में खड़े होकर सबको देख रहे हैं । बाताइये उनसे आपको प्रेम है कि द्वेष ? न प्रेम है न द्वेष, यह आप भली भाँति जानते हैं। फिर भी उनको क्यों देखते हैं ? इसी का नाम माध्यस्थता है। इसमें न देखने व बोलने का कोई अभिप्राय है और न उनके निषेधका । बस इसी प्रकार का माध्यस्थभाव उन अन्य व्यक्तियों आदि के प्रति उसे रहता है। न उनके प्रति बहुमान का कुछ अभिप्राय है और न निषेध का। इसी गुण के सम्बन्ध में ठीक-ठीक परिचय न होने के कारण आज साम्प्रदायिक विद्वेष को अमूढ़दृष्टिपना ग्रहण करने में आ रहा है, जिसके कारण आज हम अन्य देवी-देवताओं की निन्दा व अविनय करने तक को तैयार हो जाते हैं, उनके प्रति मुख करके खड़ा होना भी आज हमें सहन नहीं होता। या तो ऐसे स्थानों पर जाते हुए ही हम घबराते हैं और यदि किसी के दबाव के कारण जाना भी पड़े तो उनकी तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं कि कहीं उनका प्रभाव न पड़ जाये ऐसा करने में हमें इतना भी विचार नहीं रहता कि उनके उपासक जो अन्य भक्तजन हैं, उन्हें हमारी इस प्रवृत्ति को देखकर कितना दु:ख होगा। साक्षात् हिंसा होते हुए भी हम उसे गुण मान बैठे हैं ? भगवन् ! इसका नाम अमूढ़दृष्टिपना नहीं है, यह साम्प्रदायिक विद्वेष है, यह गुण नहीं महान दोष है, अमूढ़-दृष्टि नहीं मूढ़-दृष्टि है। उसके प्रति पीठ घुमाने का अर्थ है यह कि आप उनमें कुछ विशेषता देख रहे हैं। यदि सामान्य दृष्टि से देखा होता तो अपने घर के सामने से गुजरने वाले व्यक्तियों में तथा उनमें क्या अन्तर था ? जैसे माध्यस्थ भाव से उन जाते हुए व्यक्तियों को देखते थे वैसे ही माध्यस्थ भाव से उनको भी देख लेते, क्या बाधा आती थी ?-अत: भगवन् ! अब वीतरागी गुरुओं की शरण में आकर इस साम्प्रदायिक विद्वेष को त्याग । सबके प्रति माध्यस्थता धारण कर । (५) शान्ति-पथपर बराबर आगे बढ़नेवाला जीव, उसमें बाधा पहुँचाने वाले अपने अपराधों के प्रति सदा जागृत रहता है, एक क्षण को भी उनसे गाफ़िल नहीं होता। इसीलिये वह सदा अपने जीवन में दोष ही दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न करता है । यद्यपि उसको अनेकों गुण प्राप्त हो चुके हैं पर उनके प्रति उसकी दृष्टि नहीं जाती। पूर्णता के लक्ष्य में उसे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनत १९. सम्यग्दर्शन १०८ २. विविध अंग कमी ही कमी दिखाई देती है । इस कमी को जिस-किस प्रकार भी दूर करना अपना कर्त्तव्य समझता है। अपने गुणों के प्रतिद ली जाने से अभिमान उत्पन्न हो जाता है। ओह ! 'मैं इन लौकिक रंक-जीवों से कितना ऊँचा हैं. ऐसा अभिमान उसे ऐसी खाई में धकेल देगा जहाँ से वह उठने का नाम भी न ले सकेगा। इसके विपरीत उसे अन्य जीवों के जीवन में गुण ही गुण दिखाई देते हैं । गुणों के प्रति बहुमान जो है उसे, गुणों को अपने जीवन में उत्पन्न जो करना है उसे ? गुणों का वह सच्चा ग्राहक है। बाजार में जायें तो स्वभावत: आपकी दृष्टि उन पदार्थोंपर ही पड़ती है जिनकी कि आपको आवश्यकता है, अन्यपर नहीं। उसी प्रकार किसी भी अन्य व्यक्ति के जीवन में उसकी दृष्टि गुणों पर ही पड़ती है दोषों पर नहीं, भले ही उसमें दोष पड़े रहें । उनकी उसे आवश्यकता ही नहीं, क्यों देखे उनकी ओर ? | तात्पर्य यह कि वह सदा अपने दोषों को देखता है और दूसरे के गुणों को, अपने दोषों को प्रकट करता है और दूसरों के गुणों को, अपने गुणों को छिपाता है और दूसरों के दोषों को, अपनी निन्दा करता है और दूसरों की प्रशंसा। दूसरों के दोषों को छिपाने या गोपने के कारण उसके इस गुण का नाम उपगूहन है और साथ-साथ अपने गुणों में वृद्धि करते जाने के कारण इस गुण का नाम उपबृंहण है। आज हमारे जीवन का अधिक भाग बीता जा रहा है बिल्कुल इससे विपरीत दोष में अर्थात् अपनी प्रशंसा करते हुए और दूसरों की निन्दा करते हुए । आज दूसरों के अनहुए या तृणवत् दोष भी हमें बहुत बड़े भासते हैं और अपने अन्दर पड़े हुए शहतीर जितने बड़े दोष भी दिखाई नहीं देते। अपने अनहुए गुण भी प्रकट करते हुए और दूसरों के दोषों का भी ढिंढोरा पीटते हए हर्ष मनाते हैं। यह प्रवृत्ति बड़ी घातक है। इसमें अब ब्रेक लगा प्रभू ! अपने हित के लिए दूसरों के लिए नहीं। आत्मप्रशंसा व परनिन्दा करने से दोषों में वृद्धि और आत्मनिन्दा व पर प्रशंसा करने से गुणों में वृद्धि होती है । गुरुदेव की शरण में आकर गुणों में वृद्धि कर दोषों में नहीं। (६) शान्ति के उपासक का लक्ष्य पग-पग पर अपनी शान्ति की रक्षा करना है। इसलिए प्रारम्भिक अवस्था में जब-जब शक्ति की हीनतावश वह अपनी शान्ति से च्युत होता है तब-तब पुन: उसी में स्थित होने का बराबर प्रयास करता है, ऐसा उसका स्वभाव हो गया है। क्यों न हो? क्या दुकान में हानि हो जाने पर उसमें लाभ प्रकट करने के लिए, स्वभावत: ही आप अधिकाधिक प्रयास नहीं करते हैं ? यह ही है उसका स्व-स्थितिकरण।। इतना ही नहीं अपनी शान्ति के आस्वाद से छूट जाने पर उसे जो पीड़ा होती है, वह वही जानता है । चक्रवर्ती के षटखण्ड का राज्य छूट जाने पर भी उसे इतनी पीड़ा नहीं होती होगी। इसलिए अन्य शान्ति के उपासकों की पीड़ा भी उसके लिए असह्य है । 'अरे ! इतनी दुर्लभ वस्तु को, अत्यन्त सौभाग्यवश प्राप्त करके भी, यह प्राणी इन कुछ बाह्य बाधाओं के कारण उसे छोड़ने को तैयार हो गया है ? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मेरे होते यदि वह शान्ति की रक्षा न कर सका तो मेरा जीवन निरर्थक है' तथा इसी प्रकार के अन्य अनेकों विचार स्वत: अन्तर में उठकर उसे बेचैन बना देते हैं, और उसे उस जीव की यथायोग्य रक्षा करने के लिये बाध्य कर देते हैं, चाहे इस प्रयोग में उसे कुछ क्षति ही क्यों न उठानी पड़े। यदि आर्थिक परिस्थिति के कारण वह मार्ग से विचलित हो रहा है तो धन देकर या उसके योग्य कोई काम देकर उसे पुन: वहाँ स्थित करता है। यदि शारीरिक रोग के कारण वह मार्ग से विचलित हो रहा है तो योग्य औषधि देकर तथा शारीरिक सेवा करके उसे पन: वहाँ स्थित करता है। यदि किसी के मिथ्या उपदेश या कसंगति के कारण मार्ग से च्युत हो रहा है तो योग्य उपदेश देकर उसे पुन: वहाँ स्थित करने का प्रयत्न करता है तथा अन्य किन्हीं कारणोंवश यदि वह ऐसा कर रहा है तो जिस-किस प्रकार उसकी यथायोग्य सेवा करने को वह हर समय उद्यत रहता है। याद होगी आपको वारिषेण ऋषि की कथा । अपने शिष्य पुष्पडाल को मार्ग पर स्थित करने के लिये अयोग्य कार्य करने से भी वे न डरे । यह जानते हुए भी कि इस कार्य से लोक में मेरी निन्दा हो जायेगी, वे उसे अपने महल में ले गये और अपनी सकल सुन्दर रानियों को पूरा श्रृंगार करके सामने आने की आज्ञा दी। इस सर्व कार्य में उनका अभिप्राय खोटा नहीं था, केवल पुष्पडाल के मन की शल्य निकालना था । बस इस स्वाभाविक गुण का नाम है स्थितिकरण। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ १९. सम्यग्दर्शन २. विविध अंग हमारी प्रवृत्ति बिल्कुल इसके विपरीत है। किसी साधक के जीवन में किंचित् दोष लगा कि चारों ओर से धुतकारें आनी प्रारम्भ हुई। भगवन् ! रोकिये इस प्रवृत्ति को । कषाय की शक्ति विचित्र है, बड़े-बड़े नीचे गिरते देखे गये हैं, गिरते को गिराने का प्रयत्न न कीजिये। जिस-किस प्रकार भी उसे उठाने का प्रयास कीजिये, उसे धुतकारिये नहीं बल्कि पुचकारिये, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि चलना सीखने वाले अपने बालक को आप पुचकारते हैं जबकि वह चलता-चलता गिर जाता है। (७) शान्ति की उपासना से उसके अन्दर एक यह गुण भी प्रकट हो जाता है कि जहाँ भी किसी अन्य अपनी बिरादरी के व्यक्ति को देख, अर्थात् किसी भी अन्य शान्ति के पथिक को देखा कि उसके हृदय में एक उल्लास उत्पन्न हुआ, जिसका कारण वह स्वयं भी नहीं जानता क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव ही है । किसी दूर देश में आपके नगर का कोई साधारणसा व्यक्ति मिल जाए तो मिलने व बोलने को जी चाहता है उससे । आपका यह गुण नगर-वात्सल्य है और उसी प्रकार उसका वह गुण शान्तिपथ-वात्सल्य है, जिसके कारण एक प्रमोद उमड़ पड़ता है उसके हृदय में । 'इसे मैं सर पर बैठा लूँ या क्या कर, ऐसा किंकर्तव्य-विमूढ़ सा उसकी ओर आकर्षित हो अन्दर ही अन्दर फूल उठता है वह । क्यों न फूले, अपनी शान्ति का स्वाद लेते समय भी तो यही हालत होती है उसकी ? उसके इस स्वाभाविक गुण का नाम है 'वात्सल्य'। उसकी देखमदेखी कृत्रिम रूप से भले कोई वात्सल्य या प्रेम प्रकट करना चाहे परन्तु जब तक उस जीव में शान्ति के दर्शन होते नहीं तबतक उसकी कृत्रिमता का भान अन्तरंग में साक्षात् होता रहता है। ऐसे कृत्रिम वात्सल्यका नाम वात्सल्य नहीं है। (८) शान्ति के आस्वादन से प्रभावित होकर उसका जीवन बराबर उसकी ओर बढ़ता जाता है। किसी ऐसे साञ्चे में ढलता जाता है कि जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता है । कुटुम्बादि व धनादि की तो बात दूर रही, शरीर से भी उपेक्षा होती चली जाती है उसे, विरक्तता बढ़ती जाती है उसकी, साम्यता व सरलता आती जाती है उसमें, जिसके कारण द्वेषादिका पता नहीं पाता, सबके प्रति कल्याण की भावना जागृत हो जाती है उसके हृदय में। ऊपर बताये हुए सात महान गुण तथा उनके अतिरिक्त अनेकों अन्य गुण प्रकट हो जाते हैं, जीवन अलौकिक बन जाता है, ऐसा कि उन्हें देखकर अन्य जीव भी आकर्षित हुए बिना न रह सकें, प्रभावित हुए बिना न रह सकें । यह है उसका प्रभावना गुण। _ 'सर्वजीवों का कल्याण हो, किसी प्रकार शान्ति के प्रति उन्हें भी बहुमान हो', ऐसी शुभाकाँक्षा लेकर वह बाहर में । अनेक प्रकार के उत्सव तथा शान्ति के प्रदर्शन करता है ताकि साधारणजन उसे देखकर कुछ प्रभावित हों और उनके हृदय में शान्ति के लिए जिज्ञासा उत्पन्न हो । उसकी देखमदेखी लौकिक जीवों द्वारा जो उत्सव आदि किये जाते हैं उसका नाम प्रभावना गुण नहीं है क्योंकि उनकी उन क्रियाओं में से केवल साम्प्रदायिकता झांक रही है, शान्ति नहीं। आज के उत्सव आदि में केवल धन का प्रदर्शन है, जीवन का नहीं। वैराग्य के प्रकरणस्वरूप भगवान की पंच-कल्याणक प्रतिष्ठायें भी आज शान्ति व वैराग्य प्रदर्शन से शून्य केवल खेल-तमाशा बनकर रह गई हैं, जिसमें ढोल-बाजों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । इस प्रकार के मेलों पर लाखों रुपया व्यर्थ खोकर भले यह समझ लिया जाए कि धर्म-प्रभावना हुई पर यह धन-प्रभावना है, धर्म-प्रभावना नहीं। (९) शान्ति में स्नान करते रहने के कारण उसके जीवन में इतनी सरलता व साम्यता आ जाती है कि क्रोधादि की तीव्रता तो दूर लौकिक स्वार्थ का भी अभाव हो जाता है। उसके रोम-रोम में शान्ति खेलने लगती है सबकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने लगता है । उसको देखकर दूसरों को भी कुछ शान्ति प्रतीत होती है, ऐसा है उसका प्रशम गुण। (१०) बाह्य विषय-भोगों में अब उसे रस नहीं आता । शान्ति के सामने इनका क्या मूल्य ? हलवामांडा खाने को मिले तो सूखी ज्वार की रोटी कौन खाये ? अत: भोग सामग्री से उसे स्वत: ही अन्तरङ्ग में कुछ उदासीनता सी हो जाती है। कृत्रिम-रूप से देखमदेखी इस सामग्री का त्याग करने का नाम उदासीनता नहीं है। उनका त्याग न करके भी गृहस्थ में रहते हुए ही इनमें पूर्ववत् रस आना बन्द हो जाए ऐसा वैराग्य या संवेग उत्पन्न हो जाता है । संसार के इस ज जाल से मानो अब उसे कंपकंपी सी छूटने लगती है। घर में संचित पदार्थों का ढेर देखकर उसका कलेजा हिलने Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. सम्यग्दर्शन ११० २. विविध अंग लगता है । जिस कमरे को बड़ी रुचिपूर्वक उसने सजाया था, आज मानो वह उसे खाने को दौड़ रहा है । संसार के प्रति उसे कुछ भयसा उत्पन्न हो जाता है। यह है उसका निर्वेद गुण। (११) दुःखी जीवों को देखकर स्वत: ही बिना किसी स्वार्थ के उसका कलेजा पसीज उठता है । 'अरे ! यह भी तो शान्ति का पिण्ड है। उसे भूलकर बेचारा संतप्त है आज । अवश्य ही इसकी पीड़ा का निवारण होना चाहिये' इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प खड़े हो जाते हैं और अपनी शक्ति अनुसार यथायोग्य रूप में उसकी पीड़ा की निवृत्ति का उपाय करता है, ऐसा है उसका स्वाभाविक करुणा व दया गुण।। (१२) शान्ति का साक्षात् वेदन हो जाने पर, 'अरे ! यह रहा मैं तो, अन्तरङ्ग में प्रकाशमान, व्यर्थ ही ढूंढता फिरा इधर-उधर' ऐसा भाव प्रकट हो जाता है उसके सम्बन्ध में अब उसे कोई शंका नहीं होती, चाहे कोई कितना भी कहे वह दृढ़ रहता है। आँखों-देखी बात को कौन अस्वीकार कर सकता है ? बस इसी प्रकार स्वयं अनुभव की हुई अपनी सत्ता के प्रति कौन संशय कर सकता है ? अपनी सत्ता का निर्णय हो जाने पर स्पष्टतया अन्य प्राणियों की सत्ता का निर्णय हो जाना स्वाभाविक है क्योंकि उन सबमें उसे अपना जातिपना दिखाई दे रहा है। अपने जातिपने से रहित अन्य जड़ या अचेतन पदार्थों की सत्ता का भी अनुभवात्मक व रहस्यात्मक निर्णय हो जाता है। समस्त विश्व की सत्ता का निर्णय ही उसका आस्तिक्य गुण है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ है 'होना' । होने पने के निर्णय को अर्थात् पदार्थों की सत्ता के निर्णय को आस्तिक्य कहते हैं । 'जो वेदों को माने सो आस्तिक, जो न माने सो नास्तिक', आस्तिक्य व नास्तिक्य की इस व्याख्या में साम्प्रदायिकता झांककर देख रही है, अत: यह व्याख्या ठीक नहीं है । 'विश्व की तात्त्विक सत्ता को स्वीकार करे सो आस्तिक, इसकी सत्ता को स्वीकार न करे सो नास्तिक' ऐसी व्याख्या ही ठीक है। ___परन्तु सुन सुनाकर 'मैं हूँ, जीव है, अजीव है, विश्व है' इत्यादि रूप स्वीकृति भी वास्तव में आस्तिक्य नहीं है। क्योंकि अनुभव के बिना, 'मैं कौन तथा अन्य कौन' यह जान नहीं पड़ता। केवल अन्धों की भाँति टटोलकर भले कहता रहूँ कि यह जीव है, अजीव है इत्यादि। - (१३-१६) उसकी तात्त्विक दृष्टि में सब शान्ति के आवास तथा आत्मवत् प्रतीत होते हैं । यह है उसका मैत्री भाव । जहाँ मैत्री है, जहाँ वात्सल्य है, जहाँ कारुण्य है, जहाँ किसी के प्रति ग्लानि नहीं, जहाँ किसी का दोष दिखाई नहीं देता वहाँ अभिमान को अवकाश नहीं । तत्त्वज्ञ को न कुल जाति का मद होता है, न धन ऐश्वर्य का और न ज्ञान चारित्र तथा तप का । उसका अहंकार गलित हो जाता है। सम्यग्दर्शन को प्राप्त जीवात्मा का परमात्मस्वरूपअन्तःशून्यं बर्हिशून्यं, चित्तशून्यं विकल्पमुक्तं । अन्तःपूर्णं बर्हिपूर्ण, शान्तिपूर्ण हि मोक्ष तत्त्वं ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. समन्वय ( १. सप्ततत्त्व समन्वय; २. रत्नत्रय समन्वय; ३. स्याद्वादः ४. उपसंहार। १. सप्ततत्त्व समन्वय-दर्शन-खण्ड के प्रारम्भ में धर्म के अनेक लक्षण बताते हुए एक लक्षण श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र बताया गया था। उन तीनों का तथा श्रद्धा के आधारभूत सात तत्त्वों का कथन अब तक विस्तार के साथ किया गया। उस सकल विस्तार में सर्वत्र इस बात पर जोर दिया गया कि पाठक इन तीनों को अथवा इन सातों को पृथक-पृथक तथा स्वतन्त्र कुछ न समझकर एक ही जीवनोपयोगी अखण्ड-मार्ग के विभिन्न अंग समझे, जिस प्रकार कि हाथ पाँव आदि एक ही अखण्ड-शरीर के विभिन्न अंग हैं। खण्ड की समाप्ति पर यहाँ पुन: इन सर्व अंगों का एकीकरण कर देना आवश्यक है। ___ वास्तव में श्रद्धा व ज्ञान के विषयभूत सातों तत्त्वों का शाब्दिक परिचय मात्र ही हो सका है अर्थात् इनका शाब्दिक ज्ञान ही हआ है, परन्तु इनके रसात्मक रहस्य का अनुभव अभी नहीं हो सका है। यदि हो जाता तो इन सात तत्त्वों में भी भेद देखने में न आता और उपरोक्त धर्म के तीन अंगों में भी भेद दिखाई न देता। इसलिये यह शाब्दिक ज्ञान वास्तविक महत्ता को प्राप्त हआ नहीं कहा जा सकता। परन्त फिर भी 'इस शाब्दिक ज्ञान के बिना श्रद्धा किसकी करे और जीवन में किसे उतारे', इस दृष्टि से देखने पर इस ज्ञान की भी महिमा अपार हो जाती है। परन्तु यह महिमा उसी के लिए है जो इसे जानकर इसके अनुसार अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास करे। केवल शब्दों के जानने में सन्तोष धार ले तो ज्ञान हुआ और न हुआ बराबर है, उल्टा अभिमान का कारण बनकर और भी अनिष्ट कर सकता है। यहाँ तक कथित सात खण्डों में विभक्त इस विस्तृत वक्तव्य के अनुसार अपने जीवन को ढालने के लिए इन सातों में परस्पर क्या मेल है यह जानना आवश्यक है । क्योंकि भले ही जानने में या बताने में शब्दों की क्रमिकता के कारण इस अखण्ड एक विषय के सात खण्ड बनाये गये हों, पर जीवन में यह सात-खण्ड-रूप से उतारा नहीं जा सकता। जैसे कि पहले प्रकरण ६.१ में एक श्रद्धा के विषय को प्रयोजनवश विश्लेषण करके सात भागों में विभाजित किया गया, उसी प्रकार अब वह प्रयोजन पूरा हो लेने पर उन सातों खण्डों का एकीकरण करना भी आवश्यक है, क्योंकि श्रद्धा वास्तव में सात नहीं एक है । जिस प्रकार रोग का प्रतिकार करने के लिये वैद्य के द्वारा बताई गई औषधि का जो प्रयोग करने में आता है, उसकी आधारभूत श्रद्धा में भले सात खण्ड पड़े हों पर वह श्रद्धा एक है; इसी प्रकार इस विकल्प रोग के प्रशमनार्थ जो प्रयास जीवन में किया जाने वाला है, उसकी आधारभूत श्रद्धा में ये सात खण्ड भले पड़े हों पर श्रद्धा एक है । और वह इस प्रकार है___मैं वास्तव में शान्ति का पिण्ड तथा चैतन्यात्मक अमूर्तीक पदार्थ हूँ, परन्तु अपने को व अपने अन्दर पड़ी शान्ति को भूल जाने के कारण मैं इन दोनों की खोज शान्ति-अशान्ति-विहीन अचेतन तथा मूर्तीक शरीर में अथवा धनादि जड़ पदार्थों में करता फिर रहा हूँ। बिल्कुल उस मृग की भाँति जिसकी नाभि में छिपी है गन्ध, पर उसे बाहर में खोजता हुआ उसे कहीं न पाकर व्याकुल हो रहा है, मैं भी व्याकुल बना हुआ हूँ। यह जीव व अजीव तत्त्व की एकता हुई। उपरोक्त भूल के कारण नित्य ही नए-नए विकल्प व इच्छायें धारण करके, इच्छाओं सम्बन्धी पुष्ट संस्कारों को और अधिक पुष्ट करते हुए, व्याकुलता में प्रतिक्षण वृद्धि करता रहता हूँ । यह मेरा अपराध है और इसी को आस्रव-बन्ध तत्त्व कहते हैं । जीव-अजीव तत्त्व के साथ आस्रव-बन्ध का इस प्रकार मेल बैठा लेने पर यह चारों मिलकर एक हो जाते हैं। यदि उन्हीं जीव और अजीव में स्वपर-भेद विज्ञान प्रकट करके इस भूल को दूर कर दूं तो अपनी शान्ति को बाहर खोजने की बजाय अन्दर में खोजने लगू अर्थात् इन्द्रिय-ग्राह्य जो अजीव तत्त्व है उस पर से अपना लक्ष्य हटाकर अन्दर में प्रकाशमान जो जीव तत्त्व है उसका आश्रय लूँ । और वह वहाँ है ही, इसलिए अवश्य उसे खोजने में मैं सफल हो जाऊँ । शान्ति के दर्शन होते ही बाह्य Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. समन्वय ११२ २. रत्नत्रय समन्वय के विकल्प समाप्त होते चले जायें; अधिकाधिक उस शान्ति में स्थिरता धरने से, पूर्व के विकल्प उत्पन्न करने वाले संस्कार कटते चले जायें और इस प्रकार करते-करते एक दिन संस्कारों व विकल्पों से पूर्णतया मुक्त निर्बाध शान्ति का उपभोग करने लगू यही है जीव और अजीव के साथ संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्त्व की एकता। सातके दो खण्ड हो गये-एक व्याकुलता उत्पन्न करने सम्बन्धी और दूसरा व्याकुलता दूर करने सम्बन्धी । पहला हेय है और दूसरा उपादेय । इन दोनों को मिला देने से पूर्ण-मार्गकी रूपरेखा दृष्टि में आ जाती है अर्थात् व्याकुलता के कारणभूत पहले खण्ड को छोड़कर शान्ति को उत्पन्न करने वाले अगले खण्ड में विचरण करूं तो धीरे-धीरे पहला खण्ड कम होता जाए और दूसरा खण्ड बढ़ता जाए। ऐसा करते हुए एक दिन पहला खण्ड विनष्ट हो जायेगा और दूसरा खण्ड पूर्ण हो जायेगा । बस इस प्रकार इन सातों बातों में हेयोपादेयता का मेल बैठाकर श्रद्धा का एक अखण्ड विषय बन जाता है। २. रत्नत्रय समन्वय-यद्यपि यहाँ तक इस सप्तात्मक एक अखण्ड विषय का ज्ञान भी हो गया और उसके अनुरूप शाब्दिक श्रद्धा भी हो गई परन्तु जीवन का ढलाव भी साथ-साथ जब तक उसके अनुरूप न होने लग जाए अर्थात् उसका झुकाव बाह्य-द्रव्यों के विकल्पात्मक आश्रय से हटकर अन्तरंग-शान्ति की खोज में न लग जाए, बाह्य-द्रव्यों से किञ्चित् उदासीनता न आ जाए और इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ प्रारम्भ में अधिकाधिक समय साधना के अङ्गभूत देवपूजा आदि क्रियाओंमें देने न लग जाए, तब तक वह श्रद्धा 'श्रद्धा' नहीं कही जा सकती। इस सप्तात्मक मार्ग को भली-भाँति युक्ति द्वारा जानकर, इसपर 'ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं ऐसी दृढ़ श्रद्धा करके, अपने जीवन को उसके अनुरूप ढालने या आचरण करने का नाम ही शान्ति का मार्ग है। इनमें यगपत ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र तीनों खण्ड पड़े हुए हैं। यही है शान्तिमार्ग की या मोक्ष-मार्ग की या धर्म-मार्ग की त्र्यात्मकता जिसमें ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र तीनों मिलकर एक हो गये हैं। इतना विशेष है कि साधना-खण्ड में कथित देवपूजा आदि प्रवृत्तियों में जिस-किस प्रकार भी, राग-प्रवृत्ति से हटने की प्रधानता रहती है। यथाशक्ति स्थूल-विकल्पों से निवृत्ति पाकर अन्तरंग में उतने की तथा वहाँ पड़ी हुई निज-शान्ति में प्रवृत्ति पाने की ही प्रधानता सर्वत्र जाननी चाहिए। इसीलिये जब तक इस धर्म का वास्तविक फल अर्थात् उस चौथी कोटि की शान्ति का साक्षात् वेदन नहीं हो जाता तब तक न चारित्र रहस्यात्मक है, न श्रद्धा रहस्यात्मक है और न ज्ञान रहस्यात्मक है। ज्ञान व श्रद्धा का आधार है उपदेश और चारित्र का आधार है शरीर, इसलिये इस स्थिति में रहने वाले ये तीनों ही खण्ड सच्चे नहीं कहे जा सकते। परन्तु क्योंकि पहली दशा में ऐसा किये बिना उस रहस्य का वेदन होना असम्भव है, इसलिये इस प्रकार की झूठी त्रयात्मकता भी कार्यकारी है । प्रारम्भिक भूमिका में इसका बड़ा महत्त्व है परन्तु प्रयास कुछ अन्तरंग की प्राप्ति के प्रति अवश्य होना चाहिये। केवल शारीरिक क्रियाओं में संतोष धारे तो उस त्रयात्मकता का कोई मूल्य नहीं। धीरे-धीरे इस प्रकार जीवन को एक नई दिशा की ओर घुमाकर धैर्य व साहस-पूर्वक इस पर आगे बढ़ते जाए तो एक दिन ऐसा आ जाना सम्भव है जबकि एक क्षण मात्र के लिये उस लक्ष्य का साक्षात्कार हो जाए। उस समय अन्तरंग में क्या चिन्ह प्रकट होंगे सो पहले ही शान्ति के प्रकरण में बताये जा चुके हैं । (देखें अधिकार ३) उस समय एक अपूर्व कृतकृत्यतासी उत्पन्न होने लगेगी, एक विचित्र संतोष व हल्कापनसा प्रतीत होगा और वे ज्ञान व श्रद्धा जो इस समय तक शब्दात्मक थे अब एक नया रूप धारण कर लेंगे। “अरे ! यह है वह रहस्य, यह हूँ मैं साक्षात्-रूप से अपने अन्तरंग में विराजमान, शान्ति के वेदन से अत्यन्त तृप्त, सर्वाभिलाषा से मुक्त । वाह वाह ! कितना सुन्दर है यह ? यह तो है बिल्कुल पृथक्, यह रहा । वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध है नहीं इन दूसरों से इसका । व्यर्थ ही अब तक व्यग्र बना रहता था, व्यर्थ ही इसकी खोज इतनी कठिन समझता था। यह मैं ही तो हूँ । अरे वाह-वाह ! कितनी विचित्र बात है ? आजतक यों ही मारा-मारा फिरता रहा इसकी खोज में । इस शान्ति को छोड़कर अब कहाँ जाऊँ ? कुछ भी प्रयोजनीय नहीं है। बस अब मुझे कुछ नहीं चाहिये। यह था वह जिसकी मुझे इच्छा थी।" इत्यादि प्रकार के विकल्प व उद्गार उत्पन्न हो जायेंगे। बस उसी क्षण से वह श्रद्धा अब इस रूप में न रह जायेगी कि 'गुरु का उपदेश है इसलिये यह ऐसा ही है, बल्कि इस रूप हो जायेगी कि 'मैने स्वयं इसका फल चखा है, इसलिये यह ऐसा ही है'। अब इसका आधार उपदेश की Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ २०. समन्वय ३. स्याद्वाद् बजाय अनुभव हो गया है। अब यह श्रद्धा पराश्रित नहीं रही स्वाश्रित हो गई है, शब्दात्मक नहीं रही रहस्यात्मक हो गई है। अब यह श्रद्धा तीन कोटियों का उल्लंघन करके चौथी कोटि में पहुँच चुकी है, इसलिये इसी का नाम वास्तविक व सच्ची श्रद्धा है। इसके हो जाने पर ज्ञान भी रहस्यात्मक बन जाने के कारण सच्चा हो गया है और चारित्र भी रसास्वादनरूप हो जाने के कारण सच्चा हो गया है । वास्तव में सच्चे मार्ग का प्रारम्भ इस दशा के पश्चात् ही होता है। पहले की त्रयात्मकता में शाब्दिक ज्ञान की प्रमुखता थी और इस रहस्यात्मक त्रयात्मकता में रसास्वादरूप अनुभव सम्बन्धी श्रद्धा की मुख्यता है । इसलिये जहाँ सच्चे मार्ग या धर्म का निरूपण किया जाता है वहाँ ज्ञान को प्रथम स्थान न देकर श्रद्धा को प्रथम स्थान दिया जाता है। अब इस त्रयात्मकता का रूप ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र न रहकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र बन जाता है, क्योंकि ज्ञान की रहस्यात्मकता का कारण अनुभवात्मक श्रद्धा है और आगे-आगे चारित्र में प्रेरक होने वाली भी बजाय गरु के वही रहस्यात्मक श्रद्धा है। पहले की भाँति अब गरु के कहने के कारण आगे नही बढेगा बल्कि इस स्वाद का व्यसन पड़ गया है इसलिये आगे बढ़ेगा। इसी स्वाद की प्रेरणा से पुरुषार्थ आगे-आगे अधिकाधिक उत्तेजित होता जायेगा और एक दिन श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र मिलकर तीनों एक शान्ति में निमग्न हो जायेंगे। वहाँ न होगी श्रद्धा, न ज्ञान और न चारित्र । मैं हूँगा और मेरी शान्ति, एक अद्वैत दशा होगी वह। ३. स्याद्वाद्-यद्यपि दर्शनखण्ड समाप्त हुआ, परन्तु इस पर से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि जैन दर्शन भी यहाँ ही समाप्त हो गया है । ठीक है कि जन साधारण में इसका इतना मात्र ही स्वरूप प्रसिद्ध है परन्तु वास्तव में देखा जाए तो यह इसकी एक किरण मात्र है जिसकी झलक देशकाल की मांग के अनुसार आज से २५०० वर्ष पूर्व भगवान वीर ने जगत के समक्ष प्रस्तुत की थी। इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान तत्त्व के विषय में इतना ही कुछ जानते थे। जानते वे सब कुछ थे परन्तु नैतिक तथा धार्मिक ग्लानि के जिस युग में उनका व्यक्तित्व रंग मंच पर उदित हुआ था उस युग में तत्त्वोपदेश की बजाय धर्मोपदेश की अधिक आवश्यकता थी। यही कारण है कि अपने समकालीन बौद्ध-दर्शन की भाँति उनका दर्शन भी तत्त्व-प्रधान न होकर प्राय: धर्म-प्रधान रहा। धर्म के क्षेत्र में जितनी तात्त्विक चर्चा आवश्यक थी उतनी ही उन्होंने की. उससे अधिक नहीं। अनावश्यक चर्चाओं में उलझना उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। इसलिये भगवान वीर के द्वारा प्रतिपादित प्रस्तुत सात तत्त्वों में तत्कालीन बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्यों की भांति केवल व्यक्ति के पतन तथा उत्थान के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराया गया है अन्य कुछ नहीं। व्यक्ति के जीवनोत्थान के क्षेत्र में इतना मात्र ही पर्याप्त है। प्रसंगवश यदा-कदा उदित होने वाली आत्मा परमात्मा विषयक जटिल तात्त्विक चर्चाओं का दोनों ही महापुरुषों ने जिस-किस प्रकार वारण करने का प्रयत्न किया। ऐसी परिस्थितियों में महात्मा बुद्ध यह कहकर प्रश्न को टाल देते थे कि 'किसने देखा है आत्मा परमात्मा ? ऐसी चर्चाओं को छोड़कर जीवनोपयोगी चर्चायें करने में ही कल्याण है' । इसलिये बौद्ध-दर्शन आगे चलकर नास्तिक तथा अनात्मवादी प्रसिद्ध हो गया। दूसरी ओर भगवान वीर इतना शुष्क उत्तर न देकर एक ऐसी प्रेममयी पद्धति का प्रयोग करते थे जिससे प्रश्नकर्ता भी सन्तुष्ट हो जाता था और प्रश्न का वारण भी सहज हो जाता था। 'स्यात् अर्थात् किसी एक दृष्टि से तुम ठीक ही कह रहे हो', बस इतना मात्र संक्षिप्त सा उत्तर होता था और कुछ नहीं। इसलिये भगवान वीर 'स्याद्वादी' प्रसिद्ध हुए। उनकी इस विचित्र कथन पद्धति ने ही आगे जाकर 'स्याद्वाद्' नामक एक सांगोपांग महा-दर्शन का रूप धारण कर लिया। दर्शन-शास्त्र का विषयभूत 'सत्य' अनन्त है जिसे बुद्धि की संकीर्ण सीमाओं में बद्ध नहीं किया जा सकता। किसी भी एक बुद्धि से यह आशा करना कि वह उसका पूर्ण दर्शन कर लेगी, दुराशा है। अनादि काल से आज तक ऋषिजन तथा मनीषीजन उसका अन्वेषण करते आ रहे हैं । परन्तु न आजतक उसका अन्त आया है और न आयेगा। इसलिये दर्शनों की संख्या निर्धारित की जानी सम्भव नहीं है। अनन्त हो सकते हैं वे । कोई उसमें विभुत्वका दर्शन करता है और कोई प्रभूत्वका, कोई सर्वगतत्व का और कोई असर्वगतत्व का, कोई समष्टि का और कोई व्यष्टि का, कोई एकत्व का और कोई अनेकत्व का, कोई नित्यत्व का और कोई अनित्यत्व का, कोई चेतनत्व का और कोई जड़त्व का, कोई द्वैत का और कोई अद्वैत का। तात्पर्य यह कि जितने दृष्टा उतने ही उनके दृष्टिपथ, जितने दृष्टिपथ उतने ही उनके वचनपथ, जितने वचनपथ अथवा दृष्टिपथ उतने ही दर्शनपथ । अनन्तों भूतकाल में उदित होकर कालकवलित हो गये, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. समन्वय ११४ ३. स्याद्वाद् अनन्तों विद्यमान हैं और अनन्तों आगे उत्पन्न होने वाले हैं। पुरुष कितना भी महान् क्यों न हो, अकेला एक जिह्वा से सारे विश्व को उपदेश दे सके यह सम्भव नहीं। इसलिये भारत हो या अभारत सर्वत्र ही, युग की माँग के अनुसार समय-समय पर, महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। कोई उन्हें तीर्थंकर कहता है, कोई अवतार, कोई ऋषि. कोई पैगम्बर और कोई ईश्वर-पत्र । इस प्रकार ऋषिसन्तान की तथा उसके दर्शनों की यह देशकालानवच्छिन्न धारा नित्य बहती रही है और बहती रहेगी। जिस प्रकार किसी एक महानदी का प्रत्येक जलकण पूर्ण नदी न होकर केवल उसका एक क्षुद्रांश है, इसी प्रकार दर्शनों की इस महाधारा का प्रत्येक दर्शन पूर्णदर्शन न होकर केवल एक किसी महादर्शन का क्षुद्रांश है । अपने-अपने दृष्टिकोण से एक ही सत्य को देखने के कारण सभी वास्तव में उस सत्य के आंशिक अथवा आपेक्षिक अध्ययन-मात्र हैं। इस स्थलपर में आपसे क्षमा चाहूँगा, क्योंकि हो सकता है कि लौकिक पद्धति के अनुसार आपको मुझसे यह आशा हो कि मैं अन्य दर्शनों का खण्डन करके जैनदर्शन की महत्ता स्थापित करूँ। मेरी दृष्टि में तात्त्विक दर्शन की महत्ता खण्डन में नहीं है समन्वय में है, और वास्तव में यही जैनदर्शन की अथवा स्यात्पद से लांछित इसकी वाणी की महत्ता है। 'णाणाजीवाणाणाकम्मं, णाणाविहं हवेलद्धी। तम्हा वयणविवादं, सगपरसमएहिं वज्जिज्जा।।' इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिये कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसी के भी साथ वचन विवाद करना उचित नहीं है। नि:सन्देह जैन-दर्शन ने जगत को अनेकों बहुमूल्य रत्न प्रदान किये हैं, जिनके-लिये जगत सदा इसका ऋणी रहेगा परन्त स्याद्वादी होने के नाते इसके अनसन्धान का द्वार बन्द नहीं हो गया है। आओ स्वतन्त्र सन्धान के निष्पक्ष वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रवेश करके स्याद्वाद् का गौरव बढ़ायें । इसे जगत को अभी बहुत कुछ देना है। अन्य दर्शनों के प्रति अदेख का भाव छोड़कर यह देखने का प्रयत्न करें कि उन्होंने किस दृष्टिकोण से उस सत्य को परखा है। यही है जैनदर्शन की पूर्णता और इसके प्रतिपादक महर्षियों की सर्वज्ञता । तनिक विचारिये तो सही कि जितना कुछ आप विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में जानते हैं, क्या उतना सब आप लिख सकते हैं या कहकर बता सकते हैं ? भले ही सर्वज्ञ ने सब कुछ जान लिया हो परन्तु उसके लिये भी क्या यह सम्भव है कि जितना कुछ उन्होंने जाना वह सब कहकर बता दें? "पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥" "जाननीय भावों का अनन्त-बहुभाग तो अनभिलाप्य अर्थात् न कहा जाने योग्य ही रह जाता है। केवल उसका अनन्तवां भाग ही कहा जाने योग्य हो पाता है और उसका भी केवल अनन्तवां भाग ग्रन्थों में निबद्ध हो पाता है।" जितना कुछ निबद्ध हो पाया है उसका असंख्यातवां भाग भी आज उपलब्ध नहीं है । ग्रन्थ या आगम के इतने मात्र उपलब्ध अंशपर-से कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि जितना कुछ उपलब्ध जैन-शास्त्रों में लिखा है उतना कुछ ही जानना सत्य है, उससे अधिक नहीं। इसका अर्थ यह होगा कि सर्वज्ञ इतना ही जानते थे, इससे अधिक नहीं। बहुत सम्भव है कि जिन जाननीय अथवा प्रज्ञापनीय तथ्यों का उल्लेख आज अन्य दर्शनों में उपलब्ध है, उन्हीं का प्रतिपादन किसी इतिहासातीत काल में जैन ऋषियों ने अथवा भगवान वीर से पूर्ववर्ती किन्हीं तीर्थंकरों ने भी किसी न किसी रूप में किया हो और आज वह हमें उपलब्ध न हो रहा हो । धवला ग्रन्थ में अनेकों ऐसे तथ्य प्राप्त होते हैं जिन्हें इसके प्रकाश में आने से पहले कोई सुनने तक को तैयार नहीं था। समयसार का प्रचार होने से पहले कौन पुण्य को पाप समान और संयम, तप, त्याग आदि को विषकुम्भ कहने का साहस कर सकता था। निष्पक्ष तथा विशाल-दृष्टि से सम्पन्न महर्षिजन ही ऐसा घोष करने के लिये समर्थ हो सकते हैं । कि स्वभाववाद, आत्मवाद, कालवाद, ईश्वरवाद, संयोगवाद, पुरुषार्थवाद, नियतिवाद, दैववाद, अद्वैतवाद, नित्यवाद,. अनित्यवाद, एक-तत्त्ववाद, अनेक-तत्त्ववाद आदि जितने कुछ भी वचनवाद आजतक दार्शनिक अथवा व्यवहारिक क्षेत्र में प्रसिद्ध हो चुके हैं। अथवा आगे होने वाले हैं, वे सभी पूर्ण सत्य न होकर एकाङ्गी सत्य हैं । अत: अपनी रुचि के अनुसार किन्हीं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. समन्वय ११५ ३. स्याद्वाद एक दो वादों को स्वीकार करके अन्य वादों का लोप करने वाले पक्षपाती के सर्ववचन परस्पर निरपेक्ष हो जाने के कारण मिथ्या हो जाते हैं और यथादेश, यथाकाल व यथाभाव एक दो वादों का कथन करते हुए साथ-साथ 'स्यात्' पद के द्वारा अन्य वादों का संग्रह करने वाले सर्व वचन परस्पर सापेक्ष होने के कारण सम्यक् हो जाते हैं । परस्पर निरपेक्ष वे मिथ्या वचन आगे जाकर साम्प्रदायिक पक्ष बन बैठते हैं और पारस्परिक विद्वेष का रूप धारण करके व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन कर देते हैं। विपरीत इसके परस्पर सापेक्ष हो जाने पर वे ही वचन सम्प्रदायवाद से ऊपर उठ जाते हैं। और पारस्परिक प्रेम का रूप धारण करके व्यक्ति का आध्यात्मिक उत्थान करते हैं । " जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥ परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणादो । जयणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ||* जैन तथा अजैन दर्शनों में यही अन्तर । अजैन-दर्शन जहाँ अपनी बात कहने की धुन में यह भूल जाते हैं कि कुछ हम कह रहे हैं वह उसी समय सत्य हो सकता है जब कि सहवर्ती अन्य दर्शनों को भी हम प्रेमपूर्वक गले लगा सकें, वहाँ ही जैन दर्शन अपनी बात कहे हुए बराबर यह विवेक रखता है कि मेरी बात से किसी भी अन्य दर्शन के हृदय को किञ्चित भी ठेस पहुँचने न पावे। अपने हर पक्ष या वचन के साथ 'स्यात्' या 'कथञ्चित् पद का प्रयोग करके वह बराबर अन्य दृष्टियों अथवा दर्शनों का संग्रह करता रहता है। इसीलिये उसके वही वचन सम्यक् तथा कल्याणकारी होते हैं जो कि अन्य-निरपेक्ष हो जाने के कारण साम्प्रदायिक क्षेत्रों में, प्रायः पारस्परिक वैर विरोध तथा वैमनस्य उत्पन्न न करके कल्याण के हेतु हो रहे हैं। पांच जन्मान्धों द्वारा टटोल-टटोल कर जाने गये हाथ के पृथक्-पृथक् अवयवों का संग्रह करके, सांगोपांग हाथी का यथार्थ ग्रहणवाला आगम प्रसिद्ध दृष्टान्त भी, इस दर्शन की सर्व-संग्रहकारी दृष्टि की ओर संकेत करता है। इस प्रकार स्वयं अपने को अपूर्ण कहकर अन्य दर्शनों का सप्रेम स्वागत करने वाला यह निष्पक्ष घोष ही इस दर्शनकी पूर्णता तथा इसके प्रतिपादक ऋषियोंकी सर्वज्ञता का द्योतक है। कूपमण्डूक न बनिये, तनिक इस कुएँ से बाहर आइये और देखिये शुचिहंस वाहिनी और स्यात् - वीणावादिनी माँ सरस्वती के प्रेमपूर्ण हृदय की विशालता तथा उसकी गोद की व्यापकता, जिसमें समान स्थान प्राप्त है सब दर्शनों को, सब धर्मों को और सर्व सम्प्रदायों को, सहोदर भाइयों की भाँति । क्यों न हो, उसी की तो सन्तान हैं ये सब, ज्ञान- जननी मां सरस्वती की । देखो किस प्रकार गले से लगाती है वह सबको, किस प्रकार प्यार करती है वह सबको, किस प्रकार स्तनपान कराती है वह सबको, किस प्रकार अपनी गोद में बैठाती है वह सबको, किस प्रकार परस्पर में लड़ने से बचाती है वह सबको। कौन कर सकता है स्याद्वाद् की इस विशाल हृदयता का गान एक जिह्वा से, भगवान अनन्त भी थककर चुप रह गए जहाँ ? ऋषियोंने भी प्रसन्न कर लिया अपने चित्त को यह कह कर कि, "जिस प्रकार सागर में अनेक नदियाँ देखी जा सकती हैं परन्तु किसी भी एक नदी में सागर नहीं देखा जा सकता, उसी प्रकार हे सर्वज्ञ ! आपके दर्शन में सर्व दर्शन देखे जा सकते हैं परन्तु किसी भी एक दर्शन में आपका दर्शन नहीं देखा जा सकता।" जरा विचारिये कि कौन से जैन-दर्शन की बात है यह ? क्या केवल सप्ततत्त्व प्रधान जैन दर्शन की या स्याद्वाद्-प्रधान जैन-दर्शन की ? जैन-दर्शन की यह सर्व-संग्रहकारी तथा सर्व-समभावी दृष्टि ही है इसकी महानता, विशालता तथा सुहृदयता। और यह ही हैं इस दर्शन की पूर्णता तथा इसके प्रतिपादकों की वह सर्वज्ञता जिसके समक्ष सकल विश्व का मस्तक नत है । अतः भो मुमुक्षु ! आ, सकल पक्षपात् का विष उगलकर आ, अन्य मतों का खण्डन करने वाली अदेखसकी बुद्धि का वमन करके आ, ज्ञान को सरल बनाकर आ, सत्य का पारखी बनकर आ, बुद्धि-राज्य की बजाय हृदय - राज्य का नागरिक बनकर आ, तात्त्विक जगत के इस खुले आकाश में जहाँ न है जैन न अजैन, न हिन्दू न मुस्लिम, न भारती न अभारती; जहाँ है केवल सत्य, खुला सत्य जिसे पढ़ सकता है हर कोई बच्चा व बूढ़ा, धनी व निर्धन, मूर्ख व विद्वान; जहाँ है सबकी दृष्टियों को या उनके अभिप्रायोंको समझने की उदारता तथा उन्हें प्रेमपूर्वक गले लगाने की सुहृदयता । फिर देख इस सत्य का सुन्दर रूप इस अनन्त का विस्मयकारी स्वरूप । देख देख केवल देख, बिना किसी प्रकार का विकल्प उत्पन्न किये देख, दूसरे को समझाने की बुद्धि तजकर देख। न है यहाँ मैं-तू का भेद, न मेरे तेरे का भेद, न Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. समन्वय ११६ ४. उपसंहार मत-मतान्तरका भेद, न ग्रहण-त्यागका भेद । सब कुछ दृष्ट है यहाँ युगपत् समष्टि-व्यष्टि, एक-अनेक, विभु-अविभु, द्वैत-अद्वैत, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, तत्-अतत् । कृतकृत्य हो जायेगा तू, सर्वज्ञ हो जायेगा तू । समता ही परमार्थ धर्म है और वही चारित्र है । स्याद्वाद् के विशाल हृदय की शरण में आये बिना वह सम्भव नहीं। समता व उदारता का हेतु होने के कारण इसकी शरण में ही कल्याण है, इसकी शरण में ही कल्याण है। ... ४. उपसंहार-ये हैं उस काल के तीन महापुरुष-बुद्ध, महावीर और ईसा । जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद की संकीर्ण गलियों से बाहर तात्त्विक आकाश के खुले वायुमण्डल में मानव को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थता का पाठ पढाने वाले तथा सबको गले लगाने वाले.प्रेममर्ति महा भद्र। भज मन तत्त्वं भज मन सत्यं, तज मन पक्षं भव्यमते । प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नान्यत् रक्षति गृहे अरण्ये ॥१॥ भव्य जहीहि धनागम-तृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्। यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥२॥ अर्थमनर्थं भावय नित्यं, नास्ति तत: सुखलेश: सत्यम् । पुत्रादपि धनभाजां भीति:, सर्वत्रेषा विहिता रीतिः ॥३॥ मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्काल: सर्वम् । मायामयमिदमाखिलं हित्वा, परं पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥४॥ कोऽहं कस्त्वं कुत आयात:, का मे जननी -को मे तात: । इति परिभावय सर्वमसारं, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न-विचारम् ॥५॥ कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम् । आत्मज्ञान-विहिना मूढाः, ते पच्यन्ते नरक-निगूढाः ॥६॥ शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रह-सन्धौ । भव सम-चित्त: सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यशु यदि तीर्थंकरत्वम् ॥७॥ - हे भव्य मतिवाले मन ! तू तत्त्व तथा सत्य को भज और पक्ष को तज, क्योंकि घर में अथवा वन में इनके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी वस्तु नहीं जो मरण-काल निकट आनेपर तेरी रक्षा कर सके ॥१॥ हे भव्य ! तू धन-प्राप्ति की इच्छा को छोड़। अन्त:करण में तृष्णा रहित सद्बुद्धि जागृत कर । कर्मोदयवश जो तथा जितना कुछ भी धन प्राप्त हो उसी से चित्त का समाधान कर ॥२॥ अर्थ अनर्थ है, इसका सदा ध्यान रख । सचमुच उससे लेश-मात्र भी सुख नहीं होता । धनी लोगों को अपने पुत्र से भी डर रहता हैं । इस संसार में सर्वत्र ऐसी ही रीति है ॥३॥ धन जन और यौवन का गर्व मत कर । क्षण मात्र में काल इन सबका हरण कर लेता है। इस अखिल मायामय प्रपञ्चको छोड़कर तू परम-पद को जान तथा उसमें प्रवेश कर ॥४॥ . “मैं कौन, तू कौन, कहाँ से आया, कौन मेरी माता, कौन मेरा पिता ? यह सब असार है", ऐसा चिन्तवन कर । यह विश्व स्वप्न के समान है इसे छोड़कर आत्म-चिन्तन कर ॥५॥ ... काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर, 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार आत्मा के विषय में भावना कर । आत्म ज्ञान से विहीन मूढजन नरक में पड़े सड़ते हैं ॥६॥ शत्रु व मित्र में अथवा पुत्र व बन्धु में तोड़-जोड़ करने का प्रयत्न मत कर । यदि शीघ्र तीर्थंकरत्व प्राप्त करना चाहता है तो सर्वत्र समताभावी बन ॥७॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधनाखण्ड उड़ रे पंछी धीरे-धीरे, ऊंचे-ऊंचे उड़। असत्, तम, मृत्यु-लोक से सत्-ज्योति-अमृत लोक को। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १. महाविघ्न; २. षट्लेश्या वृक्ष; ३. आभ्यन्तर साधना; ४. बाह्य साधना; ५. समन्वय । १. महाविघ्न- यह तो है केवल दर्शन-सिद्धान्त, तत्त्व - परिचय, स्वभाव- निर्धारण । यह तो है केवल लक्ष्य या गन्तव्य, ज्ञात न कि प्राप्त । किसी वस्तु को जानने मात्र से अथवा कहने मात्र से प्राप्त नहीं हो जाती वह । बहुत कुछ करना पड़ता है उसकी प्राप्ति के लिए। भोजन को जानने मात्र से पेट नहीं भर जाता और न कहने मात्र से; बहुत कुछ करना पड़ता है अन्न प्राप्ति के लिये और भोजन पकाने तथा खाने के लिए। तीर्थराज को जानने मात्र से पहुँचा नहीं जाता वहाँ और न कहने मात्र से; चलना पड़ता है उसके लिए पहले-पहले ग्राम को पीछे छोड़ते हुए और अगले- अगले ग्रामों में प्रवेश करते हुए । महल की छतको जानने मात्र से पहुँचा नहीं जाता वहाँ और न कहने मात्र से, चढ़ना पड़ता है उसके लिए पहले-पहले सोपान को छोड़ते हुये और अगले- अगले सोपान पर पग रखते हुये। न तो जान लेना पर्याप्त प्राप्ति के इस क्षेत्र में, न कहना मात्र और न किसी एक ग्राम या सोपान को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो जाना मात्र । करते रहना है प्रयत्न के साथ, चलते रहना है उत्साह के साथ, चढ़ते रहना है पूरे धैर्य के साथ, उस समय तक जब तक कि प्राप्त न हो जाय वह लक्ष्य अथवा गन्तव्य । वाग्विलास को प्रवेश नहीं इस क्षेत्र में और न ही प्रमाद को । साहसी वीर को ही अधिकार है प्रवेश पाने का इसमें । आ मेरे साथ यदि वास्तव में प्राप्त करना चाहता है तू इसे, परन्तु देख कहीं भी अटक नहीं जाना है, बराबर चलते रहना है मेरा पल्ला पकड़े बराबर बढ़ते रहना है आगे-आगे। न देखना है मुड़कर अपने पीछे, न दायें-बायें, न ऊपर-नीचे । निश्चल करके चलना होगा अपनी दृष्टि को, अर्जुन की भाँति अपने लक्ष्यपर; और स्तम्भित करके चलना होगा अपनी बुद्धि को, ध्रुव की भाँति अपने गन्तव्यपर। अनेकों आवाजें सुनाई देंगी तुझे, अनेकों दृश्य दिखाई देंगे तुझे अपने आगे-पीछे, दायें-बायें, ऊपर-नीचे, अन्दर-बाहर; कुछ डरावने, कुछ लुभावने और कुछ लजावने । याद रख कि कहीं सुन लिया उन्हें या देख लिया उनकी ओर तो पत्थर का बनकर रह जायेगा। बड़ा विकट है यह मार्ग । बच्चों का खेल नहीं है इसपर चलना । भले ही आगे चलकर निर्बाध हो जाय यह, निष्कण्टक हो जाय यह, सुखद हो जाय यह, परन्तु प्रारम्भ में अनेकों बाधायें तथा विघ्न पड़े हुए हैं इसमें, अनन्तों कण्टक बिछे हुये हैं इसमें, अति दुःखद है यह । अनन्तों मायाजालिये तथा स्वांगिये बैठे हैं इसमें । पद-पद पर धोखा देंगे वे तुझे, पद-पद पर फिसलाने का प्रयत्न करेंगे तुझे, ठगने का प्रयत्न करेंगे वे तुझे; और तू पहचान नहीं सकेगा उनकी माया को, तू जान नहीं सकेगा उनके स्वांग को, तू पकड़ नहीं सकेगा उनकी ठगी को। कोई चतुराई काम नहीं आयेगी तेरी । बड़े चतुर कलाकार हैं वे । यदि पहचान पाये उन्हें तो फिर उनकी चतुराई ही क्या रही ? केवल गुरुदेव ही समर्थ हैं उन्हें पहचानने के लिये अन्य कोई नहीं, अन्य कोई नहीं। बस गुरु का पल्ला पकड़कर चलना होगा, निर्भय । समझले कि उनका पल्ला छूटा कि तू गया। अनेकों साहसी वीर चले हैं इस पर परन्तु धराशायी होकर रह गये हैं सब, गुरु-चरण-शरण छूट जाने के कारण । कुछ तो पीछे मुड़कर चले गये वहीं जहाँ से कि आये थे वे अर्थात् धन, स्त्री कुटुम्ब में और कुछ जो चाहते हुये भी लोक-लाज के कारण न मुड़ सके उधर, वे मुड़ गये अपनी दायीं ओर, सकाम भावरूप निदान के प्रति अर्थात् अगले भव में प्राप्त होने योग्य राज्य-वैभव या देव-वैभव के प्रति । शास्त्र के भय से जो साहस न कर सके इस दिशा में मुड़ने , वे मुड गये अपनी बाईं ओर जिधर बिछे हुये हैं एषणा के विविध जाल, कुछ पुत्रेषणा के, कुछ वित्तेषणा के, कुछ लोषणा के कुछ ख्याति प्रसिद्धि के कुछ सुविधा प्राप्ति के और कुछ स्वार्थ पोषण के । बड़े सूक्ष्म हैं ये । यही है वह राक्षसी 'पूतना' जो प्राण खेंचती रहती है सबके, अपने स्तनों का मीठा परन्तु विषैला दूध पिला-पिलाकर । लोक दिखावे का दम्भाचरण ही है इसका प्रधान शस्त्र । बड़े-बड़े ज्ञानी तथा विरागी फँसते देखे गए हैं इसके जाल में। एक बार फँसकर छूटना असम्भव है। मधुर स्वरों में गा-गाकर तथा नाच-नाचकर भगवान की पूजा करता है वह, बड़ी भक्ति से Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२० १. महाविन तिष्ठो-तिष्ठो कहकर गुरु को आहार-दान देता है वह, परन्तु सब या तो लोक रञ्जना के लिये और या देव-गति में अथवा भोग-भूमि में जाने के लिये। बड़े-बड़े शास्त्र पढ़ता है वह, बड़ी-बड़ी ऊँची चर्चायें करता है वह, दूसरों को बड़े-बड़े ऊँचे उपदेश देता है वह, परन्तु या तो लोक-रञ्जना के लिये, या अपना पाण्डित्य प्रकट करने के लिये और या पाँव पुजवाने के लिये । बड़े-बड़े त्याग तथा तप करता है वह, बड़े-बड़े व्रत तथा उपवास धारण करता है वह, परन्तु या तो मात्र लोक-दिखावे के लिये या 'बड़ा त्यागी तपस्वी है' इत्यादि प्रशंसायें सुनने के लिये, या महन्त बनकर पाँव पुजवाने के लिये। खूब देख-देखकर खाता है वह, गिन-गिनकर पृथ्वी पर पाँव रखता है वह परन्तु केवल दिखावे के लिये । कहाँ तक कहा जाय, सभी क्रियायें कृत्रिम होती हैं उसकी, हृदयशून्य, प्राणशून्य, कोरा नाटक, कोरा दम्भाचार । और यदि गुरु-कृपा प्रसाद से कदाचित् कोई एक-आध निकल भी भागा वहाँ से तो चला गया नीचे धरातल में । हो गया निश्चयाभासी । अभिमान हो गया अपनी बुद्धि पर, ज्ञान पर । 'ओह ! मैं ? इतना महान् ? क्या जानें ये बेचारे रंक मेरे सामने ? बाह्य-क्रियाकाण्ड में उलझकर भूल गये हैं अपने को। क्या पता इन्हें किसे कहते हैं जीवतत्त्व चिदानन्द भगवान ? अन्तरंग से शून्य है इनका सर्व आचार । जड़वाद के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है इसे ? भगवान निकाले इनको इस अन्धकूप से । पकड़ मेरा हाथ, मेरी ही भाँति विचार, मेरी ही भाँति बोल 'सिद्धोऽहं, बुद्धोऽहं, नि:सोगोऽहं, निरञ्जनोऽहं, अलिप्तोऽहं, पूर्णोऽहं, साक्षीमात्रोऽहं, ब्रह्मास्मि'। "देख उठ गया अब तू उस जड़-जगत से ऊपर और पहुँच गया चेतन-लोक में, जहाँ न है कोई छोटा न बड़ा, न इष्ट न अनिष्ट, न ग्राह्य न त्याज्य । हो गया अब तू जीवन्मुक्त । जो चाहे कर, जो चाहे खा, जो चाहे पी, जो चाहे पहन, जहाँ चाहे रह, जो चाहे विचार । तुझे क्या आवश्यकता है किसी की पूजा अथवा विनय करने की? तुझे क्या आवश्यकता है किसी का सम्मान करने की या किसी को नमस्कार करने की ? तुझे क्या आवश्यकता है अब शास्त्रादि पढ़ने की या किसी का उपदेश सनने की अथवा सत्संगति करने की? तझे क्या आवश्यकता है संयम तप, व्रत, उपवास के कष्ट उठाने की ? काय-शोषण के अतिरिक्त और रखा ही क्या है इसमें ? तुझे क्या आवश्यकता है किसी पर दया करने की अथवा किसी को दान देने की अथवा ध्यान आदि करने की ? पूर्ण जो है तू ?" भगवान जाने कैसे पूर्ण हैं वे कहने वाले और कैसे पूर्ण हैं वे सुनने वाले ? अपनी इस महानता के गर्व में भूल गये हैं वे यह भी कि 'अभिमान का सर सदा नीचा होता है' जितना महान् समझते हैं वे अपने को, उतने ही तुच्छ हैं वे। यहाँ से भी यदि जिस-किस प्रकार छटकारा मिला तो चले जाते हैं ऊपर । घरबार छोडकर रहने लगे श्मशान में जन-संसर्ग से दूर बिल्कुल अकेले । सुखा डाला शरीर महीनों-महीनों के उपवास करके । जला डाला इसे धूप में सिक-सिककर अथवा शीत में खड़ा रहकर । क्या मिलना है इस प्रकार की बालक्रियाओं से तथा बाल-तप से। यहाँ से भी यदि कदाचित् छूट पाया तो अटक गया व्यवहाराभास में । सब कुछ करता है वह और नेक-नियत से करता है वह । न रखता है आगामी सुखों की आकांक्षा, न वर्तमान भव की लोकेषणा, न लोक दिखावा । केवल आत्म-कल्याण के लिये करता है सब कुछ, परन्तु तात्त्विक विवेक से विहीन वह सब होता हैं पुण्य, न कि धर्म । समझता रहता है वह यह कि मैं कर रहा हूँ धर्म, परन्तु समता-लोक में प्रवेश न पाने के कारण वह रहता है उससे कोसों दूर । समझता रहता है वह उसे व्यवहार-धर्म परन्तु वास्तव में होता है वह व्यवहाराभास, न कि धर्म । तात्पर्य यह कि यह सब कुछ है असत्, कोरा प्रपञ्च, बिल्कुल नि:सार, बिल्कुल निष्प्राण । शान्ति तथा समता की सरस-प्रतीति तो है कहीं और, इन सबसे अतीत, केवल तेरे आगे वाली दिशा में, जिस ओर लक्ष्य करके कि चलना प्रारम्भ किया था तूने, और जिसे अब भूल चुका है तू, इन दिशाओं तथा विदिशाओं में भटककर । जैसा बीज वैसा ही फल । असत्य का फल असत्य और सत्य का फल सत्य। आप स्वयं सोच सकते हैं कि क्या फल मिल सकता है इस प्रकार के धर्म-कर्म से, विवेक-शून्य कोरे व्यवहाराभास से अथवा साधना विहीन कोरे निश्चयाभासी वाग्विलास से। शत्रु हैं ये सब तेरे, तुझे भ्रान्तियों में अटकाने वाले, तुझे अन्धकूप में धकेल देने वाले, तुझे तमोलोक में ले जाने वाले। सावधान रह इनसे तथा इनकी मायावी वकालत से, इनके प्रलोभनों से और आ गुरु-शरण में अथवा अनुभवी जनों की संगति में । देख कितने प्यार से बुला रहे हैं ये तुझे। पकड़ इनका हाथ और चल अपने आगे की दिशा में, उसी Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२१ २. पट्लेश्या वृक्ष लक्ष्य-बिन्दु की ओर । एक क्षण को भी मत भूल कि शान्ति प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है तेरा लक्ष्य, समता-रस पान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है तेरा प्राप्तव्य । २. षट्लेश्या वृक्ष - समता की प्राप्ति के लिये अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति का सूक्ष्मता से अवलोकन करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि मेरी प्रत्येक प्रवृत्ति काषायिक भावों में रंगी होती है। मन से विचारने का, वचन से बोलने का तथा शरीर से चेष्टा करने का जो कुछ भी काम मैं करता हूँ वह सब किसी न किसी कषाय से प्रेरित होता है। हमें केवल बाहर की प्रवृत्ति दिखाई देती है, परन्तु वह कषाय नहीं जिसकी गुप्त प्रेरणा से कि वह अस्तित्व में आ रही है। तीक्ष्ण प्रज्ञा के द्वारा उन्हें पकड़े बिना उनकी निवृत्ति का पुरुषार्थ- सम्भव नहीं, और उनसे निवृत्त हुए बिना समता का स्वप्न देखना वास्तव में साधना का उपहास है। कषायानुरञ्जित मेरी इन प्रवृत्तियों को शास्त्रों में 'लेश्या' शब्द के द्वारा अभिहित किया गया है । इनका स्पष्ट प्रतिभास कराने के लिए गुरुजनों ने तीव्रता मन्दता की अपेक्षा इन्हें छः भेदों में विभाजित किया है— तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर, मन्दतम । कलापूर्ण बनाने के लिए इन्हें छः रंगों से उपमित किया है, क्योंकि जीव के प्रतिक्षण के परिणाम इन कषायों से रंगे हुए होने के कारण ही चित्रविचित्र दिखाई देते हैं । तीव्रतम भाव की उपमा कृष्ण या काले रंग से दी जाती है, तीव्रतर की नीले रंग से और तीव्रभाव की उपमा कापोत या कबूतर जैसे सलेटी रंग से दी जाती है। इसी प्रकार मन्द भाव की उपमा पीत या पीले रंग से, मन्दतर की पझ या कमल सरीखे हलके गुलाबी रंग से, और मन्दतम भाव की उपमा शुक्ल या सफेद रंग से दी जाती है । यद्यपि जीव के शरीर भी इन छः में से किसी न किसी रंग के होते हैं, परन्तु यहाँ शरीर के रंग से प्रयोजन नहीं है जीव के भावों के उपमागत रंगों से प्रयोजन है । इस प्रकार कषायों या इच्छाओं में रंगे हुए चेतन के ये परिणाम या लेश्या छ: प्रकार की होती हैं—– कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पझ व शुक्ल । इन्हीं को विशेष स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण देता हूँ । एक बार छ: मित्र मिलकर पिकनिक मनाने निकले। सुहावना-सुहावना समय, मन्द-मुन्द शीतल वायु, आकाश पर नृत्य करने वाली बादलों की छोटी-छोटी टोलियां, मानो प्रकृति के यौवन का प्रदर्शन कर रही थीं। छहों मित्रों के हृदय भी अरमानों से भरपूर थे । सब ही अपने-अपने विचारों में निमग्न चले जाते थे । नदी के मधुर गान ने उनके हृदय और भी उमंग भर दी। वे भूल गए सब कुछ और खो गए इस सुन्दरता में । आ हा हा हा ! कितना सुन्दर लगता है, और देखो मित्र इस ओर ! वाह-वाह काम बन गया, अब खूब आनन्द रहेगा, जी भरकर आम खायेंगे। सामने ही मद झरते पीले-पले आमों से लदा एक वृक्ष खड़ा था। एक बार ललचाईसी दृष्टि से देखा और स्वतः ही उनके पांव उस ओर चलने लगे । छहों के हृदय में भिन्न-भिन्न विचार थे। वृक्ष के पास पहुँचते ही अपने-अपने विचारों के अनुसार सब ही शीघ्रता से काम में जुट गए। एक व्यक्ति कहीं से एक कुल्हाड़ी उठा लाया, जिसे लेकर वह वृक्षपर चढ़ गया और आमों से लदफद एक टहनी को काटने लगा। यह देखकर दूसरा मित्र उसकी मूर्खता पर हँसने लगा। बोला “ अरे मूर्ख ! क्यों परिश्रम व्यर्थ खोता है ? जितनी देर में इस टहनी को ऊपर जाकर काटेगा उतनी देर में तो नीचे वाला यह टहना ही सरलता से कट जाएगा। टहनी में तो दस पाँच ही आम लगे हैं, छहों का पेट न भरेगा। इस टहने में सैकड़ों लगे हैं, एकबार नीचे गिरा लो, फिर जी भरकर खाओ और साथ में घर भी बांधकर ले जाओ।” यह सुनकर नीचे खड़ा वह तीसरा मित्र अपनी हंसी रोक न सका और बोला, "अरे भोले ! यदि घर ही ले जाने हैं तो नीचे आओ मैं तुम्हें और भी सरल उपाय बताता हूँ। वृक्षपर चढ़ने से तो चोट लगने का भय है, तथा अधिक लाभ भी नहीं है । नीचे ही खड़े रहकर इसे मूल से काट डालो । वृक्ष थोडी ही देर में गिर जाएगा, फिर बेखटके खाते रहना और जितने चाहो भरकर घर ले जाना। भैय्या ! मैं तो एक छकड़ा लाकर सारा ही वृक्ष लादकर घर ले जाऊँगा। कई दिन आम खाऊँगा और सालभर ईन्धन में रोटी पकाऊँगा । छकड़ेवाला अधिक से अधिक पांच रुपया लेगा।" और ऐसा कहकर लगा मूल में कुठार चलाने । शेष तीन मित्र अन्दर ही अन्दर पछताने लगे कि व्यर्थ ही इन दुष्टों के साथ आए जिसका फल खायेंगे उसको ही जड़ से काट डालेंगे । धिक्कार है ऐसी कृतघ्नता को । कौन समझाए अब इनको । प्रभु इन्हें सद्वृद्धि प्रदान करें । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२२ २. क्ट्लेश्या वृक्ष साहस बटोरकर उनमें से एक बोला कि भो मित्र ! तनिक ठहरो, मैं एक कथा सुनाता हूँ पहिले वह सुन लो, फिर वृक्ष काटना । तीनों चुप हो गए और कथा प्रारम्भ हुई। एक बार एक सिंह कीचड़ में फँस गया। बड़ी दयनीय थी उसकी अवस्था। बेचारा लाचार हो गया। क्या तो उसकी एक दहाड़ से सारा जंगल थरथरा जाता था और क्या आज वह ही सहायता के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहा है, कि नाथ ! अबकी बार बचा तो हिंसा न करूंगा, पत्ते ही खाकर निर्वाह कर लूँगा। प्रभु का नाम व्यर्थ नहीं जा सकता। एक पथिक उधर से आ निकला, सिंह की करुण-पुकार ने उसके हृदय को पिघला दिया। यद्यपि भय था परन्तु करुणा के सामने उसने न गिना, और बेधड़क कीचड़ में घुसकर उस सिंह को बाहर निकाल दिया। वह समझता था कि वह सिंह अपने उपकारीका घात करना कभी स्वीकार न करेगा, परन्तु उसकी आशा के विपरीत सिंह ने बंधन-मुक्त होते ही एक भयानक गर्जना करके उस व्यक्ति को तत्काल ललकारा, "किधर जाता है, मैं तीन दिन का भूखा हूँ, तूने मुझे बन्धन से मुक्त किया है और तूहा मुझ भूख से मक्त किया है और तही मझे भख से मक्त व करेगा।" अब तो तले की मिट्टी खिसकने लगी, वह घबरा गया, प्रभु के अतिरिक्त अब उसके लिये कोई शरण नहीं थी। उसने उसे याद किया, फल-स्वरूप उसे एक विचार आया। वह सिंह से बोला कि भाई ! ऐसी कृतघ्नता उचित नहीं है सिंह कब इस बात को स्वीकार कर सकता था, गरजकर बोला, "लोक का ऐसा ही व्यवहार है, तू अब मुझसे बचकर नहीं जा सकता।" पथिक को जब कोई उपाय न सूझा तो बोला, कि अच्छा भाई ! किसी से इसका न्याय करा लो। ___ व्यवहारकुशल सिंह ने यह बात सहर्ष स्वीकार कर ली, मानो उसे पूर्ण विश्वास था कि न्याय उसके विरुद्ध न जा सकेगा, क्योंकि वह जानता था कि मनुष्य से अधिक कृतघ्नी संसार में दूसरा नहीं है। दोनों मिलकर एक वृक्ष के पास पहुँचे और अपनी कथा कह सुनाई। वृक्ष बोला कि सिंह ठीक कहता है । कारण कि मनुष्य गर्मी से संतप्त होकर मेरे साये में सुख से विश्राम करता है, मेरे फलों के रस से अपनी प्यास बुझाता है, परन्तु फिर भी जाते हुए मेरी टहनी तोड़कर ले जाता है, अथवा मुझे उखाड़कर चूल्हे का ईन्धन बना लेता है। अत: इस कृतघ्नी के साथ कृतघ्नता का ही व्यवहार करना योग्य है। निराश होकर वह आगे चला तो एक गाय मिली । उसको अपनी कथा सुनाई, पर वह भी पथिक के विरुद्ध ही बोली। कहने लगी कि अपनी जवानी में मैंने अपने बच्चों का पेट काटकर इस मनुष्य की सन्तान का पोषण किया, परन्तु बूढी हो जाने पर यह निर्दयी मेरा सारा उपकार भूल गया, और इसने मुझे कसाई के हवाले कर दिया । इसने मेरी खाल खिंचवाली और उसका जूता बनवाकर पाँव में पहिन लिया। अत: इस कृतघ्नी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना योग्य है। जहाँ भी वे गये न्याय सिंह के पक्ष में ही गया, और सिंह ने उसे खा लिया। इसलिये भो मित्रो ! तुम्हें भी कुछ विवेक से काम लेना चाहिये। दूसरे की कृतघ्नता को तो तुम कृतघ्नता देखते हो परन्तु अपनी इस बड़ी कृतघ्नता को नहीं देखते। जिस वृक्ष के आम आप खायेंगे उस पर ही कुठाराघात करते क्या आपका हृदय नहीं कांपता? नीचे उतर आओ भैया, नीचे उतर आओ, मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। मैं स्वयं वृक्षपर चढ़कर तुम्हें भरपेट आम खिला दूंगा। वह वृक्ष पर चढ़ गया और आमों के बड़े-बड़े गुच्छे तोड़कर नीचे डालने लगा। यह देखकर दूसरे मित्र से बोले बिना न रहा गया । बोला कि, "मित्र ! तुम्हें भी विवेक नहीं है । क्या नहीं देख रहे हो कि इस गुच्छे में पके हुए आमों के साथ-साथ कच्चे भी टूट गये हैं, जो चार दिन के पश्चात् पककर किसी और व्यक्ति की सन्तुष्टि कर सकते थे। परन्तु अब तो ये व्यर्थ ही चले गये, न हमारे काम आये और न किसी अन्य के । अत: आप नीचे आ जाइये, मैं स्वयं ऊपर चढ़कर तुम्हें पके-पके मीठे आम खिला दूंगा। यह कहकर वह वृक्षपर चढ़ गया और चुन-चुनकर एक-एक आम तोड़कर नीचे गिराने लगा। छठा व्यक्ति यह सब कुछ देख रहा था, परन्तु चुप था। क्या बोले, किसे समझाये ? उसकी सन्तोषपूर्ण बात को स्वीकार करने वाला यहाँ था ही कौन ? विद्वान लोग, मूों को उपदेश नहीं देते । एक दिन की बात है कि वर्षा जोर से हो रही थी। एक वृक्ष के नीचे कुछ बन्दर ठिठुरे बैठे थे । वृक्षपर कुछ बयों के घोंसले थे । वे बये सुखपूर्वक उन घोंसलों में Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२३ २. षट्लेश्या वृक्ष बैठे प्रकृति की सुन्दरता, का आनन्द ले रहे थे । बन्दरों की हालत देखकर वे हंसने लगे और बोले कि रे मूर्ख बन्दर ! तुझको ईश्वर ने दो हाथ दिये हैं, फिर भी तू अपना घर नहीं बना सकता । देख, हम छोटे-छोटे पक्षी भी कितने सुन्दर घोंसले बनाकर इनमें सुखपूर्वक रहते हैं । क्या तुझे देखकर लज्जा नहीं आती ? बस इतना सुनना था कि बन्दर का पारा चढ़ गया और उसने वृक्षपर चढ़कर सब बयों के घोंसले तोड़ दिये और उनके अण्डे फोड़ दिये । इसी से ज्ञानीजनों ने कहा है, "सीख ताको दीजिये जाको सीख सुहाय, सीख न दीजिये बान्दरा, बये का घर जाय।" ऐसा सोचकर वह सन्तोषी व्यक्ति कुछ न बोला और पृथ्वी पर पहिले से इधर-उधर पड़े हुए कुछ आमों को उठाकर पृथक् बैठ सुखपूर्वक खाने लगा। इस उदाहरण पर से व्यक्ति की इच्छाओं व तृष्णाओं की तीव्रता व मन्दता का बड़ा सुन्दर परिचय मिलता है। पहिला व्यक्ति जो वृक्ष की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाने लगा था अत्यन्त निकृष्ट तीव्रतम इच्छा वाला था। उसकी कषाय कृष्ण वर्ण की थी, अर्थात् वह कृष्ण-लेश्यावाला था। टहने को काटने वाला दूसरा व्यक्ति तीव्रतर इच्छा वाला होने के कारण नील-लेश्यावाला था। टहनी को काटने वाला तीसरा व्यक्ति तीव्र इच्छावाला होने के कारण कापोत-लेश्यावाला था। इसी प्रकार आमों का गच्छा तोड़ने वाला चौथा व्यक्ति मन्द इच्छा वाला होने के कारण पीत-लेश्यावाला था। केवल पके हुए आम तोड़ने वाला पाँचवाँ व्यक्ति मन्दतर इच्छावाला होने के कारण पद्म-लेश्यावाला था। और वह अत्यन्त सन्तोषी छठा व्यक्ति मन्दतम इच्छावाला होने के कारण शुक्ल-लेश्यावाला था। इस प्रकार व्यक्ति की सर्व ही कषायों की तीव्रता व मन्दता का अनुमान कर लेना चाहिये। MAIADEVANA's WYANAVIA DANAWARENANOR AAINA WAN 14the MADAR षट्लेश्या वृक्ष Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२४ ४. बाह्य साधना । जिस प्रकार 'धर्म का प्रयोजन' बताते हुए द्वितीय अधिकार में इच्छा गर्त की भयंकरता दर्शाने के लिये संसार वृक्ष का कलापूर्ण चित्रण प्रस्तुत किया गया है, उसी प्रकार यहाँ साधना के प्रकरण में कषायों की शक्ति दर्शाने के लिये लेश्या वृक्षका यह चित्रण किया गया है। ये दोनों चित्रण जैन आम्नाय में आ बाल गोपाल प्रसिद्ध हैं । यत्र-तत्र पुस्तकों में तथा मन्दिरों में लगे हुए मिलते हैं। इन्हें केवल सजावट के लिये नहीं बनाया गया है। वास्तव में ये दोनों ही चित्र आध्यात्मिक भावनाओं से तथा रहस्यपूर्ण उपदेशों से ओत प्रोत हैं। अपने आन्तरिक भावों का दर्शन करते हुए तीव्र भावों से पीछे हटने में ही इनकी सजावट का सार्थक्य है । इसमें ही कल्याण है। ३.आभ्यन्तर साधना--परन्त आसान नहीं है यह खेल । संघर्ष करना पडेगा परा-परा असत्य लोक की इन सर्व विरोधी शक्तियों के साथ । जूझना पड़ेगा पूरे बल तथा पराक्रम के साथ इन सर्व महाविधों को परास्त करने के लिये। परलोक में सुख-प्राप्ति की भावना निदान' कहलाती है। इसी प्रकार इस लोक में कीर्ति प्रतिष्ठा आदि की चाह 'लोकेषणा' के रूप में प्रसिद्ध है। साधना के क्षेत्र में लोक-दिखावा 'दम्भाचरण' है। तत्त्व-विवेक विहीन 'व्यवहाराभास' तथा 'सिद्धोऽहं शुद्धोऽहं ब्रह्मास्मि, आदि शब्दों का निष्प्राण वाग्विलास 'निश्चयाभास है। इस निश्चयाभास से उत्पन्न अपनी पूर्णकामता का अहंकार तथा अभिमान-पूर्ण 'मिथ्या गर्व', अन्तस्तत्त्व के स्पर्श शून्य 'बाल-तप', 'बाल-त्याग' तथा 'बाल-वैराग्य' इत्यादि जितने कुछ भी धर्म तथा साधना के लिंग से चिन्हित भाव या क्रिया हैं वे सब कषायानुरञ्जित मिथ्या प्रान्तियें हैं, व्यवहाराभासी अथवा निश्चयाभासी दम्भाचार की शाखायें तथा उपशाखायें हैं, साधन मार्ग के पत्थर हैं। ___ सबको पढ़ना होगा अपने भीतर, सबको देखना होगा अपने भीतर, सबको ठीक-ठीक प्रकार पहचानना होगा अपने भीतर । खाते, नहाते, चलते, सोते, हर समय जागरुक रहना होगा अपने भीतर । देखते रहना होगा प्रतिक्षण अपने मनको तथा अपनी बुद्धि को कि क्या कुछ विचार रहे हैं ये, क्या कुछ स्वप्न देख रहे हैं ये, क्या कुछ जाल बुन रहे हैं ये। प्रयोग करना होगा सूक्ष्म-प्रज्ञाका, प्रतिक्षणं इन्हें सम्बोध-सम्बोध कर, समझा-समझाकर, ताकि भटकने न पावें ये इन भ्राान्तियों में पडकर । लक्ष्य को समेरुवत स्थिर रखना होगा. दर्शन-खण्ड में कथित तत्त्व के प्रति तथा तद्विषयक विवेक के प्रति । और यही होगी, तुम्हारी आभ्यन्तर साधना। ४. बाह्य साधना-इतना ही नहीं, और भी बहुत कुछ करना होगा इस स्व-अध्ययन के अतिरिक्त, अपने मन बुद्धि तथा इन्द्रियों की बहिर्मुखी वृत्तियों का निरोध करके उन्हें अन्तर्मुखी करने के लिए। पुन: बता देना चाहता हूँ कि केवल शास्त्र पढ़ लेने मात्र से अथवा 'सिद्धोऽहं', 'पूर्णोऽहं' आदि राग अलापने मात्र से विशुद्ध नहीं हो जाते ये । विशुद्ध होने की तो बात नहीं, अभिमान परिपुष्ट होते रहने से और भी अधिक अशुद्ध हो जाते हैं ये, और भी अधिक बहिर्मुख हो जाते हैं ये, और भी अधिक प्रान्त हो जाते हैं ये । लोक-प्रशंसा के कारण उदित उल्लास तथा शान्ति को समझ बैठते हैं ये अपनी शान्ति, चहुँ ओर अनुकूलता हो जाने के कारण उदित समता को समझ बैठते हैं ये अपनी समता। परीक्षा करने का अवसर मिले तो पता चले, प्रशंसा की बजाये निन्दा मिले तो पता चले, प्रशंसकों की भीड धीरे-धीरे खिसककर समाप्त हो जाय तो पता चले, अनुकूलता की बजाय प्रतिकूलता मिले तो पता चले कि कितनी शान्ति है इनमें और कितनी समता है इनमें । सम्भवत: अपनी पूर्ववाली भूमि से भी कुछ नीचे गिर गये हैं ये।। छोड़ इन असत् भ्रान्तियों को और पढ़ अपने हृदय की गहराइयों में जाकर कि कहीं सत्य का स्वांग धरकर कोई असत्य तो नहीं घुस बैठा है तेरे घर में ? लड़ना होगा इन महाविनों के साथ पूरी तरह और आज ही से प्रारम्भ करना होगा तुझे यह युद्ध । भले ही नवजात होनेके कारण अधिक शक्ति न हो आज तुझमें, जितनी कुछ भी प्राप्त है गुरु-कृपा से तुझे उसे ही लेकर प्रारम्भ कर दे युद्ध आज से ही, शक्तिहीन इस गृहस्थ दशा से ही। भले न कर सके मुँह-दर-मुँह सामना, छिप-छिपकर वार करता रह इनपर, शिवाजी की भाँति । इस प्रकार क्षीण होती जायेगी इनकी शक्ति और बढ़ती जायेगी तेरी शक्ति । एक दिन गृहस्थ से योगी बन जायेगा तू, अति सुभट, और उस समय कर दीजियो साक्षात् की घोषणा। भाग खडी होगी यह असत्य-सेना सत्य का रुद्ररूप देखकर उस समय, और अमर हो जाएगा त पाकर अपनी अमरावती, जहाँ तेरी प्रतीक्षा में बैठी है शान्ति-रानी। __ इस प्रकार एक ही साधक शक्ति की तरतमता के कारण अनेक कोटियों में विभाजित हो जाता है, जिनका समावेश हम तीन प्रधान श्रेणियों में कर सकते हैं-गृहस्थ, श्रावक तथा साधु । 'गृहस्थ' साधक तो कहलाता है वह जो कि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना गुरु कृपा से तात्त्विक विवेक जागृत हो जाने पर भी संस्कारों की प्रबलता के कारण अभी घर-गृहस्थी के काम-धन्धों से विरक्त नहीं हो पाया है, परन्तु अपने लक्ष्य की प्राप्ति के अर्थ अपनी शक्ति अनुसार इस दिशा-सम्बन्धी कुछ क्रियायें करने लग गया है । 'श्रावक' कहते हैं उस सद्गृहस्थ को जिसके चित्त में अपने इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप कुछ-कुछ विरक्ति जागृत होनी प्रारम्भ हो गई है, परन्तु संस्कार की प्रबलता के कारण अभी पूर्ण विरक्त होकर सन्यास धारण करने १२५ ५. समन्वय योग्य नहीं हो पाया है। तथापि अपनी इस विरक्ति को वृद्धिगत करने के लिए अपनी शक्ति के अनुसार कुछ व्रत या प्रतिज्ञायें उसने अवश्य धारण कर ली हैं। 'साधु कहते हैं उस सन्यासी को जिसका चित्त अपने इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप पूर्ण विरक्त हो चुका है और इस कारण घरबार को सर्वथा छोड़कर या तो वन में रहता है या किसी मन्दिर आदि में । अत्यन्त परिवृद्ध शक्ति वाला हो जाने के कारण यह विविध प्रकार के क्लिष्ट तपश्चरण करने के लिए भी समर्थ है। शक्ति की तरतमता के कारण तीनों प्रकार के साधकों की क्रियाओं में भेद होना स्वाभाविक है । आस्रव-तत्त्वरूप संवरण करने में सहायक होने के कारण ये सकल क्रियायें संवर-तत्त्व में अन्तर्भूत हैं । शुभ गृहस्थ के योग्य क्रियाओं में ६ प्रधान हैं— देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान । दया भी दान में गर्भित है | श्रावक के योग्य क्रियाओं में इन छः के अतिरिक्त सम्मिलित हैं अणुव्रत, देशव्रत तथा सामायिक । साधु के योग्य क्रियाओं में ९ प्रधान हैं— महाव्रत, गुप्ति, समिति, दशधर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप और ध्यान । 'तप' के अतिरिक्त यह सकल साधना वास्तव में संवर-तत्त्व का विस्तार है और 'तप' निर्जरा-तत्त्व के अन्तर्गत है । इन सबका कथन किया जायेगा आगे धीरे-धीरे, परन्तु इतना समझ लेना आवश्यक है यहाँ कि बड़ी सावधानी के साथ चलना है। साधक प्रायः लोक-रञ्जना के, ख्याति-लाभ-पूजा की चाह के अथवा लोकेषणा के शिकार हो जाया करते हैं। यहाँ आकर। और ऐसा हो जाने पर बड़े से बड़ा पुरुषार्थ करते हुए भी, महान् से महान् तप करते हुए भी, बड़े-बड़े कष्ट झेलते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं कर पाते वे । परिश्रम तथा कष्ट के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं आता उनके । कुछ हाथ आने की तो बात नहीं सम्भवत: पहली पूँजी भी गवां बैठते हैं वे । मिथ्या प्रशंसाओं के द्वारा उदित तपाभिमान के कारण पतन हो जाता है उनका, ज्योतिर्लोक की बजाय तमोलोक में प्रवेश कर जाते हैं वे । ५. समन्वय - एक समस्या है यह बड़ी जटिल । दर्शन- शास्त्र के अनुसार अपने को सिद्ध तथा पूर्ण मानकर बाह्याचार को जलाञ्जलि दे दें तो भी तमोलोक और आचार - शास्त्र के अनुसार ये सब क्रियायें करने में निमग्न हो जायें तो भी तमोलोक । ज्योतिर्लोक की प्राप्ति हो तो कैसे हो ? भैया ! वास्तव में देखा जाय तो न वह गलत है और न यह गलत । गलत तो है वास्तव में वह अज्ञान, वह अविवेक, वह अविद्या जिसके कारण कि इन दोनों की सूक्ष्म सन्धि में निहित रहस्य को देख नहीं पाते ये दोनों ही। दोनों ही ईमानदार हैं अपने प्रति, दोनों ही का लक्ष्य है शान्ति के प्रति, दोनों पुरुषार्थ कर रहे हैं अति प्रबल, पहलेवाले कर रहे हैं बौद्धिक पुरुषार्थ और दूसरे वाले कर रहे हैं शारीरिक पुरुषार्थ । किसी के भी पुरुषार्थ में कमी नहीं परन्तु न जाने क्या रहस्य है वह जिसके कारण सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं कर पाते वे । नियति के अतिरिक्त और क्या कहें इसे ? परन्तु मत घबरा भो पुरुषार्थी ! मत घबरा, निराश मत हो, गुरुदेव की शरण को मत छोड़ कसकर पकड़ अंगुली । सब कुछ सुलझा देंगे वे स्वयं और बता देंगे वह सूक्ष्म रहस्य भी तुझे । जिस प्रकार किसी चूर्ण के स्वाद में नमक, जीरा, सौंठ आदि अनेक मसालों के स्वाद युगपत् पड़े रहते हैं, जो सबके सब युगपत् एक विजातीय स्वाद के रूप में अनुभव करने में आते हैं, इसी प्रकार इन सर्व क्रियाओं में भी दो अंश रहते हैं— एक बाह्यांश और एक अभ्यन्तर अंश । इन दोनों अंशों का परस्पर मिश्रित कोई विजातीय स्वाद ही साधक के अनुभव में आता है । बाह्यांश तो इन्द्रिय- गम्य होने के कारण जगत के दृष्टिपथ में आ जाता है परन्तु अभ्यन्तर अंश इन्द्रिय-- ग्राह्य न होने के कारण जगत को दिखाई नहीं देता । उसे या तो जानता है साधक स्वयं या जानते हैं गुरुदेव । ख्याति व प्रशंसा आदि का आधार वास्तव में बाह्यांश है, अभ्यन्तर अंश नहीं। जिस प्रकार कोई सर्राफ खोटे स्वर्ण के जेवर में, उसका शोधन किये बिना ही यह पहचान लेता है कि इसमें इतना अंश तो सोने का है और इतना अंश खोट का, उसी प्रकार ज्ञानी-साधक बराबर इन क्रियाओं के विजातीय स्वाद का विश्लेषण करके यह जानता रहता है कि इनमें इतना अंश तो बाह्य है और इतना अंश अभ्यन्तर । जिस प्रकार ताम्बा अथवा चान्दी रूप खोट का व्यवहारिक क्षेत्र में कुछ न कुछ मूल्य होते हुए भी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. साधना १२६ ५. समन्वय सर्राफ के लिये वह बिल्कुल बेकार है, इसी प्रकार इन क्रियाओं के बाह्यांश का प्रशंसा आदि के व्यवहारिक क्षेत्र में कुछ न कुछ मूल्य होते हुए भी साधक के लिये वह बिल्कुल बेकार है। जिस प्रकार जेवर में खोट मिलवाने की इच्छा न होते हुए भी ग्राहक को टाँके आदि में प्रयुक्त खोट को स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि बिना उसके ज़ेवर बनना सम्भव नहीं; इसी प्रकार बाह्य क्रिया की इच्छा न होते हुए भी ज्ञानी -साधक को उसे स्वीकार करना पड़ता है, क्योंकि वह जानता है कि उसका आलम्बन लिये बिना अन्तरंग की क्रिया सम्भव नहीं। जिस प्रकार जेवर को गले में पहनते हुए भी ग्राहक की दृष्टि में उसका खोट बराबर खटकता रहता है, उसी प्रकार इन सकल क्रियाओं को करते हुए भी साधक की दृष्टि में उनका बाह्यांश बराबर खटकता रहता है। कारण यह कि उन क्रियाओं में रहने वाला अभ्यन्तर अंश ही वास्तव में अमृत है, बाह्यांश नहीं। इसके विपरीत वह तो स्वयं आस्रव-तत्त्वरूप होने के कारण विष है । इसलिये उसका प्रयत्न बराबर यही रहता है कि जिस किस प्रकार भी इस बाह्यांश का आलम्बन छूटे और अभ्यन्तरअंश में अधिकाधिक वृद्धि होती जाय । यही कारण है कि ज्यों-ज्यों वह आगे चलता है त्यों-त्यों बाहर से हटकर भीतर में जाता रहता है, बाह्यांश कम होता जाता है और अभ्यन्तर अंश बढ़ता जाता है। एक दिन अभ्यन्तर अंश पूर्ण हो जाता है और बाह्यांश का आलम्बन सर्वथा छूट जाता है। फिर उसे कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं रह जाती । करे या न करे । विधि-निषेध से अतीत हो जाता है वह, संवर तथा निर्जरा तत्त्व का उल्लंघन करके मोक्ष तत्व में प्रवेश पा जाता है वह, जीवन्मुक्त हो जाता है वह, और यही है, उसकी पूर्णता जिसे प्राप्त कर लेने के उपरान्त ही उसको अधिकार प्राप्त होता है 'सिद्धोऽहं, पूर्णोऽहं ब्रह्मास्मि' आदि कहने का । बस यही है वह रहस्य जिसे न जानने के कारण कोई रह जाता है लोकरञ्जना में, कोई ख्याति, प्रशंसा, प्रतिष्ठा में और कोई पूर्णता के मिथ्या अभिमान में । अतः भाई ! यदि तू ईमानदार है अपनी साधना के प्रति तो तेरा सर्वप्रथम कर्त्तव्य यह है कि इन दोनों अंशों की यथोक्त मैत्री को साथ लेकर चल । अपनी ओर से कोई खेंचतान न कर । तभी कहलायेगी वह सत्य साधना । ● गुरुदेशना को प्राप्त शिष्य साधना द्वारा समस्त विघ्नों को परास्त कर, अपने भीतर अपना स्वरूप देखकर आश्चर्यचकित रह गया। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. गृहस्थ-धर्म १. सामान्य परिचय | यातायात इस साधन-सम्पन्न युग में साधुओं तपस्वियों तथा त्यागियों के दर्शन सुलभ तथा बहुल हो जाने के कारण, और साथ-साथ उनके त्याग-प्रधान उपदेश सुनते रहने के कारण जन-साधारण में आज एक ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न हो गई है कि गृह-त्याग अथवा भोजन, वस्त्र आदि का अधिकाधिक त्याग किये बिना शान्ति पथ की साधना की जानी सम्भव नहीं है । भक्तजनों से प्राप्त साधुओं तथा त्यागियों की पूजा, प्रतिष्ठा, ख्याति, व प्रसिद्धि देखकर पूर्व - संस्कारों की वासना से मन में जो लोकेषणा जागृत होती है, वह इस भ्रान्ति को बल प्रदान करती है, और भोले-भाले व्यक्ति इस जाल में उलझकर अपने जीवन को नष्ट कर डालते हैं । अमृत भी उनके लिये विष बन जाता है । अत: सत्य-साधक को प्रथम-पग में ही सावधान होकर चलना है, बाह्य के इस असत्य - प्रसार को देखकर इसकी रौमें नहीं बह जाना है। बाहर में छोड़ने मात्र से किसी वस्तु का त्याग नहीं हो जाता। साधना बाहर से भीतर को न जाकर भीतर से बाहर को आती है । बाहर में साधु अथवा त्यागी- जैसा वेष बना लेने से अथवा अनुचित त्याग आदि के द्वारा देह शोषण करने से शान्ति की सिद्धि नहीं होती, विपरीत इसके कृत्रिम तथा भावनाशून्य होने के कारण इस प्रकार का वेष तथा त्याग जीवन का भार बन बैठता है, प्रशंसा सुनने की भावना उसे अपने प्रशंसकों का दास बना देती है, और अपने निन्दकों के प्रति उसका मन शंका, भय, द्वेष तथा घृणा से भर जाता है, प्रशम आदि पूर्वोक्त गुण किनारा कर जाते हैं, हृदय की सरसता नष्ट हो जाती है और उसके स्थान पर क्रोध व अभिमान आकर डेरा जमा लेते हैं । साधना का अर्थ है अभ्यास और अभ्यास एकदम न होकर धीरे-धीरे हुआ करता है। इस प्रसंग में तीन बातों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है— प्रकृति, शक्ति तथा स्थिति । सर्वप्रथम व्यक्ति को अपनी प्रकृति या स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहिये और तत्पश्चात् अपने बलाबल तथा परिस्थिति को देखते हुए यथोचित त्याग आदि करना चाहिये । न अपनी शक्ति को छिपाना चाहिये और न उससे अधिक करना चाहिये। जैसे वातावरण में रहता हो तथा जैसी परिस्थितियों में से उसका जीवन गुजर रहा हो उसका भली भाँति सन्तुलन करके चलना चाहिये। इन बातों का अतिक्रमण करने से वह ऊपर उठने की बजाय नीचे गिर जाता है। सद्भावना से शून्य होने के कारण तथा ख्याति आदि अन्यान्य असत् अभिप्रायों से उत्तेजित होने के कारण इस प्रकार का सकल प्रयास उसे सन्मार्ग से दूर किसी ऐसे अन्धकूप 'में धकेल देता है जहाँ से निकलने के लिये उसे असंख्यकाल प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अच्छाई के लिये किया गया घोर परिश्रम उसकी बुराई का हेतु बन जाता है। प्रथम-पग में ही साधक को अपने हृदय-राज्य में सद्भावना, संवेग, निर्वेद तथा वैराग्य जागृत करके उसे धीरे-धीरे पुष्ट करने का अभ्यास करना चाहिए, जिसके हो जाने पर त्याग आदि किया नहीं जाता प्रत्युत स्वतः हो जाता है, क्योंकि तब उसकी प्रकृति बदल जाती है, उसकी रुचि बदल जाती है। वे पदार्थ अब उसको अच्छे ही नहीं लगते, विपरीत इसके वे उसे कुछ भार सरीखे दीखने लगते हैं। साधक की सर्वप्रथम भूमि गृहस्थ है और उसकी शक्ति अति-अल्प है । इसमें रहते हुए ही उसे भावना वृद्धि का और इसके द्वारा शक्ति- वृद्धि का अभ्यास प्रारम्भ करना है । लोक- दिखावे से दूर रहना है, इसलिए जो कुछ भी करना है गुप्त रहकर करना है, केवल अपने भीतर तथा अपने लिए करना है । और यही है एक गृहस्थ के योग्य संवर-तत्त्व | अपनी-अपनी प्रकृति, शक्ति व स्थिति के अनुसार अनेक प्रकार से प्रारम्भ किया जा सकता है यह अभ्यास, तथापि अनुभवी पुरुषों ने इस विषय में छ: बातें बताई हैं - देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप व दान । इन छहों में प्रथम तीन अर्थात् देवपूजा, गुरु-उपासना और स्वाध्याय मनोमज्जन अथवा भावना वृद्धि के लिए हैं और संयम आदि आगे की तीन क्रियायें यथा-शक्ति-त्याग व तपका अभ्यास करने के लिए हैं। इन छहों का अभ्यास करने से साधक श्रावक आदि की क्रमोन्नत भूमियों में प्रवेश पाने की योग्यता जागृत कर लेता है। इसलिए साधक का कर्तव्य है Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. गृहस्थ-धर्म १२८ १. सामान्य परिचय कि त्याग आदि करने की उतावल न करे और न ही अपनी शक्ति को छिपाए,निराश न हो और सन्तोष व धैर्यपूर्वक इन छहों क्रियाओं का अभ्यास करता रहे । इनका विस्तार तो आगे क्रम से किया जाने वाला है, परन्तु यहाँ इतना बता देना आवश्यक है कि इन क्रियाओंमें देव प्रतिमा आदि का अवलम्बन संवर नहीं है । प्रत्युत समता-भाव के उस अंश का नाम संवर है जो कि इसके सत्य आलम्बन से धीरे-धीरे चित्त में उत्पन्न तथा परिवृद्ध होता जाता है। (CC . N on शुभकरम जोग सुघाट आया, पार हो दिन जात है। । 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है। 2 - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा आज १. आदर्श भिखारी; २. आदर्श दाता; ३. आदर्श देव; ४. आदर्श पूजा; ५. अष्ट द्रव्य पूजा; ६. शंका समाधान (i. देव विषयक; ii. पूजा विषयक; iii. प्रतिमा विषयक; iv. मन्दिर विषयक) १. आदर्श भिखारी-हे शान्ति-सुधा-सागर ! हमें अपना दास बनाने का सौभाग्य प्रदान कीजिये । ओह ! कैसी अनोखी बात है कि शान्ति का उपासक मैं भीख मांगने पर उतर आया हूँ और भीख भी काहे की, दासत्वकी? परन्तु इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है भाई ! क्योंकि आज मैं वास्तव में हूँ ही भिखारी । भिखारी कौन होता है, यह तो सोच? भिखारी के दो मुख्य लक्षण हैं—पहला यह कि जिसे कुछ इच्छा हो, दूसरा यह कि जिसकी इच्छायें पूर्ण न हो पाती हों या पूर्ण होने की आशा न हो । यदि किसी को इच्छायें न हों या अपनी इच्छाओंको स्वयं पूरा कर लेता हो तो दूसरे के सामने हाथ फैलायेगा ही क्यों ? बस तो आज की दशा में यह दोनों लक्षण मुझ में घटित होते हैं। मुझे शान्ति की इच्छा है और गृहस्थ-जाल में बन्धकर विकल्प-सागर में डूबे हुए मुझे परिश्रम करने पर भी विकल्पों से मुक्ति मिलती प्रतीत नहीं होती। इसलिये इस दशा में रहते हुए शान्ति मिलनी बहुत दुर्लभ लगती है, यहाँ तक कि इतबद्धिसा.निराशसा होकर यह ही सोचा करता हूँ कि क्या करूं कैसे इन विकल्पों से छट कैसे शान्ति में स्थिति पाऊं । मैं भिखारी अवश्य हूँ, पर अन्य भिखारियों में और मुझ में अन्तर है वे हैं धन व भोगों के भिखारी और मैं हूँ शान्ति का भिखारी । भिखारी बना रहना किसी को अच्छा नहीं लगता और मुझे भी अच्छा नहीं लगता पर क्या करूँ भूखा मरता क्या नहीं करता। जिस प्रकार कदाचित् सौभाग्यवश उन भिखारियों में से किसी एक को यदि किसी प्रकार धन या भोगों की प्राप्ति हो जाय तो वह स्वत: भीख मांगना छोड़ देता है, उसी प्रकार मुझे भी यदि कदाचित् किसी प्रकार शान्ति की प्राप्ति हो जाय तो मैं भी स्वत: भीख मांगना छोड़ दूँगा। और जैसे वह यदि आज ही आपके कहने से या स्वत: भीख मांगना छोड़ दे तो भूखा मर जाय, उसी प्रकार मैं भी यदि आपके कहने से या लज्जा के कारण शान्ति की भीख मांगना छोड़ दूँ तो भूखा मर जाऊँ।। २. आदर्श-दाता-अब प्रश्न यह उठता है कि भिखारी बनकर घर से निकला कोई भी व्यक्ति किसके पास जाए भीख मांगने ? उत्तर स्पष्ट है कि उसके पास जो कि उसकी अभीष्ट वस्तु का भण्डार हो, तथा जो उदार हो कृपण नहीं। बस तो जिस प्रकार धन के भिखारी जाते हैं, धन के भण्डार तथा दानी धनिकों के पास; धनुष-विद्या के भिखारी जाते हैं, उस विद्या के भण्डार व उदार-हृदय द्रोणाचार्य के पास; आधुनिक विद्या के भिखारी जाते हैं उस विद्या के भण्डार तथा इसे देने में तत्पर स्कूल कालिजों के मास्टरों तथा प्रोफैसरों के पास; वीरता के भिखारी जाते हैं वीरता के भण्डार तथा दयालु महाराणा प्रताप के पास; जूए के भिखारी जाते हैं किसी बड़े जुआरी के पास; उसी प्रकार शान्ति का भिखारी मैं जाऊँगा शान्ति के भण्डार व विश्व-कल्याण में तत्पर किसी भी योग्य व्यक्ति के पास । अब देखना यह है कि मेरी कामनाओं की पर्ति करने वाला. मझ भिखारी की झोली भर देने वाला, उपरोक्त लक्षणों को धारण करने वाला, ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके पास कि मैं जाऊँ, तथा वह कहाँ रहता है ? चलो खोजें उसे । यह लो राजाकी सवारी आती है। आइये इसी से मांग लें “राजा महाराज की जय हो, इस गरीब की झोली में भी कुछ डाल दो।” “लो दो अशर्फी ।" "पर क्या करूँगा इनका ? मुझे तो शान्ति चाहिये, हो तो दे दीजिये।" "अरे ! इस शान्ति का तो मैं भी भिखारी हूँ। भिखारी भिखारी को क्या देगा?" और इस प्रकार स्कूल का मास्टर, प्रोफ़ैसर, सेठ, सेनापति, जुआरी, क़साई सबसे माँगकर देखो, सब स्वयं भिखारी हैं इस शान्ति के, अत: उनके पास जाना व्यर्थ है। अब आइये इधर इस द्वार पर जहाँ कि कल्पनाओं के घोड़े पर सवार ये कुछ विशेष प्रकार के भिखारी खड़े भीख मांग रहे हैं। देखें तो अन्दर कौन है और क्या बांट रहा है ? अरे ! ये तो मुरली-मनोहर हैं, मुरली की धुन में तथा भक्त गोपियों के साथ रासलीला में मग्न, अतीव सुन्दर शरीर के धारी, बलवान, नीतिज्ञ, दयालु, सखा तथा अनेक गुणों Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १३० ३. आदर्श-देव के भण्डार श्रीकृष्ण । “प्रभो ! मुझे भी दे दीजिये कुछ ?” "हां, हां लो। बताओ क्या चाहिये ? संगीत का मधुर पान चाहिये तो यह लो, अपने साथियों से प्रेम करने की इच्छा हो तो यह लो, वीरता चाहिये तो यह लो, राजनीति चाहिये तो यह लो, धन-महल चाहिये तो यह लो। अरे ! तुम तो कुछ बोलते ही नहीं ? बोलो, डरो नहीं, जो चाहिये ले लो।" "परन्तु भगवन् ! मेरे काम की तो इनमें एक भी वस्तु नहीं। मुझे तो शान्ति चाहिये, हो तो दे दीजिये।" "हैं ! क्या कहा ? भाई यह तो कुछ कठिन समस्या है। यही एक वस्तु ऐसी है जो मेरे पास नहीं है। मैं स्वयं इसके लिये वैराग्यमूर्ति श्मशानवासी शिव की उपासना करता हूँ।" आइये इधर देखिये, कैसी भीड़ लगी है ? अरे ? ये तो राजाराम हैं। कन्धेपर धनुष, दाईं ओर भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण और बाईं ओर माता सीता । अहा हा ! कितना मनोज्ञ है यह दृश्य, मानो विश्व को प्रेम का संदेश सुना रहा है मख पर कोमल-कोमल मस्कान-मानो जगत को निर्भयता प्रदान कर रहे हैं। आओ इन्हीं के सामने झोली फैलाकर देखू, सम्भवत: कुछ मिल जाय । देखिये ये स्वयं बुला रहे हैं। कितना प्रेम है इनमें । “प्रभो ! मुझे भी दे दीजिये कछ।" "ले लो भाई ! यह पड़ा है ढेर, जो चाहे ले जाओ। देखो यह पड़ी है पितभक्ति, इधर देखो यह पड़ा है प्रजापालन, और वह देखो रखा है न्याय, यह है वीरता, और यह लो कर्त्तव्य-परायणता । बताओ क्या चाहिये? अरे ! चुप क्यों हो?" क्या कहूँ भगवन ! इस सबमें से मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, मुझे तो चाहिये केवल शान्ति ।” “ओह ! समझा । बहुत भाग्यशाली हो तुम, उस महान वस्तु की जिज्ञासा लेकर आये हो जिसके सामने तीन लोक की सम्पदा तुच्छ है, जिसके लिये बड़े-बड़े चक्रवर्तियों ने राजपाट-को लात मार दी, और जिसके लिये मैंने स्वयं भी इस सम्पूर्ण जाल को तोड़कर वीतरागी-वेष धर वनवास को अपना सौभाग्य समझा । तुम सम्भवत: नहीं देख पा रहे हो मेरे जीवन का वह पिछला भाग, जब कि मैं राजा राम नहीं था बल्कि था साधूराम और न देख रहे हो मेरा आज का जीवन, जबकि मैं राजाराम की बजाए भगवान राम बन चुका हूँ। यदि शान्ति चाहिये तो-राजाराम के पास न मिलेगी बल्कि भगवान राम के पास मिलेगी, मुनि-राम के पास मिलेगी, तपस्वी राम के पास मिलेगी, दिगम्बर-राम के पास मिलेगी, जिसको न रही थी महल की आवश्यकता, जिसको नही थी वस्त्रभूषण की आवश्यकता, जिसको न रही थी दासियों की आवश्यकता, जिसको न रही थी धनुष-बाण की आवश्यकता।" जब उसका नाम राम नहीं रह गया था बल्कि हो गया था इन्द्रिय-विजयी जिन । (जैन मान्यता के अनुसार सर्व तीर्थकरों की भाँति भगवान राम तथा भगवान हनुमान ने भी सन्यास लेकर तपश्चरण द्वारा मुक्ति प्राप्त की थी।) कैसा मधर व निःस्वार्थ है इनका उपदेश ? धन्य हो गया हैं भगवन आज इसे सनकर आपने मझे अधिक भटकने से बचा लिया। यदि आपसे उस शान्ति-भण्डार मुनि व भगवान राम के सम्बन्ध में परिचय न पाता तो न जाने किस-किस के दर की ठोकरें खानी पड़ती। बड़ा अनुग्रह हुआ है नाथ आपका, कृपया आशीर्वाद दीजिये कि मैं उस परम-योगेश्वर को खोज निकालने में सफल हो जाऊं। ३. आदर्श-देव-कहां खोजूं उन्हें ? घर में या वन में ? चलो पहले घर में ही खोजू । अरे ! ये रहे वे तो, मेरे ही घर में। घर में भी क्या, स्वयं मुझमें । मुझमें भी क्या, स्वयं मैं ही तो हूँ शान्ति तथा समताका आवास, महाप्रभु चैतन्य, महातत्त्व, जीवतत्त्व । क्या नहीं देख रहे हो ? चलो भीतर । इन्द्रियों के पीछे तथा इनके द्वारा गृहीत विविध ज्ञेयाकृतियों के पीछे। मनके पीछे तथा इसके द्वन्द्वात्मक संकल्प-विकल्पों के पीछे, इसकी राग द्वेषात्मक कषायों के पीछे । बुद्धि के पीछे तथा इसकी विविध तर्कणाओं के पीछे, धारणाओं तथा स्मृतियों के पीछे अहंकार के पीछे तथा इसके विविध संस्कारोंके पीछे, वासनाओं कामनाओं व इच्छाओं के पीछे। भीतर, और भीतर, हृदय की अन्तस्तम गुफा में। कितना प्रचण्ड है इसका तेज, महातत्त्व की ज्योति ? इसी के तेज से तेजवन्त है मन तथा इसका जगत, इसी की ज्योति से ज्योतिवन्त है बुद्धि तथा इसका विस्तार, इसी की सुवास से वासित है अहंकार तथा इसकी वासनायें । सबमें अनुस्यूत है यह, सबमें अनुगत है यह, माला के दानों में पिरोये गए डोरे की भाँति । कितनी चतुराई से छिपाया है इन्होंने अपना रूप, ताकि किसी जगवासी की नज़र न लग जाये इन्हें । अत्यन्त सुन्दर हैं न ये और साथ ही एक चतर कलाकार भी। परन्तु कहाँ जाओगे प्रभु ! मुझसे छिपकर ? क्या तरंग से सागर छिपा है कभी ? आप ही का तो शिशु हूँ मैं, आप ही Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १३१ ३. आदर्श-देव का तो अंश हूँ मैं, आप ही की तो तरंग हूँ मैं। भले छोटा सा हूँ, भले अबोध हूँ परन्तु आपकी एक किरण जो प्राप्त करली है मैंने गुरुकृपा से। परन्तु यह क्या? लुप्त हो गए ? इतनी जल्दी ? बड़े माया-जालिये हैं आप। आपसे मेरा प्रयोजन सिद्ध होने वाला नहीं। एक क्षण को भी नहीं टिकते, मुझे देंगे क्या ? मुझे तो चाहिये ऐसे देव जिनसे मुँह-दर-मुँह बातें कर सकूँ मैं, जिनकी गोद में खेल सकूँ मैं, जिनका प्यार पा सकू मैं जिनको अपने दुःख सुख की व्यथा सुना सकू मैं और जिनसे भीख मांग सकूँ मैं। और यह लो मेरे सौभाग्य से ऋषियों ने बना दिया इस निराकार को साकार, तत्त्व को मानव, अतिमानव। किसी को लगा दिये चार हाथ पांव और किसी को दस । किसी का रूप बनाया सुन्दर और किसी का भयंकर । विविध शक्तियों के प्रतीकरूप में विविध आयुध दे दिये उनके हाथों में, और उनकी प्रधान चित्शक्ति को ला बैठाया उनके वाम-भाग में, उनकी अर्धांगिनी बनाकर । विविध गुणों के प्रतीकरूप में विविध प्रकार के वस्त्राभूषणों से अलङ्कृत कर दिया उनके दिव्य शरीरों को। परन्तु कहाँ से लाऊँ बुद्धि इतनी कि दर्शन कर सकूँ इन विविध प्रतीकात्मक आकारों में निराकार के, देख सकूँ इन अतिमानवों को तत्त्व के रूप में, जिसके प्रतीक बनाये गये हैं ये । मुझे तो दीखता है केवल उनका बाह्य रूप, उनकी सुन्दर अथवा भयंकर आकृतियाँ, उनके आयुध तथा वस्त्रालङ्कार, उनकी पत्नी तथा उनके सेवक । इन्हें देखकर समझ बैठता हूँ मैं इन्हें सातवें आसमान में रहने वाला कोई भोगी-विलासी, रागी-द्वेषी, अपने शत्रुओं के प्रति भयग्रस्त, उनके साथ युद्ध करने में रत और न जाने क्या-क्या । एक लौकिक सम्राट से अधिक दीखते ही नहीं वे मुझे। कैसे करूं इनमें देव के दर्शन, अपनी आदर्शभूत समता तथा शान्ति के दर्शन ? अत: इनसे भी मेरा काम चलने वाला नहीं। चलिये अब वनकी ओर, अपने प्रभु को खोजने, जो मेरी झोली में शान्ति की भिक्षा डाल सकें। अरे ये सामने कौन दिखाई दे रहे हैं, कितनी शान्त व सौम्य है इनकी मुखाकृति, रोम-रोम से शान्ति का प्रसार करते मानो साक्षात् शान्ति के देवता ही हैं जिनका नग्न वेष बता रहा है कि इन्हें कोई इच्छा नहीं, कोई चिन्ता नहीं गरमी की या सर्दी की, भूख की या प्यास की। इनकी शान्त-मुस्कान बता रही है कि इन्हें कोई आश्चर्य नहीं कोई शोक नहीं, कोई भय नहीं, जिसके कारण कि इन्हें शस्त्र अपने पास रखने पड़ें। इनका पुलकित शरीर बता रहा है कि इन्हें कोई राग भी नहीं। शान्ति में इनकी निश्चलता बता रही है कि इस व्याकुल जगत से इनका कोई सम्पर्क नहीं, और न ही आगे कभी होगा। इनका सन्तोष बता रहा है कि इस शान्ति का विच्छेद इनसे कभी नहीं होगा। इनकी साम्यता बता रही है कि इन्हें न भक्त से प्रेम है न निन्दक से द्वेष । इनकी सौम्यता इनके अन्तरंग की साम्यता को दर्शा रही है तथा बतला रही है कि इन्हें कोई अभिमान नहीं, किसी भी परपदार्थ का कुछ करने सम्बन्धी मोह नहीं। इनकी सरल चित्तता बता रही है कि इन्हें कुछ परिश्रम नहीं करना पड़ रहा है। वही तो हैं । ये, जिनका दर्शन किया था मैंने अपने भीतर । उन्हीं का तो साकार रूप है यह, उन्हीं की तो प्रतिच्छाया है यह। खुले आकाश के नीचे अस्पष्ट तथा अलिप्त बैठी यह निर्भीक-शान्तमुद्रा न जाने मुझे क्यों रस्सा बान्धकर अपनी ओर खेंच रही है ? कितनी शान्ति आ गई है इनके दर्शनमात्र से? इस समय मैं भूल बैठा हूँ सब कुछ, यहाँ तक कि यह भी कि मैं यहाँ किस काम के लिए आया था। मानो मैं स्वयं ही शान्त हआ जा रहा हूँ। चन्दन के आस-पास लगे वृक्ष भी स्वत: चन्दन बन जाते हैं। इस शान्ति के देवता का भी तो ऐसा ही महात्म्य प्रतीत होता है कि इनसे बिना कुछ मांगे ही मैं तृप्त हुआ जा रहा हूँ, कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ। भोगों का रस इस समय मुझे विषमय भास रहा है, स्त्री व बच्चों की चीख-पुकार मानो मेरे कानों को चीरे डाल रही है, धन सम्पत्ति मानों एक बड़ा भारी भारसा प्रतीत हो रहा है, इसका उपार्जन व रक्षण अब साक्षात् दावाग्निवत् दिखाई पड़ रहा है । मैं भी स्वयं शान्ति के साथ तन्मयसा हो गया हूँ, शान्ति सुधा का मानो पान ही कर रहा हूँ। आज मैं अपने को भिखारी नहीं समझता। मैं तो स्वामी हूँ, सामने बैठा इन जैसा ही सा समझ रहा हूँ कुछ अपने को । ठीक ही सुना करता था कि प्रभु अपने आश्रितों को अपने समान कर लेते हैं, आज उस बात का साक्षात् हो रहा है । अन्तर केवल इतना है कि तब Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १३२ ४. आदर्श-पूजा समझा करता था यह कि वे उसे कुछ राज्य वैभव आदि देकर अपने बराबर करते हैं, और अब समझता हूँ यह कि उनका करना तो नाम मात्र है, वास्तव में उनके बिना किये स्वत: उनका आश्रित उनके समान शान्त हो जाता है, उनके बिना कुछ दिए स्वत: वह वस्तु अर्थात् शान्ति पा लेता है, जिसकी इच्छा लेकर वह इनकी शरण में आया था तथा जिसके लिए भटकता भटकता वह कुछ निराश हो गया था। अहो ! इस परम अभीष्ट शान्ति को पाकर, उस शान्ति को कि जिसके पाने के लिये मुझे व्यर्थ ही अनेकों द्वारों की ठोकरें खानी पड़ी। मैं आज न जाने अपने को कितना महान् देख रहा हूँ। कुछ ऐसा सा लगता है कि मानों मुझे नाली से निकालकर सिंहासन पर बैठा दिया गया हो, राजतिलक के लिये। परम सौभाग्य ही जागृत हो गया है आज मेरा । आजतक राजा-राम को देखता रहा, अब भगवान राम को देख रहा हूँ, भगवान हनुमन्त को देख रहा हूँ, भगवान ऋषभ को, देख रहा हूँ, अरिष्ट-नेमि को देख रहा हूँ, भगवान पार्श्व व महावीर को देख रहा हूँ। मानो साक्षात् ब्रह्मा को शिव को या शंकर को देख रहा हूँ, महादेव या महेश को देख रहा हूँ, विष्णु या बुद्ध को देख रहा हूँ, अल्लाह या खुदा को देख रहा हूँ। जिनको आजतक पृथक्-पृथक् देखकर व्यर्थ द्वेष की ज्वाला में जलता रहा, आज उनको एक शान्ति के आदर्श रूप में देख रहा हूँ । वास्तव में आज मैं धन्य हो गया हूँ। जगत् पुकारता रहे इन्हें अनेकों नामों से, परन्तु शान्ति के भिखारी मेरे लिये यह राम है न कृष्ण, न राजा है न वीर, है केवल शान्ति का प्रतीक । यह है मेरा लक्ष्यबिन्द, मेरे जीवन का आदर्श। यह है वह जो कि बनना चा है मेरा उपास्य देव जिसके चरणों का दास बनने की मैंने प्रार्थना की थी। सर्वत्र घमा पर राग व इच्छा. द्वेष व भय. प्रेम व शोक के अतिरिक्त कुछ न देखा, सब स्थानों से निराश ही लौटा । सर्व दोष विमुक्त इस शान्ति के सौन्दर्य में मुझे वह दिखाई दे रहा है जो मैंने कहीं नहीं देखा अर्थात् वीतरागता, छोटे-बड़े ऊँचे-नीचे सर्व-प्राणियों के प्रति साम्यता, सरलता, सौम्यता, स्थिरता, क्रोधादि-रहित प्रसन्नचित्तता । अनेक गुणों का भण्डार यही था मेरा लक्ष्य, जिससे मुझे कुछ मांगना था, पर बिना माँगे ही जिसे देखकर मुझे मिल गया। ४. आदर्श-पूजा–शान्ति के उपासक मैंने दर-दर की ठोकरे खाकर आखिर शान्ति के देवता को अर्थात् अपने इष्ट देव को ढूंढ ही लिया। परन्तु किंकर्तव्य-विमूढ़सा मैं अब इनकी पूजा कैसे करूँ । क्या जल से ? या चन्दन से ? या अक्षत पुष्पादि से ? इन वस्तुओंकी इन्हें आवश्यकता ही क्या है ? अरे भोले ! इनको तो तेरी पूजा ही की कौन आवश्यकता है ? इनको तो कुछ नहीं चाहिए; तू चाहे पूजा कर या निन्दा, ये तो दोनों में समान हैं। चाहे जल चढ़ा या विष, दोनों से ही इनको लाभ-हानि नहीं। ये हैं तेरे विकल्प, चाहे किसी प्रकार पूरे कर।। मैं क्या करूँ प्रभु ! कुछ भी किए नहीं बनता, एक ओर आप शान्ति के देवता, त्रिलोकाधिपति, और दूसरी और । सर्व लोक में ऐसी कोई वस्तु ही नहीं दिखाई देती जिसे आपके चरणों में भेंट करूँ, असमञ्जस में पड़ा हूँ, कभी आपको और कभी अपने को देखता हूँ। कहाँ बिठाऊँ आपको? तीनलोक में आपके योग्य स्थान ही दीखता नहीं। तो क्या मैं आपकी पूजा ही न कर सकूँगा? क्या सेठ लोगों को ही अधिकार है इस महा-सौभाग्य का ? बोलते क्यों नही? मैं भी तो आपका सेवक हूँ ? भले कुछ न आता हो मुझे, भले बोलना भी न आता हो मुझे, भले मेरे पास धन न हो, भले मेरे पास आपकी भक्ति के पाठ न हों, परन्तु इतना तो अवश्य है मेरे पास कि मेरे हृदय में आपको देखकर कुछ तूफ़ान सा उठ खड़ा हुआ है। क्या कहूँ मैं उसे? मैं स्वयं नहीं जानता कि क्या है वह ? कुछ बहुमान सा है। यद्यपि आपके योग्य तो नहीं पर कुछ है अवश्य । बस यही सामग्री है मेरे पास । क्या स्वीकार कर लेगें मेरी पूजा को? अहा ! शान्ति ही शान्ति दीखती है चहूँ ओर, सर्व विकल्प शान्त हो गए हैं मेरे, कोई चिन्ता नहीं रही है, शान्ति के इस प्रवाह में स्वयं खोसा गया है. अपनी महिमा का भान होने लगा है। मैं चैतन्य हूँ. सब बाहा दीखने वाले नाते कहाँ है मुझमें ? मैं 'मैं' का विचार कर सर्वदा इसमें ही खोया रहूँ तो कहाँ है अवकाश चिन्ताओं को, कहाँ है अवकाश विकल्पों को, और कहाँ है अवकाश व्याकुलता को ? आप जैसा ही तो हूँ, अमूर्तिक व शान्तिस्वरूप । यदि अन्य का विचार न करूँ तो शान्ति ही है । आपको देखकर अन्य सर्व को मैं पहले ही भूल चुका हूँ। आपको मेरी इस भक्ति से मैं की Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा ४. आदर्श-पूजा हर्ष नहीं हो रहा है, और न निन्दा से खेद । मुझे ही क्यों हो? किसी के लिए मैं चिन्तायें क्यों करूँ ? किसी की निन्दा से मैं दु:खी क्यों हूँ ? किसी के दुःख में मैं दुःख क्यों मानूं ? हुआ करे लोक व्याकुल, मैं तो सुखी हूँ, मुझे तो अपने से मतलब है। मैं किसी का बुरा भी क्यों चिन्तू ? मैं तो अबाध्य हूँ। मैं शरीर, पुत्र, धन, धान्यादि को अपना हितकारी या अहितकारी भी क्यों समझू ? आप जिस प्रकार मुझे देख रहे हैं, इस निन्दक को देख रहे हैं, इस समवशरण की विभूति को देख रहे हैं, उसी प्रकार क्यों न देखू मैं भी सर्व ज्ञेय को ? हैं वे भी कोई पदार्थ, पड़े रहें, मुझे क्या, मुझसे क्या लेते हैं, मुझे क्या देते हैं ? नाहक़ विकल्प किया करता था, नि:सार, निष्प्रयोजन । किसी का क्या जाता था, मेरा ही बिगड़ता था, मेरे ही घर में आग लगती थी। आज आपके दर्शन पाकर न जाने कहाँ जाते रहे हैं ये सब विकल्प। आप और मैं ? अरे ! यह द्वैत भी कहाँ टिकता है यहाँ ? जो आप हैं सो ही तो मैं हँ. शान्तमर्ति आप और शान्तमूर्ति मैं । अरे रे ! यह क्या ? सब शान्ति ही शान्ति, और कुछ नहीं। यहाँ तो 'शान्ति और मैं' इस द्वैत को भी अवकाश नहीं । कहूँ भी क्या, दूसरा कुछ है ही नहीं यहाँ । एक अद्वैत ब्रह्म, शान्तं-शिवं-सुन्दरं । कैसे बखान करूं इसकी महिमा का ? इसकी महिमा का क्या अपनी महिमा का, अपने सौन्दर्य का । शरीर के सौन्दर्य का नहीं कह रहा हूँ भगवन ! अपने सौन्दर्य की बात है, अन्तरंग सौन्दर्य की, जिसके सामने जगत की सुन्दरता भ्रम है, जिसमें तन्मय हो जाने पर सारा जगत कल्पना-मात्र है, जहाँ मैं और शान्ति का भी भेद नहीं। आहा ! यह, बस यह, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। ___ अरे मैं तो आपकी पूजा करने आया था पर आपको भूल गया और अपने को भी । कौन पूजा करे, किसकी करे, और कैसे करे ? कोई पदार्थ ही दिखाई नहीं देता, क्या अर्पण करूं? एक शान्ति है, लीजिये यही चढ़ा देता हूँ चरणों में और शान्ति को चरणों में चढा दिया तो मैं पृथक रह ही कहाँ गया? मैं भी तो चढ़ गया वहीं । चरणों में क्या चढ़ना, आपकी शान्ति में ही तो मिल गया। आपकी शान्ति और मेरी शान्ति दो रही ही कहां? एक शान्ति ही तो है और वह मैं ही तो हूँ ? बस फिर वही शान्ति, उसके साथ तन्मयता, वही सौन्दर्य । बताइये भगवन् ! पूजा करूं तो कैसे करूं? पुनः-पुन: शान्ति में खोया जा रहा हूँ, पूजा का विकल्प फिर शान्ति, फिर पूजा का विकल्पे फिर शान्ति। यह कैसी आँखमिचौनी है: कभी अन्दर लखाता हैं और कभी बाहर, कभी अपनी ओर और कभी आपकी ओर? यह मेरी अस्थिर बद्धि का ही परिणाम है. पजा करूँ तो कैसे करूं? यही तो है यथार्थ पूजा, और क्या चाहता है इसके अतिरिक्त ? चढ़ाने व पढ़ने में क्या रखा है ? अपनी शान्ति पर न्योछावर होकर उसके साथ तन्मय हो जाना ही प्रभु के चरणों में वास्तविक भेंट चढ़ाना है । तू तो धन्य है कि तुझे वास्तविक पूजा का अवसर मिला। लोगों के द्वारा की जाने वाली पूजा पर क्यों जाता है ? ये बिचारे स्वयं नहीं जानते कि पूजा किसे कहते हैं । निज शान्ति के साथ तन्मयता में अत्यन्त तृप्ति, सन्तोष व हल्कापन सा जो प्रतीति में आता है वही वास्तव में देव पूजा है, अन्तरंगपूजा। इस पूजा में से स्वाभाविक माधुर्य आ जाने पर स्वत: ही प्रभु के प्रति एक बाहुमान सा उत्पन्न हो जाता है । इस माधुर्य से च्युत हो जाने पर अर्थात् निज शान्ति के वेदन से हटकर प्रभु का विकल्प उत्पन्न हो जाने पर, कुछ इस प्रकार की स्वाभाविक दासता सी उत्पन्न हो जाती है कि हे प्रभु ! मुझ जैसे भव-कीट को यह अतुल निधान प्रदान करके कृतकृत्य कर दिया है आपने । 'मैं किन शब्दों में कृतार्थता प्रकट करूँ? आपको कहाँ बिठाऊ ?' इत्यादि जो पूर्व कथित विकल्पों के आधार पर प्रभु में तन्मयता है, वह ही कहलाती है उनकी भक्ति या बहुमान । इस प्रकार का बहुमान कृत्रिम नहीं हआ करता, स्वाभाविक होता है, अन्तरध्वनि से निकलता है. किसी गरु की प्रेरणा से नहीं होता. स्वयं अन्तष्करण की प्रेरणा से, उसके झुकाव से उत्पन्न होता है। स्वाभाविक बहुमान का कुछ चित्रण इस दृष्टान्त पर से दृष्टि में आ सकता है। एक सेठ जी थे, एक ही पुत्र था उनको । दुर्भाग्य से कुसंगति में पड़ गया और सम्पत्ति लुटाने लगा। सेठ जी को बड़ी चिन्ता हुई, बीमार पड़ गए, चिन्ता बढ़ती गई। ‘क्या होगा मेरे पीछे इस लड़के का ? भूखा मरेगा' और इसी प्रकार अनेकों विकल्पों में फंसे अन्तिम श्वास लेने लगे। उनका एक मित्र था। बड़ा प्रेम था दोनों में । अपने मन की Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव- पूजा १३४ ४. आदर्श-पूजा व्यथा किसे सुनाते ? मित्र पर दृष्टि पड़ी और सब कुछ व्यथा उगल दी। “मित्र इस संकट में मेरी कुछ सहायता करो, मैं तो एक-दो दिन का हूँ, इस बच्चे की रक्षा का भार तुम्हें देता हूँ ।" मित्र स्वयं भी एक सेठ थे, जगत के अनेक उतार-चढ़ाव देखे थे उन्होंने । बोले, “चिन्ता न करो, शान्ति धरो, मुझ पर विश्वास करो, बच्चे का जीवन कुछ ही दिनों में पलटा खायेगा ।" सारी नगदी, जेवर, हीरे-जवाहरात घर के एक कोने में गाड़ दिये, और सेठ जी सो गये सदा के लिये । लड़का कई साल तक जायदाद बेच-बेचकर लुटाता रहा और एक दिन फ़कीर हो गया। एक-एक करके मित्रों ने अपना रास्ता नापा । लड़का बेचारा लगा भूखा मरने, कभी सूखे चने चबा लेता, कभी पानी ही पीकर सन्तोष कर लेता । तनपर वस्त्र थे पर नाम मात्र को। रहने को एक मकान ही रह गया था अब उसके पास और वह भी काल के प्रहारों से भाग्नावशेष मात्र । भीख मांगने का साहस होता तो अवश्य भिखारी बन गया होता, पर इस प्रकार कब तक चले ? एक दिन व्याकुलचित्त उसके पाँव ले चले उसे किसी ओर, उसी अपने पिता के मित्र अपने चाचा के पास । चाचा जी ! आ गया आखिर आज आपकी शरण में। आपको छोड़कर और जाता भी कहाँ ? पिछली बातें याद दिलाकर मुझे लज्जित न करना, मेरा अन्तष्करण स्वयं मुझे धुतकार रहा है, उसकी मार असह्य है इस वेदना को न बढ़ाना अपितु मेरी रक्षा करना । दयालु चाचा बोले कि "बेटा चिन्ता न कर, यह मुझे पहले से पता था कि तू एक दिन अवश्य आएगा यहाँ । अच्छा ही किया आ गया। कब तक चलता व्यर्थ भूखा रहकर और तुझे इस दशा में रहने की आवश्यकता भी क्या है ? तू तो अब भी करोड़ों को स्वामी है, अब भी चाहे तो व्यापार करके अपने पिता से भी अधिक धनवान हो सकता है । कमी ही क्या है तुझको ?” परन्तु विश्वास कैसे आए ? “नहीं-नहीं चचा, हंसी न कीजिए, एक-एक रोटी को मोहताज अब सेठ बनने के स्वप्न देखने को अवकाश कहाँ ? अब तो रोटी चाहिए।” “घबरा नहीं बेटा ! मैं हंसी नहीं कर रहा हूँ, ठीक ही कहता हूँ, विश्वास कर मुझ पर तेरे हित की बात है, तू अब भी हजारों को खिला देने योग्य है । रोटी की क्या कमी है तुझे ? जा अपने घर का दक्षिणी कोना खोद डाल ।” सहम ही गया मानो यह सुनकर कोई वज्र ही पड़ा हो जैसे उस पर, “सब ओर से निराश्रय हो गया हूँ, एक यह मकान शेष है, यह भी काल के प्रहारों द्वारा खाया हुआ । मकान भी काहे का, एक छत मात्र है जिसके नीचे सर छिपा लेता हूँ । खोद दिया तो कभी खड़ा न रह सकेगा, यह भी मुँह मोड़ जाएगा । इतनी बड़ी चोट सहने की इसमें शक्ति ही कहाँ है ? “नहीं-नहीं चचा ! मुझे बेघर बनाने की बात न कीजिए, अब अधिक परीक्षा न लीजिए, बस पेट भरने भर की इच्छा है ।" "ओह ! दया आती है तेरी दशा पर, भूख का मारा आज तू जितना भी संशय करे थोड़ा है। पर नहीं, अब इसे छोड़ विश्वास कर, जैसे मैं कहता हूँ वैसे कर, जा अपने घर का दक्षिणी कोना खोद डाल ।” लड़खड़ाता हुआ वह आखिर चल पड़ा, कुछ निराशा में डूबा । परन्तु अब मार्ग भी क्या है ? देखा जाएगा। जहाँ इतना सहा यह भी सह लूंगा, चचा के अतिरिक्त अब है भी कौन जिसके पास जाऊं अपनी पुकार सुनाने ? घर खोदना प्रारम्भ किया और कुछ देर के पश्चात् — हैं ! यह 'खट' की ध्वनि कैसी ? क्या है इसमें दबा हुआ ? कोई टोकना सा प्रतीत होता है। अरे यह तो है वही जिसकी ओर चचा का संकेत हुआ था और एक ही बार घूम गई चचा की सब बातें उसके हृदय - पट पर। 'तू अब भी करोड़पति है, तू अब भी करोड़पति है' मानो कोने-कोने से यही आवाज़ आ रही थी । पागल सा हो गया वह कुछ भावुकता के आवेश में, भूल गया आगे खोदना । हाथ भी कैसे चलता ? कृतघ्नी तो था नहीं । यद्यपि पृथ्वी का टोकना पृथ्वी में ही था, पर सेठ बन चुका था आज वह । 'नहीं-नहीं' यह कृतज्ञता न कहलाएगी । यह सब कुछ मेरा है ही कब ? मेरा होता तो भूखा क्यों मरता ? और यदि दूसरे मकानों के साथ इसे भी बेच देता तो किसका होता यह टोकना ? नहीं-नहीं, मेरा कुछ भी नहीं, भले यहाँ रहता हूँ। वे इतनी प्रेरणा न देते तो खोदने को ही कब तैयार होता मैं ?” और इसी प्रकार के विचारों में खो गया वह रुक गए उसके हाथ, और चल पड़ा दौड़ा-दौड़ा अपने चचा के घर की ओर । " चलिए चचा चलिए, सम्भाल लीजिए वह जो वहाँ से निकला है, आपने ही बताया था, आपका ही है।” “बेटा ! जा उसको निकाल ले, व्यापार प्रारम्भ कर, तेरा कल्याण होगा ।" धन्य है चचा आपकी सहानुभूति, धन्य है आपका Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १३५ ५. अष्टद्रव्य-पूजा प्रेम, धन्य है आपकी नि:स्वार्थता, धन्य है आपका त्याग । आज तक आपकी शरण में न आकर व्यर्थ ही ठोकरें खाता रहा, क्षमा कर दीजिए अब मुझे । मैं अधम हूँ, नीच हूँ, पापी हूँ आपकी ओर आज तक न देखा, उन दुष्टों को ही मित्र समझता रहा जिन्होंने सब कुछ लूटा और यदि कदाचित् इस टोकने का भी पता होता तो अब तक साथ न छोड़ते। आप न होते तो आज मैं रंक से राव कैसे बनता ? मैं कैसे आन्तरिक कृतार्थता प्रकट करूँ? कहने को शब्द भी तो नहीं हैं मेरे पास । किंकर्तव्य-विमूढ़ सा मानो सब कुछ भूल गया हूँ मैं । जी करता है कि आपके चरणों में बिछ जाऊं । क्या करूँ, क्या न करूँ कुछ सूझ नहीं पड़ता। 'आशीर्वाद दीजिए चचा', आखिर यही निकलता है मुँह से । और इस प्रकार का कुछ अन्तप्रवाह बह रहा था उसके हृदय से आज। आंखों से अश्रुधारा मानो उसकी सब पिछली भूलों को धोए डाल रही थी। और यह सब कुछ वह किसी दबाव से नहीं कर रहा था, स्वत: ही उससे ऐसा हो रहा था । यदि और भी शक्ति होती तो और भी सब कुछ करने को तैयार था आज वह अपनी आन्तरिक कृतज्ञता प्रकट करने के लिए, नया जीवन जो मिला था उसे आज। ५. अष्टद्रव्य-पूजा-आप भी क्या ऐसा ही न करते यदि होते उस परिस्थिति में ? यदि कृतज्ञ होते तो अवश्य ऐसा ही करते क्योंकि यह स्वभाव ही है एक कृतज्ञ का, उपकारी के प्रति सहज भक्ति सहज बहुमान । यही है वह भाव जिसके प्रति कि संकेत किया गया था-अन्तरंग शान्ति के किञ्चित् वेदन के माधुर्य से निकला हुआ देव के प्रति का स्वाभाविक बहुमान, आदर्श-भक्ति, आदर्श-पूजा, भाव-पूजा; और इस बहुमान से प्रेरित होकर अपनी योग्यतानुसार कुछ शब्दों की, तथा अपने उद्गारों की, तथा कुछ सामग्री आदि की उनके चरणों में भेंट, कुछ याचनायें, सो है बाह्य पूजा, द्रव्य पूजा। १. हे नाथ ! इस तृप्तिकर अतुल शान्ति में विश्राम करते हुए आप तो, जन्म-जरा-मरण से अतीत, क्षण-क्षण में वर्तने वाले दाहोत्पादक विकल्पों की दाह से अति दूर स्वयं एक शीतल सरोवर हो । मुझ को भी शीतलता प्रदान कीजिये, इन विकल्पों से मेरी रक्षा कीजिये प्रभु । उस अलौकिक शीतलता को पाने की जिज्ञासा लेकर लौकिक तीक यह जल लाया हूँ आपके चरणों पर चढाने, मानो मेरे उदगार ही जल बनकर बह निकले हैं आज। २. हे देव ! इस शीतल शान्त-सरोवर में वास करके भव-संताप के दाह का नाश कर दिया है आपने। मुझ संतप्त का दाह भी नाश कीजिये प्रभु । बड़ा खेदखिन्न हो रहा हूँ, चिन्ता का ताप अब सहा नहीं जाता, इच्छाओं में भड़ाभड़ जल रहा हूँ। मेरी भी यह दाह शान्त कीजिये नाथ । अलौकिक शीतलता की इच्छा लेकर लौकिक दाह-विनाशक यह चन्दन लाया हूँ आपके चरणों की भेंट, मानो साक्षात् चन्दन बनकर आया हूँ आपके चरणों की बलिहारी जाने के लिये। ___३. हे शान्ति के अक्षय भण्डार ! हे अतुल निधान ! क्षयकर डाली हैं, भग्न कर डाली हैं, सब व्याकुलतायें आपने । यह अक्षय शान्ति मुझको भी प्रदान कीजिये नाथ । इसी से यह अक्षत् अर्थात् बिना टूटे हुए मुक्ताफल लाया हूँ इन चरणों की भेंट, मानो अपनी अक्षय निधि की याद बनकर स्वयं न्यौछावर होने आया हूँ आपके चरणों पर। ४. हे त्रिलोकजेता ! शान्ति-रानी का कर ग्रहण करके विश्व-विजयी बन, इस कामदेव को सदा के लिये भस्म कर दिया है आपने । देखो दूर ही खड़ा वह कांप रहा है। आपके निकट आने का साहस कहाँ है उसमें ? पर आपसे पराजित हुआ वह अपने क्रोध की ज्वाला में भस्म किये जा रहा है मुझ जैसे तुच्छ व्यक्तियों को । लोक की सम्पदा की असीम कामनाओं में मानो जला जा रहा हूँ मैं । रक्षा कीजिये प्रभु इस दुष्ट काम से । आपकी शरण को छोड़कर कहाँ जाऊँ अब जहाँ इसका साया न दिखाई दे ? आपकी शान्ति का कोमल स्पर्श करने तथा इसके सुगन्धित श्वास में अपने को खो देने की इच्छा लेकर यह लौकिक कोमलता व सुगन्धि का प्रतीक पुष्प लाया हूँ, मानो अत्यन्त सुगन्धित शान्त व कोमल इन चरण कमलों का रस लेने के लिये स्वयं भँवरा बनकर आया हूँ। ५. हे क्षुधा-निवारक ! अनादि काल से लगी इन धूल सरीखे आकर्षक पर-पदार्थों की भूख शान्त कर ली है आपने । मैं भी तो बहुत क्षुधित हूँ । तीन-लोक की सम्पत्ति का भोग कर-करके भी जो आज तक तृप्त नहीं हुई है, ऐसी मेरी भूख को भी शान्त कर दीजिये प्रभु । इसी से लौकिक क्षुधा-निवारक यह स्वादिष्ट चरु नैवैद्यादि मिष्टान्न लाया हूँ इन चरणों की भेंट, मानो इस शान्ति से अत्यन्त तृप्तवत् हुआ मैं आज स्वयं अत्यन्त मिष्ट बनकर विश्राम पाने आया हूँ यहाँ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव- पूजा १३६ ६. शंका समाधान ६. हे ज्ञान- ज्योति ! हे त्रिलोक प्रकाशक ! आन्तरिक अन्धकार का विनाश कर अतुल तेज जागृत किया है आपने । कोटि जिह्वाओं से इस तेज की महिमा का वर्णन करने को आज बृहस्पति भी समर्थ नहीं है, उस तेज के अतुल प्रकाश की महिमा का जिसमें तीन लोक व तीन कालवर्ती सर्व पदार्थ हाथ पर रखे आंवलेवत् प्रतिभासित हो रहे हैं। आपको । इस अन्धे को भी नेत्र प्रदान कीजिये प्रभु । पर- पदार्थों में रस लेने में अन्धा हुआ आज मैं अपने को भी देखने में समर्थ नहीं हूँ। यह प्रकाश मुझे भी दीजिये जिससे कि मैं अपने शान्त स्वभाव के एक क्षण को दर्शन कर सकूँ । इससे ही लौकिक प्रकाश का प्रतीक यह तुच्छ दीपक लाया हूँ भेंट, मानो आपकी ज्योति से उद्योतित हुआ मैं स्वयं ही दीपक बन गया हूँ आज । ७. हे अध्वर ! हे तेजःपुञ्ज ! हे अग्नि ! आपके विशुद्ध रूप के दर्शन से तथा आपके चिन्तन के प्रसाद से मेरे दो भस्मीभूत हुए जा रहे हैं। अपने इसी भाव को पुष्ट करने के लिये मैं आपके समक्ष धूपायन से प्रज्जवलित अग्नि के अन्दर अष्टांग-धूप समर्पण कर रहा हूँ जिसकी सुगन्धि और धूम ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो मेरी भाव-शुद्धि से मेरे साथ एकमेक हुई कर्मरज उड़ी जा रही है, मेरा भार हलका होता जा रहा है, और मुझे सच्ची शान्ति, आनन्द व तेज प्राप्त हो रहे हैं । ८. हे मिष्टफल-प्रदायक ! आपको तो आपका लक्ष्यबिन्दु जो शान्ति, उस फल की प्राप्ति हो चुकी है। आप तो उसके शाश्वत-स्वाद में मग्न हो रहे हैं। कुछ मेरी ओर भी तो निहारिये, इस भिखारी की ओर भी तो देखिये, जो दर-दर की ठोकरें खाता कितनी कठिनाई से आया है इस द्वार पर हर ओर से निराश होकर आये हुए इसे यहाँ से निराश न लौटाइये । इस फल का थोड़ा टुकड़ा मेरी झोली में भी डाल दीजिये, मैं भी दुआयें दूंगा आपको। यह तुच्छ लौकिक फल पड़ा है मेरी झोली में, निःसार सा । परन्तु क्या करूँ, इसके अतिरिक्त और कुछ है भी कहाँ मेरे पास, जो कि भेंट करूँ ? लीजिये इसे ही भेंट चढ़ाये देता हूँ परन्तु वह अपने वाला अलौकिक फल 'शान्ति' मुझे प्रदान कर दीजिये । और इसी प्रकार की अनेकों उठने वाली अन्तरंग की मधुर-मधुर कल्पनाओं पर बैठकर ऊँची-ऊँची उड़ानें भरता, प्रभु के साथ तन्मय ही होने जा रहा हूँ। इन बाह्य के जल आदिक द्रव्यों से भगवान की अर्चना की जो यह क्रिया है, उसे कहते हैं द्रव्य पूजा, बाह्य पूजा । अन्तरंग व बाह्य दोनों अंगों में गुंथी यह है वास्तविक देव पूजा जो एक शान्ति का उपासक, शान्ति के आदर्श अपने देव के प्रति करता है । केवल पूजा ही नहीं साक्षात् शान्ति का वेदन ही हो जाता है इसमें । देव के लिये नहीं बल्कि अपनी शान्ति के आस्वादन के लिये होती है यह पूजा । ये उद्गार हैं जो स्वतन्त्र रूप स्वयं ही प्रवाहित हो उठते हैं । ६. शंका समाधान —- देव पूजा की बात चलती है। इस प्रकरण के अन्तर्गत अनेकों प्रश्न सामने आकर मानस-पट पर घूमने लगते हैं । यथा - १. देव कौन ? २. पूजा क्या ? ३. बाह्य पूजा की आवश्यकताएँ क्यों ? ४. पूजा में ईश्वर - कर्त्तावाद क्यों ? ५. प्रतिमा की आवश्यकता क्यों ? ६. पत्थर टक्कर मारने से क्या लाभ ? ७. जड़ - प्रतिमा के प्रति भक्ति कैसी ? ८. पंचकल्याणक प्रतिष्ठा विधान क्यों ? ९. जो स्वयं अपनी रक्षा करने को समर्थ नहीं, वह प्रतिमा किसी को क्या दे सकती है और कैसे दे सकती है ? १०. मन्दिर की आवश्यकता क्या ?११. मन्दिर में कैसे आना चाहिए और वहाँ आकर क्या करना चाहिए ? लीजिए क्रम से इनके उत्तर देता हूँ । (१) देव विषयक पहला प्रश्न है 'देव कौन ?' वास्तव में देव के सम्बन्ध में कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता कि अमुक ही देव है, क्योंकि 'देव' नाम आदर्श का है, और आदर्श इच्छा के पूर्ण-लक्ष्य का नाम है । अत: देव की परीक्षा अपने अभिप्राय पर से ही की जा सकती है। जैसा अपना अभिप्राय हो या जैसी अपनी इच्छा हो वैसा ही उस व्यक्ति-विशेष का लक्ष्य होगा, और वैसे ही किसी यथार्थ या काल्पनिक आदर्श को वह स्वीकार करेगा । उसकी दृष्टि उस पर ही जाकर ठहरेगी जैसा कि वह बनना चाहता है। बस वह ही है उसके लिए सच्चा देव । जैसे कि धनवान बनने की इच्छा वाले का देव कुबेर हो सकता है, वीतरागी शान्त-मुद्राधारी यह देव नहीं जिसकी कि बात चलने वाली है । पितृ-भक्ति की इच्छा वाले का देव राम या श्रवण कुमार हो सकता है वीतरागी देव नहीं, और इसी प्रकार अन्यत्र भी । परन्तु यहां तो शान्तिपथ-प्रदर्शन चल रहा है इसलिए केवल शान्ति प्राप्ति की इच्छा लेकर देव को खोजना है, या Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १३७ ६.शंका समाधान देव की परीक्षा करनी है । सो देव पूजा के तीसरे प्रकरण में की जा चुकी है, और यह निर्णय किया जा चुका है कि उस देव का स्वरूप जिसकी कि मैं आदर्श रूप में उपासना करने चला हूँ, वीतराग तथा शान्त-रसपूर्ण ही होना चाहिए अन्य नहीं, क्योंकि अभिप्राय से विपरीत जिस-किसी को आदर्श बनाकर उपासना करने से अभिप्राय की पूर्ति होना असम्भव है। अभिप्राय-शून्य उपासना में भले यह नियम लागू न हो, पर यहाँ जिस सच्ची पूजा या उपासना की बात चलेगी उसमें अभिप्राय-सापेक्ष होने के कारण यह नियम आवश्यक है। (२) पूजा विषयक दूसरा प्रश्न है 'पूजा क्या ?' जैसा कि कल के प्रवचन में काफी विस्तार करके बताया जा चुका है, शान्ति के अभिप्राय की पूर्ति के अर्थ शान्ति में तल्लीन किसी व्यक्ति विशेष को आंखों के सामने रखकर या उस व्यक्ति के किसी चित्रण को आंखों के सामने रखकर, अथवा उस व्यक्ति या उसके चित्रण को अन्तरंग में मन के सामने रखकर, अथवा शान्ति के यथार्थ जीवनादर्श को मन में स्थापित करके, कुछ देर के लिए अन्य सर्व संकल्प-विकल्पों को छोड़ उस आदर्श की शान्ति के आधार पर, निज शान्ति का अपने अन्दर में किञ्चित वेदन करते हुए, उसके साथ तन्मय हो जाना, अन्तरंग-पूजा है । शान्ति के इस मधुर आस्वादनवश, निमित्तरूप उस आदर्श के प्रति सच्चा बहुमान उत्पन्न हो जाने पर, अपने दोषों को तथा कमजोरियों को दूर करने के लिए और उसमें प्रकट दीखने वाले गुणों की प्राप्ति के लिए अनेक प्रकार से प्रार्थना करना बाह्य-पूजा है । इन दोनों पूजाओं में अन्तरंग पूजा ही यथार्थ पूजा है, इसके बिना बाह्य-पूजा निरर्थक है' यह वाक्य बराबर दृष्टि में रखना चाहिये, क्योंकि इसको भूल जाने पर आपको अपने प्रश्नों का उत्तर समझ में न आएगा। (३) यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब अन्तरंग-पूजा अर्थात् शान्ति का वेदन ही प्रधान है तो 'बाह्य पूजा की आवश्यकता क्यों ?' प्रश्न बहुत अच्छा है। वास्तव में उसकी कोई आवश्यकता न होती यदि प्रथम-भमिका में ही मैं स्वतन्त्ररूप से शान्ति का वेदन करके उसमें स्थिति पाने के योग्य हो सका होता । शान्ति से बिल्कुल अनभिज्ञ मैने न कभी शान्ति को देखा है, न सुना है, न अनुभव किया है । ऐसी दशा में सोचिए कि शान्ति में स्थिति पाकर अन्तरंग-पूजा करनी सम्भव कैसे हो सकती है ? अत: जब तक शान्ति का परिचय प्राप्त न कर लूं, किसी न किसी शान्त-जीवन का निकट सानिध्य आवश्यक है, क्योंकि शान्ति ऐसी वस्तु नहीं जो शब्दों में बताई जा सके, या स्कूलों में पढ़ाई जा सके, या 'शान्ति' शब्द के रटने मात्र से उसे जाना या कहा जा सके। यह तो किसी आन्तरिक सूक्ष्म-स्वाद का नाम है जो वेदन किया जा सकता है तथा किसी के जीवन पर से अनुमान लगाकर किञ्चित् जाना जा सकता है, जैसा कि आगे दृष्टान्त पर से स्पष्ट हो जायेगा। इतना ही नहीं बल्कि शान्ति का परिचय प्राप्त कर लेने पर भी, मैं निरन्तर उसमें स्थित रह सकूँ इतनी शक्ति प्रथम अवस्था में होनी असम्भव है। अत: उतने समय के लिये जितने समय तक कि मैं स्वतंत्ररूप से उसके रसास्वादन में लय होने के योग्य न हो जाऊं, मुझे किसी बाह्य पदार्थ के आश्रय की आवश्यकता होगी और इसी प्रयोजन के अर्थ है अन्तरंग सापेक्ष बाह्य पूजा। यहाँ इतना अवश्यक जान लेने योग्य है कि यद्यपि अगली भूमिका में जाकर इस बाह्य पूजा की कोई आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु इस गृहस्थ-दशा में स्थित मनुष्य के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है । “बिना किसी बाह्य जीवन का आश्रय लिये इस शान्ति का परिचय क्यों प्राप्त नहीं हो सकता ? शान्ति तो अपना रूप से क्यों जानी नहीं जा सकती? उसके जीवन की शान्ति मझमें कैसे आ सकती है. और अपनी शान्ति दिये बिना वह मझे शान्ति का स्वाद कैसे चखा सकता है ? इत्यादि अनेकों प्रश्न इस स्थल पर मुझे आगे चलने से रोक रहे हैं। अच्छा ले पहले इनका ही स्पष्टीकरण कर देता हूँ। पहले प्रश्न का उत्तर तो पहले दिया जा चुका है कि जिसने आज तक उसे न देखा हो, न अनुभव किया हो, वह बिना पर के आश्रय के उसे कैसे जान सकता है ? जैसे कि जिस वस्तु का आकार ही मेरे ध्यान में नहीं, उस वस्तु को बनाने का कारखाना मैं कैसे लगा सकता हूँ । उस वस्तु का एक नमूना अपने सामने रख कर भले ही उस जैसी अनेकों वस्तुएँ बनाने में सफल हो जाऊँ । यह ठीक है कि कारखाना चल जाने के पश्चात् उस नमूने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं रहती, परन्तु प्रारम्भ में वह मेरे लिए अत्यन्त आवश्यक है। दूसरा प्रश्न है कि स्वतन्त्र रूप से क्यों नहीं जानी जा सकती ? इसका निषेध किया किसने ? स्वतन्त्र रूप से Tae Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव- पूजा १३८ ६. शंका समाधान जानी अवश्य जा सकती है, परन्तु केवल उसके द्वारा जिसने कि कभी पहले उसका परिचय प्राप्त किया हो, भले ही आज वह उसका परिचय प्राप्त करके छोड़ बैठा हो । यहाँ इतनी बात अवश्य है कि अधिक समय तक छोड़े रहने के कारण वह परिचय अत्यन्त लुप्त हो सकता है, ऐसा कि प्रयत्न करने पर भी याद न आये। तब उसे अवश्य पुनः बाह्य का आश्रय लेने की आवश्यकता पड़ेगी, जैसे कि पहली बार लगाया हुआ कारखाना यदि दुर्भाग्यवश फेल हो जाय, और कुछ वर्ष पश्चात् पुनः उसे चालू करना पड़े तो अब उसे नमूने की कोई आवश्यक नहीं रहती, स्वतन्त्ररूप से स्मरण के आधार पर माल बना लेता है। परन्तु यदि किसी रोग-विशेष के कारण उसकी स्मरण-शाक्ति जाती रही हो और फिर यह कारखाना चालू करना पड़े तो पुनः उसे अवश्य ही नमूने की आवश्यकता पड़ेगी। तीसरा प्रश्न यह है कि उसके जीवन की शान्ति मुझ में कैसे आ सकती है ? बहुत सुन्दर प्रश्न है । तेरा विचार बिल्कुल ठीक है । वास्तव में किसी अन्य की शान्ति मुझमें कदापि नहीं आ सकती। उसकी शान्ति उसके साथ और मेरी शान्ति मेरे साथ ही रहेगी। उसकी शान्ति उसके पुरुषार्थ द्वारा उसमें उत्पन्न हुई है, और मेरी शान्ति मेरे पुरुषार्थ द्वारा मुझमें ही उत्पन्न होनी है। उसकी शान्ति का उपभोग वह स्वयं कर रहा है और मेरी शान्ति का उपभोग में स्वयं ही करूँगा। ऐसी ही वस्तु की स्वतन्त्रता है । इसलिये वह मुझे शान्ति देने में समर्थ नहीं है । इतना अवश्य उससे लाभ है कि उसका नमूना देखकर मैं उस परम परोक्ष रहस्य का कुछ अनुमान लगा सकता हूँ, यदि बुद्धि-पूर्वक प्रबल-पुरुषार्थ करूँ तो । जैसे कि कारखाना लगाने वाले उस व्यक्ति को नमूना कुछ देता नहीं है, वह स्वयं ही उसको देखकर अनुमान के आधार पर उस सम्बन्धी परिचय प्राप्त कर लेता है, वैसे ही शान्त स्वरूप तथा आदर्शरूप वह व्यक्ति मुझे कुछ देता नहीं है, मैं स्वयं ही उसकी मुखाकृति को, उसके शान्त परिभाषण और जीवन में होने वाली उसकी कुछ शान्त-क्रियाओं को देखकर, अनुमान के आधार पर शान्ति सम्बन्धी कुछ परिचय प्राप्त कर सकता हूँ । 1 यहाँ यह बात कुछ बिचारणीय है कि अनुमान के आधार पर किसी के जीवन को कैसे पढ़ा जा सकता है ? इसके सम्बन्ध में एक दृष्टान्त है। एक जिज्ञासु किसी समय अपने गुरु के पास पहुँचा और बोला, प्रभो ! कुछ हितकारी उपदेश देकर मेरा कल्याण कीजिये। गुरु बोले कि “भाई ! मैं उपदेश तो दे दूंगा, पर उसका लाभ कुछ न होगा। मैं तो केवल दो चार वाक्य ही कह सकता हूँ, परन्तु उसका रहस्य तुम कैसे समझ सकोगे ? ऐसे उपदेश तुम पहले भी अनेक बार सुन चुके हो, परन्तु सुनने मात्र से कोई प्रयोजन सिद्ध होता नहीं । जाओ नगर के विख्यात सेठ शांति स्वरूप के पास चले जाओ, वहाँ उनके पास रहकर धैर्यपूर्वक उपदेश सुनना ।” आज्ञानुसार वह सेठ की दुकान पर पहुँच गया, गुरु की आज्ञा कह सुनाई और सेठ के पास दुकान पर रहने लगा । सेठ बड़ा व्यापारी था, प्रतिदिन लाखों का व्यापार, अनेकों मुनीम-गुमाश्ते, बही-खाते और न मालूम क्या- क्या ? जिज्ञासु सोचने लगा कि न जाने क्या सोचकर गुरुदेव ने भेजा है यहाँ ? क्या उपदेश मिलेगा यहाँ ? सेठ जी बिचारे स्वयं उपदेश के पात्र हैं, स्वयं जाल में फंसे बैठे हैं, क्या जानें कि कल्याण किस चिड़िया का नाम है ? फिर भी रहना तो पड़ेगा ही गुरु की आज्ञा जो है । दो महीने बीत गये, पर सेठ जी की जबान से एक शब्द भी उपदेश का न निकला । फिर वही पहले वाले विचार घूमने लगे हृदय - पट पर । इसी प्रकार विचारों के हिंडोले में झूलता अन्तरंग में निराश सा व्यर्थ समय गवां रहा था बेचारा । एक महीने पश्चात् एक मुनीम जी घबराये हुये आए सेठ जी के पास । मुँह से वाक्य नहीं निकलते थे बेचारे के । कुछ साहस करके बोले कि " चार करोड़ का माल जहाज़ से भेजा था, समाचार आया है कि जहाज़ डूब गया है। " सेठ जी अत्यन्त शान्त रहते हुए ही बोले, "तो क्या हुआ ? प्रभु की कृपा है, जाओ अपना काम करो ।” एक छोटा सा वाक्य था, वाक्य से ध्वनित कुछ सन्तोष था, शान्त मुखाकृति और पूर्ववत् ही अपने काम में संलग्नता थी, मानो कुछ भी हुआ ही नहीं । जिज्ञासु ने वह सब सुना व देखा। दो महीने पश्चात् आज उसे कुछ ऐसा लग रहा था कि कोई उसे बड़ा उपदेश दे रहा है । विचार-निमग्न वह सहमा सा बैठा ही रह गया । और दो महीने बीत गये । एक दिन पुनः एक घटना घटी। मुनीम जी दौड़े आ रहे हैं, हाँपते हुए, मानो दो मील से चले आ रहे हों, मस्तक पर पसीने की बूँदे, आँखों में हर्ष, होंठों पर मुस्कराहट, “सेठ जी ! बड़े हर्ष का दिन है, भाग्य जग गये हैं । अमुक सौदे में दस करोड़ का लाभ, अभी तार आया है, यह लीजिए। सेठ जी आज भी शान्त । बोले, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा ६.शंका समाधान "तो क्या हुआ? प्रभु की कृपा है, जाओ अपना काम करो।" वही दो शब्द, वही सन्तोष, वैसी ही शान्त मुखाकृति, वैसी ही पूर्ववत् काम में संलग्नता, मानो कुछ हुआ ही नहीं। आज तो जिज्ञासु के आश्चर्य का पारावार न रहा। उसे मिल चुका था वह उपदेश जिसके लिए वह गुरु के पास गया था, साम्यता का आदर्श । चुप रहा न गया उससे और पूछ ही बैठा ___ “सेठ जी ! मैं क्या देख रहा हूँ, कुछ अनोखी सी बात ? चार करोड़ की हानि में भी वही बात और १० करोड़ लाभ में भी वही बात ? कुछ विश्वास नहीं आता।" तुझ को आश्चर्य हो रहा है जिज्ञासु परन्तु इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। “मेरी दृष्टि को न पहिचान सकना ही इसका कारण है। लाभ-हानि का मेरी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं, क्योंकि बाहर से सर्व आडम्बर का स्वामी भले दीख रहा हूँ, पर अन्तरङ्ग में मैं केवल इसका मैनेजर हूँ, व्यापार तो प्रभु का है। सारे विश्व में उसके व्यापार की अनेकों शाखाएँ हैं। कभी इस शाखा से वह रुपया उस शाखा में भेज देता है और कभी उस शाखा से इस शाखा में । मैं तो केवल नाम लिख देता हूँ, या जमा कर लेता हूँ। और बातों से मुझे क्या मतलब?” समझ गया जिज्ञासु साम्यता का रहस्यार्थ, जो शब्दों पर से तीन काल में भी समझना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार पूर्ण-आदर्श जीवन पर से समझी जा सकती है पूर्ण-शान्ति । (४) चौथा प्रश्न भी बहुत सुन्दर है कि 'पूजा में कर्त्तावाद क्यों?' जब बिना अपनी शान्ति दिए वह मुझे शान्ति का स्वाद नहीं चखा सकते तब यह कैसे कहा जा सकता है कि हे प्रभु ; मुझे शान्ति प्रदान कीजिये? जैसा कि ऊपर बता दिया गया है वह अपनी शान्ति का स्वयं उपभोग करने में समर्थ है मझे देने में नहीं: तदपि उपरोक्त प्रकार अनुमान के आधार पर शान्ति-सम्बन्धी कुछ परिचय प्राप्त करके मैं अपने जीवन में तथा अपने सम्भाषण में वैसे-वैसे ही रूप से वर्तने का प्रयत्न करने लगा हूँ, उसकी मुखाकृति पर से उसकी अन्तर्मुखी दृष्टि का अनुमान करके स्वयं भी अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करने लगता हूँ, जैसा कि आगे के प्रकरण में स्पष्ट हो जाएगा। अपने इस प्रयत्न में दृढ़ रहते हुए कुछ समय पश्चात् स्वयं उस अमृत का स्वाद अवश्य चख सकता हूँ । इतनी ही कुछ मेरे प्रयोजन में उससे सहायता मिलती है और इस सहायता के कारण ही 'यह शान्ति उसने दी है' ऐसा कहा जा सकता है, जो केवल उपचार है। कर्तावाची उपरोक्त शब्दों को सैद्धान्तिक न समझकर भक्ति-परक समझना चाहिए। इन शब्दों को सत्यार्थ मानकर प्रभु को शान्ति या अशान्ति का अथवा दुःख या सुख का देने वाला समझ बैठना भ्रम है, पुरुषार्थहीनता है, है। ऐसा समझने वाला व्यक्ति सच्चे-देव को आदर्श रूप से स्वीकार कर लेने पर भी शान्ति की प्राप्ति नहीं कर सकता। 'देव ही प्रसन्न होकर मेरा प्रयोजन सिद्ध कर देंगे, मुझे स्वयं कुछ करना न पड़ेगा', ऐसा अभिप्राय रखने के कारण वह न अपने जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन करने का प्रयत्न करेगा, और न उसे वह प्राप्त होगी। स्वयं अपने उद्यम द्वारा अपने में से उत्पन्न की गई होने पर भी, बहुमानवश कृतज्ञता प्रकट करने के लिए तथा उस उत्कृष्ट आदर्श के सामने अपनी इस हीन-दशा को रखकर दोनों में महान अन्तर देखने के कारण, यह कहने में अवश्य आता है कि “यह महान विभूति आपने ही प्रदान की है, यदि आप न देते तो मझ अधम के द्वारा यह प्राप्त की जानी कैसे सम्भव होती", इत्यादि । बिल्कुल उसी प्रकार जैसे कि बहुमान-सम्बन्धी कल के दृष्टान्त में सेठ पुत्र के मुख से अपने चचा के प्रति कहा गया था, और आप भी निरभिमानता दिखाने के अर्थ जिस प्रकार ऐसा कहते सुने जाते हो कि “आपकी कृपा से ही सफल हो जाएगा यह काम, यह आपका ही बालक है, यह आपका ही मकान है" इत्यादि । शब्दों में कहे जाने पर भी उनका अर्थ वैसा नहीं होता जैसा कि शब्दों पर से ध्वनित होता है । बस तो इसी प्रकार भक्ति के सम्बन्ध में भी समझना । भक्ति, निराभिमानता व कृतज्ञतावश प्रभु को शब्दों में अपने ऊँच-नीच कर्मों के कर्ता-हर्ता कहने में भले आये, पर उसका अर्थ यह ग्रहण नहीं करना चाहिए कि वे कुछ दे रहे हैं या दे देंगे। (५) प्रतिमा विषयक देव पूजा के प्रकरण में यह पाँचवां प्रश्न है कि 'पूजा में प्रतिमा की आवश्यकता क्यों ? प्रश्न बहुत सुन्दर व स्वभाविक है, तनिक विचार करने पर उत्तर भी अपने अन्दर से लिया जा सकता है। वास्तव में ही प्रतिमा की आवश्यकता न होती, यदि साक्षात् देव मेरे समक्ष होते । साक्षात् की तो बात नहीं, यहाँ तो आस-पास भी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४० ६.शंका समाधान देखने में नहीं आते, और न ही उनके साक्षात् निकट में होने की सम्भावना ही है । और यदि आसपास कहीं होते भी तो इतने बड़े विश्व में वे अकेले सबके प्रयोजन की सिद्धि कैसे कर सकते अर्थात् विश्व के सर्व व्यक्ति उनके दर्शन कैसे कर सकते ? व्यक्ति असंख्यात और देव एक । और यदि दो-तीन, दस-पांच आदि भी हों तो भी सभी की अभिलाषा पूर्ण न होती। यदि एक दिन के दर्शन मात्र से काम चल जाता तो भी सम्भवत: यह अभिलाषा जीवित-देव की उपस्थिति में शान्त हो जाती, परन्तु ऐसा नहीं है। यह अभिलाषा तो नित्य की है, और देव किसी एक या कुछ मात्र व्यक्तियों के लिये बन्धकर एक ही स्थान पर रहें, यह कैसे हो सकता है? इसलिये कोई भी कृत्रिम मार्ग निकालना होगा। हम मनुष्य हैं, बुद्धिमान हैं। तिर्यञ्च होते, पशु-पक्षी होते, तो सम्भवत: इच्छा होते हुए भी कुछ न कर सकते, परन्तु हम तो बहुत कुछ कर सकते हैं । अत: कृत्रिम देव की स्थापना कर अपना काम चला सकते हैं। उसी कृत्रिम देव का नाम प्रतिमा है। प्रतिमा अर्थात् देव की प्रतिकृति, उसका ही प्रतिबिम्ब। भले जड़ हो, पाषाण की हो, पर इस प्रकार की कोई भी प्रतिमा जिसकी आकृति उनके शरीर की बाह्य-आकृति के बिल्कुल सदृश हो, मेरे प्रयोजन की सिद्धि कर देती है। क्योंकि मेरा तथा आप सबका कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि किसी व्यक्ति का चित्र देखकर या उसका नाम सुनकर भी कुछ-कुछ उसी प्रकार के भाव चित्त में उत्पन्न होने लगते हैं जैसे कि उस व्यक्ति-विशेष के साक्षात होने पर उत्पन्न होते हैं। अपने विचारों पर जड चित्रों का यह प्रभाव में नित्य देखता हूँ। एक कागज पर खिंचे दुःशासन द्वास द्रौपदी का चीरहरण देखकर कुछ रोना सा आ जाता है। रानी झांसी व महाराणा प्रताप का चित्र देखकर मानो मेरी भुजायें फड़कने लगती हैं। अपने शत्रु का चित्र देखकर मन में कुछ द्वेष उत्पन्न हो जाता है । सिनेमा के परदे पर चलने-फिरने वाली उन कुछ प्रकाश की रेखाओं मात्र को एक क्षणिक चित्र के रूप में देखने से क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है । यदि कुछ न हुआ होता तो धन खर्च करके देखने वाले व्यर्थ ही वहाँ नींद न खोते। कभी किसी चित्र-विशेष को देखकर मुझे रोना आ जाता है और कभी हँसी। क्या कारण है ? वह भी तो चित्र ही है, जड़ चित्र, जो एक क्षण भी सामने टिकता नहीं। किसी के प्रति द्वेष हो जाने पर उसके चित्र की अविनय करने का भाव क्यों आता है मेरे हृदय में? काग़जपर खिंची दो-चार लकीरें ही तो हैं। स्वयंवर में संयोगिता ने पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में माला क्या समझकर डाल दी थी ? अपने उपास्य-देव या स्वयं अपने चित्र को जूतों में पड़ा देखकर क्यों दुःख सा होने लगता है मुझे? अपने कमरों को चित्रों के द्वारा क्यों सजाता हूँ मैं ? यदि सजाऊं भी तो जो कोई भी चित्र क्यों टांग नहीं देता, अपनी रुचि के अनुसार ही क्यों टांगता हूँ? इत्यादि सर्व दृष्टांतों पर से एक जड़ चित्र का मेरे मन पर कितना बड़ा प्रभाव पड़ता है, यह बात स्पष्ट हो जाती है। वैसे ही देव के चित्र को देखकर स्वाभाविक रीति से ही मेरे मन पर कुछ अद्वितीय प्रभाव अवश्य पड़ता है। इस प्रभाव में और भी कई गुनी वृद्धि हो जाती है, जबकि मैं इसमें अपनी कुछ विशेष कल्पनायें उण्डेल देता हूँ। दस-पांच सूत के धागों की बनी इस देश की ध्वजा को ऊंचे पर लहराते देखकर मानो मेरा रोम-रोम फूल उठता है, और इस छोटे से वस्त्र के टकडे को अपमानित होता देखकर मझे स्वत: क्रोध आ जाता है। क्या कारण है ? किसी जानकार व्यक्ति की तो बात नहीं, किसी व्यक्ति का या देश, नगर, ग्रामादि का चित्र भी तो नहीं है यह, केवल एक कपड़े का टुकड़ा ही तो है। परन्तु ऐसी बात चित्त में होती अवश्य है, और जिस बात का साक्षात् वेदन हो उससे नकार कैसे किया जा सकता है ? इसका कारण यही है कि बजाज की दुकान पर रहने तक ही वह साधारण वस्त्र था, परन्तु आज मेरी कुछ कल्पनाओं का आधार होने के कारण वह साधारण वस्त्र नहीं रहा है । वह बन गया है देश की लाज । यह शक्ति उस जड़ वस्त्र में नहीं बल्कि मेरी कल्पनाओं में है। इसी प्रकार पत्थर या लकड़ी के टुकड़े आदि में भी मैं देव की कल्पना करके उसी प्रकार का भाव उत्पन्न कर सकता हूँ जैसा कि जीवित देव को देखने से होता है, और यदि वह पत्थर व लकड़ी का टुकड़ा देव की आकृति के अनुरूप हो तो सोने पर सुहागा है । आकृति-सापेक्ष और आकृति-निरपेक्ष दोनों ही प्रकार की प्रतिमायें आज हमारे देखने में आती हैं । शतरंज के खेल में लकड़ी की कुछ गोटों में हाथी घोड़े व राजा आदि की कल्पना की जाती है । वह आकृति-निरपेक्ष है और वीतरागी शान्त-देव की प्रतिमा आकृति-सापेक्ष है। परन्तु आकृति-सापेक्ष का जो प्रभाव सहज ही पड़ता प्रतीत होता है वह आकृति-निरपेक्ष में अनुभव करने में नहीं आता, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा ६.शंका समाधान जिसका कारण सम्भवत: यह है कि आकृति-निरपेक्ष को देखकर मुझे बुद्धिपूर्वक उन कल्पनाओं को याद करने के लिये अधिक जोर लगाना पड़ता है और आकृति सापेक्ष को देखते ही वे कल्पनायें अबुद्धिपूर्वक स्वत: जागृत हो उठती हैं। खैर कुछ भी हो यहाँ तो केवल इतना सिद्ध करना था कि प्रतिमा का कोई प्रभाव न पड़ता हो ऐसा नहीं है, उसका हमारी बुद्धि पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। उपरोक्त बातों पर से तीन सिद्धान्त निकलते हैं—एक तो यह कि किसी चित्र का मेरी मनोवृत्ति पर बड़ा प्रभाव पड़ता है, दूसरा यह कि किसी भी वस्तु में कल्पना-विशेष कर लेने पर उस वस्तु में मुझे तद्वत् सा ही भाव वर्तने लगता है, और तीसरा यह कि आकृति-सापेक्ष प्रतिमा से मेरे चित्त पर आकृति-निरपेक्ष प्रतिमा की अपेक्षा अधिक प्रभाव पड़ता है। जिस प्रतिमा को आज मैंने अपने सामने अपना उपास्य बनाकर रखा है उसमें यह तीनों ही बातें पाई जाती हैं। प्रतिमा तो वह है ही, चाहे पाषाण की हो या धातु की या लकड़ी की या कागज पर खिंची चित्ररूप । इसके अतिरिक्त उसमें वीतराग-आकृति का ज्यों का त्यों आकार या प्रतिबिम्ब भी विद्यमान है और मैंने अपनी कुछ विशेष कल्पनायें भी इसमें उण्डे ली हुई हैं, पंचकल्याणक-प्रतिष्ठा विधान के द्वारा । अत: आज जीवित देव तथा उस प्रतिमा में मेरे लिए कोई अन्तर नहीं रह गया है। (६) छठा प्रश्न यह है कि 'पत्थर में टक्कर मारने से क्या लाभ ?' भो कल्याणार्थी ! इस संशय को दूर कर, आ मेरे साथ और देख कि प्रतिमा में क्या दिखाई देता है । आज तक तूने इसे पाषाण की प्रतिमा के रूप में देखा है, आ आज मैं इसे जीवित रूप में दिखाता हूँ । आज तक प्रतिमा के दर्शन किये हैं, आ मैं जीवित देव के दर्शन कराता हूँ। अपनी दृष्टि से नहीं मेरी दृष्टि से देख कि यहाँ प्रतिमा कहाँ है, साक्षात् देव विराजमान हैं, जीवित देव, वही वीतरागी शान्तमुद्रा-धारी देव जिसके दर्शन कि परसों वन में किये थे। देख, गौर से देख, वही तो हैं। क्या अन्तर है इनमें तथा उनमें ? उनकी मुखाकृति भी सौम्य, सरल व शान्त थी और इनकी भी वैसी ही है; उनके होठों पर भी मीठी-मीठी मुस्कान थी और इनके होठों पर भी वैसी ही है; उनके शरीर पर भी वस्त्र नहीं था और इनके शरीर पर भी नहीं है ; उनके भी रोम-रोम से शान्ति टपकती थी और इनके भी रोम-रोम से शान्ति टपकती है; वे भी मौन थे और ये भी मौन हैं; वे भी निश्चल थे और ये भी निश्चल हैं; वे भी वन्दक व निन्दक में हर्ष-विषाद रहित समान थे और ये भी वैसे ही हैं। उनके दर्शन करने पर भी उनके चैतन्य का साक्षात्कार नहीं हो रहा था और इनके दर्शन करने पर भी चैतन्य का साक्षात्कार नहीं हो रहा है; ऊपर से वह भी जड़वत् भासते थे और ये भी वैसे ही दीख रहे हैं; वहाँ भी अनुमान के आधार पर शान्ति को पढ़ा जा रहा था और यहाँ भी अनुमान के आधार पर शान्ति को पढ़ा जा रहा है । अन्तर क्या है ? केवल इतना ही न कि वह चमड़े की प्रतिमा थी और यह है पाषाण की ? परन्तु वहाँ तो तेरी दृष्टि में चमड़ा न आकर देव ही आया था, एक शान्त जीवन ही आया था, यहाँ क्यों तेरी दष्टि में पाषाण आता है ? क्यों उसी दृष्टि से यहाँ भी नहीं देखता? इनका ऊपरी रूपन देखकर इनके अन्तरंग और उन कल्पनाओं के आधार पर जो कि मैंने इनमें डाली हुई है, इनके जीवन को देखने का प्रयत्न कर । तब देखना कि ये जड़ दिखाई न देंगे, साक्षात् चेतन दिखाई देंगे। __ कल्पनाओं में महान बल है, शेखचिल्ली कुछ कल्पनाओं के बल पर ही राजा बन बैठा और लात चला दी अपनी काल्पनिक स्त्री पर । शेखचिल्ली की बात न समझना, वास्तव में हम सब शेखचिल्ली हैं क्योंकि सुबह से शाम तक वैसी ही कल्पनायें किया करते हैं । “बेटा हो जायेगा, उसका विवाह कर देंगे, सुन्दर सी एक बहू घर में आयेगी, पोता हो जायेगा, मेरी गोद में आकर खेलेगा, तुतला-तुतलाकर बोलेगा, कितना प्यारा लगेगा, कुछ बड़ा होकर 'बाबा जी' कहकर पुकारेगा मुझे। अहा ! मानो में किसी दूसरे लोक में पहुँच जाऊँगा, कितना सुन्दर होगा वह दिन, कब आयेगा वह दिन ?" ये सब शेखचिल्ली की कल्पनायें नहीं तो क्या हैं ? परन्तु आनन्द ऐसा आता है मानो असली दृश्य ही सामने हो। एक-व्यभिचारी केवल कल्पनाओं के आधार पर अपनी प्रेमिका के घर पर पहुँच जाता है, और प्रेम से उसका अंग स्पर्शता हआ कल्पना में ही व्यभिचार-सेवन करता है । ये शेखचिल्ली की कल्पनायें नहीं तो क्या हैं ? परन्तु आनन्द ऐसा आता है मानो असली प्रेमिका का ही साक्षात् स्पर्श हो रहा हो । इसी प्रकार की अनेकों रागवर्धक कल्पनायें कर करके नित्य ही कभी हर्ष का और कभी विषाद का अनुभव किया करता हूँ । ऐसा होता सबको प्रतीत होता है, फिर भी Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४२ ६.शंका समाधान इस सत्य के प्रति नकार क्यों ? प्रतिमा के प्रभाव व कल्पनाओं की शक्ति के प्रति आज जो नकार तुझे वर्त रहा है उसके पीछे कोई पक्षपात् छिपा बैठा है, कोई सम्प्रदाय पुकार रहा है । तू एक वैज्ञानिक बनकर निकला है, साम्प्रदायिक नहीं । एक वैज्ञानिक है तो पक्षपात को अब धो डाल और इस मनोविज्ञान से कुछ लाभ उठा। आज तक इस मनोविज्ञान का दूसरी दिशा में प्रयोग करता आया है, आज उसी का प्रयोग इस दिशा में कर । देख तुझे साक्षात् देव के दर्शन होते हैं, शान्ति के दर्शन होते हैं। आज तक वैज्ञानिक बनकर दर्शन किए नहीं, साम्प्रदायिक बनकर ही दर्शन करता रहा और इसीलिए ऊपर की शंकायें उत्पन्न हो रही हैं । अभिप्राय के तनिक से फेर से क्रिया में महान् अन्तर पड़ जाता है, अत: अभिप्राय को ठीक बनाकर आगे बढ़ । पहले ही इस दिशा में काफ़ी समझा दिया गया है तुझे । आ और देख इस प्रतिमा में जीवित देव। (७) देवपूजा की बात चलती है । अन्तरंग व बाह्यपूजा का चित्रण खेंच दिया गया। तद्विषयक अनेकों प्रश्नों में से आज सातवां प्रश्न चलना है 'जड़ प्रतिमा के प्रति भक्ति कैसी?' अपनी इस भ्रांति को तज क्योंकि जड़ होते हुए भी प्रतिमा में जीवित देव देखे जा चुके हैं। पुनरपि उसी भाव को दृढ़ करता हूँ । आओ चलें, यह लो आ गया भगवान का समवशरण, गन्धकुटी पर विराजमान साक्षात् वीतराग देव । वह देखो सामने वीतराग प्रभु कितनी शान्तमुद्रा में स्थित हैं । वेदी में नहीं समवशरण में बैठे हैं । वेदी पर दृष्टि न कीजिए, केवल प्रतिमा पर लक्ष्य दीजिये, जैसे धनुर्धर अर्जुन की दृष्टि में कौवे की आँख ही आती थी, उसी प्रकार । ये जीवित ही तो हैं, जिन्हें वन में देखा था वही तो हैं। वही मुखाकृति, वही वीतरागता, वही सरलता, वही शान्ति, वही मधुर-मुस्कान, वही निश्चल-आसन, वही मौन, वही नासाग्र दृष्टि, वही निर्भीक नग्न-रूप, वही निश्चिन्तता, वही अलौकिक तेज, वही आकर्षण। आहा हा ! धन्य हुआ जा रहा हूँ आज मैं, परम सौभाग्य से मिला है यह दुर्लभ अवसर । जिनके दर्शनों को बड़े-बड़े इन्द्र तरसते हैं सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्रों को भी जो सौभाग्य प्राप्त नहीं, आज मुझे वह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। आज मैं इस विश्व में सबसे ऊँचा हूँ। आज से पहले अधम था, नीच था, पापी था, पर आज ? आज न पूछिये । मुझे यह बताने को भी अवकाश नहीं कि आज मैं सर्वार्थसिद्धि के इन्द्रों से भी ऊँचा हूँ, आज मुझे कुछ अन्य बातें विचारने का अवकाश नहीं, किसी की बात सुनने का अवकाश नहीं, बोलने का अवकाश नहीं । अरे ! पलक झपकने तक का अवकाश नहीं है आज मुझे । अरे मन ! जरा चुप रह, देख नहीं रहा है कि आज देव आये हैं तेरे आँगन में । अरे ! जवाहरलाल नेहरू तेरे घर पर आ जायें तो पागल हो जाए, सोचने को भी अवकाश न रहे कि क्या करूँ और कहाँ बिठाऊँ इनको ? आज तीन लोक के पति, त्रिकालज्ञ, सर्वज्ञ पधारे हैं तेरे घर तो तुझे अपने राग अलापने को पड़ी है ? लाज नहीं आती? देखे-देख सावधान हो, प्रभ को बैठने के लिये स्थान बना । घबरा नहीं, तेरे पास है प्रभु के योग्य स्थान। आइये नाथ. आइये । इस अधम का आंगन पवित्र कीजिये. यहाँ विराजिये, यहाँ विराजिये इस मेरे हृदय-मन्दिर में ! भगवन् ! देखिये तो कितना सुन्दर बनाया है इसे, सर्व संकल्प-विकल्पों का कूड़ा-कचरा निकाल कर कितना उज्ज्वल धुला-धुलाया तथा पवित्र पड़ा है यह, केवल आपकी प्रतीक्षा में कि कब आयें मेरे प्रभु और कृतार्थ करें मुझ अधम को। आहा हा ! मानो आज में सामान्य व्यक्ति नहीं हूँ, मेरे पाँव आज पृथ्वी पर नहीं पड़ते, मेरे घर में विराजे हैं त्रिलोकाधीश । आज मैं गर्व के मारे उड़ा जा रहा हूँ आकाश में । आज मेरे आंगन में भीड़ लगी है दर्शनार्थियों की । इन्हें भी यह सौभाग्य प्राप्त होगा। आप खड़े न रहिये भगवन् ! बैठ जाइये इस मन के जड़ित आसन पर, आपके लिये ही तो बिछाया है इसे । आहा हा ! आज पावन भये हैं नेत्र मेरे, मैं हुआ पूर्ण धनी । मेरा जीवन पावन हो गया, मेरा जन्म पावन हो गया, मेरा तन पावन हो गया, मेरा मन पावन हो गया, मेरा हृदय पावन हो गया, कृतकृत्य हो गया। मेरे आंगन पधारे हैं भगवान, शान्ति के देवता, मेरे उपास्य, मेरे लक्ष्य, मेरे आदर्श । __ अरे ठहर, ठहर रे मन ! अभी मत बोल, बीच में अपनी टांग अड़ाये बिना क्या एक क्षण भी नहीं बैठ सकता? बड़ा चञ्चल है तू ! ज़रा प्रभु की ओर देख, इतना निर्लज्ज न बन, कब-कब पधारते हैं ये तेरे घर ? सुन, तनिक कान लगाकर सुन, देख प्रभु मुझसे बातें कर रहे हैं । अरे तू भी तो अपना जीवन सफल बना ले, यह अवसर फिर मिलना कठिन है। अहा हा ! कितनी मिष्ट है प्रभु की वाणी मानो अमृत ही वर्ष रहा है। मेरी तो बात क्या, नरक में पड़े जीवों Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४३ ६.शंका समाधान को भी कुछ चैन-सी पड़ जाती है ऐसे समय में । त्रिलोक-तृप्तिकर यह अमृतगंगा । अरे मन ! तनिक अपना ढकना तो खोल और ले इस गंगा को समा ले अपने में । याद रख, फिर न मिलेगी इसकी शीतल धारा, तरसता रह जायेगा। बहुत स्थान है तेरी गहनता में, सबकी सब समाले अपने अन्दर, देख एक बून्द भी न बिखरने पाये । और ले अब बेसुध होकर करने लगा मैं अमृत का पान, करने लगा भगवान से बातें। भगवानक्या देखा तूने अधरों में ? एक शान्त-मुस्कान। क्या देखा तूने नेत्रों में ? इस ही का सम्मान। क्या देखा कर-कमलों में ? लक्ष्य-सिद्धि आल्हाद । क्या सुनता है इन कानों में ? मधुर-तृप्ति का नाद। क्या देख रहा मेरे मन में ? शान्ति-सखी का नृत्य। क्या दीख रहा तुझको तन में ? शान्ति नगर का दृश्य। आओ सखा ! इस शान्ति-नगर के आता हूँ भगवन् ! रुक जाओ, क्षण भर यात्री बन जाओ? लो हाथ पकड़कर अपनाओ। कैसा लगता है अब तुझको? मैं तुम एक हुए मानो। कुछ इच्छा है तो कह डालो? क्या कहूँ नाथ ! अब मत बोलो। क्या कह रहा है यह वन्दक ? होंगे कोई मुझे क्या इनसे। जा-जा, इनकी कुछ तो सुनले। इनका नाता ही क्या मुझसे ? कुछ इच्छा है तो अब भी कह दे। बस प्रभु मैं तृप्त हो गया, कृतकृत्य हो गया। नेत्र बन्द किये मानो मैं प्रभु में मिल चुका था, दीन-दुनिया से दूर हो चुका था। मैं था और थे मेरे शान्ति आदर्श वीतराग-प्रभु । और फिर वही ? अरे मन ! तेरा भला हो, तू अपनी चञ्चलता से बाज न आया ? आखिर वही किया जो तुझे करना था ? घसीट ही लिया मुझे ? अच्छा कर ले जो कुछ करना है, अपनी बदकारी में कमी मत रख, सब अरमान निकाल ले। आखिर कब तक? एक दिन बिदा लेनी ही होगी तुझे । बाँध ले अपना बिस्तरा-बोरिया । अब अधिक दिन नहीं निभेगा मेरा साथ । मेरा रास्ता यह और तेरा रास्ता वह । प्रभु को भुला देना तो अन तेरी सामर्थ्य से बाहर हो चुका है, क्योंकि अब मैं कर चुका हूँ प्रतिमा में जीवित-देव के दर्शन, अब मेरे लिए वे पाषाण नहीं भगवान हैं। (८) अब तक भले भूल रहा हूँ पर अब मुझे 'पंच-कल्याणक विषयक' सब पिछली बातें याद आ गई हैं। वह दृश्य मेरी आँखों के सामने घूम रहा है, जब कि प्रभु ने माता की कोख में प्रवेश किया था। मेरे सामने ही इनका जन्म हुआ था। वह दिन भी मुझे अच्छी तरह याद है जब कि इनका राजतिलक हुआ था, और इनकी प्रजा का एक अंग बनकर मैं सुखपूर्वक जीवन बिताता था। आहा हा ! वह दिन तो मानो कल ही गुजरा है। क्या दृश्य था वह ? चहुँ ओर वैराग्य व वीतरागता, लौकान्तिक देवों का वह सम्बोधन मेरे कानों में आज भी गूंज रहा है। प्रभु को वैराग्य आ गया था उस दिन, राजपाट को ठकरा. नीची गर्दन किए वन की ओर चल पड़े थे वे । मुझसे रहा न गया, पालकी उठा लाया, प्रभु को बैठाया और ले चला कुछ दूर अपने कन्धों पर । ओह ! कितना उत्साह था उस दिन मुझ में, जैसे कि आज ही घर छोड़कर चल दूं प्रभु के पीछे । पर मेरा दुर्भाग्य, मैं न जा सका । प्रभु चले गये और मैं देखता ही रह गया। कितनी उदासीन थी सारी प्रजा? पर प्रभु प्रसन्न थे, शान्त थे, मानो चले हों किसी स्वयंवर में। यह दश्य तो मानो मेरी आंखों के सामने ही हो रहा है। देखो-देखो, क्या नहीं दीख रहा है तम्हें ? लो इन यह आँखों से देखो, वे प्रभु बैठे किस तरह घासफूस की भाँति अपने केश नोच-नोचकर फेंक रहे हैं, और मैंने इन हाथों से समेटे थे उनके वे केश। ध्यान में निश्चल हुए वे योगी यही तो हैं जिनके शरीर पर खाज खुजाता हुआ एक मृग मैंने देखा था। और वह दृश्य जब तीनों लोक झंकार उठे थे, चहुँ ओर युगपत् गूंजने वाली दुन्दुभि-बाजों की ध्वनि मानो आकाश को फाड़ने का प्रयत्न कर रही थी ? उस दिन उत्पत्र हुआ था भगवान को वह ज्ञान जिसके प्रकाश में वे तीनों Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४४ ६. शंका समाधान लोकों को तीनों कालों में प्रत्यक्ष देख रहे थे, अपने हृदय पट पर । वह अलौकिक तेज जिसमें कि मुझे भी दिखाई देने लगे थे अपने सात भव । आहा हा ! कैसी महिमा थी उस समय भगवान की, मानो तीन लोक की सम्पत्ति ही सिमट आई थी उनके चरणों में । मैं तो क्या सहस्र जिह्वा भी उसका वर्णन करने को समर्थ नहीं। और अन्त का वह दिन जब भगवान विदा ले रहे थे हम सब से, सदा के लिए ? मानो अनाथ बना चले थे हम सब को। मैं रो रहा था उस समय न जाने क्यों ? सम्भवत: इस लिए कि मैं भी कभी ले सकूँगा ऐसी विदा। और आज वही प्रभु हैं मेरे सामने । मानो इस अनाथ की सुध लेने आये हैं कि भूल न बैठा हो कहीं उस अन्तिम रुदन के भाव को, और वास्तव में था भी वैसा ही । प्रभु से क्या छिपा है ? मैं तो भूल ही बैठा था सब कुछ, यहाँ तक कि प्रभु भी पाषाण दिखाई देने लगे थे अब मुझे। सोते को जगा दिया प्रभु ने । भगवन् आप न आते तो न जाने क्या होता मेरा? इस भव में अपने हाथों से की हुई सब क्रियाओं को, अपनी आंखों से देखे हुए सब दृश्यों को, अपने कानों से सुने हुए सब शब्दों को इसी भव में भूल गया। यदि आज आपके दर्शन न होते तो आगे क्या होता? तभी तो कहते हैं आपको करुणासिन्धु, भक्त प्रतिपालक, अधमोद्धारक। अरे भोले प्राणी ! क्या अब भी समझ न पाया कि 'क्या देती है यह सामर्थ्यहीन प्रतिमा और कैसे देती है ?' (९) कितनी सामर्थ्य है दृष्टि में आने वाली इस पाषाण की मूर्ति में ? भावना शून्य तुझे दिखाई ही कैसे देगी वह सामर्थ्य ? पक्षपात् के गहन अन्धकार में मुन्द गई हैं तेरी आंखें । उपरोक्त प्रकार तन्मय होकर शान्ति के दर्शन करे तब पता चले कि क्या देती है यह प्रतिमा, कितनी सामर्थ्य है इसमें । ठीक है यह अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकती क्योंकि जड़ है, परन्तु तेरी रक्षा अवश्य कर सकती है। हाथ कंगन को आरसी क्या? करके देख उपरोक्त प्रकार इसके दर्शन । यह अपनी रक्षा नहीं करती तो क्या आश्चर्य, वे जीवित प्रभु भी तो जिनकी कि यह आकृति है स्वयं नहीं करते थे अपने शरीर की रक्षा । अनेक शक्तियों व ऋद्वियों के भण्डार होते हुए भी, इस पृथ्वी को एक अंगुली पर घुमा देने की शक्ति रखते हुए भी वे नहीं करते थे स्वयं अपने शरीर की रक्षा । वे नित्य जागृत रहा करते थे अपनी रक्षा के लिये, और यह प्रतिमा भी बराबर कर रही है अपनी रक्षा उन्हीं की भाँति। प्रभु ! इस अन्धकार में तुझे कैसे सूझे कि किसे कहते हैं अपनी रक्षा ? एक ओर कह रहा है शरीर और आत्मा भिन्न है और दूसरी ओर कह रहा है कि शरीर की रक्षा ही मेरी रक्षा है । भला कहाँ है विश्वास तुझे स्वयं अपनी बात पर ? प्रभु का विश्वास तुझ जैसा पोच न था, वे दृढ़ थे इस बात पर कि वे चैतन्य हैं। अन्य कुछ नहीं, शरीर का उनके साथ कोई नाता नहीं, तनिक भी। फिर बता इसकी रक्षा वे क्यों करते? और कदाचित् उपकार- र भी देते, यदि इसकी रक्षा करते हुए स्वयं अरक्षित न हो जाते वे । समझ भगवन् समझ, शरीर की रक्षा क्या बिना इसके प्रति राग आये सम्भव है ? और राग आने पर क्या शान्ति सुरक्षित रह सकती है, वह शान्ति जिसके लिये कि इतना पुरुषार्थ किया है उन्होंन? तो फिर बता शरीर की रक्षा के लिये अर्थात् एक ऐसी वस्तु की रक्षा के लिये जो उनके लिये उस समय बिल्कुल निष्प्रयोजन बन चुकी थी, राग उठाकर अपनी शान्ति का घात करना, निधि लुटा देना अपने हाथों अपने घर में आग लगा लेना, कौन बुद्धिमत्ता थी, और प्रभु ऐसी मूर्खता करते ही क्यों? बस वही आदर्श तो उपस्थित कर रही है यह प्रतिमा भी। निश्चलध्यान-अवस्था में स्थित, अन्तर तथा बाह्य-विकल्पों से रहित उस समय प्रभु भी तो जड़वत् दीखते थे? क्या भूल गया उस दिन को जब अपने मुँह से उस महायोगी को जड़-भरत कहकर पुकारा करता था ? यदि यह प्रतिमा ही जड़वत् दीखती है तो क्या आश्चर्य हुआ। देख प्रतिमा सम्बन्धी महाभारत का प्रसिद्ध दृष्टान्त । भले ही नीच कुल होने के कारण अथवा यह सोचकर कि 'मेरे द्वारा सिखाई गई धनुर्विद्या का दुरुपयोग न हो जाय, इसका प्रयोग पशु-हिंसा के प्रति न हो जाय' गुरु-द्रोणाचार्य ने उस भील को धनुर्विद्या देने से इन्कार कर दिया था, पर उसकी दृष्टि में तो उसके गुरु बन चुके थे वे । भले वे उसे अपना शिष्य स्वीकार न करते पर उसकी भावना कैसे बदल सकते थे ? 'प्रत्यक्ष न सही परोक्ष ही सही, धनुर्विद्या अवश्य सीखूगा' ऐसे दृढ़ संकल्प वाले उस भील ने वन में जाकर कच्ची मिट्टी से बनाई द्रोणाचार्य की प्रतिमा और एक गुफा के मुख पर बड़ी विनय से विराजमान कर दिया उसे । तीन समय पुष्प चढ़ाता था उसके चरणों में । उसकी दृष्टि में वह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४५ ६.शंका समाधान प्रतिमा न थी, थे साक्षात् गुरु-द्रोण । प्रतिमा से ही पूछ-पूछकर करने लगा धनुर्विद्या का अभ्यास । स्वयं अपने ही हृदय से प्रकट होने वाले लक्ष्य-साधन के उपायों को यदि पहले से ही मान बैठता अपने, तो अभिमान हो जाता । 'गुरु-द्रोण ही क्या करेंगे इसमें, मैं स्वयं ही सीख लूंगा' ऐसा भाव आ जाता, और कभी न सीख पाता वह विद्या । परन्तु उसके हृदय में यह विकल्प था ही नहीं, उसकी दृष्टि में तो थी गुरु की विनय । लक्ष्य चूक जाने पर गुरु से अर्थात् प्रतिमा से क्षमा मांग लेता और लक्ष्य सफल होने पर उसके चरण छू लेता । वर्षों बीत गये इसी प्रकार करते पर एक क्षण को भी उसने उसे प्रतिमा के रूप में न देखा । वे थे उसके साक्षात् गुरु और एक दिन सिद्धहस्त हो गया वह, अर्जुन की विद्या को भी शर्मा देने वाला। अर्जुन से यह कैसे सहा जा सकता था कि गुरु-द्रोण का शिष्य इस निगुरे भील से नीचा रह जाए ? नहीं, यह नहीं हो सकता । गुरु से जाकर कह ही दिया। गुरु आये और भील से पूछा, किन से सीखी है विद्या ? गुरु को साक्षात् सामने देखकर लेट गया उनके चरणों में । “आहा हा ! आखिर चले आये आप खिंचे हुए ? भक्ति में इतनी सामर्थ्य है। भगवन् ! और कोई नहीं आप ही हैं मेरे गुरु", यह था भील का उत्तर । गुरु-द्रोण आश्चर्य में डूब गये। यह बात सत्य कैसे हो सकती है, क्योंकि उन्होंने तो उसे विद्या देने से इन्कार कर दिया था ? नहीं, मैं नहीं हो सकता, यह झूठ बोलता है, छिपाना चाहता है अपने गुरु का नाम मुझसे । भील ताड़ गया गुरु के मन की बात और ले गया उनको प्रतिमा के पास । 'यदि विश्वास न आता हो तो देख लीजिये, ये बैठे हैं मेरे गरु,' और गरु द्रोण पर खल गया सारा रहस्य, जड़-प्रतिमा क्या दे सकती है और किस प्रकार दे सकती है, यह रहस्य। भो कल्याणार्थी ! अब पक्षपात् तज, किसी दूसरे के लिये नहीं अपने लिये । 'मेरे मन में हैं भगवान, क्या करूंगा प्रतिमा के दर्शन करके' ऐसा बहाना छोड़ दे। स्वयं तेरी शान्ति का घात कर रहा है यह, क्योंकि अब तक तूने भगवान के दर्शन किये ही कब हैं जो तेरे हृदय में उनका वास सम्भव हो जाता। भगवान शब्द का नाम भगवान नहीं। भगवान जीवन का एक आदर्श है जो तू इस प्रतिमा में पढ़ सकता है या साक्षात् भगवान में । भगवान वर्तमान में हैं नहीं, अत: उनके प्रतिनिधि-रूप इस प्रतिमा की अब शरण ले और अपना कल्याण कर। (१०) मन्दिर विषयक–देव-पूजा की बात चलती है, देव का व पूजा का स्वरूप दर्शाया जा चुका। अब प्रश्न यह होता है कि 'मन्दिर की क्या आवश्यकता ?' प्रश्न बहुत उत्तम व स्वाभाविक है, ऐसे प्रश्न उत्पन्न करते समय यदि भय लगेगा तो तत्त्व नहीं समझा जा सकेगा। जैसे मैं कहूँ वैसे स्वीकार कर लेना वास्तव में समझना नहीं है । देख इस प्रश्न का उत्तर स्वयं अपने अन्दर से ही आ जाता है। 'मुझे शान्ति चाहिए' यह समस्या है, इस समस्या को सुलझाने का अब प्रश्न है । शान्ति प्राप्त करने से पहले यह जानना आवश्यक था कि शान्ति क्या है, और इसका घात करने वाला कौन है ? सो भी जाना जा चुका कि शान्ति मेरा स्वभाव है, और इसका घात करने वाला मेरा अपना ही अपराध है जो आस्रव-तत्त्व में दर्शा दिया गया है, अर्थात् शरीर, धन व कटम्बादि सम्बन्धी अनेकों नित्य नये-नये उठने वाले विकल्प, इच्छायें व चिन्तायें। यदि ये विकल्प दब जायें तो मैं शान्त पहले ही से हैं। वास्तव में शान्ति प्राप्त नहीं करनी है बल्कि अशान्ति को दर करना है. इन चिन्ताओं को. इन इच्छाओं को, इन विकल्पों को दूर हटाना है । ये दूर हुए कि शान्त तो मैं हूँ ही, वह तो स्वभाव जो ठहरा मेरा । प्राप्त की प्राप्ति क्या? जो पहले ही से मेरे पास है उसको प्राप्त करने का प्रयास क्या? स्वभाव का कभी विच्छेद नहीं हुआ करता। क्या अग्नि से गर्म हो जाने पर जल अपना शीतल स्वभाव छोड़ देता है ? नहीं। तो मैं ही इन विकल्पों के कारण व्याकुल होता हुआ अपनी शान्ति कैसे छोड़ सकता हूँ ? अत: जिस-किस प्रकार भी इन विकल्पों का अभाव करने का प्रयास करना है। अब विचारना यह है कि क्या एकदम इन विकल्पों को रोका जाना सम्भव है ? जैसे कि बिजली का बटन दबाया और प्रकाश बन्द, क्या इस प्रकार 'कोई क्रिया विशेष करी और विकल्प बन्द', ऐसा होना सम्भव है ? ऐसी बात यहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि प्रारम्भ में ही आस्रव-बन्ध तत्त्वों के अन्तर्गत इन विकल्पों व संस्कारों के जन्म का क्रम दर्शाते हुए यह बताया जा चुका है कि संस्कार धीरे-धीरे ही शक्ति पकड़ता हुआ एक दिन पुष्ट हो जाता है, एकदम पुष्ट नहीं हो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४६ ६.शंका समाधान बैठता। (देखो १५.२) बस उसी प्रकार यहाँ भी समझना। आगे तप के प्रकरण में इस बात को सविस्तार बताया जाएगा कि कोई भी संस्कार क्रमपूर्वक ही तोड़ा जाता है । जब तक संस्कार समूल नष्ट नहीं होगा तब तक उससे प्रेरित हुआ मैं नित्य नये-नये विकल्प भी छोड़ न सकूँगा। रोगी का रोग एकदम दबाया नहीं जा सकता, क्रमपूर्वक और धीरे-धीरे ही दबाया जा सकता है, उसी प्रकार विकल्प दबाने के सम्बन्ध में भी समझना। इन विकल्पों में सर्वदा के लिए तो क्या, कुछ देर के लिए भी पूर्णतया ब्रेक नहीं लगाया जा सकता। हाँ इतना अवश्य है कि इन्हें कछ देर के लिए किसी प्रकार दबाया जा सकता है. जिस प्रकार कि मारफीन या कोकीन के इन्जैक्शन द्वारा कुछ देर के लिए पीड़ा दबाई जा सकती है । अब मुझे यह देखना है कि कुछ देर के लिये ही सही, वह क्रिया-विशेष कौन सी है जिसके करने से कि वे विकल्प दब सकें। अनेकों बार जब कि मैं क्रोध में अत्यन्त व्याकुल हुआ अन्दर ही अन्दर कुछ जलन सी महसूस करता हूँ, मैंने यह अनुभव किया है कि ऐसे अवसरों पर यदि मैं घर या दुकान आदि का वातावरण छोड़कर क्लब में जाकर खेलने लगूंगा तो धीरे-धीरे वह क्रोध शान्त हो जाता है और उस समय तक पुन: जागृत नहीं हो पाता जब तक कि पुन: उसी प्रकार का कोई अन्य वातावरण मेरे सामने न बन जाय । बस इसी अपने अनुभव पर से सिद्धान्त निकाल लीजिए। सिद्धान्त यह निकला कि बाह्य-वातावरण का मेरे विचारों के साथ बहुत बड़ा सम्बन्ध है। जब जुआरियों के वातावरण में रहकर मैं जुआरी और शराबियों के वातावरण में रहकर शराबी बन सकता हूँ तो निर्विकल्प वातावरण में रहकर मैं निर्विकल्प क्यों नहीं बन सकता? यद्यपि स्वपर-भेद-विज्ञान के अन्तर्गत वस्तुत: इसका निषेध किया गया है, और बताया गया है कि अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता और इस बात पर मुझे विश्वास भी है, युक्ति आदि से निर्णय भी किया है, परन्तु अभी तक वह विश्वास पूर्णतया मेरे जीवन में उतरने नहीं पाया है। पूर्व वाला पराश्रित हो जाने का संस्कार अभी दृढ़ है। यद्यपि गलती मेरी है, पर करता हूँ मैं किसी वातावरण से प्रभावित होकर ही । जो बात स्पष्ट अनुभव में आती हो, उसमें नकार कैसा? विकल्प को दबाने के दो उपाय हैं। एक तो यह कि स्वपर-भेद ज्ञान के द्वारा मैं जहाँ कहीं बैठं दृढता धार कर वातावरण की और दष्टि न दं और अपने शान्त-स्वभाव को लक्ष्य में लेकर अन्तरंग में एक नया वातावरण उत्पन्न कर लूं । यह उपाय करने बैठता हूँ तो वर्तमान की इस प्राथमिक अवस्था में अपने को बिल्कुल असमर्थ पाता हूँ, क्योंकि बात को समझना सरल है पर उसको कार्यान्वित रूप देना कुछ कठिन । समझने व श्रद्धा करने में अधिक समय नहीं लगता, पर उसे पूरा करने को एक लम्बा समय चाहिए। उपाय ऐसा होना चाहिए जो इस अत्यन्त निम्न अवस्था में भी किया जा सकना सम्भव हो, और मेरी शक्ति से बाहर न हो। कुटुम्ब-सम्बन्धी चिन्ताओं से कुटुम्ब के वातावरण में रहकर, धनोपार्जन-सम्बन्धी चिन्ताओं से दुकान पर रहकर, और शरीर-सम्बन्धी चिन्ताओं से शरीर की सेवा में संलग्न रहकर, बचने का प्रयास करते हुए भी बचा नहीं जा सकता। अत: इस निश्चय के आधार पर वातावरण बदल देना चाहिए । अब विचारना यह है कि इसको छोड़कर किस वातावरण में जाऊँ ? क्या क्लब में जाने से काम चल जायेगा? नहीं क्योंकि वहाँ भले कुटुम्बादि-सम्बन्धी विकल्प दब जायें पर हार-जीत सम्बन्धी नये विकल्प उत्पन्न हो जाएंगे। अत: वातावरण ऐसा होना चाहिए कि जहाँ जाकर यदि विकल्प भी उत्पन्न हों तो वीतरागता-सम्बन्धी ही हों । सौभाग्यवश शान्ति के आदर्श जीवित देव या उनकी प्रतिमा की शरण में जाने से यह प्रयोजन ठीक-ठीक सिद्ध हो जाता है, जैसा कि इससे पहले के प्रकरण में दर्शा दिया गया है। इन दोनों में भी देव की शरण का तो प्रश्न नहीं क्योंकि वर्तमान में कहीं दिखाई ही देते नहीं, किन्तु उनकी प्रतिमा अवश्य सौभाग्यवश प्राप्त है । अत: प्राप्त साधन से ही कुछ लाभ लेना है। अब यह विचारिये कि यदि यह प्रतिमा घर पर ही रख लूँ तो क्या वह वातावरण छोड़कर नया वातावरण बनाया जा सकेगा? यह बताने की आवश्यकता नहीं कि नहीं बनाया जा सकेगा। एक ओर स्त्री की नई-नई मांगे, एक ओर वृद्ध माता-पिता की कराहट, एक ओर बच्चों की चीख-पुकार, इन सबके होते हुए प्रतिमा के सामने खड़े हुए भी मेरा उपयोग उनकी उपासना में कैसे लग सकेगा ? अत: कोई अन्य उपयुक्त स्थान ढूंढना होगा। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४७ ६. शंका समाधान चलिये वन में खोजें । आहा ! कैसा रमणीक व सुन्दर स्थान है ? यहाँ ही तो देखा था मैंने अपने प्रभु को बैठे हुए। बड़ा शान्त है, प्रकृति ने मानो अपनी विशाल गोद ही फैलाई है, नगर व ग्राम की सीमा तक मुझे आश्रय देने लिये । बहुत शान्त वातावरण है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है। जहाँ आते ही मैं भूल जाता हूँ सर्व कुटुम्ब को, धन को, यहाँ तक कि शरीर को भी, और खो जाता हूँ प्रकृति की सुन्दरता में, उस स्वाभाविक व शाश्वत् सुन्दरता में जिसे रचने का या नवीन बनाने का विकल्प भी मुझे नहीं आ सकता । बस अपने प्रभु की प्रतिमा को यहाँ ले आऊँ और कर दूँ विराजमान किसी वृक्ष के नीचे एक शिलापर या किसी मिट्टी के चबूतरे पर। यह प्रतिमा के दर्शन करने में मेरी बहुत सहायता करेगा और इसी कारण बन गये चैत्यवृक्ष, जिसकी ओर गुरु देव पुनः-पुनः संकेत कर रहे हैं, इस आगम में । चैत्यवृक्ष अर्थात् प्रतिमा रखी गई हो जिस वृक्ष के नीचे । प्राचीन समय में चैत्यवृक्ष ही हुआ करते थे, जहाँ जाकर मैं कुछ देर के लिये भूल जाता था सब चिन्तायें और लीन हो जाता था प्रभु की शान्ति में जैसा कि पहले के प्रकरण में बता दिया गया है I यह समय वह था जब कि मैं छोटे-छोटे गाँवों में रहा करता था, दो फर्लांग चला कि चैत्यवृक्ष पर पहुँच गया । फ़ालतू समय भी काफ़ी होता था। सौ पचास छोटी-छोटी झोपड़ियों का ग्राम होता ही कितना बड़ा है ? चारों ओर वन ही न पड़ा है और हैं हरे-हरे खेत । परन्तु समय ने पलटा खाया और आज मैं रहता हूँ बड़े-बड़े नगरों में, जहाँ से यदि कई मील चल दिया जाय तो भी मैं वन में प्रवेश न कर सकूँगा । सड़कों आदि पर बड़ा व्याकुल सा वातावरण रहता है। और आज इतना समय भी तो नहीं है मेरे पास कि मीलों चला जाऊँ वन में भगवान के दर्शन व पूजा करने, और घर पर लौट आऊँ । सम्भवत: आधा दिन लग जाय इस काम में। फिर मैं गृहस्थी; भला कैसे दे सकता हूँ इतना समय ? यदि गुरुदेव की प्रेरणा से या अन्तष्करण की प्रेरणा से कुछ समय निकालने का प्रयत्न भी करूँ तो बड़ी कठिनाई से १५ मिनिट या आधा घण्टा । और फिर इतना समय भी फ़ालतू कहाँ है आज मेरे पास ? वन को अनुकूल वातावरण के रूप में प्रयोग करना आज असम्भव है। अतः कोई अन्य कृत्रिम मार्ग निकालना पड़ेगा, जो भले ही उतना सुन्दर व स्वाभाविक न हो पर जिस-किस प्रकार भी वहाँ मेरे प्रयोजन की सिद्धि कुछ हो सके, और निकल ही आया एक उपाय । नगर ही में एक पृथक् स्थान या मन्दिर बना डालो और उसके अन्दर घर सम्बन्धी कोई सामान न रखो । वहाँ हो मेरे प्रभु की प्रतिमा शान्ति के दर्शन के लिये । मन्दिर की दीवारों के दूसरी ओर भले पड़ा रहे नगर का व्याकुल वातावरण, परन्तु उसके भीतर हो केवल एक शान्ति ही शान्ति । चहुँ ओर दीवारों पर खिंचे हों या तो प्राकृतिक दृश्य, या शान्त महापुरुषों के चित्र और या हों शान्ति के उत्पादक कुछ गुरु वाक्य, ताकि इस स्थान में आकर जिधर भी दृष्टि उठाऊँ दिखाई दे एक शान्ति । इसे कहते हैं मन्दिर अर्थात् शान्ति का घर । यद्यपि आज इस विलासिता के युग में आकर इसमें भी विलासिता का विषैला अंश प्रवेश पा गया है, सोने चाँदी की अधिकाधिक सामग्री के रूप में, कुछ बर्तनों के रूप में, छत्र- चमरों के बड़े संग्रह के रूप में, फरनीचर के रूप में, परन्तु फिर भी यहाँ अन्यत्र की अपेक्षा शान्ति है । कर्त्तव्य तो यह है कि इस विषैले अंश को यहाँ से निकालने का प्रयत्न करूँ, और कर भी रहा हूँ, कुछ सफलता भी मिली है। अब यहाँ नवीन आदर्श-मन्दिरों की स्थापना की जा रही है, जहाँ न स्वर्ण का छत्र है, न चमर, न बर्तन भांडों की खड़खड़ाहट, न अधिक चौकियों आदि का संग्रह, न अधिक प्रतिमायें, न लौकिक आकर्षण । har एक विशाल प्रतिमा है और एक बड़ी टेबल तथा बैठने के लिये कुछ आसन । यह है मेरे प्रयोजन की सिद्धि में सहायक शान्त वातावरण । प्रभु को तो कुछ नहीं, वे तो वीतराग हैं, कहीं भी बैठा दो ले जाकर, निश्चय व निर्विकल्प ही रहते हैं। पूर्ण जो हो गये हैं ? परन्तु प्रभु मन्दिर में ये विलासिता के अंश अनेक प्रकार के विकल्प पैदा करते हैं मेरे मन में। मैं तो अभी चलना भी नहीं सीखा हूँ । इसी कारण मन्दिर में विलासिता का दृश्य खटकने लगता है आँखों में, सो ठीक ही है, फिर भी अपना काम निकालना है। यदि आदर्श-मन्दिर उपलब्ध हो जाय तो बहुत अच्छा, नहीं तो इन मन्दिरों से ही काम चलाओ । जरा अधिक बल लगाना पड़ेगा, इस रूप में कि दृष्टि के सामने पड़े आकर्षक पदार्थों की ओर मेरा ध्यान खिंचने न पावे, परन्तु घर व दुकान आदि से फिर भी अच्छा है। अनेकों अन्य विकल्पों से तो छुट्टी मिलती ही है। दो Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ २३. देव-पूजा ६.शंका समाधान प्रकार की मुख्य बाधायें हैं जो मेरी शान्ति को बाधित करती हैं-एक इन्द्रिय ज्ञान व उनके द्वारा जाने गये पदार्थ, और दूसरा मन तथा उसमें उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष पदार्थों सम्बन्धी विकल्प । इन दोनों बाधाओं में से इन्द्रिय ज्ञान सम्बन्धी बाधा स्थूल है क्योंकि वह बाह्य में पड़े पदार्थों का आश्रय लिये बिना उत्पन्न नहीं होती, और मन सम्बन्धी बाधा सूक्ष्म है क्योंकि इसके विकल्पों को बाह्य में किसी पदार्थ के आश्रय की आवश्यकता नहीं। मन्दिर के वातावराण व घर आदि के वातावरण में इतना ही अन्तर है कि घर आदि में तो दोनों प्रकार की बाधायें सम्भव हैं परन्तु मन्दिर में केवल मन सम्बन्धी, क्योंकि रागात्मक बाह्य पदार्थ वहाँ दिखाई ही नहीं देते । घर बैठकर विकल्पों के प्रशमन का पुरुषार्थ करने में दोनों प्रकार की बाधाओं का सामना करना पड़ता है जिसमें अधिक बल की आवश्यकता है, और मन्दिर में बैठकर वही पुरुषार्थ करने में केवल एक बाधा का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रतिमा की उपस्थिति मझे शान्ति के दर्शन करने में सहायता देती है, इसलिए कम बल से भी काम चल जाता है यदि विकल्पों के प्रशमन के लिए पर्याप्त बल मुझ में हो तो मन्दिर की वास्तव में कोई आवश्यकता नहीं थी। तब तो घर पर बैठे, रेल में बैठे या सड़कपर चलते, किसी स्थान पर भी मैं विकल्पों को दबाकर शान्ति में मग्न हो जाता । परन्तु अनुभव करने पर यह जाना जाता है कि जीवन-चर्या में विकल्प बजाये दबने के अधिकाधिक वृद्धि को ही प्राप्त होते हैं, इस लिए विकल्प प्रशमन के प्रयोजनार्थ घर आदि का वातावरण प्रतिकूल पड़ता है और मन्दिर का वातावरण अनुकूल। आगे भी सभी जगह यही सिद्धान्त लागू करना पड़ेगा कि अनुकूल वातावरण में रहकर पुरुषार्थ करने में कम बल लगाना पड़ता है। इसलिए आगे के सब प्रकरणों में जहाँ अन्तरंग विकल्पों के संवरण अर्थात् प्रशमन का अनेक दिशाओं में प्रसार होने लगेगा वहाँ जिस-किस प्रकार भी प्रतिकूल निमित्तों का त्याग और अनुकूल निमित्तों का ग्रहण करने को दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता। कारण कि मैं अधिक बलवालों की कोटि में नहीं हूँ, मेरी शक्ति बहुत हीन है और जरासी बात में विकल्प उठ खड़े होते हैं। आगें यद्यपि शक्ति बढ़ती चली जाएगी, तदपि तदनुसार अनुकूलताएँ बनाने का प्रयास बराबर चलता रहेगा, भले ही पहले की अनुकूलताओं का आगे चलकर कोई मूल्य न रह जाय। साधु दशा में पहुँच जाने पर यद्यपि मन्दिर का अधिक मूल्य नहीं रह जाता, परन्तु किसी भी अन्य एकान्त स्थान का मूल्य बन जाता है। (११) अब यह तो सिद्ध हो गया कि मन्दिर में आकर अनुकूल वातावरण के कारण मैं चाहूँ तो किञ्चित शान्ति प्राप्त कर सकता हूँ । परन्तु मन्दिर में आ जाने को पर्याप्त मानकर यदि सन्तोष कर बैलूं तो क्या उस प्रयोजन की सिद्धि सम्भव है ? नहीं, क्योंकि यद्यपि एक स्थल बाधा टल चकी है परन्त अत्यन्त प्रबल मन सम्बन्धी सूक्ष्म बाधा जीतनी बाकी है। यदि उस बाधा को जीतने का प्रयत्न किए बिना ही, हिताहित के विवेक से हीन केवल साम्प्रदायिक विश्वास के आधार पर मन्दिर में आकर हाथ जोडूं और चला जाऊँ तो इष्ट कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। इसलिए इतना जानना आवश्यक है कि 'मन्दिर में क्यों आना चाहिए, कैसे आना चाहिए, और वहाँ आकर क्या करना चाहिए।' उपरोक्त तीन प्रश्नों में से पहले प्रश्न का उत्तर तो दिया जा चुका कि केवल विकल्पों का प्रशमन करना ही मन्दिर में आने का प्रयोजन है । इसलिए यहाँ आने से यदि विकल्प किञ्चित् भी शान्त नहीं होते तो यहाँ आना निरर्थक है। तीसरे प्रश्न का उत्तर भी लगभग आ गया, कि यहाँ आकर प्रतिमा में जीवित देव का दर्शन करते हुए निज शान्ति में लय होने का प्रयास करना चाहिए। मन्दिर में आकर यदि 'यह बड़ा सुन्दर है, ये स्तम्भ संगमरमर के हैं, इस पर बहुत पैसा लगा है, अभी इसमें इतनी कमी है', इत्यादि विकल्पों में उलझकर देव-दर्शन का कार्य भूल बैलूं, तो यहाँ आना निरर्थक ही हुआ। इसका यह अर्थ नहीं कि यहाँ न आयें, बल्कि यह है कि यहाँ आकर इन विकल्पों में उलझने की बजाय यथार्थ देव-दर्शन का कार्य करें । देव दर्शन व पूजा में कोई विशेष अन्तर नहीं है, दर्शन भी पूजन ही है। अब यह देखना है कि मन्दिर में कैसे आया जाए? प्रयोजन पर ध्यान दीजिये । विकल्पों के प्रशमनार्थ व शान्ति के अनभवनार्थ आता हूँ यहाँ । शान्ति के दर्शन तो देव पजा से हो जाते हैं. पर विकल्पों का प्रशमन स्वयं करना पडेगा। विकल्पों की उपस्थिति में देव के भी दर्शन न कर सकोगे । नेत्र करते होंगे दर्शन प्रतिमा के और मन भागता फिरेगा घर व बाजार में । मन्दिर तो केवल निमित्त मात्र है। यदि स्वयं पुरुषार्थ पूर्वक विकल्पों का किञ्चित् त्याग करूँ तो मन्दिर व Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. देव-पूजा १४९ ६.शंका समाधान वातावरण सहायक कहलायें, और यदि मन का व्यापार चलने दूं, इस पर ब्रेक न लगाऊँ, तो मन्दिर तो जबरदस्ती मुझसे विकल्प छीनने से रहा। अत: मन्दिर के लिये घर से चलते समय पहला पग जब आगे बढ़े तब से ही अपना मन्दिर सम्बन्धी कार्य प्रारम्भ करना है। _ “अब चला हूँ प्रभु के साथ तन्मय होने, अपनी शान्ति का अथवा तृप्ति का स्वाद लेने, परम आह्लाद में नृत्य करने । मानो प्रभु की वीतरागता अभी से घूमने लगी है मेरे हृदयपट पर । अरे चेतन ! ये विकल्प क्यों ? क्या नाता है इन पदार्थों से, कुटुम्ब से, इस सम्पत्ति से या इस शरीर से तेरा ? सब जड़ या चेतन पथिक जा रहे हैं अपने-अपने मार्ग पर बराबर बढते हुए एक लक्ष्य की ओर, जाने क्यों ? मैं भी जा रहा था अब तक इसके साथ, पर मुझे मुड़ जाना है दूसरी पगडंडी पर, और इन सबों को जाना है सीधे इसी पगडण्डी पर । जाने दे इन्हें, तुझे क्या मतलब, कहीं जाएं, तू अपना मार्ग देख और ये देखें अपना । निभा लिया जितना साथ निभाना था, सदा किसका साथ निभता है, यों ही मिलते और बिछुड़ते रहते हैं, अब इधर मत देख, इस अपने मार्ग की ओर देख । इस पर जाते हुए भी तो कोई न कोई साथी मिल ही जायेगा, घबराता क्यों है? भले कम पथिक जाते हों इस मार्ग पर, परन्तु जाते तो अवश्य हैं, मार्ग सूना तो नहीं है ? वे तो थे सब स्वार्थी लुटेरे, और इधर मिलेंगे नि:स्वार्थी, करुणाधारी । वह देख दूर दिखाई दे रहा है कोई जाता हुआ। कितनी शान्त है उसकी चाल?” और इसी प्रकारकी विचारधारा में बहते-बहते न जाने कब आ जाय मन्दिर की ड्योढ़ी। ___“आज भगवान् के दर्शन करने जा रहा हूँ , परम अभीष्ट शान्ति की उपासना करने जा रहा हूँ। सर्व विकल्पों की गठरी छोड़ दे इसी ड्योढ़ी के बाहर । इसे सर पर रखे कैसे जायेगा आगे, और अच्छा भी क्या लगेगा इस घसियारे की सी दशा में प्रभु के पास जाता हुआ ? यह माली तो यहाँ बैठा ही है, जरा देखते रहना भाई ! वापिस आकर उठा लूंगा ", और इस प्रकार सब विकल्पों के भार को त्याग कर प्रवेश करता हूँ मन्दिर में, मानो आज मैं साधु ही हूँ। मेरे में और साधु में अन्तर ही क्या है ? उसने घर सम्पत्ति को त्याग वैराग्य धारा और मैंने भी घर सम्पत्ति तथा उसके विकल्पों की गठरी को त्याग कर वैराग्य धारा, वह भी शान्ति की ओर उन्मुख और मैं भी शान्ति की ओर उन्मुख । रहे ये वस्त्र, सो इनकी कोई मुख्यता नहीं, क्योंकि इस समय देव के अतिरिक्त मुझे कुछ दिखाई ही नहीं देता, यहाँ वस्त्र बेचारे मेरी दृष्टि में कैसे आवे? 'और यह देखो आ गया अब मैं साक्षात् प्रभु के सामने ।' इसके पश्चात् वही तल्लीनता जिसके सम्बन्ध में पहले काफी बताया जा चुका है। इस प्रकार अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार किसी निश्चित समय के लिये १५ मिनट, आधा घण्टे या एक घण्टे के लिए सर्वसंग-विमुक्त होकर, घर-गृहस्थी से नाता तोड़कर, थोड़े समय के लिये मानो साधु हूँ ऐसा मानकर, यदि मन्दिर में प्रवेश करूँ तो मेरे प्रयोजन की सिद्धि हो, और उसी का नाम है वास्तव में मन्दिर जाना । उतने समय के लिये वैसी दृढ़ता होनी चाहिए, जैसी कि सेठ धनञ्जय को हुई थी। धन की लाभ-हानि तो तुच्छ सी बात है, यदि पुत्र-मृत्यु का समाचार भी आ जाए तो नेत्र न हटें प्रभु पर से और कोई विकल्प न आने पावे मन में, “अरे ! उस पुत्र का नाता है ही कहाँ मेरे पास इस समय? वह तो बाहर पड़ा है गठरी में। भाई ! ज़रा बाहर प्रतीक्षा करो, जब बाहर जाऊं तो याद दिलाना । खोलूँगा उस गठरी में तुम्हारा कागज, कहीं मिल गया तो। अब तो कुछ याद नहीं पड़ता, अभी दफ़्तर का समय हुआ नहीं, शान्ति का भोजन कर लूं, फिर आऊंगा, फिर सुनूँगा कि क्या कहना है तुम्हें, अब इस समय अवकाश नहीं है।" ऐसे होने चाहियें विचार उस अवसर पर, तब कहा जा सकता है कि मन्दिर में जाना सफल हुआ, और उसे तू स्वयं अनुभव करेगा । यह है वास्तविक देव दर्शन । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गुरु-उपासना ( १. पुनरावृत्ति; २. गुरु कौन; ३. आदर्श शिक्षा; ४. आदर्श उपासना; ५. पराश्रय में स्वाश्रय; ६. सच्चे गुरु। ) १. पुनरावृत्ति-पूर्व संस्कारों को जीतकर महान-विकल्प-सागर से पार हो जाने वाले, तथा गम्भीर प्रशान्त सागर की अथाह गुरुता को प्राप्त हे गुरुवर ! मुझे भी गुरुता प्रदान करें । हे कुशल खेवटिया ! मेरी नौका इस भवसागर से पार करें । उस पार, जहाँ न है राग द्वेष की ज्वाला और न है हर्ष-शोक की आंधी, है एक गहन शान्ति । आज मैं अशान्त हँ, और प्रतिक्षण मिलने वाली अंतरंग की प्रेरणा मुझे शान्त-द्वीप की ओर जाने के लिये वाचाल कर रही है, परन्त विकल्पों की इस आंधी में अत्यन्त विशाल व भयानक इस भव-सागर को इन शक्तिहीन भुजाओं से कैसे पार करूं? हे गुरुवर ! यदि जन्मान्ध इस पामर को आंखें प्रदान करके आप यह न दर्शाते कि मेरा घर शान्ति है और आज मैं अशान्त-सागर में गोते खा रहा हूँ, तो किस प्रकार मुझे आपकी शरण भाती, मैं कैसे यह समझ पाता कि मैं तो चिदानन्दघन पूर्ण परमेश्वर, आनन्दमूर्ति, तथा ज्ञान शरीरी, वर्तमान में स्थित प्रभु आत्मा हूँ, चैतन्य हूँ, अमूर्तिक हूं? बीव-तत्त्व के ऐसे श्रद्धान बिना कैसे यह विश्वास करता कि, 'ये मेरे हैं मैं इनका हूँ, इनसे मुझे सुख-दुख है और मुझ से इन्हें सुख-दुख है' इस प्रकार की धारणाओं के आधार पर दीखने वाले भिन्न क्षेत्रावगाही स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि तथा मेरे आंगन में रहकर नृत्य करने वाला यह चमड़े का शरीर अथवा सूक्ष्म-कार्मण-शरीर और नित्य उठने वाले विकल्प आदि, सभी पदार्थ 'पर' हैं, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं, इनमें मेरा हित निहित नहीं है । आज तक सदा यही मानता आया है कि. “इनका कार्य मैं करता है और इनके कारण मेरा काम होता है. इनके लिए मैं कार्य करता हूँ और मेरे लिये ये काम करते हैं, मेरे स्वभाव में से इनका कार्य अर्थात् लाभ हानि निकलती है और इनमें से मेरा कार्य बनता है, मेरे आधार पर इनका जीवन व सत्ता है और इनके आधार पर मेरा जीवन व सत्ता है, मैं न होऊं तो ये न हों, और ये न हों तो मैं न होऊं, मैं इनकी रक्षा करता हूँ और ये मेरी रक्षा करते हैं, ये न होते तो मेरा भी कल्याण हो गया होता, न्याय अन्याय कभी न करता । मुझ निर्दोष को दोषी बनाने वाले ये हैं, मैं तो उज्ज्वल निर्दोष हूँ", इत्यादि । इस प्रकार की पर पदार्थों के साथ षट्कारकी अभेद बुद्धि के कारण इनके ही काम में व्यग्रता धारण कर, अपने काम से विमुख मैं अशान्त बना हुआ है, और मजा यह कि फिर भी चाहता शान्ति ही हैं। यह सब आपका ही प्रसाद है कि प्रत्यक्ष पर पदार्थों के रूप में अपने से बिल्कल भिन्न षटकारकी रूप से पथक देखने में समर्थ हआ है. इन सबको अपनी दृष्टि में अजीव-तत्त्वरूप देख पाया हूँ। वह मेरी भारी भूल थी कि 'अजीव इतने होते हैं, इतने प्रकार के होते हैं, इनके लक्षण ये हैं' इत्यादि जानने को ही अजीव-तत्त्व का श्रद्धान गिनता रहा । कभी विश्लेषण द्वारा स्व व पर को जुदा करके नहीं देखा। _ 'यदि मेरी भूल है तो हुआ करे, इस भूल से मेरी हानि ही क्या है ?' इसी प्रकार की धारणा आज तक बनी रही। यह भी कभी सोचने को अवकाश न मिला कि मेरी वर्तमान की दशा क्या है, और शान्ति का स्वरूप व उसकी प्राप्ति का सच्चा उपाय क्या है ? उपरोक्त पर-पदार्थों की व्यग्रता में, इच्छाओं के आधार पर अर्थात् इच्छाओं को कर मैं शान्ति खोजने बैठा हूँ. यह महान आश्चर्य है। आपके बिना मझे इस अन्धकार में कौन सझाता कि यही तो मेरा अपराध है, और इस अपराध के ही द्वारा पुष्ट किये गये नित्य के राग द्वेष को प्रेरित करने वाले संस्कार ही मेरे वास्तविक बन्धन हैं, अशान्ति के मूल हैं ? आपका शाब्दिक उपदेश पाकर आज तक यही मानता आया कि जड़ कर्मों का मेरे प्रदेशों में आना मात्र कोई आस्रव नाम का तत्त्व है, और उनका किसी विचित्र प्रकार से बन्ध होकर कार्मण शरीर का रूप धारण कर लेना बन्ध-तत्त्व है। आज तक अपनी शान्ति व अशान्ति को खोजने का प्रयत्न नहीं किया। कर्म हैं, ऐसे हैं, वैसे हैं, इस प्रकार के भेदों की उलझन में उलझा अपने को ज्ञानी मान बैठा, और झूठे अभिमान के शिखर पर बैठ, नीचे पड़ी बिलखती अपनी शान्ति की अवहेलना करने लगा। को Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ २४. गुरु-उपासना २. गुरु कौन आपकी महान कृपा से आज वह रहस्य प्रकट हो जाने पर मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है शान्ति-पथ, अशान्ति के उपरोक्त भ्रमात्मक पथ से बिल्कुल उल्टा, विपरीत दिशा में जाने वाला। धन्य है आपकी बुद्धि जो विष में से अमृत खोज निकाला। अनुमान के आधार पर यह जानकर कि 'वहाँ अशान्ति है और मुझे चाहिये शान्ति, वहाँ विकल्प हैं और मुझे चाहिये निर्विकल्पता', यह सिद्धान्त बना डाला कि शान्ति का मार्ग अशान्ति से बिल्कुल उल्टा होना चाहिये। आपने देखा कि अशान्ति उत्पन्न हो रही है पर-पदार्थों का आश्रय लेने से, अत: शान्ति का मार्ग होगा उसका आश्रय छोड़ देने से और इसलिये मुझ पामर को उपदेश में बताने लगे यही रहस्य कि यदि मैं उन पर पदार्थों का कर्ता न बनूं, उनसे लाभ हानि न मानूं, उनमें रस न लूँ, तो अवश्य शान्त हो जाऊँ । उसी मार्ग का अर्थात् संवर का प्रकरण चल रहा है । लक्ष्य है पर-पदार्थों का आश्रय कतई न हो, कर्ता-बुद्धि के आधार पर होने वाला राग व द्वेष बिल्कुल न हो। राग और द्वेष दोनों सहोदर हैं, 'यत्र राग: पदं धत्ते द्वेषस्तत्रेति निश्चयः', जहाँ राग होता है वहाँ द्वेष होता ही है। कोई द्वेष को बुरा समझे और राग को अच्छा माने सो गलत है, दोनों ही आकुलता-जनक हैं, स्वयं आकुलता स्वरूप हैं, उन दोनों को दूर करना होगा। 'ये बिल्कुल न हों' यह मेरा लक्ष्य है। मुझे इस लक्ष्य की पूर्ति करनी इष्ट है, इसे कार्यान्वित रूप देना अभीष्ट है । लक्ष्य-मात्र से तो काम चलता नहीं और उसकी प्राप्ति की जिज्ञासा रखकर उस ओर चले बिना वह लक्ष्य भी क्या ? अब देखना यह है कि क्या इस लक्ष्य की प्राप्ति एक समय में हो जानी सम्भव है, अथवा क्या सम्पूर्ण राग-द्वेष का जीवन में से विच्छेद किया जाना सम्भव है ? नहीं, लक्ष्य एक समय में निश्चित हो जाया करता है परन्तु प्राप्ति करने में अधिक समय समय लगता है। लक्ष्य बनाना एक बात है और उसकी प्राप्ति करना दसरी बात । लक्ष्य में कोई क्रम नहीं होता परन्तु प्राप्ति के लिये कोई मार्ग होता है जिसमें क्रम पड़ता है। उस मार्ग में धीरे-धीरे शक्ति-अनुसार चलना होता है, इसलिये चलते-चलते कोई आगे निकल जाता है और कोई रह जाता है पीछे, किसी में शान्ति अधिक प्रकट हो जाती है और किसी में रह जाती है कम । जितना बल लगाओ, जितनी तेजी से क़दम उठाओ उतनी ही जल्दी शान्ति के निकट पहुँच जाओ। क्या अधिक बल वाले और क्या हीन बल वाले, उस मार्ग पर चलने को देर है, पहुँच दोनों ही जायेंगे लक्ष्य पर, कोई पहले और कोई पीछे। अत: प्रभु ! अपने को असमर्थ मत समझ, उस मार्ग पर चलने की सामर्थ्य तुझमें न हो ऐसी बात नहीं है । अत: चल, भले ही धीरे-धीरे चल। शान्ति के मार्ग पर गमन करते हुए तेरा पहला कर्तव्य होगा क्या करने में ? वह होगा देव पूजा में, शान्ति के पूर्ण आदर्श के बहुमान में, उसकी भक्ति व उपासना में, अथवा चैत्य-चैत्यालय व शान्तस्वरूप प्रतिमा के भावपूर्ण दर्शन में, आदर्श पूजा में । देव कैसा होना चाहिये, प्रतिमा व मन्दिर से क्या लाभ, अनुकूल वातावरण का मन पर प्रभाव पड़ता है, इत्यादि बातें बताते हुये भली भांति यह बात दर्शा दी गई थी कि देव का आश्रय लेने का यह प्रयोजन नहीं है कि वे मुझे जबरदस्ती तार देंगे, पर यह है कि नमूने के रूप में उन्हें अपने सामने रखकर मैं अपने जीवन में उनका रूप ढालने का प्रयल कर सकू। जैसा नमूना होगा वैसा ही माल बनाया जा सकेगा, इसलिये नमूने के सम्बन्ध में अत्यन्त सावधा वर्तने की आवश्यकता है। खूब अच्छी तरह परीक्षा करके अपनी अभिलाषाओं के अनुरूप ही नमूना अर्थात् देव को उपास्य-रूप में ग्रहण करना चाहिये । बिना विवेक के जैसे-कैसे भी आदर्श से हमारा लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सकता। २. गुरु कौन-अब दूसरे कर्त्तव्य की बात चलती है, वह है गुरु-उपासना । जिस प्रकार ऊपर अच्छी प्रकार घूम-फिरकर, अपने लक्ष्य के अनुरूप देव मैंने खोजा है, उसी प्रकार यहाँ गुरु के सम्बन्ध में जानना । गुरु मेरी नाव के खेवटिया हैं, अत: देव से भी अधिक है उनकी महत्ता । हृदय की जागृति के बिना देव को जीवित देखना, उनसे मुँह दर मुँह बात करना और जीवनोत्थान की प्रेरणायें प्राप्त करना सम्भव नहीं। परन्तु गुरु तो जीवित ही हैं, इसलिये यहाँ कठिनाई नहीं। अपने उपदेशों द्वारा अपने अभिप्राय के अनुसार घुमा सकते हैं वे अपने शिष्य की बुद्धि को, अपने कृपा-कटाक्ष द्वारा शक्तिपात करके उठा सकते हैं वे अपने शिष्य के जीवन को। यद्यपि गुरु-अन्वेषण के क्षेत्र में गुरु-परीक्षा की चर्चा यत्र तत्र सुनाई देती है, और साधारण दृष्टि से देखने पर यह युक्त भी प्रतीत होती है, तदपि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर गुरु परीक्षा सम्भव प्रतीत नहीं होती। कारण यह कि Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गुरु-उपासना १५२ २. गुरु कौन गुरु-परीक्षा की बात कहने वाले के पास बुद्धि है हृदय नहीं । बुद्धिगत थोड़े से ज्ञान के कारण जिसका हृदय अभिमान से ढक गया है उसे इस जगत में जब अपने से बड़ा कोई दिखाई ही नहीं देता तो वह परीक्षा किस की करेगा? वास्तव में हृदय-लोक में शिष्यत्व का उदय हुये बिना गुरु प्राप्ति सम्भव नहीं। इसलिये परीक्षा अपनी ही करनी है किसी दूसरे की नहीं । हृदय में शिष्यत्व जागृत करें, गुरु तुझे स्वयं प्राप्त हो जायेंगे। __ यद्यपि गुरु के सम्बन्ध में भी देव की भांति निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक ही गुरु हैं, क्योंकि जिससे अपने जीवन के लिये कोई भी हित की बात सीखने को मिले वही गुरु है । व्यक्ति का हित अपनी दृष्टि में वही होता है जिससे कि उसका जीवन सुखमय बने । इसलिये एक जुआरी का गुरु जुआरी ही हो सकता है, चोर का चोर, पहलवान का पहलवान और दुकानदार का दुकानदार । परन्तु यहाँ बात है पारमार्थिक हित की, शान्ति-प्राप्ति की, जीवन को बाह्य जगत की बाधाओं से बचाकर भीतर की ओर उन्मुख करने की । अत: आओ किसी ऐसे गुरु की खोज करें जिससे कि मेरे इस प्रयोजन की सिद्धि हो, जो कि इस दिशा में मेरा पथ-प्रदर्शन कर सकें। __ कहाँ खोजें, भीतर या बाहर में ? चलो पहले भीतर ही खोजें । और ये रहे वे ।अरे भाई ! उधर नहीं इधर,अपने भीतर । नहीं दिखाई दिये? भैया ! कुछ और भीतर चल, अभी तो तू इन्द्रियों में तथा मन और बुद्धि में ही अटका है । यहाँ नहीं हैं वे । इसके भी भीतर, और भीतर, हृदय की अन्तस्तम गुहा में, जहाँ न पहुँच सकती है मन की कल्पना और न बुद्धि की तर्कणा, केवल प्रेम ही प्रेम है जहाँ । देख कितने मधुर हैं ये और कितने हितैषी, माता की भांति । परम-माता हैं ये। कितनी सुखद है इनकी प्यार भरी गोद, इनकी चरण-शरण । हर-क्षण मेरे साथ रहते हैं ये, मेरी अंगुली पकड़कर धीरे-धीरे चलाते हैं ये, धीरे-धीरे चढ़ाते हैं ये साधना के क्रमोत्रत सोपानों पर । सदा मेरे आगे-आगे चलकर मार्ग दर्शाते हैं ये, इस मार्ग के प्रत्येक कण्टक से बचाते हैं ये । बाह्य जगत की ओर देखने से चित्त में राग द्वेष उत्पन्न हआ नहीं कि इन्होंने तुरन्त घूरकर देखा नहीं, कोई भी गलत कार्य हुआ नहीं कि तुरन्त प्यार भरा तमाचा इन्होंने मेरे गाल पर जमाया नहीं, वचन अपने पथ से बहका नहीं कि तुरन्त इन्होंने जिह्वा पकड़ी नहीं । और इस प्रकार बराबर देखते रहते हैं ये मुझे। भले ही सो जाऊँ मैं, पर एक क्षण को भी सोते नहीं थे। कोई भी बात छिपी नहीं है मेरे मन की इन से । जगत की आँखों में धल झोंक सकता हूँ मैं परन्त मजाल कि इन्हें धोखा दे जाय कोई । मेरी सभी चालाकियों को पहचानते है ये, जीवन के सर्व दोषों को दूर करने के लिये, सर्व अपराधों से मेरी रक्षा करने के लिये, मेरे मन का मैल धोने के लिये, पग-पग पर घूरते रहते हैं ये मुझको, बात-बात में घुड़कते रहते हैं ये मुझको, तमाचा लगाते रहते हैं ये मुझको । जैसा अपराध वैसा ही दण्ड । कभी पश्चाताप मात्र, कभी आत्म-निन्दन, कभी गर्हण, कभी निज-दोषालोचन, और कभी-कभी रूदन व क्रन्दन । दोष को त्यागकर जब पुन: लौट आता हूँ मैं अपने भीतर, इन परम गुरुदेव के चरणों में तो प्यार से गले लगा लेते हैं ये मुझे, मुख चूम-चूमकर मदहोश कर देते हैं ये मुझे, और सो जाता हूँ मै विश्रान्त, इनकी प्यार भरी गोद में । यही हैं मेरे अभ्यन्तर-गुरु, परम गुरु, पारमार्थिक-गुरु, जिसे अन्तर्ध्वनि नाम से अभिहित किया गया है पहले। ___ अब आइए बाहर में भी देखें । जगत का जड़ या चेतन प्रत्येक पदार्थ दे रहा है मुझे बड़े-बड़े उपदेश । सारी रात ग्राहक की प्रतीक्षा में बिता देने पर प्रात: निराशा की गोद में सो जाती है वेश्या, मुझे यह उपदेश देने के लिये कि निराशा सन्तोष की जननी है । देखो रोटी का टुकड़ा, पञ्जों में दबाए उड़ी जा रही है यह चील और इधर वह देखो अनेकों चीलें झपट पड़ी उस पर, रोटी का टुकड़ा पजे से छूटकर गिर गया नीचे और लड़ाई हो गई बन्द । उपदेश दे दिया इसने हम सबको कि परिग्रह दुख की खान है । यह देखो दाल धोकर उससे छिलका जुदा करने वाली यह कहारिन भी उपदेश दे रही है मुझे कि भगवान आत्मा शरीर से पृथक् हैं । और इस प्रकार कण-कण गुरु है इस विश्व का, यदि कोई सुन सके इनका उपदेश तो । परन्तु इतनी योग्यता वाले दत्तात्रेय या मुनि शिवभूति हैं ही कितने इस लोक में? अत: आओ खोजें व्यवहारिक क्षेत्र में । यहाँ भी हैं अनेकों गुरु, पूर्वोक्त अन्तर्गुरु की प्रकृति वाले, मेरे पथों के कण्टक हटाने वाले, मुझे अपराधों से बचाने वाले, दिव्य उपदेशों द्वारा मुझे ऊपर उठाने वाले, ज्योतिर्लोक के प्रति मुझे क्रमोन्नत सोपानों पर चढ़ाने वाले । अन्तर्गुरु थे निराकार और ये सब हैं साकार । संस्कारों की मायावी वकालत के धोखे में आकर अनेकों बार चूक कर जाता था मैं । अन्तर्ध्वनि की बात को समझ बैठता था संस्कार की और संस्कार Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गुरु-उपासना १५३ ३. आदर्श शिक्षा की बात को अन्तर्ध्वनि की । इन बाह्य गुरुओं के सामने उस संस्कार की तीन-पाञ्च चलती नहीं, क्योंकि अनुभवी हैं ये, अनेकों उतार चढ़ाव देखे हैं इन्होने, बाह्य जीवन के भी और अन्तरंग जीवन के भी, बाह्य जगत के भी और अन्तरंग जगत के भी। एक-एक चतुराई को जानते हैं ये इसकी । अत: वर्तमान की इस डांवाडोल दशा में अत्यन्त उपकारी हैं ये मेरे लिये। ___इस श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान प्राप्त है माता-पिता को । शिशु-काल की अबोध दशा से लेकर जब तक भली भांति प्रबद्ध न हो जाऊँ मैं और अपना हिताहित स्वयं समझने के योग्य न हो जाऊँ मैं, तब तक बराबर पथ प्रदर्शन करते हैं ये मेरा, जीवन के हर संकट तथा कण्टक से बचाते हैं ये मुझे । स्वयं कष्ट झेलते हैं अनेकों परन्तु मुझे कष्ट नहीं होने देते हैं तनिक भी। स्वयं रूखा खाकर माता घी पिलाती है मुझे, स्वयं भूखी रहकर दूध पिलाती है मुझे, स्वयं गीले में सोकर सूखे में सुलाती है मुझे । कौन चुका सकता है इनका ऋण? नत रहे मस्तक सदा इनके चरणों में।। इससे कुछ आगे चलकर आते हैं मेरे शिक्षा-गुरु, स्कूल तथा कालेज के अध्यापकजन । कितने प्यार से पढ़ाते हैं वे मुझे, किस प्रकार क से कबूतर सिखाते हैं वे मुझे, किस प्रकार छोटी-छोटी कथायें सुनाकर जीवन रहस्य समझाते हैं वे मुझे और किस प्रकार बड़े-बड़े ग्रन्थों का अध्ययन करने योग्य बनाते हैं वे मुझे। असंस्कृत से सुसंस्कृत बनाते हैं वे मुझे, जीवन में रहने के विविध ढंग सिखाते हैं वे मुझे । कैसे चुका सकता हूं उनका ऋण ? नत रहे मस्तक सदा इनके चरणों में। इनसे भी ऊपर चलकर आते हैं वे पारमार्थिक-गुरु, वीतराग-गुरु, जो उपदेश देते हैं मुझे अपने जीवन से। कितनी ममता है इनके होठों पर और कितना प्यार इनकी आंखों में? कितनी समता है इनके हृदय में और कितना दुलार इनकी बातों में ? कितना तेज है इनके मस्तक पर और कितना आलोक इनकी बुद्धि में? कितने वरद हैं इनके हाथ और कितनी रहस्यमयी इनकी चर्या ? कितना विशाल तथा उदार है उनका हृदय? सभी को समान देखने वाले, सभी से निज शिशुवत प्यार करने वाले, सभी को सन्मार्ग दर्शाने वाले, सभी को जीवन के अतिगुप्त रहस्य बताने वाले, वे रहस्य जिन्हें जानने के लिये स्वयं अनेकों कष्ट सहे हैं उन्होंने, दुर्धर तपश्चरण किये हैं उन्होंने । बाहर के सन्ताप से बचाकर अभ्यन्तर के प्रताप में ले जाते हैं ये मुझे, असत् लोक की भयावह शक्तियों से बचा कर सत्लोक की सैर कराते हैं ये मुझे, अशान्ति से शान्ति में पहुँचाते हैं ये मुझे, प्रायश्चित देकर मल-शोधन करते हैं ये मेरा (दे० ४०/३.१) और शुद्ध हो जाने पर मुख चूमते हैं ये मेरा । कहाँ से लाऊँ शब्द इनका स्तवन करने के लिये? मेरे सर्वस्व हैं ये, मेरे भगवान हैं ये, मेरे जीवन हैं ये, मेरे प्राण हैं ये । अर्पण हो जाऊं मै सारा का सारा इनके चरणों में, तन से, मन से और वचन से । इनकी आज्ञा के बिना कुछ न करूँ मैं, इनकी आज्ञा के बिना कुछ न बोलूं मैं, इनकी आज्ञा के बिना कुछ न विचारूं मैं । और इसी में है मेरा हित, मेरा कल्याण, मेरा परमार्थ । ३. आदर्श शिक्षा-देव-पूजावत् गुरु-उपासना का प्रयोजन भी गुरु को प्रसन्न करना या रिझाना नहीं है बल्कि उनके शान्त-स्वरूप पर से अपना शान्त-स्वरूप निहारना, उनके गुणों पर से अपने गुण स्मरण करना तथा उनके जीवन पर से अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने की प्रेरणा लेना है। इस मार्ग में मेरी प्रगति बराबर बढ़ती चली जानी चाहिये। यद्यपि देव पूजा करते समय आध पौन घण्टे के लिये, अन्तर की प्रगति अवश्य कुछ शान्ति की ओर बढ़ी थी पर दैनिक-चर्या के अन्य समयों में लौकिक धन्धों में फंसकर वह पुन: मन्द पड़ जाती है, लुप्तवत् हो जाती है। गुरु का जीवन मुझे मन्दिर मात्र का सीमित कर्त्तव्य नहीं दर्शाता, बल्कि चौबीस घण्टों की मेरी जीवन-चर्या में कुछ योग्य अन्तर डालने की प्रेरणा देता है, तथा इस संशय को दूर करता है कि यह शान्ति पूर्ण हो सकनी शक्य भी है या नहीं। गुरु से प्रश्न करके नहीं बल्कि उनके जीवन पर से यह बात पढ़ी जा सकती है कि यह शान्ति अवश्य पूर्ण हो सकती है और मुझे अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करना चाहिये । जैसा कि देव पूजा के शीर्षक नं०६ के अन्तर्गत तृतीय प्रश्न का उत्तर देते हुये दिखाया गया है, जीवित आदर्श से कुछ शाब्दिक उपदेश न मिलने पर भी एक भारी उपदेश मिलता है । यह उपदेश कुछ ऐर होता है जो सीधा जाकर जीवन पर टकराता है और जीवन की दिशा को घुमा देता है । दो वर्ष की स्वाध्याय भी इतना नहीं सिखा सकती जितना कि एक मिनट की गुरु-उपासना सिखा देती है । गुरु जीवित आदर्श हैं इसलिये इनकी उपासना या दर्शन मेरे जीवन में एक फेर ला सकने को समर्थ है । यद्यपि गुरु मौखिक उपदेश भी देते हैं, जिससे बड़े-बड़े सैद्धान्तिक रहस्य Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ २४. गुरु-उपासना ४. आदर्श उपासना खुल जाने के कारण मार्ग सरल बन जाता है, परन्तु जीवन को प्रेरणा देने वाला उपदेश वचनों से नहीं स्वयं उनके जीवन से लिया जाता है। शाब्दिक उपदेश हम शास्त्र में भी पढ़ सकते हैं पर जीवित उपदेश हमें गुरु के सिवाय कहीं अन्यत्र उपलब्ध नहीं हो सकता । इसलिये गुरु-उपासना है दूसरा पग जो कि इस मार्ग का बड़ा आवश्यक अंग है। ४. आदर्श उपासना मेरी भांति उन गुरुओं ने भी प्रथम पग देव-पूजा में ही रखा था। उसके कारण हृदय लोक में प्रवेश हो जाने पर उन्हें समता का परिचय मिला और साथ-साथ उन्होने अपने अन्दर से आती हई यह गर्जना भी सुनी कि “प्रभु ! तू सिंह है, सिंह की सन्तान है, त्रिलोकाधिपति है, अपने को पामर व कायर मत समझ, अपनी जाति को पहिचान, जिनका तू उपासक बना है वही तू है।" उससे ही जागृति मिली और बन गये वीर, इन्द्रिय-विजयी । ऐसा वीरत्व अपने अन्दर जागृत करने के लिये ही गुरु-उपासना की प्रधानता है। गुरु-उपासना का अर्थ गुरु के पांव दबा देना या उनकी झूठी प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न करने का प्रयत्न करना मात्र नहीं है, इसका आन्तरिक अर्थ कुछ और है। उपासना कहते हैं 'उप+ आसन' अर्थात् निकट में बैठना । गुरु-उपासना का अर्थ हुआ गुरु के निकट बैठना, गुरुदेव की आन्तरिक शान्ति के निकट बैठना, उनकी समता के निकट बैठना, उनकी वीतरागता के निकट बैठना । धन्य है प्रभु आपका जीवन, आपके पास गृहस्थ दशा में सब कुछ होते हुये भी आपने उसकी ओर चित्त न लगाया । वास्तव में आपने तत्त्व को समझा। मुझ पामर का भी उद्वार कीजिये, वही भावना मेरे अन्दर भी भर दीजिये । (वस्तुत: भावना ये नहीं भरेंगे, परन्तु भक्ति के आवेश में उनके प्रति बहुमान होने से ऐसे शब्द निकल ही जाया करते है) (दे० २३/६.४)। गृहस्थ में आप अपने को सन्तान का सहायक मान रहे थे, परन्तु कितनी जल्दी छोड दी आपने वह धारणा? मेरा भी यह भ्रम दूर कर दीजिए प्रभु । आपने इस संसार से दूर एक नया संसार बसाया है । कितना सुन्दर है यह संसार जहाँ शान्ति-सुन्दरी के साथ आप किलोल कर रहे हैं, जहाँ इस सुन्दरी की कोख से आपके सन्तति उत्पन्न हुई है, निष्कपटता, निष्कषायता तथा अन्य अनेकों सदगुण? मुझे भी वहीं ले चलिए प्रभु । कितने स्वतन्त्र हैं आप? न है वस्त्र की आवश्यकता, न धन की चाह, न किसी सहायता की अपेक्षा, न इन्द्रादि पदों की इच्छा । धन्य है आपकी स्वतन्त्रता, धन्य है आपकी निर्भयता, धन्य है आपकी साम्यता। सख-दख में तथा अनकलता-प्रतिकलता में सदा समान भाव, सदैव अपने को ही निहारना । मुझ पर भी करुणा कीजिये नाथ, यह भाव व शक्ति मुझे भी प्रदान कीजिये। देखिये भगवन् ! आपका वीर्य कितना बढ़ा हुआ है कि आपने कुटुम्बादि से ममत्व छोड़ा तो छोड़ा परन्तु इससे भी आगे आपने तो मेरे इस सन्देह को कि 'क्या गर्मी सर्दी आदि की बाधायें सहन करने को मैं समर्थ हो सकूँगा' दूर करके यह सिद्ध कर दिया कि मै अवश्य सहन कर सकूँगा। आप धन्य हैं परन्तु इससे मेरे जीवन को कुछ प्रेरणा मिले तभी तो यह 'धन्य धन्य है। आज के लोगों को सम्भवत: यह भ्रम होता है कि दिशाओं मात्र को वस्त्र-स करके आकाश की खुली छत के नीचे, गर्मी सर्दी आदि की अनेकानेक पीड़ायें सहन करते हुये आप व्यर्थका कष्ट झेल रहे हैं और यह कष्ट-सहिष्णुता ही आपको मुक्ति दिला देगी, परन्तु यह उनका केवल भ्रम है । आज मुझे आपके प्रसाद से तत्त्वों का प्रकाश मिला है । कोई जीव अशान्ति के मार्ग में से शान्ति पा नहीं सकता, ऐसा मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है। आपके जीवन को तपश्चरण का जीवन कहा जाता है, परन्तु न जाने क्यों मुझे वह फूलों की सेज पर विश्राम करता प्रतीत होता है? यह सुख का मार्ग है, इसमें दुःख है ही नहीं। कड़ाके की सर्दी सहन करते हुये भी आपकी मुखाकृति देखने पर आपके अन्तर में कल्लोलित शान्त रस का सागर मुझे प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। अशान्ति की एक रेखा को भी वहाँ प्रवेश नहीं। सर्दी आदि सहन करने से आपको दुःख होता तो आपके अन्दर अशान्ति होती, और वह आपके मस्तक पर आये बिना न रहती, परन्तु यहाँ वह दीखती नहीं। अब मैं जान पाया कि ये बाधायें आपके लिये बाधायें नहीं हैं, आपका वीरत्व जागृत हो चुका है, आज आपने साक्षात् शत्रुओं को ललकारा है, शत्रु सामने खड़े हैं परन्तु किसी में सामर्थ्य नहीं कि आपको डिगा सके । धन्य है आपका यह साहस कि यह बात प्रत्यक्ष दिखादी, शब्दों से नहीं वरन अपने जीवन से। कितने बड़े योद्धा बनकर युद्ध क्षेत्र में उतरे हैं आप, जहाँ बड़े से बड़ा शत्रु आता है आपको विचलित करने के लिये, आपकी परीक्षा लेने के लिये पौष-माघ में चलने वाला तीव्र वायु का वेग रात्रि को कितनी ठण्डी कर देता है, परन्तु आप ऐसी रात्रि में धैर्य और Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गुरु-उपासना १५५ ४. आदर्श उपासना शान्ति से चिन्तवन में निजानन्द-रसपान किया करते हैं। आप के साहस को देखकर जन-सामान्य को कम्पा देने वाला तुषार स्वयं कम्पायमान हो गया है आज। वह भागा जा रहा है न जाने किस ओर? आपके प्रहार से मानो भयभीत हो आज खण्ड-खण्ड होकर हिम के रूप में आपके चरणों में आ पड़ा है वह। इस प्रकार के भावों से गुरु का स्वरूप देखकर, अपनी शक्ति की स्वीकृति है उनके निकट बैठना अर्थात् गुरु-उपासना । यदि इस प्रकार करूँ और करता चाला जाऊँ तो क्या समझ न पाऊँगा कि मेरे लिये भी वैसा बन जाना सम्भव है, और क्या ऐसा करने से मेरी गति इस मार्ग में और न बढ़ेगी? इस उपासना के प्रताप से मेरा लक्ष्य और निकट आ जाएगा। अत: हे कल्याणार्थी ! हे शान्तिपथ के पथिक ! राग की शरण को छोड़कर अब गुरु की शरण में आ। यह तो है गुरु-उपासना का पारमार्थिक स्वरूप, और इनकी मानसिक, वाचिक व कायिक विनय है उसका व्यावहारिक स्वरूप । मन में उनके प्रति उपर्युक्त प्रकार से बहुमान जागृत करना है गुरु की मानसिक विनय, और शब्दों द्वारा उस मनोगत बहुमान को प्रकट करना अर्थात् उनका स्तवन करना है उसकी वाचिक विनय । कायिक विनय के अन्तर्गत हैं अनेकों क्रियायें । गुरु को दण्डवत् प्रणाम करना, उनके आने पर खड़े हो जाना, उन्हे उच्चासन प्रदान करना, पादप्रक्षालन करके उसे मस्तक पर चढ़ाना, अर्घा-अर्पण करना, वे चलें तो नतमस्तक उनके पीछे-पीछे चलना, किसी से बात करें तो बीच में न बोलना, कोई बात पूछनी हो तो अत्यंत विनम्र भाव से हाथ जोड़कर पूछना उद्दण्डतापूर्वक नहीं, स्वयं समझने के लिये पूछना दूसरों को समझाने के लिये नहीं इत्यादि । ये क्रियायें ही हैं इनकी व्यावहारिक उपासना । अथवा बहश्रत होते हये भी अल्पश्रत गरु के समक्ष अपने को तच्छ मानना है उनकी मानसिक विनय, 'सब आपका कृपा-प्रसाद है' इस प्रकार कहते हुए अपने सकल गुणों का कारण उनको और सकल दोषों का कारण अपने को मानना तथा बताना है उनकी वाचिक विनय, और शरीर द्वारा पुन:-पुन: नति करते हुये अपने को उनके चरणों में अर्पण करना है उनकी कायिक विनय । 'विनय के अभाव में गुरु से कौन क्या प्राप्त कर सकता है,' अभिमान का सिर नीचा होता है, ये सब बातें आगे 'उत्तम तप' के अन्तर्गत 'विनय' नामक तप के प्रकरण में बताई जाने वाली हैं । (दे० ४०/३.२) शान्ति के पूर्ण आदर्श होने के कारण देव तो वन्दनीय तथा पूज्य हैं ही, परन्तु गुरु भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं। भले ही भीतर में कोई सूक्ष्म अन्तर हो तो हो परन्तु बाहर से देखने पर दोनों समान हैं। गुरु कृपा के बिना कुछ !!!!//II 10. ट -new धन्य है आपका वीरत्व, अन्तरंग तथा बहिरंग कोई भी । IYA | शत्र जिसे परास्त करने को समर्थ नहीं। - - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. गुरु-उपासना १५६ ५. पराश्रय में स्वाश्रय भी सम्भव नहीं, न विषयों का त्याग और न तत्त्वदर्शन । फिर सहजावस्था की प्राप्ति का अर्थात् स्वाभाविक शान्ति की प्राप्ति का प्रश्न क्या ? गुरु ही परमब्रह्म हैं, गुरु ही परम तत्त्व हैं, गुरु ही परा-गति हैं, गुरु ही परम-विद्या हैं, गुरु ही परम धन हैं, गुरु ही परम-काम हैं और गुरु ही परम आश्रय हैं । देव से भी ऊपर है उनका स्थान । भगवान से भी बढ़कर हैं वे। देव को देव बताने वाले वे हैं, भगवान को भगवान बताने वाले वे हैं। यदि अपनी मधुर वाणी द्वारा वे जगत को यह रहस्य न बताते कि 'वह तो तुम्हारे भीतर ही है, भीतर भी क्या, वह तो तुम स्वयं ही हो,' तो कौन जान पाता कि भगवान कौन हैं और कहाँ रहते हैं ? भगवान बैठे रहते अपने घर में और मैं फिरा करता ढूंढता उन्हें वनों में, मन्दिरों में तथा विविध कल्पनाओं में । बने रहते वे भगवान अपने लिये परन्तु किसी को कैसे पता चलता कि ये ही हैं वे जिनकी तलाश थी मुझे "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागौं पाँय। बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ॥" कीचड़ से निकालकर मुँह दर मुँह वे मुझे मेरा हित न दर्शाते तो देव का परिचय भी मुझे कैसे प्राप्त होता, मैं इस उत्तम मार्ग में आकर जीवन को किञ्चित शान्त कैसे बना पाता? शान्ति की अपेक्षा देखने पर पाँचों ही परमेष्ठियों का एक स्थान है। आचार्य कुछ ऊँचे हैं, उपाध्याय कुछ नीचे हैं, अर्हन्त सबसे ऊँचे हैं इत्यादि प्रकार का भेद एक वन्दक की दृष्टि में है ही नहीं। वास्तव में वह न देव को वन्दता है और न गुरु को । उसका वन्दन तो है केवल एक आदर्श को, समता को, जो पाँचों में उसे समान दिखाई देती है। ५. पराश्रय में स्वाश्रय-किसी को पूजने में व्यक्ति का कोई न कोई लक्ष्य तो होता ही है। इसीलिए धन का इच्छुक जो लक्ष्मी को पूजता है, बही, बाट, तराजू, गज़ आदि को पूजता है, सो वृथा नहीं पूजता, क्योंकि उसके अन्तरंग में धन-प्राप्ति का लक्ष्य है । इसी प्रकार पंच-परमेष्ठी की पूजा में भी मेरा कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होना चाहिए। वह लक्ष्य क्या है? “तू चैतन्य पदार्थ है, ये सब स्त्री-पुत्र, धन-धान्यादि तुझसे भिन्न हैं, शरीर तथा राग-द्वेषादि यहाँ तक कि यह लौकिक पर्याय भी किसी अपेक्षा पर है. ज्ञान में इनका आश्रय आने पर कछ रागात्मक विकल्प उठे बिना नहीं रहते। अत: इनका आश्रय छोड़े बिना शान्ति मिलनी असम्भव है।" इस प्रकार एक ओर तो पर-तत्व को छोड़ने का उपदेश दिया जा रहा है, उसे अनिष्ट बताया जा रहा है और दूसरी ओर देव व गुरु का आश्रय लेने की, उनकी पूजा, वन्दना आदि करने की प्रेरणा दी जा रही है। क्या देव व गुरु 'स्व' हैं? ये भी तो पर हैं, फिर उस ही का निषेध और उसी का ग्रहण, कैसी अजीब बात है जो समझ में नहीं आती । सो भाई ! ऐसी बात नहीं है, पर-तत्त्व का आश्रय तो सदैव अशान्ति का ही कारण है और हमारा कर्त्तव्य एक मात्र निज शान्ति में ठहरना है, परन्तु क्या करें अल्प-दशा में यह सम्भव नहीं दीख रहा है। पूर्व के प्रबल संस्कार वश अधिक देर शान्ति में स्थिरता रहती नहीं, पुन: पुन: लौकिक पर-पदार्थों की ओर उपयोग भागने का प्रयत्न करता है, इसलिये यदि पर-तत्त्व का ही आश्रय लेना है तो किसी ऐसे का ले जिससे कि लौकिक-तीव्र-रागात्मक विकल्प न उठ पावें, विकल्प ही उठे तो शान्ति सम्बन्धी उठे। इसी लक्ष्य की सिद्धि के लिये शान्ति को प्राप्त किन्हीं पर-तत्त्वों का आश्रय लेने के लिये कहा जा रहा है। लौकिक-पर-पदार्थों का आश्रय पराश्रय के लिये होता हैं, इनमें-से रस लेने के लिये होता है, परन्तु यह आश्रय पराश्रय छुड़ाने के लिये है। गुरु समता तथा प्रेम की मूर्ति है । उनके रोम रोम से हृदयोत्कर्ष का यह महा स्पन्द दशों दिशाओं में प्रसारित हो रहा है। इसलिये उनके सानिध्य से मेरे हृदय में भी वैसा ही स्पन्द उठता प्रतीत होता है। हृदय को आलोकित करने वाला मेरा यह अभ्यन्तर स्पन्द क्योंकि मझे समता की याद दिलाता है, शान्ति के दर्शन कराता है इसलिये यह 'पर' का आश्रय भी 'स्व' के आश्रय के लिये ही है । भविष्य की बात नहीं वर्तमान में ही उसके आधार पर मैं अधिकाधिक स्व की ओर झुकता प्रतीत होता हूँ, अत: बाह्य में देव व गुरु का आश्रय अन्तरंग में निज शान्ति का ही आश्रय है। दोनों क्रियायें साथ-साथ चल रही हैं-लौकिक-पर-पदार्थों से बाह्य-निवृत्ति, देव गुरु में बाह्य-प्रवृत्ति, देव गुरु से अन्तरंग निवृत्ति, स्व-शान्ति में अन्तरंग-प्रवृत्ति । निवृत्ति व प्रवृत्ति दोनों मार्गों का कितना सुन्दर समन्वय है ? यही है पंच-परमेष्ठी की पूजा या उपासना में मेरा स्वार्थ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ २४. गुरु-उपासना ६. सच्चे गुरु ६. सच्चे गुरु-गुरु वे होते हैं जो वीतराग व शान्त हों, जिन्हें गर्मी-सर्दी का, डांस-मच्छर का, कुत्ते-सिंह आदि क्रूर जन्तुओं का, भूख-प्यास आदि का तथा अन्य भी किसी प्रकार का भय न हो । जो सर्वत: निर्भीक वृत्ति के धारक हों, सी भी बात का शोक, खेद व चिन्ता न हो, जिन्हें लज्जा व ग्लानि आदि के भाव न आते हों, जिन्हें कभी क्रोध न आता हो, जिन्हें अपने तप का अथवा ज्ञान का अथवा प्रतिष्ठा आदि का अभिमान न हो । 'मैं इतना ज्ञानी व तपस्वी हूं, लोगों को मेरी विनय करनी चाहिये' ऐसा भाव जिन्हें न आता हो, अपनी प्रसिद्धि के लिए अथवा शिष्यमण्डली की वृद्धि के लिए मायाचारी के भाव जिनमें न हों, मेरी प्रसिद्धि व ख्याती फैलनी चाहिये, तथा मेरी शिष्य मण्डली अधिक होनी चाहिये इस प्रकार के लोभजनक भावों का जिनमें अभाव हो । इस प्रकार जिन्होंने चारों कषायों को परास्त कर दिया हो, वे वीतरागी सच्चे गुरु हैं। सारांश यह है कि वीतरागी गुरु वे हैं जो शान्ति के प्रतीक हों; कषायों व पाँचों इन्द्रियों के विजेता हों; अहिंसा सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह इन पाँचों महाव्रतों से सुशोभित हों, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण व उत्सर्ग इन पाँच समितिरूप कवच के धारण करने वाले हों; समता, वन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय व कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक जिनके रक्षक हों। ऐसा तो जिनका अन्तरंग जीवन हो तथा नग्नता, केश-हुँचन, अदन्तधोवन, स्नान-रहितता, एक बार भोजन, खड़े-खड़े कर पात्र में भोजन, तथा भू-शयन इन सात बाह्य गुणों के धारक हों । इन २८ मूल-गुणों सहित जो उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य व ब्रह्मचर्य इन दस धर्मों को धारण करने वाले हों। ऐसे वीर, विजेता तथा स्वतन्त्र वैभवशाली ही सच्चे गुरु हैं, क्योंकि इनके ही अन्तरंग व बाह्य जीवन में शान्ति व वीतरागता के दर्शन होने सम्भव हैं । इन सब गुणों का विस्तार आगे साधु-धर्म के अन्तर्गत किया जाने वाला है । (दे० ३२.१)। इन गुणों के अभाव में भी यदि किन्हीं में तत्त्व दृष्टि, समता, प्रेम तथा वैराग्य का सद्भाव है तो प्राथमिक भूमिका में उनकी शरण भी कल्याणकर हो सकती है, परन्तु ऐसे गुरु अपने शिष्य को वहाँ तक ही ऊपर उठा सकते हैं, जहाँ तक कि उनका अपना स्तर है, उससे ऊपर नहीं । इसलिये उपर्युक्त गुरु की अपेक्षा इनका स्थान नीचा ही रहता है । तदपि शिष्य भी क्योंकि निम्न स्तर का है इसलिये वह उनको पूर्ण ही देखता है हीन नहीं । हीनता देखना अभिमान है जिसके सद्भाव में शिष्यत्व सम्भव नहीं। गुरु देशना को प्राप्त जीव बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् से शून्य केवल चिज्जयोति, सच्चिदानन्द स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय ( १. स्वाध्याय का महत्त्व; २. शास्त्र विनय; ३. शास्त्र क्या; ४. प्रयोजनीय विवेक । १. स्वाध्यायका महत्त्व-अहो ! मुझ जैसे अल्पज्ञ को घर बैठे समस्त विश्व का साक्षात्कार कराने वाली माँ-सरस्वती का उपकार । यदि यह न होती तो आज इतनी निकृष्ट परिस्थिति में जब कि देव दिखाई देते हैं न गुरु, मुझे शान्ति की बात कौन सुनाता? शान्ति-मार्ग की साधना के अन्तर्गत आज स्वाध्याय की बात चलनी है। शान्ति-प्राप्ति की सिद्धि के अर्थ आवश्यकता इस बात की है कि जिस किस प्रकार भी अभिलाषा-प्रवर्द्धक विकल्पों का, भले कुछ देर के लिये सही, संवरण कर दिया जाय, प्रशमन कर दिया जाय । उपाय निकला यह कि सारी जीवन-चर्या में से आध या पौन घण्टा अवकाश निकालकर, उतने समय मात्र के लिये गृहस्थ के वातावरण को बिल्कुल भूलने तथा शान्ति का स्मरण करने का प्रयत्न कीजिए । मन्दिर में जाकर देव दर्शन या पूजन कीजिये अथवा गुरु की शरण में जाकर उनकी उपासना कीजिये । परन्तु विचार करने पर यह बात ध्यान में आये बिना न रहेगी कि इन कामों में थोड़ी देर ही सलंग्न रह सकता हूं। स्वतन्त्र-रूप में अपने हृदय से निकाल-निकालकर कब तक प्रभु-भक्ति के उद्गार प्रकट कर सकूँगा? सम्भवत: चार-पाँच दिन तक बना रहे यह क्रम, परन्तु तत्पश्चात वे उद्गार सरीखे दीखने वाले भाव शब्दमात्र ही रह जायेंगे और मन अपना काम करता रहेगा गृहस्थी में घूमने का। तात्पर्य यह कि शान्ति के दर्शनों में चित्त अटकाने का काम इस प्रथम भूमिका में अधिक देर तक किया जाना बहुत कठिन है। इसलिये इन कामों के अतिरिक्त कोई और काम ऐसा ढूंढना होगा जिसमें कि बहुत अधिक देर तक उपयोग को अटकाया जा सके, और इतना अटकाया जा सके कि शान्ति की बातों के अतिरिक्त इसे अन्यत्र जाने को आवकाश न मिले । सौभाग्यवश एक उपाय निकल ही आया, और वह है 'स्वाध्याय'।। दूसरा प्रयोजन यह है कि भले ही गुरु में शान्ति के दर्शन कर पाया हूं पर इस शान्ति से बिल्कुल अपरिचित मुझ को शब्दों के बिना कौन यह बताये कि इसकी प्राप्ति अमुक प्रकार होनी सम्भव है ? नमूना अपना स्वरूप बता सकता है पर अपने बनाने का उपाय नहीं। मुझ को तो अशान्त से शान्त बनना है और बड़े विकट वातावरण में रहते हुये बनना है। क्या-क्या प्रक्रियायें करूँ, जीवन को कैसे ढालूं जो इस प्रयोजन की सिद्धि हो? ठीक है कि देव दर्शन और गुरु उपासना भी इस मार्ग में बड़ी सहायक प्रक्रियायें हैं, परन्तु मन्दिर के समय से बचे जीवन के इतने लम्बे काल में क्या वैसे ही वर्तन करता रहूँ जैसे कि अब कर रहा हूं? ऐसा ही करता रहूँ तो देव व गुरु के दर्शनों से प्राप्त हुई शान्ति थोड़ी देर भी न टिक सके और जीवन के २४ घण्टे अत्यन्त तीव्र व्यग्रता में बिताये जाने के कारण, मन्दिर में प्रवेश करते समय भी तत्सम्बन्धी विकल्पों के दृढ़ संस्कारों का त्याग थोड़ी देर के लिये भी न कर सकूँ। अत: कुछ ऐसी बातें भी अवश्य होनी चाहिये जिनको वर्तमान परिस्थिति में रहते हुये भी मैं अपने चौबीस घण्टों के जीवन में किञ्चित् उतार सकू और विकल्पों की तीव्रता में तनिक मन्दता ला सकू। कौन बताये यह बातें मुझे। घबरा नहीं जिज्ञासु ! वह देख सामने से आती हुई प्रकाश की एक रेखा अब भी तुझे बुला रही है अपनी ओर । चल, कुछ प्रकाश मिलेगा जिसकी सहायता से तू अपने जीवन को पढ़ सकेगा कि क्या कुछ और करना है तुझे। ओह ! यह तो वाणी है, माँ सरस्वती है, कितना शान्त है इसका स्वरूप जिसके दर्शन मात्र से इतनी तृप्ति बातें सुनने से क्या न होगा? कृपा कीजिए माता ! मुझे मार्ग दर्शाइए, देव तथा गुरु दर्शन से आने वाली क्षणिक शान्ति ने मेरे चित्त में अब यह लग्न उत्पन्न कर दी है कि जिस-किस प्रकार भी इसमें अधिकाधिक वृद्धि करूँ। अब गृहस्थी सम्बन्धी व्यग्रता साक्षात्-रूप से मुझको दाह उत्पन्न करती प्रतीत होने लगी है। मेरी रक्षा करो माँ। स्वाध्याय का अर्थ है स्व+अध्याय या स्व-अध्ययन, अर्थात् निज शान्त स्वरूप का अध्ययन या दर्शन । यद्यपि देव-दर्शन व गुरु-उपासना में भी यही कार्य सिद्ध होने के कारण वे दोनों कार्य भी स्वाध्याय कहे जा सकते हैं परन्तु Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १५९ २. शास्त्र-विनय अधिक देर तक विकल्पों से बचकर कुछ अधिक शान्ति में स्थिति पाने के अर्थ यह तीसरा कार्य अधिक उपयोगी है। अत: मुख्यत: स्वाध्याय उस तीसरी प्रक्रिया का नाम है जिसमें समावेश पाता है उपदेश, मौखिक या लिखित। यद्यपि देव से भी कुछ मूक-उपदेश प्राप्त हुआ, पर उसका क्रम अधिक देर तक न चल सका । गुरु के द्वारा भी मौखिक उपदेश दिया गया जिससे महान कल्याण हुआ और जी चाहा कि निरन्तर इस अमृत का पान करता रहूँ । जितनी देर तक उपदेश सुनता रहा, जैसा कि यहाँ प्रवचन सुनते हुये आपको प्रतीत होता है, मानो मैं सब कुछ भूल गया, जीवन में एक उत्साहसा आता प्रतीत होता रहा, कुछ प्रेरणा मिलती रही । परन्तु कहाँ है मेरा इतना सौभाग्य कि गुरु प्रतिदिन मुझको मिलते रहें? आज मिले कल नहीं, रमते जोगी हैं, वन-वन विचरते हैं, क्या जाने किधर निकल जायें, और फिर मेरे लिये वही अन्धकार । आज तो समस्या ही दूसरी है, एक दिन का भी गुरु का सम्पर्क होना सम्भव प्रतीत नहीं होता, गुरु ही दिखाई नहीं देते । जहाँ दर्शन की ही सम्भावना नहीं वहाँ उपदेश कैसा? इस प्रकार रह गया मैं कोरा का कोरा, असमञ्जस में पड़ा, बग़लें झाँकता और विचारता कि क्या करूँ, कैसे रक्षा करूँ इन दुष्ट विकल्पों से अप सौभाग्यवश सरस्वती माँ ने आशा दिलाई, और वह देखो अब भी कितने प्रेम से बुला रही है मुझे अपनी ओर । अब कोई चिन्ता नहीं, आश्रय मिल गया, ऐसा कि चाहे कितनी ही देर सुनता रहूँ उपदेश, चाहे जितना समय बिता दूं और विकल्पों को प्रवेश पाने का अवकाश न मिले। जो हर समय मेरे पास है, कहीं वन आदि में जाने की आवश्यकता नहीं अर्थात् गुरुओं का ही लिखित उपदेश, आगम या शास्त्र । जितनी देर चाहूँ पढूं, जितनी बार चाहूँ पलूं, जब चाहूँ विचारूँ, जहाँ चाहूँ विचारूँ, जैसी अवस्था में चाहूँ विचारूँ और विशेषता यह कि वही गुरु की बात, वही प्रतिध्वनि, मानो साक्षात् गुरु ही बोल रहे हैं, सामने बैठे। गहन तथा गम्भीर से गम्भीर समस्याओं का सरल उपाय बता देने में समर्थ, यह आगम ही है वास्तव में सरस्वती । शान्ति में स्नान तथा अन्तर्मल शोधन के लिये यही यथार्थ गंगा है, और विकल्पों से मेरी रक्षा करने के कारण यही माता है। स्वाध्याय का अर्थ शास्त्र को पढ़ना मात्र नहीं है बल्कि उसका अर्थ है जिस-किस प्रकार भी शान्ति-मार्ग के पदेश का रहस्यार्थ ग्रहण करना तथा उसमें इस अत्यन्त चंचल मन को अटकाना । इसलिये "विशेष ज्ञानी या उपयक्त वक्ता के मुख से वह रहस्य सुनना, विशेष स्पष्टीकरण के अर्थ शंकायें उठना, प्रश्न कर-करके समाधान करना, अवधारित अर्थ को एकान्त में पुन: पुन: चिन्तवन करना या विचारना, जो कुछ समझा है उसका परम्परा या आम्नाय से मिलान करके परीक्षा करना कि ठीक समझा हूँ या नहीं, कही भूल तो नहीं है, यदि भूल हो तो पक्षपात तजकर उसके सुधार का प्रयत्न करना, जो निर्णय किया है उसका उपदेश अन्य को देना या जो समझा है उसको लिखना” यह सब स्वाध्याय है कोई पढ़ना जाने या न जाने, उपदेश देना जाने या न जाने किसी न किसी प्रकार स्वाध्याय अवश्य कर सकता है और मार्ग का निर्णय कर अपना हित कर सकता है। २. शास्त्र-विनय देव तथा गुरु की भाँति स्वाध्याय में भी विनय तथा बहुमान अत्यन्त आवश्यक है, विनय-रहित सुना या पढ़ा बेकार है । गुरु व वाणी के प्रति बहुमान न हो तो कोई भी बात सीखी नहीं जा सकती। मुझे केवल पढ़कर स्वाध्याय की रूढ़ि पूरी नहीं करनी है बल्कि कुछ हित की बात सीखनी है। विनय-युक्त होकर ही सीखा जा सकता है कुछ, जिस प्रकार कि लक्ष्मण ने सीखी थी विद्या रावण से, अथवा राजा ने सीखी थी विद्या चोर से (दे०४०/३.२) इसीलिए शास्त्र को पुस्तक मात्र न देखकर साक्षात् गुरु के रूप में देखो, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि प्रतिमा में जीवित देव के दर्शन किये थे। शास्त्र जड़ नहीं हैं, यह साक्षात् बोलकर मेरा हित दर्शा रहा है, पद-पद पर ठोकर से बचा रहा है, गहन से गहन ग्रन्थियों को सुलझा रहा है । अहो इसका उपकार? न जानी, न देखी, न अनुभवी, अत्यन्त रहस्यमयी सूक्ष्म से सूक्ष्म बात को हथेली पर रखकर दर्शा रहा है। कितनी शीतलता प्रदायक है और प्रकाश-वर्द्धक है इसकी शरण? इसकी विनय अत्यन्त आवश्यक है। बिना नहाये व हाथ धोये इसे छूने में, बिना शुद्ध वस्त्र पहने इसे हाथ लगाने में, इसकी अविनय है। शुद्धता व अशुद्धता के विवेक रहित जिस-किसी स्थान में बैठकर इसे उपन्यास की भाँति पढ़ने में इसकी अविनय है। उठाते व धरते समय अत्यन्त विनय से साष्टांग नमस्कार किए Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १६० ३. शास्त्र क्या बिना, उद्दण्डता से सामने जाकर बैठ जाने में इसकी अविनय है। स्थान एकान्त व शुद्ध होना चाहिए, मन्दिर ही उसके लिये सर्वोत्तम स्थान है, और घर पर भी यदि पढ़ें तो किसी एकान्त कमरे में ही पढ़ें, जहाँ जूते आदि न आते हों। जिस-किस समय में पढ़ना योग्य नहीं, जब अन्य विकल्पों से किञ्चित मुक्ति मिले तब ही पढ़ना योग्य है। रूढ़ि पूरी करने मात्र को एक दो लकीर इधर-उधर से जैसे-तैसे पढ़कर जल्दी से भागने का अभिप्राय रखते हुये पढ़ना, पढ़ना नहीं दण्ड है और बिना स्पष्ट उच्चारण किए, बिना अर्थ समझे पढ़ना भी पढ़ना नहीं रूढ़ि है। इस प्रकार पढ़ना इसकी अविनय है। अत: सर्व बातों का विचार करके, अपने लिये अत्यन्त कल्याणकारी समझते हुये, कुछ जीवन में उतारने योग्य उपयोगी बातें सीखने पर इसके पढ़ने या सुनने से लाभ हो सकता है। केवल पढ़ने मात्र के अभिप्राय वालों के लिये तो यह कुछ पत्रों का ढेर मात्र है, लाभदायक कुछ नहीं । जैसी दृष्टि से पढ़ेगा वैसा ही फल मिलेगा। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि 'स्वाध्याय' मन्दिर की चार दीवारी के अन्दर ही हो सकनी सम्भव है, बाहर नहीं। जो कुछ पढ़ा या सुना है उसका चिन्तवन हम कहीं भी बैठकर कर सकते हैं, कैसी भी अवस्था में कर सकते हैं, किसी भी समय में कर सकते हैं और इसलिये स्वाध्याय चौबीस घण्टे की जा सकती है । यद्यपि इसी प्रकार मन के द्वारा देव व गुरु के दर्शन भी सर्वत्र व सर्वदा किये जा सकते हैं, परन्तु जैसा कि पहले बताया जा चुका है उसमें अधिक देर स्थित नहीं रह सकते । शास्त्र में पढ़े या सुने तत्त्वों-सम्बन्धी विचारना में और तत्सम्बन्धी तर्क-वितर्कों में हम कई-कई घण्टे बिता सकते हैं । अत: यही है स्वाध्याय का महत्व और इसीलिये इस मार्ग में बहुत आवश्यक व उपयोगी है यह । ३. शास्त्र क्या हे मातेश्वरी सरस्वती ! अब अपने इस बालक को अनाथ न रहने दो, तुम्हारी अवहेलना करके अनाथ बना दर-दर की ठोकरें खाता रहा, अब अपनी गोद में स्थान दो । स्वाध्याय का प्रकरण है—इसका प्रयोजन, इसका अर्थ व इसके प्रति विनय की बात आ चुकी, अब विचारना यह है कि कौन से शास्त्र स्वाध्याय करने योग्य हैं। प्रारम्भ से आज तक मैंने किसी बात को बिना परीक्षा किये अन्धविश्वासी बनकर नहीं अपनाया। मैं वैज्ञानिक बनकर निकला हूँ, मैं खोजी बनकर निकला हूँ, बिना क्या और क्यों किसी भी बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं । देव व गुरु को बिना परीक्षा किये मैंने स्वीकार न किया, तो शास्त्र को कैसे कर लूं? देव व गरु की भाँति यहाँ भी हम नियम नहीं बना सकते कि अमक ही सच्चा शास्त्र है, क्योंकि भिन्न-भिन्न अभिप्रायों के आधार पर आज अनेकों शास्त्र या पुस्तकें या साहित्य लोक में दिखाई दे रहे हैं। किसी को सर्वथा झूठा नहीं कहा जा सकता और किसी को सर्वथा सच्चा भी नहीं कहा जा सकता । सच्चे व झूठे की पहिचान अभिप्राय पर से होती है । डाक्टरी सम्बन्धी जानकारी का अभिप्राय रखने वाले के लिये डाक्टरी सम्बन्धी साहित्य सच्चा और अन्य सब झूठा, एन्जीनियरिंग पढ़ने की अभिलाषा रखने वाले के लिये एन्जीनियरिंग विषयक साहित्य सच्चा और अन्य सब झूठा । इसी प्रकार जिसका जो भी विषय पढ़ने या सीखने का अभिप्राय हो उसके लिये तत्सम्बन्धी साहित्य ही सच्चा कहा जा सकता है, उसके अतिरिक्त अन्य नहीं । यहाँ हम किसे सच्चा शास्त्र व साहित्य स्वीकार करें? आओ खोज करें इसकी। चलो पहले अपने भीतर ही देखें । देखो यह रहा शान्ति विषयक सच्चा शास्त्र मेरे हृदय में । कितने-कितने सूक्ष्म रहस्य लिखे हैं इसमें, तर्क तथा शब्द जिनका स्पर्श करने को समर्थ नहीं। कितना बड़ा विस्तार लिखा है इसमें, सब तीर्थंकर मिलकर बताने लगे और सब गणधर मिलकर लिखने लगें तो न पूरा कहा जा सके और न पूरा लिखा जा सके। कितना अधिक स्पष्टीकरण है इसमें कि शब्द के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं। दृष्टान्त-दार्टान्त का भी भेद नही जहाँ । स्वयं ही दृष्टांत और स्वयं ही दान्ति, स्वयं ही प्रतिज्ञा और स्व ही हेत। महान है न्यास इसका। कितनी सरल भाषा है इसकी, कि कोई भी पढ़ सके, कोई भी समझ सके, मूढ़ हो या विद्वान, बालक हो या जवान । हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हैं सकल विषय इसमें । __परन्तु किसी बिरले महाभाग्य को ही परिचय है इसका। अत: आओ बाहर में खोजें, सम्भवत: कोई और भी शास्त्र मिल जाए, साहित्य की क्या कमी इस लोक में? ओह कितना विशाल है साहित्य भण्डार प्रकृति-माँ का। अणु-अणु, कण-कण है शास्त्र यहाँ, अपने-अपने विषय के अनन्त विस्तार-युक्त, बिल्कुल उपर्युक्त हृदय-शास्त्र की भाँति । सैकड़ों वर्ष बीत गये, विश्व भर के वैज्ञानिक लिखते-लिखते थक गए, परन्तु क्षुद्रातिक्षुद्र दिखने वाले इस छोटे Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १६१ ३. शास्त्र क्या से अणु का विस्तार पूरा न लिख सके आज तक । इसी प्रकार एक-एक वृक्ष, एक-एक अंकुर, एक-एक पशु, एक-एक पत्ती, एक-एक मनुष्य, जो कुछ भी है यहाँ, जड़ या चेतन, सब है अपना-अपना शास्त्र स्वयं । इन्हीं के भीतर देखकर, इन्हीं को पढ़कर, इन्हीं के विस्तार को लिखते हैं वैज्ञानिक अथवा साहित्यकार अथवा कवि। सब कुछ लिखा है इनमें, पढ़ने वाला चाहिये, जो जितना पढ़ना चाहे उतना ही मिल जायेगा उसे लिखा हुआ यहाँ । परन्तु किसमें है योग्यता स्वतन्त्र रूप से इस विशाल साहित्य को पढ़ने की, बिना सरस्वती माँ की उपासना किये । जो पढ़ने के लिये समर्थ हैं आज इसे, इन्होंने भी की है सरस्वती माँ की उपासना। परन्तु इसका भण्डार भी है अथाह । कौन सा शास्त्र चुनूं स्वाध्याय के लिये स्व-अध्ययन के लिये? स्पष्ट है कि वही शास्त्र चुनूं जिसमें स्व-विषयक बातें लिखी हों, जिसमें आत्मा के स्वरूप का, उसकी शान्ति तथा समता का अथवा इनकी प्राप्ति के उपाय का स्पष्ट तथा सरल विवेचन उपलब्ध हो । अत: शान्ति-पथ दर्शाने वाली वाणी ही सच्ची वाणी हो सकती है यहाँ, लौकिक प्रयोजन दर्शाने वाली या शरीर पोषण की बातें बताने वाली नहीं । अब कुछ बुद्धि का प्रयोग करना है। आज लोक में बहुत बड़ा साहित्य हमारे सामने है, और सब ही शान्ति पथ दर्शाने का दावा करता है, सबके ऊपर शान्ति-पथ की मोहर लगी है, सबको साक्षात भगवान से आया हुआ माना जा रहा है, और मजे की बात यह कि एक शान्ति को दर्शाने वाले होते हुये भी परस्पर एक दूसरे का विरोध कर रहे हैं, मानो एक दूसरे से लड़ रहे हैं । बड़ी विकट समस्या है, किसको सच्चा मानूं? पढ़ने बैठता हूँ तो प्रत्येक में कुछ न कुछ बातें अवश्य शान्ति प्रदान करती प्रतीत होती हैं, परन्तु आगे जाकर कुछ अन्य बातें और आ जाती हैं, जो या तो शान्ति में बाधक हैं या इस विषय से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है । और आगे जाता हूँ तो अरे ! किसी का खण्डन, और किसी का मण्डन, पढ़ने को ही जी नहीं चाहता। अहो ! यह वीतराग-वाणी का ही प्रताप है, जिससे कि मुझे यह प्रकाश मिला कि भाई ! हर साहित्य में जो बातें तुझे शान्तिप्रद प्रतीत हों, समझ ले कि वे सच्ची हैं, अथवा विचार करके तर्क व अनुभव द्वारा जो सच्ची दिखाई देती हों, मान ले कि वे सच्ची हैं, अथवा विचार करके तर्क व अनुभव के द्वारा जो सच्ची दिखाई देती हों, मान ले कि वे सच्ची हैं, भले ही वे किसी भी साहित्य में लिखी हों। सब शान्तिप्रद व सच्ची बातें एक सच्ची वाणी के ही अंश हैं जिन्हें किन्हीं ज्ञानियों ने अपने अनुभवों के आधार पर लिखा है। यह बात अवश्य है कि अधिकतर साहित्य ऐसा है कि जिसमें आदि से अन्त तक का पूर्ण मार्ग न दर्शाकर उस मार्ग का एक खण्ड मात्र दर्शाया है। इसका कारण यही है कि उसका रचयिता शान्ति को तो पकड़ पाया, पर उसे पूर्ण करने से पहले ही उसे काल के मुख में जाना पड़ा और उसकी बात अधूरी रह गई । कुछ साहित्य ऐसा भी है कि जिसमें इस अधूरी बात के साथ-साथ कुछ अन्य बातों का अथवा कुछ अप्रयोजनीय बातों का मिश्रण दिखाई देता है । तनिक सा विचार करने पर यह पेबन्द स्पष्ट दिखाई देने लगता है । ऐसा साहित्य वह है जो कि मूल रचयिताओं की कृति न होकर उसके पीछे आने वाले किन्हीं व्यक्तियों द्वारा लिखा गया है। अधूरी बात सीख लेने के कारण इनको उसकी पूर्ति के अर्थ कुछ बातें अपनी कल्पना के आधार पर, बिना उसके सच्चे व झूठेपने का अनुभव किये, इस मूल साहित्य में मिला देनी पड़ी, और वह साहित्य विकृत हो गया । उसके पीछे आने वालों ने कुछ अपने स्वार्थवश उसमें और भी बहुत सी बातें मिला दीं और आगे चलकर वह स्वार्थ बदल गया द्वेष में, जिसके कारण आ मिला उस साहित्य में खण्डन-मण्डन का विष । ___ यह तो हुई साहित्य के इतिहास की कुछ रूपरेखा, पर इतना जानने मात्र से कोई साहित्य के सच्चे व झूठेपने की परीक्षा नहीं कर सकता। अत: परीक्षा का कोई उपाय होना चाहिये । विचार करने पर एक उपाय निकल आया। देख भाई ! शास्त्र तो बेचारे जड़ हैं, वे तो स्वयं बोल नहीं सकते, उनके अन्दर तो कुछ शब्दों का संग्रह है और इन शब्दों में छिपा है वक्ता का कोई अभिप्राय । बस यदि वक्ता की परीक्षा हो जाये तो उसके वाक्यों की भी मानो परीक्षा हो गई क्योंकि शब्दों की प्रमाणिकता वक्ता की प्रमाणिकता के आधार पर होती है, जैसा कि पहले श्रद्धा सम्बन्धी उस पथिक के दृष्टान्त में बता दिया गया है । देखिये कोई ग्राहक आकर आपसे कहने लगे कि यह वस्तु अमुक दुकान पर यह भाव मिल रही है यदि आपको इस भाव देनी हो तो दे दो, तो बताइये, क्या आप विश्वास कर लेंगे उसकी बात पर? नहीं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १६२ ४. प्रयोजनीय विवेक करेंगे। क्या कारण? एक तो यह कि स्पष्ट झूठ दिखाई दे रहा है। जितने में आपको घर में भी नहीं पड़ी उतने में वह उसे कैसे बेच सकता है? परन्तु हो सकता है कि भाव गिर गया हो। इस संशय को दूर कर देता है उस ग्राहक का अपना स्वार्थ, यदि इस भाव देनी है तो दे दो। और यदि वही बात मैं आपको आकर कहूँ तो आप अवश्य स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि न मुझे आपसे मोल लेनी थी, न बेचनी थी, जैसा उस दुकान पर सुनकर आया था आपसे कह दिया, आपके घर उतने में पड़ी है कि नहीं पड़ी है, मुझे उससे क्या मतलब । अत: वक्ता की प्रमाणिकता से ही वचन की प्रमाणिकता होती देखी जाती है, और वक्ता की परीक्षा उसकी स्वार्थता व निस्वार्थता पर से की जा सकती है। तात्पर्य यह कि इस वीतरागता व शान्ति के मार्ग में वीतराग द्वारा लिखित शास्त्र ही प्रमाणिक शास्त्र कहा जा सकता है, रागी-द्वेषी द्वारा लिखित नहीं । रचयिता के अभाव में कैसे जानें कि वह वीतराग था कि रागी? यह बात शास्त्र पढ़कर जानी जा सकती है। उन वाक्यों का झुकाव किस ओर जा रहा है, किसी निजी स्वार्थ का पोषण तो करता प्रतीत नहीं होता, सर्व-सत्व-कल्याण की भावना प्रतिध्वनित हो रही है या नहीं, उन वाक्यों में माधुर्य है या कटुता, उन वाक्यों में किसी की ओर आक्षेप तो नहीं किया जा रहा है, किसी एक पक्ष का पोषण करने के लिये उस विषय के अंगभूत अन्य बातों का निषेध तो नहीं किया जा रहा है अथवा किसी बात को आवश्यकता से अधिक खेंचकर उसे एकांगी या साम्प्रदायिक रंग में तो नहीं रंगा जा रहा है, किसी मत मतान्तर पर या किसी श्रद्धा पर चोट तो नहीं की जा रही है, उसमें कहीं कोई लौकिक अभिप्राय तो दिखाई नहीं दे रहा है, कहीं किसी को अशान्ति उत्पन्न करने वाली या पीड़ा पहुँचाने वाली बात तो नहीं कही जा रही है, पहले कुछ लिखकर पीछे स्वयं उस बात का निषेध तो नहीं कर रहा है अथवा उस अपनी ही बात का निराकरण या विरोध करने की बात तो नहीं लिख रहा है, कुछ असम्भव बातें तो नहीं लिखी हैं ? इत्यादि अनेक बातें पढ़कर वक्ता की प्रमाणिकता का निर्णय किया जा सकता है। उपरोक्त तथा इसी जाति के यदि दोष वक्तव्य में दिखाई दें, तो समझ लें कि वक्ता प्रमाणिक नहीं है। इतना ही नहीं और भी अधिक सावधानी की आवश्यकता है यहाँ, क्योंकि जहाँ मिश्रित अभिप्राय पड़ा हो वहाँ परीतता की परीक्षा करना कुछ कठिन पड़ता है। अत: भले ही सारे शास्त्र में निर्दोष बातें भरी पड़ी हों, परन्तु कही एक भी कोई दषित बात दिखाई दे तो समझ लो कि उन सर्व निर्दोष बातों का कोई मल्य नहीं का नहीं करनी चाहिए कि भले दषित बात को स्वीकार न करो पर निर्दोष बात का निषेध क्यों करते हो। सो भाई ! इसके अन्दर निर्दोष बात का निषेध करने का अभिप्राय नहीं है, वक्ता का निषेध करने का अभिप्राय है । जैसा कि ऊपर दृष्टान्त में बताया गया है, एक ही बात दो व्यक्तियों के मुख से सुनकर ग्राहक के मुख से निकला हुआ वही वाक्य झूठा माना गया और मेरे मुख से निकला हुआ वही वाक्य सच्चा माना गया । कोई व्यक्ति कभी माता को माता कहता है और कभी माता को पली भी कह देता है, तो क्या कहेंगे आप उसे? "यह नशे में है, इसकी कोई भी बात ठीक नहीं। माता को माता भी बेहोशी में कह रहा है, इसे कुछ पता नहीं कि माता कौन और पत्नी कौन ।" यही तो कहोगे? बस इसी प्रकार ९९ बातें ठीक कहकर एक बात विपरीत कह रहा हो तो उसकी ९९ बातें भी ठीक नहीं हैं। या तो किसी दूसरे की नकल करके कही हैं या बिना समझे बूझे यों ही सुन-सुनाकर कह दी हैं । सम्भवत: आगे चलकर कोई ऐसी बात भी कह दे कि जो मेरे लिये अहितकारी हो और उस समय प्रमादवश में उसकी परीक्षा न करूँ तो मेरा अहित हो जाय, इसलिये इसकी सारी ही बातें मान्य नहीं हैं। अथवा जिस प्रकार कोई दुकानदार सच्चा व्यवहार करके पहले अपनी साख जमा लेता है और पीछे लोगों का रूपया मारकर भाग जाता है । उसी प्रकार स्वार्थी वक्ता पहले बहुत सी सच्ची व शान्ति की बातें बता कर अपना विश्वास जमा लेता है, और पीछे अपने स्वार्थ की बात कहकर अपना उल्ल सीधा कर लेता है. चाहे पढने वाले का हित हो या अहित इस बात की उसे चिन्ता नहीं । इसलिये ऐसे वक्ता की कोई भी बात स्वीकार करनी योग्य नहीं, भले शान्ति की क्यों न हो। यही बात यदि किसी दूसरे प्रमाणिक शास्त्र में लिखी हुई पायें तो विश्वास करने योग्य है । अत: शास्त्र की परीक्षा का उपाय यही है कि पूरे के पूरे शास्त्र में हित की बात के अतिरिक्त अन्य बात किञ्चित भी न हो, यदि एक भी बात अहित या स्वार्थ की हो या असंगत हो, तो समझ लो कि सारा शास्त्रं अप्रमाण है, पढ़ने योग्य नहीं है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १६३ ४. प्रयोजनीय विवेक ४. प्रयोजनीय विवेक शास्त्र की परीक्षा कर लेने के पश्चात् पुनः अड़चन आती है यह कि प्रमाणिक पुरुषों द्वारा लिखे गये शास्त्र भी मुख्यतः चार कोटियों में विभाजित किये गये हैं- प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग, और चरणानुयोग । १. कुछ शास्त्र तो शान्ति पथ पर चलने वालों के जीवन चरित्र दर्शाकर कोई आदर्श उपस्थित करते हैं, अर्थात् आदर्श पुरुषों की कथाओं का निरूपण करते हैं । उनको कथानुयोग या प्रथमानुयोग कहा जाता है, क्योंकि इनमें प्राथमिक जनों को शान्ति पथ की ओर आकर्षित करने का अभिप्राय छिपा है और इसलिये इनमें श्रृंगार रस आदि अलंकारों का भी प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार बताशे में रख कर कड़वी भी औषधि बालकों को खिला दी जाती है, उसी प्रकार सुन्दर-सुन्दर कथाओं तथा श्रृंगार आदि रसों के कथन के साथ, बीच-बीच में यथास्थान जीवनोपयोगी बातों का व तत्त्वों का निरूपण भी कर दिया गया है। अत: प्रथमानुयोग में चारों ही अनुयोगों सम्बन्धी बातों का सुन्दर व संक्षिप्त संग्रह मिलता है । २. कुछ ऐसे हैं जिनमें तत्त्वों का अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से निरूपण किया गया है तथा अत्यन्त परोक्ष व सूक्ष्म बातों का भी, जैसे कि कार्मण शरीर तथा उसके बनने व बिछुड़ने सम्बन्धी अथवा द्वीप समुद्रों आदि सम्बन्धी । उसे करणानुयोग कहते हैं । ३. कुछ ऐसे हैं जिनमें वस्तु का अनुभवात्मक स्वरूप दर्शाया है, स्व व पर में विवेक कराया है, सुख व दुःख का सच्चा स्वरूप बताया है तर्क व बुद्धि से उसकी अनेक प्रकार सिद्धि करते हुये वैज्ञानिक ढंग से विवेचन किया है। उसे 'द्रव्यानुयोग' कहते हैं । ४. कुछ ऐसे हैं जो हमें हमारा कर्त्तव्य व अकर्तव्य बता रहे हैं तथा अपने जीवन को किस प्रकार शान्ति के सांचे में ढालना चाहिए, किस प्रकार शान्ति प्राप्ति के अर्थ साधना करनी चाहिए, यह बता रहे हैं। इसे 'चरणानुयोग' कहते हैं । T यद्यपि ये चारों ही प्रमाणिक हैं परन्तु इस वर्तमान की भूमिका में क्या चारों ही पढ़े जाने योग्य हैं ? नहीं भाई ! इनमें से पहले दो की तो इस अवस्था में तेरे लिये आवश्यकता नहीं। प्राथमिक कोटि से तू निकल चुका है, तभी तो यहाँ बैठा सुन रहा है, इतनी रुचि से । इसलिये प्रथमानुयोग वर्तमान में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय नहीं है। अभी तक तो तू स्थूल बातों तक का भी निर्णय नहीं कर सका, सूक्ष्म को कैसे जान सकेगा ? अत्यन्त परोक्ष बातों को जैसे कर्म व द्वीप समुद्रों के वर्णन को अभी जान कर क्या करेगा, और दृष्टि सूक्ष्म बने बिना वह तेरी समझ में भी क्या आयेगा ? अतः 'करणानुयोग' भी वर्तमान दशा में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय नहीं है । यहाँ ऐसा न समझ लेना कि इनके पढने का निषेध किया जा रहा है, निषेध का अभिप्राय नहीं है बल्कि थोड़े समय में अधिक कल्याण कैसे प्राप्त हो, यह अभिप्राय है । कुछ अनुभव तथा स्थूल सिद्धान्तों का ग्रहण हो जाने के पश्चात् करणानुयोग महान उपकारी सिद्ध होगा। किसी को 'बैंगन वायले, किसी को बैंगन पच' अर्थात् जो करणानुयोग तेरे लिये प्रयोजनीय नहीं है, वह किसी अन्य के लिये जिनकी दृष्टि मञ्ज चुकी है, अत्यन्त उपकारी है, तथा जो आज तेरे लिये प्रयोजनीय नहीं है वही कल तेरे लिये उपकारी सिद्ध होगा। इसी प्रकार प्रथमानुयोग भले ही तेरे लिये इस समय उपयोगी न हो, क्योंकि तेरी श्रद्धा दृढ़ हो चुकी है, परन्तु ऐसे प्राथमिक जन जो कभी मन्दिर में भी आना नहीं जानते, उनको मार्ग की श्रद्धा कराने के लिये यही एक मात्र साधन है, क्योंकि कथाओं के आधार पर बालकों को भी कठिन से कठिन बात समझा देनी तथा उसका फल दर्शाकर उस पर दृढ़ श्रद्धा करा देनी शक्य है । परन्तु बात यह चलती है कि इस वर्तमान स्थिति कौन से शास्त्र का स्वाध्याय करूँ ? बस तो वस्तु स्वरूप-दर्शक 'द्रव्यानुयोग' से स्व-पर-भेद की बात जानने के साथ-साथ, 'चरणानुयोग' से कर्त्तव्य- अकर्तव्य पहिचानने तथा अपने जीवन को शान्ति की ओर ढालने सम्बन्धी बात जाननी चाहिए । अतः 'द्रव्यानुयोग' और 'चरणानुयोग' ये दोनों ही इस दशा में तेरे लिये विशेष प्रयोजनीय हैं। चरणानुयोग की भी दो धारायें हैं- एक अन्तरंग में वैराग्य उत्पन्न करने वाली तथा दूसरी इस जीवन में बाह्य-त्यागरूप कुछ प्रेरणा देने वाली। इन दोनों में से भी पहले चरणानुयोग की वैराग्य उत्पन्न कराने वाली धारा विशेष प्रयोजनीय है, किञ्चित् वैराग्य उत्पन्न हो जाने के पश्चात् व्रतादि का उपदेश देने वाली धारा भी महान उपकारी है। यदि किसी की बुद्धि इतनी मन्द है कि वस्तु स्वरूप को समझ नसके या वैराग्य की बात जिसके गले न उतर सके तो उसके लिये प्रथमानुयोग तथा चरणानुयोग के बाह्य त्याग वाले अंग का स्वाध्याय ही कथञ्चित इष्ट है। जिसकी बुद्धि कुशाग्र है और जिसने 'द्रव्यानुयोग' व 'चरणानुयोग' को भली भाँति अवधारण कर लिया है, उसको निज कल्याणार्थ अपने सूक्ष्म-परिणामों की परख करने के लिये 'करणानुयोग' का Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. स्वाध्याय १६४ ४. प्रयोजनीय विवेक स्वाध्याय अत्यन्त इष्ट है। जिसके पास समय अधिक है उसके लिये भी यह महान उपकारी है, क्योंकि इसकी उलझी हुई बातों को समझने में बुद्धि इतनी उलझ जाती है कि दिन जाता प्रतीत नहीं होता। इसका स्वाध्याय करते समय व्यक्ति सब कुछ भूल जाता है और किसी प्रकार के भी लौकिक विकल्प को जागृत होने के लिये अवकाश नहीं रहता। इस कथन पर से स्वयं अपनी भूमिका को पहिचान कर इन चारों में से यथा योग्य रूप में किसी भी शास्त्र का मनन करना तेरा परम कर्तव्य है । शान्ति-पथ की साधना में यह तीसरा पग है। स्वाध्याय का प्रताप-"जैनेन्द्र प्रमाण कोष" का जन्म हतीप स जमन्त्र शब्द मेष जैनेन्द्र शब्द कोष जनेन्द्र प्रमाण कोष H: अनेन्द्र प्रमाण कोष अनेन्द्र प्रमाण कोष कोर आठ मोटे-मोटे खण्डों में विभक्त, श्री जिनेन्द्र वर्णी द्वारा संकलित तथा सम्पादित यह हस्तलिपि ही वह मूल आधार है जो कि आगे चलने पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के रूप में रूपान्तरित हो गया। जगत् को चमत्कृत कर देने वाली यह अपनी जाति की प्रथम कृति है। कोई भी सैद्धान्तिक शब्द ऐसा नहीं तथा कोई भी आगम-प्रणीत विषय ऐसा नहीं जिसका अर्थ तथा पूरा विवरण इनमें निबद्ध न हो। कोई भी सैद्धान्तिक शंका ऐसी नहीं जिसका समाधान इसमें प्राप्त न हो । “जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश" के रूप में प्रकाशित इस महान कृति से लेखक, प्रवक्ता, विद्यार्थी, अध्ययेता, सन्धाता तथा जैन विषयों पर शोध करने वाले स्नातकगण आज किस प्रकार अनुगृहीत हो रहे हैं, यह बताने की आवश्यकता नहीं। भारतीय ज्ञान पीठ के शब्दों में कहूं तो यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि जो कार्य अनेक विद्वान कई वर्षों तक लगकर सम्पन्न कर पाते उसे एक ही साधक (श्री जिनेन्द्र वर्णी) ने १७ वर्षों की अनवरत तन्मयता के फलस्वरूप अकेले सम्पन्न किया है।" इस आश्चर्यपूर्ण महान कृति की पृष्ठ भूमि में श्रद्धेय श्री वर्णी जी की वह कठोर तपस्या निहित है, जो उनके एकान्त प्रिय अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगी व्यक्तित्व ने मूक भाव से केवल जिनवाणी की उपासना के अर्थ १७ वर्ष पर्यन्त की है । 'स्वाध्याय: परमं तपः' । ब्र० राजमल भोपाल Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १. संयम सामान्य; २. प्रेरणा; ३. इन्द्रिय विषय; ४. अन्तरंग व बाह्य संयम; ५. इन्द्रिय संयम; ६. प्राण संयम; ७. पञ्च पाप; ८. हिंसा; ९. संयम का प्रयोजन; १०.विश्व प्रेम; ११. तात्त्विक समन्वय। १. संयम सामान्य-शान्ति की खोज में आगे बढ़ने वाले पथिक को क्रमश: इसकी प्राप्ति का उपाय बताया जा रहा है । यह उपाय अत्यन्त सरल है जिसे गृहस्थ अवस्था में रहते हुये भी अपनाया जा सकता है । इसके लिये गृहस्थ छोड़कर तुरन्त साधु हो जाने की आवश्यकता नहीं। इसको आंशिक रूप से भी धारण करने वाले को तत्क्षण सहभावी शान्ति का वेदन अवश्य होने लगता है । उस शान्ति के रसास्वादन में इस मार्ग की कठिनाइयाँ वास्तव में कठिनाइयाँ प्रतीत नहीं ती, जिस प्रकार कि धन के लोभ से प्रकटी धनोपार्जन की रुचि में व्यापार की कठिनाइयाँ वास्तव में कठिनाइयाँ प्रतीत नहीं होती। गृहस्थ के योग्य पूर्वोक्त छ: अंगों में से तीन अंग, देव-दर्शन, गुरु-उपासना व स्वाध्याय बताये जा चुके । अब चौथे अंग संयम का प्रकरण चलता है । मार्ग के इन पृथक्-पृथक् करके बताये जाने वाले अंगों का यह अर्थ नहीं कि जीवन में भी ये पृथक्-पृथक् पालन किये जावें अर्थात् जब देव-दर्शन हो तब गुरु उपासनादि अन्य अंगों का अभाव हो और जब संयम पालन करता हो तो देवदर्शनादि का अभाव हो । ये चारों तथा आगे बताये जाने वाले जितने भी अंग हैं वे सब शरीर के हाथ-पाँव आदि अंगोंवत् एक गृहस्थ जीवन में युगपत पालन करने योग्य होते हैं । युगपत होने पर ही उस गृहस्थ-जीवन शान्ति का मार्ग बनता है । पृथक्-पृथक् रहने पर वास्तव में वे मार्ग नहीं रहते और न ही उन्हें जीवन के अंगरूप स्वीकार किया जा सकता है। वे बन्दर की नकल मात्र बनकर रह जायेंगे जिनका कोई मूल्य नहीं। समझे बिना तथा उन अंगों में शान्ति का दर्शन किये बिना सर्व अंग शून्यमात्र हैं, निष्फल हैं । क्योंकि शान्ति पथ की प्राप्ति के लिये अपनाये गये ये सर्व अंग यदि तत्क्षण शान्ति वेदन न करा सके, तो फल के अभाव में इन सर्व अंगों को निष्फल ही तो कहेंगे। संयम अर्थात् 'सं + यम' । 'स' अर्थात् सम्यक प्रकार, 'यम' अर्थात् यमन करना, नियंत्रण करना, दबाना, सम्यक् प्रकार दबा देना व्याकुलता उत्पादक उन विकल्पों को जो कि विषय-भोगों के दृढ़ संस्कारवश या कर्तव्य-हीनतावश प्रतिक्षण नया-नया रूप धारण करके मेरे अन्तष्करण में प्रवेश पाते या आस्रवते हुए मुझे अ तथा विहल बनाये रहते हैं। शान्ति के उपासक को और चाहिये ही क्या? विकल्पों का पर्णतया अभाव ही तो इष्ट है और विकल्पों के आस्रवन का निरोध संवर है। अत: संयम संवर का ही एक अंग है। पूर्ण संयम के प्रतीक हैं देव व गुरु, जिनकी भक्ति व उपासना की बात चल चुकी, जिनके दर्शनों से मैंने शान्ति का स्वरूप समझा, उस शान्ति का जो कि संयम की अविनाभावी है। उनसे मुझे संयम धारण करने की शिक्षा मिलती है, इसलिये देव-दर्शन व गुरु-उपासना का फल जीवन को संयमित बनाने में ही निहित है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि उन संयमी गुरुओं द्वारा प्रणीत आगम में बताया गया है । स्वाध्याय से उसी संयम को धारण करने की जिज्ञासा का प्रोत्साहन तथा उसे धारण करने के मार्ग का ज्ञान कराया गया है, उस संयम को जिसको कि स्वयं अपने जीवन में लाकर उन गुरुओं ने यह सिद्ध कर दिया कि इसका पालन अशक्य नहीं है और इसका पालन ही शान्ति है । उन्होंने तभी उपदेश दिया जब कि अपने जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोग करके उसके फल का निर्णय स्वयं कर लिया। संयम को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—एक वह भाग जिसके द्वारा मैं अपनी इन्द्रिय विषयों सम्बन्धी लोलुपता व आसक्ति का सम्यक् प्रकार दमन कर सकू अर्थात् 'इन्द्रिय-संयम' और दूसरा वह जिसके द्वारा इस जीवन में अपनी शान्ति की रक्षा करने के साथ-साथ दूसरे प्राणियों के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ बना रह सकू, अर्थात् उन कुटिल संस्कारों का सम्यक् प्रकार दमन करने में समर्थ हो सकू जो कि मुझे कर्त्तव्यहीन बनाये हुये हैं, अर्थात् शान्त Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १६६ ३. इन्द्रिय-विषय विभाजन 'प्राणसंयम' इनके कारण मैं स्वयं मनुष्यता को भूलकर अपने साथी अन्य छोटे-बड़े प्राणियों के साथ सम्भवत: पशुओं से भी अधिक नीचा राक्षसी व्यवहार कर रहा हूँ और फिर भी अपने को मनुष्य कहने का गर्व करता हूँ। क्रमपूर्वक इन दोनों अंगों का विस्तार सहित कथन किया जायेगा, धैर्य से सुनना। २. प्रेरणा—गुरुदेव तो पूर्ण हो चुके हैं, इन्द्रिय संयम में भी और प्राण संयम में भी। पाँचों इन्द्रियों को अपनी दासी बना चुके हैं वे । किसी प्राणों को भी किसी प्रकार की बाधा देने के लिये अवकाश नहीं रहा है उनके जीवन में । कषायों पर भी पूर्ण नियन्त्रण कर लिया है उन्होंने। वे हो चुके हैं पूर्ण इन्द्रिय-संयमी, पूर्ण इन्द्रिय-विजयी, पूर्ण कषाय-विजयी, पूर्ण अहिंसक या प्राण संयमी। आज सौभाग्यवश उनकी शरण में आकर भी क्या मैं खाली लौट जाऊँगा, जैसा कि अनादि काल से करता आया हूँ? नहीं, अब तक भूला तो भूला अब वही भूल पुन: न दोहराऊँगा, इस अवसर को अब न खोऊंगा, इस अवसर की महान दुर्लभता को मैं अब जान पाया हूँ । प्रभु ! मुझे शक्ति प्रदान करें कि मैं भी आपके समान संयमी बनकर जीवन शान्त बना सकू, ऐसा ही जैसा कि आपका है। आपकी भाँति ही अभिप्राय में साम्यता को स्थान दे सकू। सुनता हूँ कि जो आपकी शरण में आता है वह आप सरीखा बन जाता है। धनिक का धनिकपना भी किस काम का जो याचक को अपने समान न बना ले? आप आदर्श हैं, क्या मुझ पर दया न करेंगे, क्या मुझको न उभारेंगे? माना कि मैं अपराधी हूँ, परन्तु आप अपराधियों का ही उद्धार करने वाले हैं, निरपराधियों को आपकी आवश्यकता ही क्या? हे अधमोद्धारक! अब सही नहीं जाती व्याकलता की मार, मेरी रक्षा कीजिये। परन्तु भो चेतन ! क्या इस प्रकार की अनुनय, विनय, प्रार्थना, स्तुति तथा याचना मात्र से काम चल जायेगा? प्रभु ने तो दया कर दी, अपने जीवन के आदर्श के आधार पर तुझे तेरा जीवनादर्श दर्शा दिया। अब जीवन को उद्यमपूर्वक वैसे सांचे में ढालना तेरा काम है । यह काम तो प्रभु न करेंगे। अत: अत्यन्त हितकारी इस संयम को अब शीघ्रातिशीघ्र जीवन में उतारने का प्रयत्न कर, साहसी बन, आगे बढ़, कायरता छोड़, बाधाओं से मत घबरा । वीर-प्रभु को आदर्श माना है तो वीर बन । यदि भविष्य में अमक परिस्थिति हो गई 'तो'? यह घातक 'तो' ही वास्तव में तेरे जीवन की कायरता है. इसे त्याग। प्रभ का आश्रय लिया है तो विश्वास कर कि तेरे जीवन में इस 'तो' के लिये अब समय न आयेगा। ___अरे ! यह चिन्ता, यह असमंजस कैसा? हाँ हाँ ठीक है, एकदम वैसा हुआ नहीं जा सकता, क्योंकि शक्ति की हीनतावश और पूर्व-संस्कारवश इतनी बाधाओं का तेरे द्वारा सहा जाना वर्तमान में अशक्य है। परन्तु पूर्णतया वैसा बनने के लिये तो वर्तमान में नहीं कहा जा रहा, वैसा बनने का प्रयत्न करने के लिये ही तो कहा है। इस प्रयल में छिपी है इस मार्ग की सरलता व शक्यता । घबराने व डरने की आवश्यकता नहीं। बार-बार रस्सी के गुजरने से पत्थर भी कट जाता है. इसी प्रकार धीरे-धीरे जीवन को इस ओर झुकाने से क्या एक दिन तू आदर्श के अनुरूप न बन जायेग जायेगा? भले समय अधिक लगे इस बात की चिन्ता नहीं, परन्तु कर तो सही । एक बार प्रारम्भ कर, पूर्णता के लक्ष्य से, पूर्णता के अभिप्राय से, धीरे-धीरे आगे चल, अर्थात् शक्ति का संतुलन करता हुआ परन्तु शक्ति को न छिपाता हुआ। क्रमश: थोड़ा-थोड़ा विषयों पर काबू पाने से एक दिन तू भी पूर्ण इन्द्रिय-विजयी हो जायेगा, जिसका उल्लेख आगे उत्तम-संयम नामक ३९ वें अधिकार में किया जाने वाला है। ३. इन्द्रिय-विषय विभाजन-संयम के इन दो भागों में से पहले इन्द्रिय संयम की बात चलती है । इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ मुझे विश्लेषण द्वारा अपने विषयों को दो भागों में विभाजित करना होगा-एक आवश्यक भाग अर्थात् 'नेसैसेरीज़' और दूसरा अनावश्यक भाग अर्थात् 'लक्सरीज़' । शरीर पर या कुटुम्बादि पर अर्थात् मेरी गृहस्थी पर किसी भी प्रकार की बाधा, तीव्र-रागवश या शक्ति की हीनतावश, आज मझ से सहन न हो सकने के कारण, भले आज आवश्यक विषयों को अर्थात् नेसैसेरीज़ को त्यागने में या उनकी उपेक्षा करने में मैं अपने को समर्थ न पाऊँ, परन्तु अनावश्यक विषयों अर्थात् लक्सरीज़ को त्यागने में मैं आज भी समर्थ हूँ क्योंकि इनके त्याग से मेरे शरीर में या गृहस्थी में कोई बाधा आनी सम्भव नहीं । यदि ऐसा अभिप्राय बन जाये तो अवश्य ही इन्द्रिय-विषयों के उस बड़े भाग से मैं बच Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १६७ ५. इन्द्रिय- संयम जाऊँ, जो मेरे जीवन में अधिक भाररूप हैं, जिसके कारण मुझे अधिक व्याकुलता हो रही है, जिसके कारण मैं अपना विवेक भूल बैठा हूँ, जिसके कारण मैं हित को अहित और अहित को हित मान रहा हूँ, इस प्रकार विकल्पों के एक बड़े समूह को जीत लेने के कारण मैं पूर्ण रूप से न सही, परन्तु आंशिक रूप से अवश्य इन्द्रिय-विजयी बन जाऊँगा । I परन्तु यहाँ इतना समझ लेना आवश्यक है कि इन्द्रिय शब्द का तात्पर्य यहाँ शरीर में दीखने वाले ये कुछ नेत्रादि चिन्ह मात्र नहीं हैं, बल्कि है मेरे अन्दर का वह अभिप्राय जिसके कारण कि न मालूम क्यों आप ही आप इन नेत्रादि इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गये अर्थात् जाने गये पदार्थों व विषयों की ओर रुचिपूर्वक मैं झुक जाता हूँ, जिसके कारण कि उन-उन पदार्थों व विषयों का उन-उन इन्द्रियों से ग्रहण करते समय मुझ में स्वतः ही कुछ मिठास वर्तने लगता है, कुछ आनन्द सा आने लगता है, और इस प्रकार का भाव आ जाने पर उनके पुनः-पुनः ग्रहण की इच्छा अन्तरंग में जागृत होने लगती है । अहो ! यह तो बहुत स्वादिष्ट है, ऐसा ही और भी लाकर देना, कुछ ऐसा सा भाव ही वास्तव में यहाँ इन्द्रिय शब्द का वाच्य बनाया जा रहा है। ऊपर कहे जाने वाले अनावश्यक विषयों का ग्रहण तो सर्वत: उन्हीं भावों के आधार पर होता है, परन्तु आवश्यक विषयों के ग्रहण का आधार बहुत अंशों में है सहन-शक्ति की कमी, तथा थोड़े अंशों में है वह उपरोक्त विशेष झुकाव का भाव । इच्छाओं को भड़काने के कारणभूत इस विशेष झुकाव वाले भाव का निषेध ही प्रथम अवस्था में कर्त्तव्य है । क्योंकि उसके त्याग से मेरी शान्ति में बाधक इच्छाओं का एक बड़े अंश में निराकरण हो जाता है, इसलिये क्रमश: संयम धारण के प्रकरण में पहले अनावश्यक विषयों के त्याग का उपदेश दिया गया है । मुझे पद-पद पर अपनी शान्ति की रक्षा का अभिप्राय लेकर चलना है अत: इस शान्ति में जो भी बात अधिक बाधा पहुँचाती प्रतीत हो उसे ही पहले मार्ग से हटा देना आवश्यक है । ४. अन्तरंग व बाह्य संयम—अन्तरंग अभिप्राय टालने को कहा है न ? बाहर में त्यागने से क्या लाभ? अरे प्रभु ! दया कर अपने ऊपर, तू स्वयं यह प्रश्न करके सन्तोष नहीं पा रहा है, फिर भी आश्चर्य है कि प्रश्न किये जा रहा है ? क्या बाहर का ग्रहण बिना अन्तरंग के अभिप्राय के सम्भव है ? क्या बिना अन्तरंग झुकाव के ही इतना व्यग्रचित्त बना अपनी शान्ति का गला घोंट रहा है ? नहीं-नहीं, ऐसा न कह, बाह्य का ग्रहण अन्तरंग अभिप्राय का लक्षण है । यह हो सकना सम्भव है कि बाहर का त्याग हो जाये और अन्तरंग का अभिप्राय न छूटे, पर ऐसा होना असम्भव है कि अन्तरंग का अभिप्राय छूट जाने पर बाह्य विषय न छूटे । अतः अन्तरंग त्याग पर मुख्यता से जोर दिया जा रहा है इसका अभिप्राय बाहर का ग्रहण नहीं है । हर क्रिया के मुख्य दो अंग हैं, एक अन्तरंग और दूसरा बाह्य, जैसा कि पहले देव दर्शन व गुरु उपासना में बताया जा चुका है। दोनों अंग अविनाभावी रूप से साथ-साथ चलते हैं । यहाँ भी अन्तरंग क्रिया है उन उन वस्तुओं के प्रति झुकाव का त्याग, और तत्फलस्वरूप बाह्य क्रिया है उन उन अनावश्यक वस्तुओं का त्याग । यद्यपि आवश्यक वस्तुओं वाले भाग में से भी मिठास लेने वाले अन्तरंग भाव का त्याग हो जाता है, परन्तु शक्ति के अभाव के कारण शरीर के रक्षणार्थ बाह्य विषय का त्याग नहीं होता। यह बात कुछ अटपटी सी लग रही होगी, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । शान्ति के उपासक को वीतरागता के प्रति गमन करने में उत्साह वर्तता है, अत: उसे स्वभावतः उन-उन विषयों में से मिठास आना बन्द हो जाता है । वे अब उसे कुछ जंजाल से भासने लग जाते हैं । ५. इन्द्रिय- संयम इन्द्रिय संयम और प्राण संयम ऐसे द्विविध संयमों में से पहले इन्द्रिय संयम की बात चल रही है । इन्द्रिय पाँच हैं, स्पर्शन, रसना आदि, और इसलिये इनके विषय भी पाँच प्रकार के हैं। पाँचों के अनावश्यक भाग का त्याग ही तेरी भूमिका वालों के लिये इन्द्रिय संयम है। अब इन पाँचों का पृथक्-पृथक् निर्देश प्रारम्भ किया जाता है। (१) उदाहरण रूप में स्पर्शन - इन्द्रिय को लीजिए। इसके दो विषय हैं - एक गरमी सर्दी का भान करते हुये सुख-दुःखी होना, और दूसरा कोमल-कठोर तथा चिकने रूखे को स्पर्श करके सुखी - दुःखी होना । इस इन्द्रिय सम्बन्धी इन दो विषयों में से पहला विषय इस अल्प गृहस्थ भूमिका के लिये आवश्यक है, क्योंकि गरमी के दिनों में गरमी और सर्दी के दिनों में सर्दी सहन करने को मैं समर्थ नहीं हूं । यद्यपि पूर्ण आदर्श की दृष्टि में वह भी त्याज्य है, तदपि इस I Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १६८ ५. इन्द्रिय-संयम भूमिका में इसका त्याग आवश्यक नहीं । इसलिये भले ही वस्त्रादि पहनें, शीतादि-उपचार करूँ, पवन प्रयोग में लाऊँ, परन्तु भी चेतन । सुन्दर, कीमती, सिल्की व ऊनी वस्त्र, जरी के वस्त्र, जेवर तथा अन्य भी इसी प्रकार की कोमल व शरीर को सजाने के अभिप्राय से ग्रहण की गई वस्तुएं, शरीर को मल-मलकर धोने के लिये साबुन व इसे चिकना बनाने के लिये तेल-क्रीम तथा इसी प्रकार के अन्य भी प्रयोग यदि त्याग दिये जाएँ, तो विचार कि तेरी गृहस्थी में इससे क्या बाधा पड़ेगी, या तुझ को किस ऐसी पीड़ा का वेदन होगा जिसको कि तू सह न सकेगा? कुछ भी तो नहीं, ये विषय तो सर्वत: अनावश्यक ही हैं। इनके त्याग से बाधा होनी तो दूर बहुत सी बाधाओं का प्रतिकार हो जायेगा। किस प्रकार सो देखिए । आज से पचास वर्ष पूर्व का अपने पूर्वजों का जीवन हमें याद है, जिनके पास होते थे गरमी-सर्दी से बचने के लिये केवल दो-चार वस्त्र । न ट्रंक थे न सन्दूक, एक जोडा धोया और एक पहन लिया, तीसरे का काम नहीं, या कहीं जाने आने के लिये किसी ने रखा तो एक जोड़ा और बस इतना ही पर्याप्त था। न कोई साबुन जानता था न शरीर पर मलने के लिये तेल, क्रीम । जेवर थे पर ठोस, जब चाहो बेच लो और पूरे दाम बना लो, नुकसान का काम नहीं । फलितार्थ, जीवन हल्का तथा सन्तोषी था, आवश्यकताएँ व चिन्तायें कम, अत: धनोपार्जन के प्रति की लालसा भी कम । निज-हित के लिये अर्थात् धर्मसाधन के लिये या मित्रों में बैठकर कुछ हँसने बोलने तथा मनोरंजन करने के लिये काफी समय था उनके पास। ___आज का जीवन भी हमारे सामने है, जब घर में ट्रंक सन्दूक्रों का ढेर लगा है, एक के ऊपर एक लदे हैं। उनमें से प्रत्येक ठसाठस सती. ऊनी. रेशमी तथा जरी के कीमती वस्त्रों से भरा हआ। शरीर को मल-मलकर धोने के लिये अनेक भाँति के साबुन, इसको चिकना-चुपड़ा बनाने के लिये अनेक जाति के पाउडर, क्रीम, सुखी, तेल और न मालूम क्या-क्या । एक भरी हुई पूरी अलमारी का सामान, परन्तु फिर भी अभी कम है, क्योंकि बाजार में उपलब्ध जो हैं नित्य नए-नए ढंग की नाना प्रकार की वस्तुयें । जेवर हैं परन्तु ऐसे कि जिनमें स्वर्ण का मूल्यात्मक अंश बहुत कम, काँच ही काँच, और कहा जाता है स्वर्ण का जेवर । यदि बेचने जाओ तो सम्भवत: मूल्य का आठवाँ भाग भी न मिल सके। फलितार्थ, जीवन स्वयं एक भार, जिसमें है एक व्याकुलता व कलकलाहट, झुंझलाहट व कलह, असीम आवश्यकतायें, असीम तृष्णायें, 'यह भी चाहिये, यह भी चाहिये' 'और ला और ला' की पुकार से व्यग्र चित्त, चिन्ताओं की दाह, अत: धनोपार्जन की भाग दौड़। निज-हित अर्थात धर्म-साधन के लिये या मित्रों में बैठकर मनोरंजन करने के लिये एक सैकेण्ड का अवकाश नहीं, घर में बीबी बच्चों से हँसने व बोलने का अवकाश नहीं, माता-पिता को सांत्वना देने का अवकाश नहीं, कभी ४ घण्टे सोये तो कभी दो घण्टे और कभी न सोये तो न सही। प्रतिदिन की यात्रा, कभी मोटर में तो कभी रेल में । कहाँ तक बताया जाय, सब ही जानते हैं इस जीवन की कशमकश । क्या यही है जीवन का सार, क्या इसीलिये पाया है यह मनुष्य जन्म? इससे अच्छा तो तिर्यंच ही रहते, आगे पीछे की चिन्ता तो न रहती? ___ आश्चर्य है कि इतना कुछ होने पर भी अपने को सुखी मानूँ और नये-नये विषयों के अधिक-अधिक ग्रहण करने का प्रयत्न करूँ। सम्भल चेतन सम्भल। सौभाग्यवश तझे वह प्रकाश मिल रहा है जिसमें यदि आँखें खोलकर देखें तो इन विषैले सर्पो से जिनको अन्धकार में त चिकने-चिकने सन्दर हार समझता रहा. अवश्य सावर और अपने जीवन में अनावश्यक स्पर्शन-इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों से अवश्य अपनी रक्षा करे । वास्तव में स्पर्शन-इन्द्रिय विषयक सामग्री रक्षा करने की इतनी आवश्यकता नहीं है जितनी कि अन्तरंग मिठास रूप विशेष-भाव से बचने की है। आज वस्त्र आदि शरीर ढाँपने के लिये नहीं हैं, बल्कि हैं शरीर को सजाने के लिये और इसी प्रकार अन्य वस्तुयें भी। शान्ति की खोज में संलग्न पथिक को, शान्ति में बाधक विकल्पों के निषेधार्थ, जीवन को यथाशक्ति संयमित बनाने की प्रेरणा की जा रही है। संयम के प्रथम अंग इन्द्रिय-संयम के अन्तर्गत स्पर्शन इन्द्रिय संयम की बात हो चुकी है। अब चलती है जिह्वादि शेष इन्द्रियों को संयत करने की बात। (२) स्पर्शन-इन्द्रियवत् रसना-इन्द्रिय के विषयों को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक आवश्यक भाग और दूसरा अनावश्यक भाग। आवश्यक व अनावश्यक की व्याख्या स्पर्शन-इन्द्रिय-सम्बन्धी प्रकरण में की जा चुकी है। आवश्यक भाग में आता है क्षुधा शमनार्थ किये गये भोजन को चबा-चबा कर अन्दर धकेलना, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १६९ ५. इन्द्रिय-संयम तथा सम्पर्क में आने वाले साधारण व असाधारण व्यक्तियों से योग्य संभाषण करना। अनावश्यक भाग में आता है उस किये गये भोजन के स्वाद में या अन्य स्वादिष्ट मिष्टान या चाट आदिक पदार्थों में आसक्ति का होना, और निष्कारण द्वेष या प्रमादवश किसी की निन्दा या चुगली करना, गाली या व्यंग के वचन कहना, अपनी प्रशंसा करना इत्यादि। स्पर्शनेन्द्रियवत् यहाँ भी यद्यपि आवश्यक संभाषण व भोजन-ग्रहण की क्रियाओं का वर्तमान में त्याग करना शक्ति के बाहर की बात होने के कारण भले उसका त्याग न हो सके परन्तु उपरोक्त अनावश्यक भाग का त्याग करने से गहस्थ जीवन की दैनिक चर्या में कोई बाधा नहीं आती। फिर भी इसके त्याग के प्रति क्यों उत्साह नहीं करता? तनिक विचार करके देखे तो पता चले बिना न रहेगा कि इस प्रकार की आसक्ति के कारण तुझे समय-समय प्रति कितनी जाति के संकल्प-विकल्प उत्पन्न हो-होकर व्याकुल बना रहे हैं । अनुकूल स्वाद न मिलने पर क्रोध के कारण तू किस प्रकार स्वयं अपने स्वरूप को साक्षात् जलता हुआ अनुभव करता है, एक ही वस्तु में अनेक स्वाद उत्पन्न करने के लिये तुझे कितना कुछ करना पड़ता है तथा इसके कारण तेरे दैनिक बजट पर कितना भार पड़ा हुआ है, जिसकी पूर्ति कि तू अपना सारा समय धनोपार्जन के अर्थ लगा देने पर भी कर नहीं पाता । क्या कभी विचारा है कि आज के तेरे जीवन को भार बना देने वाली यह स्वाद की आसक्तिपूर्ण भावना तेरी शान्ति को कितनी बाधा पहुँचा रही है ? इसके त्याग से तेरे शरीर को या गृहस्थी को बाधा पहुँचाने का तो प्रश्न नहीं, विपरीत इसके तुझे बड़ा लाभ होगा, आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी । आर्थिक दृष्टि से इसके त्याग के कारण अवश्य ही तेरे दैनिक खर्च में बहुत बड़ी कमी आ जायेगी । सम्भवत: क्षुधा निवृत्ति के लिये होने वाला तेरा खर्च स्वादार्थ होने वाले खर्च का तीसरा भाग भी न हो। इसके फलस्वरूप उसकी पूर्ति की जो चिन्ता आज तुझे लगी रहती है उससे तुझे मुक्ति मिलेगी, और धनोपार्जन से कुछ समय का अवकाश पाकर तू शान्ति की उपासना कर सकेगा। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी इस स्वाद की भावना से दबाया गया तू अनेकों बार जानते-बूझते किन्हीं ऐसे पदार्थों का सेवन कर लेता है, जिनके कारण अनेकों रोग या कष्ट तेरे शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। उनसे रक्षा करने के लिये भी इस पर काबू पाना श्रेयस्कर है। इसके अतिरिक्त निन्दनीय सम्भाषण व पर-निन्दा में तेरा कितना समय व्यर्थ चला जा रहा है, क्या कभी विचार किया है इस पर? इस क्रिया से तझ को कौन सा लौकिक व अलौकिक लाभ है? लौकिक अपेक्षा से भी हानि और अलौकिक अपेक्षा से भी । लौकिक अपेक्षा से इसलिये कि इसके कारण ही अनेक व्यक्ति तेरे शत्रु बन बैठते हैं और तुझे बाधा पहुँचाने में कदाचित सफल भी हो जाते हैं। अलौकिक हानि इसलिये कि इसके कारण से प्रोत्साहित तेरा अन्तद्वेष स्वयं तेरे अन्दर दाह उत्पन्न करके तेरी शान्ति को जला डालता है । अत: इस वर्तमान गृहस्थ-दशा में रहते हुये भी तू स्वाद के प्रति अपनी आसक्ति का त्याग करने के लिये, बाजार की मिठाई चाट आदि का त्याग करके या घर पर भी स्वादिष्ट वस्तुयें बनवाने का यथासम्भव त्याग करके, अथवा किसी के साथ अयोग्य अश्लील व निन्दनीय सम्भाषण का त्याग करके, एक देश रूप से जिह्वा-इन्द्रिय सम्बन्धी संयम धारण कर सकता है । यहाँ भी स्पर्शन-इन्द्रिय संयम की भाँति अन्तरंग अभिप्राय की प्रधानता जानना । इससे अवश्य ही तुझ को शान्ति की आंशिक प्राप्ति होती प्रतीत होगी, जीवन हल्का हो जायेगा, चित्त में सात्त्विक विचार उदित होंगे और अन्तर्प्रकाश में वृद्धि होगी। (३) अब लीजिये तीसरी नासिका-इन्द्रिय सम्बन्धी संयम की बात। इसके विषय को भी आवश्यक व अनावश्यक अंगों में विभाजित करने पर श्वास लेने की प्रवृत्ति रूप एक आवश्यक अंग तथा सुगन्धि दुर्गन्धि के प्रति राग व घृणा-भाव रूप अनावश्यक अंग ये दो बातें विचारणीय हो जाती हैं । श्वास लेना भले न त्यागा जा सके परन्तु दूसरा विषय त्याग देने पर शरीर को या गृहस्थी को कोई क्षति नहीं होती। वास्तव में देखा जाय तो दुर्गन्धि सुगन्धि नाम की दो सत्तायें ही कहीं नहीं हैं। प्रत्येक भौतिक पदार्थ में कोई न कोई गन्ध तो अवश्य है, पर वह सुगन्धि है या दुर्गन्धि इस बात का निर्णय कौन करे? जो तुझे अच्छी लगे सो सुगन्धि, जो न रुचे सो दुर्गन्धि । इस प्रकार अपनी रुचि के अनुसार किसी भी गन्ध में 'सु' व 'दु' उपसर्ग लगा देना क्या न्याय-संगत है ? पदार्थ के स्वरूप का निर्णय करने का तुझको यह अधिकार है ही कहाँ ? अत: वास्तव में तुझे किसी भी गन्ध के आने पर 'सु' व 'दु' का अथवा अच्छी व Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७० ५. इन्द्रिय-संयम बुरी का भाव लाकर, रागद्वेष-जनक व्याकुलता उत्पन्न करना और अपनी शान्ति को घातना नहीं चाहिये, दोनों में ही साम्यता रखनी चाहिये, जैसे कि पहले देव व गुरु के आदर्श-जीवन में देख आया है । परन्तु फिर भी अपनी शक्ति का संतुलन करने पर तुझे ऐसा लगता है, कि प्रयत्न करने पर भी सम्भवत: दुर्गन्धि आने पर तेरी नाक सुकड़े बिना न रह सके, क्योंकि उसके प्रति घृणा के कुछ दृढ़-संस्कार ही ऐसे पड़े हुये हैं। खैर यदि ऐसा है तो भले दुर्गन्धि के प्रति की ग्लानि वर्तमान में न छूटे, परन्तु सुगन्धि के प्रति का झुकाव छोड़ने में तो तेरे गृहस्थ-जीवन में या दैनिक-चर्या में कोई बाधा नहीं पड़ सकती । बल्कि इसके त्याग से तुझको लौकिक व अलौकिक दोनों प्रकार का लाभ ही होगा, आर्थिक दृष्टि से और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी। आर्थिक-दृष्टि से देखने पर इस विषय पर काबू पा लेने के पश्चात्, पाउडर, क्रीम, वैसलीन, सैण्ट आदि अनेकों ऐसे बेकार पदार्थों की कोई आवश्यकता न रह जायेगी तुझे जिनमें कि तेरी आय का एक बड़ा भाग व्यय हो जाता है। इस प्रकार तेरे व्यय में न्यूनता हो जाने से स्वाभावत: धनोपार्जन सम्बन्धी तेरा भार कुछ कम हो जायेगा, तत्सम्बन्धी चिन्ताओं से निवृत्ति के कारण तू कुछ समय बचा सकेगा, और शान्ति की उपासना के मार्ग पर सुगमता से अग्रसर होने का अवसर प्राप्त कर सकेगा । स्वास्थ्य की दृष्टि से देखने पर उन उपरोक्त पदार्थों के कारण उत्पन्न होने वाले बालों की सफेदी, नजला तथा अन्य भी कई इसी प्रकार के रोगों से मुक्त हो जायेगा । अत: पूर्णतया न सही परन्तु केवल सुगन्धि के प्रति का राग छोड़कर इस विषय का भी एकदेश त्यागी तू अवश्य बन सकता है। (४) अब देखिये नेत्र-इन्द्रिय सम्बन्धी विषय को जिसका काम है देखना, राग-भाव से व द्वेष-भाव से जैसे कुटुम्बी जनों को तथा किसी शत्रु को, करुणा-भाव से व क्रूर-भाव से जैसे अपने रोगी पुत्र को और सर्पादि को, प्रेम से व भय से जैसे स्व-स्त्री को और सिंह को, बहमान से व मनोरंजन से जैसे देव व गरु को अथवा धार्मिक उत्सवों को और सिनेमा आदि को, तथा इसी प्रकार अन्य भी अनेकों विरोधी अभिप्रायों से देखना। इन सर्व अभिप्रायों में राग से, निर्विकार-भाव से, करुणा से, प्रेम से व बहुमान इत्यादि भावों से देखे बिना वर्तमान अवस्था में चलना प्रतीत नहीं होता तो न सही; परन्तु द्वेष-भाव से, विकृत-भाव से, क्रूर भाव से, भय से तथा मनोरंजन आदि के भावों से देखने का त्याग तो सहज ही कर सकता है, और इन दृष्टियों के त्यागने से तेरी दैनिक चयां में बाधा आने की बजाय लौकिक व अलौकिक दोनो रीति से कुछ सुन्दरता ही आयेगी । लोक में होने वाले अपयश से बचेगा, यह है लौकिक सुन्दरता । सिनेमा आदि मनोरंजन के साधनों से मिलती है नि:शुल्क शिक्षा सर्व खोटी बातों की तथा व्यसनों की । देश में प्रचलित डाके मारने के लिये नये-नये ढंग, जेबकतरी, व्यभिचार-सेवन, मद्य व मांस का सेवन, नये-नये श्रृंगार व फैशन, इन सबके प्रचार-केन्द्र वास्तव में ये सिनेमा आदि ही तो हैं । अत: इनको देखने का त्याग करने से अनेकों व्यसनों से तू अपनी रक्षा कर सकेगा। इसके अतिरिक्त विकारी भाव से उत्पन्न होने वाले कषाय से प्रेरित जो वेश्यागमन आदि महान अपराध हैं, उनसे भी बचा रहेगा। इसी प्रकार इन अपराधों के कारण होने वाले व्यर्थ के अपव्यय की चिन्ता से बच जायेगा। धनोपार्जन सम्बन्धी भार से छुटकारा और अन्य भी अनेकों लाभ होंगे। अत: यदि पूर्ण नहीं तो आंशिक रूप से अवश्य आज भी इस नेत्र-इन्द्रिय सम्बन्धी उपरोक्त अनावश्यक अंग को छोड़कर तू संयमी बन सकता है। (५) अब लीजिये पाँचवी श्रोत्र इन्द्रिय की बात। गृहस्थ-क्षेत्र में, व्यापार-क्षेत्र में तथा धार्मिक-क्षेत्र में कटम्ब वालों की, ग्राहकों की और गुरुजनों की या उपदेशकों की बातें सुनना अथवा धार्मिक भजन सुनना तो आवश्यक अंग होने के कारण छोड़ा नहीं जा सकता। परन्तु सिनेमा के अश्लील गाने सुनने का त्याग करने से तुझे क्या बाधा पडेगी? इसमें तो निहित है तेरा लाभ । सिनेमा पर होने वाले तथा रेडियो, ग्रामोफोन आदि पर होने वाले व्यर्थ के व्यय से बचेगा और इस प्रकार धनोपार्जन सम्बन्धी भार हल्का पड़ेगा। जो समय इन कार्यों में व्यर्थ जाता है वह बच जायेगा जिसे तू उपयोग में ला सकेगा निज-हितार्थ । इसके अतिरिक्त श्रोत्र-इन्द्रिय का एक और भी विषय है, बड़ा भयानक परन्तु ऊपर से देखने में सुन्दर, जिस सुन्दरता से आकर्षित होकर साधारण मनुष्य की तो बात नहीं धार्मिक क्षेत्र में आगे बढ़े हुये व्यक्ति-विशेष भी धोखा खाये बिना नहीं रहते । ऐसी पटखनी खाते हैं कि चारों खाने चित्त नीचे आते हैं, और उस खाई में जा पड़ते हैं जहाँ से वे Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७१ ७. पञ्च-पाप कब निकल सकेंगे यह कौन जाने। वह विषय है निज-प्रशंसा के शब्द सुनकर उनके प्रति का मिठास व झुकाव । शान्ति के उपासक को इस दुष्ट विषय से पद-पद पर सावधानी रखने की आवश्यकता है। (६) पाँचों इन्द्रियों की बात हो चुकी, परन्तु इन पाँचों के अधिपति मन की बात शेष रह गई, जिससे इन पाँचों को प्रेरणा मिल रही है, जिसके बल पर इन पाँचों का बल है, जिसके जीवित रहने पर ये पाँचों जीवित हैं तथा जिसकी मृत्यु से इन पाँचों की मृत्यु है। इस मन का कोई एक निश्चित विषय नहीं है, पाँचों ही इन्द्रियों के विषय इसके विषय हैं। जिस प्रकार देवपजा, गरु-उपासना व स्वाध्याय के प्रकरण में बताया जा चुका है तथा स्पर्शनेन्द्रिय-दमन सम्बन्धी विषय के साथ भी बताया जा चुका है, प्रत्येक क्रिया के दो अंग हैं, जो सदा साथ-साथ रहते हैं—एक अंतरंग-अंग और दसरा बाह्य अंग । यहाँ भी अर्थात् इन्द्रिय-संयम के प्रकरण में भी वही बात है । प्रत्येक इन्द्रिय का बाह्य-विषय तो है उन-उन पदार्थों का ग्रहण और अन्तरंग-विषय है उनका ग्रहण होने पर अन्तरंग में उत्पन्न होने वाली मिठास, रुचि व झुकाव, जो कि मुझे आगे-आगे पुन: पुन: अधिक-अधिक उन-उन विषयों के ग्रहण की प्रेरणा देता है तथा अत्यन्त आसक्त व गृद्ध बनाकर मुझे उसके उपभोग में ऐसा फंसा देता है कि उनसे छूटने का भाव मेरे अन्दर उत्पन्न न होने पावे, हिताहित का विवेक भी जाता रहे। इन सर्व इन्द्रियों के अन्तरंग विषय मिलकर एक मन का विषय बन जाता है । अत: मन को काबू करने के लिये पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी अनावश्यक व आवश्यक विषयों के प्रति का झुकाव अन्तरंग में न होने देने के लिये सावधानी रखनी आवश्यक है। इस प्रयास से भी गृहस्थी-सम्बन्धी किसी चर्या में बाधा आना सम्भव नहीं। इसके अतिरिक्त भी आगे-आगे के प्रकरणों में आने वाली सर्व अन्तरंग क्रियायें मन की विषय हैं । उन सर्व ही अन्तरंग क्रियाओं का यथायोग्य त्याग, विवेकपूर्वक सावधानी के साथ निर्बाध रीति से करने का नाम ही है मन का संयम । इसको वश में करने पर सब इन्द्रिय सहज ही वश में हो जायेंगी । इस प्रथम भूमिका में इस ही को मुख्यत: वश में करने की बात चलती है। ६. प्राण-संयम-शान्ति-प्राप्ति की साधना के अन्तर्गत संयम का कथन चलता है। जैसा कि पहले बताया गया था, वह दो प्रकार का है-इन्द्रिय-संयम और प्राण-संयम । इन्द्रिय-संयम की बात हो चुकी और अब चलती है प्राण-संयम की बात । जीव के दस प्राणों का तथा उनकी अपेक्षा जीव के अनेक भेद-प्रभेदों का कथन जीव -तत्त्व के अन्तर्गत आ चुका है। (देखो ७.२) । प्राण संयम का अर्थ है इस प्रकार की सावधानी कि मेरे दैनिक जीवन में मेरे द्वारा मन से, वचन से अथवा काय से कोई भी इस प्रकार की प्रवृत्ति न हो जिसके कारण कि चींटी से लेकर मनुष्य पर्यन्त किसी भी छोटे या बड़े व्यवहारगत प्राणी के प्राणों को, साक्षात रूप से या परम्परा रूप से किसी भी प्रकार पहुँच सके । न केवल आयु नाम वाले प्रधान प्राण को अथवा काय या शरीर नाम वाले प्राण को प्रत्युत किसी भी प्राण को; न पाँचों इन्द्रियों में से किसी भी एक इन्द्रिय को, न मन को, न वचन को, न काय को, न श्वासोच्छवास को और न आयु को। न केवल उनको नष्ट-भ्रष्ट न करना, प्रत्युत पीड़ित न करना । प्राण-संयम का यह व्यापक लक्षण समझ न पाने के कारण ही पृथ्वी पर देख-देखकर पग रखने वाले तथा अन्नको बीन-बीनकर खाने वाले संयमीजन भी वास्तव में रह जाते हैं असंयमी। यह जाने बिना कि मेरी किस-किस प्रकार की प्रवृत्ति से किस के किस प्राण को किस प्रकार की पीड़ा पहुँच रही है, संयम का यह विवेक धारण करना सम्भव नहीं। यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मेरे द्वारा क्षुद्र जीवों को इतनी पीड़ा नहीं पहुंच रही है जितनी कि मनुष्य को, स्वयं मेरे भाई को, शरीर के द्वारा नहीं, वचन के द्वारा, मन के द्वारा । निन्दा, चुगली तथा व्यंग आदि रूप मर्मच्छेदी वचनों द्वारा मैं किस प्रकार उसका कलेजा छलनी करता रहता हूँ, यह मुझे पता ही चलने नहीं पाता । __७. पञ्च-पाप-अपनी सर्व प्रवृत्तियों को प्राण-पीड़ा की अपेक्षा में पाँच कोटियों में विभाजित कर सकता हूँ। हिंसा के द्वारा, असत्य के द्वारा, चोरी के द्वारा, व्यभिचार-सेवन के द्वारा, और संशय या होर्डिंग के द्वारा जिसका नाम परिग्रह भी है। इन्हें आगम में पाँच पाप कहकर बताया गया है। प्राणियों को पीडा-कारक होने से ये पाँचों जाति की मेरी प्रवृत्तियें पापरूप हैं, इसमें कोई संशय नहीं। अब पृथक्-पृथक् इन पाँचों पापों का विश्लेषण करता हूँ, तनिक ध्यान Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७२ ७. पञ्च-पाप देना क्योंकि इस विश्लेषण ये यह बात ध्यान में आए बिना न रहेगी कि अपनी जिन प्रवृत्तियों को मैं न्याय-संगत माना करता हूं वे भी अन्यायरूप हैं, पापरूप हैं। मुझे ऐसी सर्व प्रवृत्तियों से बचना है, अपने जीवन को संकोचकर केवल निज-शान्ति में केन्द्रित करना है। भोग-विलास का यह मार्ग नहीं है। बहुवर्णनीय होने के कारण हिंसा का कथन बाद में करूँगा, पहले असत्यादि चार पापों का कथन करता हूँ। (१) क्रोधवश कहे जाने वाले कटु व तीखे शब्द या गाली के शब्द, द्वेषवश कहे जाने वाले व्यंगात्मक शब्द, लोभवश कहे जाने वाले छल-कपट भरे शब्द, हँसी ठढे वश कहे जाने वाले कुछ अनिष्टकारी शब्द, मानवश कहे जाने वाले मर्मच्छेदी शब्द, इस प्रकार के शब्द बोलकर मैं किसी के अन्त:करण में दाह उपजाता हूँ । स्पष्ट झूठ बोलकर, चुगली या निन्दा करके, अनिष्टकारी या खुशामद के शब्द बोलकर झूठे कागज व दस्तावेज आदि बनाकर मैं प्राणियों के मन को ठेस पहुँचाता हूँ। किसी की धरोहर मेरे पास रखी हो, उसका स्वामी भूल गया हो या पूरी याद न रख पाया हो, और लेने आवे तो कमती माँगता हो, उस समय उसे पूरी याद दिलाने में चुप खेंचकर, किसी का रहस्य स्वयं उसके द्वारा बताया हआ अथवा अपने आप किन्हीं अन्य साधनों से या उसकी मुखाकृति आदि पर से जान किसी पर प्रकट करके, इसी प्रकार अन्य भी वचन सम्बन्धित अनेकों विकल्पों में किसी के अन्तर्माणों को अर्थात् मानसिक प्राणों को पीडा पहुँचाता हूँ। ऐसी प्रवृत्ति का नाम असत्य प्रवृत्ति है। यहाँ असत्य का अर्थ केवल झूठ बोलना नहीं, बल्कि प्रत्येक अनिष्ट व कटुवचन वास्तव में असत्य है । सत्य भी वचन यदि अहितकारी है या कटु है तो वह भी यहाँ असत्य की कोटि में समझा जाता है। (२) विभिन्न जाति के प्राणियों ने अपनी-अपनी आवश्यकतानुसार पदार्थों का जो सञ्चय किया हुआ है, वह सब उन-उन प्राणियों का धन है । इस धन को भी जीवन का बाह्य-प्राण कहा जाता है क्योंकि इसकी तनिक सी भी बाधा यह प्राणी सहन नहीं कर सकता, और कदाचित इस धन के लिये अपने उपरोक्त दस प्राणों को भी न गिनते हुये आत्म-हत्या तक कर लेता है । यहाँ धन शब्द का अर्थ रुपया-पैसा मात्र नहीं है बल्कि जैसा कि ऊपर बताया गया है प्राणियों का स्व-स्व-योग्य पदार्थ संचय है। इस धन का अपहरण करके मैं उन्हें पीड़ा पहँचाता हूँ। अथवा कुछ देर के लिये छोड़े गए किसी शून्य-आवास आदि में ठहरकर अथवा सबका स्वामित्व जहाँ हो ऐसी धर्मशाला आदि स्थानों में आवश्यकता से अधिक स्थान रोककर या अपने रोके हुये स्थान में दूसरे को आने की आज्ञा न देकर मैं दूसरों के दुःख का कारण बन जाता हूँ। अथवा बिना किसी के दिये या देने की अन्तरंग भावना किये, किसी अपने परिचित मित्र की कोई भी वस्तु लेकर अथवा लेने की इच्छा करके अथवा यह कहकर कि यह तो मुझे अच्छी लगती है, मैं वास्तव में उसके हृदय को दःख पहँचाता हूँ; क्योंकि लिहाज के कारण वह यदि बाहर से इन्कार नहीं करता तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह इस वस्तु का विरह स्वीकार करता है । अथवा बिना दातार के आहार ग्रहण करके, या अयोग्य आहार ग्रहण करके भी मैं किन्हीं प्रेमीजनों के हृदय को दुःख पहुँचाता हूँ । इतना ही नहीं धर्म के नाम पर व्यर्थ के वाद-विवाद द्वारा अनेकों की श्रद्धा को ठेस पहुँचाता हूँ, उस श्रद्धा को जो कि उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय है। इस प्रकार की मेरी सर्व प्रवृत्तियें दूसरों के बाह्य या अभ्यन्तर धन का अपहरण करने के कारण चोरी में गर्भित है। इनके अतिरिक्त मानसिक प्राणों का भी अपहरण करता हूँ-स्थूल व प्रसिद्ध चोरी करके, चोरी का माल लेकर, चोरी करने सम्बन्धी उपाय अन्य को बताकर, चोरी करने के उपयुक्त हथियार बनाकर या दूसरे किसी को देकर, चोर को आश्रय देकर, राज्य नियम के विरुद्ध काम करके, टैक्स व रेल आदि का किराया बचाकर, कमती-बढ़ती बाट, गज आदि तोलने तथा मापने के उपकरण रखकर, किसी चालाकी से कम तोलकर या कम मापकर, अधिक मूल्य की वस्तु में कम मूल्य की वस्तुएँ मिलाकर, होर्डिंग करके अर्थात् 'भाव बढ़ जाने पर बेचूंगा' इस अभिप्राय से गोदामों में माल रोककर, आज्ञा से अधिक सवारी मोटर में बैठाकर, चोर-बाजार में माल बेचकर, घूस लेकर, तरस्करी करके इत्यादि अनेक ढंगों से मैं प्राणियों को पीड़ा दे रहा हूँ, नित्य चोरी किये जा रहा हूँ। (३) साक्षात स्त्री-संभोग के अतिरिक्त, स्त्री-पुरुष संयोग सम्बन्धी बातें सुनने व कहने में आसक्त होकर, तिर्यञ्चों का संभोग देखकर, शरीर के विशेष मनोहर अंगोपांगों की ओर दृष्टिपात करके, पूर्व में की गई मैथुन क्रियाओं Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७३ ८. हिंसा जाय, का स्मरण करके, गरिष्ट व तामसिक भोजन करके, शरीर का ऐसा शृंगार करके जिसे देखकर दूसरे का चित्त विकृत हो मैं 'सदा व्यभिचार सेवन करता हूँ । पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह करके अथवा विवाहित या अवाहित व्यभिचारी या सुशील स्त्रियों के घर पर जाकर या एकान्त में उनसे वचनालाप करके, या अपने शरीर के अंग-विशेषों का पुनः पुनः स्पर्श करके, हस्त मैथुन करके अथवा अंतरंग में काम-वासना उत्पन्न करके तथा अन्य भी अनेकों ढंगों से मैं व्यभिचार सेवन किया करता हूँ। मेरी इस प्रवृत्ति का नाम अब्रह्म, कुशील सेवन या व्यभिचार है। इस प्रवृत्ति के द्वारा असंख्यात छोटे-छोटे कीटाणुओं को पीड़ा पहुँचाने के अतिरिक्त मैं उन उन स्त्रियों के तथा उनके स्वामियों या माता-पिताओं के हृदय को अतीव वेदना पहुँचाता हूँ और साथ-साथ अपने मन तथा काय-बल का भी नाश करता हूँ । (४) आवश्यकता से अधिक धन-धान्य, कपड़ा-जेवर, बर्तन, खेत तथा जायदाद, पशु, दास-दासी आदि रखकर अथवा उन्हें प्राप्त करने की इच्छा करके या अच्छे न लगने वाले पदार्थों से द्वेष करते हुये उन्हें दूर करने की इच्छा करके भी मैं अनेकों को पीड़ा पहुँचा रहा हूँ। मेरी इस प्रवृत्ति का नाम है परिग्रह भाव । सविस्तार विवेचन आगे यथास्थान किया जाने वाला है । (दे० अधिकार ३३) I ८. हिंसा - किसी को जान से मार देना मात्र हिंसा नहीं है। वह तो केवल उस का राजदण्ड़ घोररूप है। हिंसा की व्यापकता में तो अनेकों इस प्रकार की प्रवृत्तियां सम्मिलित हैं जो मैं अपने दैनिक जीवन में नित्य करता रहता हूँ और जिन्हें करने में राजदण्ड़ का भी कोई भय नहीं होता । यथा — किसी पालतू पशु को खूंटे के साथ इतनी छोटी रस्सी से बान्धना कि वह ठीक से हिलडुल या बैठ-उठ न सके । पक्षियों को मनोरंजन के लिये पिञ्जरें में रखना, निशानी करने के लिये पालतू पशु की पूँछ आदि काट देना, छेद देना, भेद देना अथवा उसकी पीठ पर दाग लगा देना, नेत्र आदि उसकी कोई इन्द्रिय फोड़ देना, खस्सी करना, अधिक भार लादना और न चल सके तो निर्दयता से पीटना; गाय, भैंस दूध न दे तो उनके साथ अमानवीय व्यवहार करना, इंजेक्शन लगाकर दूध निकालना, क्रोधवश उसे आहार न देना । इसी प्रकार अपने आश्रित किसी सेवक से अधिक काम लेना, न करे तो उसका वेतन रोक लेना या काट लेना या कम देना इत्यादि । चींटी, पतंग आदि क्षुद्र जीव तो मेरी असावधानी के कारण मरतें या पीडित होते ही रहते हैं— चलते समय पाँव के नीचे दबकर, वस्तु को उठाते धरते समय उसके नीचे पिसकर, मल-मूत्र आदि में दबकर अथवा नाली में बहकर, रात्रि को भोजन करते समय उस भोजन में फटाफट पड़कर, दीपक की लौ पर जलकर अथवा बिजली के बल्ब के साथ टकराकर, इत्यादि । इतना ही क्यों, यह तो केवल शरीर द्वारा की गई हिंसा के कुछ स्थूल उदाहरण मात्र हैं। वास्तव में तो हिंसा होती है मन तथा वचन के द्वारा, जो प्रतिक्षण बराबर चला करती है, गृहस्थों में ही नहीं त्यागियों में भी और यह पता नहीं चल पाता कि मैं हिंसा कर रहा हूँ । व्यापकता से देखने पर असत्य आदि पूर्वोक्त चारों पाप भी वास्तव में हिंसा ही हैं क्योंकि किसी न किसी प्रकार उनसे प्राणियों के प्राण पीडित होते ही हैं । इतना ही नहीं हिंसा के विश्वव्यापी विराटरूप में न जाने क्या-क्या तथा कैसे-कैसे अपराध भरे पड़े हैं, स्थूल तथा सूक्ष्म । उन सबका किंचित अनुमान करने के लिये हिंसक प्रवृत्तियों के अनेकों भंग करके दर्शाता हूँ । ये पाँचों ही पाप मैं मन के द्वारा करता हूं अर्थात् मन में वैसा करने का विचार करता हूँ । वचन के द्वारा करता हूँ अर्थात् उनका कथन कर-करके या सुन-सुन के प्रसन्न होता हूँ । काय के द्वारा करता हूँ जैसा कि अब तक दर्शाया गया है । मन, वचन व काय के द्वारा इन पाँचों पापों को मैं स्वयं तो करता ही हूं, दूसरे को भी करने के लिये उकसाता हूँ और किसी को करता देखकर मन ही मन प्रसन्न भी होता हूँ । इन नौ भंगो से उन पाँचों पापों को करने के लिये कभी तो प्रयत्न मात्र करके रह जाता हूँ, कभी तदर्थ कुछ सामग्री मात्र जुटाकर रह जाता हूँ और कभी-कभी साक्षात् रूप से कर भी गुजरता हूँ । इस प्रकार उनके २७ भंग हो जाते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों से पृथक्-पृथक् प्रेरित होकर करने के कारण वे ही १०८ बन जाते हैं । इनको पाँचों पापों से पृथक्-पृथक् गुणा करने पर हिंसा के ५४० भंग बन जाते हैं । छ: कायवाले जीवों के प्रति लागू होने से ये ही ३२४० और प्रायः चार प्रयोजनों से प्रवृत्त होने के कारण १२९६० हो जाते हैं। इसी प्रकार अन्यान्य भी असंख्यातों भंग बनाए जा सकते हैं । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७४ ९. संयम का प्रयोजन पकडना नित्य व्यवहार में आने के कारण हिंसा के ये चार प्रयोजन यहाँ विशेष रूप से वर्णनीय हैं, जिनके कारण हिंसा चार प्रकार की मानी जाती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी तथा विरोधी। निष्प्रयोजन केवल मनोरंजन के अभिप्राय से या कषायवश की जाने वाली हिंसा संकल्पी कहलाती है, जैसे मांस के लिये पशुवध करना, शिकार खेलना, मछली और मनोरंजन के के लिये तीतर आदि को अथवा पशुओं को लड़ाना आदि । व्यापार-धन्धे में होने वाली हिंसा उद्योगी है, जैसे अन्न के कारोबार में होने वाली सुरसी आदि की हिंसा अथवा किसी बड़े कारखाने में होने वाली अनेक प्रकार की हिंसा । घर में काम-धन्धे में होने वाली हिंसा आरम्भी है, जैसे घर की लिपाई तथा सफाई में होने वाली अथवा खाना बनाने में होने वाली हिंसा । अपने तथा कुटुम्बियों के अथवा देश के जान माल तथा मान की रक्षा के लिये की जाने वाली हिंसा विरोधी कहलाती है, जैसे चोर-डाकुओं के साथ तथा आतताइयों के साथ युद्ध आदि करना । वास्तव में हिंसा या अहिंसा के दो शब्द जो आज प्राय: सुनने में आ रहे हैं, व्यापक अर्थ में पुयक्त किये जाने योग्य हैं। किसी प्राणी को जान से मार देना तो हिंसा और जान से न मार देना मात्र अहिंसा ऐसा नहीं है । इनका बड़ा व्यापक अर्थ है । उपरोक्त सर्व १२९६० प्राण-पीड़ा के भंग तथा अन्य भी संभव अनेकों विकल्प, जिनके द्वारा किसी भी प्राणी को शारीरिक, वाचिक व मानसिक पीड़ा तथा बाधा हो, हिंसा में समावेश पा जाते हैं । सूक्ष्मरूप से देखने पर जो कार्य अहिंसात्मक दिखाई देते हैं उनमें भी किसी न किसी रूप में हिंसा रहती ही है। दृष्टान्त के रूप में, मैं प्रयत्नपूर्वक चला जा रहा हूँ और कुछ पक्षी वहाँ बैठे हों जिनको मेरे निकट आ जाने से कुछ भय प्रतीत हो और वे वहाँ से उड़ जायें, तो उस मार्ग पर उन कबूतरों के निकट मेरा जाना हिंसा होगा । चींटी आदि को उनके प्राणों की रक्षार्थ मार्ग से हटाकर एक ओर सरका देना भी हिंसा है, क्योंकि ऐसा करने से सम्भवत: उनके उस आन्तरिक अभिप्राय को धक्का पहुंचा है, जिसको लिये हुये वे अमुक दिशा में जा रहे थे, इत्यादि अनेकों प्रकार से हिंसा का व्यापक अर्थ है । कहाँ तक कहा जाय और याद भी कैसे रहेंगे इतने विकल्प अत: एक छोटी सी पहिचानं बताता हूँ, यह जानने की कि कौन क्रिया हिंसात्मक है और कौन अहिंसात्मक । अपनी प्रत्येक क्रिया को इस कसौटी पर कसकर देखने पर बड़ी सरलता से हिंसा व अहिंसा की परीक्षा हो जाएगी। दूसरे के द्वारा होने वाली जो भी क्रिया मुझे अपने लिये अरुचिकर हो, बस वह क्रिया हिंसात्मक है और जो रुचिकर हो सो अहिंसात्मक । अत: मैं कोई भी ऐसी क्रिया किसी छोटे या बड़े जीव के प्रति न करूँ जो स्वयं मुझे अपने प्रति पीड़ा-प्रदायक भासती हो। ऐसी सर्व हिंसात्मक प्रवृत्तियों का अपने जीवन में पूर्णतया निरोध करने का नाम है पूर्ण प्राण संयम या सकलप्राण संयम जो मुनियों तथा साधुओं में ही सम्भव है। आंशिक रूप से इसका निरोध करने का नाम है एकदेश-प्राण संयम । भले ही पूर्णतया मैं इन सब प्रवृत्तियों से मुक्त होने की वर्तमान में क्षमता न रखता हूँ, परन्तु शक्ति अनुसार इन सब १२९६० विकल्पों में से कुछ भंगों का पूर्ण त्याग और कुछ का एकदेश या अल्प-त्याग करने को इस अवस्था में भी अवश्य समर्थ हूँ। इस विषय का विस्तार आगे अहिंसा वाले अधिकार में किया जाने वाला है। (दे० अधिकार २७) ९. संयम का प्रयोजन आज संयम को अधिकतर लोकेषणा की पुष्टि के लिये किया जा रहा है। प्रतिष्ठा के लिये, ख्याति लाभ पूजा के लिये इसको धारण करने वाले आज बड़े वेग से इस ओर बढ़े चले आ रहे हैं। परन्तु लोक-कल्याण की बात तो दूर रही, क्या उनका अपना कल्याण भी हो रहा है इससे, यह विचारणीय है ? इस बात की परीक्षा है शान्ति जो संयम का वास्तविक प्रयोजन है। यदि फलस्वरूप, संयम से इसी जीवन में, तत्क्षण, शान्ति का, भूमिकानुसार वेदन न हुआ तो उसका संयम निरर्थक ही रहा, और ऐसे संयम से इस मार्ग में कोई लाभ नहीं । संयम का अर्थ है विकल्प-दमन, जो साक्षात् शान्ति स्वरूप है, इसलिये संयम की यथार्थता व अयथार्थता की परीक्षा होती है अन्तरंग में विकल्प-दमन से, न कि बाह्य की शारीरिक क्रियाओं से। ___ जैसा कि साधना अधिकार में तथा देवपूजा आदि प्रकरणों में बराबर बताया जाता रहा है, लौकिक व अलौकिक सर्व प्रयोजनों में दो क्रियायें युगपत चला करती हैं—एक बाह्य में दीखने वाली शारीरिक क्रिया तथा दूसरी अन्तरंग में वेदन की जाने वाली अन्तरंग क्रिया। अन्तरंग में विकल्पों के आंशिक अभाव अथवा शान्ति के वेदन से रहित केवल Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७५ १०. विश्व प्रेम बाह्य शारीरिक क्रिया प्रयोजन की सिद्धि करने में असफल रहने के कारण निरर्थक है । अत: यदि कुछ पुरुषार्थ करने को उद्यत हुआ है तो उसको यथार्थ रीति से कर, जिससे कि वह किया हुआ पुरुषार्थ व्यर्थ न जाने पावे। इन्द्रिय-संयम में इन्द्रिय-विषयों का आंशिक त्याग और प्राणसंयम में यथाशक्ति अहिंसा का पालन केवल इसी अभिप्राय से होना चाहिये कि तत्-तत् विषय सम्बन्धी रागद्वेषात्मक इष्टानिष्ट विकल्पजाल हृदय में उत्पन्न होकर मुझे व्याकल न बना दे। इस प्रयोजन के अर्थ ही पग-पग पर इस बात की सम्भाल रखकर चलना है कि क्या प्रयोजन का अर्थात शान्ति का किसी अंश में प्रवेश हो पाया है जीवन में? वस्तु का त्याग करने के लिये त्याग नहीं, बल्कि विकल्प का इच्छा का. आसक्ति का या उस वस्त-विशेष के प्रति अन्तरंग झकाव का. उसमें वर्तने वाली मिठास का या रुचि का त्याग करने के लिये त्याग है और वही है सच्चा संयम। इसका यह भी अर्थ नहीं कि बाह्य वस्तुओं का त्याग निरर्थक है । शान्ति की रक्षा करने के लिये, जैसा कि इन्द्रिय-संयम में बताया जा चुका है, यथाशक्ति बाह्य विषयों का त्याग कर ही देना चाहिये, भले पहले-पहले वह कुछ अखरता हो। इस प्रयोजन की सिद्धि बिना अभिप्राय बदले नहीं की जा सकती। मन सम्बन्धी संयम के प्रकरण में भी इसी बात पर जोर दिया गया है । इन्द्रिय-संयम व प्राण-संयम दोनों में यह ही प्रमुख है, और गृहस्थ की इस अल्प भूमिका में रहते हुये भी इस अभिप्राय का अन्तरंग से त्याग कर देने से तेरे शरीर को, तेरे कुटुम्ब को या तेरी सम्पत्ति को कोई भी बाधा होनी सम्भव नहीं है। ऐसा करने से तेरे अन्दर में उत्पन्न.होगा एक उत्साह, एक बल, जीवन में एक मोड़, जो धीरे-धीरे तुझे संयमित बनाता हुआ ले जायेगा विकल्प सागर के उस पार, जहाँ शान्ति खड़ी तेरी राह देखती है। २०. विश्व प्रेम अन्तरंग में प्राण-संयम के अर्थ उपरोक्त सच्चा अभिप्राय बनाने के लिये, मझे एक विशेष दृष्टि उत्पन्न करनी होगी जिसके द्वारा देखने पर मेरे हृदय में एक स्वाभाविक मैत्री-भाव प्रकट हो जाय, विश्व के सर्व छोटे-बड़े प्राणियों के प्रति जिसमें होगा केवल प्रेम व भ्रातृत्व का भाव, समस्त विश्व होगा एक कुटुम्ब; जिसके द्वारा देखने पर दिखाई देगा मुझे सर्वत्र अपना ही रूप, अपना ही निवास; एक अद्वैतपना सा दिखाई देगा जहाँ । अहो ! अलोकिक-जनों की अलौकिक बातें, भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा उपरोक्त दृष्टि को सुन्दर चित्रण ज्ञानी जनों ने किया है। श्रमण सन्तों का तो कहना ही क्या, इनका जीवन तो सदा ही साम्यता व मैत्री से भरपूर रहा है, औपनिषदिक काल के ऋषियों का हृदय भी इस अलौकिक भावना से कितना भरपर था इसका पता ईषोपनिषद के प्रथम मंत्र के अध्ययन से लग जाता है। कितना सुन्दर है ईषोपनिषद् का यह प्रथम वाक्य "ईशावास्यमिदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथ मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।" अर्थात् “इस जगती पर जो कुछ भी है वह सब ईश्वर का आवास है । इसलिये यदि जगत के पदार्थों का उपभोग ही करना है तो त्याग भाव से कर, अधिक लालसा मत कर, यह धन किसका है । (किसी का नहीं)।" कितना सुन्दर भाव है कि इस जगत में सभी पदार्थ ईश्वरीय तत्त्व से ओत प्रोत हैं, सभी जीती-जागती ईश्वर की मूर्तियाँ हैं, सभी अपने में पवित्रता को लिये हुये हैं, सभी संरक्षण सहयोग और मैत्री की अधिकारी हैं। यदि अहंकार दृष्टि को छोड़कर सभी प्राणियों को अपने समान ईश्वर का आवास समझे तो विश्व में सहज ही सुख शान्ति का राज्य स्थापित हो जाय। तनिक ध्यान देकर विचार कि तू कौन है, कहाँ से आया है, कहाँ जायेगा, कैसे-कैसे रूप तूने धारण किये हैं और कैसे-कैसे रूप तुझे धारण करने हैं? आ, इधर आ, ज्ञान-शिखर पर बैठ और विश्व को निहार । क्या देखता है? दर-दर तक फैली वृक्षों की पंक्तियां, आकाश में उड़ते परवाने और पक्षी, वनों में विचरते सिंह व हाथी और इन बसे हए ग्रामों तथा नगरों में नर-नारी । इनमें कौन बसता है, एक चैतन्य या कुछ और? इस पत्थर की शिला में कौन बसता था पहले, एक चैतन्य या कुछ और? नये घर में चले जाने पर आज क्या तू अपने पुराने घर को अपना कहना छोड़ देता है ? इसी प्रकार यह समस्त विश्व एक चैतन्य का निवास स्थान है, कुछ वर्तमान काल में और कुछ भूतकाल में । विचार तो सही कि तू कौन है ? तू भी तो चैतन्य है। उनमें बसते चैतन्य में और तुझमें क्या अन्तर है ? अत: तू ही तो Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम १७६ १०. विश्व प्रेम बसता है या बसता था इन सबमें, और इस प्रकार यह सब तेरा ही तो निवास स्थान हुआ। बस तू ही तो वह ईश्वर, वह चैतन्य प्रभु, वह ज्ञान ज्योति, जिसका कि यह समस्त विश्व क्रमश: निवास स्थान रह चुका है, रह रहा है और आगे को रहेगा। क्या अब भी इस जगत के सर्व पदार्थों को ईश्वर का निवास कहने में कोई शंका है तुझे? किसी के प्राणों को बाधा पहुँचाना अपने निवास को बाधा पहुँचाना है, जिसे कोई सहन नहीं कर सकता और इसी अभिप्राय का नाम है प्राण-संयम। अब इधर आ। देख इस विश्व का दूसरा सुन्दर चित्रण जिसमें विश्व को ईश्वर की सृष्टि बनाकर दिखाया जा रहा है। ओह ! कितना अच्छा है यह? इसे देखकर तो मानो मुझे अपना सारा पिछला इतिहास ही याद आ गया। वह दिन जब कि बाह्य जगत के व्याकुलता-उत्पादक वातावरण से अत्यन्त भयभीत हुआ मैं घुस बैठा था एक ऐसी गुफा में जिसमें प्रकाश आने के लिये कोई भी मार्ग नहीं था। था एक अत्यन्त छोटा सा छिद्र जिसमें से अत्यन्त धीमी सी, एक छोटी सी रेखा बड़ी कठिनाई से प्रवेश पा रही थी । अर्थात् भय के कारण कछुए की भाँति ज्ञान के सब द्वार बन्द करके, मात्र एक स्पर्शन इन्द्रिय का द्वार खुला रखकर, जल, अग्नि, वायु व वनस्पति आदि रूपों का सृजन करता फिरता था मैं, उस व्याकुलता से बचने के लिये तथा शान्ति पाने के लिये । यहाँ रहते-रहते, भय के कुछ मन्द पड़ जाने पर, इच्छा हुई दूसरा द्वार खोलकर इस जगत की ओर स्पष्ट देखने की, और मैंने सृजन किया लट-केंचुवे आदिक द्वीन्द्रिय शरीरों का। इसी प्रकार भय में धीरे-धीरे कमी होती चली गई, क्रमश: एक-एक द्वार अपनी इच्छा की पूर्ति के लिये खोलता गया और सृजन करता गया त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, मनरहित व मनसहित शरीरों का। अधिक दिन किसी भी शरीर में रहना मेरे मनने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि नवीनता भाती थी इसे । इसलिये नये-नये शरीरों का सृजन करता, उनमें कुछ दिन रहता, तबियत उकता जाने पर या सन्तुष्ट न होने पर एक-एक को छोड़ता, आज इस मनुष्य के आकार वाले शरीर में बैठा, अपने ज्ञान के सर्व द्वारों से इस विश्व को देख रहा हूँ। कुछ भी तो ऐसा दिखाई नहीं देता, जो या जैसा मैंने सजन न किया हो कभी। यहाँ कछ सष्टि तो है ऐसी जिसका कि मैंने सजन किया था पहले पर जिसे छोड कर चला आया हूँ मैं, और यह कहलाने लगी है जड । कुछ ऐसी है जिसमें मेरी जाति के मेरे ही सगे भाई, चैतन्य प्रभु बैठे इस जगत की रचना को आश्चर्य सहित देख रहे हैं और अनेकों कल्पनायें इसके सम्बन्ध में कर रहे हैं । मैं ही तो हूँ जगत का रचयिता वह ईश्वर? कौन पदार्थ ऐसा है जिसे मैंने नहीं बनाया? यहाँ दीखने वाला पत्थर, खम्भा मेरे द्वारा उस समय बनाया गया था जब मै पृथ्वी रूप शरीर में बैठा था। इस चौकी में प्रयुक्त लकड़ी का सृजन मैंने वनस्पति का शरीर धारण करके किया था ये सब मेरे मृत शरीर ही तो हैं । कितनी बड़ी महिमा है मेरी कि जिसे आज तक आंखें बन्द किये रहने के कारण स्वयं मैं जान न पाया। किसी भी प्राणी का नाश करना अपनी ही सृष्टि का नाश करना है, इसी अभिप्राय को कहते हैं प्राण-संयम। और भी देख यह तीसरा चित्रण जिसमें सारा जगत एक ब्रह्म दिखाई देता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं? वाह-वाह कितना सुन्दर? सो तो मैं ही हूँ | जितने भी विभिन्न जाति के शरीर हैं वे सब मेरे द्वारा सृजन किये जाने के कारण तथा मेरे निवास-स्थान रहने के कारण मेरे ही तो हैं । वे सब मैं ही तो हूँ, भूत-रूप से या वर्तमान-रूप से । इन सब में वही तो भावनायें उठ रही हैं जो मुझमें, इन सबकी वही तो इच्छायें हैं जो मेरी, ये सब उसी के लिये तो उद्यम कर रहे हैं जिसके लिये कि मैं ? छोटा हो कि बड़ा, कीड़ा हो कि हाथी, वनस्पति हो कि मनुष्य, सबमें शान्ति की इच्छा, आहार मैथुन व परिग्रह की आकांक्षा, भय खाकर रक्षा करने की भावना, क्या एक सी नहीं हैं? फिर इनमें और मुझमें क्या अन्तर है? यह सब मानो मेरे अन्तष्करण का ही तो प्रतिबिम्ब है, प्रतिबिम्बित हो रहा हूँ मैं ही तो इन सब में, इसके अतिरिक्त और दीखता भी क्या है यहाँ ? जिसे अपनी या अपनी भावनाओं की खबर नहीं, ऐसे विकारी दृष्टि वाले को ही सम्भवत: इन सबमें और अपने में कुछ अन्तर दिखाई दे । अत: वह भेदभाव, वह द्वैतभाव भ्रम है। और ये जड़ पदार्थ? ये भी तो मेरे ही शरीर होने के कारण, मैं ही हूँ। कौन सा पदार्थ ऐसा है जो मुझे इस समय 'मैं' रूप दिखाई नहीं देता? मनुष्य भी 'मैं' रूप, पशु-पक्षी भी 'मैं' रूप, पृथ्वी आदि भी 'मैं' रूप । मेरा ही नाम तो है 'ब्रह्म', क्योंकि मैं आत्मा हूँ, पूर्ण चैतन्य प्रभु हूँ । सर्वत्र मैं ही मैं, आत्मा ही आत्मा, ब्रह्म ही ब्रह्म, और कुछ नहीं । अहा हा ! कितना सुन्दर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. संयम ११. तात्त्विक समन्वय है रूप मेरा, सब मैं ही मैं और कुछ नहीं, 'एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति । सर्व खल्विदं ब्रह्म । ' तत्त्वमसि, एक ब्रह्म ही ब्रह्म है दूसरा कुछ नहीं, यह ब्रह्म निश्चय से एक ही है, और वह तू ही तो है। कितनी सुन्दर बात हैं, साम्यता का उच्चतम आदर्श। किसी भी प्राणी को पीड़ा देना ब्रह्म को पीड़ा देना है। यही अभिप्राय है प्राण-संयम का । १७७ और भी देख यह चौथा चित्रण, जिसमें सर्व विश्व एक कुटुम्ब दर्शाया गया है। मैं चैतन्य तथा यत्र-तत्र जहाँ देखूं चैतन्य, जिसे देखूं चैतन्य, मेरी जाति का, मेरी बिरादरी का, मेरी समाज का ही कोई भाई चैतन्य । ज्ञान के नाते, स्वरूप के नाते, इच्छाओं के नाते, सब हैं मेरे ही सहोदर भाई, सब एक चैतन्य की सन्तान अर्थात् एक चैतन्य-भाव के चित्र-विचित्र रूप | और ये सब जड़ ? उस ही चैतन्य के शरीर, उस ही के निवास। छोटे-बड़े रूप में चैतन्य मेरे भाई ही तो हैं, मेरे जैसे ही तो हैं ? अतः यह सर्व विश्व है एक कुटुम्ब, सब की प्रसन्नता है मेरी प्रसन्नता, और सब की पीड़ा है। मेरी पीड़ा। यह अभिप्राय ही है प्राण-संयम | ११. तात्त्विक समन्वय—– इन उपरोक्त चारों चित्रणों का सैद्धान्तिक अर्थ भी यहाँ बता देना योग्य है । जीव, अजीव, आस्रव व बन्ध तत्त्वों का निरूपण किया जा चुका है, जिसमें बताया गया था कि जीव तत्त्व अर्थात् यह चैतन्य अपने से पर-तत्त्वस्वरूप शरीर में अथवा उसके नाम-रूपों में ममत्वबुद्धि करके बराबर अन्तरंग में संस्कारों का तथा बाहर में कर्मरूप जड़ पदार्थ का बन्ध करता रहता है, जिसके फलस्वरूप बराबर नये-नये शरीरों का या नाम-रूपों का स्वत: निर्माण होता रहता है। जैसे कर्म करता है वैसे ही शरीर का निर्माण हो जाता है। इसलिये यदि इस चैतन्य को शरीर का निर्माता या सृष्टा कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी। इस प्रकार के एक या दो नहीं अनन्तों शरीर या रूप अनादिकाल से आज तक यह बना चुका है। वास्तव में लोक में दिखाई देने वाला कोई रूप या शरीर ऐसा नहीं जो इसने अनन्तों बार बना-बनाकर छोड़ न दिया हो । अतः यदि किसी एक चैतन्य के पूर्व के सर्व जीवनों को दृष्टि में लूं तो ऐसा दिखाई देने लगता है कि सारे ही दृष्ट रूपों का सृष्टा यह रह चुका है, और आज भी जो कुछ यह पसारा दिखाई दे रहा है वह सब इस चैतन्य-तत्त्व द्वारा ही सृजन किया जा रहा है। जीवात्माओं के रूप में यह चैतन्य एक नहीं अनन्तों हैं, अतः प्रति समय होने वाली उन सब की सम्मिलित यह सृष्टि भी अनन्त है । यदि एक चैतन्य- जातीयता रूप से देखा जाय तो वे अनन्त जीवात्मायें एक चैतन्य नाम से ही पुकारे जाने के कारण एक हैं। यह परम चैतन्य ही 'ईश्वर', 'ब्रह्म' या 'पुरुष' है और कर्म व कर्मफलरूप विस्तार 'प्रकृति' है । इस प्रकार पुरुष व प्रकृति मिलकर विश्व के सृष्टा हैं। इन सब ही दृष्ट-रूपों में यह चैतन्य तत्त्वस्वरूप ईश्वर बसता है या पूर्व भवों में बसता था। इस प्रकार ये सब ही ईश्वर के निवास-स्थान हैं। इसे ही विशाल दृष्टि से देखने पर यदि भूत और वर्तमान का विकल्प हटा दिया जाय तो सर्वत्र एक ईश्वर, एक ब्रह्म, एक पुरुष, एक चैतन्य-तत्त्व तथा उसके ही चित्र विचित्र रूपों के अतिरिक्त कुछ दिखाई नहीं देता । इस प्रकार सर्वत्र एक अखण्ड ब्रह्म-तत्त्व के दर्शन होते हैं । अनन्त चेतनों की एक जातीयता के कारण ही इसे एक जीव-तत्त्व की संतति कहा जाता है। इस प्रकार यह सर्व विश्व एक चैतन्य का कुटुम्ब बताया गया है। आध्यात्मिक अर्थ में विशालता होती है, अत: विशाल दृष्टि से देखने पर ही उस अर्थ की सुन्दरता का भान होता है, अन्यथा नहीं । इन चारों विख्यात दृष्टियों में कहाँ है वैमनस्य को स्थान, कहाँ है द्वेष को स्थान, कहाँ है घृणा को स्थान, कहाँ है कटुता को स्थान ? जहाँ सर्वत्र मेरा ही निवास है, वहाँ प्रेम के अतिरिक्त और किसी बात को अवकाश कहाँ ? सर्व-सत्त्व में मैत्री, सर्व प्राणियों में प्रेम, सर्व में साम्यता, जहाँ छोटा बड़ा कोई नहीं, कीटाणु व मनुष्य में भेद नहीं । यही तो है वह महान अन्तरंग - अभिप्राय जो प्राण-संयम का मूल है। यह दृष्टि अहिंसा का आदर्श है; 'अहिंसा परमो धर्मः', साम्यता, वीतरागता, प्रेम, शान्ति व सर्वस्व है । इस विश्व-प्रेम के भावो में से स्वतः ही निकल आयेगा, वह भाव जिसकी आज राष्ट्रीय दृष्टि से इस विश्व को बड़ी आवश्यकता है, जो अहिंसा या प्राण संयम का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, विशेषत: मानव-समाज में, और वह है अपरिग्रहता, जिसका कुछ संकेत हिंसा के अनेकों अंगों वाले प्रकरण में आ चुका है। इस भाव का विस्तार करने की आज बड़ी आवश्यकता है, जो आगे अधिकार ३३ में किया जाने वाला है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहिंसा १. कत्र्तव्य विवेक; २. यत्नाचारी अहिंसा; ३. विरोधी हिंसा में अहिंसा; ४. शत्रु कौन; ५. क्रूरजन्तु शत्रु नहीं। १. कर्त्तव्य-विवेक-शान्ति के बाधक विकल्पों से बचने के लिये प्राण-संयम की बात चलती है अर्थात् दूसरे प्राणियों के प्रति मेरा क्या कर्त्तव्य है और मैं किस रूप में कर्त्तव्य-विहीन बना इस लोक में विचरण कर रहा हूँ, दूसरों की शान्ति की अवहेलना करता स्वयं अशान्त बना हुआ हूँ। मेरी किसी भी प्रवृत्ति के द्वारा किसी भी बड़े या छोटे प्राणी को बाधा नहीं पहुँचनी चाहिए, ऐसी सावधानी रखना मेरा कर्तव्य है। इसी का नाम है प्राण-संयम । परन्तु कुछ प्रमादवश, कुछ मनोरंजनवश और कुछ परिस्थितिवश मैंने इस कर्त्तव्य की परवाह नहीं की और सदा निरर्गल चलते हुये मुझको केवल एक ही बात की चिन्ता रही कि जिस किस प्रकार भी पाँचों इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति द्वारा मेरा भोगविलास अक्षुण्ण बना रहे, चाहे अन्य जीव या मेरे पड़ोसी मरें या जीयें, रोयें या हँसे । सम्भल भगवन् सम्भल, तेरे जीवन का कोई लक्ष्य है उसे समझ। दर्शन-खण्ड में चारित्र के अन्तर्गत मन की चंचलता का दिग्दर्शन कराने के लिये पहियों पर दौड़ने वाले मानव के अविश्रान्त जीवन का चित्रण किया गया है। सोच तो सही कि क्या वही है मानव जीवन का सार, क्या वही है तेरा भोग और विलास? जो पुरुषार्थ तू सुख के लिये कर रहा है, उससे उल्टा दुःखी ही हो रहा है, अधिकाधिक जाल में फंसता जा रहा है। अन्य जीवों के सम्बन्ध में अपना कर्तव्य विचारने की तो बात नहीं, तुझे तो अपने कुटुम्ब के प्रति भी अपना कर्त्तव्य सम्भवत: याद नहीं रहा । चिन्ता-सागर में डूबा तू चला जा रहा है किस ओर, , तुझे स्वयं खबर नहीं। सम्भल, सम्भल, तुझे गुरुदेव प्रकाश दे रहे हैं, आँख खोलकर देख । कर्त्तव्यहीन बनकर तो देख लिया, निकली चिन्तायें व व्यग्रतायें। अब कुछ समय को कर्तव्यपरायण भी बनकर देख। यदि अच्छा लगे तो करना नहीं ता छोड़ देना। जबरी नहीं है, करुणापूर्ण प्रेरणा है। हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार व परिग्रह के १२९६० कुल भंगों के द्वारा जीवों के प्राणों को रोंदता में चला जा रहा हूँ किस ओर, मुझे स्वयं खबर नहीं । अव्वल तो उनकी पीड़ा मेरे उपयोग में नहीं आती और आवे भी तो इतना कहकर सन्तोष पा लेता हूँ कि १. क्यों आये ये प्राणी मेरे मार्ग में? या यह कह कर अपनी निरर्गलता का पोषण कर लेता हूँ कि २. यदि सर्व ही जगत संयमी बन जाये तो जगत का व्यवहार कैसे चले, जगत का व्यवहार चलाना भी तो किसी का कर्तव्य है ही, बस वह कर्त्तव्य पूरा कर रहा हूँ । या यह कहकर सन्तोष कर लेता हूँ कि ३. मैं तो गृहस्थ हूँ, इस सबके बिना मेरा काम नहीं चलेगा। या यह कहकर अपना स्वार्थ पुष्ट कर लेता हूँ कि ४. यह सर्व सृष्टि मेरे भोग के लिये ही तो बनी है। इत्यादि अनेकों घातक अभिप्राय हैं जिनके कारण साक्षात् मेरा अहित हो रहा है और अशान्ति के सागर में डूबा जा रहा हूँ मैं बेखबर।। (१) भगवन् छोड़ दे इन निर्विवेक विकल्पों को एक क्षण के लिये, किसी दूसरे के लिये नहीं अपनी शान्ति प्राप्ति के लिये । अन्य जीवों में और तुझमें बड़ा अन्तर है । अन्य क्षुद्र जीवों में तो ज्ञान नहीं इसीलिये बेचारे आ जाते हैं मार्ग में, भूख जो सताती है उन्हें ? आहार की खोज में निकल आते हैं इस ओर बेचारे, अन्धे की भाँति । यदि बैठे रहते अपने निश्चित स्थान पर तो तू ही बता कौन देता खाना उन्हें ? जिस प्रकार तुझे खाने की चिन्ता है इसी प्रकार उन्हें भी तो अपने उदर-पोषण की चिन्ता है। वे भी तो तेरे समान ही प्राणी हैं । तुझे ज्ञान मिला है, बुद्धि मिली है, साधन मिले हैं, परन्तु उनको तो ये नहीं मिले हैं। अन्धा मार्ग पर चला जाता है और तू भी उसी मार्ग पर चला जाता है, तो बता बचना किसका कर्त्तव्य है, अन्धे का या तेरा ? उस बेचारे के नेत्र ही नहीं, बचेगा कैसे? बचना तो तेरा ही कर्त्तव्य है, आंखवाला, ज्ञानवाला जो ठहरा तू । तुझे ज्ञान, बुद्धि व साधन इसीलिये तो मिले हैं कि तू अपनी रक्षा करे और दूसरों Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ २७. अहिंसा २. यत्नाचारी अहिंसा की भी । इन ज्ञानादि का मिलना तभी तो सार्थक है जब कि उनका उपयुक्त प्रयोग हो, अन्यथा तुझे कौन कहेगा ज्ञानी तथा इस ज्ञान से तेरा हित भी क्या होगा? (२) कितना अच्छा हो कि सकल जगत के संयमी बनने का तेरा विकल्प पूरा हो जाय । यद्यपि यह बात असम्भव है, क्योंकि वर्तमान में जीवन के लिये अत्यन्त उत्तम समझा जाने वाला एंजीनियरिंग-लाइन का ग्रहण सर्व सम्मत व आकर्षक होते हुये भी, क्या यह सम्भव है कि सब ही एंजीनियर बन जायें? यदि झूठी कल्पना इस प्रकार की बनाकर यह फर्ज भी कर लिया जाय कि सर्व जगत संयमी बन गया, तो इससे अच्छी बात क्या है ? जगत का व्यवहार चलता रहे, इस बात की आवश्यकता ही क्या है तथा तुझे इस जगत व्यवहार को चलाने का ठेकेदार बनाया किसने? सर्व जगत संयमी हो जाय तो न हो इच्छायें, न हो चिन्तायें, न हो दौड़-धूप, न हो द्वेष, न, हो घृणा, न हो युद्ध, न हो एटमबम; किन्तु हो केवल शान्ति का प्रसार इस धरातल पर, मानो यही मोक्ष-स्थान है, बैकुण्ठ है। इससे उत्तम बात क्या हो सकती है? क्या उपरोक्त इन चिन्ताओं आदि का अभाव भी नहीं भाता तुझे? इस तेरे झूठे विलास ने तेरी बुद्धि को ढक दिया है। भो चेतन ! विचार तो सही, तू स्वयं निश्चिन्त होना चाहता है और जगत का निश्चिन्त होना तुझे भाता नहीं। कैसे पायेगा निश्चिन्तता तू स्वयं? (३) ठीक है तू गृहस्थ है, पूर्णतया इन सर्व १२९६० विकल्पों का त्याग करके तू वर्तमान में न चल सकेगा, क्योंकि इतनी शक्ति ही नहीं तुझमें, परन्तु सुनकर ही घबरा जाना पुरुषार्थी का काम नहीं, यह कायरता है । तू उन वीर गुरुओं की सन्तान है जिन्होंने उस शत्रु को परास्त किया जिससे बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट हार मान गये, जिन्होंने अन्तर्विकल्पों का नाश किया और अत्यन्त निर्मल शान्ति में स्थिरता प्राप्त की । तुझे शक्ति से अधिक करने के लिये नहीं कहा जा रहा है, जितना कहेंगे उतनी शक्ति अब भी तेरे अन्दर अवश्य है। प्राणों के बाधाकारक उपरोक्त १२९६० विकल्पों को पूर्णतया भले त्याग न सके परन्तु इनमें से कुछ विकल्पों को त्यागने में तू अब भी समर्थ है । आरम्भी, उद्योगी तथा विरोधी हिंसा में लाग होने वाले जो विकल्प हैं उनको अवश्य तु वर्तमान परिस्थिति में निज-शरीर कुटुम्ब और सम्पत्ति आदि के मोहवश तथा शक्ति की हीनतावश नहीं त्याग सकता, परन्तु निष्प्रयोजन तथा केवल मनोरंजन के अर्थ होने वाली संकल्पी हिंसा के भंगों को तू अवश्य त्याग सकता है, अर्थात् शिकार खेलना अथवा हिंसक जन्तु कुत्ता आदि पालना। इनके त्याग द्वारा परोक्ष (इनडायरेक्ट) रूप में तू अनेकों मूक पशुओं तथा पक्षियों के प्राणों को पीड़ा पहुँचाने से अपने को रोक सकता है । क्या ऐसा करने से तेरे शरीर को या गृहस्थी को कोई भी बाधा होनी सम्भव है? २. यत्नाचारी अहिंसा-शान्ति का खोजी बनकर निकला है तो दूसरों के सुख व शान्ति की चिंताओं पर अपनी शान्ति का प्रासाद बनाने का प्रयत्न मत कर । कितने दिन टिका रहेगा वह प्रासाद? इस प्रासाद में तू निर्भय न रह सकेगा। अत: उन सब १२९६० विकल्पों में से संकल्प द्वारा बिना प्रयोजन वाले पूर्वोक्त ३२४ विकल्पों का त्याग कर ही देना चाहिये। शेष रही उद्योगी, आरम्भी व विरोधी हिंसा, सो उनमें भी तुझे निरर्गलता का त्याग करके अपने को संयमी बनाना चाहिये । उद्योगादिक की आवश्यक क्रियाओं में होने वाली हिंसा से गृहस्थ में रहते हुये तू सर्वत: नहीं बच सकता, परन्तु उन क्रियाओं में भी यत्नाचार व विवेक रखकर तू बहुत अधिक हिंसा से बच सकता है । अन्नादि का शोधन करके उनमे से निकली जीव-राशि को यदि मार्ग में न डालकर किसी कोने में डाले तो तूने उनकी शान्ति का सत्कार अवश्य किया, और इतने अंश में तू संयमी अवश्य हुआ। जलादि से वनस्पति पर्यन्त जीवों की पूर्ण रक्षा तू भले न कर सके, परन्तु केवल आवश्यकतानुसार उनका प्रयोग करने से क्या प्रमादवश होने वाले उनके अनावश्यक व्यय से भी तू नहीं बच सकता? जितने कम से कम पानी में काम चले उससे चला, नल को खाली खुला न छोड़। रोज की आवश्यकता के अनुसार ही वनस्पति घर में ला, फालतू नहीं । धड़ियों वनस्पति न सुखा । पंखे को फालतू चलता हुआ न छोड़। अग्नि को या बल्ब को आवश्यकतानुसार ही जला फालतू नहीं। यदि ऐसा यत्नाचार वर्ते तो बड़े अंश में तू इन स्थावर व जंगम जीवों की हिंसा से बच सकता है। यह तो बाह्य-स्थूलकायिक हिंसा से बचने की बात है, इससे भी ऊपर बात है, उस अहिंसा की जो असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन चारों पापों का यथाशक्ति त्याग करने Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहिंसा १८० ३. विरोधी हिंसा में अहिंसा से प्राप्त होती है, और उससे तेरी गृहस्थी बिगड़ने की बजाय कुछ अच्छी बनती है। तू ही बता कि यदि व्यंगात्मक या मर्मच्छेदी वचनों के द्वारा तू किसी का हृदय छलनी न करे तो क्या हानि है तेरी? लाभ ही लाभ है। सबके साथ सहज मैत्री व प्रेम प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार मन से किसी का अनिष्ट चिन्तवन न करे तो क्या हानि है तेरी? इन सूक्ष्म हिंसाओं की उपेक्षा करके संयम को केवल कायिक हिंसा के निरोध तक सीमित रखना इसके अर्थ की हिंसा करना है। ३. विरोधी हिंसा में अहिंसा-प्राण-संयम की बात चलती है, उसके अन्तर्गत संकल्पी-हिंसा का पूर्ण त्याग और उद्योगी व आरम्भी हिंसा में भरसक यत्नाचार रखने के लिये कल बताया जा चुका है। अब चलती है विरोधी हिंसा की बात । गृहस्थ में रहते हुये अपनी, कुटुम्ब की, व अपनी सम्पत्ति की रक्षा करना मेरा कर्तव्य है। घर में कोई चोर या डाकू मेरी सम्पत्ति का अपहरण करने के लिये घुस आवे तो मेरा कर्त्तव्य वहाँ से भाग जाना, या चुपके से जो मांगे दे देना नहीं है, ऐसा करना कायरता है। इसके अतिरिक्त मेरे देश पर, उस पर जिसका सीना चीरकर उत्पन्न की गई सम्पत्ति सखपर्वक मैं उपभोग कर रहा हूँ, यदि कोई आक्रमण करने को उद्यत हआ हो तो यह समझकर कि इस विरोधी का मुकाबला करने में अनेकों का लहू बह जायेगा मैं हिंसक बन जाऊँगा, मुँह छिपा लेना कायरता है । अहिंसा या प्राण संयम कायरता का नाम नहीं, अहिंसा वीरों का भूषण है, क्षत्रियों का धर्म है, अतुल बलधारी ही इसका पालन कर सकते हैं । यह अहिंसा की प्रतिष्ठा का ही कोई अचिन्त्य प्रताप है कि सिंह-गाय, बिल्ली-चूहा, सर्प-नेवला आदि जैसे विरोधी जीव भी परस्पर का वैर भूलकर बैठ जाते हैं वीतरागी जनों के चरणों में शान्तचित्त । RAMESi ये हैं अहिंसा के आदर्श पूर्ण संयमी जो किसी का विरोध नहीं करते, PA और इसीलिये जिनके चरणों में आकर Timal अन्य जीव भी वैर विरोध भूल जाते हैं। -aveal अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग:"। अहिंसा का ठीक-ठीक परिचय न होने के कारण ही आज का विश्व अहिंसा को कायरता का प्रतीक कह रहा है, इसी को भारत देश के ह्रास का कारण कह रहा है। परन्तु क्या उसे अब भी विश्वास नहीं हुआ अहिंसा के पराक्रम पर, जब कि एक इसी हथियार के द्वारा मुकाबला किया गया तोपों का, टैंकों का, बमों का, तथा आधुनिक बड़े-बड़े हथियारों का, और जीत हुई इसी के पक्ष की अर्थात् भारत स्वतन्त्र हो गया, बिना रक्त की एक बूंद गिराये। सम्भवत: विश्वास नहीं फिर भी इसके महान पराक्रम पर । तो देख और अनेक ढंगों से दिखाता हूँ अहिंसा का पराक्रम । गृहस्थी पर या देश पर उपरोक्त अवसर आ पड़ने पर एक गृहस्थ अहिंसक का कर्तव्य है कि अपनी व अन्य की तथा देश की रक्षा करने के लिये बाजी लगा दे अपनी जान की, भले शत्रु प्रबल हो पर भिड़ जावे उससे । अहिंसक को अपमान के जीवन की अपेक्षा मृत्यु अधिक प्रिय है। मृत्यु उसके लिये बच्चों का खेल है, जैसे कि एक खिलौना लिया और टूट जाने पर दूसरा ले लिया। किस काम आयेगा फिर यह चमड़े का शरीर, यदि आज मेरे सम्मान की रक्षा में इससे कोई सहायता न मिले। इतने दिनों से बराबर इसे पोषता चला आया हूँ आज अवसर आया है इसकी परीक्षा का, मेरी सेवा का मूल्य चुकाने का। और यदि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहिंसा १८१ ४. शत्रु कौन आज इसने कृतघ्नता दिखाने का प्रयल किया तो फिर यह मेरा कैसा? मित्र से उसी समय तक प्रेम होता है जब तक कि उसकी कतघ्नता प्रकट नहीं हो जाती। या तो आज इसे सहर्ष अपना कर्तव्य निभाकर अपनी कतज्ञता प्रकट करनी होगी, या मेरे द्वारा इसे दण्ड भोगना होगा। दोनों दशाओं में इसे क्षति ही उठानी होगी, दोनों दशाओं में इसे मृत्यु का आलिंगन करना होगा, परन्तु एक दशा में होगी वीरों की मृत्यु और दूसरी दशा में कुत्ते की मृत्यु । बता कौन सी मृत्यु स्वीकार है तुझे? सोचने का अवकाश नहीं, शत्रु सामने खड़ा है। ये होती हैं कुछ विचारधारायें, जो एक सच्चे अहिंसक के हृदय में ऐसे अवसरों पर उत्पन्न हुआ करती हैं। क्योंकि इस बात का दृढ़ विश्वास होता है उसे प्रत्यक्षवत्, कि वह अबाध्य व अघात्य चिदानन्द भगवान आत्मा है, और शरीर उसका सेवक उसकी शान्ति की रक्षा करने के लिये है। इसलिये वह बिल्कुल निर्भय होता है। शरीर चला जायेगा तो और मिल जायेगा, पर सम्मान चला जायेगा, धर्म चला जायेगा, साहस चला जायेगा, तो फिर न मिलेंगे, मेरे अन्तरंग की सर्व सम्पत्ति ही लुट जायेगी। नहीं-नहीं यह सब कुछ उसे असह्य है। जो अहिंसक अन्य अवसरों पर चींटी पर भी दया करता है, ऐसे अवसरों पर अत्यन्त निर्दय हो जाता है। ___ बात कुछ अटपटी सी लग रही होगी । अहिंसा और रक्त-प्रवाह, दो विरोधी बात कैसी? परन्तु यह प्रश्न तब ही तक तेरे हृदय में स्थान पा रहा है जब तक कि अहिंसा का यथार्थ रूप जान नहीं पाता । क्रियाओं में अवश्य विरोध दीख रहा है पर अभिप्राय में विरोध नहीं है । हिंसक भी शत्रु से युद्ध करता है और अहिंसक भी, दोनों के द्वारा ही युद्ध में मनुष्य-संहार होता है, परन्तु फिर भी हिंसक निर्दय और अहिंसक दयाल ही बना रहता है। इसकी परीक्षा बाह्य की सकती. अन्दर का अभिप्राय पढना होगा। दोनों के अन्तरंग अभिप्राय में महान अन्तर है। हिंसक के अन्दर है आक्रमण और अहिंसक के अन्दर है केवल रक्षा, हिंसक के हृदय में है द्वेष और अहिंसक के हृदय में है क्षमा। (देखो ३४.२) हिंसक को होता है इस नर-संहार को देखकर हर्ष और अहिंसक को होता है पश्चाताप । इसलिये हिंसक न्याय-अन्याय के विवेक से शून्य होकर प्रहार करता है हथियार रहित पर भी, सोते हुये पर भी, स्त्री बूढ़े व बच्चे पर भी, घायल व अपाहिज पर भी। दूसरी ओर अहिंसक का हृदय ऐसे विचार मात्र से भी कांपता है, किसी मूल्य पर भी विवेक बेचने को वह तैयार नहीं। उसे अपनी हार की चिन्ता नहीं, उसे अपनी मृत्यु की चिन्ता नहीं, चिन्ता है केवल न्याय व कर्त्तव्य की और इसलिये कभी प्रहार नहीं करता छिपकर या हथियार-रहित पर, सोते पर, या पीठ दिखाकर भागते पर, या बच्चे व बढे पर, या घायल और अपाहिज पर । हिंसक करता है अपनी ओर से पहल दुसरे के घर पर जाकर, और अहिंसक करता है सामना अपने घर पर आए हुए का। हिंसक घायल व अपाहिज शत्रुओं पर करता है अट्टहास, और अहिंसक करता है उनसे मित्रवत् प्रेम । शान्त-सम्भाषण के द्वारा प्रयत्न करता है वह उन्हें सान्त्वना देने का । युद्ध के पश्चात् अहिंसक स्वयं करता है घायलों की सेवा, और हिंसक मारता है उनको ठोकरें । हिंसक के हृदय में है बदले की भावना और अहिंसक के हृदय में है क्षमा । यह है दोनों की क्रियाओं में अन्तर, जो अन्तरंग अभिप्राय के द्वारा ही होना सम्भव है। अभिप्राय में इस अन्तर के कारण ही एक है हिंसक और दूसरा है अहिंसक। इस अभिप्राय पूर्वक बाहर में विरोधी-हिंसा करने वाला गृहस्थ वास्तव में अन्तरंग में हिंसा करता ही नहीं, और इसलिये उसके प्राण-संयम में बाधा आती नहीं। अत: विरोधी-हिंसा को यदि आवश्यक समझता है अपने लिये इस परिस्थिति में, तो भी अभिप्राय में तो कुछ परिवर्तन कर ही सकता है। उनसे तो कोई बाधा नहीं आती तेरी गृहस्थी को या तेरे शरीर को? ४. शत्रु कौन-शान्ति-प्राप्ति के उपाय में प्राण-संयम अर्थात् अहिंसा की बात चलती है । अहिंसा का व्यापक रूप दर्शा दिया गया-अपनी रक्षार्थ विरोधी हिंसा यथायोग्य रूप में करना एक वीर अहिंसक गृहस्थ का कर्तव्य बता दिया गया, परन्तु इस विरोध का पात्र कौन है, यह बात भी यहाँ जाननी आवश्यक है । क्योंकि यह जाने बिना तथा विवेक किये बिना तो मैं जिस-किसी को भी विरोधी की कोटि में गिनने लगूंगा । जहाँ तनिक भी किसी मनुष्य, तिर्यंच, कीड़े, मकोड़े आदि के द्वारा मेरी रुचि के विरुद्ध कोई कार्य हुआ कि मै समझ बैठा उसे विरोधी, और दौड़ पड़ा उसका नाश करने के Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहिंसा १८२ ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं लिये। यह संयम नहीं कहलायेगा। ऐसा तो सर्व लौकिक जन ही करते हैं, फिर तुझमें व उनमें, एक संयमी में और एक असंयमी में अन्तर ही क्या रह जायेगा? ऐसा करना ठीक नहीं, जिस-किसी को अपना शत्रु मान लेना योग्य नहीं । तेरी इष्टता व अनिष्टता मित्र व शत्रु की पहिचान नहीं । बुद्धि रखने वाले मानव ! कुछ विवेक उत्पन्न कर। शत्रु व मित्र की पहिचान का आधार तेरी रुचि नहीं बल्कि उन-उन जीवों में वर्तने वाला कोई अभिप्राय विशेष है। पत्र की या मुनीम की किसी गलती के कारण व्यापार में हानि हो जाने पर भी आप उन्हें अपना शत्र नहीं मान लेते, परन्तु मुनीम की बेईमानी के कारण व्यापार में हानि पड़ जाने पर अवश्य उसे शत्रु समझते हो। डाक्टर के द्वारा किसी औषधि से या आप्रेशन से आपके पुत्र की मृत्यु हो जाने पर आप उसे शत्र नहीं मानते परन्तु किसी विद्वेषी के द्वारा विष से या हथियार से आपके पुत्र की मृत्यु हो जाने पर आप उसे शत्रु समझते हो, इत्यादि । इन दृष्टान्तों पर से मित्र व शत्रु का लक्षण बना लेना यहाँ उपयुक्त है। “मित्र उसे कहते हैं जिसके अभिप्राय में मेरा हित हो, प्रेम हो; और शत्रु उसे कहते हैं जिसके अभिप्राय में मेरा अहित हो, द्वेष हो।" मित्र व शत्रु के अतिरिक्त एक तीसरी कोटि भी जीवों की है और वह है उनकी जिन्हें कि मुझसे न प्रेम है न द्वेष, जैसे कि सर्व नगरवासी । शत्रु के उपरोक्त लक्षणों पर कुछ और विशेषता से, कुछ और सूक्ष्मता से विचार करने पर हर वह प्राणी जिसके हृदय में मेरे प्रति अहित की भावना हो, मेरा शत्रु नहीं हो सकता। क्या विरोधी हिंसा के अन्तर्गत शत्रु से युद्ध करता उपर्युक्त अहिंसक अपने विरोधी का शत्रु कहा जा सकता है? नहीं क्योंकि वह विरोधी यदि उसके सम्मान पर, उसके देश पर स्वयं आक्रमण न करता तो उस अहिंसक के लिये वह तीसरी कोटि का एक सामान्य मनुष्य मात्र था, न था शत्र और न था मित्र । क्या महात्मा गांधी को अंग्रेजों का शत्रु कहा जा सकता है? नहीं, क्योंकि मेरे देश को छोड़ दो, और कुछ नहीं चाहिए मुझे तुमसे ऐसा अभिप्राय रखने वाला गांधी न उनका शत्रु था न मित्र । फलितार्थ यह निकला कि द्वेष दो प्रकार का है, एक स्वार्थवश किया जाने वाला और एक अपनी रक्षा के अर्थ किया जाने वाला । केवलं रक्षा के अर्थ किया जाने वाला द्वेष क्षणिक होता है तथा उसके पीछे पड़ी रहती है समता व माध्यस्थता, जिसमें न शत्र का भाव रहता है न मित्र का। स्वार्थवश किया जाने वाला द्वेष ध्रुव होता है, निष्कारण होता है, जब भी मौका देखता है तब ही निष्कारण हानि पहुँचाने का प्रयत्न करता है। ये हुई द्वेष की दो कोटियाँ जिनमें उपरोक्त दृष्टान्तों पर से यह सिद्ध होता है कि 'रक्षार्थ क्षणिक द्वेष रखने वाला प्राणी शत्रु नहीं हो सकता और स्वार्थवश निष्कारण द्वेष रखने वाला प्राणी शत्रु है।' ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं-शत्रु के इस लक्षण पर से शत्रु का निर्णय कर लेने पर ही विरोधी हिंसा को गृहस्थ का कर्तव्य बताया गया है-निरर्गल हिंसा को नहीं । इस विवेक के अभाव में ही आज का मानव उन सर्व जीवों को, जो किसी भी अभिप्राय से उसके शरीर को बाधा पहुँचा रहे हों अथवा जिनसे कदाचित् बाधा पहुँचने की सम्भावना हो, अपना शत्रु मानकर जिस-किसी प्रकार भी उनके विनाश के उपाय किया करता है। उदाहरण के रूप से सिंह, सर्प, बिच्छ भिर्र ततैया सब उसके शत्र हैं क्योंकि भले आज न सही पर कल उनसे बाधा पहुँचने के । सम्भावना हो सकती है और इसी कारण मानव का आज ऐसा अभिप्राय बन रहा है कि निष्कारण भी जहाँ कहीं वे मिलें उन्हें मार डालो। __ शत्रु का उक्त लक्षण घटित करने पर आपको आश्चर्य होगा कि जिसे शत्रु समझा जा रहा है यहाँ वह वास्तव में माध्यस्थ वाली तीसरी कोटि का प्राणी है । क्योंकि उपरोक्त सिंह आदि कभी किसी पर निष्कारण आक्रमण नहीं करते और मानव निष्कारण केवल द्वेषवश उन पर आक्रमण करता है । वे प्राणी यदि मानव को बाधा पहुँचाते हैं तो अपनी रक्षार्थ और मानव उन्हें मारता है तो स्वार्थवश, द्वेषवश, निरपराध । यह बात सभी जानते हैं कि सर्प, बिच्छू, भिर्र, ततैया आदि बिना दबे अर्थात् बिना अपने पर उपसर्ग जाने, बिना अपने पर प्रहार हुये, कभी किसी पर प्रहार नहीं करते । करते अवश्य हैं पर अपनी रक्षार्थ केवल उस समय जबकि उन्हें अपने पर बाधा आती प्रतीत हो। जवाहरलाल नेहरू जेल में जो कोठरी मिली उसमें भिरों के कई बड़े-बड़े छत्ते थे। भिरें जब भय के कारण कष्ट देने लगीं इस महान नेता को तो उसने मारना प्रारम्भ कर दिया उन्हें । भिरें उसके साथ घोर युद्ध करने पर उतर आई । नेता सब समझ गए। उन्होने उनके साथ सन्धि कर ली और उनको मारना बन्द कर दिया। युद्ध रुक गया। भिरें भी वहाँ रहें और नेता भी, न वह उन्हें बाधा पहुँचावे और न वे उसे काटें । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७. अहिंसा १८३ ५. क्रूर जन्तु शत्रु नहीं __ अब रही सिंह आदि उन जन्तुओं की बात जिन्हें क्रूर कहा जाता है। वहाँ भी यदि कुछ गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि क्रूर कौन है, सिंह कि मानव, जो कि उन क्रूरों के प्रति भी क्रूर है, जो उनका निष्कारण बिना अपराध शत्रु बन बैठा है ? वास्तव में यदि देखा जाय तो जगत का सबसे अधिक क्रूर प्राणी मानव है, जिससे सर्व ही सृष्टि भय खाती है, जिसे एटमबम द्वारा जगत में प्रलय मचाते भी कोई झिझक उत्पन्न नहीं होती। पर स्वार्थी मानव अपने को अपराधी कैसे बताये? दृष्टि पर चढ़ा है स्वार्थ का चश्मा जिससे उसे सब दिखाई देते हैं शत्रु व क्रूर । यदि सिंह को मानव से किसी प्रकार के आक्रमण की आशंका न हो तथा उसके प्रेम के प्रति उसे विश्वास दिला दिया जाय तो आपको आश्चर्य होगा यह सुनकर कि यह बड़ा मधुर है, बड़ा स्वामी भक्त है और बड़ा कृतज्ञ है । मानव कृतघ्नी हो सकता है पर वह नहीं, मानव अपने उपकारी को भूलकर स्वार्थवश उसका अनिष्ट कर सकता है और कर रहा है, पर उसके द्वारा ऐसा होना सम्भव नहीं। यूनान के एक दास एन्ड्रयोकुल्यीज़ का विश्वविख्यात दृष्टान्त हर किसी को याद है, सच्ची घटना है, कपोल-कल्पना नहीं। घटना है उस जमाने की जब यूनान में दास-प्रथा बड़े जोरों पर थी, मनुष्य पशुवत् बाजारों में बिकते थे. उनके साथ पशओं का सा व्यवहार किया जाता था और उस बेचारे को उफ़ करने का भी अधिकार नहीं था। यदि तंग आकर बिना स्वामी की आज्ञा से घर से भागा तो राज्य की ओर से था उसके लिये मृत्यु-दण्ड, और वह भी बड़ी क्रूरता से, सारे नगरवासियों के सामने । एन्ड्रयोकुल्यीज़ एक धनिक का दास था, स्वामी के व्यवहार से तंग आकर र से भागा. पलिस के डर से राज्यमार्ग छोडकर वन की राह ली और चलते-चलते वन में प्रवेश किया। एक हृदय-भेदक कर्राहट उसके कान में पड़ी। सहसा ही उसके पग रुके और वह घूम गया उस दिशा की ओर जिधर से कि वह पीड़ा-मिश्रित कर्राहट आ रही थी। आज उसे मृत्यु का भय नहीं था, मृत्यु तो आनी ही है आज नहीं तो कल, राज्य के द्वारा दण्ड भी तो मृत्यु का ही मिलना है, फिर कर्त्तव्य से विमुख क्यों रहूँ? सामने देखा एक सिंह जो बार-बार अपना पाँव जमीन पर पटक रहा था । एण्ड्रयोकुल्यीज़ को यह जानते देर न लगी कि उसके पाँव में असह्य पीड़ा हो रही है। निर्भय होकर वह आगे बढ़ा। उसके हृदय में था कर्त्तव्य, दया व प्रेम । सिंह ने पाँव आगे कर दिया और दयालु दास ने उसके पाँव से वह तीखा शूल खेंचकर फैंक दिया जो आधा उसके पंजे में घुस चुका था, जिसकी पीड़ा से वह बेचैन हो रहा था। सिंह ने एक नजर अपने उपकारी की ओर देखा और फिर पकड़ी अपनी राह ।। पुलिस से बचकर कहाँ जाता बेचारा, पकड़ा गया, नगरवासी इकट्ठे किये गये। बीच में रक्खा था एक बहुत बड़ा जंगला। एण्ड्रयोकुल्योज़ उसमें खड़ा अपने जीवन की शेष घड़ियों को निराशापूर्वक गिन रहा था। सिंह का पिंजरा लाया गया और छोड़ दिया सिंह उस जंगले में । लोग टकटकी लगाये देख रहे थे । चार दिन का भूखा सिंह अब खा जायेगा इस बेचारे को और वह भी था भयभीत । सिंह तेजी से आगे बढ़ा एक गर्जना के साथ । परन्तु हैं? यह क्या? क्या यह भी सम्भव है? लोग आँखे मल-मलकर देखने लगे और आखिर विश्वास करना पड़ा। निकट आकर सिंह ने उसे संघा और ज्यों का त्यों शान्त वापिस लौट गया। सिंह को भखा रहना स्वीकार था पर अपने उपकारी को अपना भोज्य बनाना स्वीकार नहीं था । एक दो मिनट मात्र का ही तो सम्पर्क हुआ था उस वन में उन दोनों का, पर सिंह उसको न भूल सका, उस गन्ध को जो उसे उस समय आई थी उस मनुष्य में से जबकि उसने उसका कांटा निकाला था। यह है सिंह की कृतज्ञता का दृष्टान्त । इसलिये भो मानव ! कुछ विवेक कर, हर किसी को निष्कारण अपनी गोली का निशाना न बना । ऐसा करने का नाम विरोधी हिंसा नहीं है। सांप बिच्छू आदि को भी निष्कारण मारना विरोधी हिंसा नहीं है । प्रहार न करते हुये तो ये शत्रु हैं ही नहीं, परन्तु प्रहार करते हुये भी ये शत्रु कहे नहीं जा सकते, क्योंकि उनका इस प्रकार का पुरुषार्थ रक्षार्थ होता है। सबके साथ तू प्रेम करना सीख । तू दूसरों का रक्षक बनकर आया है भक्षक बनकर नहीं । दूसरों की रक्षा करना ही तेरा गौरव है, नहीं तो तू ही बता कि तुझमें और पशु में क्या अन्तर? निष्कारण उन्हें मारने वाले ! तेरा जीवन सम्भवत: उनसे भी नीचा है। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि 38888880 १. तामस राजस विवेक; २. भक्ष्याभक्ष्य विवेक; ३. बैक्टेरिया विज्ञान; ४. मर्यादा काल; ५. छुआ-छूत; ६. मनवचन काय शुद्धिः ७. आहार-शुद्धिः ८. मांस निषेध; ९. मछली अण्डा निषेध; १०. चर्म निषेध; ११. दूध दही की भक्ष्यता; १२. समन्वय। शान्ति अर्थात् आन्तरिक निर्मलता, स्वच्छता व सरलता की प्राप्ति की बात के अन्तर्गत संयम का प्रकरण चल चुका । क्योंकि जीवन की स्वच्छता का अन्तरंग तथा बहिरंग-संयम के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिये इस प्रकरण का विस्तार कुछ अधिक हो जाना स्वाभाविक है। संयम ही वास्तव में शान्ति-पथ पर चलने का अभ्यास है, इसके बिना केवल तत्त्व चर्चा करने से अथवा शास्त्राभ्यास कर लेने मात्र से जीवन शान्त होना असम्भव है। जीवन को शान्त बनाने के लिये उन सर्व व्यापारों से इसे रोकने की आवश्यकता है जो कि अशान्तिजनक विकल्पों की उत्पत्ति में कारण पड़ते हैं। इन्द्रिय-संयम में इन्द्रियों को रोकने की अर्थात् उन पर नियन्त्रण करने की बात कही; और प्राण-संयम में अपने आस-पास रहने वाले अन्य छोटे व बड़े प्राणियों के प्रति अपना कर्तव्य अकर्तव्य दशांकर, विश्व्यापी अन्तर्गम जागृत करने का प्रयत्न किया गया । अब बात चलती है भोजन-शुद्धि की। क्योंकि आचार-विचार की शुद्धि मन:शुद्धि पर अवलम्बित है और मनः शद्धि आहार शद्धि पर, उस पर जो कि हमारे जीवन की सर्वप्रधान आवश्यकता है। इसलिये संयम के इस प्रकरण में इस विषय का विस्तृत विचार होना अत्यन्त आवश्यक है। १. तामस-राजस-विवेक भोजन को विचारों पर तथा जीवन पर प्रभाव डालने की अपेक्षा तीन कोटियों में विभाजित किया जा सकता है-तामसिक, राजसिक व सात्विक । तामसिक भोजन शान्ति-पथ की दृष्टि से अत्यन्त निकृष्ट है क्योंकि इससे प्रभावित हुआ मन अधिकाधिक निर्विवेक व कर्त्तव्यशून्य होता चला जाता है । तामसिक वृत्ति वाले व्यक्ति अपने लिये ही नहीं बल्कि अपने पड़ोसियों के लिये भी दुःखों का तथा भय का कारण बने रहते हैं, क्योंकि उनकी आन्तरिक वृत्ति का झकाव प्रमुखत: अपराधों, हत्याओं. अन्य जीवों के प्राण-शोषण तथा व्यभिचार की ओर अधिक रहा करता है। राजसिक भोजन का प्रभाव व्यक्ति को विलासता के वेग में बहा ले जाता है और इन्द्रियों का पोषण करना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है । सात्विक भोजन का प्रभाव ही जीवन में सरलता, सादगी, विवेक, कर्तव्य-परायणता व सहिष्णुता उत्पन्न करने में समर्थ है। तामसिक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जो प्राण-पीडन के विवेक से रहित होकर निरर्गल रूप से बनाया गया हो; जिसमें मांस, मद्य, मधु, अंजीर, लहसुन, प्याज, कन्द, मूल, फूल आदि कुछ ऐसे पदार्थों का ग्रहण करने में आया हो जिनकी उत्पत्ति बड़े या छोटे प्राणियों के प्राणों का (दे०७२) घात किये बिना नहीं होती। हीनाधिक रूप में ऐसे सर्व पदार्थ मन पर तामसिक प्रभाव डालते हैं अर्थात मन में अन्धकार उत्पन्न करते हैं. जिर रते हैं. जिसके कारण विवेक व कर्तव्य ही दिखाई नहीं देता, शान्ति-प्राप्ति का तो प्रश्न क्या? राजसिक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जो इन्द्रिय-पोषण और विलासिता की अर्थात् स्वाद की दृष्टि से बनाया गया हो । आज के युग में इसका बहुत अधिक प्रचार हो गया है। होटलों व खौंचे वालों की भरमार वास्तव में मानव की इस राजसिक वृत्ति का ही फल है । अधिक चटपटे, घी में तलकर अधिकाधिक स्वादिष्ट बना दिये गये, तथा एक ही पदार्थ में अनेक ढंग से अनेक स्वादों का निर्माण करके ग्रहण किये गये, या यों कहिये कि ३६ प्रकार के व्यंजन या भोजन की किस्में (Varieties) अथवा पौष्टिक व रसीले पदार्थ सब राजसिक भोजन में गर्भित हैं। ऐसा भोजन करने से व्यक्ति जिह्वा का दास बने बिना नहीं रह सकता और इसलिये शान्ति-पथ के विवेक से वह कोसों दूर चला जाता है। सात्विक भोजन से तात्पर्य उस भोजन से है जिसमें ऐसी ही वस्तुओं का ग्रहण हो जिनकी प्राप्ति के लिये स्थूल हिंसा न करनी पड़े अर्थात् अन्न, दूध, दही, घी, खांड व ऐसी वनस्पतियां जिनमें त्रस जीव अर्थात् उड़ने व चलने फिरने Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १८५ २. भक्ष्याभक्ष्य-विवेक वाले जीव न पाये जाते हों। ऐसा भोजन ग्रहण करने से जीवन में विवेक, सादगी व दया आदि के परिणाम सुरक्षित रहते हैं । यहाँ इतना जानना आवश्यक है, कि उपरोक्त सात्विक पदार्थ ही तामसिक या राजसिक की कोटि में चले जाते हैं यदि इनको भी अधिक मात्रा में प्रयोग किया जावे। पूरी भूख से कुछ कम खाने पर अन्न सात्त्विक है और भूख से अधिक खाने पर तामसिक, क्योंकि तब वह प्रमाद व निद्रा का कारण बन बैठता है। एक सीमा तक घी का प्रयोग सात्विक है पर उससे अधिक का प्रयोग तामसिक या राजसिक हो जाता है। २. भक्ष्याभक्ष्य-विवेक साधक ज्यों-ज्यों अपने मार्ग पर आगे-आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसके विचार अधिक-अधिक उज्ज्वल होते जाते हैं। और ज्यों-ज्यों विचार उज्ज्वल होते जाते हैं, त्यों-त्यों आहार-विषयक विवेक भी सूक्ष्म होता जाता है । शान्ति-पथ की पहली भूमिकाओं में सात्विक का उपरोक्त लक्षण ही संतोषजनक रहता है पर आगे जाने पर उसमें अधिक स्वच्छता लाने का विवेक जागृत हो जाता है। उपरोक्त पदार्थों को भी दो भागों में विभाजित कर लिया जाता है, एक वह जिसमें बहुत अधिक अर्थात् असंख्य (Countless) सूक्ष्म-जीवराशि पाई जाती है और एक वह जिसमें कम अर्थात संख्यात् (Countable) तक ही पायी जाती है । यहाँ सूक्ष्म-जीव से तात्पर्य उन जीवों से है जो साधारण रूप में नेत्र-गोचर नहीं होते पर सूक्ष्म-दर्शी यन्त्र (Microscope) से स्पष्ट दिखाई देते हैं । इस प्रकार के प्राणी आज की परिभाषा में बैक्टेरिया कहलाते हैं। ये प्रमुखत: स्थावर होते हैं। बैक्टेरिया हर पदार्थ में, वह दूध हो कि दही, घी हो कि मक्खन, फल हो कि फूल-पत्ते, यहाँ तक कि जल में भी हीनाधिक रूप में अवश्य पाये जाते हैं। ये जड़ नहीं होते बल्कि प्राणधारी होते हैं। जीव-हिंसा की दृष्टि से, स्वास्थ्य-रक्षा की दृष्टि से तथा तामसिक व सात्विक की दृष्टि से असंख्य-जीव-राशिवाली वनस्पतियां या दूध घी आदि पदार्थ त्याज्य हो जाते हैं और संख्य-जीव-राशि वाले ग्राह्य । यहाँ यह प्रश्न नहीं करना चाहिए कि यह संख्य राशि वाले पदार्थ भी तो जीव-हिंसा के कारण त्याज्य ही होने चाहियें । यद्यपि पूर्णता की दृष्टि से तो वे अवश्य त्याज्य ही होते हैं, परन्तु उनका सर्वथा त्याग करने पर जगत में कोई खाद्य पदार्थ ही नहीं रह जाता। तब शरीर की स्थिति कैसे सम्भव हो सकती है, और शरीर की स्थिति के अभाव में शान्ति-पथ की साधना भी कैसे सम्भव हो सकती है ? अत: वर्तमान की हीन-शक्तिवाली दशा में साधक को सर्व पदार्थों का त्याग करके अपने को मृत्यु के हवाले करना योग्य नहीं। 'सारा जाता देखिये तो आधा लीजिये बांट' इस लोकोक्ति के अनुसार अयोग्य व हिंसायुक्त होते हुये भी प्रयोजनवश अधिक हिंसा का त्याग करके अल्प हिंसा का ग्रहण कर लेना नीति है। परन्तु अभिप्राय में यह अल्प-हिंसा भी त्याज्य ही रहती है । इसी कारण आगे-आगे की भूमिकाओं में ज्यों-ज्यों शक्ति बढ़ती जाती है साधक इनका भी त्याग करता जाता है, यहाँ तक कि पूर्णता की प्राप्ति के पश्चात् उसे खाने पीने की ही आवश्यकता नहीं रह जाती। यहाँ उन असंख्य-जीव-राशि वाले पदार्थों का कुछ परिचय दे देना युक्त है। मछली, अंडा, शराब, मांस, मधु ये पदार्थ तो साक्षात् रूप से हिंसा के द्वारा उत्पन्न होने के कारण सर्वथा अभक्ष्य हैं ही, अभक्ष्य क्या स्पर्श करने योग्य भी नहीं हैं; यहाँ तो बरबन्टी, पीपलबन्टी, गूलर, अंजीर, कटहल, बढ़ल आदि की जाति वाली वे सर्व वनस्पतियाँ भी अभक्ष्य हैं, जिनमें कि अनेकों उड़ने वाले छोटे-छोटे जन्तुओं का निवास रहता है। प्रत्येक वह पदार्थ जो बासी हो जाने के कारण या अधिक पक जाने के कारण या गल-सड़ जाने के कारण अपने प्राकृत स्वाद से चलित हो जाता है, उस कोटि में आ जाता है । भले ही पहले वह भक्ष्य रहा हो पर अब अभक्ष्य है । ऐसे पदार्थों में बासी भोजन, अचार, मुरब्बे, खमीर, चटनी, कांजी-बड़े आदि अथवा गली-सड़ी वनस्पति तथा अन्य भी अनेकों वस्तुयें सम्मिलित हैं । वनस्पतियों में कुछ ऐसी हैं जो पृथ्वी के अन्दर फलित होती हैं जैसे आलू, अरवी, गाजर, मूली, आदि; अथवा अत्यधिक कचिया सब्जी जैसे कोंपल या बहुत छोटे साईज की भिंडी, तोरी, ककड़ी आदि; अथवा पृथ्वी और काठ को फोड़कर निकलने वाली वनस्पति जैसे खूम्बी, साँप की छत्री आदि, तथा अन्य भी अनेकों आगम-कथित वस्तुयें इस कोटि में सम्मिलित हैं। शान्तिपथ-गामी को इनका विशेष परिज्ञान आगम से प्राप्त करके इनका त्याग कर देना योग्य है । यद्यपि पकाने या काटने छांटने से, अल्प-संख्यक-जीव-राशि वाली वनस्पतियों की भाँति ये भी प्रासुक हो जाती हैं, परन्तु इनको प्रासुक करने में अधिक हिंसा का प्रसंग आता है, तथा ये अन्तर में कुछ तामसिक वृत्ति की उत्पत्ति का कारण भी बनती हैं, इसलिये किसी प्रकार भी इनका प्रयोग करना उचित नहीं है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ २८. भोजन-शुद्धि ३. बैक्टेरिया-विज्ञान ३. बैक्टेरिया-विज्ञान अन्तशुद्धि हो जाने से अन्तर्रान्ति में निवास करने वाले हे गुरुदेव ! मेरे जीवन में शुद्धि का संचार करें । अन्तशुद्धि के लिये बाह्य शुद्धि और विशेषत: भोजनशुद्धि अत्यन्त आवश्यक है। कल के प्रकरण में ग्राह्य और अग्राह्य पदार्थों का निरूपण कर चुकने के पश्चात्, भोजन पकाने में क्या-क्या सावधानी रखी जाने योग्य है और क्यों, ऐसा विवेक उत्पन्न कराना भी आवश्यक है । इस प्रकरण को रूढ़ि के रूप में तो आप में से अनेकों जानते व प्रयोग में लाते हैं परन्तु उसी बात को यहाँ मैं सूक्ष्म-जन्तुविज्ञान (Micro-biology) के आधार पर समझाने का प्रयत्न करूँगा। भोजन-शुद्धि का प्रयोजन उन सूक्ष्म जीवों से भोजन की रक्षा करना है जिन्हें आज का विज्ञान बैक्टेरिया नाम से पुकारता है । बैक्टेरिया से भोजन की रक्षा करना तीन दृष्टियों से उपयोगी है—१. अहिंसा की दृष्टि से, २. स्वास्थ्य की दृष्टि से और ३. साधना की दृष्टि से अर्थात् अपने परिणामों की रक्षा की दृष्टि से । यद्यपि डाक्टर लोग स्वास्थ्य की दृष्टि से ही बैक्टेरिया व उनसे बचने के उपाय बताते हैं, पर हम उसी सिद्धान्त को साधना की दृष्टि से ग्रहण करते हैं, जिसमें स्वास्थ्य की रक्षा स्वत: हो जाती है। यही कारण है कि एक सच्चे त्यागी अर्थात् शुद्ध भोजी को रोग या तो होते नहीं और होते हैं तो बहुत कम। बैक्टेरिया उस सूक्ष्म प्राणी को कहते हैं जो प्राय: सूक्ष्म-दी-यन्त्र से ही देखा जाना सम्भव है नंगी आँखों से नहीं। ये कई जाति के होते हैं। इनकी जातियों का निर्णय इनके भिन्न-भिन्न कार्यों पर से किया जाता है, क्योंकि जो कार्य एक जाति का बैक्टेरिया कर सकता है वह दूसरी जाति का नहीं कर सकता। ये यद्यपि त्रस व स्थावर दोनों जाति के हो सकते हैं, परन्तु जिन भक्ष्य पदार्थों का ग्रहण यहाँ किया गया है इनमें केवल स्थावर जाति के बैक्टेरिया ही होते हैं । त्रस जाति वाले बैक्टेरिया शराब जैसी मादक वस्तुओं में मिलते हैं, जिनका निषेध पहले ही कर दिया गया है। कुछ बैक्टेरिया तो ऐसे हैं जो यदि दूध में उत्पन्न हो जायें तो दूध की दही बन जाती है । उनको अपनी भाषा में दही के बैक्टेरिया कह लीजिये। इसी प्रकार दही, पनीर, क्रीम, मक्खन, खमीर, मद्य (शराब) आदि पदार्थ-विशेषों के भिन्न-भिन्न जाति के बैक्टेरिया समझना । वैज्ञानिक लोगों ने इनके भिन्न-भिन्न नाम भी रखे हैं पर यहाँ उन नामों से प्रयोजन नहीं है । ये मुख्यत: स्थावर होते हैं। कुछ बैक्टेरिया पदार्थ में उत्पन्न होकर उसे खट्टा बना देते हैं, कुछ दुर्गन्धित बना देते हैं, कुछ उसे नीला, हरा या भूरे रंग का बना देते हैं, कुछ उस पर फूई पैदा कर देते हैं और इसी प्रकार अन्य भी अनेकों बातें जो नित्य ही भोज्य पदार्थों में देखने को मिलती हैं। इस पर से यह बात समझ लेनी चाहिये कि भोज्य पदार्थों में जो कुछ भी रूप, गन्ध व रस आदि का विकार उत्पन्न होता दिखाई देता है वह सब सूक्ष्मजीवों की अर्थात् बैक्टेरिया की उपज का प्रताप है। अत: प्रत्येक ऐसा विकृत पदार्थ अहिंसा, स्वास्थ्य व साधना तीनों दृष्टियों से अभक्ष्य हो जाता है। उपरोक्त जातिय तयों में से कछ बैक्टेरिया तो मानवीय स्वार्थवश (अर्थात स्वाद या प्रयोजन-विशेषवश) इष्ट हैं और कुछ अनिष्ट । स्वास्थ्य को हानिप्रद सर्व बैक्टेरिया अनिष्ट की गिनती में आते हैं, और दही व पनीर आदि के बैक्टेरिया इष्ट माने जाते हैं, क्योंकि ये पदार्थ में कुछ ईष्ट स्वाद व गन्ध विशेष उत्पन्न कर देते हैं और स्वास्थ्य को हानि नहीं पहुँचाते । डाक्टरी दृष्टि से भले ऐसा मान लें पर साधना की दृष्टि से तो बैक्टेरिया मात्र ही जीव-हिंसा के भय से अनिष्ट हैं। फिर भी दो चार जाति के बैक्टेरिया इस मार्ग में भी इष्ट माने जाते हैं, जैसे कि मक्खन व दही के बैक्टेरिया । इन अनिष्ट जातियों के बैक्टेरिया को इष्ट मानने का एक प्रयोजन है, और वह है साधना में कुछ सहायता। किसी भी पदार्थ में बैक्टेरिया उस समय तक उत्पन्न नहीं हो सकते जब तक कि उसमें कोई एक या दो तीन बैक्टेरिया बीज रूप में प्रवेश न कर जायें या करा दिये जायें। दही जमाने के लिये दूध में जामन (Adjunct) मिलाना वास्तव में उसमें दही के बैक्टेरिया का बीजरूप से प्रवेश कराना ही है । बस एक बार बीजारोपण हुआ नहीं कि इनकी सन्तानवृद्धि हुई नहीं । बैक्टेरिया-सन्तान की उपज पदार्थ में एक से दो और दो से चार के क्रम से अर्थात् (Fiction Method) से होती है । प्रत्येक कुछ-कुछ मिनट के पश्चात् वे बराबर दुगुने-दुगुने होते चले जाते हैं । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १८७ ४. मर्यादाकाल ___ वस्तु में प्रवेश पाने के पश्चात् कुछ देर तक अर्थात् लगभग आधा या पौन घण्टे तक तो उनकी उपज आरम्भ नहीं होती, जितने प्रवेश पा गये हैं उतने ही रहते हैं, परन्तु इस काल के पश्चात् बड़े वेग के साथ इनकी उपज बराबर उत्तरोत्तर मिनटों में वृद्धि को पाती हुई लगभग ५ या ६ घण्टों में वृद्धि की चरम सीमा को स्पर्श करने लगती है । यहाँ पहुँचकर उपज में आगे वृद्धि होनी तो रुक जाती है, परन्तु जितनी उपज उत्तरोत्तर मिनटों में यहाँ अब हो रही है उतनी ही रफ्तार से बराबर आगे के ८ या दस घण्टों तक या एक दो दिन तक चलती रहती है। इतने काल पश्चात उपज की रफ्तार घटने लगती है, और पाँच या छः घण्टों तक उपज शून्य पर पहुँच जाती है, अर्थात् आगे उपज होनी अब बिल्कुल बन्द हो जाती है । परन्तु जितने बैक्टेरिया उत्पन्न हो चुके हैं वे अब भी इसमें उस समय तक जीवित रहते हैं जब तक कि या तो इनकी आयु समाप्त न हो जाय और या किन्हीं बाह्य प्राकृतिक अथवा मनुष्यकृत-प्रयोगों से दूर न कर दिये जायें। वृद्धि of -समय इस कर्व में नं० १ उस समय को दर्शाता है जिस समय में कि उपज प्रारम्भ ही नहीं हुई है। नं० २ उपज की उत्तरोत्तर अधिकाधिक वृद्धि को, नं० ३ उत्कृष्ट उपज के प्रवाह को, नं० ४ उपज की हानि को और नं० ५ नवीन उपज के अभाव को प्रदर्शित करता है। ४. मर्यादाकाल—भोजन शुद्धि के सम्बन्ध में बैक्टेरिया की उत्पत्ति-क्रम का यह नं० १ वाला अर्थात प्रथम आध या पौन घण्टा प्रयोजनीय है। उत्पत्ति क्रम का वह भाग नवीन उत्पत्ति से रहित होने के कारण वस्तुत: शुद्धि का मर्यादा-काल (Time Limit) कहा जाता है। आगम में भोज्य पदार्थों की मर्यादा का कथन आता है । उससे तात्पर्य यही पहला कुछ समय है जिसे अन्तर्मुहूर्त या अधिक से अधिक ४८ मिनट स्वीकार किया गया है । हम भी आगे के प्रकरणों में इसे मर्यादा नाम से पुकारेंगे । मर्यादा का उल्लंघन कर जाने पर बैक्टेरिया-राशि अधिक उत्पन्न हो जाने के कारण पदार्थ अभक्ष्य की कोटि में चला जाता है। भोजन-शुद्धि में मर्यादा पर बहुत जोर दिया जाता है, क्योंकि इससे साधना व स्वास्थ्य की रक्षा होती है। इसीलिये जल व दूध को छान लेने के तथा थनों से निकलने के पश्चात् यथाशक्ति तुरन्त ही अर्थात् अधिक से अधिक पौन घण्टे के अन्दर अन्दर गरम करना या उबाल लेना बतलाया है, क्योंकि इतने समय तक तो केवल संख्यात (Countable) ही जीवों की हिंसा होती है, परन्तु इससे आगे जीव-राशि बढ़ जाने के कारण उनको गरम करने या उबालने से असंख्यात (Countless) जीवों के नाश का प्रसंग आता है। कुछ बैक्टेरिया तो ऐसे हैं जो अल्प मात्र ही गर्मी को सहन कर सकते हैं, कुछ ऐसे हैं जो बहुत अधिक भी गर्मी को सहन करने में समर्थ हैं । और कुछ ऐसे हैं जो बहुत अधिक गर्मी में उत्पन्न होते हैं। इसलिये एक समस्या है कि यदि पदार्थ को थोड़ा गरम करते हैं तो सर्व बैक्टेरिया दूर नहीं होते और यदि अधिक गरम करते हैं तो नं० २ जाति के बैक्टेरिया उत्पन्न हो जाते हैं। इस समस्या को हल करने के लिये दो उपाय विज्ञान बताता है, एक तो यह कि पदार्थों को कुछ सेकेण्डों के लिये बहुत अधिक गरम कर दिया जावे और एक यह कि अधिक देर तक थोड़ा गरम रखा जाये। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १८८ ४. मर्यादाकाल मुख्यत: जल व दूध आदि तरल पदार्थों को यदि आध-घण्टे तक ६३ डिग्री तापमान पर, या ३ मिनट तक ८० डिग्री तापमान पर गर्म कर दिया जाय तो उसमें रहे बैक्टेरिया प्राय: दूर हो जाते हैं। इस प्रक्रिया का नाम पास्चराइजेशन (Pasturisation) है। बड़े-बड़े डेयरी फार्मों में तथा अन्य कारखानों में मशीनों के द्वारा ठीक-ठीक तापमान देने के साधन विद्यमान होने के कारण उनके लिये तो यह सम्भव है, परन्तु एक भारतीय साधारण गृहस्थ के लिये यह सम्भव नहीं कि ठीक-ठीक समय व तापमान दिया जा सके । शक्य कार्य ही किया जाना सम्भव है, इसलिये प्राय: दूध व जल को उबाल लिया जाना चाहिये, परन्तु बराबर कई घण्टों तक उबलते रहने न दिया जाये । दो या तीन उबाल आ चुकने पर अग्नि पर से हटाकर उन्हें ठण्डा करने को रख दिया जाना चाहये, ताकि गरम जाति वाले बैक्टेरिया उसमें उत्पन्न होने न पावें। कम तापमान उत्पन्न होने वाले नं० १ जाति के बैक्टेरिया से इसकी रक्षा करने के लिये आवश्यक है कि उस उबलते हुये पदार्थ को शीघ्रातिशीघ्र ठण्डा कर दिया जाये। यदि रैफ्रीजैरेटर (Refrigerator) उपलब्ध हो तो उसमें रखकर. नहीं तो ठण्डे जल में रखकर । ऐसा करने से गर्मी के दिनों में भी 24 घण्टों तक दध खड़ा नहीं होता। दही जमाने के लिये भी यदि इस प्रक्रिया को अपनाया जाय तो गर्मी के दिनों में दही बहुत मीठी व कड़ी जमती है, वह पानी नहीं छोड़ती तथा फटती नहीं। परन्तु यह आवश्यक है कि उबालने की क्रिया दूध व जल की प्राप्ति के पश्चात् शीघ्रातिशीघ्र (अधिक से अधिक पौन घण्टे के पूवोक्त मर्यादा काल के अन्दर-अन्दर) करनी चाहिये। क्योंकि मर्यादाकाल बीत जाने पर उन पदार्थों में बैक्टेरिया की सन्तान में वृद्धि होनी प्रारम्भ हो जाती है, अत: तब उबालने का कार्य करने में अधिक हिंसा का प्रसंग आता है। बैक्टेरिया की उत्पत्ति के लिये चार बातों की आवश्यकता है-वायु, जल, आहार (Nutrient), व तापमान । खाद्य पदार्थों में भी गीले खाद्य पदार्थों में जैसे वनस्पति व पके हुये भोजन में तो चारों चीजों की उपस्थिति होने के कारण उनकी उत्पत्ति सर्वथा रोकी नहीं जा सकती, परन्तु सूखे अन्न, खाण्ड, नमक, घी व तेल आदि में यदि नमी का प्रवेश न होने दिया जाये तो वहाँ उनकी उत्पत्ति रोकी जा सकती है। अन्नादि को धूप में सुखाकर तथा घी, तेल आदि को उबालकर यद्यपि नमी दूर की जा सकती है, परन्तु क्योंकि वायुमण्डल में से मुख्यत: वर्षा ऋतु में ये पदार्थ स्वत: नमी खेंच लेते हैं, इसलिये सुखाने के पश्चात् इन्हें लोहे, धातु या कांच आदि के बन्द बर्तनों में ही रखा जाना योग्य है । बोरी में या मिट्टी के बर्तनों में रखने से इनमें नमी का प्रवेश रोका नहीं जा सकता । डब्बों के ढकने भी बहुत टाइट होने चाहियें क्योंकि ढ़ीले ढकनों में से नमी प्रवेश कर जाती है । ढकनों को उघड़ा छोड़ना भी इस दिशा में अत्यन्त अनिष्ट है। पके हुये पदार्थों को यद्यपि बैक्टेरिया की उत्पत्ति से सर्वथा सुरक्षित नहीं रखा जा सकता, पर यदि बाहर से बैक्टेरिया इसमें प्रवेश न होने दिया जाये तो बीजारोपण के अभाव के कारण इनको कुछ काल तक अवश्य बैक्टेरिया की उपज से रोका जा सकता है । वस्तुत: अन्न खाण्ड आदि उपर्युक्त सर्व पदार्थों में भी सर्वथा के लिये उनकी उपज को रोक दिया जावे, यह हमारे लिये शक्य नहीं है, क्योंकि वायु व नमी का सर्वथा अभाव करने के या डिब्बों में बन्द कर लेने के साधन हमारे पास नहीं हैं। इसलिये भोजन शुद्धि को बनाए रखने के लिये गुरुओं को अनुमान से काम लेना पड़ता है । भिन्न-भिन्न वस्तुओं में प्राय: कितने काल पश्चात बैक्टेरिया-उत्पत्ति आरम्भ हो जाती है, यह अनुमान करके गुरुओं ने पदार्थों का मर्यादाकाल हमारे लिये निश्चित कर दिया हैं उस काल के पश्चात् बैक्टेरिया की उपज हो जाने के कारण वे भक्ष्य पदार्थ ही अभक्ष्य की कोटि में चले जाते हैं। इसको मर्यादा काल भी कहते हैं। जैसे आटे की मर्यादा सर्दी में ७ दिन, गर्मी में ५ दिन और वर्षा ऋतु में ३ दिन बताई है। इसी प्रकार खाण्ड की मर्यादा सर्दी में एक महीना, गर्मी में १५ दिन, वर्षा ऋतु में एक सप्ताह है। रोटी व पकी हुई दाल की मर्यादा ६ घण्टे, पकी हुई भाजी की मर्यादा १२ घण्टे, तले हुये पदार्थ की मर्यादा २४ घण्टे और इसी प्रकार अन्य सर्व पदार्थों की मर्यादा भी आगम में बताई है, वहाँ से जान लेना। इतने काल के अन्दर ही ये पदार्थ सावधानी पूर्वक प्रयोग में लाये जाने चाहिएँ, इतने काल पश्चात् नहीं। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १८९ ६. मन वचन काय शुद्धि उपर्युक्त मर्यादायें वास्तव में उस समय में स्थापित की गई थीं जब कि आज के जैसे साधन नहीं थे, आटा आदि पदार्थ मिट्टी के घड़ों में रखे जाते थे, जिनमें से नमी प्रवेश कर जाती थी, पर आज उनकी अपेक्षा कुछ अच्छे साधन उपलब्ध हैं। इसलिये वस्तुत: वायु-शून्य (airtight) डब्बों व कांच के बर्तनों में सूखे पदार्थों को रखकर और रेफ्रीजिरेटर में पके हुये गीले पदार्थों को रखकर यद्यपि वस्तुओं की मर्यादा बढ़ाई जा सकती है, तदपि प्रमाद विषयक दोष से अपनी रक्षा करने के लिये तथा आगमाज्ञा का उल्लंघन न हो जाये इस भय से आगमोक्त मर्यादाओं को स्वीकार करने में ही साधक का हित है। ५. छुआछूत-बैक्टेरिया प्रवेश के प्रमुख द्वार पाँच हैं-१. वायुमण्डल, २. वह कमरा या घर जहाँ कि खाद्य पदार्थ रखा है, ३. बर्तन, ४. वस्त्र, ५. शरीर । वायुमण्डल में सर्वत्र प्राय: बैक्टिरिया का निवास है और गन्दे वायुमण्डल में बहुत अधिक रहते हैं । वायुमण्डल के बैक्टेरिया से पदार्थ की रक्षा करने के लिए यथासम्भव वस्तु को ढ़ककर ही रखना चाहिए, उघड़ा हुआ नहीं। संवारने से पहले छिलके वाली वनस्पति तथा बीनने से पहले सूखा अन्न भले खुला पड़ा रहे, पर इसके पश्चात् नहीं, क्योंकि छिलके वाली वनस्पति या अन्न आदिक प्राकृतिक रूप से छिलके के अन्दर बन्द हैं। धूल, धूम, गोबर, मल, मूत्र अथवा अन्य भी किसी दुर्गन्धित पदार्थ की सन्निकटता से वायुमण्डल अपवित्र हो जाता है, क्योंकि ये तथा ऐसे सर्व पदार्थ बैक्टेरिया के पुंज हैं उनमें से निकल-निकलकर वे बड़े वेग से वायुमण्डल में तथा दीवारों आदि के छिद्रों में या मसामों (Pores) में प्रवेश पाने तथा पनपने लगते हैं। बर्तनों में भी यदि कहीं मैल लगा रह जाये या ठीक से न मंजने के कारण उनमें चिकनाहट रह जाये तो वहाँ बैक्टेरिया की सन्तान वृद्धि को प्राप्त हो जाती है। जिस बर्तन में खड्डे पड़ गए हैं उस बर्तन में प्राय: बहुत अधिक बैक्टिरिया राशि पाई जाती है । क्योंकि उन खडडों में मैल एकत्रित हुये बिना नहीं रह सकता । चिकने, चमकदार, साफ व बिना खडडों वाले बर्तनों में बैक्टेरिया उत्पन्न नहीं होते परन्तु उनको यदि साफ करके गीले ही रख दिया जाए तो उत्पन्न हो जाते हैं, सूखों में बिल्कुल उत्पन्न नहीं होते। बर्तनों की भाँति वस्त्रों में तथा शरीर में भी समझना । मैले वस्त्रों में या मैले शरीर में वे बहुत वेग से पनप उठते हैं, साफ व सूखे वस्त्रों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती। इसलिये किसी भी पदार्थ को बिना अच्छी तरह हाथ धोए छूना योग्य नहीं। इन पाँचों पदार्थों के निकट-सम्पर्क में आने पर खाद्य-पदार्थ में बैक्टेरिया प्रवेश पा जाते हैं और वहाँ उनकी सन्तानोत्पत्ति बड़े वेग से वृद्धि पाने लगती है, इसलिये ऐसे पदार्थों से छुआ हुआ खाद्य-पदार्थ अपवित्र माना जाता है। इसी कारण वस्त्र व शरीर-शुद्धि में छुआछूत का बहुत विचार रखा जाना योग्य है। वस्त्र व शरीर को धो लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि धुलने के पश्चात् उनकी अपवित्र व गन्दी वस्तुओं के तथा अन्य व्यक्तियों के वस्त्रों व शरीर के स्पर्श से रक्षा करना भी अत्यन्त आवश्यक है । वस्त्र आदि धोने का अर्थ यहाँ पानी में से निकालकर सुखा देना मात्र नहीं है, वह तो केवल रूढि है, अच्छी तरह से साबुन या सोडे आदि के प्रयोग द्वारा या सोडे साबुन के पानी में पकाकर या भाप (steam) में पकाकर उसका मैल निकाल लेना तथा बिल्कुल स्वच्छ कर लेना योग्य है । इसे रूढ़ि न समझना, यह एक वैज्ञानिक तथ्य है । डाक्टर लोग भी आप्रेशन रूम में तभी प्रवेश करते हैं जबकि भाप में पका एक लम्बा कोट पहन लें, ताकि सर्व अपवित्र वस्त्र उसके नीचे छिप जायें और वहाँ से बैक्टेरिया निकलकर रोगी के घाव में प्रवेश न कर पायें । यहाँ तक कि मुँह व नाक के आगे भी एक स्वच्छ वस्त्र बांध लेते हैं तथा साबुन से अच्छी तर हाथ धोकर ही औजारों को छूते हैं। ६. मन वचन काय शुद्धि-अन्दर में पवित्र शान्ति का भोग करने के लिये बाह्य में शुद्ध भोजन का ही ग्रहण आवश्यक है। भोजन-शुद्धि के सम्बन्ध में अनेकों बातें सिद्धान्त रूप से पहले प्रकरणों में समझा दी गई हैं। आओ अब उनका प्रयोग अपनी चर्या में करके देखें कि किस रूप में वे हमारी चर्या में हमको सहायता दे सकती हैं। भोजन शुद्धि के सम्बन्ध में चार बातें मुख्यत: विचारनीय हैं-१. मन-शुद्धि, २. वचन-शुद्धि, ३. काय-शुद्धि, ४. आहार-शुद्धि । इन चार शुद्धियों को मुख से उच्चारण करना तो हम सब जानते हैं, किसी भी त्यागी या सन्यासी को भोजन कराते समय 'मन-शुद्ध, वचन-शुद्ध, काय-शुद्ध, आहार-जल शुद्ध है, ग्रहण कीजिए', इस प्रकार के मन्त्रोच्चारण Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० २८. भोजन-शुद्धि ६. मन वचन काय शुद्धि करने की रूढि को पूरा करना तो हम कभी भूलते नहीं हैं और वह अतिथि भी आपके ये शब्द सुनकर सन्तुष्ट हो जाता है; पर न तो आप और न वह यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि यह मन्त्र वचनों तक ही समाप्त हो गया है या चर्या में भी कुछ आया है। (१) मन शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि आपके मन में उस अतिथि के प्रति भक्ति हो, आप दण्ड समझकर भोजन न दे रहे हों, बल्कि अपना सौभाग्य समझकर, अपने को धन्य मानकर दे रहे हों । यदि कदाचित् मन में ऐसा विचार आ जाए कि मैं इसको भोजन देकर इस पर कोई एहसान कर रहा हूँ, या ऐसा विचार आ जाए कि किसी प्रकार यह बला थोड़ा-घना खाकर जल्दी से टल जाये तो अच्छा' तो आपका मन शुद्ध नहीं है अशुद्ध है । आपके मन की यह अशुद्धता वास्तव में भोजन में विष घोल देती है। उससे प्रभावित आपका भोजन शुद्ध नहीं अशुद्ध है, जैसे कि यह लोकोक्ति है कि 'थाली परसी पर उसमें थूककर'। (२) वचन-शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि उस अतिथि के प्रति आपके मुख से अत्यन्त मिष्ट तथा भक्ति पूर्ण ही शब्द निकलें, आपकी भाषा से प्रेम टपकता हो, दण्ड या क्रोध नहीं। केवल अतिथि के प्रति ही नहीं बल्कि किसी भी अन्य घर वाले के प्रति या चौके में रहने वाले किसी अन्य व्यक्ति के प्रति भी । झुंझलाहट के या उतावल के शब्द 'जल्दी कर, जल्दी परोस, पानी ला' इत्यादि मुख से नहीं निकलने चाहिएँ, क्योंकि ऐसा करने से सम्भवत: घबराकर उस व्यक्ति से कोई ऐसा कार्य जल्दी में बन बैठे जिससे कि अतिथि को भोजन छोड़ देना पड़े। धैर्य, सन्तोष व शान्ति की अत्यन्त मन्द भाषा ही योग्य है अन्यथा भोजन अशुद्ध हो जायेगा। (३) काय शुद्धि कहना तभी सार्थक है जबकि आपने शरीर को भली भाँति रगड़, धो व पोंछकर इस पर से मैल उतारकर इसे स्वच्छ व पवित्र कर लिया हो । इसमें कहीं भी किसी प्रकार की ग्लानि का भाव जैसे कोई घाव, फोड़ा, फुन्सी, मैल, मल, मूत्रादि का स्रवन विद्यमान न हो। इसके अतिरिक्त आपके शरीर पर नीचे के वस्त्र (Under-wear) या ऊपर के वस्त्र सब ही स्वच्छ व पवित्र हों। नीचे के वस्त्र (कच्छा बनियान आदि) ऊपर के (धोती आदि) स्वच्छ, ऐसा नहीं करना चाहिये । वस्त्र साबुन से धुले हुये बिल्कुल स्वच्छ होने चाहिये । इसके अतिरिक्त चौके में घुसने से पहले पाँव को बहुत अच्छी तरह एड़ी से पंजे तक रगड़कर काफी पानी से धो लेना चाहिए, ताकि पाँव के तलवे पर कुछ भी लगा न रह जाये । पाँव का तलवा अत्यन्त निकृष्ट अंग है, यह ध्यान रखना चाहिये। एक आध चुल्लु मात्र पानी पाँव के ऊपर डालकर पाँव धोने की रूढ़ि पूरी करना योग्य नहीं। चौके में प्रवेश करते ही पहले हाथों को अच्छी तरह रगड़ कर तीन बार धोना चाहिये । स्नान करने व स्वच्छ वस्त्र पहनने के पश्चात् यह सावधानी रखनी चाहिये कि आपका शरीर या आपका वस्त्र घर के किसी भी अन्य पदार्थ, वस्त्र, पर्दा, चिक, चादर, मेजपोश. दीवार व किवाड आदि से छने न पायें । छआछत के इस विवेक का प्रयोजन वास्तव तंगत घणा नहीं बल्कि बैक्टेरिया के प्रति सुरक्षा का भाव है। यदि व्यक्तिगत घृणा को अवकाश दिया तो मन-शुद्धि बाधित हो जायेगी, यह ध्यान रहे । इस प्रकार सारी बातें चर्या में आने पर ही काय-शुद्धि कही जा सकती है अन्यथा नहीं। (४) आहार-शुद्धि-आहार-शुद्धि के अन्तर्गत चार बातें आती हैं । आहार-शुद्धि कहना तभी सार्थक है जब कि ये चारों बातें पूर्ण रीति से चर्या में आ चुकी हों। ये चार बातें हैं--१. द्रव्य-शुद्धि, २. क्षेत्र-शुद्धि, ३. काल-शुद्धि, ४. भाव-शुद्धि । इन चारों की व्याख्या अब क्रम से की जाती है। (१) द्रव्य शुद्धि के अन्तर्गत दस अधिकार हैं-१. अन्न-शुद्धि, २. जल-शुद्धि, ३. दुग्ध शुद्धि, ४. दही शुद्धि, ५. घृत शुद्धि, ६. तेल शुद्धि, ७. खाण्ड-शुद्धि, ८. सकरा-विधि, ९. वनस्पति शुद्धि और १०. ईंधन शुद्धि । अब इन दसों का कथन क्रम से करता हूँ। १. अन्न-शुद्धि में आते हैं गेहूँ, चावल-दाल-मसाले व सूखे मेवा आदि । इन सर्व पदार्थों को भली भाँति सूर्य के प्रकाश में बीनकर इनमें से निकली जीव-राशि को सुरक्षित रूप से किसी कोने में क्षेपण करें, मार्ग में नहीं । मार्ग में ही उन्हें छोड़ देना महान अनर्थ है क्योंकि वहाँ वे बेचारे पाँव के नीचे आकर रौंदे जाते हैं । फिर इनको स्वच्छ जल में धोलें, ताकि इन पर लगा गोबर मल मूत्रादि का अंश अथवा इनके ऊपर विद्यमान बैक्टेरिया साफ हो जायें । धोकर इन्हें धूप Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ २८. भोजन-शुद्धि ६. मन वचन काय शुद्धि में सुखा लें। बिना धुले अन्न, मसाले आदि का प्रयोग योग्य नहीं है। चावल व दाल को हाथ की हाथ धोकर रांधा जाता है, इसलिये इनको पहले से धोकर सुखाने की आवश्यकता नहीं। गेहूं आदि को सूख जाने के पश्चात् हाथ की चक्की में पीस लें । पीसने से पहले चक्की को अच्छी तरह झाड़ लें ताकि उसमें कोई क्षुद्र जीव न रह पावे। चक्की पोंछने के लिये तथा चक्की में से आटा निकालने के लिये जो कपड़ा प्रयोग में लाया जावे वह धुला हुआ स्वच्छ होना चाहिये, मैला नहीं। आटा सूर्य के प्रकाश में स्वच्छ वस्त्र पहनकर व हाथों को धो पोंछकर ही पीसना चाहिये । पिसे हुये आटे, मसाले आदि को बन्द डब्बों में और यदि हो सके तो शीशे के जार में रखना चाहिये ताकि बाहर की नमी को वे खेंचने न पावें । नमक को भोजन बनाते समय हाथ की हाथ ही पीसना योग्य है, क्योंकि उसकी मर्यादा बहुत ही अल्प है। मेवा में मुनक्का आदि प्रयोग में लानी हो तो सावधानी पूर्वक उसके बीज निकाल देने चाहियें, क्योंकि बीज को ग्रहण करने में कुछ दोष आता है। पदार्थ रखने के डब्बे ऐसे होने चाहिये जिनमें चींटी आदि का प्रवेश न हो सके। बिना धुले अन्न को शोधकर उसमें कोई ऐसा पदार्थ डालकर रखना चाहिये जिससे कि आगे उसमें जीवराशि उत्पन्न न होने पावे। मिट्टी में पारा मिलाकर उसकी टिकिया बना लें, और प्रत्येक छोटे-बड़े डब्बे में यथायोग्य रूप से उन्हें डाल दें तो इस प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है। २. अब लीजिये जल-शुद्धि। जल-शुद्धि में दो बातें आती हैं। एक जल को छानना तथा दूसरी जल में से निकले जीवों की रक्षार्थ जिवानी करना। जल छानने में छलने सम्बन्धी विवेक अत्यन्त आवश्यक है। छलना दस गिरह चौड़ा और सवा गज लम्बा होना चाहिये ताकि दोहरा होकर वह दस गिरह चौकोर बन जाये । छोटा सा कपड़े का कोई टुकड़ा छलना नहीं कहलाता। रुमाल या पहना हुआ कपड़ा, धोती आदि भी छलने के रूप में प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये । छलना केवल जल छानने के काम के लिये अलग ही रखना चाहिये। यह मिल के सूत का नहीं होना चाहिये, बल्कि हाथ के कते सूत का ही होना चाहिये, क्योंकि हाथ का कता सूत रोएँ वाला होता है, मिल का नहीं होता । छलना मोटे खद्दर का होना चाहिये, पतले कपड़े का नहीं । खादी भण्डार से इस प्रकार का हाथ का बना मोटा खद्दर उपलब्ध हो सकता है। छलना अत्यन्त स्वच्छ होना चाहिये, मैला नहीं और इसीलिए प्रत्येक तीसरे चौथे दिन उसको साबुन सोड़े से धोना आवश्यक है । छलने को जल छानने के पश्चात् तुरन्त ही सुखाना चाहिये, क्योंकि अधिक देर गीला रहने से उसमें बैक्टेरिया की उत्पत्ति हो जाती है । जिवानी करने में भी इतनी सावधानी अवश्य रखनी चाहिए कि जिवानी का पानी भूमि या कुएँ की दीवार आदि पर न पड़े, बल्कि सीधा कुएँ के भीतर पानी में पड़े। द्धि के सम्बन्ध में आवश्यक तो यह है कि पश को भली प्रकार स्नान कराके दहा जाये ताकि उसके शरीर पर लगे धूल व गोबर आदि से निकलकर बैक्टेरिया दूध में प्रवेश न कर सकें। इसी प्रकार दुहने वाले को भी स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहन लेने चाहिएं,बर्तन भी चमकदार व स्वच्छ मंजा हुआ होना चाहिये, दुहने से पहले हाथ व थन अच्छी तरह धो लेने चाहिएं,ताकि बर्तन कपड़े व हाथों से भी बैक्टेरिया का प्रवेश दूध में न हो सके। दूध निकालते ही बर्तनों को अच्छी प्रकार ढक देना चाहिये, ताकि वायुमण्डल से बैक्टेरिया का प्रवेश दूध में न हो सके। ये सब बातें वास्तव में वही निभा सकता है जिसके अपने घर पर पशु हो, पर आज की विकट परिस्थिति में ये सब बातें पूर्णत: निभाई जानी असम्भव हैं। इसलिये जितनी अधिक से अधिक निभनी शक्य हों उतनी निभानी चाहिए। कम से कम बर्तन अवश्य अपना ही होना चाहिये क्योंकि बाजार वालों के बर्तन स्वच्छ मंजे हुये नहीं होते, मापने का बर्तन भी अपना ही होना चाहिये । दुहने वाले के हाथ व पशु के थन कम से कम अवश्य अपने छने हुये स्वच्छ पानी से धुलवा दिये जाने चाहियें । घर लाकर उसे अवश्य दूसरे बर्तन में छान लेना चाहिये। दूध जल्दी से जल्दी आग पर रख देना चाहिए,ताकि उसमें रहे थोड़े बहुत बैक्टेरिया दूर हो जायें, और उसमें उनकी सन्तान-वृद्धि न होने पावे । जल के सम्बन्ध में तीन विकल्प हैं—यदि छ: घण्टे के अन्दर-अन्दर प्रयोग में लाकर समाप्त कर देना हो तो उसमें छानने के पश्चात् तुरंत ही पीसी हुई लौंग, हरडे, जीरा आदि या अन्य कोई ऐसी औषधि थोड़ी सी डाल देनी चाहिये जिससे कि जल का रंग व गन्ध बदल जाये। मात्र २ या ४ साबुत लौंग डालकर रूढ़ी पूरी करना योग्य नहीं, जल का रंग व गन्ध न बदले तो डालने का कोई लाभ नहीं । यदि १२ घण्टे के अन्दर-अन्दर प्रयोग में ले आना हो तो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १९२ ६. मन वचन काय शुद्धि जल को इतना गरम कर लेना चाहिये जिसमें कि हाथ दिया जा सके, बहुत कम गरम करके सन्तोष नहीं करना चाहिये। यदि २४ घण्टे तक काम में लाना हो तो उसे भात-उबाल गरम करना चाहिये । जल को कुएँ से लाते ही तुरन्त उपरोक्त तीनों विकल्पों में से कोई एक विकल्प अवश्य पूरा करना चाहिये, उसे खाली छोड़ना योग्य नहीं। ४. दही जमाने के लिये जामन का व दूध के तापमान का बहुत अधिक ध्यान रखना चाहिये। आग के निकट रखकर दही जमाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से दही फट जाती है तथा खट्टी हो जाती है। गर्मी के दिनों में दही वाला बर्तन बराबर ठण्डे पानी में रखना चाहिये और सर्दी के दिनों में उसे किसी स्वच्छ कपड़े में लपेटकर रखना चाहिये। जामन के सम्बन्ध में बहुत विवेक की आवश्यकता है। जामन मीठी दही का ही होना चाहिये खट्टी का नहीं, क्योंकि खट्टे जामन से दही भी खट्टी हो जायेगी। वह फटा हुआ भी नहीं होना चाहिये । जामन में से दही का पानी (Whey) निचोड़कर निकाल देना चाहिये क्योंकि वह खट्टा होता है । जामन को दो तीन बार स्वच्छ पानी में धो लें तो और भी अच्छा है, क्योंकि ऐसा करने से उसमें से रहा सहा सब खटास निकल जाता है। जामन को धोने के लिये जामन वाले बर्तन में थोड़ा जल डालकर हिला दें, फिर जल को निथारकर निकाल दें । जामन के प्रयोग का सरल उपाय तो यह है कि कच्चे गोले के ऊपरी छिलके की कटोरी को दूध में डालकर दही जमा दें और अगले दिन दही में से उसे निकालकर सुखा दें। अब जब भी जामन देना हो दूध में इस कटोरी को डुबा दें और दही प्रयोग करते समय इसे निकालकर फिर सुखा दें । परन्तु ऐसा करने के लिये यह अवश्य जानना चाहिये कि इस प्रकार एक कटोरी आधा सेर दूध को जमाने के लिये ही पर्याप्त है, अधिक दूध जमाने के लिये इसी हिसाब से अधिक कटोरियाँ डाली जानी चाहियें। नया जामन बनाने के लिये आधी छटांक दूध में थोड़ा जीरा डाल दें, तीन या चार घण्टे के पश्चात् वह जम जायेगा, इसको जामन के रूप में प्रयोग कर सकते हैं । टाटरी या अमचूर आदि से जमाना ठीक नहीं क्योंकि उससे दही फट जाती है। गर्मी में जामन थोड़ा दिया जाता है और सर्दी में अधिक । अनुमान से काम लेना होता है । थोड़ी देर में जमानी इष्ट हो तो जामन अधिक दिया जाता है, और अधिक देर में जमानी इष्ट हो तो कम । ५. घृत-शुद्धि के लिये यह विवेक रखना आवश्यक है कि उपर्युक्त शुद्ध दही को बिलोकर उसमें से निकला मक्खन तुरंत ही आग पर रख देना चाहिये । दो तीन दिन तक रखने का तो प्रश्न ही नहीं, दस मिनट की प्रतीक्षा करनी भी योग्य नहीं, क्योंकि इसमें बैक्टेरिया की उत्पत्ति बड़े वेग से होती है। फिर भी अधिक से अधिक पौन मर्यादा के अन्दर-अन्दर अवश्य गर्म कर लेना योग्य है क्योंकि इससे अधिक काल बीत जाने पर वह अभक्ष्य की कोटि में चला जाता है । इस प्रकार से बने हुये घी को अष्ट पहरा घी कहते हैं, क्योंकि दूध से घी बनने तक केवल ८ पहर या २४ घण्टे ही लगे हैं। ऐसा अष्ट पहरा घी ही शुद्ध है। इसको भी बराबर प्रति-मास उबालकर पुन: पुन: निथारते रहना चाहिये, ताकि बैक्टेरिया का बीज वहाँ उत्पन्न न होने पावे । आप देखेंगे कि प्रत्येक बार कुछ न कुछ छाछ अवश्य निकल जाती है। ६. तेल-शुद्धि के लिये सरसों या तिल आदि को अपने घर पर स्वच्छ जल से धोकर सुखा लें, फिर कोल्हू को अपने स्वच्छ जल से अच्छी प्रकार धुलवाकर उसमें पीड़ दें। इस प्रकार प्राप्त किया गया तेल ही शुद्ध है। ७. खाण्ड-शुद्धि के लिये चाहिये तो यह कि गन्ने का रस निकालने से पहले कोल्हू को धोकर साफ कर लें । रस पड़ने वाला व रस पकाने वाला दोनों बर्तन बाल्टी या कड़ाहा आदि धुले हुये साफ हों। गन्ने को अच्छी तरह झाड़ शोधकर कोल्हू में डालें, हाथ अच्छी तरह धोकर काम करें और खाण्ड खांची के द्वारा न निकालकर मशीन के द्वारा निकालें । परन्तु इस प्रकार से खाण्ड बनाना सबके लिये सम्भव नहीं । सम्भव ही बात अपनाई जा सकती है । इसलिये आज की परिस्थिति में बाजार की खाण्ड (sugar) भी ग्रहण कर ली जा सकती है, परन्तु यह विवेक अवश्य रहना चाहिये कि वह खाण्ड, गुड़ या शक्कर हाइड्रोवाली नहीं होनी चाहिये । बाजार से आयी हुई खाण्ड को घर पर पुन: जल में पकाकर उसकी बुरा कूट लेनी चाहिये। ऐसा करने से उसकी पहली सब अशुद्धि दूर हो जाती हैं। इस शुद्ध खाण्ड को ऐसे डब्बे में रखना चाहिये जिसमें चींटी का प्रवेश न हो सके, शीशे के जार में रखना श्रेयस्कर है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १९३ ६. मन वचन काय शुद्धि ८. द्रव्य-शुद्धि के अन्तर्गत 'सकरा विधि' भी जाननीय है। शुद्ध तथा अशुद्ध द्रव्य को साथ-साथ रखना या पकाना योग्य नहीं। घी, मसाले व आटा आदि उतने ही लेने चाहियें जितने कि प्रयोग में आकर बाकी न बचें। घी, मसाले आदि के पूरे के पूरे बर्तन या डब्बे भोजन बनाते समय पास में नहीं रखने चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से सम्भवत: उनमें अन्न व नमीका अंश चला जाये जिससे कि उनमें बैक्टेरिया की शीघ्र उत्पत्ति होने लगे। भोजन बनाकर बचा हुआ घी आटा आदि पुन: मूल पदार्थ में नहीं मिलाना चाहिये क्योंकि याद रहे कि इस बचे हुये पदार्थ में अन्न का अंश आ चुका है जो पदार्थ में पड़कर सारे पदार्थ को बिगाड़ देगा। पृथक्-पृथक् वस्तुओं को देगची से निकालने के लिये पृथक्-पृथक् चमचे रखने चाहिये, एक का चमचा दूसरे में नहीं देना चाहिये। ९. वनस्पति शुद्धि में यह विवेक अवश्य रखना चाहिये कि किसी भी वनस्पति को बिनारने से पहले या चौके में प्रवेश कराने से पहले उसे स्वच्छ जल से एक बार अच्छी तरह रगड़-रगड़कर धो लें, ताकि उसके बाहर लगे अशुद्ध जल सम्बन्धी या छआछत सम्बन्धी या बैक्टेरिया सम्बन्धी सर्व दोष दर हो जायें। १०.ईंधन-शुद्धि के अन्तर्गत लकड़ी आदि को अच्छी तरह झाड़कर प्रयोग में लायें, बीझी लकड़ी का तथा अरणे व गोये का प्रयोग चौके में न करें । इस प्रकार आहार शुद्धि के अन्तर्गत द्रव्य-शुद्धि के दस अधिकार समाप्त हुए। (२) अब क्षेत्र-शुद्धि सम्बन्धी बात चलती है । क्षेत्र शुद्धि के अन्तर्गत आपकी पाकशाला अत्यन्त स्वच्छ व साफ धुली-धुलाई होनी चाहिए। वह स्थान अंधियारा नहीं होना चाहिये । दीवार धुएँ से काली हो जायें तो चूना करा लेना चाहिए । फर्श चिकनी सीमेन्ट की हो तो अच्छा, नहीं हो तो गारा गोबर से लिपी हुई होनी चाहिये । पाकशाला में जाले आदि लगे नहीं होने चाहियें और छत पर धुला हुआ स्वच्छ चन्दोवा बन्धा रहना चाहिए । चन्दोवा इतना बड़ा हो कि चूल्हा, बर्तन तथा पकाने, खाने व परोसने वाले सब उसकी सीमा के भीतर ही रहें, बाहर नहीं । चन्दोवा मैला नहीं होना चाहिये। ___ बर्तन सूखे मंजे होने चाहिये, खड्डे वाले बर्तनों का प्रयोग नहीं करना चाहिये । वे खूब चमकदार होने चाहिएँ, उन पर चिकनाई नहीं लगी रहनी चाहिए । बर्तन पोंछने का या हाथ पोंछने का या रोटियाँ रखने का छलना कपड़ा आदि साबुन से धुले हुये अत्यन्त स्वच्छ रहने चाहिये, तनिक भी मैले कपड़े का प्रवेश चौके में नहीं होना चाहिये । बर्तन का प्रयोग करने से पहले उसे स्वच्छ जल से एक बार धो व पोंछ लेना चाहिये । पाटे व पंखे आदि जो भी चौके में लाये जायें धोकर ही लाये जायें । इनको चौके से बाहर ही धो लेना योग्य है, बिना धुला पंखा प्रयोग में लाना योग्य नहीं । पंखे को धोकर सुखा लेना चाहिये, गीले का गीला प्रयोग करने से भोजन में उससे उड़ने वाले पानी के छींटे पड़ने का भय है। | सब पदार्थों के बर्तन किसी चौकी पर या पाटे पर या किसी ऊँचे स्थान पर सजाकर रखने चाहियें ताकि इधर-उधर से आया हआ पानी उनके नीचे न जा सके। जिस स्थान पर आपका पाँव आता हो वहाँ पके हये पदार्थ का बर्तन नहीं रखना चाहिये। यदि नीचे ही बर्तन रखने पड़ें तो राख बिछाकर रखने चाहिये ताकि उतने स्थान में पाँव के आने का भय न रहे । बेलन कभी पाँव पर नहीं रखना चाहिये, रोटी बेलकर उसे परात में ही रखना चाहिए । अपना हाथ भूमि से स्पर्श नहीं होने देना चाहिये यदि हो जाए तो धोना चाहिए इत्यादि । अन्य भी अनेकों प्रकार से छूआछूत का विवेक बनाये रखना योग्य है। मक्खियों के प्रवेश के प्रति जितनी भी सावधानी सम्भव हो करनी चाहिये। चिड़िया-चूहा आदि के प्रवेश के प्रति भी यथासम्भव रोक थाम करनी चाहिये। (३) काल शुद्धि के अन्तर्गत चौके सम्बन्धी कोई कार्य रात को या अन्धेरे में नहीं करना चाहिये। कम इतना प्राकृतिक प्रकाश अवश्य होना चाहिये कि पदार्थ स्पष्ट दिखाई दे जाय । बिजली व दीप के प्रकाश में काम करना योग्य नहीं, क्योंकि दीपक पर आने वाले या स्वाभाविक रूप से अन्धयारे वायुमण्डल में घूमने वाले छोटे-छोटे उड़ने वाले प्राणियों के भोजन में पड़ जाने की सम्भावना रहती है। (४) भाव शुद्धि का अर्थ मन-शुद्धि में गर्भित है। इन चार बातों के अतिरिक्त भोजन परसने में भी अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता है। रोटी, दाल, भात, जल, दूध अथवा नमक, मिर्च, मसाला जो कुछ भी परसना हो अच्छी तरह देख-शोधकर परसना चाहिये ताकि इसमें बाल, चींटी आदि कोई ऐसा पदार्थ न रह जाये जिसके थाली में चले जाने पर अतिथि को अन्तराय होने की सम्भावना Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ २८. भोजन-शुद्धि ८. मांस निषेध हो। इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये दाल व भाजी आदि को कटोरी में डालने के पश्चात्, चमचे के द्वारा ऊपर उठा-उठाकर कटोरी में पुन: पुन: धीरे-धीरे गिराया जाता है, ताकि उसकी पड़ने वाली धार में बाल आदि दिखाई दे जाए। खाण्ड या नमक-मिर्च आदि को भी किसी थाली आदि चौड़े बर्तन में फैलाकर बीन लेना चाहिये । रोटी को परसने से पहले उसके चार टुकड़े करके प्रत्येक टुकड़े का पुड़त उठाकर भीतर भली भाँति गौर से देखना चाहिये। रोटी तोड़ना रूढ़ि मात्र नहीं है, कभी-कभी बाल रोटी में बेला जाता है और वह उस समय पता चलता है जबकि टुकड़ा मुँह में आ जाए । इसलिये रोटी को धीरे-धीरे सावधानी-पूर्वक देखते हुये ही तोड़ना चाहिये ताकि यदि अन्दर बाल हो तो तोड़ते समय अटक जाए। जल्दी व झटके से तोड़ने से बाल भी टूट जाता है और उसका पता लगने नहीं पाता। इसी प्रकार पुड़त उठाना भी रूढ़ि नहीं है भीतर गौर से देखना चाहिये कि वहाँ कोई बाल या सुरसी आदि तो लगी नहीं है। इसी प्रकार सर्वत्र सावधानी रखनी योग्य है। प्रयोजन यहाँ यह शंका होनी सम्भव है कि इस प्रकार की सर्व क्रियायें करना तथा बैक्टेरिया से सर्वथा बचा जाना क्या एक साधारण गृहस्थ के लिये शक्य है ? ठीक है भाई ! कथन पर से तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मानो एक साधक को जकड़जन्द कर दिया गया हो तथा विकल्प-जाल में उलझाकर उसे मूल तत्त्व से वंचित किया जा रहा हो, क्योंकि यह सब कुछ बिल्कुल उसी रूप में होना शक्य नहीं है जिस प्रकार कि यहाँ बताया गया है । परन्तु यह बात भूलनी नहीं चाहिये कि सर्व प्रकरणों में इस बात पर जोर दिया गया है कि सारा जाता देखिये तो आधा लीजिये बांट वाली लोकोक्ति को ध्यान में रखकर चलना है अर्थात् अपनी शक्ति के अनुसार यत्न करना है, प्रमादी बनना योग्य नहीं है। आगम-कथित इस आहार-शुद्धि-सम्बन्धी सर्व ही विकल्पों की आधुनिक रीति से सार्थकता दर्शाना इस अधिकार का प्रयोजन है, जिससे कि यह सर्व आचरण कोरा रूढ़ी मात्र सा प्रतीत न हो। अथवा उन व्यक्तियों को जो कि भोजन-शुद्धि विषयक आरम्भ वर्तमान में कर रहे हैं, उनकी क्रियाओं में कुछ त्रुटियें दर्शाकर उन्हें सावधान करना प्रयोजन हैं, जिससे कि इस ओर थोड़ा या ध्यान देकर वे भोजन शुद्धि के बड़े-बड़े दोषों से अपनी रक्षा कर सकें। पथ के सर्व ही अंगोपांगों का जीवन में योग्य स्थान रहना चाहिये, अन्यथा प्रमाद का दोष आता है। और हम सब अप्रमत्त तो हैं नहीं, अत: यथाशक्ति प्रमाद दूर करना कर्तव्य है। ८. मांस निषेध-जिह्वा के लौलुपी कुछ भारतीय युवक अपने स्वच्छन्दता की कमर थपथपाने के लिये आज मांस-मछली और अण्डे को दूध-दही के समकक्ष सिद्ध करने का निष्फल प्रयास कर रहे हैं। दो अंगुल की इस इन्द्रिय के लिये इस प्रकार की बात मुख से निकालते हुये उनका कलेजा नहीं कांपता । कौन नहीं जानता कि मांस के इन लाल-ल म कसा निरपराध बेजबान की आहें छिपी पड़ी हैं । यदि स्वार्थ ने तझे इतना अन्धा बना दिया है तो आ मेरे साथ में दिखाता हूँ तझे उसका रूप। देख सामने उस व्यक्ति को जो उस बकरी का कान पकड़कर खेंचता हुआ उसे जबरदस्ती किसी ओर ले जा रहा है और वह बकरी बराबर पीछे की ओर हटने को जोर लगा रही है, मानो वह किसी मूल्य पर भी उसके साथ जाने को तैयार नहीं। कल भी यही बकरी देखी थी जबकि यह इसी व्यक्ति के साथ प्रेमपूर्वक खेल रही थी और स्वयं इसके पीछे-पीछे भागी चली जा रही थी । आज क्या विशेषता है ? चलो इसी में पूछे । अरे पूछे किससे, उसका करुण-क्रन्दन स्वयं बता रहा है कि वह तुझसे रक्षा की भिक्षा मांग रही है। अरे ! एक बार उसकी आँखों में आँखें डालकर देख तो सही कि क्या कह रही है वह तुझसे? अश्रुपूर्ण उन आँखों में छिपा हुआ है भय व न्याय की दुहाई तथा करुणा की पुकार, “भो पथिक ! तू बाल-बच्चों वाला है और मैं भी बाल-बच्चों वाली हूँ। तेरे बच्चे को एक सूई चुभे तो बेकल हो जाता है, पर आश्चर्य है कि तू मेरी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकता । अरे देख आगे-आगे वे मेरे दोनों बच्चे खिंचे जा रहे हैं, माँ-माँ पुकार रहे हैं ! ओ क्रूर मानव । दया कर, दया कर, ईश्वर से डर । अरे पथिक तेरी आँखों के सामने तेरे बच्चों को कतल कर दिया जाये तो क्या गुजरेगी तेरे हृदय पर? मैं बेज़बान हूँ, कौन सुने मेरी पुकार? अरे मानव ! इससे पहले कि मैं अपने जिगर के टुकड़े को लहू में नहाता देखू, तू मेरी आँखे फोड़ दे।" Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ २८. भोजन-शुद्धि ८. मांस निषेध _ "अरे विधाता ! क्या कोई नहीं है यहाँ मेरी सुनने वाला? क्या तू भी सो गया है ? लोग कहते हैं कि तू सर्वत्र है, लोग कहते हैं कि तू सबका प्रति पालक है, पर कहाँ है तू, कहाँ गई तेरी प्रतिपालकता? अरे मानव ! तेरे बच्चे से कितना भी बड़ा अपराध हो जाये, तब तो तू बड़े-बड़े न्यायालयों में जाकर उसे छुड़वा लेता है, पर मेरी ओर नहीं देखता । बता तो सही कि क्या अपराध किया है मैंने जिसका दण्ड कि मुझे यह मिल रहा है ? आज मेरे बच्चों का मेरी आँखों के सामने वध किया जायेगा और फिर..... ? निर अपराधी पर इतना बड़ा जुल्म होता हुआ तू किन आँखों से देख रहा है ? मैं तो मानती हूँ कि तू अन्धा है।" “अरे मानव ! मैं गिड़गिड़ाती हूं, मिन्नत करती हूं, तू मेरे बच्चों को छोड़ दे । उनके मुख से निकली हुई 'माँ' की पुकार मैं कैसे सुनूं ? अरे बेटा ! जिस 'माँ' को तू पुकार रहा है वह स्वयं दुष्टों के हाथ में पड़ी है । जहाँ रक्षक ही भक्षक है वहाँ पुकार किसको सुनायें, बाड़ ही खेत को खाने लगे तो खेत की रक्षा कौन करे? राजा तो ईश्वर का प्रतिनिधि समझा जाता है पर स्वार्थ के गहन अन्धकार में आज वह भी अपना कर्त्तव्य भूल गया। किससे करें रक्षा की प्रार्थना, किसके द्वार पर करें न्याय की दुहाई ?” __हरिणी का रुदन देखकर राजा सुगुप्तगीन ने जीवन पर्यन्त शिकार खेलना छोड़ दिया। उसके पास तो हृदय था इसीलिये उसे सारे जीवन उस हरिणी की छलछलाई आँखे चारों ओर दिखाई देती रही, मानो उससे पुकार-पुकार कह रही हों कि तू मनुष्यों का ही नहीं हमारा भी राजा है, तू ही अन्याय करेगा तो न्याय किससे कराएंगे? परन्तु बेटा ! आज के मानव के पास हृदय है ही कहाँ ? अत: तेरा चीखना-पुकारना बेकार है। मनुष्य तो मनुष्य, ईश्वर भी गहरी निद्रा में सो गया है आज । चुप रह बेटा चुप रह, मानव की चार अंगुली की जिह्वा के लिये तू चुपचाप अपना बलिदान कर दे, ओर ले मैं भी आ रही हूँ पीछे-पीछे ।" दया कर ओ मानव दया। तू रक्षक बनकर आया है भक्षक नहीं। दो अंगुली की जिह्वा के लिये मानवीयता को न भूल। जिनके गले पर तू छुरी चला रहा है वे भी बाल बच्चेदार हैं। जंगल में विचरण करने वाले, तृण भोजी इन बेज़बान पशु-पक्षियों को जिन अपने निर्दय हाथों से तू गोली का निशाना बनाता है तथा अपने दूध से तेरी सन्तान को पालने वाली गो-माता का कलेजा चीरता है, एक बार उन्हीं हाथों को अपने तथा अपनी सन्तान के कलेजे पर रखकर यदि उसकी धड़कन सुन लेता, तो तुझे पता लगता कि इस दुष्कृत से बाज रहने के लिए वे बराबर तुझे उपदेश दिये जा रहे हैं। . प्रभु का नाम लेने की पवित्र प्रभात-बेला में कोई तो अपने जीवन को पवित्र बना रहा है और कोई लह में हाथ रंगकर उसे धरातल को पहुँचा रहा है; कोई तो अपने बच्चों को गोद में खिला रहा है और कोई बेजबान बच्चों को माता की गोद से छीने जा रहा है; कोई तो अपने बच्चों को चूम-चूमकर अपने हृदय को ठण्डा कर रहा है और कोई तलवार की तीखी धार Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ २८. भोजन-शुद्धि ९. मछली अण्डा निषेध को इन बच्चों के रक्त से रंगकर माताओं के हृदय में संताप उपजा रहा हैं; कोई तो अपने बच्चों के मस्तक पर काला तिलक लगा रहा है कि कहीं नजर न लग जाय और कोई इन बच्चों को तलवार के घाट उतार रहा है। यदि अन्य से नहीं तो प्रकृति से तो डर । प्रकृति ने तुझे शाकाहारी बनाकर भेजा है मांसाहारी नहीं। इसके नियम को भंग मत कर । देख प्रकृति की गोद में पलने वाले चित्र विचित्र प्राणियों की ओर । दो जाति के पशु दिखाई देते हैं यहाँ, मांसाहारी और शाकाहारी। सिंह, बिल्ली, कुत्ता आदि मांसाहारी पशु हैं और गाय, घोड़ा, बन्दर आदि शाकाहारी । तू कौन-सी जाति का बनना चाहता है ? क्या-कहा ? मांसाहारी जाति का ! अरे ! ऐसा कहने से पहले प्रकृति से तो पूछ लिया होता । देख स्वयं कह रही है कि भोले मानव ! तुझे मैंने शाकाहारी बनाकर भेजा है, मांसाहारी नहीं, मांसाहारी पशुओं के शरीर को अन्य ढंग का बनाया है और शाकाहारी के शरीर को अन्य ढंग का, माँसाहारी पशओं के नख तीखे बनाये हैं और शाकाहारी के चपटे. मांसाहारी के दाँत नकीले बनाये हैं और शाकाहारी के चपटे. मांसाहारी के पंजे गुदगुदे बनाए हैं और शाकाहारी के कठोर; क्योंकि उस ही प्रकार के पंजे से शिकार पर झपटना, उसी प्रकार के नख से इसे फाड़ना तथा उसी प्रकार के दाँतों से उसे खाना सम्भव है । शाकाहारी के कठोर व चपटे अवयव इस काम के लिए उपयुक्त नहीं हैं। यही कारण है कि शाकाहारी पशु कभी भूलकर भी माँस नहीं खाते। देख ले अब अपने शरीर के अवयवों को और निर्णय कर कि तू कौन-सी जाति का पशु है। सर्व ही वस्तुयें तेरी भोज्य नहीं हैं। प्रकृति ने तुझे अन्न, वनस्पति तथा दूध प्रदान किया है। उसके नियम का उल्लंघन मत कर । मछली व अण्डा भी मांस की जाति से पृथक् नहीं किये जा सकते, क्योंकि वे भी बेज़बान प्राणी हैं । वे बोल नहीं सकते, इसका यह अर्थ नहीं कि उनके हृदय में तेरी भाँति अरमान न हों, वे जीना और जीवन का आनन्द लेना न चाहते हों । तेरे पास बुद्धि-बल है, जिसका सार्थक्य तभी है जबकि तू अपने साथ इन बेज़बानों की भी रक्षा करे । क्या कहा, बीमारी में खा लेने में तो कोई हर्ज नहीं है ? सो भाई ! यदि शाकाहारी पशु ऐसा कर लेते हों तो तू भी ऐसा कर ले, अन्यथा ऐसा करना प्रकृति से विरोध करना होगा। माँस मछली व अण्डा आदि ही जीवन के रक्षक नहीं हैं, अपना पुण्य व आयु ही जीवन के रक्षक हैं। महात्मा गाँधी का पुत्र बीमार पड़ गया डाक्टर ने माँस खाने को बताया, पर गाँधी के दृढ़ संकल्प में से एक ही उत्तर निकला-“यद्यपि शरीर की रक्षा के लिए बहुत कुछ किया जाता है तथा करना चाहिए पर सब कछ नहीं। मानव-विवेक भी कछ महत्व रखता है। पत्र के प्राणों के लिए मैं विवेक बेचने को तैयार नहीं।" अत: भाई कुछ विवेक जागृत कर, मानवीय कर्त्तव्य को पहिचान, प्राकृतिक नियम को भंग न कर, दया धार, शरीर ही सर्वस्व नहीं है। दूसरों की आहों व चीत्कारों को अपनी हँसी का आधार मत बना, दूसरों की चिताओं पर अपने जीवन का प्रासाद मत खड़ाकर, अपने पेट को दूसरों के मृत शरीरों की कब्र मत बना । प्रेम कर सबसे, छोटे व बड़े से, मानव व पशु से, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि अपनी सन्तान से करता है तू। ९. मछली अण्डा निषेध-मछली और अण्डे को माँस से भिन्न जाति का बताने वाले मानव ! कुछ विवेक उत्पन्न कर, मछली माँस से पृथक् नहीं की जा सकती। पहले मेरी आँखों से देख उस ओर उस मछली को जो कि उस काण्टे में फँसी तड़प रही है। देख उसकी आँखों की ओर पढ़ने का प्रयत्न कर कि मूक भाषा में वह तुझसे दया की भीख माँग रही है। ओ मानव ! अपनी इस जिह्वा-पोषण के स्वार्थ में अन्धा हो जाने के कारण तुझे कैसे दिखाई दे उसके हृदय की तड़पन और कैसे सुनाई दे उसकी यह मूक भाषा ? अण्डे को मुर्गी के नीचे से हटाकर एक बार उसकी आँखों में झाँककर देख ले प्रभु ! कि वह क्या कह रही है तासे । “जगत का रक्षक बनकर आने वाले ओ निर्दयी मानव ! जिसे त सफेद-सफेद पत्थर का टकडा समझ कर उठाये लिए जा रहा है, वह मेरे जिगर का टुकड़ा है। प्रसति-गह में से ही तरन्त जन्मे बालक को उसकी माता से दर कर देने पर वह माता कितनी तड़फेगी, इस बात का अनुमान लगा ले। इस सफेद पत्थर में मेरी आशायें पड़ी हैं, इसमें वह छोटा सा कोमल हृदय पड़ा है जिसे १५ दिन तक मैंने गर्भ में रखकर पाला है । दया कर, दया कर ।" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १९७ १०. चर्म निषेध कुछ का मत है कि “भले ही माँस को त्रसजीव (Animal Life) की हिंसा के कारण अभक्ष्य कह लें पर अण्डा ऐसा नहीं है। अण्डे दो प्रकार के होते हैं—एक प्राण सहित और एक प्राण रहित अर्थात् एक वह जिसमें से बच्चा निकल सकता है और एक वह जिसमें से बच्चा नहीं निकलता। प्राण-रहित अण्डा तो भक्ष्य मानना ही चाहिए पर प्राण-सहित भी भक्ष्य ही है क्योंकि उसमें भी प्राण बहुत पीछे से आते हैं, पहले से विद्यमान नहीं होते। पहले तो केवल कुछ पीला-पीला पानी सा ही होता है।" भाई ! तनिक विवेक से काम ले, जिह्वा के वश में होकर ऐसी अयोग्य बात मत कर । आज इस विज्ञान के युग में तू ऐसा कह रहा है, आश्चर्य है । सूक्ष्मदर्शी यन्त्र (Microscope) में दोनों ही जाति के अण्डों का वह पीला सा पानी क्या देखा है कभी? यदि नहीं तो एक बार देखने का प्रयत्न कर, या मुझ पर विश्वास कर । वह पीला-पीला दीखने वाला पानी वास्तव में त्रस जीवों (Animal Life) के पुञ्ज के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । भले ही इन चक्षुओं से दिखाई न दे पर यन्त्र में वे भागते-दौड़ते तथा कृमि-कृमि करते स्पष्ट दिखाई देते हैं। एक दो नहीं होते असंख्यात (Countless) होते हैं वे । अण्ड़े में प्राणी पीछे से आता हो सो भी बात नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो अण्डा कभी बड़ा न हो पाता । तात्पर्य यह है कि हिंसा की दृष्टि से माँस मछली तथा अण्डे में कोई मौलिक भेद नहीं है। माँस, मछली व अण्डे खाना तो दूर, इन्हें छूना भी योग्य नहीं, इनकी ओर देखना भी योग्य नहीं। शारीरिक स्वास्थ्य के लिये पूर्वोक्त भक्ष्य पदार्थों में अर्थात् वनस्पति व दूध में तेरे लिए प्रकृति ने सर्व ही प्रधान तत्त्व अर्थात् विटामिन प्रदान किये हैं। 'माँस अधिक बल वर्धक है' इस कल्पना को छोड़ दे क्योंकि दोनों जाति के पशुओं में उत्कृष्ट बलधारी देखे जाते हैं । माँसाहारी पशुओं में सिंह और शाकाहारी पशुओं में हाथी, ये दोनों समान बलधारी हैं। अन्तर है तो इतना ही कि सिंह के बल का प्रयोग होता है केवल हिंसा की दिशा में और हाथी के बल का प्रयोग होता है देश व देश-वासियों के उपयोगी कार्यों में, सिंह क्रूर है और हाथी सौम्य, सिंह भय का कारण है और हाथी प्यार का। बता इनमें से किसकी प्रकृति भाती है तुझे, सिंह की या हाथी की ? यदि हाथीवत् सौम्य बनना चाहता है तो शाकाहारी बन माँसाहारी नहीं । माँस में मछली अण्डा सम्मिलित है, यह नहीं भूलना चाहिए क्योंकि शाकाहारी पशु माँस के साथ मछली व अण्डा भी नहीं खाते हैं। मनुष्य के लिए शाकाहार ही बलवर्धक और सौम्यतावर्धक है।। अत:भो मानव ! प्रतिज्ञा कर, मेरे लिए नहीं अपने हित के लिए, अपनी संतान के हित के लिए, अपने देश के हित जसे माँस. मछली व अण्डा तथा अन्य भी इसी प्रकार के पदार्थों की ओर आँख उठाकर नहीं देखेगा, भले ही प्राण क्यों न जायें । बल-वद्धि के लिए तथा रोग-शमन के लिए भी कभी इनका ग्रहण न कर क्योंकि शरीर ही सर्वस्व नहीं है, विवेक का भी कुछ मूल्य है, दया का भी जीवन में कोई स्थान है। मनुज प्रकृति से शाकाहारी, माँस उसे अनुकूल नहीं है। पशु भी मानव जैसे प्राणी, वे मेवा फल फूल नहीं हैं। वे जीते हैं अपने श्रम पर, होती उनके नहीं दुकानें । मोती देते उन्हें न सागर. हीरे देती उन्हें न खाने । नहीं उन्हें है आय कहीं से, और न उनके कोष कहीं हैं। नहीं कहीं के 'बैंकर' बकरे, नहीं 'क्लर्क' खरगोश कहीं हैं। स्वर्णाभरण न मिलते उनको, मिलते उन्हें दुकूल नहीं हैं। अत: दुखी को और सताना, मानव के अनुकूल नहीं है। १०. चर्म निषेध-इतना ही नहीं, इधर आ और भी कुछ दिखाता हूँ। देख सामने खड़ी इस गाय को । किस बेदर्दी से छाडियों द्वारा पीटा जा रहा है इसे ? जानता है क्यों ? इसके चमडे को नरम बनाने के लिए ताकि सुन्दर क्रोम के रूप में तेरे पाँव की शोभा बढ़ाए। देख इस ओर, उस गाय का पेट चीरकर उसके गर्भ में से उसके जीवित बालक को निकाला जा रहा है। जानता है क्यों ? इस बालक के नरम-नरम चमड़े से तेरे लिए मनी बैग बनाई जायेगी। देख इस ओर, कितना राक्षसीय व्यवहार हो रहा है इस बेज़बान गाय के साथ । जीवित ही इसके शरीर को के लिा Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. भोजन-शुद्धि १९८ १२. समन्वय जलते हुए भाप के फव्वारों से उबाला जा रहा है । जानता है किस लिए ? फूले हुए इसके नरम-नरम चमड़े से तेरे लिए हैंड-बैग तैयार की जायेगी। देख वह बेचारी किस प्रकार तड़प रही है। अरे अरे ! यह क्या ? बस प्रभो बस और न दिखा वह देखो ऊपर से लोहे के तीखे काण्टों का यह फंदा नीचे उतरा, उबले हुए उस जीवित चमड़े को उसके शरीर पर से उधेड़कर अपने साथ ले ऊपर चढ़ गया और जीवित गाय का लोथड़ा तड़फता रह गया। इधर देख 'फर' से बना मुलायम कोट, तथा कम्बल । क्या कुछ सुनाई देता है तुझे इसमें ? क्यों सुनाई दे तेरे कानों में स्वार्थ के डट्टे लगे हैं। सुन इसमें छिपा हुआ सैकड़ों बेज़बान हृदयों का करुण क्रंदन। छोटी-छोटी सैकड़ों लोमड़ियों ने बलिदान दिया है अपने जीवनों का, तेरे इस एक कोट या एक कम्बल को बनाने के लिए। कहाँ तक कहूँ, कलेजा दहल रहा है। जिस एक-एक वस्तु में मुझे चीख पुकार सुनाई दे रही है, आश्चर्य है कि तू उनका सुख-पूर्वक उपभोग करके आनन्द मना रहा है। ११. दूध दही की भक्ष्यता-आज दूध व दही के सम्बन्ध में भी एक संशय की ध्वनि चारों ओर से आती सुनाई दे रही है, जो इनहें अण्डे के समान बता रही है और उसी प्रकार सर्वथा अभक्ष्य । अत: यह विषय भी कुछ विचारनीय है। नि:सन्देह दूध माँस-पेशियों में से रिस-रिसकर नसों के मार्ग से बाहर आता है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वह माँस या माँस के समकक्ष है । विष्टा में से उत्पन्न होने मात्र से अन्न को विष्टा या विष्टा के समकक्ष नहीं कहा जा सकता । दूसरी बात यह भी है दूध में पाये जाने वलो बैक्टेरिया त्रस-जातीय नहीं वनस्पतीय-जातीय (Plant Life) हैं। यह मैं अपनी तरफ से कह रहा हूँ ऐसा नहीं है, सूक्ष्म प्राणी-विज्ञान (Biology Science) ऐसा कहता है । वे भी संख्यात मात्र ही होते हैं असंख्यात नहीं । इसलिए अण्डा तामसिक है और दूध सात्त्विक । दही जमाने के लिए यद्यपि जान बूझकर दूध में जामन के द्वारा बैक्टेरिया प्रवेश कराये जाते हैं और उसमें उनकी सन्तान-वृद्धि कराई जाती है; परन्तु फिर भी वह भक्ष्य है, क्योंकि उनकी संख्या वहाँ संख्याते मात्र को उल्लंघन कर नहीं पाती। फिर भी 'दूध की अपेक्षा दही में बैक्टेरिया अधिक होते हैं' यह सत्य है और इसलिए दूध की अपेक्षा दही त्याज्य है। परन्तु घी बनाने के लिए दही जमाना आवश्यक है इसलिए उसका ग्रहण किया गया है । आजकल मशीन के द्वारा दही जमाये बिना ही क्रीम बनाकर घी निकाला जाए तो दही-वाले घी की अपेक्षा अधिक शुद्ध है, परन्तु उसकी मर्यादा कम होती है, क्योंकि दो महीने के पीछे ही उसमें विशेष प्रकार की गन्ध आने लगती है, अत: उस घी को अधिक समय तक रखना योग्य नहीं है। दूध बछड़े का भाग होने के कारण अग्राह्य हो ऐसा भी नहीं है, या उसमें चोरी का दूषण आता हो सो भी नहीं है; क्योंकि पहली बात तो यह है कि सारा का सारा दूध बछड़ा पी नहीं सकता, यदि पीवे तो पेट अफर जावे। दूसरी बात यह है कि जब तक दाँत नहीं निकलते तब तक तो अवश्य दध उसका भाग है पर दाँत निकलने ने क्योंकि तब उसे भूसा भी साथ-साथ दिया जाता है। दाँत प्राकृतिक चिन्ह है इस बात का कि उसे अब भूसे आदि की आवश्यकता पड़ गई है। इसलिए जितना अन्न या भूसा उसे दे रहे हैं उतना दूध आप ले लें तो चोरी का दोष नहीं लग सकेगा। आप मुफ्त में दूध लेते हों सो भी बात नहीं हैं क्योंकि आप गाय व उसकी सन्तान को सुरक्षा देते हैं, उसकी आवश्यकताओं का भार अपने सर पर लेते हैं, इसके बदले में गाय अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर रही है, अपना दूध प्रसन्नता पूर्वक आपको देना स्वीकार कर रही है। इस प्रकार गाय का दूध लेने में चोरी नहीं है, पर इतना विवेक अवश्य रखना चाहिए कि बछड़े को पेटभर भोजन अवश्य दिया जाए तथा जितनी उसे आवश्यकता है उतना दूध भी । दाँत निकलने से पहले आधा और पीछे चौथाई दूध बछड़े को दिया जाना पर्याप्त है। १२. समन्वय-जीव-हिंसा के सम्बन्ध में विचारने से तो वास्तव में सर्व ही पदार्थ अभक्ष्य हैं, क्योंकि कोई भी पदार्थ सर्वथा बैक्टिरिया-रहित नहीं होता । सैद्धान्तिक रूप से देखने पर यद्यपि वनस्पति या दूध आदि कुछ पदार्थ ऐसे हैं जिनमें पहले से बैक्टिरिया नहीं होते, पर क्योंकि वातावरण की शत-प्रतिशत शुद्धि असम्भव होने के कारण वहाँ से वे तुरन्त प्रवेश पा जाते हैं इसीलिए सर्व ही पदार्थों को व्यवहार में बैक्टेरिया-सहित कहा गया है । इसलिए किसी की शक्ति आज्ञा दे और वह भोजन मात्र का ही त्याग करके जीवन चला सके तथा साधनाकर सके तो उत्तम है। परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, भोजन तो करना ही होगा। अब रही ग्राह्य और अग्राह्य की बात, सो व्यक्ति-विशेष की शक्ति पर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ २८. भोजन-शुद्धि १२. समन्वय निर्भर है। यह ध्यान रहे कि यहाँ एक मध्यम मार्ग का विचार हो रहा है जिससे कि जीवन भी बना रहे, साधना में विघ्न भी न हो और जीव-हिंसा भी कम से कम हो। यदि कोई व्यक्ति केवल सूखे अन्न पर निर्वाह कर सके और उसकी साधना बाधित न हो तो अत्यन्त उत्तम है, उसको हरित व दुग्ध का त्याग कर देना चाहिए। यदि अन्न व वनस्पति से काम चला सके तो कभी भी दध पीना नहीं चाहिए। परन्तु अनुभव करने पर यह प्रतीति में आता है कि इन दो पदार्थों के अतिरिक्त शरीर को कुछ चिकनाई की तथा कुछ विटामिनों की भी आवश्यकता है जो दूध में ही मिलते हैं, वनस्पति में नहीं । इसलिए यदि अधिक काल तक दूध का प्रयोग न किया जावे तो शरीर शिथिल हो जाता है, विचारणायें बाधित हो जाती हैं, बुद्धि सोने लगती है, साधना भंग हो जाती है। यद्यपि अपनी ही कमजोरी है पर इसी कमजोर हालत में साधना करना इष्ट है। इसलिए तीनों में सबसे निकृष्ट होते हुए भी दूध-दही आदि के ग्रहण की आज्ञा गुरुओं ने दी है। यहाँ इतना विवेक अवश्य रखना चाहिए कि यह प्रयोजनवश रिश्वत देकर काम निकालने के समान है, वास्तव में दूध अग्राह्य ही है। यदि किसी की शक्ति बढ़ जाय तो सबसे पहले उसे दूध का ही त्याग करना चाहिए, वनस्पति के त्याग का नम्बर उसके पीछे आता है। समाधिमरण के प्रकरण में जो अन्न का त्याग पहले और दूध का पीछे बताया है वह दूसरी अपेक्षा से है । शारीरिक शक्ति बढ़ने की वहाँ अपेक्षा नहीं है, बल्कि आहार घटाने की अपेक्षा है । अन्न की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म होने के कारण दूध का त्याग वहाँ पीछे होता है। --- - p PAN STAN - RA SHA ये हैं दयालुता के आदर्श भगवान् महावीर । अहिंसक का प्यार ही वाण से हत हंस की औषधि बन गया। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप 388 १. सामान्य परिचय; २. भय निवृत्ति; ३. शक्ति वर्द्धन; ४.शरीर का सार्थक्य; ५. मानस तप; ६.नव संस्कार। १. सामान्य परिचय-बात चलती थी यहाँ से कि मुझे शान्ति चाहिए और कुछ नहीं। उसे कैसे प्राप्त किया जाए यह प्रश्न था। उत्तर में पिछले कई दिनों से अनेकों प्रकरणों द्वारा यह बताया गया कि वास्तव में शान्ति मुझ से कोई भिन्न पदार्थ नहीं जो कि उसे बाहर कहीं से खोजकर लाना पड़े, प्रत्युत स्वयं मेरा स्वभाव है, मेरा धर्म है, जो यद्यपि मेरे ही किन्हीं अपराधों के कारण बाधित अवश्य हो रही है, परन्तु मुझसे विलग नहीं हुई है। यदि सत्य का लक्ष्य लेकर साधना करूँ तो अवश्य उसे हस्तगत करने में सफल हो जाऊँ। व्यक्ति की प्रकति. शक्ति व स्थिति के अनसार साधना तीन भागों में विभाजित की गई है-गृहस्थ-धर्म, श्रावक-धर्म और साधु-धर्म । गृहस्थ-धर्म के अन्तर्गत देव पूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय तथा संयम इन चार अंगों का कथन हो चुका । अब चलना है उसके पाँचवें अंग 'तप' का कथन । देव पूजा आदि के द्वारा यद्यपि नित्य-नूतन अपराधों का आंशिक संवरण कर लिया गया अर्थात् उनका आस्रवन या आगमन कुछ-कुछ रोक दिया गया, तदपि वे परिपुष्ट संस्कार जो पीछे बैठे अनेकविध विकल्पों द्वारा मेरी इन अपराधी प्रवृत्तियों को प्रेरणा देते रहते हैं, अभी पूरी शक्ति के साथ गरज रहे हैं। जब तक इनकी शक्ति कुछ क्षीण नहीं हो जायेगी तब तक शान्ति-पथ पर मेरी निर्बाध गति सम्भव नहीं है। संस्कारों की क्षति ही निर्जरा तत्त्व है और तप उसका साधन है। यहाँ गृहस्थोचित धर्म के अन्तर्गत इस तप का सामान्य परिचय देना इष्ट है, क्योंकि इसका विशेष विस्तार आगे 'उत्तम-तप' नामक ४० वें अधिकार में किया जाने वाला है, जोकि प्राय: साधुओं तथा सन्यासियों के द्वारा सिद्ध किया जाने योग्य है। तप का अर्थ है आत्म-प्रतपन अर्थात् आत्मतेज या आत्म-शक्ति की जागृति, जिसके जागृत हो जाने पर साधक इन संस्कारों को ललकारने का तथा उनके साथ युद्ध ठानकर उनकी शक्ति को किञ्चित क्षति पहुँचाने का साहस कर सके। संस्कारों को ललकारने का तात्पर्य है प्रतिकूल वातावरण में जाकर साधना करना, अब तक की गई साधना की परीक्षा करना. और यदि कहीं कमी प्रतीत होती है तो उसे दूर करना । जैसा कि पहले बताया जा चुका है, (देखो २३ । ६.१०) हीन शक्ति वाले प्राथमिक साधक को मार्ग का प्रारम्भ अर्थात् अपनी साधना अनुकूल वातावरण में रहकर करनी चाहिये । परन्तु उस वातावरण में रहते हुए विकल्पों का या तीव्र कषायों का किंचित् दमन हो जाने पर सन्तुष्ट नहीं हो जाना चाहिए, क्योंकि इनका वास्तविक दमन तभी माना जा सकता है जबकि प्रतिकूल वातावरण में भी ये उभरने न पावें । यद्यपि साधना का प्रारम्भ प्रतिकूल वातावरण में नहीं किया जा सकता, तदपि अनुकूल वातावरण में साधना का कुछ फल प्राप्त कर लेने पर शक्ति में कुछ वृद्धि अवश्य हो जाती है । बस इस शक्ति के आधार पर अब प्रतिकूल वातावरण में जाकर उस साधना की परीक्षा करना ही गृहस्थोचित् 'तप' है। किसी व्यक्ति को क्रोध उसी समय आता है, जबकि सामने कोई दूसरा व्यक्ति उपस्थित हो । यदि विरोधी की अनुपस्थिति में क्रोध न आने का नाम ही शान्त रहना है, तब तो लोक में सभी शान्तचित्त कहलायेंगे, क्योंकि कौन ऐसा है जो घर में बैठा दीवारों से लड़ता हो या निष्कारण किसी राहगीर से छेड़-छाड़ करता हो ? एक बार वर्णी जी ने अपनी माता से कहा कि अब मैं बहुत शान्त हो गया हूँ । माता ने परीक्षा के लिये एक दिन खीर के स्थान पर मलहड़ी (छाछ की नमकीन खीर) परोस दी । खाते ही वर्णी जी का पारा चढ़ गया और थाली फैंक कर मारी। पता चल गया वर्णी जी को कि वे अभी शान्ति से कितनी दूर हैं। बस इसी प्रकार अपनी साधना की सफलता तब समझो जबकि प्रतिकूल साधनों के उपस्थित हो जाने पर भी शान्ति में भंग न पडे । इस प्रयोजन के लिए किया जाता है तप, जिसमें जान बूझकर प्रतिकूल परिस्थितियों का आवाहन किया जाता है, प्रतिकूल वातावरण में प्रवेश Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०१ २. भय - निवृत्ति किया जाता है, और वहाँ जाकर भी इस बात की सावधानी रखी जाती है कि शान्ति से विचलित न होने पाऊँ । कदाचित् अन्तरंग में क्षोभ प्रकट होने भी लगे तो उसे अन्दर में ही दबाने का प्रयत्न किया जाता है और इस प्रकार अभ्यास करते हुए एक समय वह आता है कि स्वत: कभी ऐसे प्रतिकूल अवसर आ पड़ें तो शान्ति निर्बाध रहे, मस्तक पर बल न पड़े, मुस्कराहट भंग न हो। बस तब जानो कि प्रतिकूल संस्कार टूट चुका है। इसी प्रकार सर्व जाति के संस्कारों के साथ युद्ध करके बलपूर्वक उनको प्रलय करने का नाम 'तप' है । २. भय - निवृत्ति — तप शब्द सुनकर कुछ भय सा लगता है, 'मुझे तप करना पड़ेगा' यह बात सुनना भी मैं सहन नहीं कर सकता, क्योंकि कुछ ऐसा विश्वास है कि तप करने में बड़ी भारी पीड़ा होती होगी, बड़ी वेदना होती होगी । महीनों के उपवासों द्वारा शरीर को कृश करने वाले योगियों की दशा को देखकर मेरा हृदय काँप उठता है और पुकार उठता है कि बड़ा कठिन है यह मार्ग, असिधारा के समान, मुझसे न चलेगा। इस प्रकार घबराकर इस दिशा की ओर लखाने का भी साहस नहीं होता । परन्तु भूलता है प्रभु ! वास्तव में ऐसी बात है ही नहीं । तप में पीड़ा होती ही नहीं, इसमें है शान्ति, आह्लाद और उल्लास। पहले कहे अनुसार (देखो साधना अधिकार) तप में भी दो क्रियायें बराबर चलती हैं- एक अन्तरंग क्रिया और दूसरी बाह्य क्रिया । अंतरंग क्रिया है अपने उपयोग का शान्ति के प्रति झुकाव, शान्ति में प्रतपन, इच्छाओं व विकल्पों का दमन, चिन्ताओं से मुक्ति ; और बाह्य क्रिया है शारीरिक पीड़ा का सहना । तेरे उपरोक्त भय का कारण यही है कि तूने केवल बाह्य क्रिया देखी है, अन्तरंग नहीं । वास्तव में उपयोगात्मक अन्तरंग क्रिया के बिना बाह्य-क्रिया निरर्थक हुआ करती है। पीड़ा को अनुभव करने वाला उपयोग ही है, और उपयोग एक समय में दो दिशाओं में काम कर नहीं सकता । इसलिए यदि उपयोग अन्तरंग - शान्ति में केन्द्रित कर दिया जाय तो बताओ पीड़ा का अनुभव कौन करेगा और पीड़ा किसे होगी ? जिस प्रकार बुखार हो जाने पर यदि रेडियो सुनने में उपयोग लगा दें तो बुखार का पता नहीं चलता, जिस प्रकार अपने शत्रु-दल को पीछे धकेलने में तत्पर बराबर उसकी क्षति करने वाला योद्धा रणक्षेत्र में कदाचित् अपने शरीर में लगे घाव की पीड़ा का वेदन नहीं करता, उसी प्रकार शान्ति के आह्लाद में केन्द्रित कर दिया है। उपयोग जिसने तथा बराबर संस्कारों की क्षति करने वाले योगी को बाहर की शारीरिक बाधाओं का पता नही चलता, मानो कुछ हो ही नहीं रहा है। तप का प्रयोजन है संस्कारों के साथ युद्ध ठानकर उनका मूलोच्छेद करना । वह दो प्रकार का होता है, बाह्य और अभ्यन्तर । बाह्य तप से उन संस्कारों का उच्छेद होता है जोकि शारीरिक पीड़ायें आ पड़ने पर मुझे शान्ति तथा समता से च्युत कर देते हैं, और अभ्यन्तर तप से उन संस्कारों का उच्छेद होता है जोकि मेरे अन्तरंग में बराबर इच्छाओं तथा कषायों के रूप में जागृत होकर मुझे विविध प्रकार के अपराध करने के प्रति नियोजित करते रहते हैं । इसलिए बाह्य-तप में कुछ ऐसी क्रियायें की जाती हैं जिनसे शरीर को पीड़ा हो और अन्तरंग - तप में कुछ ऐसी भावनायें की जाती हैं जिनसे मेरी इच्छाओं तथा कषायों का शमन हो इनका विस्तार तो आगे 'उत्तम तप' वाले ४० 'अधिकार में किया जायेगा, 'परन्तु यहाँ इतना बताना इष्ट है कि ये दोनों ही प्रकार के तप साधक अपनी शक्ति के अनुसार करता है । भले तुझ में आज इतनी शक्ति न हो कि देहपीड़ाकारी बाह्य-तपों को तू कर सके, परन्तु अभ्यन्तर- तप करने की शक्ति तो अब भी तुझ में है ही । क्या हृदय में भावनाएं उत्पन्न करने से कुछ पीड़ा होती है तुझे ? बाह्य तप भी तू सर्वथा न कर सके, ऐसा नहीं है। कभी-कभी अनशन या उपवास तो अब भी करता ही है तू । इतना ही क्यों, अपने दैनिक जीवन में नित्य तप किये जा रहा है तू, और विकट से विकट किये जा रहा है तू । दर्शन-खण्ड के 'चारित्र' वाले प्रकरण में तेरे वर्तमान व्याकुल जीवन का चित्रण किया गया है (देखो ५.४) । क्या वह कुछ कम तप है ? उसके अरिरिक्त भी देख, विद्यार्थी जीवन में विद्योपार्जन की गृद्धतावश और गृहस्थ जीवन में धनोपार्जन की गृद्धतावश अथवा स्त्री पुत्रादि कौटुम्बिक व्यक्तियों को अधिकाधिक सुखी देखने की गृद्धतावश, क्या-क्या नहीं सह रहा है तू ? परीक्षा के अवसर पर विद्यार्थी को और त्यौहार के अवसर पर व्यापारी को न रहती है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०२ ३. शक्ति-वर्द्धन खाने की सुधि न पीने की । खाया-खाया, न खाया न खाया, कभी एक चाय का कप पीकर ही रह गये। ये 'अनशन' तथा 'ऊनोदरी' नामक तप नहीं तो और क्या हैं ? प्रवास के दिनों में जो खाना आप घर से बन्धवाकर ले जाते हैं यद्यपि वह रूखा-सूखा होता है तदपि जिस किस प्रकार खड्डा भर ही लेते हैं आप। यह 'रस-परित्याग' नामक तप नहीं तो और क्या है ? दुकान पर बैठकर नित्य ही तथा प्रवास के दिनों में विशेषत: क्या-क्या कष्ट नहीं सहते हैं आप? न गर्मी को गिनते हैं न सर्दी को, न बरसात की कुछ परवाह करते हैं और न गाड़ी की भीड़ की। कहीं हो गई गाड़ी लेट तो बिता दिये घण्टों उसकी प्रतीक्षा में । यह सब 'कायक्लेश' नामक तप नहीं तो और क्या है ? पढ़ने की चिन्ता मन में लिये विद्यार्थी बैठा रहता है सारा-सारा दिन घर से दूर किसी उद्यान में अथवा नदी के किनारे । यह 'विविक्तशय्यासन' या एकान्त सेवन नाम तप नहीं तो और क्या है ? किसी प्रेमी बन्धु के प्रति कदाचित् कोई दोष हो जाने पर, अथवा अपने रोगी पुत्र आदि को कदाचित् भूल से गलत औषधि दी जाने पर आपका हृदय रो उठता है, पश्चाताप से भर जाता है; अथवा किसी सज्जन के प्रति कदाचित् भूल से कोई असभ्यता हो जाने पर Sorry कहकर उससे क्षमा माँगते हैं। यह सब 'प्रायश्चित्' नामक तप नहीं तो और क्या है ? स्कूल-कालेज में गुरुजनों तथा पुस्तकों के प्रति, घर में वृद्धजनों के प्रति, समाज में प्रतिष्ठित व्यक्तियों के प्रति, दफ्तरों में अफसरों के प्रति और दुकान पर ग्राहकों के प्रति विनम्र बन जाते हैं आप। यह आपका ‘विनय' नामक तप नहीं तो और क्या है ? परीक्षा में फेल होने की चिन्ता, व्यापार में हानि होने की चिन्ता, धनहीनता के कारण पुत्री का विवाह न कर पाने की चिन्ता इत्यादि-इत्यादि अनेकविध चिन्ताओं में चित्त का बराबर अटके रहना 'ध्यान' नामक तप नहीं तो और क्या है ? इस प्रकार आप नित्य ही किये जा रहे हैं तप, केवल अभ्यन्तर नहीं बाह्य भी, एक दो नहीं सारे के सारे । परन्तु वहाँ न लगता है आपको इनसे भय और न है चित्त में इनकी अवश्यम्भावी आवश्यकता पर सन्देह । फिर शान्ति या समता-प्राप्ति के इस पारमार्थिक-क्षेत्र में ऐसा क्यों ? इसका तो अर्थ यह हुआ कि आपको इन पारमार्थिक उद्देश्यों के प्रति या ता सर्वथा गृद्धता नहीं है, या इतनी नहीं है जितनी कि विद्या अथवा धन आदि के प्रति है। आप इनकी बात अवश्य करते हैं परन्तु आपका लक्ष्य इस ओर नहीं है। . अत: हे साधक ! तू डर मत, यह मत भूल कि तू शान्ति तथा समता-प्राप्ति का उद्देश्य लेकर निकला है। बिना कष्ट सहे जब छोटी-मोटी व्यवहारिक वस्तु की भी प्राप्ति नहीं होती तो इस महान् वस्तु की प्राप्ति कैसे होगी? और फिर तुझे शक्ति से अधिक तो करने के लिये कुछ कहा नहीं जा रहा है, जितनी कुछ भी हीन या अधिक शक्ति तुझमें है उसके अनुसार ही करने को कहा जा रहा है। तू अपनी शक्ति को मत छिपा, यह महान् अपराध है । जितनी शक्ति लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के अर्थ लगाता है उतनी ही इधर भी लगा। तप की वृद्धि को प्राप्त योगी-जनों को भी अपने महान् बल का स्वामित्व एक दिन में प्राप्त नहीं हो गया था। तेरे जैसी ही निम्न अवस्था से यथोपलब्ध शक्ति का प्रयोग करते हुए उन्होंने अपने बल को बढ़ाया था और उत्कृष्ट तप धारण करने के योग्य हो कर अ आज 'योगी' कहलाने लगे हैं। तू भी अपने योग्य तप धारण करने के प्रति मन में कुछ उल्लास जागृत कर । इनसे तुझे महान लाभ होगा, जिसका तू स्वयं अनुभव करेगा, और कुछ महीनों में तुझे यह देखकर आश्चर्य होगा कि अन्तर आ रहा है तेरे जीवन में, एक महान् अन्तर, आकाश-पाताल का अन्तर; परिवर्तन होता जा रहा है तेरे मन में, जिसने तुझे किसी अन्धकूप से निकालकर ला खड़ा किया है सूर्य के प्रकाश में। ३. शक्ति-वर्द्धन-"भले थोड़ा सही परन्तु जब संवर से ही निर्जरा का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, तो तप के द्वारा निर्जरा करने की क्या आवश्यकता ?” ठीक है भाई ! परन्तु तूने इतना न सोचा कि संस्कार हैं अनादि काल के पुष्ट किये हुए बड़े प्रबल और उनकी क्षति के लिये तेरे पास समय है थोड़ा, केवल मनुष्य-आयु मात्र । इस लिए जब तक इनकी क्षति वेग के साथ नहीं होगी तब तक इतने कम समय में उनसे मुक्ति मिलना असम्भव है। अगले भव में कौन जाने यह ज्ञान और यह उत्साह मिले कि न मिले । परन्तु इसी भव में यदि इनकी शक्ति को तप द्वारा अत्यन्त क्षीण कर दिया जाए और अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली जाए तो अगले भव में भी ये तेरे मार्ग में बाधा डालने को समर्थ नहीं हो सकेंगे। यही कारण है कि इस मार्ग में तप अत्यन्त आवश्यक है। दूसरी बात यह भी है कि प्रतिकूल वातावरण में Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०३ ३. शक्ति -वर्द्धन जाकर जिस व्याकुलता का वेदन तुझे करना पड़ता है, उससे तू किसी अंश में बच जायेगा और वर्तमान का तेरा सम्पूर्ण जीवन शान्तिमय बन जाएगा । क्या इस बात की सिद्धि उस समय तक सम्भव है जब तक कि तू प्रतिकूल वातावरण में रहकर कुछ उद्यम न करे उस अशान्ति से बचने का ? नहीं ऐसा सम्भव नहीं। बस इस उद्यम का नाम ही तप है जिसके द्वारा कि अशान्ति से बचा जा सकता है। सस्कारों की क्षति का क्रम बताया जा चुका है । तप द्वारा उनकी क्रमिक क्षति करता हुए जीव किस गति से और कैसे भावों से आगे बढ़ता है, आज यह बात बतानी है। हम यह देखते हैं कि प्रारम्भिक दशा में किसी भी कार्य को प्रारम्भ करते हुए प्राणी को कुछ झिझकसी या भय सा हुआ करता है । लौकिक कार्यों में एवं अलौकिक कार्यों में, सब में यह बात देखने में आती है । आस्रव व बन्ध प्रकरण में चोरी के कार्य-सम्बन्धी दृष्टान्त दिया था। वहाँ भी प्रारम्भ में चोरी करने वाले उस बालक के हृदय का चित्रण करते हुए यह दिखाया था कि उस समय कितना भय था उसमें । ज्यों-ज्यो भ्यस्त होता गया, भय में हानि होती गई, चोरी के प्रति उसका साहस बढ़ता गया और एक दिन वह पूरा चोर बन गया। (देखो १५.२) यहाँ भी एक व्यापारी का दृष्टान्त ले लीजिए। पहले दिन ही जब किसी व्यापारी के पुत्र को दिसावर जाने के लिए कहा जाता है तो कैसी होती है उसके हृदय की स्थिति सब जानते हैं। कुछ झिझक सी कुछ भय सा; "कैसे करूँगा सौदा, कहाँ भोजन करूँगा, प्रबन्ध बने कि न बने, और भाव में लुट गया तो ? खैर जाना तो पड़ेगा ही, व्यापार प्रारम्भ जो करना है। पहले सौदे में नुकसान भी रहा तो कोई बात नहीं, इससे कुछ सीख तो जाऊँगा ही। धन-हानि भले हो जाय पर अभ्यास का लाभ तो हो ही जाएगा।" इस प्रकार विकल्पों के जाल में उलझा वह चल देता है माल खरीदने । अपनी ओर से परी-परी चतराई दिखाता है कि नया होने के कारण किसी सौदे में लूट न जाय और माल ले आता है। यदि दूसरों की अपेक्षा कुछ अधिक दाम दे भी आया तो भी कोई चिन्ता नहीं उसे, क्योंकि पहला अवसर ही तो था, दूसरी बार जायेगा तो यह गलती नहीं करेगा और इसलिए दूसरी बार झिझक व भय नहीं होता, यदि होता है तो कम। अब की बार होता है उसके साथ कुछ उत्साह, कुछ पहली बार के अनुभव का साहस, अत: इस बार धोखा नहीं खाता, यदि खाता है तो पहले से कम । इसी प्रकार उत्तरोत्तर तीसरी व चौथी बार अधिक-अधिक उत्साह के साथ जाता है, और एक दिन कुशल व्यापारी बन जाता है। अलौकिक कार्य-सम्बन्धी दृष्टांत में भी यही क्रम है। उपवास करने से डर लगता है किसी को। अनन्त चतुर्दशी आई, उसके साथियों ने उपवास किया, उसे भी प्रेरणा की गई कि उपवास करे परन्तु डरता है। कैसे करूँ, आज तक उपवास करके देखा नहीं, कैसा लगता होगा? भूख तो सतावेगी ही, उसे कैसे सहन करूँगा? नहीं-नहीं ! मुझसे नहीं होगा।" अगले ही क्षण कुछ उत्साह के साथ “अरे ! इतना क्यों डरता है, ये छोटे-छोट बच्चे भी तो करते ही हैं, क्या तू इनसे भी गया बीता है, और फिर थोड़ी बाधा हुई भी तो क्या हो जाएगा, एक ही दिन की तो बात है, सहन कर लीजियो, मरेगा तो नहीं” इत्यादि अनेकों भयपूर्ण विकल्पों में उलझा साहस करके कर ही लेता है उपवास । कुछ थोड़ी बाधा हुई तो अवश्य परन्तु इतनी नहीं जितनी कि वह सोचता था । फलत:, “अरे ! कोई अधिक कठिन तो नहीं है, दिन बीत गया शास्त्र सुनने में व पूजा के कार्यक्रम में, खाना खाने का ध्यान ही नहीं आया, आया भी तो अत्यन्त अल्प । यों ही घबराता था, अब मत घबराना, प्रतिवर्ष उपवास करना।” इन विचारों के साथ अब एक उत्साह उत्पन्न हो गया उसमें, प्रतिवर्ष क्रमश: अधिक-अधिक रुचि के साथ उपवास करता है और एक रोज अभ्यस्त हो जाता है वह उपवास करने में । दृष्टान्त पर से यह स्पष्ट है कि १. किसी भी कार्य के प्रारम्भ में होती है एक झिझक, भय व कट्टरता; २. एकबार अन्य से प्रेरित होकर, जबरदस्ती कुछ कष्ट सहन करके भी यदि प्रवृत्ति कर ली जाए उस ओर तो झिझक हो जाती है कम और उसके स्थान पर आ जाता है कुछ साहस, कुछ उत्साह ३. ज्यों-ज्यों दोहराता है उस कार्य को साहस व उत्साह में उत्तरोत्तर होती है वृद्धि और भय होता है उत्तरोत्तर कम; इस क्रम से एक दिन हो जाता है वह पूर्ण अभ्यस्त और निर्भय । बस तप में भी इसी प्रकार समझना—१. प्रतिकूल वातावरण में रहने के कारण 'शान्ति का उद्यम मैं कर नहीं सकता' इस प्रकार का भय है आज। २. गुरु के उपदेश तथा जीवन से प्रेरित होकर यदि कुछ उद्यम करूँ, तो भले Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०४ ५.मानस तप अधिक सफलता न मिले पर झिझक हो जायेगी कुछ कम और साहस में हो जायेगी कुछ वृद्धि । ३. पुन: पुन: उस नवीन उपार्जित साहस को लेकर उत्तरोत्तर अधिक उत्साह के साथ यदि इस दिशा में उद्यम करूँ तो साहस व अन्तर्बल में होगी उत्तरोत्तर वृद्धि तथा झिझकने में हानि । ४. इस प्रकार एक दिन हो जाऊँगा मैं भी उस योगी के तुल्य जिसका बल अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हो चुका है, जिसके कारण कि अनेकों शारीरिक बाधायें-क्षुधा तृषा गर्मी सर्दी कृत, मच्छर मक्खी आदि कृत, तिर्यञ्चकृत, प्रकृतिकृत अथवा मनुष्यकृत उपसर्ग आ पड़ने पर भी, उसकी शान्ति में बाधा नहीं पड़ती उसके मुखपर विकसित मुस्कान भंग नहीं होती उसके अन्तर में पीड़ा वेदन सम्बन्धी अनिष्ट आर्तध्यान उत्पन्न नहीं होता और वह बराबर रहता है अपनी शान्ति में मग्न। परन्त ऐसी अवस्था क्रमपर्वक चलने से ही आयेगी। यदि एकदम वैसा बनने का प्रयत्न करूँगा तो फल उल्टा होगा, पीड़ा होगी, उससे आर्तध्यान और उससे कुगति । हर एक कार्य ज्ञान के आधार पर करना चाहिए, नकल नहीं । उपवास आदि क्रियाओं की महिमा नहीं गाई जा रही है यहाँ, बताया जा रहा है तप द्वारा शक्ति-वर्द्धन का सिद्धान्त।। ४. शरीर का सार्थक्य-मत भूल, भो चेतन ! मत भूल कि तू शक्ति का अर्जन करने निकला है धन का नहीं। क्यों करता है शरीर की चिन्ता? यह है ही किसलिए? तपश्चरण के द्वारा क्षीण हो तो हो । आप कारखाना लगाते हैं और उसमें मशीने फिट करते हैं तो किसलिए? 'यदि मशीन को चलाया तो घिस जायेगी', क्या ऐसा अभिप्राय रखकर माल बनाना बन्द करते हैं आप? “घिसे तो घिसे, टूटे तो टूटे, माल तो बनाना ही है, नहीं तो मशीनें हैं ही किसलिए? टूट जायेंगी तो मरम्मत कर लेंगे, अधिक घिस जाने पर मरम्मत के योग्य नहीं रहेंगी तो बदलकर और नई लगा लेंगे”, यही तो अभिप्राय रहता है आपका या कुछ और ? बस तो शरीर के प्रति योगी का भी यही अभिप्राय है। आप मशीन न समझकर 'मैं' रूप मान बैठे हैं इसे, इसीलिए इसके घिसने या टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से डरते हैं, पर योगी इसे मशीन समझते हैं जिसे उन्होंने शान्तिरूपी माल तैयार करने के लिए लगाया है । अत: वे इसके घिसने व टूटने से अर्थात् रोग व मृत्यु से नहीं डरते। यह घिसे अर्थात् क्षीण हो तो हो, टूटे अर्थात् मरे तो मरे यह है ही किसलिए? जब तक मरम्मत के योग्य है अर्थात् शान्ति के काम में कुछ सहायता के योग्य है तब तक इस कर-करके, इसे भोजनादि आवश्यक पदार्थ दे-देकर इससे अधिक से अधिक काम लेना। जिस दिन मरम्मत के योग्य नहीं रहेगा अर्थात् बुढ़ापे से अत्यन्त जर्जरित हो जायेगा, उस दिन इसे छोड़ देना अर्थात् समाधि-मरण धर लेना (देखो अधिकार ४७)। नया शरीर मिल जायेगा, फिर उससे पुन: वही शान्ति का माल तैयार करने का धन्धा करना, कारखाना बन्द न होने देना । यह है योगी का तप से प्रयोजन, शरीर होने का यथार्थ फल। ५. मानस तप-तप का प्रकरण चलता है अर्थात् उन संस्कारों के विनाश की या निर्जरा की बात चलती है जो कि मन्दिर से निकलकर गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करते ही मेरे अन्दर मेरी बिना इच्छा के कुछ ऐसे विकल्प उत्पन्न कर देते हैं जिनमें फँस कर मैं व्याकुल हो उठता हूँ। इस रागात्मक वातावरणरूपी पवन को प्राप्त होकर संस्कार भड़क उठते हैं और मेरे अन्दर चिन्ताओं की दाह उत्पन्न करके मझे भस्म करने लगते हैं। धन्य है आज का अवसर यह तो खबर चली कि गृहस्थी में उठने वाले विकल्प भी कुछ हैं, जिन्हें मैं नहीं चाहता; और कोई उपाय हो तो हर मूल्य पर इनसे बचने को तैयार हूँ। इससे पहले अज्ञानवश या बुद्धि के किसी विकारवश मुझे इस दाह में भी कुछ मिठास सी ही प्रतीत होती थी और किसी मूल्य पर भी मैं इसको छोड़ना नहीं चाहता था। एक महान् अन्तर पड़ गया है आज मेरे अभिप्राय में, चूम ले इस अभिप्राय को, बहुमान प्रकट कर इसके प्रति, हर प्रकार रक्षा कर इसकी। यहाँ अनेकों चोर हैं इस अभिप्राय के, इस जिज्ञासा के, देख कहीं निकल न जाए तेरी तिजोरी से यह, तीन लोक की सम्पत्ति से भी अधिक मूल्यवान 'जिज्ञासा'। __ यह सब किसका प्रसाद है ? कहाँ से आई शान्ति मेरे अन्दर ? यह सब है उन गुरुओं का प्रसाद, उस वीतराग वाणी का प्रसाद, जिनकी उपासना कि मैं पहले कर चुका हूँ। कितना महान् फल मिला है मुझे उस उपासना का, बिल्कुल प्रत्यक्ष तथा आज ही, कल की प्रतीक्षा करने की भी आवश्यकता नहीं। यह है उस निर्जरा का प्रताप जो संवर के साथ-साथ धीमे-धीमे हुई है। गुरुओं का प्रसाद प्राप्त करके आज मुझसे अधिक सौभाग्यशाली कौन होगा। अत्यन्त मूल्यवान इस शान्ति की जिज्ञासा को प्राप्त करके मुझसे अधिक धनवान कौन होगा? Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०५ ६. नव-संस्कार यद्यपि मन्दिर के अनुकूल वातावरण में रहते हुए मैं उस शान्ति का तनिक वेदन कर आया हूँ, परन्तु गृहस्थी के वातावरण में आने पर जबकि मैं घर में होता हूँ, बीवी-बच्चों से बातें करता या भोजन करता होता हूँ, दुकान पर ग्राहकों से बातें करता या माल बेचता-खरीदता होता हूँ, दफ्तर में अपने स्वामी से सलाह करता या अपने आधीन को कुछ आज्ञा देता हूँ, मोटर या रेल में यात्रा करता या मार्ग में गमन करता होता हूँ, तब 'वह शान्ति कहाँ चली जाती है' मैं नहीं जानता। वहाँ रहते हए भी उसको कैसे स्थायी रखा जा सके, विशेषतया ऐसी स्थिति में जब कि मैं उस उपरोक्त वातावरण को अनिष्ट जानते हुए भी तथा उसको छोड़ना चाहते हुए भी छोड़ने को समर्थ नहीं हूँ; अथवा जबकि मैं उस प्रकार की कठिन तपस्या करने को समर्थ नहीं हूँ जैसी कि योगीजन करते हैं। वह कौन-सा तप है जो मैं ऐसी स्थिति में रहते हुए कर सकूँ और किञ्चित् मात्र अपने जीवन में सफल हो सकूँ। निराश मत हो प्रभु ! भय मत कर । तुझे योगियों वाला, क्षुधादि बाधाओं को जीतने वाला शारीरिक तप करने को नहीं कहा जायेगा । कुछ ऐसा तप बताया जायेगा जो तू सुविधापूर्वक कर सकेगा, अर्थात् मानस तप; केवल शक्ति को न छिपाकर वैसा प्रयत्न करने की आवश्यकता है, इससे तेरी गृहस्थी को अथवा तेरी सम्पत्ति या तेरे शरीर को कोई बाधा नहीं होगी। गृहस्थी के उस वातावरण का विश्लेषण करके मुझे यह बता कि क्या उसमें बीतने वाला तेरा सारा का सारा समय किसी आवश्यक कार्य करने में ही व्यतीत होता है या बीच-बीच में कभी ऐसे अन्तराल भी आ जाते हैं जब कि तू न बीबी बच्चों से बातें करता हो और न ग्राहकों से, अर्थात जबकि त कोई भी आवश्यक कार्य न करता हो. या बिल्कल खाली बैठा हो, या अकेला कहीं चला जा रहा हो, या लेटा हुआ हो ? 'ओह ! ऐसे अवसर तो एक दो नहीं अनेकों आते हैं, सारे दिन में । कोई छोटा होता है और कोई बड़ा, अर्थात् कभी अन्तराल पाँच मिनट का होता है और कभी घण्टों का भी।' भला यह तो बता कि तू क्या काम किया करता है इन अन्तरालों में ? "कुछ विशेष कार्य नहीं, केवल कुछ कल्पनायें, कुछ चिन्तायें इस जाति की जो कि मुझे व्याकुलता के वेग में बहा ले जाती हैं । भाव घट गया है माल का, पचास हजार का माल पड़ा है घर में, क्या होगा? कोई आशंका सी, यदि यह सत्य हो गई 'तो' ? ब्लड प्रैशर का रोग बता दिया है डाक्टर ने, बड़ा भयानक है यह, हार्ट फेल होने का डर है । एक आशंका सी, यदि सत्य हो गई 'तो' ?' और इसी प्रकार अनेकों निराधार कल्पनायें, जिनका आधार है केवल अनुमान व संशय । और यदि सौभाग्यवश कोई आकर बीच में टोक दे मुझे, अर्थात् मेरे उपयोग को इधर से हटाकर खींच ले अपनी ओर तो मैं बड़ा ही प्रसन्न हो जाता हूँ । 'अच्छा ही हुआ यह ग्राहक आ गया, क्या ही अच्छा होता कि हर समय ही ग्राहक खड़े रहते मेरे पास, और मुझे ऐसी कल्पनायें करने का अवसर ही न मिल पाता।' अर्थात् करता हूँ इस आशंका जनित 'तो' सम्बन्धी चिन्तायें, और इनके न आने को ही मानता हूँ अपना सौभाग्य।" तब तो बहुत सरल हो गया तेरे लिए। किसी आवश्यक कार्य को छोड़ने की या उसमें बाधा डालने की आवश्यकता नहीं, केवल उन फालतू वाले अन्तरालों का दुरुपयोग न करके सदुपयोग कर । किस प्रकार सो सुन। यह पहले बताया जा चुका है कि अभिप्राय या लक्ष्य पूर्णता का होता है, परन्तु अभिप्राय के साथ-साथ कार्य भी पूर्ण हो जाए यह नियम नहीं। हाँ यह नियम अवश्य है कि कार्य करने के प्रति पुरुषार्थ अवश्य प्रारम्भ किया जाता है, यदि उपाय सम्बन्धी कुछ जानकारी हो तो। तुझमें भी इस वातावरण में रहते-रहते शान्त रहने का सच्चा व दृढ़ अभिप्राय तो बन चुका है और जीवन में उस अभिप्राय की किञ्चित् मात्र पूर्ति के पुरुषार्थ करने को भी उद्यत हुआ है, परन्तु उपाय का भान न होने के कारण तेरा यह अभिप्राय कुछ बेकार सा पड़ा है । ले वह उपाय बताता हूँ। ६. नव-संस्कार–किसी शत्रु का विनाश करने के लिए नीतिज्ञ व्यक्ति उसके मुकाबले में उसके किसी अन्य शत्रु को भड़काकर खड़ा कर दिया करते हैं, और इस प्रकार बिना स्वयं आफत में पड़े अपने प्रयोजन की सिद्धि कर लिया करते हैं। बस तू भी यदि बिना उपसर्गादि सहे इन संस्कारों का विनाश करना चाहता है तो इनके सामने इनके विरोधी किसी अन्य संस्कार को लाकर खडा कर दे. अर्थात प्रयत्न कर कि तेरे अन्दर एक नवीन जाति का कोई विशेष Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०६ ६. नव-संस्कार शुभ संस्कार उत्पन्न हो जाए, जिसका झुकाव हर समय शान्ति के अभिप्राय को प्रेरित करना हो, जिस प्रकार कि वर्तमान संस्कारों का झुकाव भोग आदि के अभिप्राय को प्रेरित करना है। संस्कार उत्पन्न करने का उपाय बन्ध-तत्त्व वाले प्रकरण में स्पष्ट कर दिया गया है । (देखो १५.२) बस वही प्रयोग इस अभीष्ट संस्कार को उत्पन्न करने के लिए भी लागू करना है । वैज्ञानिक ढंग यही है किसी कार्य को करने का कि अनुभूत कार्य का विश्लेषण करके 'वह किस प्रकार तथा किस क्रम से करने में आया है' यह जाना जाए और उस क्रम को एक सैद्धान्तिक रूप दे दिया जाये, हर कार्य पर लागू करने के लिए। संस्कार को उत्पन्न करने के क्रम में बताया गया था, बुद्धि-पूर्वक की कोटि से प्रारम्भ करके उसका अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में चले जाना । यहाँ भी यह नवीन संस्कार पहले-पहले बुद्धि-पूर्वक बल लगाकर प्रारम्भ करना होगा, और इस बुद्धि के प्रयोग को तब तक चालू रखते रहना होगा जब तक कि दृढ़ व पुष्ट होकर वह अबुद्धि की कोटि में न चला जाय। क्या है यह बुद्धि का प्रयोग, यही अब बताता हूँ। मैं जीवन में कुछ ऐसा प्रयत्न करूँ कि भले ही काम के अवसरों में न सही परन्तु उन फालत अवसरों में वह बात मेरे उपयोग में आ जाए जो प्रात: मन्दिर में देखी थी.सनी थी. विचारी थी तथा धारी थी। अर्थात् उन अवसरों में यदि कल्पनाएँ ही करनी हैं तो बजाय उपरोक्त कल्पनाओं के कुछ अन्य जाति की कल्पना क्यों न करूं? उस जाति की कल्पनाएँ जिनसे कि वे अवसर उतने काल के लिए स्वयं सुन्दर बन जायें, शान्त बन जायें, तथा अगले अवसरों को भी वैसा बनने की प्रेरणा दें। और इस प्रकार उन फालतू अवसरों को मैं उपयोगी बना लूँ ? यह ठीक है कि पहले-पहले उन सर्व ही फालतू अवसरों को उपयोगी बनाने में मैं सम्भवत: सफल न हो पाऊँ, परन्तु यदि प्रयत्न करूँ तो क्या यह भी सम्भव नहीं कि उन सर्व अवसरों में से कोई एक या दो अवसर कदाचित् मैं उपयोगी बना सकूँ ? ऐसा हो जाना अवश्य सम्भव है। उपयोगी बने हुए उन अवसरों में स्वभावत: अनुभव में आई कोई अलौकिक शान्ति मेरे पूर्व के अभिप्राय को और पष्ट कर देगी, परसों वाले प्रवचन में बताये अनुसार विरोधी संस्कार को कुछ क्षति पहुँचायेगी, सफलता के प्रति मेरे अन्दर में पड़े संशय को दूर करेगी और साहस में कुछ वृद्धि करेगी । मैं अधिक उद्यमी बनकर शेष रहे अन्य अवसरों में भी उन बातों को उपयोग में लाने का प्रयत्न करूँगा, तथा एक दिन सफल हो जाऊँगा उन सर्व फालतू अवसरों को उपयोगी बनाने के लिये। इतने पर ही बस न होगा। इस बात का अधिक विस्तार करने की आवश्यकता नहीं कि उत्पन्न हुई उस शानि प्रेरित होकर यह मेरा परुषार्थ बराबर इस दिशा में आगे बढ़ता चला जायेगा, और धीरे-धीरे उन उपयक्त अवसरों की गिनती में वृद्धि होने लगेगी। अब कदाचित् ग्राहक से बातें करते या अन्य कोई आवश्यक कार्य करते हुए भी थोड़ी देर के लिए उपयोग में वह बात आने लगेगी। केवल बुद्धि-पूर्वक का पुरुषार्थ ही नहीं, पूर्व का अभ्यास भी अबुद्धिपूर्वक इस कार्य में मेरी सहायता करता रहेगा। आगे-आगे उपयोगी अवसरों की गिनती में ही वृद्धि नहीं होगी बल्कि उनके काल में भी बराबर वृद्धि होती चली जायेगी, और इस प्रकार बराबर दो दिशाओं में वृद्धि होते-होते एक दिन ऐसा आ जायेगा जबकि ये सर्व अवसर मिलकर एक अटूट धारा बन जायेंगे अर्थात् उस प्रकार का उपयोग बराबर अन्दर में बना रहेगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, नहाते-धोते, सोते-जागते हर समय ही वह उपयोग अन्दर में छिपा हुआ कुछ हल्की-हल्की चुटकियाँ भरा करेगा। मैं बाहर में तो सौदा तोलता हूँगा ग्राहक को और अन्दर में वेदन करता त-रस के आनन्द वाली चुटकियों का, और अब वह बात किसी भी वातावरण में भूल नहीं पाऊँगा, जैसाकि पहले हो जाया करता था। यही तो था प्रयोजन जिसकी सिद्धि क्रमपूर्वक चलने से हो गई। अभ्यास हो जाने के पश्चात् कोई बुद्धिपूर्वक का विशेष पुरुषार्थ उस दिशा में करना नहीं पड़ता, वह कार्य थोड़े से इशारे मात्र से ही स्वयं चलता रहता है । जिस प्रकार बड़े परिश्रम से बुद्धिपूर्वक पग बढ़ाने का अभ्यास करने वाला बालक, अभ्यस्त हो जाने पर मात्र थोड़े से इशारे से दौड़ने तक लगता है, उसे अपनी बुद्धि को विशेषतया उस दिशा में लगाने की आवश्यकता नहीं होती, पाँव से चलते हुए भी वह बुद्धि से कुछ और बातें विचारने का काम लिया करता है, उसी प्रकार उपरोक्त अभ्यस्त दशा हो जाने पर उस साधक गृहस्थ की बुद्धि भले ही बाहर में किसी और दिशा का कार्य करती रहे पर अन्तरंग का वह प्रयोजनभूत कार्य बुद्धि-पूर्वक की कोटि में आकर एक संस्कार का रूप धारण कर चुका है । वह संस्कार न्ति से हगाउ न हल्की Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. तप २०७ ६. नव- संस्कार जो कि पूर्व के अनेकों संस्कारों को परास्त करने में समर्थ है, और जिसका विश्वास हो जाता है अन्तर की उस महान् प्रतीति से जो हमारे पूर्व की अशान्ति व वर्तमान की किञ्चित् शान्ति के बीच साक्षात् अनुभव में आ रही है । अबुद्धि-पूर्वक का तात्पर्य यहाँ यह न समझ बैठना कि बिना किसी भी पुरुषार्थ के ही वह अवस्था बराबर बनी रहेगी । इस अवस्था में भी कुछ पुरुषार्थ अवश्य लगाना होगा, उस नवीन संस्कार की धारा को बराबर प्रवाहित रखने के लिए। यह बात अवश्य है कि उस पुरुषार्थ में लगाये जाने वाला बल प्रारम्भ में लगाये जाने वाले बल से बहुत कम होगा। जिस प्रकार कि लोटे में पानी भरकर उसमें डोरी बाँधकर घुमायें तो पहले चक्कर में झटका देते समय कुछ अधिक बल लगाना पड़ता है और सावधानीपूर्वक लगाना पड़ता है कि कहीं पानी बिखर न जाये, परन्तु एक चक्कर खा लेने के पश्चात् आगे भी उसे घूमता रखने के लिए भले ही उतना बल व उतनी सावधानी न रखनी पड़े, परन्तु प्रत्येक चक्कर के साथ अंगुली का एक संकेत तो देना ही पड़ेगा। कार्य प्रारम्भ हो जाने के पश्चात् उसे चालू रखने के लिए जो यह थोड़ा सा बल लगाना पड़ता है, इसे आज के वैज्ञानिक एञ्जीनियर एक्सीलरेशन कहते हैं तथा गणित वे लोग इस प्रक्रिया - विशेष में प्रयुक्त बल को अर्थात् एक्सीलिरेशन पावर को प्रारम्भ में प्रयुक्त बल की अर्थात् स्टार्टिंग पावर की अपेक्षा कई गुणी हीन सिद्ध कर रहे हैं। मोटर स्टार्ट करते समय पहले सैकैण्ड गीयर पर चला जाती है और एक बार चलने के पश्चात् अन्तिम गीयर पर डाल जाती है । फस्ट या सैकैण्ड गीयर पर उसकी गति धीमी होती है और पैट्रोल अधिक खाती है । परन्तु अन्तिम गीयर पर उसकी गति भी तीव्र हो जाती है और पैट्रोल भी बहुत कम खाती है; अर्थात् आरम्भ अधिक बल लगाकर भी कम काम कर पाती है और चालू हो जाने के पश्चात् कम बल लगाने से भी अधिक काम कर लेती है। यही वैज्ञानिक सिद्धान्त सर्वत्र सभी कार्यों में लागू होता है। सिद्धान्त शान्ति तथा समता की प्राप्ति के अर्थ प्रारम्भ की गई अपनी साधना पर लागू कर, और वही होगा तेरी वर्तमान दशा में होने वाला तप, 'मानस तप' जो २४ घण्टे चलता रहेगा तेरे दैनिक जीवन में । दृष्टिपथ में आने के कारण यद्यपि लोक में बाह्य तप की ही महिमा आंकी जाती है, परन्तु विविध प्रकार की एषणाओं से मन का शोधन किये बिना वह सब बाल-तप है, अधोलोक - गामिनी आसुरी वृत्ति है । इस बात का प्रत्यक्ष अध्ययन किये बिना कि किसी प्रकार अनेकानेक मायावी समाधानों के द्वारा यह मन भीतर ही भीतर व्यक्ति की समस्त वृत्तियों को अपने आधीन करके सत्य को असत्य बनाता रहता है, और किस प्रकार इस पारमार्थिक पथ में भी वह स्वार्थ पुष्टि के साधनों का संग्रह करता रहता है, व्यक्ति कभी उसके राज्य का उल्लंघन करके उसके सुदृढ़ पाशों से मुक्त नहीं हो सकता । मन को सर्वथा निष्काम तथ समता में स्थित किये बिना व्यक्ति जो कुछ भी बाहर में करता है, उस सबके पीछे कोई न कोई एषणा, कोई न कोई कामना, कोई न कोई स्वार्थ अवश्य बैठा रहता है, वह है इस लोक विषयक, धन-कुटुम्बादि विषयक या ख्याति प्रसिद्धि विषयक । कामनापूर्ण यह स्वार्थ ही वह असत्य है जिसके कारण सकल बाह्य तपश्चरण के द्वारा उसे व्यर्थ देह-पीड़न के अतिरिक्त अन्य कुछ भी हाथ नहीं आता । उसमें तप करने के प्रति उत्साह अवश्य होता है परन्तु केवल किसी एषणा की प्रेरणा से न कि शान्ति के रसास्वादन से । इसलिए साधक का कर्त्तव्य है कि वह उतावल न करे, साधु-जनों के तपश्चरण की नकल न करे, प्रत्युत उनकी भूमि में प्रवेश करने से पहले यहाँ इस गृहस्थ दशा में ही मानस तप के द्वारा घोड़े की भाँति इस मन को सिधावे, इससे कामनाओं व इच्छाओं का विरेचन करावे, और इस प्रकार इसे साध्वोचित समता - भूमि में प्रवेश करने के योग्य बनावे । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दान ( १. सहज दान; २. दान धर्म; ३. पात्रापात्र विचार; ४. पात्र दान; ५. सामाजिक दान। १. सहज दान शान्तिपथ-गामी को बाधक संस्कारों से मुक्ति पाने का क्रमिक सहज उपाय बताया जा रहा है। गृहस्थ-धर्म की छ: क्रियाओं के अन्तर्गत पाँचवीं क्रिया (तप) का प्रकरण पूरा हुआ और अब चलता है छटी क्रिया (दान) का प्रकरण । वास्तव में दान का अन्तर्भाव भी व्युत्सर्ग या त्याग नाम के तप में हो जाता है। (देखो ४०.३) और इसलिए दान भी एक तप है, परन्तु सत्य-साधक गृहस्थों के लिए इसकी प्रधानता होने के कारण इसका यहाँ पृथक् निर्देश किया गया। दान का तात्पर्य है दूसरे को कुछ देना। हमें विचार इस बात का करना है कि हम आज किसी को कुछ दे रहे हैं या नहीं, तथा इस दान को हमारा कर्त्तव्य क्यों बताया जा रहा है ? ये दो प्रश्न हैं। प्रथम प्रश्न पर विचार करते हुए यह बात प्रतीत होती है कि धनादि बाह्य सामग्री देने के अतिरिक्त मैं प्रतिक्षण कुछ और भी दे रहा हूँ इस लोक को । मैं ही क्या इस लोक के जड़ व चेतन सब ही पदार्थ एक दूसरे को दे रहे हैं कुछ न कुछ। पदार्थों का यह पारस्परिक आदान-प्रदान बराबर चल रहा है । देखिये इस घड़ी की सूई अभी साढ़े सात पर आई और हमारे चित्त को कुछ उतावलपनसा देने लगी, 'उपदेश का समय आ गया' यह सूचना देने लगी। देखो भगवान की जड़ प्रतिमा हमको शान्ति दे रही है, सुभाष का चित्र हमें साहस दे रहा है, यह विष्टा हमें घृणा दे रही है, ये शब्द जो मैं बोल रहा हूँ कुछ विवेक दे रहे हैं, मानसिंह डाकू हमें दूर बैठा भी भय दे रहा है, वन में विराजे वीतरागी गुरु हमको ही नहीं बल्कि समस्त विश्व को शान्ति व समता दे रहे हैं। उन गुरुओं का अभाव हो जाने के कारण ही उनके द्वारा दिया जाने वाला दान बन्द हो गया है, अत: सारा विश्व असन्तुष्ट है और एटम बम जैसे अस्त्रों का जन्म हुआ है । संशय और भ्रम के झूले में झूलते जगत को आज शान्ति का दान देने वाले वीतरागी गुरुओं की बहुत आवश्यकता है। किस-किस का नाम लेकर बताएँ, प्रत्येक पदार्थ कुछ न कुछ दे रहा है, शान्ति या अशान्ति, भय या अभय । मैं भी इसी प्रकार दे रहा हूँ कुछ, किसी एक दो व्यक्तियों को नहीं बल्कि सारे विश्व को । वास्तविक दान तो वीतरागी गुरु ही दे सकते हैं जो कुछ न देते हुए भी सब कुछ देते हैं, जिसका मूल्य तीन लोक की सम्पदा भी चुका नहीं सकती एक हाथ से नहीं बल्कि रोम-रोम से दे रहे हैं. एक व्यक्ति को नहीं बल्कि सर्व विश्व को दे रहे हैं. तिर्यञ्चों व वनस्पति तक को दे रहे हैं, शान्ति का दान अपने जीवन से । मैं भी तो उन्हीं की सन्तान हैं, उन्हीं के पथ पर चल रहा है, मुझे भी वही कुछ देना चाहिए जो वे दे रहे हैं; अर्थात् मेरा जीवन भी ऐसे साँचे में ढल जाना चाहिए जिससे कि सर्व विश्व को नहीं तो अपने सम्पर्क में आने वाले छोटे-बड़े प्राणियों को तो दे ही सकूँ मैं शान्ति, हीन या अधिक । यही है वह अन्तरंग तथा आदर्श-धन जो स्वत: प्रतिक्षण दिया जाना सम्भव है, यदि पूर्वकथित रूप से अपने जीवन का निर्माण करूँ तो। २. दान धर्म अब लीजिए बाह्यदान, लोक-विख्यात दान, अर्थात् धनादि वस्तुओं का स्व पर कल्याणार्थ व्युत्सर्ग या त्याग । इसमें यद्यपि धन का त्याग एक आवश्यक अंग है परन्तु ‘स्व-पर-कल्याणार्थ' इस विशेषण के बिना वह निरर्थक है। हम सब धन का दान तो नित्य कर रहे हैं, उसमें कोई कमी नहीं है और सम्भवत: इस समाज में होने वाली दान की प्रवृत्ति सबसे अधिक है, परन्तु क्या स्व-पर-कल्याण वाला विशेषण उसमें घटित किया जा सकता है, यह देखना है। यदि वह घटित नहीं होता तो वह दिया-दिलाया बेकार है। दातार का सर्व प्रथम कर्त्तव्य है कि उस महादोष के प्रति सावधान रहे जो कि दिये-दिलाये सबको खत्ते में डाल देता है, किये-कराये सब पर पानी फेर देता है, और वह महादोष है एषणा-पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा। 'यदि मेरे व्यापार में लाभ हो जाये, अथवा मेरी नौकरी लग जाये, अथवा परीक्षा में या मुकदमें में सफल हो जाऊँ अथवा यदि मेरे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दान २०९ २. दान धर्म पत्र उत्पन्न हो जाय तो हे प्रभु ! मैं तेरे चरणों में अमुक वस्तु की भेंट दे दूँ, अथवा इतना रुपया दे दूँ, अथवा छत्र चढ़ा दूँ, अथवा मन्दिर में वेदी बनवा दूं या घी की ज्योत जला दूं।' इस प्रकार के प्रयोजन से भगवान को दी गई घूस वित्तेषणा और पुत्रेषणा युक्त होने से दान नहीं है। इसी प्रकार 'इस दान से समाज में मेरा नाम हो जाए, मेरे पिता, पितामह का नाम हो जाए, मेरी कीर्ति फैल जाए कि मैं बड़ा धनाढ्य, धर्मात्मा तथा दानवीर हूँ' इस प्रकार के अभिप्रायों से दिया गया सर्व दान लोकेषणा युक्त होने से निरर्थक है। पहला दिया जाता है प्राय: मन्दिरों में ओर दूसरा दिया जाता है—मन्दिरों, धर्मशालाओं, स्कूल-कालेजों, औषधालयों तथा हस्पतालों आदि सभी प्रकार की सामाजिक संस्थाओं में, और इसके अतिरिक्त साहित्य प्रकाशन में भी। क्या विचारा है कभी कि एषणा युक्त दिये गये इस सकाम दान से कितना कुछ हित हो रहा है तेरा अथवा किसी अन्य व्यक्ति का अथवा समाज का ? इस भावना से प्रेरित होकर जिन मन्दिरों या प्रतिमाओं का तू निर्माण किए जा रहा है नित्य उनकी वहाँ कोई आवश्यकता भी है या नहीं. अथवा उनकी देखभाल पजा-प्रक्षाल आदि करने वाला भी वहाँ कोई है या नहीं? इस भावना से प्रेरित होकर जो पुस्तकें छपाये जा रहा है तू, बड़ी या छोटी, अथवा नये-नये साप्ताहिक या मासिक पत्र-पत्रिकाएँ निकलवाए जा रहा है तू, उन्हें पढ़ने वाला भी कोई है या नहीं, अथवा उनके पढ़ने से किसी का कुछ हित होना भी सम्भव है या नहीं ? इस साहित्य द्वारा क्या कुछ देना चाहता है तू जगत को-समता व प्रेम या साम्प्रदायिक विद्वेष, आक्षेपों के, समीक्षाओं के तथा खण्डन-मण्डन के रूप में ? नित्य छोटी-छोटी भजनों की जो पुस्तकें छपवा-छपवाकर बाँट रहा है तू, उसका सदुपयोग हो रहा है कुछ या जा रही हैं सब यों ही रद्दी की टोकरी में? भो पुरुषार्थी ! विचार तो कर कि क्या करेगा इस नाम को लेकर, खायेगा, बिछायेगा या ओढ़ेगा इसे ? मात्र तेरी एषणाओं का, कामनाओं का, इच्छाओं का पोषण ही तो हो रहा है इससे और क्या? और इसलिए परमार्थत: लाभ की बजाय हानि ही हानि, अहित ही अहित, स्व का भी अहित और पर का भी अहित । राग अथवा इच्छा को कम करने के लिए दिया था दान और कर बैठा उसका पोषण । उधर लेने वाले के हृदय में जागृत करके इसी प्रकार की एषणायें, कर दिया उसका भी सब कुछ चौपट । सौदेबाजी के अतिरिक्त और क्या कहें इसे ? जिस प्रकार बाजार में पैसा देकर चीज खरीद ली, उसी प्रकार यहाँ भी पैसा देकर कीर्ति खरीद ली। घूसखोरी का व्यापार है यह । जिस प्रकार अफसरों को घस देकर अपना उल्लू सीधा कर लिया, उसी प्रकार भगवान को घूस देकर अपना उल्लू सीधा कर लिया। बता और क्या फल चाहता है तू इस दान का, इस भव में या अगले भव में ? इसका नाम दान नहीं है प्रभो ! सम्भल इन दष्ट संस्कारों से और रक्षा कर इनसे अपनी। भो शान्ति के उपासक ! यदि शान्ति प्राप्ति की सच्ची जिज्ञासा तथा श्रद्धा है तेरे हृदय में, तो दातार बन, असाधारण दातार, निष्काम दातार । साधारणजन देते हैं शारीरिक सुख के लिए और तू दे आत्मिक सुख के लिए। साधारणजन देते हैं विषय भोगों की प्राप्ति के लिए और तू दे शान्ति की प्राप्ति के लिए। साधारणजन देते हैं केवल पर कल्याण के लिये और तू दे स्व पर कल्याण के लिये । साधारण जन देते हैं अपने को दूसरे का उपकारी समझकर और तू दे केवल कर्त्तव्य समझकर । साधारणजन देते हैं रागवर्द्धन के लिए और तू दे रागवर्जन के लिए । साधारणजन देते हैं धन-मान की प्राप्ति के लिए और तू दे धन-मान के त्याग के लिए। तभी तो बन पायेगा तेरा यह दान 'त्याग' नामक धर्म, जिसका कि कथन आगे आने वाला है (देखो अधिकार ४२)। योगीजन करते हैं पूर्ण त्याग घर-बार का, धन कुटुम्ब का, वस्त्र-भोजन का यहाँ तक कि बाह्य और अभ्यन्तर शरीर का भी; और तू कर आंशिक त्याग धनदान के रूप में, अन्नदान के रूप में, औषधदान के रूप में, ज्ञान दान के रूप में और अभयदान के रूप में। इस प्रकार एक ही दान विभक्त हो जाता है चार प्रधान कोटियों में-अन्नदान, औषधदान, ज्ञानदान और अभय दान । भखे की क्षधा-निवृत्ति के अर्थ दिया गया धन, अन्न या भोजन, अथवा साधु-जनों को दिया गया आहार 'अन्नदान' है । रोगियों तथा पीड़ितों के रोगादि की निवृत्ति के अर्थ दिए गए धन, औषधि आदि 'औषधदान' है। ज्ञानार्थी की अज्ञान-निवृत्ति के अर्थ दिए गए धन, पुस्तक आदि अथवा अध्यापन, भाषण, प्रवचन आदि 'ज्ञानदान है। दारिद्रय-पीड़ितों को दी गई आर्थिक सहायता, असमर्थों को दी गई श्रम सहायता, चिन्तितों को दी गई सान्त्वना, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दान २१० ४. पात्र दान निराश्रितों को दिया गया आश्रय, शरणार्थियों को दी गई शरण, रोग, मरी, बाढ़ दुर्भिक्ष अथवा राजविप्लव द्वारा सताये गयों को दी गई यथोचित सहायता, सेवा आदि यह सब कहलाता है 'अभयदान' ।। ये चारों ही प्रकार के दान दिए जा सकते हैं अपने घर दुकान पर दान पाने की कामना से आने वाले किसी व्यक्ति-विशेष को, तथा सामूहिक रूप से सबको जिन-किन को भी दान पाने की इच्छा है। पहले प्रकार का दान तो आप प्रतिदिन अपने घर दुकान पर करते ही हैं, दूसरे प्रकार का दान किया जाता है सार्वजनिक संस्थान खुलवाकर या धन, अन्न, श्रम आदि द्वारा उनकी सहायता करके; अन्नदान के लिये भण्डारे खुलवाकर या उनमें यथाशक्ति योग देकर; औषधदान के लिए औषधालय, हस्पताल आदि खुलवाकर अथवा उनमें यथाशक्ति योग देकर; ज्ञानदान के लिए पाठशाला, स्कूल, कालेज खुलवाकर या उनमें यथाशक्ति योग देकर; अभय-दान के लिए आश्रम, धर्मशाला आदि बनवाकर.सेवा समितियें खलवाकर अथवा उनमें यथाशक्ति योग देकर । ३. पात्रापात्र विचार-दान किसको दिया जाए इस विषय की जानकारी भी आवश्यक है। दान के पात्रों को तीन कोटियों में विभक्त किया जा सकता है—सुपात्र, कुपात्र तथा अपात्र । 'सुपात्र' हैं वे ज्ञानीजन जिन्हें अपने भीतर शान्ति के तथा उसके आधारभूत चेतन-तत्त्व के साक्षात्कार का सौभाग्य प्राप्त हो गया है और जो यथाशक्ति उसकी प्राप्ति का उद्यम भी कर रहे हैं । 'कुपात्र' हैं वे अज्ञानीजन जिन्हें अपने भीतर तत्त्व का तो साक्षात् दर्शन अभी नहीं हुआ है परन्तु शास्त्रोक्ति पर श्रद्धान करते हुए शान्ति-प्राप्ति की जिज्ञासा अवश्य इनके हृदय में जाग्रत हो गई, और उसके लिये यथाशक्ति उद्यम भी कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त अन्य सभी व्यक्ति भले ही वे अर्थार्थी हों, दीन दुःखी दरिद्री हों, प्राकृतिक-विप्लव अथवा राजविप्लव के सताये हुए हों, अथवा पशु-पक्षी आदि हों, सब 'अपात्र' की कोटि में आते हैं । सुपात्र तथा कुपात्र ये दोनों भी साधनागत निम्नोन्नत सोपानों की अपेक्षा अनेक प्रकार के हो सकते हैं, परन्तु वे सब उत्तम, मध्य, जघन्य इन तीन-भेदों में समा जाते हैं। ये पुन: दो कोटियों में विभाजित हो जाते हैं-परिचित तथा अपरिचित । परिचित तो हैं वे जो समाज के मध्य रहते हैं, जो नित्य किसी न किसी प्रकार आपको टकराते रहते हैं, अथवा जिनके उल्लेख व चित्र आदि पत्र-पत्रिकाओं में, या कैलेण्डरों आदि पर प्रकाशित होते रहते हैं। अपरिचित हैं वे जो इन सकल संयोगों से दूर रहते हैं। भले आज किन्हीं ऐसे पात्रों को आप न जानते हों परन्तु शास्त्रों में उनका उल्लेख आप सबने पढ़ा है । जन संसर्ग से दूर श्मशानों में अथवा वनों में अथवा वृक्षों की कोटरों में अथवा पर्वतों की गुफाओं में अथवा नदी के पुलों के नीचे अथवा किन्हीं टूटे-फूटे खण्डहरों में रहते हैं वे । नगरों से दूर छोटे-छोटे गाँव के निकटवर्ती उद्यानों में रहते हैं वे । केवल भिक्षा के लिये गाँव में आते हैं, और झलक मात्र दिखाकर लौट जाते हैं वे। ४. पात्र दान-भले ही शान्ति का उपासक होने के नाते दान के इस क्षेत्र में मेरा जितना व जैसा झुकाव सुपात्र के प्रति है उतना कुपात्र तथा अपात्र के प्रति न हो; और अल्पज्ञ होने के नाते जितना व जैसा झुकाव परिचितों के प्रति है उतना तथा वैसा अपरिचितों के प्रति न हो, क्योंकि अपनी अल्पज्ञता के कारण मैं यह जान ही नहीं सकता कि यह व्यक्ति सुपात्र है या कुपात्र या अपात्र । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दान के इस क्षेत्र में कुपात्रों तथा अपात्रों की उपेक्षा कर दी जाय । जिस प्रकार सम्प्रदाय-प्रसिद्ध व्यक्तियों में यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि बाहर से सच्चे साधु अथवा श्रावक सरीखे दीखने वाले ये व्यक्ति वास्तव में वही हैं जो कि ऊपर से दीखते हैं या कुछ अन्य हैं, इसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों में भी यह पता लगाना कठिन है कि ये व्यक्ति अन्तरंग में सुपात्र हैं या कुपात्र या अपात्र । बहुत सम्भव है कि ऊपर से दीन, दुःखी तथा दरिद्री सा दीखने वाला भी कोई व्यक्ति तत्त्वज्ञ हो और तत्त्वज्ञ सा दीखने वाला भी कोई व्यक्ति कोरा दम्भाचारी हो। "मैं परिचितों को अर्थात् सम्प्रदाय-मान्य व्यक्तियों को ही दान +, अन्य किसी को नहीं", शान्ति-मार्ग के पथिक को ऐसा साम्प्रदायिक पक्ष उचित नहीं है। वह दान देता है स्व पर हित की रक्षा तथा उसकी अभिवृद्धि के लिए न कि सम्प्रदाय पोषण के लिए और इसलिए यथाशक्ति सबको देता है। आगम में भी कहीं कपात्रों या अपात्रों को दान देने का निषेध नहीं है। भले ही भावों में अन्तर हो-जिसे तू सुपात्र समझता है उसके प्रति हार्दिक भक्ति, जिसे कुपात्र Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दान २११ ५. दान का प्रयोजन समझता है उसके प्रति बनावटी भक्ति और जिसे अपात्र समझता है उसके प्रति दया । 'अ+ पात्र' शब्द का यह अर्थ नहीं कि इस कोटि में गिने गये व्यक्ति दान के पात्र नहीं, अर्थात् उनको दान नहीं देना चाहिए, प्रत्युत यह है कि वे व्यक्ति भी दान के पात्रों में अपना कोई स्थान रखते हैं, और इसलिए इस क्षेत्र में उनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उन्हें भी दान अवश्य देना चाहिए, भले दया भाव से दो। हृदय-राज्य की अपेक्षा भक्ति तथा दया में कोई अन्तर नहीं । दया भी उसी प्रकार हृदय का भाव है जिस प्रकार कि भक्ति । इसलिए जिस प्रकार सुपात्र को देखकर बिना किसी बाह्य प्रेरणा के मेरे हृदय में सहज भक्ति उमड़ पड़ती है उसी प्रकार दीन, दुःखी, दरिद्री को देखकर प्रकट होने वाले दया के सहज वेग को मैं कैसे रोक सकता हूँ? यदि उन्हें देखकर वहाँ दया उत्पन्न नहीं होती तो इसका यह अर्थ है कि मेरे सीने में हृदय नहीं पाषाण है और यदि ऐसा है तो सपात्रों को देखकर भी वहाँ भक्ति का उमड़ना सम्भव नहीं है । एक ही हृदय में इस प्रकार की विषमता कैसे सम्भव है कि किसी को देखकर तो उसमें भाव उमड़े और किसी को देखकर नहीं ? यदि वास्तव में मैं हृदय-शून्य हूँ तो मेरा सुपात्रदान भी यथार्थता को कैसे प्राप्त हो सकता है ? क्योंकि हृदय-हीनता के कारण भक्ति भाव से तो वह दिया नहीं जा रहा है; या तो दिया जा रहा है दूसरों की देखम देखी या उसकी ख्याति प्रसिद्धि से प्रभावित होकर, या साम्प्रदायिक आज्ञा के भय से, या उसके पक्ष से । इत्यादि अनेक अभिप्राय हो सकते हैं, परन्तु सहज भक्ति के अभाव में वे सब स्व-पर-हित के लक्षण को प्राप्त करने के लिए समर्थ नहीं हैं। उससे होगी केवल मेरी सामाजिक प्रसिद्धि और तत्फल-स्वरूप 'मैं बड़ा दानी तथा भक्त हूँ' इस प्रकार के मिथ्या अभिमान की पुष्टि । हृदय-सम्पन्नता में इस प्रकार की विषमता सम्भव नहीं। जिस प्रकार अपनी शान्ति की अभिवृद्धि तथा संरक्षण इष्ट है उसे, उसी प्रकार दूसरों की भी शान्ति अथवा सुख का अभिवर्द्धन तथा संरक्षण इष्ट है उसे । जिस प्रकार अपनी शान्ति की बाधा असह्य है उसे उसी प्रकार दूसरों की भी शान्ति की अथवा सुख की बाधा असह्य है उसे । जिस प्रकार अपनी तथा अपने कुटुम्ब की शान्ति के अर्थ हर प्रकार से सहायता करता है वह उनकी, उसी प्रकार दूसरों की शान्ति के अर्थ भी हर प्रकार से सहायता करता है वह उनकी। ... _ 'मुझसे पैसा लेकर यह दरिद्री अनर्थ में प्रवृत्त होगा, माँस खायेगा अथवा वेश्या-गमन करेगा' इत्यादि बातें अपनी हृदय हीनता को छिपाने के बहाने हैं। बात तो वास्तव में यह है कि या तो ये बहाने करने वाला वह व्यक्ति अतिलोभी है और या कट्टर साम्प्रदायिक । जिसे उसने अपना गुरु मान लिया है उसे तथा उसकी संस्था को तो दान देता है और अन्य सबके प्रति इस प्रकार के बहाने करके हाथ खेंच लेता है। प्रभो ! सोच तो सही कि इस विशाल विश्व की गोद में केवल उस एक व्यक्ति-विशेष को छोड़कर जिसे कि उसने गुरु माना है, कौन ऐसा व्यक्ति रह जाता है जिसे कि वह पात्र कह सके ? उसके लिए एक व्यक्ति को छोड़कर सारा जगत अपात्र ही नहीं अगात्र है अर्थात् देहहीन जड़ पाषाण है अथवा असत् या शून्य है । डर प्रभु ! डर इस कण्टकपन्थी तथा कट्टरपन्थी से डर । देना सीख मुक्त हस्त से, जो कोई भी तेरे द्वार पर आए-सुपात्र कुपात्र या अपात्र, साधु या दुःखी दरिद्री। सुपात्र को दे भक्ति भाव से और अपात्र को दे दया भाव से, पर दे सब को।। ५. दान का प्रयोजन—दान के प्रयोजन को ठीक-ठीक न जानना ही वास्तव में इन सब संकीर्ण आशंकाओं की उपज का हेतु है । यदि दान का प्रयोजन ठीक-ठीक अवगत हो जाए तो फिर इनमें से किसी को भी अवकाश नहीं रहता। प्राय: दातार के हृदय में ऐसा भाव रहता है कि 'मैं इस दानार्थी व्यक्ति को अथवा संस्था को कुछ देकर उसका उपकार कर रहा हूँ, उस पर बड़ा भारी एहसान कर रहा हूँ। यदि इसको कुछ न दूँ तो यह मर जाए और इस संस्था का काम न चले।' इस प्रकार के भाव से दिया गया दान वास्तव में दान नहीं अहंकार है, क्योंकि जिस परमार्थ-भूमि की यहाँ बात चल रही है उसमें धन है ही किसका और कौन किसी को क्या दे सकता है ? सब यहाँ ही था, यहाँ ही रहेगा । न कोई कुछ साथ लाता है, न ले जाता है । यहाँ आने पर व्यक्ति को उसके कर्मानुसार स्वत: प्राप्त हो जाता है, और जाने पर यहाँ ही रह जाता है । सब पुण्य-पाप का खेल है, और क्या ? यह दरिद्री व्यक्ति भी वास्तव में तुम जैसा ही है । अन्तर केवल इतना है कि पूर्व-भवों में कहीं इसने कोई ऐसा दुष्कृत किया है जिसके फलस्वरूप आज इसकी यह गति हुई है। उसी पाप के फलस्वरूप इसे धर्म व अधर्म का कुछ विवेक नहीं है। इसलिए दया का पात्र है, न कि घृणा का। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०. दान २१२ ६. सामाजिक दान __दान दूसरे पर नहीं प्रत्युत स्वयं अपने पर अहसान करने के लिए दिया जाता है, क्योंकि दान का प्रयोजन है लोभ तथा राग का वर्जन, न कि इनका वर्द्धन, अहंकार की क्षति, न कि उसका पोषण, स्वामित्व-भाव का त्याग, न कि उसका ग्रहण, आकिञ्चन्य-भाव अर्थात् 'यहाँ कुछ भी मेरा नहीं है' ऐसा भाव । इस प्रकार के भावों की प्राप्ति तथा अभिवृद्धि में ही व्यक्ति का पारमार्थिक हित निहित है, और क्योंकि दान इस दिशा में बहुत सहायक है, इसलिये इसे गृहस्थ-धर्म का अत्यावश्यक अंग माना गया है। इसलिए जिस प्रकार देवपूजा आदि अन्य पाँच बातें तू अपने दैनिक जीवन में आवश्यक समझता है उसी प्रकार दान को भी समझ। जिस प्रकार देवपूजा किये बिना भोजन ग्रहण करना तू पाप समझता है उसी प्रकार दूसरे को खिलाये बिना स्वयं खाना भी पाप समझ। दान का दूसरा प्रयोजन है हृदय की उदारता । तेरा हृदय इतना विशाल होना चाहिए कि सकल विश्व तुझे अपना कुटुम्ब दिखाई दे, सबका सुख-दुःख तुझे अपना सुख-दुःख दिखाई दे, और क्योंकि इस भाव की अभिवृद्धि में दान सहायक है इसलिये यह गृहस्थ-धर्म का एक आवश्यक अंग है । अत: भो कल्याणार्थी ! तू लेने की बजाये देना सीख, मुक्त हस्त से दे, उदारता पूर्वक दे और दे-देकर प्रसन्न हो । ऐसा अभ्यास करते रहने से तुझे वह दिन प्राप्त हो जायेगा जब कि तू दूसरों के लिए अपने सर्वस्व का त्याग करके साधु की भूमि में प्रवेश कर जायेगा जहाँ, आकिञ्चन्य भाव ही तेरा धन होगा और वही तेरा जीवन । 'त्याग' तथा 'आकिञ्चिन्य' का कथन आगे यथास्थान किया जाने वाला है । (दे० अधिकार ४२ तथा ४३) ६. सामाजिक दान यहाँ यह विचारना आवश्यक है कि प्रतिवर्ष सामाजिक रूप से कितना दान आप करते हैं और किस-किस दिशा में करते हैं ? वास्तव में दान को देखें तो बहुत होता है । परन्तु उससे कार्य कितना सिद्ध होता है, यह देखने जायें तो लज्जा से सर झुक जाता है । प्रतिवर्ष करोड़ों के दान का फल पर्याप्त नहीं होता । इस राशि का कुछ भाग तो जाता है शिक्षण संस्थाओं को, कुछ हस्पतालों तथा औषधालयों को, कुछ पत्र-पत्रिकाओं को, कुछ मन्दिरों तथा प्रतिमाओं के निर्माण कार्य को, कुछ पूजा-प्रतिष्ठा आदि विधानों को, कुछ धर्मशालाओं को, कुछ अनाथाश्रमों को, कुछ साहित्य प्रकाशन को, कुछ धर्म-प्रचार को और कुछ तीर्थ-क्षेत्रों की रक्षा को । इनके अतिरिक्त कुछ चला जाता है उन सेवा समितियों को जो गर्मी के दिनों में सड़कों पर प्याओ खोलती हैं प्यासों को पानी पिलाने के लिये मेले ठेलों के अवसरों पर भण्डारे लगाती हैं भूखों का पेट भरने के लिए, रोग-मरी दुर्भिक्ष आदि के दिनों में घर-घर जाकर अन्न तथा औषधियें बाँटती हैं, पीड़ितों का दुःख बटाने के लिये, स्वयं खतरा मोल लेकर जल तथा अग्नि में कूद पड़ती हैं बाढ़ पीड़ितों की अथवा अग्नि काण्ड पीड़ितों की रक्षा के लिए, राज्य विप्लवके दिनों में तम्बू लगाती हैं शरणार्थियों को आश्रय देने के लिये और न जाने क्या-क्या । यद्यपि अपने-अपने स्थान पर सभी का महत्व है, परन्तु देखना तो यह है कि इस विशाल धन-राशि का कितना भाग तो समाज के काम आ रहा है और कितना व्यर्थ जा रहा है । यदि इस राशि के व्यय की कोई केन्द्रीय व्यवस्था हो जाए तो एक बड़ा काम हो जाए और व्यर्थ का अपव्यय रुक जाए। इतना अवश्य है कि ऐसी व्यवस्था हो जाने पर दातार को स्वयं अपनी इच्छा का बलिदान करना होगा, सर्वजन-कल्याण को ही प्रमुख रखना होगा, केन्द्र की अनुमति को स्वीकार करने में ही हित देखना होगा और लोकेषणा को पीछे हटाना होगा । वास्तव में इन स्वार्थ पूर्ण भावनाओं का त्याग ही तो दान है, जो शान्ति पथ के इस छठे अंग का प्रयोजन है। अत: भो भव्य ! स्व-परकल्याणार्थ अपनी भावनाओं को निर्मल बनाकर सारे विश्व में तन, मन, धन से इस निर्मल मार्ग-का प्रसार कर। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म १. शान्ति का संस्कार; २. स्वाभाविक वैराग्य; ३. अभ्यास की महत्ता; ४. शल्य; ५. अणुव्रती; ६. सामायिक; ७. दोषों की सम्भावना; ८. अतिचार और अनाचार; ९. आगे बढ़। १. शान्ति का संस्कार-शान्ति का उपासक गृहस्थ उपरोक्त प्रकरणों में बताये विस्तार के अनुसार, अपने जीवन को इस नवीन दिशा की ओर घुमाकर नये साँचे में ढालने का अभ्यास करते हुए, कुछ ही वर्षों में एक नई उमङ्ग व उल्लास का अनुभव करने लगता है। एक जागृति सी तथा एक प्रकाश सा अन्तरंग में प्रकट भासने लगता है, जिसके उजाले में आज वह इस योग्य हो जाता है कि अपने वातावरण में छिपी हुई अशान्ति को स्पष्ट देख पाए। यद्यपि पहले से भी किसी विश्वास के आधार पर उसमें उसे किंचित् अशान्ति का भान हुआ करता था परन्तु इस दिशा में अभ्यस्त हो जाने तथा उसके फलस्वरूप शान्ति में वृद्धि हो जाने पर अथवा अन्तरंग में कछ दृढ़ता व शक्ति के संचार का अनुभव हो जाने पर, आज जिस जञ्जाल-रूप में इसे देखने लगता है उस प्रकार पहले कभी देख नहीं पाया था। विचार करते समय कुछ-कुछ हटाव सा अवश्य वर्ता करता था पर उस भोग विषयक सामग्री का साक्षात्कार हो जाने पर उस हटाव को भूलकर बह जाया करता था उसी की रौ में। इतने वर्षों के अभ्यास के कारण आज इतनी विशेषता उत्पन्न हो जाती है कि अब उनके साक्षात्कार के अवसरों में भी उसका वही भाव बना रहता है जो कि विचारणा के अवसरों में उसने बुद्धिपूर्वक बनाया था । अर्थात् संस्कार-निर्माण के पूर्वकथित क्रमानुसार इस हटाव का बुद्धिपूर्वक प्रारम्भ किया गया संस्कार आज अबुद्धि की कोटि में प्रवेश कर जाता है और पूर्व में पड़े हुए शान्ति के घातक संस्कारों के साथ युद्ध करने के लिए उन्हें ललकारने लगता है । यह ललकार ही उस बल की परीक्षा है जिसके सम्बन्ध में कहा जा रहा है। २. स्वाभाविक वैराग्य-कितने ही तीर्थङ्कर, वीतरागी-सन्त अथवा योगीजन समस्त राजपाट व देवों जैसी विभूति को छोड़कर वन को चले गये। क्या आकर्षण था उस वन में ? क्यों छोड़ा उस आकर्षक तथा मधुर सामग्री को जिसको छोड़ने की बात तो रही दूर, जिसके त्याग सम्बन्धी बात भी आज मुझको सुहाती नहीं । भले ही गुरुजनों के कहने पर मैं यह कहने लग गया हूँ कि इस सम्पत्ति में सुख नहीं दुःख है, पर क्या अन्तरंग में इसके प्रति इस प्रकार का भाव उठता प्रतीत होता है कभी ? नहीं अन्तरंग में तो उसके प्रति मिठास ही पड़ी है । अन्तरंग में तो यह बात सुन रहा हूँ कि “इनके भोगने में आनन्द है, बड़ी आकर्षक है यह, बड़ी मधुर तथा सुन्दर । यह देखिये मेरा ड्राइङ्ग-रूम कितना सुन्दर सजा हुआ है, दीवारों पर ईरानी कालीन टंगे हैं, यत्र-तत्र काश्मीर की कारीगरी का व काष्ठ का आर्ट टंगा है, मानों प्रकृति को समेट लाया है इस कमरे में, और यह सुन्दर सोफासैट मानो राज्य-सिंहासन की भी खिल्ली उड़ा रहा है। इधर रखा है चाइना आर्ट, और न जाने क्या-क्या? कितना आकर्षक है यह ? मुझे गर्व होता है अपने किसी मित्र को इसमें बिठाकर । कैसे कह सकते हैं कि इसमें दुःख है ? नहीं-नहीं, यह तो योगियों की बातें हैं, मेरे लिए तो यही सुखदायक है । कृत्रिम रूप से इसमें दुःख व अशान्ति देखने का प्रयत्न करते हुए भी स्वाभाविक-रूप से तो इसमें सुख व शान्ति सी ही भासती है, कैसे त्याD इसे? _ इनके क्या कहने, ये तो महान् आत्माएँ हैं, तीर्थङ्कर देव हैं, छोड़कर चल दिये घर-बार को तथा सम्पत्ति को, कष्ट सह-सहकर ही तो कर्मों को खपाएंगे। तपश्चरण के बिना मुक्ति किसे मिली है ? उस मुक्ति की साधना के लिये इतनी आकर्ष क व सख प्रद सामग्री को भी छोडकर चल दिये। धन्य हैं वे।" कछ ऐसी आवाजें उठा करती हैं भावुकतावश । बस ये आवाजें ही इस बात की साक्षी हैं कि मैं भले शब्दों में योगी जनों को महान् कहूँ या सुखी, पर उन्हें अन्तरंग से दुःखी ही समझता हूँ। कोई भी तो सुख का साधन नहीं है उनके पास, कैसे हो सकते हैं वे सुखी ? हाँ, भविष्य में मोक्ष जाकर हो जायें तो हो जायें, परन्तु अब तो दुःखी ही हैं बेचारे। नहीं प्रभु ! भूलता है, वास्तव में यह जो उपरोक्त आवाजें अपने अन्दर से उठती सुनाई दे रही हैं तुझे, उनका कारण केवल यही है कि उस अलौकिक चौथी कोटि की शांति का साक्षात्कार अभी कर नहीं पाया है तू । इसीलिये Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१४ ३. अभ्यास की महत्ता नाम मात्र की उस शान्ति के प्रति अन्तरंग से बहमान व उल्लास जागृत नहीं हुआ है तुझे। उसके अभाव में वह पहला विषय-सुख ही सुख भासा करता है तथा उस ही की महिमा गाया करता है । उन योगियों की दशा तुझसे कुछ भिन्न प्रकार की है, उन्होंने केवल भावुकतावश अथवा किसी मोक्ष की या किसी भावी काल्पनिक-सुख की अभिलाषा वश यह महान त्याग किया हो, ऐसा नहीं है। किसी बाहर के दबाव या भय वश या किसी लोकेषणावश त्याग किया हो, ऐसा भी नहीं है । एक शक्ति है जो अन्तरंग से उन्हें प्रेरणा दे रही है, उनके अन्दर एक उल्लास सा, एक उत्साह सा उत्पन्न कर रही है यह त्याग करने के लिए, और वह शक्ति है शान्ति का उत्तरोत्तर अधिकाधिक वेदन, उसमें तृप्ति व उसके प्रति बहुमान । भला एक भिखारी को जिसके पल्ले एक सूखी ज्वार की रोटी बंधी है, यदि आप पेट भर खीर परास दें तो क्या वह ज्वार की रोटी खायेगा? क्या उसे फेंक न देगा? बस अलौकिक शान्ति के अत्यन्त मधुर व सुगन्धित व्यञ्जन के अनुभव में क्या उसके हृदय में इस धूल का मूल्य रह जायेगा? क्या इसे भोगेगा? क्या इसे त्याग न देगा? क्या इसके त्यागने में दुःख होगा उसे ? किसी भावी सुख के या मोक्ष के या सर्वज्ञता के लालच से छोड़ देता हो उसे, यह भी असम्भव है, क्योंकि भविष्य के सुख की आशा के आधार पर वर्तमान का सुख छोड़ना मूर्खता है । मूर्खता क्या, छोड़ा ही नहीं जा सकता। 'कल को दिवाली है, बड़े-बड़े स्वादिष्ट व्यञ्जन खाने को मिलेंगे', इस इच्छा के कारण क्या कोई ऐसा है जो आज का भोजन छोड़ दे ? “तुम्हारी सेवा से मैं बहुत प्रसन्न हुआ, यह महल मेरी मृत्यु के पश्चात् तुम्ही ले लेना, लो वसीयत किये देता हूँ", किसी सेठ के ऐसा कहने पर, क्या उसका कोई सेवक अपनी कुटिया में तुरन्त आग लगा देने को तैयार है ? 'चलो तुम्हें बी० ए० की डिग्री दिला देता हूँ परन्तु. आज सोना न होगा', ऐसा सुनकर क्या सोना त्याग देगा कोई ? वे महात्मा कोई दूसरे देश के वासी या कोई अलौकिकजन हों और त्याग करना उनके गले मढ़ दिया गया हो, क्योंकि मुक्त होने का सर्टीफिकेट प्राप्त कर चुके हैं इसलिए त्याग करना पड़ता हो उन्हें, ऐसा भी नहीं है । बाह्य में तो ऐसी कोई शक्ति दिखाई नहीं देती जो उन्हें छोड़ने को बाध्य करे और अन्तरंग से इस प्रकार छूटना सम्भव नहीं। क्या किसी राजा की आज्ञा मात्र से कोई अपना घर छोड़ने को तैयार होता है ? हाथ का एक छोड़कर वृक्ष के दो करना बद्धिमानों का काम नहीं और फिर तीर्थर प्रभु तो ठहरे ज्ञानी, वे क्यों ऐसा करने लगे? गृहस्थ में रहते हुए भी उन्हें किसी अनोखी शान्ति का वेदन होने लगता है पूर्व-भव के अभ्यासवश, जिस शान्ति के अलौकिक आकर्षण के सामने इस बाह्य राज्य आदि सम्पदा का तेज मन्द ही नहीं पड़ जाता बल्कि कटु लगने लगता है। वह सब वातावरण अन्दर से कोई जञ्जाल सा दीखने लगता है। वह साक्षात् कुछ ऐसा भासने लगता है कि मानो काटने को दौड़ रहा हो । बस इसी शक्ति की प्रेरणा पर आधारित है उनका त्याग। ३. अभ्यास की महत्ता-तीर्थङ्कर व महात्मा होने के कारण वे किसी दूसरे देश के वासी हों या किसी दूसरी जाति के हों, ऐसा भी नहीं है। मेरे ही देश के वासी तथा मेरी ही चैतन्य जाति के हैं । जो काम ये कर सकते हैं मैं भी कर सकता हूँ; परन्तु उनके त्याग को देखकर मुझे जो घबराहट होती है, उसका कारण यह है कि मैं यह समझ बैठता हूँ कि उन्होंने अकस्मात् ही इतना बड़ा साहस कर लिया है । इन्द्रिय-ज्ञान के द्वारा मैं उनका केवल वर्तमान भव ही देख पाता हूँ। इस वर्तमान के साहस के साथ भूतकाल में अर्थात् पूर्व-भवों में किया गया कितना अभ्यास है, वह मैं नहीं देख पाता । वे बिल्कुल मुझ जैसे गृहस्थ थे कभी, और सम्भवत: मुझसे भी हीन अवस्था में थे अपने पूर्व भवों में । वहाँ से ही धीरे-धीरे अतरंग में विरक्तता उत्पन्न करके अभ्यास प्रारम्भ किया था इन्होंने । आज जो अकस्मात् त्याग करता दिखाई दे रहा है, वह वही सिद्धहस्त जीव है । अत: भाई ! तू भी मत डर, साहस करके यदि ऊपर बताए प्रकरणों के अनुसार धैर्यपूर्वक अभ्यास करना प्रारम्भ करे तो अपने आगे आने वाले भवों में अवश्य ही अकस्मात् त्याग करने की शक्ति को उत्पन्न कर ले। कटड़ी (भैंस के बच्चे) को उठाते-उठाते भैंस उठाई जा सकती है, इसी से अभ्यास की इस मार्ग में बड़ी महत्ता है। पर इसका यह अर्थ नहीं कि 'भविष्य में कर लूँगा, आज के निकृष्ट-काल में तथा हीन-संहनन में करना सम्भव नहीं', ऐसे विचारों द्वारा शक्ति को छिपाया जाए। यदि आज कुछ न करेगा तो भविष्य में भी कुछ न कर सकेगा। विवेक ही न होगा तो करेगा कैसे? और यदि कदाचित् उत्तम-संहनन की प्राप्ति हो जाने पर किसी की Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१५ ५. अणुव्रती देखम-देखी कर भी लिया तो विवेक हीन होने के कारण उसका फल वह नहीं हो सकेगा जिसका कि यहाँ प्रकरण चल रहा है। (देखो १४.३) इस प्रकार अन्तरंग से विषय भोगों सम्बन्धी सामग्री के प्रति यदि विरक्त भाव करता हुआ साहस पूर्वक धीरे-धीरे उनका त्याग करने का अभ्यास करता रहे, और संयम अधिकार में कथित पूर्वोक्त सकल हिंसा के विकल्पों का (देखो २६.८) भी त्याग करने का अभ्यास करता रहे तो एक दिन ऐसा आयेगा कि तेरे मन की वह घुण्डी खुल जायेगी जो दृढ़ता-पूर्वक त्याग करने का साहस तुझमें उत्पन्न होने नहीं देती अर्थात् उन्हीं क्रियाओं को व्रत रूप से तुझे अंगीकार करने नहीं देती । व्रत अर्थात् उन बातों से अन्तरंग में विरक्तता, उदासीनता व हटाव तथा बाह्य में उनके प्रति की प्रवृत्ति में ब्रेक लगाने का प्रयत्न । जब तक अन्तरंग से वह घुण्डी या ग्रन्थि नहीं खुलती तब तक भले ही अभ्यास-रूप से सब कुछ त्याग कर दे, तू व्रती नहीं कहला सकता और व्रत के बिना आगे बढ़ा नहीं जा सकता, सोही आगे दर्शाते हैं । ४. शल्य - व्रत धारण करने में बाधक घुण्डी या शल्य क्या है, इसको स्पष्ट करता हूँ । देखिये आज तक आपने माँस खाकर नहीं देखा, आगे भी खाने की सम्भावना नहीं, परन्तु उसको त्यागने के लिए कहा जाय तो अनेकों विकल्प सामने आकर खड़े हो जाते हैं। यदि कल को बीमार हो जाऊँ और डाक्टर बता दे माँस खाना, तो ? व्रत आज तक धारण किया नहीं, अतः यदि भङ्ग हो गया, तो ? इसी प्रकार अन्य विषयों सम्बन्धी त्याग की बात आ पड़ने पर यह 'तो' का भाव बिना किसी के बताये अन्तरङ्ग में उत्पन्न हो जाता है, और मेरा मार्ग रोक लेता है, मुझे प्रतिज्ञा लेने या व्रत धारण करने की आज्ञा नहीं देता। यह 'तो' ही वह ग्रन्थि है जिसका नाम आगम-भाषा में 'शल्य' है । यद्यपि छोटी सी बात दीखती है परन्तु देखिये कितनी घातक है यह कि व्रत लेकर आगे बढ़ने नहीं देती, त्याग होते हुए भी त्याग करने नहीं देती। यही तो अन्तर है एक व्रती - गृहस्थ और अव्रती - गृहस्थ में । परन्तु अभ्यास करते-करते जब यह विश्वास हो जाता है कि “इतने दिनों तक इस विषय का प्रयोग जीवन में नहीं किया तथापि कोई विशेष बाधा नहीं आई और यदि थोड़ी बहुत आई भी तो उसको जीतने में सफल रहा", तब यदि इस त्याग को व्रत-रूप से ग्रहण कर ले तो कोई कठिनाई नहीं आयेगी । विपरीत इसके एक साहस उत्पन्न होगा, और अन्तरंग की 'तो' को लवकर तू उसी अभ्यास रूप त्याग को व्रत की कोटि में ले आयेगा । व्रती को भी अव्रती बनाये रखने वाली इस ग्रन्थ को तोड़ने में बड़े बल की आवश्यकता है, उस बल की जिसके प्रकट हो जाने पर चित्त में इतनी दृढ़ता आ जाती प्राण जायें तो जायें, लोक की सारी बाधायें व पीड़ायें एकत्रित होकर आयें तो आयें, इस दिशा में कदापि प्रवृत्ति न करूँगा । देखिए कितना महान अन्तर पड़ गया इस एक छोटी सी घुण्डी के खुलने से । इसीलिए थोड़ा भी त्याग करने वाला 'निःशल्य' व्रती है और बहुत अधिक त्याग करने वाला भी शल्यवान अवती है 1 ५. अणुव्रती - इस प्रकार अभ्यासवश अवती से व्रती की कोटि में आकर वह गृहस्थ अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा धनसञ्चय-त्याग इन पाँच व्रतों का आंशिक रूप से ग्रहण कर लेता है, अर्थात् अहिंसा के सर्व भेदों में से चलने फिरने वाले स जीवों की पीड़ा सम्बन्धी यथायोग्य हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार व धनसञ्चय का क्रम से त्याग करने लगता है । पहले संकल्पपूर्वक की जाने वाली संकल्पी हिंसा के विकल्पों के त्याग का व्रत लेता है, फिर विरोधी हिंसा के त्याग का और फिर क्रम से उद्योगी व आरम्भी हिंसा के त्याग का भी । रुपये-पैसे का, घर दुकान व जमीन का, सोने-चाँदी का, कपड़े जेवर का, बर्तन फर्नीचर का, और भी सर्व परिग्रह का परिमाण कर लेता है। अमुक-अमुक वस्तु इससे अधिक न रखूँगा, प्रतिदिन इतने समय से अधिक व्यापार न करूंगा, इतने क्षेत्र से बाहर व्यापार न करूँगा न कराऊँगा, चिट्ठी पत्र भी न लिखूँगा, प्रतिदिन इतने से अधिक न कमाऊँगा, प्रति रुपया इतने से अधिक नफा न लूँगा इत्यादि । इस प्रकार विषय-भोगों की लालसा तथा दैनिक आवश्यकतायें कम हो जाने के कारण बड़ा सन्तोषी जीवन बिताने लगता है वह । व्रतों को ग्रहण कर लेने के कारण अणुव्रती या श्रावक संज्ञा को प्राप्त हो जाता है वह । इतना करने पर भी वह रुकता नहीं, बराबर क्रम से बढ़ा चला जाता है, पूर्णता पर लक्ष्य रखकर । अधिक-अधिक उपवास करने का अभ्यास करके क्षुधादि बाधाओं को किञ्चित् जीत लेता है। अधिक-अधिक समय तक सामायिक Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१६ ६. सामायिक करता हुआ अन्य प्राकृतिक बाधाओं को किञ्चित् जीत लेता है । भोगों सम्बन्धी नित्य प्रयोग में आनेवाली खाद्य व अन्य सामग्री के ग्रहण की सीमा को कम करता हुआ इन्द्रियों को किञ्चित् जीत लेता है। सचित्त पदार्थों के भक्षण का वरात्रि - भोजन का पूर्ण त्याग कर देता है । पर स्त्री का त्याग तो पहले ही कर दिया था, अब स्व- स्त्री का भी त्याग करके मैथुन की बाधा को जीत लेता है। अधिक विरक्त हो जाने पर उद्योग को पूर्णतया छोड़ देता है और परिग्रह को तथा घर-बार को छोड़कर मन्दिर में रहने लगता है । अन्य लोगों से बात करना भी बहुत कम कर देता है । और भी अनेकों व्रत धारण कर लेता है, यहाँ तक कि अभ्यास बढ़ाते-बढ़ाते ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है जबकि पहनने के लिए एक लंगोटी और ओढ़ने के लिए एक चादर से अधिक कुछ भी पास नहीं रखता, पैसे को छूना भी पाप समझता है, माता-पिता आदि से कोई नाता नहीं रखता अर्थात् मुनिवत् हो जाता है । इस दशा में वह श्रावक की क्षुल्लक संज्ञा वाली उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त हो जाता है । यहाँ भी नहीं रुकता, और आगे बढ़ता है क्योंकि लक्ष्य पूर्णता पर है, उससे कम पर सन्तोष आने वाला नहीं । बल बहुत बढ़ चुका है, शरीर को भी दृष्टि से हट जाने के लिये ललकारता है, परन्तु जब यह देखता है कि यह पीछा छोड़ने को तैयार नहीं तो अन्तरंग से स्वयं इसे त्याग देता है, अर्थात् इसे कह देता है कि देख मैं शान्ति- पथ पर बहुत आगे बढ़ा जा रहा हूँ, गर्मी-सर्दी, मक्खी-मच्छर व भूख-प्यास आदि अनेकों बाधायें आयेंगी, ऐसे अवसरों पर अब पहले के समान मैं तेरी सेवा न करूंगा। अब मैं तेरा सेवक नहीं. तुझे मेरा सेवक बनकर रहना होगा। इस प्रकार श्रावक दशा का अतिक्रम करके साधु हो जाता है वह, संन्यासी हो जाता है वह । ६. सामायिक – अणुव्रती श्रावक के व्रतों में अभी-अभी 'सामायिक' नाम की साधना का उल्लेख किया गया है । बाह्य जगत से हटकर अन्तरङ्ग में जाने के लिए इसका महत्त्व सर्वोपरि है, इसलिए यहाँ इसका कुछ विशेष स्वरूप दर्शा देना उचित है | दर्शन-खण्ड में चारित्र का लक्षण समता किया गया है वह समता ही वास्तव में सामायिक शब्द का वाच्य है । परन्तु साधक जो घर-बार का काम-धन्धा छोड़कर सारे सारे दिन मन्दिर या उपाश्रय में बैठा रहता है अथवा वहाँ बैठकर यथाशक्ति मन्त्र जाप्य या ध्यान आदि करता रहता है, वह सब क्योंकि समता का अभ्यास करने के लिये किया जाता है इसलिये उपचार से सामायिक संज्ञा को प्राप्त हो जाता है । मन्त्रजाप्य आदि वास्तव में सामायिक नहीं ध्यान है, जिसका उल्लेख आगे यथा-स्थान किया जाने वाला है। (देखो अधिकार ४१) । ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता अर्थात् चित्त का इधर-उधर विषयों में न भटककर अपने शान्त-समता-स्वभाव में स्थित रहना, आत्मशक्ति की बाधक चिन्ताओं का अथवा इष्टानिष्टरूप द्वन्द्वात्मक विकल्पों का पूरी तरह निरोध करना । इसे पूर्णतया करने की सामर्थ्य योगी-जनों में ही होती है परन्तु निम्न भूमिका में भी इसका बड़ा महत्व है, विशेषता यह कि यहाँ यह प्रक्रिया ध्यान न कहलाकर 'सामायिक' कहलाती है । सामायिक और ध्यान वस्तुतः एक ही बात है, अन्तर केवल इतना है कि सामायिक में चित्त की स्थिरता ध्यान की अपेक्षा कम होती है। सामायिकगत द्वन्द्व स्थूल होने के कारण बुद्धिगम्य होते हैं और ध्यानगत वे ही सूक्ष्म होने के कारण बुद्धि की पहुँच से दूर रहते हैं, अर्थात् वहाँ चित्त की एकाग्रता अधिक होती है । आगे ' चारित्र' नाम के पृथक् अधिकार में (देखो अधिक ४६) 'सामायिक' नामक जिस चारित्र का उल्लेख किया जाने वाला है, वह भी वास्तव में यही है । विशेषता यह कि श्रावक की निम्नभूमिका में जो बात अभ्यास करने के लिये व्रतरूप से की जाती थी, वही बात साधु की उन्नत भूमिका में चारित्र रूप हो जाती है अर्थात उसका सहज स्वभाव बन जाती है । व्रत का तात्पर्य है हठपूर्वक अपने को नियन्त्रित रखने का प्रयत्न करना और चारित्र का अर्थ है धर्म या स्वभाव जिसका पहले उल्लेख किया जा चुका है (देखो ५.४) । श्रावक जिस बात को प्रतिज्ञाबद्ध होकर निश्चित समय के लिए प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह साधु को बिना प्रयत्न के सहज - सिद्ध है। श्रावक चाहता तो यही है कि यह समता मेरा स्वभाव बन जाय और मुझे इसकी प्राप्ति या रक्षा के लिए प्रयत्न करना न पड़े परन्तु संस्कारवश वह ऐसा करने के लिए समर्थ नहीं है । इसलिए कुछ काल के लिये ऐसा संकल्प करके मन्दिर आदि में जा बैठता है कि इतने काल पर्यन्त मैं इन इन्द्रियों को न तो कोई उपभोग्य विषय दूँगा, न इन्हें किसी से बात करने दूंगा और न किन्हीं विघ्न Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१७ ७. दोषों की सम्भावना बाधाओं का प्रतिकार करने की आज्ञा दूंगा, प्रत्युत सब कुछ सहन करता हुआ समता में स्थित रहूंगा। धन लुटे परवाह नहीं, पुत्र मरे परवाह नहीं, बिजली गिरे परवाह नहीं। यह है बाह्य सामायिक और इतने काल पर्यन्त चित्त को यथाशक्ति मन्त्रजाप्य या ध्यान द्वारा एकाग्र करने का प्रयत्न करते रहना है अन्तरङ्ग-सामायिक, क्योंकि ऐसा करने से उसकी विषयों के प्रति होने वाली द्वन्द्वात्मक भाग-दौड़ समाप्त हो जाती है और हीनाधिक- रूपसे वह समता में स्थित हो जाता है। इतना विवेक रखना आवश्यक है यहाँ कि अन्तरङ्ग समता के अभाव में उसका केवल बाह्य में प्रतिज्ञाबद्ध होकर रहना, घर दुकान का सब काम-धन्धा छोड़कर मन्दिर या उपाश्रय में मौन बैठे रहना, पीड़ायें सहते रहना और हाथ में माला कर उसके मन सरकाते रहना सामायिक नहीं दम्भ है, केवल लोक- दिखावा है, अज्ञान- जन्य रूढ़ि है । और अभ्यन्तर-समता के सद्भाव में दुकान पर बैठकर ग्राहकों से व्यवहार करते रहना भी सामायिक है, क्योंकि जिस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ प्रतिज्ञाबद्ध होकर बैठता था, वह अब सिद्ध हो चुका है और उसके लिए बाह्य क्रिया की अब उसे कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। ७. दोषों की सम्भावना — देखो इन संस्कारों की विडम्बना कि इतना पुरुषार्थ करते हुए भी तथा आचार-विचार में ऊँचा चढ़ जाने पर भी पीछा नहीं छोड़ते । प्रभो ! इनसे मेरी रक्षा कीजिये। अब तक के विस्तृत कथन में ऊपर-ऊपर ही चढ़ने की बात बताई गई है, गिरने की बात कहीं पर भी नहीं आई । इसलिये ऐसा भ्रम हो सकता है कि 'जो चढ़ा वह चढ़ता ही चला गया, साधक कभी भी गिर नहीं सकता।' परन्तु ऐसा नहीं है, परिणामों की बड़ी विचित्रता है । दबे पडे पुराने संस्कारवश यह नीचे भी गिरता है और फिर चढ़ जाता है, परन्तु बाहर में वैसा का वैसा ही दिखाई देता रहता है । यह तो रही अन्तरङ्ग परिणामों की बात, कदाचित् बाहर में भी विकार को प्राप्त हो जाता है वह । ऐसा होने पर यदि लक्ष्य वही शुद्धता का बना रहे तो बाहर का विकार भी शीघ्र ही दूर हो जाता है। ऐसी अवस्था को कहते हैं नियमों व व्रतों में अतिचार या दोष लगना । साधक कोई लोहे की मशीन तो है नहीं कि एक बार चला दी और चलती रही। मशीन भी तो कोई ऐसी दिखाई नहीं देती जो कभी न बिगड़े । शरीर भी कोई ऐसा दिखाई नहीं देता जिसे रोग न आये। फिर यदि मुझमें अर्थात् मेरे मन में ही कदाचित् कोई बिगाड़ उत्पन्न हो जाये, कोई रोग आ जाय तो कौन आश्चर्य ? वह भी तो अन्य पदार्थों की भाँति एक पदार्थ ही है । पूर्ण हो जाने पर भले इसे रोग न हों पर प्रारम्भिक भूमिका में 'अल्प-शक्तिवश हो ही सकते हैं । अतः किसी साधक के जीवन में कदाचित् दोष लग जाये तो उसे धुतकारना या उससे घृणा करना योग्य नहीं । जिस किस प्रकार भी उसका स्थितिकरण करके पुनः उसे मार्ग में स्थापित करना कर्तव्य है । बड़े-बड़ों को दोष लगते देखे जाते हैं, बड़े-बड़ों से भूलें हो जाती हैं, बड़े-बड़े मार्ग से च्युत हो जाते हैं । अरे रे ! कितने दुष्ट हैं ये संस्कार ? यह सब इन्हीं का तो प्राबल्य है कि ग्यारहवें गुणस्थान पर चढ़कर भी, जहाँ पूर्णता का स्पर्श करने में रह जाता है केवल एक बाल मात्र का अन्तर, वह गिर जाता है ऐसे गर्त में जहाँ से न जाने कितने काल तक वह निकल कर शान्ति के दर्शन भी करने न पायेगा। बिल्कुल उसी प्रकार गहन अन्धकार में विलीन हो जायेगा जिस प्रकार कि साधना प्रारम्भ करने से पहले पड़ा था। इन संस्कारों से प्रेरित होकर किस समय कोई बड़े से बड़ा साधक, क्या दोष कर बैठे कुछ पता नहीं । यदि बड़ा दोष करता है तो वह स्वयं साधक की कोटि से निकल जायेगा, अथवा पुनः स्वयं सचेत होने पर या गुरु के द्वारा सचेत किए जाने पर अपने उस दोष की निन्दा करता हुआ, प्रायश्चित ग्रहण करके फिर से साधक बन जायेगा, पहले से निम्न श्रेणी का । यदि हल्का सा दोष कर बैठता है तो तुरन्त ही सावधान होकर तथा प्रायश्चित लेकर निर्दोष बन जाता है । इन दोनों ही अवस्थाओं में दूसरों का कर्त्तव्य यह है कि उस दोषी को समझा-बुझाकर सही रास्ते पर लगावें । परस्पर उपकार करने की भावना रहनी चाहिए, क्योंकि सभी को दोष लगने पर प्रमादवश शिथिलाचार होने की सम्भावना रहती है। कुछ दृष्टान्तों के द्वारा इस विषय को समझिये । १. आज के लौकिक न्यायालयों में भी अपराध का निर्णय अभिप्राय पर से किया जाता है। बड़े बड़ा अपराधी भी क्षमा कर दिया जाता है यदि न्यायाधीश यह समझ ले कि उसके हृदय में अपने उस अपराध के प्रति ग्लानि उत्पन्न हो चुकी है और वह भविष्य में उस उपराध को पुनः नहीं करेगा । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१८ ८. अतिचार और अनाचार २. देखिए किसी बच्चे को दो व्यक्ति पीटते हैं, एक उसकी माता और दूसरा मैं । माता भी किसी कारणवश क्रोध के आवेश में पीटती है और मैं भी किसी कारणवश क्रोध के आवेश में पीटता हूँ । सम्भवत: माता तो उसे अधिक पीटे और मैं केवल एक ही तमाचा लगाऊँ, परन्तु बच्चा फिर भी माता की गोद की ओर ही जाता है, मेरी ओर नहीं आता । क्या कारण है ? यही कि बच्चा पहचानता है माता के अभिप्राय को, वह जानता है कि माता ने अन्तरङ्ग से उसे द्वेष करके नहीं मारा, मारने के पश्चात् वह पछता रही है, 'हाय-हाय ! कितनी क्रूर हूँ मैं, धिक्कार है मुझे, अपने जिगर के टुकड़े को इस प्रकार मारते हुए कहाँ चला गया था मेरा मातृत्व ?' इसी प्रकार न जाने क्या-क्या भाव आ रहे हैं और जा रहे हैं उसके हृदय में । भाव कृत्रिम नहीं स्वाभाविक हैं। इसका नाम है पश्चाताप व आत्म ग्लानि जिसके कारण वह मारती हुई भी नही मारती । दूसरी ओर मेरे अन्दर पड़ा है द्वेष, 'किसी प्रकार फिर मेरे कमरे में न आये, बड़ा दंगई है, यह उठा वह धर, यह तोड़ वह फोड़, मुझे नहीं भाता ऐसा दंगई बालक', ये हैं मेरे भाव । भले एक ही तमाचा लगाया हो परन्तु अन्तरङ्ग के अभिप्राय-पूर्वक लगाया है, और इसलिये उस पर मुझे कोई पश्चाताप नहीं हो रहा है, बल्कि उस क्रिया को अच्छा ही समझ रहा हूँ, 'चलो बला टली, बिना मारे यह मानने वाला नहीं था, लातों के भूत बातों से नहीं मानते', ये हैं मेरे भाव । कितना महान अन्तर है दोनों के भावों में ? इसी कारण माता ने मारते हुए भी नहीं मारा और मैंने थोड़ा मारकर भी बहुत मारा। ३. एक तीसरा दृष्टान्त भी सुनिये । एक व्यापारी की दुकान पर रहता है एक मुनीम । बड़ा ईमानदार है, सेठ साहब को पूर्ण विश्वास है उस पर, सब रुपया पैसा तथा लेन-देन उसके हाथ में है । किसी समय एक विचार उठा मुनीम के हृदय में, 'यदि थोड़ा-थोड़ा करके रुपया उड़ाने लगूं तो सेठ साहब को क्या पता चल सकता है ? ' बस कर दी चोरी प्रारम्भ । पहले महीने में सौ, और दूसरे में तीन सौ । एक साल में २० हजार रुपया उड़ा लिया, सेठ को कुछ खबर नहीं, हिसाब-किताब बिल्कुल ठीक । किसी प्रकार भी चोरी नहीं पकड़ी जा सकती थी, परन्तु मुनीम के हृदय की गति किसी और ही दिशा में चली जा रही थी। बाहर में बाराबर चोरी कर रहा था और अन्तरङ्ग में, 'अरे ! क्या कर रहा है तू? किसके लिए कर रहा है यह इतना बड़ा अनर्थ ? कितने दिन चलेगा यह कुछ ? विश्वासघात करना क्या शोभा देता है तुझे? क्या मुँह लेकर जाता है सेठ के सामने ? क्या इसी का नाम है मनुष्यता?' और इसी प्रकार अनेकों धिक्कारें निकला करती थी बराबर उसे अन्तस्तल से । चोरी अवश्य करता था पर उसके हृदय ने कभी उस धन को स्वीकार न किया, बराबर उसकी रक्षा करता रहा, पृथक् हिसाब खोलकर बैंक में डलवा लि हाथ न लगाया, मानो धरोहर थी उसके पास । कुछ दिन और बीत गये अपराधी प्रवृत्ति तथा हृदय के इस संघर्ष में, और आखिर जीत हुई हृदय की। डेढ़ वर्ष पश्चात् लाकर रख दिया बीस का बीस हजार रुपया सेठजी के चरणों में, और हाथ जोड़कर खड़ा रह गया किंकर्त्तव्य-विमूढ़ सा । 'सेठ जी ! अपराधी हूँ मैं, मुझ जैसा दुष्ट सम्भवत: लोक में कोई दूसरा न हो, विश्वासघात किया है मैंने । यह आपकी दुकान से चुराया हुआ धन है । आश्चर्य न करें, मैं ही हूँ वह चोर जिसने यह कुकर्म किया है । दण्ड दीजिये इस पापी को।' इसी के समान एक दूसरे चोर को भी देखिये जो उसी दुकान पर से चुरा रहा है और खा रहा है मस्त, मानो उसके बाप की है यह सम्पत्ति । भले साल भर में केवल २०० रुपये ही चुरा सका हो पर उस चोरी में रस ले रहा है वह । आप ही बताओ दोनों में चोर कौन ? २०,००० चुराने वाला या २०० चुराने वाला? सोच में पड़ गये ? हृदय की आवाज को छिपाने का प्रयत्न न कीजिये । मुझे वह स्पष्ट सुनाई दे रही है कि आप समझ गये हैं इस रहस्य को। ८. अतिचार और अनाचार-लीजिये अब इसको सिद्धान्त का रूप दे दीजिये ताकि भविष्य में शंकायें उत्पन्न होने को अवकाश न रह जाय । व्रती के अपराध दो प्रकार के होते हैं—एक अभिप्रायपूर्वक किया जाने वाला और दूसरा अभिप्राय-रहित प्रमादवश, या केवल किसी संस्कार के क्षणिक उदयवश किया जाने वाला; एक अच्छा समझकर किया जाने वाला और एक आत्मग्लानि-सहित स्वयं हो जाने वाला। इन दोनों में से पहले अपराध 'अनाचार' और दूसरे का नाम है 'अतिचार' । अनाचार में निरर्गलता होती है, किया तो सही किया, क्या बुरा किया ? ठीक ही किया', ऐसा भाव रहता है; और अतिचार में उस प्रवृत्ति को रोकने का प्रयत्न रहता है, आत्मनिन्दन व ग्लानि रहती है । 'यह तूने बहुत बुरा किया, तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था, अब किया तो किया, भविष्य में तेरे द्वारा ऐसा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रावक धर्म २१९ ९. आगे बढ़ कार्य नहीं होना चाहिए', ऐसा भाव रहता है। और इसलिए अनाचार तुच्छ मात्र होते हुए भी बड़ा अपराध है और अतिचार पर्वत सरीखा होते हुए भी हल्का अपराध है। __ अभिप्राय की महिमा अपार है। बाहर में अपराध न करने पर भी अभिप्राय में करने की बुद्धि होते हुए अपराधी है और अभिप्राय में न होते हुए स्पष्ट अपराध करता हुआ भी निरपराधी है, शीघ्र ही सुधरने के योग्य है । धर्मी-जीवन में लगने वाले अपराध अतिचार रूप होते हैं, अनाचाररूप नहीं । परन्तु बराबर बाहर से आप लोगों की धुत्कारें पड़ती रहें, उसे सान्त्वना देने का प्रयत्न न किया जाए तो हो सकता है कि वह अतिचार अनाचार में परिवर्तित हो जाए। वह सोचने लगे कि 'लोक में तो निन्दा हो ही चुकी, कोई तेरे साथ सहानुभूति करने वाला दिखाई देता नहीं, अत: अपराध करने से क्यों घबराता है ? जब अपराधी ही बन गया तो दिल खोलकर कर' इत्यादि । इस प्रकार कल्याण के पात्र को आप ढकेल देंगे अकल्याण के गर्त में। कितना बड़ा अनर्थ होगा? अत: भाई ! गाँठ बाँध ले इस बात को कि कभी किसी का दोष देखकर घृणा न करेगा। प्रेमपूर्वक समझा बुझाकर उसका दोष टलवाने का प्रयत्न करेगा, और यदि वह न भी माने तो भी उससे द्वेष नहीं करेगा, माध्यस्थता ही धारेगा। बाह्य के अपराधों को न देखकर अभिप्राय को पढ़ना सीखो, अभिप्राय की रक्षा करो । प्रवृत्ति में से दोष धीरे-धीरे स्वत: टल जायेंगे। अभिप्राय न बदलकर प्रवृत्ति में से दोष टालना चाहोगे तो भले कुछ दिन रुके रहें, आयु पर्यन्त रुके रहें, पर अगले भव में सही, एक रोज तो अवश्य जागृत होकर ही रहेंगे। अभिप्राय मूल है और प्रवृत्ति उसकी शाखा । मूल पर आघात करना ही बुद्धिमानी है, केवल शाखा को काटने से कुछ न होगा। इस गृहस्थ अवस्था में भले ही अपराध प्रवृत्ति में से न टले, पर अभिप्राय में से निरर्गलता व स्वच्छन्दता टल सकती है । यह महान कार्य है, इसे अवश्य कर डालो । अवसर मिला है इसे मत चूको। ९. आगे बढ़-यदि धीरे-धीरे अभ्यास करता चले और शक्ति को न छिपाये, तो क्रमश: अणुव्रती श्रावक बनकर उसकी जघन्य स्थिति से उत्कृष्ट महिमापूर्ण श्रेणी में पदार्पण करेगा, ऐसा निश्चय है । भय छोड़, यदि शान्ति का उपासक बना है तो शरीर से ममत्व हटा, इस पर्याय में आने वाली बाधाओं से न घबरा।' तेरे समक्ष जो कदाचित् साधुओं के व्रतों आदि की चर्चा की जाती है उसका प्रयोजन यह नहीं कि तुझे ही इस प्रकार करने के लिए कहा जा रहा है, प्रत्युत यह बताना है कि शान्ति का मार्ग उतने मात्र पर समाप्त नहीं हो जाता जितना कि गृहस्थ धर्म में करने के लिए कहा गया है। यदि उतने ही मात्र में सन्तोष धार लेगा तो शान्ति की पूर्णता न हो सकेगी। पूर्णता की प्राप्ति के अभाव में कदाचित् तुझे मार्ग पर अविश्वास न हो जाय इसलिए पूर्ण मार्ग जानना आवश्यक है । भले ही शक्ति की हीनतावश उसका अंश मात्र ही जीवन में उतारा जाए, परन्तु यह जानना आवश्यक है कि, तेरे वाली उस प्रथम श्रेणी के अतिरिक्त जिसका अब तक कथन चला आ रहा है, दो और श्रेणियाँ भी हैं जो तेरे वाली से उत्तरोत्तर ऊँची हैं। वे तझमें बल की वृद्धि हो जाने के पश्चात ही धारी जानी सम्भव हैं। उनमें से प्रथम की नं० २ वाली श्रेणी तो श्रावक की है जिसे वानप्रस्थ भी कहते हैं और अणुव्रती के रूप से जिसका उल्लेख अभी-अभी किया जा चुका है। दूसरी नं० ३ वाली श्रेणी साधु की है जिसे तपस्वी, योगी, मुनि, ऋषि, साधु, सन्यासी आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है। इसका यह अर्थ भी न समझ लेना कि साधुओं की क्रियायें सर्वथा आपके करने की नहीं हैं, और गृहस्थ की क्रियायें सर्वथा साधु को करने की नहीं हैं, बल्कि यह समझना कि ये क्रियायें मुख्यतया साधुओं के और आंशिक रूप में गृहस्थ के करने योग्य हैं। आगे सुनकर आप स्वयं जान जाओगे कि अब तक जो क्रियायें आपको करने के लिए कहा गया है, वे साधु की क्रियाओं के ही अल्परूप हैं और इन क्रियाओं के अतिरिक्त भी साधु धर्म में बताई जाने वाली कुछ क्रियायें हैं जो गृहस्थ के द्वारा आंशिक रूप में की जानी शक्य हैं। वे सब जीवन के प्रयोजन संबन्धी अनेकों ग्रन्थियाँ सुलझाने वाली हैं, अत: ध्यान से सुनना। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म १. सामान्य परिचय; २. इन्द्रिय जय; ३. महाव्रत; ४. समिति; ५.षड् आवश्यक; ६. गुप्ति; ७. धर्म; ८. अनुप्रेक्षा; ९. परिषह जय; १०. चारित्र; ११. तप; १२. महिमा। १. सामान्य परिचय शान्ति पथ पर धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए जब मैं इस तृतीय श्रेणी में पदार्पण कर जाऊँगा, अर्थात् साधु बन जाऊँगा, तब मेरा जीवन किमात्मक होगा, यह बात चलनी है, अर्थात् साधु-धर्म की बात । गृहस्थ, श्रावक तथा साधु तीनों के धर्मों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है । भेद है केवल निम्नोन्नत श्रेणियों का, जघन्यता व उत्कृष्टता का । जो क्रियायें आपको अब तक जघन्य रूप से करने के लिए कहा गया है प्राय: वही क्रियायें कुछ अन्यान्य विशेषताओं के साथ साधु उत्कृष्ट रूप से करता है। दूसरी विशेषता यह है कि श्रावक धर्म में बाह्याचार की प्रधानता है और साधु धर्म में अन्तरङ्ग आचार की। उसका सकल बाह्याचार सूक्ष्म हो कर अन्तरङ्ग में उतरता चला जाता है, जैसे कि उसे न अब देवदर्शन करने की आवश्यकता है और न प्रतिज्ञाबद्ध सामायिक करने की; तत्त्वदर्शन ही अब उसका देवदर्शन है और समता ही उसकी सामायिक । अत: बाह्य में देवदर्शन आदि करे या न करे, दोनों उसके लिए समान हैं। सप्त बाहचिन्ह यद्यपि साधु धर्म को किसी निश्चित् वेष या लिङ्ग की सीमाओं में बांधा नहीं जा सकता, तदपि लोक-व्यवहार के अर्थ किसी न किसी वेष में तो उसे रहना होता ही है। विभिन्न सम्प्रदायों में अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार साधुओं के विभिन्न वेष उपलब्ध हैं परन्तु वास्तव में देखा जाए तो साधु का अपना कोई वेष नहीं । निर्वेष ही उसका वेष है । अथवा यों कह लीजिए कि प्रकृति ने जिस वेष में उसे उत्पन्न किया है वही उसका वेष है, अर्थात् शिशु अथवा पशु पक्षी की भाँति यथाजात नग्नता ही उसका स्वाभाविक वेष है । इसमें कुछ भी कृत्रिमता करना अहंकार का कार्य है जिसके राज्य का वह उल्लंघन कर चुका है । भले ही कोई अन्य उसे वस्त्र ओढ़ा दे परन्तु जब वह उसकी सार सम्भाल ही नहीं करेगा, जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी स्वयं उसे बदलेगा नहीं, तो कैसा हो जायेगा उसका वेष, यह कहने की आवश्यकता नहीं। वेष की ही बात नहीं उसका सारा जीवन ही शिशु की भाँति प्रकृति माँ के आश्रित है । न कोई घर न द्वार, जहाँ कहीं भी जैसा-कैसा भी स्थान मिल गया, पड़ गए वहीं । कोई छत नहीं, मिली तो मिली न मिली तो न सही, आकाश तो है। भले अन्य किसी स्थान में कोई घुसने की आज्ञा न दे इस नङ्ग-धड़ङ्ग को, परन्तु निर्जन-वन, उपवन, श्मशान, पर्वत की गुहा, वृक्ष की कोटर, नदी का पुल, घाट की पैड़ी आदि स्थानों में कौन रोकता है उसे ? अत: पड़ जाते हैं वहीं, न गर्मी की परवाह और न सर्दी बरसात की चिन्ता, न डाँस, मच्छर, मक्खी आदि का गम और न वनचरों का भय । निर्भय अकेले रहते हैं वे प्रकृति माँ की गोद में । उनमें से भी किसी स्थान को अपना निकेत या घर नहीं बनाते वे, घूमते रहते हैं सदा अनिकेत, बेघर, आज यहाँ और कल वहाँ, जिधर नाक उठी चल दिये । न स्नान करने का भाव, न दाँत धोने की चिन्ता । भले चढ़ा रहे मैल देह पर, भले नाक सुकेड़ते रहें लोग इसे देखकर, उन्हें क्या ? सर व मूंछ दाढ़ी के बाल बढ़ गए तो फेंक दिये नोचकर अपने हाथों से, घास फूस की भाँति । निराश्रय जो ठहरे, किससे कहें, कहाँ से लायें पैसा नाई को देने के लिए? साथ में लगे इस छकड़े को खेंचने के लिए यदि कभी कुछ आवश्यकता पड़ी तो जा अलख जगाई किसी के द्वार पर । ऊँच हो या नीच, धनवान हो या निर्धन, उन्हें क्या ? किसी ने दिया-दिया नहीं तो चल दिये आगे। दूसरा द्वार और फिर तीसरा । ५-७ द्वारों पर जाने से कछ न कछ तो कहीं मिल ही जायेगा, प्रभु कृपा से । न शरीर से अपने लिए कुछ करना, न वचन से किसी को अपने लिये कुछ कहना, और न किसी के द्वारा प्रेमवश कुछ किए गए की मन से अनुमोदना करना। जिस प्रकार भ्रमर एक-एक फुल से रस चुस-चूसकर अपना पेट भर लेता है और किसी फूल की एक पँखडी को भी क्षति पहँचने नहीं देता. उसी प्रकार साध भी ५-७ द्वारों पर जाकर कहीं किसी प्रकार भी अपना पेट भर लेता है और किसी गृहस्थ को तनिक भी बाधा पहुँचने नहीं देता। जैसा किसी ने दे दिया, खा लिया हाथ पर Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म २२१ ३. महाव्रत रखवाकर खड़े-खड़े ही, बच्चों की भाँति, वह भी दिन में केवल एक बार । सरस हो या नीरस, रूखा हो या चिकना, ठण्डा हो या गर्म उन्हें क्या ? गाय समान जैसा किसी ने डाल दिया वैसा ही खा लिया, खड्डा भरने से मतलब | जिस प्रकार घर में लगी आग को बुझाने के लिए उसका स्वामी रेत, मिट्टी, पानी जो भी मिले फेंक देता है उस पर; उसी प्रकार जठराग्नि को बुझाने के लिए साधु रूखा-सूखा, ठंडा-गर्म, ऐसा-वैसा जो कुछ भी मिले फेंक देते हैं उस पर । भय लगता है उनको जन-संसर्ग से इसलिये नहीं कि वे कुछ कहते हैं उनको प्रत्युत इसलिये कि कहीं अपनी ही किसी कमजोरी के कारण कदाचित् राग में न उलझ जायें वे उनके, और इस प्रकार खो बैठें सब कुछ, जो कमाया है। अब तक । इसीलिये अपनी और से सदा प्रयत्न करते हैं वे बचे रहने का अथवा उनकी बसतियों से दूर रहने का । यद्यपि सुनने पर या बाहर से देखने पर कुछ ऐसा लगता है कि या तो उनके दिमाग की कोई डिबरी ढीली हो गई है और या वे पशु की भाँति केवल स्वच्छन्दाचारी हैं, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । अत्यन्त तेजपुञ्ज हैं वे, अत्यन्त विवेकवन्त हैं वे, अत्यन्त आचारवन्त हैं वे । साधु-साधु की पहचान न होती है उसके वेश पर से और न उसके बाह्याचार पर से, प्रत्युत होती है उन महान गुणों पर से जो भरे पड़े हैं उसके हृदय की गहराइयों में । वीतरागता, शान्त-चित्तता, निर्भीकता, निरीहता, शोक, खेद, चिन्ता, लज्जा तथा ग्लानि-हीनता, अक्रोधता, निरभिमानता। 'मैं इतना ज्ञानी तथा तपस्वी हूँ, लोगों को मेरी विनय करनी चाहिये', ऐसा भाव कभी उदित नहीं होता उनके हृदय ,न ही अपनी प्रसिद्धि के लिए शिष्य-मंडली का संग्रह करते हैं वे । ख्याति-प्रसिद्धि आदि की एषणाओं से अति दूर चारों कषायों को परास्त कर दिया है जिन्होंने ऐसे होते हैं सच्चे साधु । सदा दया से आद्र रहता है चित्त उनका । 'छोटे-बड़े किसी भी प्राणि को मेरे द्वारा किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुँचे। मेरे द्वारा सबका हित हो, किसी के प्रति भी मेरे मन में कभी कोई अनिष्ट विकल्प उदित न हो, मेरे मुख से कभी भी पर - पीड़ाकारी वचन न निकलें, मेरे शरीर से किसी को किञ्चित् भी बाधा न हो, इस प्रकार के भाव रहते हैं सदा उनके हृदय में । भिक्षा आदि के अर्थ जब किसी ग्राम में प्रवेश करते हैं वे, अथवा किसी के द्वार पर जा खड़े होते हैं वे, तो अज्ञानीजन तिरस्कार करते हैं उनका, असह्य आक्रोश-वचन कहते हैं उनके प्रति, अपने द्वार पर से धुतकारकर बाहर निकाल देते हैं उस अग्नि की कणिका को । “नङ्गा-धड़ङ्गा, शर्म नहीं आती, चला आया माँगने, तेरे बाप ने बनाकर रखा है यहाँ भोजन तेरे लिये ? जा अब फुरसत नहीं फिर आइयो", और न जाने क्या-क्या सुनना पड़ता है उनको । छोटे-छोटे बच्चे गालियों में खिल्ली उड़ाते हैं उनकी, कङ्कड़े फेंकते हैं उनके ऊपर । परन्तु वे मुस्कराते रहते हैं सदा भीतर ही भीतर इनकी बाल- बुद्धि पर और कल्याण की कामना करते रहते हैं इनके लिए। क्या मजाल कि माथे पर बल पड़ जाएँ । साधारणजन समझें न समझें परन्तु ज्ञानीजन समझते हैं यह कि आगम में साधु के आचार-विचार सम्बन्धी जो विभिन्न शीर्षक प्राप्त होते हैं, वे सब पण्डितों की भाषा में कथित इनके उपर्युक्त स्वाभाविक महान् गुणों का विस्तार है, अन्य कुछ नहीं । यथा- 'नग्नता, अस्नान, अदन्तधोवन, केशलुञ्चन, पाणिपात्रता, एकभुक्ति, स्थितिभुक्ति अर्थात् खड़े रहकर खाना', ये सात बाह्य क्रियायें जिनका कि ऊपर उल्लेख किया गया है साधु के आगमोक्त महान गुण हैं । इनके साथ 'पँचेन्द्रिय-जय, पँचमहाव्रत, पँचसमिति, और षड्आवश्यक' ये २१ क्रियायें जोड़ देने पर उनके कुल २८ मूलगुण कहे गए हैं। इनके अतिरिक्त तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय, चारित्र और तप का भी उल्लेख है । लीजिए क्रमपूर्वक इन सबका संक्षिप्त सा दर्शन कर लीजिये । २. इन्द्रिय जय — इन्द्रियों को दास बना लिया है इन्होंने । पाँचों इन्द्रियों के विषय अविषय हो गए हैं अब इनके लिए । शान्ति का उपभोग तथा समता रस में स्नान, यही एक मात्र विषय रह गया है अब इनका । इसका विस्तार 'उत्तम संयम' नामक ३९ वें अधिकार में किया जाने वाला है । ३. महाव्रत — पञ्च - अणुव्रतों का कथन श्रावक-धर्म के अन्तर्गत किया जा चुका है। उन्हीं की पूर्णता का नाम 'महाव्रत' है । 'केवल शरीर द्वारा ही नहीं वचन तथा मन के द्वारा भी किसी छोटे या बड़े प्राणी के किसी भी प्राण को किञ्चित् भी पीड़ा न पहुँचे' इस प्रकार की सावधानी ही है इन व्रतों की पूर्णता । अहिंसा की पूर्णता का उल्लेख आगे Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म २२२ ४. समिति 'उत्तम संयम' नामक ३९ वें अधिकार में, सत्य का 'उत्तम सत्य' नामक ३८ वें अधिकार में, अचौर्य का 'उत्तम-त्याग' नामक ४२ वें अधिकार में, ब्रह्मचर्य का 'उत्तम ब्रह्मचर्य' नामक ४४ वें अधिकार में और अपरिग्रह का 'उत्तम आकिंचन्य' नामक ४३ वें अधिकार में किया जाने वाला है। इस व्रत की साधु-धर्म में प्रधानता होने के कारण आगे 'अपरिग्रहता' नामक एक पृथक् अधिकार भी दिया गया है । यहाँ केवल इतना मात्र उल्लेख कर देना पर्याप्त है कि इन पाँचों महाव्रतों की रक्षा के लिए साधु अपनी शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाओं का किस प्रकार सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं। अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए वे अपने मन में किसी के प्रति भी कोई अनिष्ट विचार आने नहीं देते, जिह्वा को किसी के प्रति अहितकारी शब्द, अनिष्ट अथवा कटुक-शब्द, मर्मच्छेदी अथवा व्यङ्ग का शब्द बोलने नहीं देते और शरीर को समितिरूप यत्नाचार में कभी प्रमाद करने नहीं देते । अर्थात् गमनागमन आदि सभी क्रियायों में बड़ी सावधानी तथा यलपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं वे। सत्य व्रत की रक्षा के लिए न तो मन में किसी के प्रति क्रोध जागृत होने देते हैं वे, न लोभ, न राजा आदि का भय का उपहास करने का भाव; क्योंकि ये चार ही हेतु हैं जिनके कारण व्यक्ति को न चाहते हुए भी असत्य बोलने के लिए प्रवृत्त होना पड़ता है । बराबर यह सावधानी रखते हैं कि किसी के प्रति भी अप्रिय अथवा कटुक-शब्द उनके मुख से निकलने न पावे। तृण-मात्र का ग्रहण भी पाप है इसलिए उनको अचौर्य-व्रत सहज है। अदत्त-ग्रहण का वनवासी के लिए प्रश्न क्या ? तदपि शरीर का भाड़ा चुकाने के लिए भोजन अवश्य ग्रहण करते हैं । वह भी केवल उसी दातार से लेते हैं जो कि हृदय से देना चाहे, अनमने-भाव से देने वाले का अन्न वे ग्रहण नहीं करते, क्योंकि हृदय से न दिया गया होने के कारण वह वास्तव में अदत्त है। अदत्त होने के कारण वृक्षों पर से स्वयं फल-फूल तोड़कर भी नहीं खाते वे । हाथ धोने को मिट्टी तक भी स्वयं नहीं लेते वे । इसी व्रत की रक्षा के लिए सदा वन, श्मशान अथवा गुफा आदि किसी ऐसे स्थान में रहते हैं वे जिसके स्वामी सब हैं अथवा जहाँ रोकने वाला कोई नहीं । वहाँ भी यदि कोई अन्य ठहरना चाहे तो उसे रोकते नहीं वे। किसी से वाद-विवाद भी करते नहीं वे क्योंकि वह भी वास्तव में दूसरे की श्रद्धा को लूटने का प्रयत्न है, अन्य कुछ नहीं। कितनी सूक्ष्म है व्रत-सम्बन्धी इनकी दृष्टि ? ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए स्त्री के साये से भी दूर रहते हैं वे । स्त्री के राग-विषयक कोई चर्चा न करते हैं और न सुनते हैं । स्त्री के मनोहर अङ्गोंपाङ्गों की ओर कभी आँख उठाकर भी नहीं देखते हैं । गृहस्थ अवस्था में भोगे गए भोगों का मन से स्मरण नहीं करते। कभी अपने शरीर को स्नान आदि के द्वारा साफ-सुथरा अथवा सुन्दर बनाने का प्रयत्न नहीं करते। परिग्रह-त्याग व्रत की रक्षा के लिए धागे का ताना मात्र भी पास नहीं रखते वे, नग्न रहते हैं । पाँचों इन्द्रियों के इष्टा निष्ट विषयों के संयोग-वियोग की चिन्ता नहीं करते वे। जितना तथा जो कुछ भी सहज प्राप्त है, उसी में सन्तुष्ट रहते हैं वे और इसीलिये कहलाते हैं महाव्रती।। ४. समिति समिति अर्थात् (सम+ इति) का अर्थ है अन्तरंग में निज शान्ति की प्राप्ति के प्रति और बाहर में अन्य जीवों की शान्ति की रक्षा के प्रति प्रयत्न करते हए सम्यक प्रकार चरण करना । यद्यपि वास्तविक समिति उतनी ही देर रह सकनी सम्भव है जितनी देर कि निज शान्ति में स्नान करते हुए ध्यानावस्था में स्थित रहते हैं वे, क्योंकि पूर्णतया शान्ति की प्राप्ति तथा अन्य जीवों की रक्षा तभी सम्भव है, अन्य क्रियायें करते हुए नहीं। तदपि अधिक समय उस अवस्था में स्थिति पाने की सामर्थ्य न होने के कारण जब इस दशा से च्युत हो जाते हैं और कुछ शारीरिक व वाचिक क्रियाओं में प्रवृत्ति करने लगते हैं तो 'मेरी इन क्रियाओं से किसी भी छोटे या बड़े प्राणी को किसी भी प्रकार का कष्ट न होने पावे' इस उद्देश्य से अत्यन्त सावधानी पूर्वक वर्तते हैं वे । उनकी यह यत्नाचारी प्रवृत्ति ही अन्य जीवों की रक्षा के निमित्त होने के कारण समिति कहलाती है, जो पाँच प्रकार की है-ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और प्रतिष्ठापन । इन्हीं का क्रम से कथन करता हूँ। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म २२३ ५. षड्-आवश्यक १. उपरोक्त सकल शारीरिक क्रियायें करते हुए सदा अपने भीतर ही देखते रहते हैं वे और अपनी दृष्टि को इधर-उधर भटकने नहीं देते । यदि संस्कारवश वहाँ से भटक कर बाहर आ भी जावे तो सदा पृथ्वी की ओर ही लखाते हैं, दिशाओं में नहीं। चार हाथ आगे देखकर चलते हैं ताकि कोई चींटी आदि छोटा जन्तु पाँव के नीचे आकर या शरीर के किसी भी अंग से आघात पाकर मर न जाये, पीड़ित न हो जाय। यहाँ तक कि मार्ग में कुछ प्राणी ऐसे बैठे हों जो उनके अकस्मात निकट पहँचने पर डर कर भागने लगें. तो उस मार्ग को ही छोड़ देते हैं वे। २. किसी भी वस्तु को उठाते-धरते हुए उस वस्तु को तथा स्थान को कोमल पिच्छी से अच्छी तरह शोध या झाड़कर ही रखते उठाते हैं वे; ताकि कोई छोटा जन्तु, जो उस स्थान पर या वस्तु पर उस समय बैठा हुआ होना सम्भव है, मर न जाय या पीड़ित न हो जाय। ३. मल-मूत्र क्षेपण करते समय भी यत्न बराबर बना रहता है उन्हें, और इस लिए किसी गुप्त तथा साफ स्थान में ही अच्छी तरह देखकर या शोध-झाड़कर मलक्षेपण करते हैं वे, नाली आदि में नहीं, क्योंकि ऐसे गन्दे स्थानों में बड़ी जीव-राशि पड़ी हुई होती है, जोकि उस मल से मर जानी या बाधित हो जानी सम्भव है। ४. गमनागमन की, उठाने-धरने की तथा मल-क्षेपण की क्रियाओं के अतिरिक्त, उपदेश देते समय या अपने किसी शिष्य से या अन्य साध से बात करते समय भी यत्नाचार बराबर बना रहता है उन्हें कि उनके मख से कोई भी शब्द ऐसा न निकलने पाए जो कि श्रोता के लिए अहितकारी हो अथवा उसे कुछ बुरा लगे। ५. भोजन ग्रहण करते समय भी बराबर यह यत्नाचार वर्तता है कि भोजन किसी ऐसी वस्तु से अथवा किसी ऐसी रीति से न बनाया गया हो जिसके कारण किसी छोटे या बड़े जीव को पीड़ा पहुँची हो अथवा पहुँचने की सम्भावना हो, या भोजन लेने से किसी अन्य की उदर-पूरणा में बाधा आने की सम्भावना हो, अथवा उनके लिए भोजन बनाने में दातार पर कोई अनावश्यक भार न पडा हो इस प्रकार उत्कष्ट यत्नाचार में प्रवत्त रहते हए उनका जीवन है पर्ण-व्रती. पर्ण-संयमी। ५. षड्-आवश्यक-यह तो हुई शरीर व इन्द्रियों को वश में करने की बात परन्तु मन के प्रति भी असावधान नहीं हैं वे। उसे जीतने के लिये अर्थात् उसे जहाँ तक हो सके अधिकाधिक समय तक अक्षुब्ध रखने के लिये नित्य प्रयास करते रहते हैं वे।१-निश्चित-रूप से दिन में तीन बार सामायिक करते हैं वे, रात को बीच-बीच में जागकर समताभाव जागृत रखने का विचार करते हैं वे, दिन में तीन अवसरों के अतिरिक्त भी अनेकों बार उसी प्रकार के विचार करते रहते हैं, यहाँ तक कि चलते-चलते तथा भोजन करते हुए भी अनेकों बार शान्ति में तन्मय हो जाते हैं वे । जीवन की अन्य प्रवृत्तियों में दुःख-सुख, वन्दक-निन्दक आदि इष्टानिष्ट द्वन्द्व तथा राग-द्वेष न करके साम्यता को ही धारण किये रहते हैं वे, शान्ति को भङ्ग नहीं होने देते वे । २, ३-इस शान्ति में लगने वाले दोषों के लिये अर्थात् राग आ जाए तो उसके लिये सदा आत्मग्लानि पूर्वक अपनी निन्दा करते हैं वे । शान्ति के आदर्श प्रभु की दिन में तीन बार नियम से तथा अन्य भी अनेकों बार शान्त-रस में तल्लीन रहने के लिये स्तुति व वन्दना करते रहते हैं वे। ४–बाहर में दीखने वाले स्थूल दोष उन्हें प्राय: लगते नहीं। कदाचित् अन्तरंग में रागादि के कारण कोई सूक्ष्म-दोष लग जावे तो उस पर मन में खेद करते हैं वे तथा आगे को उनके प्रति सावधानी रखने की प्रतिज्ञा करते हैं अर्थात् प्रतिक्रमण व प्रत्याख्यान करते हैं वे। ५-शेष समय जो बचे उसमें अपने अन्तष्करण का अध्ययन करते रहते हैं अर्थात बराबर मन के प्रति जागते रहते हुए यह देखते रहते हैं कि कहाँ-कहाँ घूम रहा है तथा क्या-क्या विचार रहा है यह । यही उनकी स्वाध्याय है। ६–सामायिक आदि उपर्युक्त क्रियायें करते हुए दिन में या रात्रि को शरीर के प्रति अत्यन्त उपेक्षित होकर, इसकी बाधाओं तथा पीड़ाओं को न गिनते हुए यथाशक्ति कुछ समय के लिये इसे काष्ठवत् त्याग देने का अभ्यास करते हैं वे। घण्टों खड़े रहते हैं या बैठे रहते हैं निश्चेष्ट, अन्तरङ्ग में अपने वास्तविक देह के दर्शन करते हुए। यह कहलाता है कायोत्सर्ग। इन क्रियाओं में सदा तत्पर रहते हैं वे। ये छ: क्रियायें उन्हें पर वश होने से बचाती हैं अर्थात् उनमें राग-प्रवेश के लिये अवकाश आने नहीं देती, इसलिये अत्यन्त आवश्यक समझी जाती हैं और ‘षड्-आवश्यक' संज्ञा को प्राप्त होती हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म ८. अनुप्रेक्षा पँचेन्द्रिय-जय, पँचमहाव्रत, पँचसमिति, छः आवश्यक और सामान्य परिचय में कथित नग्नता आदि सात बाहरी क्रियायें, इस प्रकार २८ मूल-गुणों के धारी वे बराबर बढ़ते जाते हैं आगे ही आगे, उस समय तक जब तक कि संस्कारों का मूलोच्छेद करके इनके बन्धन से मुक्त नहीं हो जाते वे । इनके अतिरिक्त जो तीन गुप्ति, दस धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहजय, पँच चारित्र और बारह तपों का निर्देश किया गया है, अब उनका कथन किया जाता है । २२४ ६. गुप्ति – मन, वचन, व काय को पूर्ण नियन्त्रित रखने का नाम 'गुप्ति' है। वास्तव में इसकी पूर्णता भी ध्यानस्थ अवस्था में ही सम्भव है, जहाँ शरीर निश्चल, वचन से मौन, मन से अन्तर्जल्परूप क्षोभ का अभाव और शान्ति में एकाग्रता पाई जाती है । परन्तु वहाँ से हट जाने पर वह योगी बराबर यह प्रयत्न रखता है कि १ – “ शरीर को हिलाने-डुलाने का काम न करूँगा, यदि करूँगा तो थोड़ा करूँगा और वह भी समिति में बताये अनुसार यनाचार पूर्वक करूँगा। 2- मौन से रहूँगा, यदि बोलना पड़ा तो थोड़ा बोलूँगा और उसमें भी शान्ति व स्व- परहित सम्बन्धी बात ही बोलूँगा, वह भी निष्प्रयोजन न बोलूँगा, प्रयोजनवश भी अत्यन्त मिष्ट भाषा में बोलूँगा । ३ - मन के द्वारा केवल निज शान्ति के अतिरिक्त कुछ न सोचूँगा, यदि सोचना पड़ा तो अधिक देर तक नहीं सोचूँगा, बीच-बीच में लौटकर पुनः पुनः शान्तिको स्पर्श करता रहूँगा। कुछ देर सोचने में भी लौकिक विकल्प न आने दूंगा, शान्ति की प्रेरणा-सम्बन्धी विकल्प ही आने दूंगा" इत्यादि । इस प्रकार हमारी भाँति मन, वचन व काय के आधीन न रहकर उनको अपने आधीन बना लेते हैं वे । जो काम वे चाहेंगे वही उन तीनों को करना पड़ेगा। जो वे नहीं चाहेंगे उसे वे न कर सकेंगे और जो वे तीनों कहेंगे उसे वे (साधु) नहीं करेंगे। हमारी भाँति वे योगी उनके दास नहीं होंगे बल्कि वे तीनों ही होंगे उनके दास और इसलिये वे योगी कहलाते हैं त्रिगुप्ति- गुप्त । कितना महान है उनका पराक्रम व बल ७. धर्म - यद्यपि समता के अभ्यास द्वारा क्रोध, मान, माया लोभ इन चार प्रधान कषायों को अत्यन्त क्षीण कर दिया है उन्होंने और उसी प्रकार पञ्च महाव्रतों की साधना द्वारा असत्य आदि की प्रवृत्तियें भी प्रायः समाप्त हो गई हैं। उनकी । यदि कदाचित् संस्कारवश ये दोष थोड़ा-बहुत सर उभारने का प्रयत्न भी करें तो वह इतना धुन्धला तथा शक्ति हीन होता है कि किसी को यह पता चलने नहीं पाता कि इनमें झलकमात्र भी शेष है उनकी । अर्थात् उनकी शारीरिक, वाचिक अथवा मानसिक किसी भी क्रिया में उनका स्पष्ट आभास नहीं होता । शान्ति-स्वरूप समता हस्तगत हो गई है उन्हें । आत्मा का स्वभाव होने के कारण यही कहलाता है धर्म, जिसके दस अंग हैं, जो कि सहज प्रकट हो जाते हैं उनमें। इनके नाम हैं— क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य और ब्रह्मचर्य क्रमशः हिंसा आदि पञ्च पापों के विरोधी हैं; और तप है निर्जरा के अर्थ की जाने वाली कठोर साधना, इन दोनों भागों के मध्य में स्थित है। ये दस धर्म पृथक्-पृथक् कुछ हों, ऐसा न समझना। एक ही धर्मात्मा के दस लक्षण हैं ये अथवा उसके समतामयी भाव का विश्लेषण मात्र हैं यह । इसी कारण इनको दस-धर्म न कहकर 'दस - लक्षण - धर्म' कहा जाता है, अर्थात् दस-लक्षणों या अङ्गों वाला एक अखण्ड- धर्म, भगवान आत्मा का एक अखण्ड-स्वभाव । यद्यपि उत्कृष्ट रूप से ये परिणाम अन्तर्मुखी साधु-जनों को ही वर्तते हैं, तदपि गृहस्थ जीवन में इनका सर्वथा अभाव हो ऐसा नहीं है । अत: भले ही गृहस्थ अथवा श्रावक-धर्म में इनका उल्लेख न किया हो, तदपि यथोचित रूप में वहाँ भी इन्हें अपनी ओर से लागू कर लेना चाहिये । अर्थात् पूर्वोक्त क्रियाओं के अतिरिक्त आप भी इन्हें यथाशक्ति अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न करें । अशान्ति से आपकी रक्षा करने के लिए ये विशेष रूप से आपके सहायक होंगे। इन दसों भावों के साथ 'उत्तम' विशेषण लगने से इनका महत्त्व बहुत अधिक हो जाता है क्योंकि यह शब्द इन धर्मों के वाच्यार्थ को बाह्य लोक से उठाकर अन्तरङ्ग लोक में ले जाता है । इन दसों धर्मों का विस्तृत विवेचन आगे स्वतन्त्र अधिकारों में किया जाने वाला है । 1 ८. अनुप्रेक्षा- वैराग्य के संरक्षण अथवा उसकी परिवृद्धि के अर्थ संसार, देह, भोगों में निस्सारता देखते हुए, तद्विषयक कुछ तात्त्विक चिन्तवन करने का नाम अनुप्रेक्षा है । १. ये सभी वस्तुयें अनित्य हैं, २. अशरण हैं, ३. जन्म-मरण में अथवा संकल्प विकल्पों में नित्य संसरण कराने वाली हैं । ४. धन, स्त्री, कुटुम्ब आदि कोई तथा कुछ भी यहाँ मेरा नहीं, ५. अकेला ही आया हूँ और अकेला ही जाना पड़ेगा, ६. शरीर से अधिक अशुचि इस जगत में अन्य Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ ३२. साधु धर्म १२. महिमा क्या है, फिर भी इसके प्रति राग क्यों, ७. इस तुच्छ मात्र वस्तु के कारण क्यों नित्य-निरन्तर पुण्य-पापरूप अपराधों के चक्कर में पड़ा हुआ हूँ, ८. इस अपराध या आश्रव से अब बस हो, ९. जिस-किसी भी प्रकार इस अपराध को प्रेरणा देने वाले संस्कारों का विच्छेद हो, १०. बाह्य जगत रूप अथवा अभ्यन्तर जगत रूप ये तीनों लोक परमार्थत: असत्य हैं, अभूतार्थ हैं, ११. कोई भी वस्तु यहाँ ऐसी नहीं जो अनन्तों बार तूने ग्रहण कर-करके न छोड़ दी हो । अत: सभी कुछ सुलभ है, दुर्लभ यदि है तो केवल एक बात और वह है तात्त्विक विवेक । उसी की प्राप्ति में सकल पुरुषार्थ उण्डेल दे, इसी में कल्याण है, १२. यही है तेरा परम कर्तव्य और यही है तेरा स्वभाव या धर्म । इस प्रकार बारह भावनाओं का पुन:-पुन: चिन्तन करते रहना अनुप्रेक्षा कहलाता है, जिसका विस्तार आगे ४५ वें अधिकार में किया जाने वाला है। ९. परिषह जय-परीषह का अर्थ है 'परि+सह' अर्थात् हर प्रकार से सहन करना । कष्ट-सहिष्णुता अथवा तितिक्षा-भाव का नाम ही है परीषह-जय । जीवन में और विशेषत: निराश्रय वृत्तिवाले साधु के जीवन में पग-पग पर अनेकविध पीड़ाओं का मिलना स्वाभावकि है। कभी भूख-प्यास की पीड़ा तो कभी सर्दी-गर्मी की अथवा डांस, मच्छर, मक्खी आदि की पीड़ा; कभी नग्नता की लाज तो कभी रागद्वेष जनित अन्तर्दाह; कभी स्त्री आदि विषयक भोगाभिलाष की जागृति तो कभी अविवेकी जनों के द्वारा प्राप्त अपमान तथा तिरस्कार; कभी बैठने, उठने व सोने की बाधा तो कभी भिक्षा-वृत्ति में प्राप्त लाभालाभ और धुत्कारें; कभी काँटा आदि चुभने का कष्ट तो कभी देह के मैलेपन का अथवा पसीने आदि का दुःख, कभी बुद्धिहीनता की अथवा अल्पज्ञता की चिन्ता तो कभी ऋद्धि-सिद्धियों का लोभ अथवा इन कमियों के कारण धर्म-कर्म छोड़ बैठने की भावना । कहाँ तक कहा जाए, अनन्तों हो सकती हैं पीड़ायें, कुछ दैहिक और कुछ मानसिक । सबको समता-भाव से सहन करते हैं वे, उनका प्रतिकार करने की भी भावना उदित नहीं होने देते वे अपने अन्दर । इस विषय का विस्तार भी आगे ४५वें अधिकार में किया जाने वाला है। १०. चारित्र-जैसा कि दर्शन-खण्ड में बताया जा चुका है, चारित्र का अर्थ है समता। हर परिस्थिति में समता पूर्वक विचरण करते रहना ही अब इनका स्वभाव बन गया है, जिसके लिये अब इनको विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं, इसलिए कहलाता है यह 'सामायिक चारित्र' । श्रावक अवस्था में जिसका प्रतिज्ञाबद्ध होकर अभ्यास करते थे, वही यहाँ आकर बन जाता है उनका स्वभाव और यही धीरे-धीरे परिवृद्ध होता हुआ बन जाता है यथाख्यात अर्थात् अपने तात्त्विक स्वभाव के बिल्कुल अनुरूप । यहाँ आकर समाप्त हो जाती है साधना, पूर्ण हो जाता है योगी, जीवन्मुक्त हो जाता है वह । इसका कथन भी आगे ४६ वें अधिकार में किया जाने वाला है। ११. तप-तप का कथन पहले किया जा चुका है परन्तु वह था गृहस्थ के योग्य केवल उसका सामान्य विवेचन । यहाँ आकर विशेषता को प्राप्त हो जाता है वह, बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भागों में विभक्त हो जाता है वह । बाह्य में अनशन, ऊनोदरी, रस-परित्याग, एकान्तवास तथा आतापन-योग आदि विविध प्रकार के कायक्लेश; और भीतर में प्रायश्चित, विनय वैयावृत्त्य अर्थात् गुरुजनों की सेवा, स्वाध्याय, देहोत्सर्ग और ध्यान । संस्कार-विच्छेद के लिए इन सभी का यथावसर सेवन करते हैं वे, और अत्युग्र रूप में सेवन करते हैं वे। इसका विस्तृत विवेचन आगे 'उत्तम-तप' नामक ४० वें अधिकार में आने वाला है। १२. महिमा-कौन कर सकता है वर्णन साधु की महिमा का। भले ही अज्ञानीजन समझते रहें उन्हें नङ्ग-धड़ङ्ग निर्लज्ज और करते रहें चर्चा परस्पर में उनके पागलपन की; भले उत्पन्न होते रहें उनके मन में ग्लानि, घृणा, लज्जा अथवा दया के भाव उनकी नग्नता के प्रति, उनके मैले-कुचैले शरीर के प्रति, उनकी अस्नान, अदन्त-धोवन आदि अव्यवहारिक वृत्तियों के प्रति; परन्तु ज्ञानीजन जानते हैं उनकी महिमा । भर्तृहरि जैसे विरागी ऋषि भी भावना भाते हैं जिसकी एकाकी निस्पृहः शान्त: पाणिपात्रदिगम्बरः । कंदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मलनक्षमः ॥ "हे शम्भो ! वह कौन सा शुभ दिन होगा जबकि मैं भी इसी प्रकार एकाकी, निस्पृह, शान्त तथा हाथ में रखवाकर आहार करने वाला दिगम्बर साधु होकर वन-वन विचरूँगा, और सकल कर्मों को अथवा संस्कारों को निर्मूल करने के लिये समर्थ हूँगा”, उन संस्कारों को जो कि स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं उन्हें उपनी शान्ति के बाधक, अपने शत्रु । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म २२६ १२. महिमा परन्तु पागल से दीखने वाले इस योगी को क्या परवाह है इनकी ? काबू जो पा लिया है उस वीर ने इन पर । पग-पग पर उनसे सावधान होकर चला जा रहा है वह ? और यदि कदाचित् कुछ आगे बढ़ने का प्रयत्न भी करें वे, कुछ बन्दर-भभकी भी दिखावें वे, तो टूट पड़ता है वह पागल उन पर लेकर बारह अनुप्रेक्षाओं का कोड़ा। सब कुछ सहन कर सकता है वह परन्तु शान्ति में बाधा नहीं, उस शान्ति में जिसकी उपासना के पीछे पागल हुआ भटक रहा है वह. जिसकी प्रगति के लिए इतना उग्र पुरुषार्थ साधा है उसने । किसी मूल्य पर भी अपनी आदर्शभूत मधुर मुस्कान का विरह सहन नहीं कर सकता वह । उसका सकल पुरुषार्थ, उसका सकल पराक्रम चलता है उस संस्कार पर, जिसके पाले पड़ा हुआ है सारा जगत । भला कौन योद्धा है जो जीत सके उसे? अपने को बड़ा बली और वीर योद्धा मानने वाला भी किसी का मात्र कट् शब्द सुन लेने पर अपने अन्दर में उठे क्रोध को दबा सकेगा क्या? किसी सुन्दर र स्त्री के द्वारा फैंके हुए एक तीखे कटाक्ष के प्रहार को सहन कर सकेगा क्या? विह्वल हो उठेगा उसी समय वह । क्रोध के आधीन हो भूल जायेगा अपने को, या मैथुन-संस्कार का मारा लगेगा तड़पने, पानी से बाहर निकाल कर डाली गई मछलीवत् और पता चल जायेगा उसे कि कितना बड़ा वीर है वह, कितना बड़ा योद्धा है वह । हवा खाने चला जायेगा उसका सर्व पराक्रम, उसका सर्व वीरत्व, जिस पर था उसे इतना घमण्ड। खिल्ली उड़ा रही होगी उस समय सामने खड़ी उसके अन्तर-संस्कार की शक्ति कि “बस ! हो गए दम-खतम इतने में ही, जा चूड़ियाँ पहनकर घर में बैठ जा, यह तो बहुत छोटा सा आक्रमण था तेरे ऊपर , इसी से रो पड़ा? नपुंसक कहीं का।" । वीरत्व देखना है तो देखो उस सामने बैठे नंगे-धडंगे योगी की ओर, जिसके शरीर की हड्डी-हड्डी दीख रही है, एक थप्पड़ को भी सहन करने की शक्ति सम्भवत: जिसमें नहीं है। उपरोक्त छोटी-छोटी बातों से तो क्या यदि लोक की सर्व विकारी शक्तियाँ भी एकत्रित होकर आ जायें, तो उसके मुख-मण्डल पर फैली आभा, तेज, मुस्कान तथा शान्ति को बाधित करने में समर्थ न हों, उसके अन्दर में क्रोध या मैथुन-भाव की विह्वलता उत्पन्न करने में समर्थन हों। गृहस्थ श्रावक के विविध सोपानों का धीरे-धीरे अतिक्रम करते हए अभ्यासवश परिवद्ध हो गई उनकी शक्ति. प्रकट हो गया है उनका वीरत्व । शरीर को भी अपना दास बना लिया है आज उन्होंने, उस शरीर को जिसका दास बना हुआ है सारा जगत । सिंह-वृत्ति धारकर ग्राम-ग्राम विचरण करते हैं वे, बिल्कुल अपरिचित वातावरण में जाकर रहते हैं वे, क्षुधादि बाधाओं तथा पीड़ाओं को भी कुछ गिनते नहीं हैं वे, सकल लोक-लाज को छोड़कर द्वार-द्वार से भिक्षा माँगते हैं वे, अनेकों द्वारों पर धुत्कारों से स्वागत किया जाता है उनका पर माथे पर बल नहीं पड़ने देते वे। अति महान है उनकी करुणा । भले महीने भरके भूखें हों, परन्तु दातार के द्वार पर यदि कदाचित् खड़ा दिखाई दे जाये कोई कुत्ता या कोई अन्नार्थी तो तुरन्त लौट आते हैं उसके द्वार पर से, इसलिए कि कहीं मेरे प्रति उपयुक्त हो जाने के कारण वह दातार इन बेचारों को सूखा ही न टाल दे। इनका पेट काटकर खाना उन्हें कदापि स्वीकार नहीं। इसके अतिरिक्त कदाचित् यह सन्देह हो जाए कि इस दातार ने भक्तिवश मेरे निमित्त अपनी बिसात से अधिक कुछ किया है, तो भी चुपके से बना बनाया छोड़कर लौट आते हैं वे वहाँ से, इसलिए कि मेरे निमित्त अनावश्यक भार पड़ा है उस पर । कोटि जिह्वा भी समर्थ नहीं इन महर्षियों के पराक्रम का बखान करने के लिये । कभी ध्यानस्थ होकर निश्चल बैठ जाते हैं वे सर्दी की कड़कड़ाती रातों में नदी किनारे, कभी ज्येष्ठ की चिलचिलाती दोपहरियों में जा बैठते हैं वे पर्वत के शिखर पर, और कभी बरसात की मूसलाधार वर्षा में वृक्ष के नीचे; केवल इसलिए कि शरीर सुख-प्रिय न हो जाय कहीं उनका । शारीरिक ही नहीं मानसिक बाधाओं को भी तुच्छ समझते हैं वे । भले ही कोई गाली दे उन्हें, या करे उनका तिरस्कार, या उपसर्ग करे उनके शरीर पर, तो भी शाप नहीं देते वे उन्हें; विपरीत इसके कल्याण की भावना भाते हैं उनके प्रति । अनेक ऋद्धियों के स्वामी होते हुए भी प्रतिकार करने का प्रयत्न नहीं करते वे उनका। भले ही कठिन तपश्चरण करने के उपरान्त ज्ञान की वृद्धि न हो पावे उन्हें, परन्तु यह विकल्प उदित नहीं होने देते वे अपने मन में कि 'देखो अमुक व्यक्ति तो बिना तपश्चरण किए ही अथवा अल्पमात्र तपश्चरण करके ही, इतना अधिक विद्वान तथा मत्कारी हो गया और इतना उग्र-तपस्वी या धैर्यवान होते हए भी मैं अब तक वहाँ का वहाँ ही हूँ।' सबके प्रति सदा कल्याणमय आशीर्वचन निकलते हैं उनके मुख से। तथा इसी प्रकार अन्य भी अगणित गुण, जिन्हें कहने के लिए मैं समर्थ नहीं । ऐसे परम पवित्र त्यागी हैं पागल से दीखने वाले वे नंग-धडंग बाबा। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. साधु धर्म २२७ १२. महिमा क्यों ? घबरा गया सुनते-सुनते ? सम्भवत: विचारता हो कि इतने कष्ट का जीवन कैसे बिताते होंगे वे और यदि मुझे भी कदाचित् करना पड़ा तो कैसे कर सकूँगा मैं ? परन्तु घबरा नहीं; तू भी उसी सिंह की सन्तान है । जब तक बढ़ता हुआ स्वयं नहीं पहुँच जाता वहाँ तब तक ही घबराहट है, वहाँ पहुँचने के पश्चात् आनन्द ही आनन्द, शान्ति ही शान्ति । भला विचार तो सही कि वे भी तो मनुष्य ही हैं तेरे जैसे, उनका भी तो शरीर है चाम-हाड़ का ही, न कि लोहे का। कष्ट हुआ होता तो कैसे टिक पाते वहाँ ? रणक्षेत्र में अपने शत्रु को पीछे धकेलते क्षत्रीय-योद्धा के शरीर में अनेकों बाण लगे हों, लहू बह रहा हो परन्तु उस समय उसको पीड़ा होती है क्या ? यह योगी तो है अलौकिक वीर, उपरोक्त सर्व उपसर्ग व परीषह सहने में उसे कष्ट क्यों होने लगा, वह उनसे क्यों डरने लगा ? शान्ति-रसपान में मग्न चला जा रहा है वह। QuN “रूपातीत शुक्ल ध्यान में स्थित नीरंग, निस्तरंग, शून्य चित्त ध्यानस्थ साधु ।” Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह १. दिगम्बरत्व; २. लंगोटी भी भार; ३. लक्ष्यपूर्ति; ४. अपरिग्रहता साम्यवाद; ५. आंशिक अपरिग्रहता; । ६. परिग्रह स्वयं दुःख; ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख। १. दिगम्बरत्व-भवार्णव के सन्ताप से विह्वल हुआ मैं, आज परम सौभाग्य से शान्ति के प्रतीक वीतरागी गुरुओं की शीतल शरण को प्राप्त करके, अपने को धन्य मानता हूँ, सन्तुष्ट व कृतकृत्य अनुभव करता हूँ, मानो आज मुझको गुरुओं का वह प्रसाद प्राप्त हुआ है जिसकी खोज में कि मैं कहाँ-कहाँ नहीं भटका ? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा हरितकाय के शरीर में रह-रहकर मैंने जिसकी खोज की; लट, चींटी, मक्खी , गाय, कबूतर, मछली आदि के शरीर रहकर जिसकी मैंने खोज की, अनन्त बार मनुष्यों के शरीर में रह-रह कर जिसकी मैंने खोज की और देवों के शरीरों में रह-रहकर जिसकी मैंने खोज की; परन्तु इतना करने पर भी जिसे मैं न पा सका, आज उसे पाने की पूर्ण आशा है। यह आज अकस्मात् ही मैं कहाँ आ गया हूँ, किनको देख रहा हूँ अपने सामने ? शान्त छवि धारण किये, रोम-रोम से शान्ति का प्रसार करने वाले ये कौन हैं ? एक मधुर व शान्त मुस्कान के द्वारा मेरा हृदय मुझसे छीनने का प्रयत्न करने वाले ये कौन हैं? धागे का एक ताना मात्र अपने शरीर पर न रखते हुये भी अत्यन्त प्रसन्नचित्त ये महात्मा कौन हैं? किस देश के वासी हैं ये? कैसा विचित्र है जीवन इनका, कैसी आकर्षक है आभा इनकी? यह सब स्वप्न तो नहीं? नहीं, पुन: पुन: आँखें मल-मलकर देखने पर भी ये वही तो हैं । धोखा नहीं सत्य है यह, परम सत्य। ये हैं वे योगी, जो राज्य-घरानों में पले, जिन्होंने कभी मखमल के गद्दों से पाँव नीचे नहीं उतारा, जिनको धान का एक तुषमात्र भी बिस्तर पर पड़ा न सुहाया, जो रत्नों के प्रकाश में पले, परन्तु आज? कुछ दुःखी से लगते हैं, तुझे, कुछ निर्लज्ज से प्रतीत होते हैं तुझे, कुछ असभ्य से प्रतीत होते हैं तुझे? इस नग्न शरीर पर अग्नि बरसाती तथा वनों में दावाग्नि उत्पन्न करती ज्येष्ठ की लू व धूप, पोष माघ की सर्दी का बड़े-बड़े वृक्षों को फूंक डालने वाला तुषार, बरसात का मूसलाधार पानी, सैंकड़ों मच्छरों के तीखे डंकों द्वारा एकदम किया गया प्रहार, मक्खियों की अठखेलियों के कारण होने वाला उत्पात आदि सब प्राकृतिक प्रकोपों को सहने के कारण, अरे रे ! इनका सा दुःखी आज कौन है? शरीर पर जमी मैल बता रही है कि वर्षों से स्नान भी सम्भवत: इन्होंने किया नहीं। इस मैल के कारण उत्पन्न हुई खाज से अवश्य ही व्याकुल हो रहे होंगे ये? घरबार के बिना खुले आकाश के नीचे, बीहड़ वनों में भयानक जन्तुओं की चीत्कार से इनको अवश्य भय लगता होगा? पेटभर खाने पीने के लिये भी तो इनके पास कोई साधन नहीं। अरे रे ! कितने दुःखी हैं बेचारे । चलूँ इनसे पूछू तो सही कि क्या चाहिये इन्हें ? आज मैं सर्व समर्थ हूँ, जो चाहिए दूँ। मैं इन्हें इस दशा में देख नहीं सकता। दया से मानो हृदय पिघलकर बह निकला है मेरा। “और फिर नंगे-धडंगे, स्त्रियों के बीच में इस प्रकार बैठे रहना. नगर में विहार करते हय नग्न-रूप में इस स्त्रियों के सामने से निकलना, बिना स्नान के मैला-कुचैला रहना, कुछ अच्छा भी तो नहीं लगता। कोई क्या विचारेगा? नहीं, नहीं यह पुरुषों का अपमान है, यह मनुष्य मात्र के नाम पर कलंक है, मैं यह सहन न कर सकूगा, इन्हें मेरी बात माननी ही होगी। यदि इनके पास कुछ नहीं है तो मैं इनकी आवश्यकताओं को पूरी करूँगा। अरे ! परन्तु इनसे यह तो पूछु कि ये कौन हैं, और यहाँ खाली बैठे क्या करते हैं ? पुरुष का महत्व पुरुषार्थ से है । इस प्रकार खाली बैठे रहना ही यदि इनका लक्ष्य है, तो अवश्य यह जीवन में आवश्यक तथा योग्य व्यापार-धन्धे के कर्त्तव्य से पराङमुख होकर. परुषार्थ से घबराकर भागा हआ कोई नपंसक है। इतनी कायरता? परुष का रूप धारे क्या इसे इस कायरपने से लज्जा नहीं आती? तू कहाँ तक सहायता करता फिरेगा ऐसों की जो अपने कर्तव्य को भूले हैं। ये मनुष्य तो हैं ही नहीं पर तिर्यंच भी नहीं हैं । पृथ्वी के ऊपर भार हैं, देश के कलंक हैं। इनको अवश्य कुछ न कुछ करना चाहिये । स्वयं न करे तो भी इन्हें बलात् करना पड़ेगा। अपाहिज भी तो नहीं है, हृष्ट-पुष्ट शरीर और फिर यह हालत? आज जबकि Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह २२९ १. दिगम्बरत्व विश्व आगे बढ़ा जा रहा है, भारत में ऐसे फकीरों के लिये कोई स्थान नहीं होना चाहिये। ये घृणा के पात्र हैं। भारत सरकार को अवश्य इनको काम पर लगाने का प्रबन्ध करना चाहिये । और इस प्रकार भक्ति, दया व घृणा के हिण्डोले में झूलता हुआ तू क्या कुछ नहीं सोच रहा है इनके सम्बन्ध में, पूर्ण अहिंसाधारी वीर के सम्बन्ध में? परन्तु डर मत ! जिस नग्नता में तुझे कष्ट व दु:ख दिखाई दे रहा है, वहाँ दुःख है ही नहीं, वहाँ तो है शान्ति, विकल्पों का अभाव, इच्छाओं का निरोध, चिन्ताओं से मुक्ति । शान्ति के उस मधुर आस्वाद में, बाहर की इन तुच्छ बाधाओं की क्या गिनती? गरमी, सर्दी, बरसात, मच्छर, मक्खी, शरीर पर मैल आदि की बाधायें उसी समय तक बाधायें हैं जब तक कि शान्ति रस का आस्वाद आता नहीं। तेरे हृदय में उत्पन्न हुआ यह करुणा का भाव तेरे लिये ठीक ही है क्योंकि उस मधुर स्वाद की अनुपस्थिति में लौकिक जीवन की ये बाधायें स्वभावत: बड़ी दिखाई दिया ही करती हैं, परन्तु उनमें यदि शान्ति का स्वाद आने लगे तो ऐसा नहीं हुआ करता । सुगन्धि पर मस्त हुआ भंवरा क्या फूल के बन्द होने की बाधा को गिनता है उस समय? प्रकाश पर लुभायमान पतंग क्या अग्नि की दाह से घबराता है उस समय? मार खाते हुये भी क्या बिल्ली अपने पंजे में आये हुये चूहे को छोड़ देती है ? मैथुन सेवन के समय पर स्त्रीगामी मनुष्य उसके स्वामी की आवाज सुन लेने पर भी क्या उससे आने वाले भय को गिनता है ? किसी सौदे में बहुत बड़े लाभ का समाचार आने पर क्या तू टांग की पीड़ा से भय खाता है उधर जाने के लिये? कन्या के विवाह के अवसर पर क्या तुझे सर्दी या गरमी लगती है इधर-उधर दौड़ते हुये? तो भला इस अलौकिक स्वाद के वेदन में साक्षात् मग्न, उन्हें सर्दी-गरमी आदि बाधायें क्यों लगें? उनका भान भी होने नहीं पाता यहाँ। अत: उन पर तेरा करुणा-भाव निरर्थक है। तू भी इन बाधाओं से भय खाकर अपरिग्रहता से मत डर । इसमें से तुझे सुख व शान्ति मिलेगी दुःख नहीं। नग्नता को देखकर तेरे अन्दर जो लज्जा-भाव प्रकट हुआ है, वह भी इस आस्वादन में निस्सार है। नग्नता में लज्जा को अवकाश उसी जगह है जहाँ मन के अन्दर विकार हो । मन विकृत होने पर नग्न रहने वाले को स्वयं लज्जा प्रतीत होगी और उसे देखने वाले को भी। परन्तु जहाँ लज्जा का स्थान शान्ति व साम्यता ने लिया, जहाँ पुरुष व स्त्रीपने का भेद दीखना बन्द हो गया, जहाँ मनुष्य, तिर्यंच, देव व नारकी में कोई भेद न रहा, जहाँ सर्वत्र निज जाति-स्वरूप चैतन्य का ऐश्वर्य दृष्टिगत होने लगा, जहाँ द्वैतभाव का विनाश हुआ, स्त्री व माता का भेद मिट गया, पिता व पुत्र एक दीखने लगे, एक ब्रह्म ही मानो सर्वत्र व्यापक रूप से. दीखने लगा, वहाँ कहाँ अवकाश है चित्त-विकार को तथा नग्नता-सम्बन्धी लज्जा को? साम्य-भाव के मन्दिर, रोम-रोम से शान्ति प्रवाहित करते, अपरिग्रहता के आदर्श-स्वरूप, उस नग्न शरीर को देखकर देखने वाले की दृष्टि उसकी नग्नता पर जाएगी ही क्यों? वह तो दर्शन करेगा उसमें अपनी इष्ट शान्ति के। एक दृष्टान्त है, श्रीमदभागवत पुराण का। महर्षि वेदव्यासजी के पुत्र श्री शुकदेवजी आगर्भ-दिगम्बर थे, परम वीतरागी तत्वज्ञ थे। चले जाते.थे शून्य-चित्त । हृदय में था केवल एक ही भाव, शान्ति तथा समता । नदी के किनारे से गुजरे । कुछ स्त्रियें स्नान कर रही थीं वहाँ । पर उन्हें क्या? और वे स्त्रियें भी स्नान करती रही उसी प्रकार । न भय, न लज्जा । कुछ ही देर पश्चात् आये उनके पिता श्री वेदव्यास जी, सौ वर्ष के वृद्ध । स्त्रिये शर्मा गईं और प्रयत्न करने लगीं अपने शरीरों को ढांपने का । ऋषि ने पूछा, “हे माताओं ! अभी-अभी मेरा २५ वर्षीय युवक पुत्र गुजरा, तब तो तन ढांपने की चिन्ता नहीं की तुमने और अब मैं इतना वृद्ध व्यक्ति गुजरा तो इस प्रकार सकुचा गई हो तुम?" स्त्रियों ने उत्तर दिया, “क्षमा कीजिए भगवन् ! आपसे लज्जित होने का कारण स्वयं आपके चित्त में छिपा वह विकृत भाव है, जिसके आश्रय पर आपने हमारी ओर लक्ष्य करके हमारी लज्जा को ताड़ लिया और आपके पुत्र से लज्जा न करने का कारण उसके चित्त की वह शून्यता है जिसके कारण वह सम्भवत: यह भी न जान पाया कि उसके अतिरिक्त यहाँ और भी कोई है।" दूसरे ढंग से भी, क्या आपने स्वयं आज से ५० वर्ष पूर्व १० वर्ष तक के नग्न बालकों को उस ही अवस्था की नग्न बालिकाओं के साथ खेलते नहीं देखा है ? उस समय उन बालक-बालिकाओं को तथा आपको भी नग्नता देखकर Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह २३० ३. लक्ष्य-पूर्ति लज्जा नहीं आती थी, परन्तु आज क्या ऐसा देख सकना आप गवारा कर सकते हैं ? नहीं । कारण कि १० वर्ष तक के बालकों में भी अब विकार उत्पन्न हो चुका है, आपके हृदय भी आज उतने पवित्र नहीं हैं। तभी तो आज नवजात शिशु को लंगोट लगाने की आवश्यकता पड़ती है। परन्तु जिनका हृदय इन विकृत भावों से सर्वथा पवित्र हो चुका है तथा साम्यता का जिनके हृदय में वास हो चुका है, उन्हें लज्जा से क्या प्रयोजन? तन के मैल को देखकर ग्लानि उत्पन्न होना भी तेरे मन का विकार है । जिनकी दृष्टि में शरीर की अपवित्रता प्रत्यक्ष भासती है, उन्हें स्नान करने से क्या प्रयोजन? विष्टा के घड़े को ऊपर से धोने से क्या लाभ? बाहर से इसका पवित्र होना असम्भव है। इस शरीर रूपी मन्दिर की पवित्रता तो इसके अन्दर बैठे देव की पवित्रता से है । यह सुगन्धित है उसकी सुगन्धि से अर्थात् आत्म-शान्ति, सरलता व साम्यता ही इसकी वास्तविक पवित्रता है। जो नित्य ही इस सद्गुणरूपी अनुपम गंगा में स्नान करते हैं उन्हें इस बाह्य स्नान से क्या प्रयोजन? यह शरीर जिनके लिये परिग्रह बन चुका है, इसमें जिनको पृथकत्व भासने लगा है, यह जिनको अपने लिये कुछ भार दीखने लगा है, वे उसकी सेवा में अपना समय व्यर्थ क्यों खोयें, स्नान के लिये जल आदि विषयक विकल्प द्वारा चित्त में अशान्ति क्यों उत्पन्न करें? उनको तो भोजन करना भी बेगार लगता है । वे बराबर उस समय की प्रतीक्षा में हैं जबकि वे निराहार रह सकें और इसीलिये महीनों महीनों के उपवास करके भी अपनी शान्ति से विचलित नहीं होते । इसी प्रकार अन्य अनेकों विकल्प भी खड़े नहीं रह सकते यदि शान्ति व वीतरागता में रंगी नग्नता का मूल्य समझ लिया जाय तो। इस नग्नता का मूल्य समझा था ऋषि भर्तृहरि ने, जो अभी तक यद्यपि दिगम्बर साधु नहीं हुये थे, पर शीघ्रातिशीघ्र वैसा होने की भावना करते थे। २. लंगोटी भी भार-“लंगोटी रख लें तो क्या हर्ज है ? छोटी सी बात है, कोई विशेष हानि भी नहीं है? ऐसा प्रश्न उपस्थित हो सकता है। भाई ! तेरी दृष्टि शरीर को ही देख पा रही है, शान्ति पर वह अब तक नहीं पहुँच सकी है। यदि पहुँच पाती तो यह प्रश्न ही न होता। तू लंगोटी मात्र को न देखकर, देखता उस लंगोटी की रक्षा-सम्बन्धी विकल्पों को जो उसके होने पर चित्त में उत्पन्न हुये बिना नहीं रह सकते । इस सम्बन्धी वह कथा आप सबको याद है जिसमें एक लंगोटी की रक्षा के लिये साधु महाराज को पहले बिल्ली, फिर कुत्ता, फिर बकरी और फिर गाय बांधने की नौबत आई, और गाय के एक खेत में घुस जाने पर महाराज को जेल के दर्शन करने पड़े । अन्य भी एक दृष्टान्त है उस साधु का जो घर-घर से एक-एक रोटी मांगकर खा लेते थे तथा इसी प्रकार अपना पेट भर लिया करते थे। हाथ में ही किसी से पानी मांगकर पी लेते थे परन्तु जिन्हें एक कटोरी रखना भी गवारा न था। एक भक्त के कहने पर उन्होंने बहुत सस्ती सी एलुमीनियम की एक कटोरी पानी पीने के लिये स्वीकार कर ली। एक दिन संध्या के समय जंगल में जाते समय कटोरी शिवालय के बाहर पड़ी रह गई, जिसकी याद उनको आई उस समय जबकि शिवालय से एक मील दूर बैठे वे संध्या कर रहे थे। बस फिर क्या था, संध्या सम्बन्धी शान्ति भंग हो गई, उसका स्थान ले लिया कटोरी सम्बन्धी विकल्पों ने । कोई उसे उठा ले गया तो ? हाय-हाय ! उनका चित्त रो उठा, संध्या छोड़ दी और दौडे हुये मन्दिर के द्वार पर आये, कटोरी वहीं पड़ी थी। बड़ा क्रोध आया अपनी भूलपर, यदि कटोरी न होती तो शान्ति काहे को भंग होती। अपनी भूल पर पछताये और कटोरी को तोड़कर फेंक दिया जिसके कारण कि उनकी शान्ति भंग हुई थी। भाई ! शान्ति का मूल्यांकन हो जाने पर ये सब वस्तुएँ यहाँ तक कि लंगोटी मात्र भी व्याकुलता का घर दिखाई देने लगती है, शान्ति की रक्षा करने के लिये वे सर्वस्व न्योछावर करने को तैयार हैं।" ३.लक्ष्य-पर्ति-परन्तु यह क्या? विचार-धारा में बहते हये स्वयं अपने को, मधर मस्कान के अलौकिक आकर्षण को तथा उन महात्मा के मस्तक पर प्रकटे तेज को भूलकर क्या सोच रहा है तू? भो चेतन ! कहाँ जा रहा है तू देख एक बार पुन: उसी दृष्टि से उस शान्त रस की ओर, और मिलान कर अपने अन्तरंग में प्रकटे इस तूफान के साथ उनके अन्तरंग में स्थित शान्ति-सुधासागर का। भावनाओं के आवेश में तूने क्या-क्या विचारा और व्याकुल चित्त हो अविवेक पूर्वक क्या-क्या कह डाला, परन्तु उधर वही शान्ति, वही मुस्कान, वही आकर्षण । तनिक भी तो बाधा नहीं पड़ी उधर, किञ्चित् भी तो क्षोभ या भय दिखाई नहीं देता उधर । निर्भीक, नि:शंक, निराकांक्ष, ग्लानि-रहित, निज-शान्ति में मग्न, वे अब भी मानो तेरी व्यथा पर करुणा करके अपने जीवन से प्रेरणा दे रहे हैं तुझे, शान्ति का रसास्वादन करने की । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह २३१ ३. लक्ष्य-पूर्ति ___“भो चेतन ! अन्तर-उद्वेग को एक क्षण के लिये शान्त करके सुन तो सही कि मैं क्या कहता हूँ। यह तेरे कल्याण की बात है, शान्त-चित्त होकर सुनेगा तो अवश्य तुझे कुछ अच्छी लगेगी। अपने कल्याण की बात, अपने हित की बात, अपने सुख की बात सुनकर कौन ऐसा है जो उसकी अवहेलना करे? अपनी शान्ति से भटक कर अनेक-विध विकल्प जाल का निर्माण करता हुआ तू स्वयं उसमें उलझा जा रहा है। परन्तु इस दशा में भी मैं प्रत्यक्ष देख रहा हूँ कि उस शान्ति के प्रति तेरे चित्त में प्रथम क्षण उत्पन्न हुआ वह आकर्षण अब तक विलीन नहीं हो पाया है। उस आकर्षण को, उस जिज्ञासा को अपने हृदय में टटोलकर, उसके बहुमान-पूर्वक एक बार तो मेरी बात सुन ।” _ भो चेतन ! कभी भक्ति कभी दया और कभी घृणा के जो अनेक विकल्प इस थोड़ी देर में तेरे चित्त में उत्पन्न होकर स्वयं तुझे व्याकुल बना तेरी शान्ति तुझसे छीनकर ले गए, तेरे घर में डाका डालकर तेरा सर्वस्व हरण करके ले गए, तुझको भिखारी व दु:खी बना गए, उनका कारण तेरी अपनी ही कोई भूल है, कोई दूसरा नहीं। वह भूल, जिसके कारण कि त अनादि से इसी विकल्प सागर के थपेडे सहता चला आ रहा है। परन्त आज सौभाग्यवश तझे जो यह सम्बल दिखाई पड़ा है, अब इसको मत छोड़। उस अपनी भूल के कारण आज तुझे यह भी याद नहीं रहा कि जिसको अपने सामने देखकर तू भक्तिवश नत-मस्तक हो गया था, वह कोई और नहीं है, वही तेरा पुराना साथी है, जिसके साथ अपने पूर्व-भवों में प्रेम सहित तू खेला करता था तथा द्वेषवश जिसे तू चिड़ा-चिड़ाकर तंग किया करता था। स्पर्शन इन्द्रिय से संतप्त हो अनेकों बार जिसके शरीर को तूने खडडी पर बुना और भट्टी में पकाया। जिह्वा इन्द्रिय की मार को न सह सकने के कारण, जिसके शरीर को अनेकों बार तूने कोल्हू में पेला, छुरी से काटा, बन्दूक की गोली से छेदा और कढ़ाई में तला । नासिका-इन्द्रिय का दास हो जिसके शरीर को तूने अनेकों बार भभके में डालकर उबाला । नेत्र इन्द्रिय के द्वारा मूर्छित हो जिसके शरीर को तूने अनेकों बार भूसा भर-भरकर अपने कमरों को सजाया । कर्ण-इन्द्रिय से जीते गए तूने जिसके शरीर को अनेकों बार जन्त्री में से खींचा, छेदा व भेदा तथा और भी बहुत कुछ किया। वही मैं आज तेरे सामने इस रूप में विद्यमान हूँ। परन्तु घबरा नहीं, भय न कर, आज मैं तुझसे बदला लेने को नहीं आया हूँ, मेरे हृदय में अब किसी के प्रति भी द्वेष नहीं है, वे पहले की बातें अब मैं बिल्कुल भूल चुका हूँ, मुझ पर विश्वास कर । यदि पहले की भाँति द्वेषादि भाव बनाए रखे होता तो तुझे आज मुझमें इस शान्ति के दर्शन न हो पाते । यह शान्ति ही तुझे सच्चाई की गवाही देकर विश्वास दिलाने को पर्याप्त है । मैं किसी और देश का निवासी नहीं हूँ, उसी लोक का निवासी हूँ तथा था जिसका कि तू है । तू स्वप्न नहीं देख रहा है, जो देख रहा है वह सत्य है, परम सत्य।" 'परन्तु यह महान अन्तर कैसा? आप इतने शान्त और मैं वैसा का वैसा?' तेरे अन्तर में उत्पन्न होने वाला यह प्रश्न स्वाभाविक ही है क्योंकि अन्तर स्पष्ट है । इस अन्तर को देखकर यदि मेरी इस शान्ति में तुझे कुछ सार दिखाई देता है तो तू यह पूछ कि क्या किसी प्रकार तुझे भी यह प्राप्त हो सकती है? हाँ-हाँ, अवश्य हो सकती है । ध्यान-पूर्वक विचार, तेरे द्वारा बराबर बाधित किए जाने वाले नि:शक्त तथा बलहीन तेरे साथी ने अर्थात् मैंने जब उसे प्राप्त कर लिया तो इस ऊँची. सर्वसमर्थ तथा बद्धिशाली मनुष्य-अवस्था में स्थित क्या तेरे लिये इसका प्राप्त करना कठिन है? नहीं, तेरे लिये तो बड़ा सहज है। मुझको तो उपाय बताने वाला भी कोई नहीं था और तुझको तो मैं उपाय बता रहा हूँ, वही उप य जिसको मैंने अपने जीवन में अपनाया था। उसी उपाय का अनसरण करके अपने जीवन में मेरे कहे अनुसार कुछ फेर-फार कर, भूल व भ्रम को छोड़, धैर्य रख, साहस कर, आज ही से उसे जीवन में उतारने का प्रयत्न कर । प्रत्येक जीव बराबर की सामर्थ्य नहीं रखता, किसी में शक्ति अधिक होती है और किसी में कम । यदि तुझमें शक्ति की हीनता है तो भी मत घबरा, बड़ा सहज उपाय बताऊँगा जिसको अल्प शक्ति का धारी भी कर सकता है। परन्तु एक बार ऐसा होने का लक्ष्य अवश्य बनाना होगा, जैसा कि मैं हूँ। ___लक्ष्य पूर्णता का होता है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्रम-पूर्वक । लक्ष्य एक क्षण में कर लिया जा सकता है परन्तु प्राप्ति शनै: शनै: हीनाधिक समय में होती है । लक्ष्य बनाने से जीवन में बाधा नहीं आती किन्तु उसकी सिद्धि के लिये जीवन में कुछ परिवर्तन लाना होता है। उपाय प्रारम्भ करने अर्थात् मार्ग पर प्रथम पग रखने से पहले लक्ष्य बना पूर्णता का, जीवन के उस आदर्श का जिसे कि तू मुझमें देख रहा है अर्थात् सर्व-संग विमुक्तता, निरीहता, अपरिग्रहता। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह २३२ ४. अपरिग्रहता साम्यवाद ४. अपरिग्रहता साम्यवाद — वह अपरिग्रहता जो संयमियों अथवा संन्यासियों की ही नहीं, राष्ट्र तथा समाज की भी सर्व-प्रधान आवश्यकता है। यह दृष्टि है वह जिसमें सर्व लोक अपना कुटुम्ब भासने लगता है, जिसकी विश्व आज माँग कर रहा है, जिसने रूस में जन्म पाया और बड़ी तीव्र गति से विश्व में फैल गई, जिसको इतने बड़े राष्ट्र चीन ने अपनाया और जिसकी ओर धीरे-धीरे हमारा भारत देश भी अब बढ़ रहा है। इतना ही नहीं बल्कि समस्त विश्व का अन्तष्करण आज जिसको स्वीकार कर रहा है तथा शीघ्रातिशीघ्र जिसके प्रचार की प्रतीक्षा की जा रही है। वह दृष्टि है साम्यवाद (कॉम्यूनिजम) अर्थात् सभी को समान अधिकार दिलाना । शान्ति के उस पुजारी के हृदय में जिसे तू आज अपने आदर्श रूप में अपने सामने देख रहा है तथा भ्रमवश जिसे तूने अकर्मण्य तथा पृथ्वी का भार मान लिया था, स्वयं एक क्रान्ति उत्पन्न हुई । जिस प्रकार चार व्यक्तियों वाले अपने कुटुम्ब की आवश्यकताओं को पूरी करने के पश्चात् ही आप अपनी आवश्यकता का विचार करते हैं, जिस प्रकार अपने कुटुम्ब की प्रसन्नता में ही आप अपनी प्रसन्नता मानते हैं, उसके सुख में ही अपना सुख समझते हैं तथा उसके लिए अपना सर्वस्व त्यागकर भी आपको सन्तोष होता है; उसी प्रकार वह योगी जिसकी दृष्टि में साम्यता ने वास किया है, सर्व ओर से निराश हुई शान्ति ने जिसका आश्रय लिया है, जिसको सर्वत्र अपना ही रूप दिखाई देता है, जिसके लिए सर्व सृष्टि एक ब्रह्मस्वरूप हो गई है, जिसको सर्व प्राणी ईश्वर के आवास भासते हैं, जिसके लिए समस्त विश्व उसका कुटुम्ब है, (दे० २६.१०) जिसके लिये कुटुम्ब में से किसी एक की भी पीड़ा उसकी अपनी पीड़ा है और किसी एक का भी सुख उसका अपना सुख है यदि वह इस विश्व के लिए अपना सर्वस्व त्याग दे तो क्या आश्चर्य की बात है ? तेरी दृष्टि संकुचित है, इसी से उसके अन्तर- परिणामों का परिचय पाने में असमर्थ है। वह विश्व का पिता है, अपनी सम्पूर्ण आवश्यकताओं को विश्व की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये बलिदान कर देने में उसे प्रसन्नता ही होती है, क्योंकि उसने यह कार्य किसी के दबाव से नहीं किया है, स्वयं विश्व के प्रति अपने कर्त्तव्य को पहिचान कर किया है। इसी भाव का स्पष्ट चित्रण आगे 'उत्तम त्याग' वाले ४२वें अधिकार में किया गया है। भला ऐसा विश्व पिता क्या पृथ्वी का भार हो सकता है ? यह शब्द कहना तो दूर सुनते हुए भी कलेजा काँप उठता है । जिसने विश्व के लिए अपना सर्वस्व त्याग दिया, वह पृथ्वी का भार नहीं बल्कि पृथ्वी का गौरव है, पृथ्वी के पापों का, इसके अपराधों का व शापों का भार दूर करने वाला है 1 आज विश्व भौतिक दृष्टि से उन्नति के पथ पर प्रगति करते हुए भी शान्ति की दृष्टि से अवनति की ओर जा रहा है । चारों ओर त्राहि-त्राहि मची है, नित्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति के योग्य पर्याप्त सामग्री के अभाव में असन्तोष बढ़ता जा रहा है। एक दूसरे की ओर संशय की दृष्टि से, भय की दृष्टि से देख रहा है। एक व्यक्ति दूसरे की सम्पत्ति की ओर लालच की दृष्टि से देख रहा है। आकाश पर छाये हुए युद्ध के बादलों ने सब ओर अन्धकार कर दिया है। विश्व जीवन व मृत्यु के झूले में झूल रहा है और निराश - सा खड़ा अपने दिन गिन रहा है। दूसरी ओर अट्टहास करती मृत्यु अपनी अनेकों शक्तियों को साथ लिये भय का प्रसार कर रही है। जीवन भार बन चुका है। कैसी दयनीय अवस्था है इसकी आज ? अपरिग्रहता ही इसका प्रतिकार है अन्य कुछ नहीं । वीतरागी व शान्तमुद्रा इन योगी-जनों को पृथ्वी का भार बताने वाले, ओ कृतघ्नी मानव ! अब भी सम्भल । यदि जीवन चाहता है तो अपनी भूल पर पश्चाताप कर । जगत के भार को हरने वाले उन योगियों के अभाव के कारण ही वास्तव में आज जगत का भार बढ़ गया है और यदि अपने वचनों को वापिस लेकर तूने पश्चाताप न किया तो car ही डूबे बिना न रहेगा। 'यह जगत को क्या दे रहा है ?' यह प्रश्न भी बड़ा असंगत है क्योंकि वास्तव में 'वह' वह कुछ दे रहा है जो कोई नहीं दे सकता, सुख का उपाय, एक जीवन- आदर्श, जिस पर चलकर आज का मानव तथा समस्त विश्व इस भावी- मृत्यु से अपनी रक्षा कर सकता है; वह सन्देश जिसका मूल्य त्रिलोक की सम्पत्ति से भी चुकाया नहीं जा सकता। यदि कोई उस सन्देश को ग्रहण न करे तो उनका क्या दोष ? 'किसी अच्छी बात को यदि दूसरा कोई ग्रहण न करे तो वह भी उसको छोड़ दे' यह कोई न्याय नहीं । डराने के लिए यह बात कही जा रही हो, ऐसा नहीं है बल्कि सैद्धान्तिक सत्य बताया जा रहा है। अपरिग्रही जीवन से साक्षात् अभाव के कारण तथा उस आदर्श के प्रति बहुमान के स्थान पर घृणा प्रवेश हो जाने के कारण ही Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह ५. आंशिक अपरिग्रहता आज का मानव, दूसरे के प्रति अपने कर्त्तत्य से विमुख हुआ, अत्यन्त स्वार्थी बना, दूसरों की आवश्यकताओं की परवाह न करता हुआ, दूसरों की शान्ति को पद-दलित करता हुआ, भूला हुआ, अपनी शान्ति की खोज करने का जो प्रयास कर रहा है, क्या उसमें फल लगना सम्भव है ? कदापि नहीं, दूसरों की शान्ति को बाधित करके न कोई शान्त रहा है और न रह सकेगा। लालच की बढ़ती ज्वाला तथा अधिकाधिक सञ्चय की भावना स्वयं उसको भस्म कर देगी। इस अग्नि को सन्तोष जल के द्वारा ही बुझाया जा सकता है, एटमबम के द्वारा नहीं । अपरिग्रह के आदर्श-भूत योगियों के प्रति बहमान के न रहने के कारण ही मैं अपनी दैवी संस्कृति को भूलकर आसुरी संस्कृति अपनाने दौड़ रहा हूँ। केवल शत्रुता, असन्तोष, चिन्तायें व भय ही मानो आज मेरा गौरव बन गया है। भो प्राणी ! तनिक विचार तो सही कि कब तक चलेगी यह अवस्था ? तू नहीं तो तेरी सन्तान इसके दुष्परिणाम से बची न रह सकेगी। आज हमारी भारत सरकार भी देश में इस असन्तोष के बढ़ते हुए वेग की रोकथाम करने के लिये अनेकों नियम लागू करती जा रही है जो तुझे आज अच्छे प्रतीत नहीं होते । क्यों हों, संग्रह किया हुआ है न तूने ? पूजीपति जो ठहरा तू, तुझे क्या परवाह दूसरे की आवश्यकताओं की ? तेरा हृदय उन नियमों के विरुद्ध उपद्रव करने के लिये प्रेरित कर रहा है तुझे, पर क्या करे साहस नहीं । तेरे विचार वाले देश में हैं ही कितने ? धिक्कार है उस स्वार्थ को जिसने तेरे ही भाइयों के प्रति तुझे इतना हृदय-शून्य बना दिया। अब भी सम्भल, भले कोई और न समझे तू तो समझ। तझको अपरिग्रही गुरुओं की शरण प्राप्त हई है, तेरे हृदय में इस आदर्श के प्रति बहमान उत्पन्न हआ है, त इन्हें पृथ्वी का भार कहने के लिए तैयार नहीं, तूने उनको भव-समुद्र में पड़ी नौका का खेवनहार स्वीकार किया है । इस आदर्श से तू कुछ ग्रहण कर । आदर्श का सच्चा बहुमान वही है जो जीवन को उस ओर झुका दे, केवल शब्दों में कहने का या पाठ पढ़ने का नाम भक्ति व बहुमान नहीं है । यह आदर्श मूक-भाषा में तुझे अपरिग्रहता का पाठ पढ़ा रहा है। परिग्रह अर्थात् परि + ग्रहण । 'परि' अर्थात् 'समन्तात्' सर्व ओर से ग्रहण । दसों दिशाओं से, हर प्रकार, न्याय-अन्याय तथा योग्यायोग्य के विवेक बिना, निज चैतन्य के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के ग्रहण की भावना व इच्छा परिग्रह है। इस इच्छा का त्याग सो अपरिग्रह । केवल पदार्थ का नाम परिग्रह नहीं बल्कि उसके ग्रहण की इच्छा का नाम परिग्रह है । यदि ऐसा न हो तो अत्यन्त असन्तोषी जीवन बिताने वाले निर्धन-जन भी अपरिग्रही कहलायेंगे। परन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि यह परिग्रह-निषेध वास्तव में पदार्थों के लिए या आदर्श की नकल के लिए नहीं किया जा रहा है बल्कि उनके ग्रहण की इच्छा के निषेध के लिये किया जा रहा है । वह भी इसलिए कि ये इच्छायें ही अशान्ति व असन्तोष की जननी हैं और इनके अभाव में ही सन्तोष व शान्ति है । जिसे शान्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिये, उसके हृदय में कैसे अवकाश पा सकती हैं ये इच्छायें और इच्छाओं के अभाव में कैसे हो सकता है सम्पत्ति का ग्रहण तथा सञ्चय ? सरकारी नियम के दबाव से नहीं बल्कि अपने हित के लिए, स्वयं अत्यन्त हर्ष व उल्लासपूर्वक, इन इच्छाओं के त्याग की बात है। किसी के दबाव से किया गया त्याग वास्तव में त्याग नहीं। इस परिग्रह अर्थात् सञ्चय की इच्छा के कारण, कितने प्राणियों को तुझसे अनेकों प्रकार की पीड़ायें पहुँच रही हैं ? इसके आधार पर उपजे संकल्प-विकल्पों के जाल में फंसकर तू क्या कुछ अनर्थ नहीं कर रहा है ? हिंसा का एक बड़ा भाग इसी इच्छा की महान उपज है और इसलिए परिग्रह हिंसा की जननी है, महान हिंसा है । जीवन को संयमी बनाने तथा हिंसा से बचाने के लिए परिग्रह का त्याग अत्यन्त आवश्यक है, इसके बिना सर्व संयम निर्मूल है। ५. आंशिक अपरिग्रहता–अहो ! कैसी उल्टी बात चलती है ? लोग आते हैं प्रभु की पूजा को इसलिये कि धर्म होगा जिसके कारण अधिक धन मिलेगा, प्रभु पर छत्र चढ़ाते हैं इसलिए कि धन मिलेगा; परन्तु यहाँ बतलाया जा रहा है कि प्रभु का दर्शन करो इसलिए कि उसका आदर्श जीवन में उतर जाय, जैसा अपरिग्रही वह है वैसा ही स्वयं बन जाय। विचित्र बात है परन्तु आश्चर्य न कर क्योंकि वही वस्तु दी जा सकती है जो कि किसी के पास हो। इस अपरिग्रही आदर्श के पास धन है ही कहाँ जो तुझे दे देगा? इससे धन की याचना करना भूल है। उसके पास है अपरिग्रहता, वीतरागता और उसे ही यह दे भी सकता है, दे भी रहा है, रोम-रोम से वीतरागता की किरणें फूटी पड़ती हैं, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख कोई लेने वाला चाहिए। तू इस परम सौभाग्य से वञ्चित न रह । इस वर्तमान गृहस्थ- दशा में भले ही एकदम इस आदर्शवत् पूर्ण अपरिग्रही बनने में समर्थ न हो, पर धीरे-धीरे त्याग का अभ्यास करते रहने से क्या तेरे अन्दर वैसी ही शक्ति उत्पन्न न हो जायेगी ? अवश्य हो जायेगी। आवश्यक वस्तुओं का न सही पर अनावश्यक वस्तुओं का त्याग तो सहज कर ही सकता है और इससे तेरे गृहस्थ में कोई बाधा भी नहीं आती । गृहस्थ को चलाने के लिए आवश्यकतानुसार धनोपार्जन का न सही, पर आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन का त्याग तो कर ही सकता है और धीरे-धीरे अपनी आवश्यकताओं में भी क्रमश: कमी कर ही सकता है । २३४ ६. परिग्रह स्वयं दुःख- परिग्रह- सञ्चय की भावनाओं में अन्धा हुआ तू दूसरों के प्रति अपने कर्त्तव्य को भूला तो भूला, परन्तु यह भी भूल गया कि जिसके पीछे तू सुख के लिए दौड़ रहा है वही तेरे लिए दुःख का कारण बन बैठा है। जिसका सञ्चय तू अपनी रक्षा के लिए करता है वह स्वयं तेरा हनन कर रहा है, तेरी शान्ति का घात कर रहा है। तू साक्षात् इसमें दुःख देखता हुआ भी नहीं देखता, यह महान आश्चर्य है । देख भाई ? मैं दर्शाता हूँ तुझे इस परिग्रह का स्पष्ट दुःख । तनिक ध्यान दे इन सुन्दर वस्त्रों की ओर जिनको तूने शरीर की रक्षा के लिए ग्रहण किया, परन्तु जिनकी रक्षा तुझे स्वयं करनी पड़ रही है । थकावट अनुभव करते हुए भी तथा बैठने की इच्छा होते हुए भी तू बैठ नहीं सकता, पैन्ट की क्रीज जो बिगड़ जाएगी, हजार रुपये की साड़ी पर हुआ ज़री का काम जो खुसट जाएगा। आज वस्त्र तेरे लिए नहीं बल्कि तू वस्त्र के लिए है क्योंकि वस्त्र शरीर की रक्षा के लिए न होकर आज शरीर को सजाने के लिए हैं। खेद है कि फिर भी इस वस्त्र को तू सुख का कारण मान रहा है I क्या कभी ध्यान दिया है घर में पड़े उस अड़ंगे की ओर, जिसकी रक्षा तू वर्षों से करता चला आ रहा है परन्तु जो कभी तेरे उपयोग में नहीं आता ? दिवाली के समय घर की सफ़ाई करते हुए जब उसका ढेर तेरी दृष्टि के सामने आता है तो तू स्वयं उसको देखकर घबरा जाता है, उसे फेंक देने की इच्छा करता है, परन्तु सफ़ाई करने के पश्चात् सामान को यथास्थान रखते समय पुन: वह अड़ा पूर्ववत् अपने स्थान पर पहुँच जाता है, और उस क्षणिक घबराहट को जो तुझे उसे देखकर हुई थी तू फिर भूल जाता है। तनिक विचार तो कर कि घर में पड़ा यह सब वस्तुओं का ढेर यदि एक स्थान पर लगाकर देखे, तो कितनी वस्तुएँ ऐसी होंगी जो तेरे नित्य प्रयोग में आने वाली हैं ? यदि सर्व वस्तुएँ एक हजार हों तो सम्भवत: ५० वस्तुएँ ही ऐसी मिलेंगी जो नित्य प्रयोग में आ रही हैं। कुछ १५० वस्तुएँ ऐसी मिलेंगी जो कदाचित् प्रयोग में आ जाती हैं। परन्तु शेष ८०० वस्तुएँ तो ऐसी ही दिखाई देंगी उस ढेर में जो कई वर्षों से काम में नहीं आई हैं और न ही जिनकी भविष्य में कोई आवश्यकता प्रतीत होती है, या ऐसी हैं जिनका तेरी दैनिक वश्यकताओं से तो सम्बन्ध नहीं परन्तु नेत्र - इन्द्रिय की तृप्ति के लिए अथवा केवल अपनी दृष्टि में अपने कमरों को सज्जित बनाने मात्र के लिए रख छोड़ी हैं। कभी विचारा है यह कि इस अनावश्यक अड़ंगे को उठाने-धरने के लिए, इसकी सफ़ाई के लिए, इसकी व्यवस्था के लिए तथा इसकी रक्षा के लिए अनेकों विकल्पों में से गुजरते हुए तुझे कितनी व्याकुलता होती है ? पर खेद है कि फिर भी तू उसे सुख का कारण मान रहा है । सुख तो है इच्छा की पूर्ति में, परन्तु क्या धन सञ्चय करने की इच्छा कभी पूरी होनी सम्भव है ? तीन लोक की सम्पत्ति भी जिस इच्छा में परमाणुवत् भासती है । उसकी पूर्ति अनन्तानन्त जीवों में विभाजित इस सीमित सम्पत्ति से कैसे हो सकेगी ? सम्पत्ति सीमित है और इच्छा असीम । इच्छा की पूर्ति के अभाव में तू कैसे इस धन सञ्चय से सुख प्राप्त कर सकेगा ? यह सञ्चय तो तेरी इच्छा को और भड़कानेवाला है और इस कारण अधिक अशान्ति व व्याकुलता का कारण है, परन्तु आश्चर्य है कि इसको ही तू सुख का कारण मान रहा है । ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख भो चेतन ! अधिक धनवान बनने से लाभ भी क्या है ? 'अधिक धनवान कौन' क्या इस बात पर विचारा है कभी ? क्या वह, जिसका करोड़ों रुपया फ़ालतू बैंकों में पड़ा है अथवा किसी फ़र्म में लगा है; या कि वह जिसने सर्वस्व त्याग दिया है ? विचार तो सही कि क्या बैंक आदि में पड़े अथवा तिजोरी में पड़े रुपये को अथवा स्वर्ण आदि सम्पत्ति को साक्षात् रूप से कोई भोग रहा है ? क्या वह उसके प्रयोग में आ रही है ? उसका भोग तो कोई और ही कर रहा है और सन्तोष हो रहा उसे । क्यों ? केवल इस कारण कि उसकी बुद्धि में, उसके ज्ञान Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३. अपरिग्रह ७. अपरिग्रहता स्वयं सुख , यह धारणा पड़ी है कि अमुक स्थान पर पड़ा रुपया मेरा है। बस वह भोग तो रहा है ज्ञान में पड़ी स्वामित्व विषयक उस धारणा को और आनन्द आ रहा है उसे ऐसा मानो वह स्वयं भोग रहा हो धन को । इसी प्रकार यदि तू भी सर्व विश्व को अपना कुटुम्ब समझकर (दे० २६.१०), विश्व रूपी बैंकों में पड़ी त्रिलोक की सम्पत्ति में यह धारणा बना ले कि यह सब मेरी है, मेरा कुटुम्ब ही इसे भोग रहा है, तो क्या तुझे वैसा ही आनन्द न आयेगा जैसा कि उसे स्वयं भोगने से ? इस प्रकार देखने से तू ही बता कि दोनों में कौन अधिक धनवान प्रतीत होता है ? हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा । धन कमाने के विकल्पों में फँसे बिना तथा अशान्ति में पड़े बिना तीन लोक का अधिपति बनने की बात है और इस प्रकार वास्तव में सर्वस्व त्यागी ही यथार्थ धनिक है, भौतिक धन का भी तथा सन्तोष-धन का भी । २३५ वैसा बनने का लक्ष्य बना है तो क्यों इन दो चार ठीकरों की चमक में अन्धा हो अपनी शान्ति का गला घोंट रहा है, क्यों अपना कर्तव्य भूल बैठा है, क्यों स्व व पर-प्राणों का हनन कर रहा है ? समझ, इधर आ, सन्तोष धर, जीवन की आवश्यकताओं को सीमित कर तथा उस सीमा से अधिक, सञ्चय का प्रयास छोड़ दे। आगरे के पं० बनारसीदास जी का व पं० सदासुखदास जी का जीवन याद कर । वे भी गृहस्थ थे, जिनके सन्तुष्ट हृदय ने अपने ऊपर प्रसन्न हुए डिप्टी से, बजाए यह माँगने के कि उनका वेतन बढ़ा दिया जाए, यह माँगा था कि उनका वेतन ८ रुपये की बजाय ६ रुपये कर दिया जाए और कार्य बजाए आठ घण्टे के छः घण्टे लिया जाए, जिससे कि वे शेष दो घण्टों में अपनी शान्ति की उपासना कर सकें। यह उसी समय सम्भव हुआ जबकि उनकी दैनिक आवश्यकताएँ बहुत कम थीं, उनका जीवन सीमित था । भौतिक धन से कहीं अधिक उनकी दृष्टि में सन्तोष-धन का मूल्य था । वैसा ही तू भी बनने का प्रयत्न कर और तू अनुभव करेगा साक्षात् रूप से, जीवन में धीरे-धीरे प्रवेश करती उस शान्ति का । यदि अपरिग्रही आदर्श की शरण में आया है, यदि वीर प्रभु का व दिगम्बर- गुरुओं का उपासक कहलाने में अपना गौरव समझता है, तो अवश्य अपने जीवन में उपरोक्त रीति से कुछ न कुछ सन्तोष उत्पन्न कर । सन्तोष-धन ही वास्तविक धन है क्योंकि यह प्रत्येक जीव के स्वामित्व में पृथक्-पृथक् अपना-अपना ही उत्पन्न होता है, और किसी अन्य के द्वारा बंटवाया नहीं जा सकता । सीमित इच्छा की पूर्ति में सन्तोष हो जाने के कारण यहाँ ही सुख सम्भव है । अत: सोना-चाँदी, रुपया-पैसा, घर-जायदाद, कपड़ा-बर्तन, तांगा - मोटर, पशु आदि वस्तुओं का और सजावट की वस्तुओं का परिमाण तथा सीमा बांधकर अपने जीवन को कुछ हल्का बना । आदर्श की शरण का फल यही है । वीर भामाशाह का आदर्श अपरिग्रह व्रत यह सब सम्पत्ति मेरी है ही कब । विश्व की है, विश्व की रहेगी। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. उत्तम-क्षमा ( १. सामान्य परिचय; २. गृहस्थ की क्षमा; ३. साधु की क्षमा; ४. अध्यात्म सम्बोधन; ५. गृहस्थ को प्रेरणा। १. सामान्य परिचय कोहो पीइं पणासेड़ माणो विणयणासणो। माया मित्ताणि नासेड़, लोहो सव्वविणासणो॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं चऽज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। “क्रोध प्रीति को नष्ट करता है और मान विनय को, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सर्व-विनाशक है। अत: कषायों को जीतना साधु का सर्वप्रधान तथा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। उन्हें चाहिए कि क्षमा से क्रोध का हनन करें और मार्दव से मान को जीतें, आर्जव से माया को और सन्तोष से लोभ को जीतें ।” साधु-धर्म की प्रक्रिया में उत्तम-क्षमा आदि दस धर्मों का उल्लेख किया गया है । अब उनका क्रम से विस्तार करना है। पहला धर्म है 'उत्तम-क्षमा'। खम्मामि सव्वजीवाणं, सब्वे जीवा खमन्तु मे। मित्ती में सव्वभूदेसु, वेरं मझं ण केण वि।। “मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ, सर्व जीव भी मुझे क्षमा करें । मेरा उनके प्रति मैत्री का भाव है और किसी के साथ भी मुझे वैर नहीं है।" इस प्रकार के आत्म-परिणाम का नाम है उत्तम-क्षमा । क्रोधाग्नि को बुझाने के लिए इसके अतिरिक्त और कोई शीतलधारा नहीं। क्षमा का अर्थ है शान्ति और परिणामों में क्रोध का न आना है शान्ति । वास्तव में क्रोध है वह भल जिसके कारण अपनी महिमा अन्तरंग में जागत होती नहीं। भोगादि सामग्री में अपने अभाव करके अविनाशी शान्ति की अवहेलना करना अनन्ता क्रोध है । 'परपदार्थों का मैं कुछ कर सकता हूँ और पर की सहायता के बिना मैं कुछ नहीं कर सकता' ऐसी धारणा के द्वारा अपनी शक्ति का तिरस्कार करना, उसके प्रति अनन्ता क्रोध है । प्रभो ! अपनी शक्ति को पहिचान, दूसरे की ओर देखना छोड़, अपने लिए प्रयास कर, अपनी शक्ति से प्रयास कर, दूसरे से सहायता मांगकर भिखारी मत बन।। गृहस्थ व साधु के जीवन में महान अन्तर है, इसलिए उनकी क्षमा में भी महान अन्तर है। गृहस्थ अवस्था में रहते हुए व्यक्ति को अनेकों अवसर क्रोध के आ जाते हैं, साधु को इतने नहीं आते । अल्प-दशा के कारण गृहस्थ को तीव्र क्रोध भी आ जाता है परन्तु साधु को तीव्र क्रोध का तो प्रश्न नहीं, मन्द भी प्राय: नहीं आता है। यदि कदाचित् आ भी जाए तो वह उसे बाहर प्रकट होने नहीं देता, अन्दर ही अन्दर उसे शान्त कर देने का प्रयत्न करता है। क्रोध बाहर में प्रकट हुआ तो साधु काहे का ? २. गृहस्थ की क्षमा-अब पहले सुनिए गृहस्थ की उत्तम-क्षमा। क्षमा कई प्रकार की हो सकती है। एक वह क्षमा जो किसी प्रतिद्वन्दी के द्वारा किसी भी प्रकार अपनी क्षति हो जाने पर उससे बदला लेने की शक्ति का अभाव होने के कारण चुप्पी साधकर कर ली जाती है, परन्तु अन्तरंग में अभिप्राय यह पड़ा रहता है कि 'यदि शक्ति होती तो मज़ा चखा देता इसको । अच्छा, अब न सही, फिर देख लूंगा।' इस प्रकार अन्तरंग में कटु द्वेष की ज्वाला में भुनते हुए भी बाहर से कह देना कि 'जा तुझे क्षमा किया। इसी के अन्तर्गत वह क्रोध भी आ जाता है जो अंतरंग में न जाने कब से चले आये द्वेष के रूप में पड़ा रहता है और बाहर में उस व्यक्ति से खूब मित्रता सरीखी दिखाता है, सहानुभूति दर्शाता है इत्यादि । इसको कहते हैं मात्सर्य । इस प्रकार के दिखावटी भाव को तो लोक में भी क्षमा नहीं कहते, तब इस प्रकरण में कैसे कह सकते हैं। वह क्रोध से भी अधिक घातक है, क्योंकि बहुत लम्बे समय तक बराबर अन्तरङ्ग में द्वेष बना रहता है। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. उत्तम-क्षमा २३७ ३. साधु की क्षमा दूसरे प्रकार की भी क्षमा है, जो प्रतिद्वन्दी को खूब मार-पीट कर अपने अरमान निकाल लेने के पश्चात् ‘जा माफ़ किया, फिर ऐसा न करना' ऐसे करने में आती है । वह भी सच्ची क्षमा नहीं है, कहने मात्र की है । शक्ति के अनुसार जो कुछ करना था कर लिया, क्रोध निकाल लिया, फिर क्षमा क्या किया? यह भी द्वेष की कोटि में आ जाती है, परन्तु पहले के द्वेष और इस द्वेष में महान अन्तर है पहले द्वेष की अपेक्षा इस द्वेष की शक्ति कम है, क्योंकि यह उतने ही समय मात्र के लिये रहकर समाप्त हो जाता है, पीछे मिलने पर उस व्यक्ति से कोई विशेष घृणा नहीं होती। असली क्षमा वह है जिसमें द्वेष का नाम न हो । गृहस्थ को वह कैसे होती है ? देखिये । कर्त्तव्य-परायण गृहस्थ के लिए अपना कर्त्तव्य निभाते हुए द्वेष करने की आवश्यकता नहीं । अहिंसा वाले प्रकरण के अन्तर्गत विरोधी-हिंसा की बात आई है जो कि संयमी-गृहस्थ भी अवसर आने पर कर गुजरता है, परन्तु गौर करके देखने पर वहाँ आपको द्वेष दिखाई नहीं देगा। शत्रु से युद्ध द्वेषवश नहीं किया जाता, बल्कि आत्म-रक्षा या निज सम्मान की रक्षा के लिए किया जाता है और इसलिए यदि कदाचित् शत्रु को जीत लिया जाए तो उसे तंग नहीं किया जाता बल्कि शान्ति-पूर्वक समझा बुझाकर तथा कुछ उपयोगी शिक्षायें देकर तुरन्त छोड़ दिया जाता है। उसकी दृष्टि केवल आत्मरक्षा की थी सो वह हो गई, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए था, इसलिए अवसर बीत जाने के पश्चात् वह व्यक्ति पहले की भाँति ही दीखने लगता है । यदि पहले मित्र था तो अब भी मित्र दीखता है और यदि पहले सामान्य मनुष्य था अर्थात् न शत्रु था न मित्र तो अब भी वैसा ही दीखता है । यह है गृहस्थ की सच्ची क्षमा। भारत के वीरों का यही आदर्श रहा है । भगवान राम ने रावण पर चढ़ाई की, परन्तु अन्तिम समय तक यही प्रयत्न करते रहे कि किसी प्रकार युद्ध न करना पड़े तो ठीक । शक्ति की कमी हो इसलिए नहीं बल्कि इसलिए कि अन्तरंग में रावण के प्रति कोई द्वेष नहीं था। उन्हें अपने सम्मान की रक्षा के लिये सीता दरकार थी और कुछ नहीं । उन्हें रावण की स्वर्णमयी लंका की बिल्कुल इच्छा नहीं थी और इसीलिए अन्तिम समय तक यही सन्देश भेजते रहे रावण के पास कि सीता लौटा दो तो हम युद्ध नहीं करेंगे, हमें तुझसे कोई शत्रुता नहीं है । पर रावण न माना तो क्या करें ? सम्मान की रक्षा तो उस समय कर्तव्य था ही । यदि उस समय उस कर्त्तव्य को पूरा न करते तो कायर थे । परन्तु ऐसी परिस्थिति उपस्थित हो जाने पर साध का इस प्रकार का कर्तव्य नहीं है क्योंकि ऐसी दशा में साधु को सब समान हैं। आत्म-सम्मान है, शान्ति में बाधक उनके अपने परिणाम ही उनके शत्रु हैं, इसलिए यदि युद्ध करते हैं तो अन्तर-परिणामों से, बाहर के किसी व्यक्ति से नहीं, क्योंकि उनकी दृष्टि में कोई शत्रु है ही नहीं । वे यदि बाहर में किसी व्यक्ति से युद्ध करें तो कायर हैं । दशा भेद हो जाने से कार्य में भेद पड़ जाता है । अपना कर्त्तव्य पूर्ण करने को वे (राम) यद्यपि रावण से लड़े परन्तु जीत होने के पश्चात् उससे अनुचित व्यवहार न किया, उसका सम्मान किया तथा लक्ष्मण को उसे गुरु स्वीकार करने की आज्ञा दी । सीता मात्र को लेकर वापिस आ गए, लंका की एक वस्तु भी नहीं छुई । उन्हें आवश्यकता ही न थी किसी पदार्थ की। बताइये क्या राम को क्रोध था रावण पर? यह है एक गृहस्थ की उत्तम-क्षमा। पृथ्वीराज ने सात बार मुहम्मद गौरी को युद्ध में बन्दी बनाया परन्तु हर बार उसे समझाकर छोड़ दिया, उसका कुछ भी नहीं छीना । आत्मरक्षा करनी इष्ट थी, हो गई, आगे कुछ नहीं किया, क्योंकि मुहम्मद गोरी से कोई द्वेष नहीं था उसे । पृथ्वीराज वीर था, क्षमा उसका भूषण था, उसे अपने बल पर विश्वास था, अपनी क्षमा के कर्त्तव्य को भूलकर वह कायर नहीं बनना चाहता था। यह थी भारत के वीरों की आदर्श-क्षमा । कायरों को शोभा नहीं देती यह, वीरों का भूषण है यह । भले ही आज का युग उसे भ्रमवश पृथ्वीराज की भूल बताता हो और उसके इस महान कृत्य को भारत की पराधीनता का कारण बताता हो, परन्त जगत की यह बात स्वार्थ में से निकल रही है कर्तव्य में से नहीं. पामरता मे से निकल रही है वीरता में से नहीं। जिस क्षमा को कायरता कहा जाता है वही सच्ची वीरता थी। भारत का ह्रास पृथ्वीराज की इस क्षमा के कारण नहीं हुआ, बल्कि हुआ जयचन्द के उस द्वेष के कारण जिसके वशीभूत होकर कि उसने पृथ्वीराज से बदला लेने के लिए शत्रु से साज-गाण्ठ की। दोषी की दृष्टि में दोष तो दीखता नहीं, गुण में से दोष निकालने का प्रयत्न करता है। आज के स्वार्थी व कायर लोगों की दृष्टि भी दोष खोजने के लिए पृथ्वीराज की ओर जाती है, जयचन्द की ओर नहीं जो कि वास्तव में दोषी था। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ३४. उत्तम-क्षमा ३. साधु की क्षमा ३. साधु की क्षमा-यह हुई गृहस्थ की उत्तम-क्षमा । अब सुनिये साधु की क्षमा । उपरोक्त प्रकार किसी के साथ युद्ध ठानने की स्थिति से वह निकल चुका है। यद्यपि उसके पास कोई पदार्थ ऐसा नहीं जिसका अपहरण करने के लिए कोई उसे तंग करे, इसलिये किसी के प्रति उसे क्रोध आने का प्रश्न नहीं। संज्वलन कषायोदय के आधार पर क्रोध की कमर थपथपाना साधु के लिये आत्म हनन करना है। संज्वलन कषाय बहुत मन्द होती है और कभी बाहर में प्रकट होने नहीं पाती, क्योंकि गृहस्थ-दशा में ही कषायों के संस्कारों का बहुत अंशों में वह विनाश कर चुका है। एक साधक गृहस्थ को भी, बात-बात पर क्रोध या अन्य कषाय उत्पन्न नहीं होती तो साधु को कैसे हो सकती है ? ___ तदपि आहार आदि के अर्थ चर्चा करते हुए कदाचित् नगरों में जाना पड़े और कोई अज्ञानीजन या कोई पशु कदाचित् उपसर्ग करे तो हो सकता है कि क्रोध आ जाय । और उस महान योगेश्वर में तो आत्म शक्ति भी अतुल है, भले ही शरीर से निर्बल दीखता हो, पर बड़ी-बड़ी ऋद्धियों का स्वामी है । वह चाहे तो एक दृष्टि में भस्म कर दे उसे, या शाप देकर कष्ट-सागर में डुबा दे उसे । परन्तु सच्चे योगियों का यह कर्त्तव्य नहीं। यदि अपनी ऋद्धियों का प्रयोग बाहर में किसी प्राणी पर करता है तो वह योगी नहीं कायर है। योगी किसी को शाप नहीं दिया करते, ऋद्धियाँ होते हए भी उनका प्रयोग नहीं किया करते । पर-कल्याण के लिए यदि करना पड़े तो कदाचित् कर भी लें परन्तु किसी प्राणी को, वह दोषी हो या निर्दोष, किसी भी उचित व अनचित कारणवश वे पीड़ा नहीं पहुँचाते, भले प्राण चले जायें। वे सिंह बनकर निकले हैं, शरीर को ललकार कर निकले हैं, इन प्राणों का उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं । वे लौकिक नहीं अलौकिक युद्ध लड़ते हैं जो बड़े से बड़ा योद्धा भी लड़ने में समर्थ नहीं । वे अलौकिक शत्रुओं की जीतते हैं जिन्हें कोई जीतने में समर्थ नहीं। उन कायरों पर क्या वार करें जिनको कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का तथा हित-अहित का भी विवेक नहीं । उनके शत्रु बाहर दीखने वाले मनुष्य व पशु नहीं हैं, चाहे साक्षात् शरीर का भक्षण क्यों न करते हों, इसको अग्नि में क्यों न डालते हों, उबलते हुए तेल के कढ़ाये में क्यों न फेंकते हों, कुत्तों से क्यों न नुचवाते हों, क्योंकि जिसे वे क्षति पहुँचा रहे हैं उस शरीर को अपना मानते ही नहीं वे और जो निज-चैतन्य उनका शरीर है उसे कोई क्षति पहुँचा नहीं सकता। उनके वास्तविक शत्रु हैं अन्तरङ्ग में उनके कषायानुरंजित वे परिणाम जो उन्हें वास्तव में क्षति पहुँचा सकते हैं अर्थात् उनकी शान्ति भंग कर सकते हैं। योगियों का बल कायर व्यक्तियों पर नहीं इन अत्यन्त सुभट शत्रुओं पर चलता है। क्या किसी क्षत्रिय की खड्ग किसी स्त्री पर या नपुंसक पर उठती है ? भले उसके प्राण चले जायें पर क्या वह इनके प्रति युद्ध ठानता है, इनको अपना पराक्रम दिखलाता है ? धन्य हैं वे, उनकी दृष्टि विलक्षण है, वे प्राणियों या वस्तुओं को उस दृष्टि से नहीं देखते जिससे कि हम देखते हैं और इसीलिए आश्चर्य होता है उनके साहस पर । वे सब को तात्विक दृष्टि से देखते हैं, उनकी दृष्टि में वे चैतन्य हैं और शरीर जड़, जिससे उनका कोई नाता नहीं। उनकी दृष्टि में लोक की कोई शक्ति उन्हें बाधा पहुँचाने में समर्थ नहीं, क्योंकि वे अच्छेद्य हैं, अविनश्वर हैं, अदाह्य हैं अर्थात् वे जल नहीं सकते। जब वे छिद भिद सकते ही नहीं, जल सकते ही नहीं, तो कोई कैसे उन्हें छेदे-भेदे या जलाये । छेदना-भेदना तो रहा दूर, उन्हें कषाय उत्पन्न कराने की शक्ति भी किसी अन्य में नहीं है । वे स्वयं क्रोधादि करें तो करें, कोई अन्य नहीं करा सकता। यही तो है वस्तु की स्वतन्त्रता, जो विवेक-ज्ञान वाले प्रकरण में दर्शायी जा चुकी है (देखो ९.४)। विचारिये तो सही कि यदि आप मुझे गाली दें या मारें, और मैं क्रोध न करूँ, तो क्या आप जबरदस्ती मझे क्रोध करा सकते हैं ? आप मेरी इच्छा के विरुद्ध मुझे क्रोध नहीं करा सकते। देश-भक्तों को अंग्रेजों ने जेल में ठोंका, अनेकों कष्ट दिये, परन्तु क्या उनमें इतनी सामर्थ्य थी कि उनसे जबरदस्ती उनकी अन्तरङ्ग देशभक्ति के भाव को छुड़ा देते ? मानतुंग आचार्य को अड़तालीस तालों के अन्दर बन्द किया, परन्तु क्या कोई उनके अन्दर जागृत हुई प्रभु-भक्ति पर प्रतिबन्ध लगा सका? आज यदि मैं आपको कहूँ कि आपको क्रोध करना पड़ेगा तो क्या आप कर सकेंगे ? महात्मा बुद्ध को एक व्यक्ति ने खूब गालियाँ सुनाई पर वे सुनते रहे शान्त भाव से। जब वह व्यक्ति चुप हो गया तो बोले कि “भाई ! यदि कोई वस्तु मैं तुम्हें दूं और तुम न लो तो वह वस्तु किसकी?" "जिसने दी उसकी ।” “तो बस आपने मुझे जो शब्द दिये, मैंने तो उन्हें लिया नहीं क्योंकि मुझे क्रोध आया नहीं, यदि क्रोध आ जाता तो सम्भवत: कह दिया जाता कि मैंने उन्हें स्वीकार किया है। तो अब Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. उत्तम क्षमा २३९ ४. अध्यात्म-सम्बोधन बताओ ये शब्द किसके, आपके या मेरे ?” लज्जित हो गया वह बेचारा । शब्दों में यदि शक्ति होती तो उन्हें क्रोध आ जाता । ऐसी दृष्टि में कोई अन्य उन्हें बाधा पहुँचा सके यह शक्ति किसी में नहीं । अपनी ही किसी कमजोरी के कारण कदाचित् क्रोधादि आते हैं, अत: वह कमजोरी ही शत्रु है, उसके प्रति ही उनका युद्ध है और उसको ही अपना पराक्रम दिखाता है साधु 1 ४. अध्यात्म-सम्बोधन—– (१) उत्तम क्षमा की बात चलती है। वे महाभाग्य-दिव्यचक्षु योगीजन अपने अन्दर के शत्रुओं को कैसे जीतते हैं ? अलौकिक जीवों के अलौकिक विचार । यदि कदाचित् उनका नग्न वेश देखकर कोई अज्ञानी कटु-वचनों के बाण चलाने लगे, “देखो बैल सरीखा निर्लज्ज पशु कैसे चला आ रहा है, असभ्य कहीं का, नाम मात्र को मनुष्य है, मूढ़ बुद्धि, ढोंग रचे फिरता है, देखो तो कितना भोला दीखता है ऊपर से, लुच्चा कहीं का" इत्यादि अनेकों वचनों द्वारा तीखे बाण ही फैंक रहा हो मानो, कलेजे को छलनी करते निकले जा रहे हों जो । तो वे परम - योगेश्वर उस समय इस प्रकार विचार करते हैं कि "अरे चेतन ! क्यों कलकलाहट सी हो गई है तेरे अन्दर इन शब्दों को सुनने मात्र से ? बस इसी बिरते पर निकला है संस्कारों से युद्ध करने ? अभी तो तुझे कुछ पीड़ा भी होने पाई नहीं, शरीर पर भी कोई आघात हुआ नहीं, फिर यह व्याकुलता सी क्यों ? बता तो सही कि कहाँ लगे हैं ये वचन तुझको ? दायें-बायें, ऊपर-नीचे किधर भी तो चिपके दिखाई नहीं देते ? कैसे मानता है अपने को घायल ? तू चैतन्य, ब्रह्म, अच्छेद्य व अभेद्य, इसका घायल होना तो असम्भव है ही अपितु यहाँ तो यह शरीर भी घायल नहीं हुआ, तुझे पीड़ा क्यों होने लगी ? क्या शब्दों में इतनी शक्ति है कि बिना आघात पहुँचाये तुझे पीड़ित कर दें ? परन्तु ऐसा होना असम्भव है। ऐसा माने तो तेरे में और लोक के अन्य जीवों में अन्तर ही क्या रहा ? किस प्रकार अपने को शान्तिपथ का पथिक कह सकता है।” “केवल इन दो-चार शब्दों मात्र से तू क्यों अपनी शान्ति को अपने हाथ से लुटा रहा है, इतनी दुर्लभता से प्राप्त करके इसे मुफ्त में ही दिये जा रहा है ? कहाँ गई तेरी बुद्धि, कहाँ गया तेरा विवेक, अपने हित को क्यों नहीं देखता ? इस समय विश्व में सर्वत्र ही तो किसी न किसी के द्वारा कोई न कोई शब्द बोला जा रहा है, उनके द्वारा क्यों विह्वल नहीं हो रहा है तू ? यह भी तो विश्व में रहकर ही बोल रहा है, उन असंख्यात शब्दों में एक यह भी सही । जब उनके द्वारा तुझे बाधा नहीं हो रही है तो इसी के द्वारा क्यों हो ? जहाँ कटु-शब्द बोले जा रहे हैं, वहाँ इस विश्व में कहीं न कहीं मिष्ट व प्रशंसा के शब्द भी तो बोले ही जा रहे हैं। यदि इनको सुनता है तो उनको क्यों नहीं सुनता ?" " और फिर वह भी तो झूठ नहीं कह रहा है, दोष तुझमें होंगे तभी तो कहता है । वह तो बड़ा उपकार कर रहा है, तुझे तेरे दोष दिखाकर सावधान कर रहा है। कितना दयालु है वह ? निष्कारण तेरा रोग दूर करने की भावना करता है । और यदि अनहुए दोष कह रहा है तो भी अच्छा ही है कि 'भविष्य में दोष उत्पन्न न हो जायें, ऐसी भावना द्वारा पानी आने से पहले ही पुल बान्धने को कह रहा है। इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ?' और भी अनेकों इसी जाति के शीतल विचारों द्वारा उस अवसर में अपने को शान्त रखता है वह, क्रोधाग्नि को उठने से पहले ही शान्त कर देता है वह । यह है योगी की उत्तम क्षमा । (२) यदि कदाचित् ऐसा अवसर भी आ पड़े कि कोई उसके शरीर को पीटने लगे, थप्पड़ मुक्के मारने लगे, तो भी वह वीर शान्ति को हाथ से जाने नहीं देता । विचारता है कि "अरे चेतन ! क्या हुआ, क्यों पीड़ा होती है, क्या कोई बाधा पहुंची है तुझे ? तू तो अब भी अपनी सर्व शक्तियों को समेटे पूर्ण गुप्त अपने ज्ञान-दुर्ग में बैठा है। क्या तुझे भी कहीं थप्पड़ लगा है ? लगा है तो बता, कहाँ पीड़ा हो रही है तुझे ? क्या ज्ञान में ? परन्तु ज्ञान में पीड़ा होने का क्या काम, वह तो जानता मात्र है । कहाँ चोट लगी है तुझे ? क्या शरीर की चोट को अपनी चोट समझ बैठा है ? अरे ! कहाँ चला गया तेरा विवेक ? यदि शरीर की चोट को चोट माने तो इस स्तम्भ पर पड़ी चोट को भी अपनी चोट मानना चाहिए | क्या अन्तर है शरीर में और इस स्तम्भ में ? वह भी जड़ और यह भी जड़ । यदि क्रोध आ जाता तो अवश्य माना जा सकता था कि तुझे चोट लगी है। पर क्रोध उत्पन्न करने वाला तो तू स्वयं ही है, ये बेचारे प्राणी तुझको क्रोध कैसे उत्पन्न करायें, कौन सा ऐसा हथियार है उनके पास ? और फिर यदि शरीर को कुछ बाधा पहुँची भी तो क्या हुआ, Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४. उत्तम-क्षमा २४० ४. अध्यात्म-सम्बोधन कर इसका विनाश तो हआ नहीं, तेरे संयम में तो बाधा पड़ी नहीं, तेरा मार्ग तो रुका नहीं ? जितने दिन भी यह है उतने दिन तक तो तू पुरुषार्थ कर ही सकता है । क्यों इतने मात्र से निराश सा हुआ जाता है ?" इत्यादि अनेक प्रकार के विचारों द्वारा क्रोध पर प्रतिबन्ध लगा देता है वह, उठने से पहले ही उसे दबा देता है वह । यह है योगी की उत्तम-क्षमा। (३) और यदि कदाचित् ऐसा अवसर भी आ जाय कि कोई प्राण ही लेने को उद्यत हुआ हो, करोंत से चीरने को तैयार हो, बन्दूक ताने सामने खड़ा हो, अन्ध-कूप में धकेलने को तैयार हो, आधा जमीन में गाड़ कर दही छिड़क रहा हो शरीर पर उसे कुत्तों से नुचवाने के लिए, पकते हुए तेल के कढ़ाये में धकेलने को तैयार हो, कोल्हू में डाल दिया हो इस शरीर को, तो भी वह निर्भीक सिंहवत् विचारता है “अरे चेतन क्या हुआ है, क्या सोच रहा है, क्यों भयभीत-सा दिखाई देता है ? क्या इसलिए कि मृत्यु आने वाली है ? अरे तो आने दे, कौन बड़ी बात है, मृत्यु आना तो स्वभाव ही है ? और फिर इस जर्जरित शरीर को छीनकर एक नया शरीर प्रदान करने वाली ऐसी महा-माता से भय काहे का, इसमें अनिष्टता काहे की? यह तो तेरी उपकारिनी है जो नवीन शरीर प्रदान करके तुझे तेरी साधना में सहायता देने को उद्यत हुई है। कितना बड़ा उपकार कर रही है यह तेरा? यदि मृत्यु से ही डर लगता है तो अपनी वास्तविक मृत्यु से क्यों नहीं डरता, जो क्षण-क्षण-प्रति तुझे आ रही है ? एक विकल्प हटकर दूसरा, दुसरा हटकर तीस चौथा, क्षण-प्रतिक्षण जो तेरी शान्ति का घात कर रहे हैं । तेरा शरीर तो शान्ति है, यह चमड़ा नहीं। इसकी मृत्यु तेरी मृत्यु कैसे हो सकती है ? शान्ति की मृत्यु तो यह करने को समर्थ नहीं, वह तो तू स्वयं ही है । यदि तू क्रोध करे तो तेरी मृत्यु अवश्य हो जाए, पर वे बेचारे रंक तो क्रोध कराने को समर्थ नहीं, वह तो तू स्वयं ही है । तब ये तेरे घातक कैसे हो सकते हैं ? जो तुझे जानते ही नहीं वे बेचारे तेरा घात क्या करेंगे और तुझे जो अविनश्वर ज्ञानपुञ्ज जानते हैं वे तेरा घात क्या करेंगे? वे बेचारे अज्ञानी स्वयं नहीं जानते कि क्या करने जा रहे हैं वे । इन पर द्वेष कैसा? क्या बालकों की अज्ञान-क्रिया पर भी कभी किसी को द्वेष हुआ करता है ? ये भी तो बालक ही हैं जिन्होंने अभी आँख खोलकर देखा ही नहीं । कैसे जान सकते हैं कि वे स्वयं कौन हैं ?" “और फिर यदि इन्हें यह कार्य करने से प्रसन्नता ही मिलती है तो इसमें तेरा क्या हर्ज है ? लोग तो बड़ा-बड़ा दान देकर, बड़ी-बड़ी सेवाएँ करके, बड़े-बड़े कष्ट झेलकर किसी को प्रसन्न करने का प्रयत्ल किया करते हैं और ये बिना कुछ किये सहज ही इस शरीर के साथ खेल-खेल कर प्रसन्न हो रहे हैं, तो इससे अच्छी बात क्या है ? तेरा सर्वस्व तो शान्ति है, उसे हरण करने को ये समर्थ नहीं और फिर भी प्रसन्न हुए जा रहा है, इससे इच्छी बात और क्या है ?" । क्या विचारता है, कि यह तेरा शत्रु है ? परन्तु भी चेतन ! कहाँ गई तेरी बुद्धि ? क्या हो गया है आज तुझे ? क्या नींद आ रही है ? अरे तुझे कोई बड़ा रोग हो जाए, तू सड़क के किनारे पड़ा हो और कोई अपरिचित पथिक तुझे अपनी मोटर में बैठाकर हस्पताल ले जाये डाक्टर से कहे कि डाक्टर साहब ! मेरा सर्वस्व ले लीजिये पर इसे अच्छा कर दीजिये। तो बता कि उस व्यक्ति से तुझे द्वेष होगा या प्रेम? बस कषायों से पीड़ित तू एक रोगी, यह दयालु-जीव नि:स्वार्थसेवी, अपना सर्व पुण्य लुटा कर तुझे इस रोग से मुक्ति दिलाने आया है, तेरा सर्व भार अपने सर लेने आया है। भला द्वेष का पात्र है या करुणा का ?” (४) और भी, “यदि घर में तेरे पुत्र को बौरान हो जाए और पागलपन में तेरे कान काटने लगे तो उस पर तुझे दया आयेगी या क्रोध ? बस ये बेचारे बौरान से ग्रसित जीव स्वयं इस रोग से पीड़ित हैं, स्वयं अपने द्वेष व क्रोध में जले जा रहे हैं। यदि रोग की तीव्रता से पागल होकर वे इस शरीर को काटते हैं तो करुणा के पात्र हैं या द्वेष के? जरा तो विवेक कर और फिर ये बेचारे तुझे कुछ कह भी तो नहीं रहे हैं, इस खिलौने से खेलते हैं, बालक जो ठहरे, खिलौने ले-लेकर तोड़ना तो बालकों का स्वभाव ही है । यदि ये इस शरीर रूपी खिलौने को तोड़कर खेल खेल रहे हैं तो इनका दोष भी क्या है? खेलने दे उन्हें, तुझे क्या ? तेरी शान्ति तो तेरे पास है, उसे तो छीनते नहीं बेचारे ।" और इस प्रकार के अनेकों विचारों द्वारा क्रोध को जीत लेते हैं वे प्रकट होने से पहले ही छिपा देते हैं वे। यह है योगी की उत्तम-क्षमा। कदाचित् ऐसा अवसर आ जाए कि शिष्य मण्डली में से या अन्य सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों में से कोई एक शिष्य या व्यक्ति अनुकूल न चले, या आज्ञा का उलंघन करे, या अभिप्राय से विपरीत कार्य करने लगे, अथवा कोई Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ ३४. उत्तम-क्षमा ५. गृहस्थ को प्रेरणा जड़-पदार्थ अपने अनुकूल न बन सके तो कुछ-कुछ हृदय में सन्ताप-सा उत्पन्न होने लगता है। 'अरे ! मेरी आज्ञा से बाहर क्यों जा रहा है, जिस प्रकार मैं कहता हूँ उस प्रकार क्यों नहीं करता, अपनी मर्जी से क्यों करता है, इत्यादि । ऐसे पर वह योगी इस प्रकार विचारने लगता है कि “भो चेतन ! कहाँ खो आया है आज बद्धि? किस को अपने अनुकूल चलाना चाहता है, अपने को या इसको? इसको अपने आधीन करना तो तेरी सामर्थ्य से बाहर है। क्या पहले निर्णय नहीं कर चुका है (देखो ९.४) । विवेकी-ज्ञानी कहलाता है और फिर भी दूसरे को अपने अनुकूल करना चाहता है ? लोक में सर्व पदार्थ स्वतन्त्र हैं, तू उनको परतन्त्र बनाना चाहता है, अपने आधीन करना चाहता है ? तू भी स्वतन्त्र है, ये भी स्वतन्त्र हैं, जिस प्रकार चाहें करें, तू इन्हें रोकने वाला कौन, इन पर तेरा क्या अधिकार ? यदि अनुकूल ही परिणमाना है तो अपने को क्यों नहीं परिणमाता ? अपने ऊपर तो तेरा पूरा अधिकार है, क्यों अपनी शान्ति के प्रतिकूल इस क्रोध के आवेश में बहा जा रहा है ? रोक, रोक, बस अब इन परिणामों को रोक । इसके प्रति तो इतना ही कर्तव्य था कि इसके कल्याणार्थ कोई हित की बात इसे बता दे, सो तेरा कर्तव्य पूरा हुआ, अब यह चाहे जैसा करे इसकी मर्जी । लोक में अनन्तानन्त जीव राशि भरी पड़ी है, किस-किस को अपनी आज्ञा में चलायेगा।" ५. गृहस्थ को प्रेरणा–परम धैर्य के धारी अत्यन्त पराक्रमी उन योगियों को तो ऐसे विचार कभी-कभी कठिन अवसरों पर आते ही हैं, अत: उन्हें तो उत्कृष्ट क्षमा है ही, परन्तु यह क्षमा धारना उनका ही काम हो और आपका न हो ऐसा नहीं है । यथायोग्य अवसरों पर भले कुछ हीन रूप में सही, आपको भी इस अल्प गृहस्थ-अवस्था में, इसी प्रकार के विचारों द्वारा अपने क्रोध को दबाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी से भी द्वेष करना शान्ति के उपासक का काम नहीं और यदि आज भी किसी बड़े या छोटे से द्वेष है, तो इस उत्तम-क्षमा की बात को सुनकर उसको उगलने का प्रयत्न करना चाहिये, उसके साथ युद्ध करना चाहिये। आपको अपना कर्तव्य देखना है, दूसरों का नहीं। अत: ‘वह तो बराबर मेरे साथ बुराई किये जा रहा है, मैं कैसे उसके प्रति माध्यस्थ हो जाऊँ, कैसे द्वेष त्याग दूं ?' इस प्रकार के विचारों को त्याग कर, अपने हित के लिए उपरोक्त क्षमा वर्द्धक परिणामोंके आश्रय पर, अपने शत्रु को भी आज तुम्हें क्षमा कर देना योग्य है । मत विचारिये कि वह आपको क्षति पहुँचायेगा, बल्कि यह विचारिये कि आपका अपना द्वेष या मात्सर्य ही आपको क्षति पहुँचा रहा है। प्रति वर्ष क्षमावणी का दिन मनाते हैं, क्षमा-क्षमा सब गहो रे भाई' का राग अलापते हैं, मानो दूसरों को सुनाते हैं। प्रभो ! स्वयं सुनने का प्रयत्न कीजिये, दूसरे को सुनाने का नहीं । दूसरा कुछ भी करे, उधर मत देखिये, किन्तु देखिये यह कि आप क्या करते हैं । शान्ति का मार्ग लौकिक दृष्टि से विपरीत है, उस दृष्टि में इसका रहस्य आ नहीं सकता। साधारण जन क्या जानें इसकी महिमा ? चित्त की शान्ति ही उत्तम क्षमा है । शान्त सरोवर में पड़े चन्द्रबिम्ब की भाँति इसी में तत्त्व प्रकाशित होता है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. उत्तम-मार्दव १. अभिमान, २. आत्म सम्बोधन, ३. लोकेषणा दमन । शान्ति-सरोवर भगवान आत्मा ! आज अत्यन्त सौभाग्यवश शान्ति-सागर- वीतरागी गुरुओं की शरण को प्राप्त होकर भी यदि कषायोद्रेक में जलता रहा, तो कोई लाभ न होगा इस महान व दुर्लभ अवसर से, अतः अब जिस किस प्रकार भी अन्तर- दाहोत्पादक इन कषायों से युद्ध कर, उत्तम मार्दव से आक्रमण कर । घबरा नहीं, इस हथियार का सामना करने की शक्ति इन कषायों में नहीं है। इसकी एक झलक मात्र से यह गीदड़ - टोली दुम दबाकर भागती दिखाई देगी । यह हथियार तेरे पास न हो, ऐसा भी नहीं है । तेरी आयुध-शाला में ऐसे हथियारों की कमी नहीं । I १. अभिमान—–मार्दव अर्थात् मृदु-परिणाम, कोमल परिणाम, अभिमान के विरोधी परिणाम । आज तक पर-पदार्थों को अपना मानता हुआ कुल, जाति, रूप, धन, बल, ऐश्वर्य, तप, ज्ञान आदि की महिमा को गिनता हुआ, इनमें रस लेता हुआ, इनके कारण 'अपनी महानता मानकर गर्व करता हुआ चला आ रहा है। झूठा है यह गर्व, जिसका कोई मूल्य नहीं, कोई आधार नहीं । इन पर-पदार्थों से अपनी महिमा व बड़प्पन की भिक्षा मांगने में ही गर्व करता आ रहा है । “इनका मैं स्वामी हूँ, इनका मैं करता हूँ, मेरे द्वारा ही इनका काम चल रहा है, ये सब मेरे लिए ही काम कर रहे हैं, ये सब मुझमें से ही अपना बल प्राप्त कर रहे हैं, यदि मैं न हूँ तो ये किसी काम के नहीं, मेरे आधार पर ही टिके हैं, इनको मैं भोगता हूँ, ये मेरा बड़ा काम साधते हैं, इनके द्वारा ही मेरी महिमा हो रही है, इनके लिए ही मैं इतना परिश्रम कर रहा हूँ इनमें से ही मुझे आनन्द मिलता है, इनके आधार पर ही मेरी सर्व महत्ता है, लोग मेरी इस विभूति को देखकर नतमस्तक हो जाते हैं, मेरी महिमा का बखान करते हैं।" इस प्रकार की झूठी कल्पनाओं के अन्धकार में आज तू अपनी वास्तविक महिमा को भूल बैठा है, अपनी विभूति को न गिनकर भिखारी बन बैठा है। अपने कुल को, जाति को, अपने रूप को, अपने धन को, अपने बल को, अपने ऐश्वर्य को, अपने तप को, अपने ज्ञान को तथा अन्य अनेकों बातों को बिल्कुल भुला बैठा है। अपनी इस महिमा की अवहेलना करके दूसरों की महिमा में अपनी महिमा मानना अनन्ता अभिमान है, अपनी महिमा के प्रति अत्यन्त कठोरता है। एक दृष्टि भी अन्तर की ओर जाए तो अपनी विभूति के दर्शन हो जायें, अपनी महिमा का भान हो जाए, उसके प्रति बहुमान प्रकट हो जाए, पर द्रव्यों का अभिमान हट जाए, निज का अभिमान हो जाए, अपनी पूर्ण महिमा का साम्राज्य प्राप्त हो जाए, और भिखारीपना जाता रहे । लोक में भी दो प्रकार के अभिमान कहने में आते हैं- एक स्वाभिमान और दूसरा सामान्य अभिमान अर्थात् पराभिमान । 'मैं उत्तम कुल का हूँ क्योंकि मेरा पिता बड़ा आदमी है इत्यादि' तो पराभिमान है, क्योंकि पिता और पर की महिमा में झूठा अपनत्व किया जा रहा है। परन्तु 'मेरा यह कर्तव्य नहीं, क्योंकि मेरा कुल ऊँचा है' यह है स्वाभिमान क्योंकि अपने कर्त्तव्य की महिमा का मूल्याङ्कन करने में आ रहा है। पराभिमान निन्दनीय और स्वाभिमान प्रशंसनीय गिनने में आता है । इसलिए वास्तविक अभिमान करना है, तो स्वाभिमान उत्पन्न कर अर्थात् निज चैतन्य विलास के प्रति महिमा उत्पन्न कर जितनी चाहे कर । २. आत्म-सम्बोधन – (१) “मेरा कुल बहुत ऊँचा है, मैं सूर्यवंशी हूँ, वह महान वंश जिसमें भगवान आदि-ब्रह्मा ऋषभदेव ने अवतार लिया, जिसमें षट्खण्ड-स्वामी भरत चक्रवर्ती उत्पन्न हुए, जिसमें यम-विजेता महान् तपस्वी बाहुबलि उत्पन्न हुए। आप सबको मेरा सम्मान करना उचित है क्योंकि मैं भगवान की सन्तान हूँ और आप सबसे ऊँचा हूँ ।" अरे रे ! क्यों अपने कुल के प्रति इतना कठोर हो गया है तू ? तनिक तो दया कर, बिल्कुल रंक बन गया है, भगवान की सन्तान होने का गर्व करता है पर भगवान होने का नहीं ? चिदानन्द- ब्रह्म, पूर्ण परमेश्वर, स्वयं भगवान होकर किसकी महिमा, किसकी उच्चता स्वीकार कराने चला है। साक्षात् भिखारी बनकर भगवान के कुल को लांछन लगाने वाले भो चेतन ! तू उच्च-कुलीन है कि नीच कुलीन ? स्वयं तू ऋषभ है, षट्खण्ड का ही नहीं त्रिलोक का Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. उत्तम-मार्दव २४३ २. आत्म-सम्बोधन अधिपति है, सर्व विभावों का विनाश करने की शक्ति रखने वाला तू स्वयं यम है, इन अल्पमात्र मनुष्यों द्वारा ही नहीं त्रिलोक द्वारा वन्द्य है। अपनी महिमा के प्रति गर्व कर, कठोरता छोड़, उसका और अधिक अपमान मत कर, स्वयं अपना सम्मान करना सीख, तब बनेगा वास्तव में उच्चकुलीन। (२) “मेरी जाति बहुत ऊँची है, मेरे मामा की आज्ञा अनेकों देश स्वीकार कर रहे हैं, मेरे नाना इतने दानी थे, मेरी माता बड़ी विदुषी है।" अरे ! क्या हुआ यदि तेरी माता, तेरे मामा और नाना बड़े थे ? तुझे इनसे क्या ? तू तो यह देख कि तू कौन है ? उन्होंने बड़े कार्य किए तो वे बड़े कहलाये, तू बड़ा कार्य करेगा तो तू बड़ा कहलाएगा। नीच काम करने से कौन ऊँचा बनता है। अपने प्रभुत्व को ठुकरा कर नाना मामा से अपने प्रभुत्व की भिक्षा मांगने वाले भी चेतन ! तनिक विचार तो कर, कि तू महान है कि भिखारी ? भगवती सरस्वती जिसकी माता हो, वह तुच्छ बुद्धि वाले प्राणियों को अपनी माता बनाए, आश्चर्य है। सहज आनन्द जिसका मामा हो वह चिन्ता की चिताओं में जलने वाले इन मनुष्यों को मामा समझे, खेद है । भगवन् ! आँख खोल, अपनी ज्ञान-चेतनावली जाति को पहिचान, उसके प्रति बहुमान उत्पन्न कर, कठोरता छोड़। चेतन-जाति पर गर्व कर, जितना चाहे कर । (३) “मैं बड़ा रूपवान हैं। गली में मझे जाता देखकर स्त्रियाँ अपना सर्व काम छोड बरामदों में आकर खडी हो जाती हैं राह चलने वाले पथिक रुक जाते हैं।" अरे रे ! कौन से रूप की बात करता है? इस चमडे के रूप की बात? तब तो अवश्य ही त बडा रूपवान है। ले एक बार इस दर्पण में मुँह देख ले, इसमें १० साल आगे का रूप दिखाई दे जायेगा तुझे। देख कितना सुन्दर है यह? क्यों डर क्यों गया ? तेरा ही तो रूप है जिस पर गर्व करता था तू ? जरा मक्खी के पंख समान पतली सी इस झिल्ली को उतार कर देख इसका रूप । क्यों कैसा लगता है ? जरा शौच-गृह में जाकर देख इसका रूप, कैसा मनभाता है ? भोले प्राणी ! अपने सच्चिदानन्द रूप को भूलकर इस चमड़े पर लुभाते क्या लज्जा नहीं आती? आ यदि अपना सौन्दर्य देखना है तो देख यहाँ, जहाँ विश्व-मोहिनी यह शान्ति सुन्दरी तेरे गले में वरमाला डालने को तैयार खड़ी है। इसका अपमान करके तू कैसे अपने को रूपवान कह सकेगा ? प्रभु ! अन्य ओर से दृष्टि हटा, कठोरता तज, इस सुन्दरी को मृदुता से स्पर्श कर यह है तेरा असली रूप । इस पर अभिमान कर, जितना चाहे कर। (४) “ मैं बड़ा धनवान हूँ, बड़े-बड़े व्यापारी मेरे द्वार पर मस्तक रगड़ते हैं, सारी मण्डी का भाव मेरे हाथ में है। मेरे पास ५०० गाँव हैं, यह देखो करोड़ों के हीरे जवाहरात, खजाना भरा पड़ा है, कुबेर भी शर्माता है मुझसे ।" अरे रे ! किस पर गर्व करता है ? इस धूल पर जो कल ही न जाने कहाँ विलय हो जाने वाली है ? अपने वास्तविक चैतन्य धन को भूल कर इस धूल से अपने बड़प्पन की भिक्षा मांगते क्या लाज नहीं आती तुझे ? जाग चेतन ! जाग, इधर देख इस चैतन्य-कोष को जिसके एक कोने में सम्पूर्ण लोक समाया हुआ है, तीन लोक की सम्पूर्ण विभूति को एक समय में भोग लेने की शक्ति रखने वाले भो ज्ञानपुञ्ज ! इस अपने ज्ञान की महिमा को स्वीकार कर और धूल की महिमा की पकड़ को छोड़ । इसी का नाम है मृदुता या मार्दव-परिणाम । उस आन्तरिक स्वानुभव-ज्ञान के प्रति बहुमान उत्पन्न कर, चाहे जितना कर। (५) “मैं बड़ा बलवान हूँ, बड़े-बड़े पराक्रमी वीर मेरा लोहा मानते हैं, मेरे एक इशारे पर आज विश्व कांप उठता है, किस की शक्ति है कि मुझको जीत सके ?" अरे ! हंसी आती है तेरी बात पर, पामर कहीं का । 'मेरी माता वन्ध्या कौन न हंस पडेगा? आश्चर्य है कि इस तनिक से अभिमान के द्वारा जीता हआ त विश्व-विजयी होने का दावा करता है। अपने भीतर तो झांककर देख कि काल की विकराल दाढ़ में बैठा हुआ तू भले हंस रहा हो, पर कितनी देर के लिए? अभी जबड़ा बन्द हो जायेगा और तेरा यह अभिमान सर्व जगत पर स्वत: प्रकट होकर यह घोषणा करेगा कि कितना बली है तू । शर्म कर, काल की पहुँच से दूर अपने यथार्थ बल को भूलकर इस शरीर से मांगे हुए बल पर फूला फिरता है ? कहाँ गई तेरी बुद्धि ? इधर देख अपने अनन्तबल की ओर, जिस और आन्तरिक-शान्ति में तन्मयता पड़ी है, निज आनन्द का आधिपत्य पड़ा है और जहाँ लोक की सर्व विपदायें व चिन्तायें खड़ी रो रही हैं, एक बार प्रकट हो जाने पर जिसमें कभी कमी नहीं आती। उसकी महिमा जागृत कर, जिससे कि यथार्थ बली बन जाय तू । उस पर अभिमान कर, जितना चाहे कर । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. उत्तम मार्दव २. आत्म-सम्बोधन (६) "मेरा बड़ा ऐश्वर्य है । २००० हाथी, ४००० घोड़े, १००० रथ, इतनी तोपें, बन्दूकें, हवाई जहाज़, टैंक, लाखों सेवक, मोटरें, कारखाने और न जाने क्या-क्या अला बला । मेरी आज्ञा सारे देश पर चलती है, मेरी आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने का किसी में साहस नहीं। चारों ओर सेवक और सेविकाओं से सेवित इस राज्य-वैभव को भोगते हुए आज मेरे से इन्द्र भी शर्मा रहा है । " किस ऐश्वर्य को कहा जा रहा है प्रभो ! उसी को, जो एक बम पड़ जाने पर न जाने कहाँ चला जायेगा ? उसको जिसके लिए कि सम्भवतः रात को तुझे नींद भी नहीं आती ? किसने भ्रमा दिया है तुझे ? इतना भोला तो न बन कि चाहे जो ठगकर ले जाय, आंखों में डाले एक मुट्ठी मिर्च और सर्वस्व हर कर ले जाए ? अपने चित्प्रकाश को भूलने के कारण आज तेरी आँखें चुँधिया गई हैं इसकी झूठी आभा में । इधर देख आनन्द-नगर के अपने आधिपत्य को, जहाँ शान्ति तेरी दासी है, ज्ञान तेरा मन्त्री है, अनन्तबल तेरी सेना है, और सुख तेरा पुरोहित है । अभिमान करना है तो इसके प्रति कर, जितना चाहे कर । २४४ (७) “मैं बड़ा तपस्वी हूँ । ज्येष्ठ की दोपहर में धूप के अन्दर पत्थर की तपती शिला पर घण्टों बैठा रहता हूँ, पोष-माघ की कड़कड़ाती ठण्डी रातों में श्मशान भूमि में योग-साधता हूँ, महीनों महीनों का उपवास, नीरस भोजन तथा अनेकों कठिन से कठिन तप करता हूँ, अनेकों परीषह सहता हूँ।” कैसा तप ? शरीर को तपाने का ? अरे रे ! प्रतीत होता है कि लोक के सन्ताप से सन्तप्त तेरा अन्तष्करण ही मानो भाप बनकर उड़ गया है। अपने को न तपाकर दूसरे को तपाने में कौन महिमा है ? भट्टी के सामने बैठा लुहार सारा दिन तपा करता है। क्या अन्तर है उसके तपने में तथा तेरे तपने में ? क्या भूल गया पूर्वोक्त सकल विवेक ? निज स्वरूप में प्रतपन करने का नाम तप है। उसमें ताप उत्पन्न , उसमें स्थिरता धार, शान्ति के सम्भोग में दृष्टि लगा, उसके प्रति महिमा जगा, उसके गुणगान गा, तब हो सकेगा तेरा माहात्म्य । अब काहे का माहात्म्य ? “मैं बड़ा ऋद्विधारी हूँ, मुझमें बड़ी-बड़ी शक्तियाँ हैं, चाहूँ तो एक दृष्टि से तुझको भस्म कर दूँ, शाप देकर राव से रंक कर दूं, आशीर्वाद देकरें कृतकृत्य कर दूँ, आकाश में उड़ जाऊँ, मकड़ी के जाले पर से पाँव रख कर गुजर जाऊँ, बैठे-बैठे सुमेरु को स्पर्श कर दूं, मक्खी जैसा शरीर बना लूँ । कहाँ तक बखान करूँ अपनी महिमा का, अपने चमत्कारों का ?” अपने मुँह अपनी प्रशंसा करते क्या लाज नहीं आ रही है तुझे ? महिमा गान करने से पहले इतना समझ लेता कि किसकी महिमा का गान है यह, तेरी या इस चमड़े की ? चमड़े की महिमा से महिमावन्त कैसे कहला सकेगा तू ? इससे तो कुछ शिक्षा ले । यह आज लज्जित करने आया है तुझे अपने चमत्कार दिखाकर, कि देख योगी तेरे योग मैं फीका किये देता हूँ। देख मेरी महिमा । क्या है तेरे पास जो इसके सामने रखे ? बता तो सही क्या उत्तर देगा कि क्या है तेरे पास ? बस पड़ गया सोच में ? अरे विश्व के अधिपति ! अपनी महिमा को भूलकर इसकी महिमा के चमत्कार दिखाने लगा ? फिर कैसे जानें कि तेरे पास क्या है ? इधर देख, तेरे पास वह कुछ है जिसके सामने इन बेचारी तुच्छ शक्तियों व ऋद्धियों की तो बात नहीं, तीर्थंकर पद भी तुच्छ है । देख उस शान्ति की ओर जिसमें पड़ी है अतीव तृप्ति, सन्तोष व साम्यता, जिसके वेदन के सामने अन्य सब कुछ तुच्छ है । इस शान्ति का अधिपति होकर अब इन तुच्छ शक्तियों की महिमा का बखान छोड़। इस शान्ति पर गर्व कर जितना चाहे कर । (८) “मैं बड़ा ज्ञानी हूँ, बड़े-बड़े तार्किकों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दूं । मेरे तर्कों का उत्तर देने में कौन समर्थ है ? बड़े-बड़े शास्त्र मेरे हृदय में रखे हैं, जो बात कहो निकाल दूँ। अमुक आचार्य ने अमुक शास्त्र में, अमुक बात, अमुक पृष्ठ पर लिखी है, देख लो खोलकर । बड़े-बड़े पण्डित मेरा लोहा मानते हैं। दो-दो घण्टे धारावाही बोल सकता हूँ । तर्क, अलंकार, व्याकरण, ज्योतिष, सिद्धान्त, अध्यात्म और सर्वोपरि करणानुयोग की सूक्ष्म-कथनी मेरे लिए बच्चों का खेल है ?” किस ज्ञान पर अभिमान करता है चेतन ! अपने अतुल ज्ञान प्रकाश को देख जिसमें तीन लोक युगपत् प्रत्यक्ष भासते हैं । इन मात्र दो चार शब्दों के तुच्छ ज्ञान का क्या मूल्य है तेरे अतुल प्रकाश के सामने ? यदि शान्ति प्रति बहुमान जागृत न हुआ तो यह शास्त्र- ज्ञान काम भी क्या आयेगा ? केवल गधे पर पुस्तकों के भार जैसा है । यह तो देख कि इन शब्दों को याद करने के लिए तुझे कितना परिश्रम करना पड़ रहा है ? हर समय की चिन्ता, कहीं भूल गया तो सर्व विद्वत्ता मिट्टी में मिल जायेगी। उस शाश्वत चैतन्य - विलास को क्यों नहीं देखता, जिसमें सहज ही सर्व Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५. उत्तम-मार्दव २४५ ३. लोकेषणा-दमन विश्व समाया हुआ है, जिसे याद रखने को कोई प्रयल नहीं करना पड़ता, शान्ति में रमणता के अतिरिक्त जहाँ कुछ नहीं । उस अपने स्वाभाविक ज्ञान की महिमा करे तो त्रिलोकाधिपति बन जाए। इसलिए प्रभो ! अब विवेक धार कर इस शाब्दिक ज्ञान की महिमा को छोड़। ३. लोकेषणा-दमन मेरे मुख से निकले हुए इन दो चार शब्दों को सुन कर, मेरे गुरुदेव का साक्षात्कार न होने के ण कुछ भ्रमवश, यह जो वाह वाह, कितना सुन्दर उपदेश दिया है। आज तक ऐसा नहीं सुना था' इस प्रकार के वाक्य आप अपने उद्गारों व भक्ति आदि के आवेश में कह रहे हैं, उनको सुनकर आज मेरे हृदय में क्या तूफान उठ रहा है ? मानो मुझे उड़ा ले जाने का प्रयत्न कर रहा है, कहीं मेरी शान्ति से दूर । नहीं नहीं भगवन् ! मैं एक क्षण को भी इसका विरह सहन नहीं कर सकता । रक्षा कीजए प्रभु ! रक्षा कीजिये, इस महान भयानक लोकेषणा राक्षसी से मेरी रक्षा कीजिये, इस ख्याति की चाह से मुझे बचाइये । मुझ पामर तुच्छ बुद्धि में क्या शक्ति है कि एक शब्द भी कह सकूँ । तुतलाकर बोलना भी जिसने अभी सीखा नहीं है, वह अभिमान करे प्रवचन करने का ? धिक्कार है मुझे जो आपके प्रवचन को, आपकी मिष्ट वाणी को अपनी बताऊँ । यह चोरी मुझसे न हो सकेगी भगवन् ! मैं श्रोता हूँ वक्ता नहीं। इन दो-चार पच्चीस-पचास व्यक्तियों के मुख से निकले इन दो-चार शब्दों से ही गद्गद् हुआ जा रहा है तू । क्या विचारा है कभी तूने कि क्या रस आया इनमें से? इन शब्दों में है क्या ? यदि सत्य होते तो भी भले कुछ मान लेता, पर इनमें तो सत्यता भी भासती नहीं। फिर भी झूठा अहंकार क्यों? कभी विचारा है तूने, कि इस लोक का तू कितने वाँ भाग है ? जहाँ अनन्तानन्त जीव बसते हों, वहाँ तेरी कौन गिनती ? जगत का एक छोटा सा कीट, और इसके अतिरिक्त मुल्य ही क्या है तेरा ? बीस-पच्चीस व्यक्ति जान गये और मान बैठा कि सर्व लोक में ख्याति फैल गयी है मेरी । तुच्छ बुद्धि जो ठहरा, कूपमण्डूक जो ठहरा । जरा विश्व में दृष्टि पसारकर तो देख कि कौन जानता है तुझे? दूर की तो बात नहीं, ये तेरे प्रदेशों में स्थित जो अनेकों कीटाणु भरे पड़े हैं, इन्हीं से जाकर पूछ कि क्या वे जानते हैं तुझे? उन बेचारों को भी छोड़, स्वयं अपने से तो पूछकर देख कि क्या तू भी जानता है स्वयं को ? जानता होता तो यह अभिमान न होता, इन शब्दों की महिमा न गिनता, अपने अन्तरङ्ग चैतन्य विलास पर ही गर्व करता । यदि बाह्य की ही कुछ बातों के कारण अपने को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझता है तो एक बार अपने और दूसरे के जीवन को जिस प्रकार मैं कहता हूँ उस प्रकार देख । जीवन में बीत गई भूतकालीन अनेक भवों की अवस्थायें, वर्तमान की एक अवस्था तथा भविष्यत में होने वाली अनेक भवों की अवस्थायें: आपका पर्ण जीवन इन अवस्थाओं से भरा पड़ा है और उस दूसरे का जीवन भी। दोनों के जीवनों की पूर्ण अवस्थाओं को डोर में पिरोकर पृथक्-पृथक् दो मालायें तैयार कर । इन दोनों मालाओं को अपने सामने खूटी पर लटकाकर देख कि कौन सी बड़ी है और कौन सी छोटी, कौन सी अच्छी है और कौन सी बुरी ? बड़ी-छोटी तो नहीं क्योंकि दोनों की अवस्थायें बराबर हैं। अच्छी बुरी भी नहीं, क्योंकि दोनों ही हारों में सुन्दर-असुन्दर अच्छी-बुरी, पापात्मक-पुण्यात्मक अवस्थाएं भरी पड़ी हैं, भले आगे पीछे पड़ी हों। आगे-पीछे हो जाने मात्र से हार अच्छे और बरे कहे नहीं जा सकते। फिर किस प्रकार अपने को ऊँचा दर को नीचा मानता है? और इस प्रकार वह योगी अनेकों विचारों के प्रवाह में बहा देता है इस दुष्ट अभिमान को । उतने उत्कृष्ट रूप में न सही, परन्तु क्या थोड़े बहुत रूप में भी तू अपने जीवन में यह बात नहीं उतार सकता ? इस राक्षस से अपनी रक्षा के लिए, मेरे लिए नहीं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. उत्तम-आर्जव ( १. सामान्य परिचय; २. गृहस्थ की कुटिलता; ३. साधु की कुटिलता; ४. आत्म-सम्बोधन। १. सामान्य परिचय हे सरल-स्वभावी भगवान आत्मा ! धन, शरीर व भोगादि में इष्टानिष्ट बुद्धि के कारण अनेकों खोटे अभिप्राय धर-धर के मैं सदा तेरा अनिष्ट करता चला आया हूँ। मुझे क्षमा कर दीजिए भगवन् ! अब तक मैं अज्ञानी था, हिताहित से बिल्कुल अनभिज्ञ । आज उत्तम-आर्जव-धर्मयुक्त परमवीतरागी गुरुवर से आर्जव-धर्म का उपदेश सुनकर मेरी आँखें खुल गई हैं। आर्जव-धर्म का प्रकरण है। 'ऋजुभावं आर्जवं' ऋजु अर्थात् सीधा, सरल । आर्जव कहिये सरल भाव, वक्रता रहित, मायाचार रहित परिणति । जैसा अन्तरंग अर्थात् मन में करने का अभिप्राय हो वैसा ही बाहर में भी करना अर्थात वचन व काय से भी वैसा ही कहना या करना । अन्तरंग व बाह्य क्रिया में अन्तर न होने का नाम ही है सरलता तथा अन्तरंग अभिप्राय में कुछ और रखते हुए बाहर में कुछ और ढंग से बोलना या करना है वक्रता । व्यक्ति का व्यक्तित्व वास्तव में वह नहीं है जो कि वह दूसरों को दिखाने का प्रयत्न करता है प्रत्युत वह है जो कि वह स्वयं जानता है। अनेकविध लोक-दिखावी प्रवृत्तियों के द्वारा अपने को उससे अधिक दिखाने का प्रयत्न दम्भाचरण कहलाता है, जो शान्ति-मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है, इसलिए कि ऐसा करने वाले की दृष्टि में सदा दूसरों को प्रभावित करने की प्रधानता रहती है, जिसके कारण उसे अपने भीतर झांककर देखने का अवसर ही नहीं मिलता। वह बड़े से बड़ा तप करता है, सभी धार्मिक क्रियायें करता है और सम्भवत: सत्य साधक की अपेक्षा अधिक करता है, परन्तु लोक दिखावा मात्र होने के कारण उनका न अपने लिये कुछ मूल्य है और न किसी अन्य के लिये।। _ 'सत्यं ऋतं वृहत्' । सत्य तथा ऋत इन दो गुणों से युक्त व्यक्तित्व वृहत् होता है महान होता है । दोनों शब्द यद्यपि एकार्थवाची हैं । परन्तु महान अन्तर है इन दोनों के रहस्यार्थ में । जैसी देखी-सुनी हो वैसी कह देना सत्य है और बालकवत् स्वार्थ रहित सहज रूप से कहना ऋत है। ऋत में सत्य गर्भित है परन्तु सत्य में ऋत नहीं। सरल चित्त बालक के द्वारा सहज रूप से कहा गया वचन कभी असत्य नहीं हो सकता परन्तु आपके द्वारा बोले गए सत्य वचन के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह ऋत अर्थात् सरल भी हो । इसी प्रकार क्रिया भी ऋजुभाव से की गई बालक की सब क्रियायें सत्य होती हैं परन्तु आपके द्वाराकी गई सत्य क्रिया के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह ऋत अर्थात् सरल भी हो । स्वार्थ-पूर्ति के अर्थ भी अनेकों बार सत्य बोलने में आता है। गृहस्थ हो अथवा साधु दोनों के ही वचनों में तथा क्रियाओं में इस प्रकार की विषमता होना सम्भव है । ऐसा प्रबल है इस कुटिल माया-रानी का प्रभाव। २. गृहस्थ की कुटिलता-हर वचन या क्रिया की परीक्षा अभिप्राय पर से होती है । वचन, क्रिया व अभिप्राय में अन्तर है तो वे संवर रूप नहीं हो सकते, केवल आस्रवरूप होंगे, क्योंकि विकल्प-दमन का प्रयोजन उन पर से सिद्ध नहीं होगा। अपने गृहस्थ-जीवन में तो मैं रात-दिन इस प्रकार की मायापूर्ण क्रियाओं का अनुभव करता ही हूँ, परन्तु धार्मिक क्षेत्र में भी मैं बहुत कुछ क्रियायें ऐसी करता हूँ जो माया के रङ्ग में रङ्गी होती हैं, केवल लोक-दिखावे के लिए होने के कारण दम्भ मात्र होती हैं। १. किसी अपने साथी को कदाचित् मैं बड़े प्रेमपूर्वक सिनेमा दिखाने का निमन्त्रण देता हूँ इस अभिप्राय से कि ह अधिक पढ़ता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि परीक्षा में मुझ से अधिक नम्बर ले जाये । २. अपनी माता के साथ मेरे घर पर आये हुए किसी बालक को मैं सुन्दर-सुन्दर खिलौने व मिठाई लाकर देता हूँ इस अभिप्राय से कि इसकी माता यह विश्वास कर ले कि मुझे उसके व उसके बालक के साथ बड़ी सहानुभूति तथा प्रेम है। ३. अपने मालिक की दुकान पर मैं बड़े परिश्रम से दिन-रात एक करके काम करता हूँ इसलिए कि धीरे-धीरे इसकी दुकान से नित्य प्रति जो चोरी करता हूँ, वह प्रकट न हो जाये । ४. किसी व्यक्ति को बड़ी सहानुभूतिपूर्वक 'यह वस्तु तुम्हारे योग्य है इसलिए ले आया हूँ' ऐसा कहता हुआ सुना जाता है। केवल इस अभिप्राय से कि जिस-किस प्रकार यह इसे खरीद ले, पीछे इसके काम आये या न आये। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. उत्तम-आजव २४७ ४. आत्म-सम्बोधन यह तो है लौकिक क्षेत्र में मेरा दम्भाचार । लीजिये अब धार्मिक क्षेत्र में भी देखिये । १. अन्तरंग में शरीर को ही पोषण करने का या भोगों में से ही रस लेने का अभिप्राय रखते हुए बराबर बाहर में यह कहता रहता हूँ कि 'शरीर मेरा नहीं है, मुझसे पृथक् अन्य द्रव्य है, भोगों में सुख नहीं है, मुझे तो शान्ति चाहिए।'२. खूब सुरताल से तन्मयता के साथ भगवान की पजा करता हूँ. इस अभिप्राय से कि लोग मझे धर्मात्मा समझें, मेरे पत्र का नाता किसी बड़े घर में हो जाए। ३. भगवान की प्रतिमा स्थापित कराता हूँ, मन्दिर बनवाता हूँ, इस अभिप्राय से कि अधिक धन-लाभ हो। ४. खूब दान देता हूँ , इस अभिप्राय से कि लोक में प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे धनिक समझें, कोई आशीर्वाद दे दे या भोग-भूमि में चला जाऊँ । ५. सच बोलता हूँ इसलिए कि लोग मुझे सत्यवादी मानकर मेरा सम्मान करें। ६. अति नम्र भाव से किसी का सच्चा-सच्चा दोष कह देता हूँ इसलिए कि उसके प्रति अपना द्वेष निकालने का अवसर मिल जाए । इत्यादि अनेक प्रकार से अभिप्राय की कुटिलता के कारण अमृत में विष घोलकर, अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारा करता हूँ मैं; अपने हाथों अपने घर में आग लगाया करता हूँ मैं, अपने हाथों व्याकुलता के साधन जुटाया करता हूँ मैं और मजे की बात यह कि शान्त होना चाहता हूँ, धर्म करना चाहता हूँ। ३. साधु की कुटिलता-गृहस्थ दशा तक ही इस कुटिल-भाव का बल चलता हो, सो नहीं । यथायोग्य रूप में भूमिकानुसार उत्कृष्ट साधु की वीतराग दशा में भी यह कुटिलता अपना जोर चलाकर उसे डिगाने का प्रयत्न किया करती है । परन्तु वास्तव में पग-पग पर सावधानी रखने वाले, कुशल सारथी के रथ में बैठे, कुशल वैद्य के निरीक्षण में रहने वाले, उन पर भले वह क्षणिक प्रभाव डालने में समर्थ हो जाए,पर उन्हें उनके पद से नहीं डिगा सकती। इस कुटिलता से अपनी रक्षा करने के लिए ही किसी योग्य आचार्य की अध्यक्षता में रहकर साधुजन सन्तुष्ट होते हैं, और वे मातावत उनकी रक्षा करते हैं. पग-पग पर उन्हें दोषों के प्रति सावधान करते हए उनके मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं। तथापि प्रमादवश यदि कदाचित् कोई दोष बन जावे तो अत्यन्त करुणा पूर्वक एक कुशल वैद्य की भाँति यथोचित प्रायश्चित्त रूप औषधि देकर तुरन्त उसका शमन करते हैं । (दे० ४०/३.१) फिर भी देखो इस अनृत माया की कुटिलता कि १. ऐसे कल्याणकारी प्रायश्चित्त से डरकर कदाचित् आचार्य से अपनी दुर्बलता बताते हुए, अर्थात् ‘कमजोर हूँ, खाना नहीं पचता है, पीछे कई दिन तक ज्वर रह चुका है, इत्यादि' अनेक प्रकार की बातें बनाकर, साधु अपना दोष गुरु के सामने प्रकट करता है, इस अभिप्राय से कि किसी प्रकार प्रायश्चित न मिले और मिले तो कम मिले । 2. 'मेरे दोष कोई जानने न पावे', इस अभिप्राय से गुरु से प्रश्न करता है कि यदि ऐसा दोष किसी से बन जावे तो उसका क्या प्रायश्चित्त है ? ३. जो दोष दसरों पर प्रकट हो चुके हैं, उन्हें तो गुरु से कह देता है परन्तु अन्तरङ्ग के 3 अन्य दोषों को नहीं, इस अभिप्राय से कि ये दोष तो सब जान ही गये हैं, कह कर अपनी बड़ाई ही कर ले । ४. और कभी-कभी सकल दोषों को ज्यों का त्यों कह देता है, उनके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त भी हर्ष से स्वीकार कर लेता है, उसका पालन भी ठीक रीति से करता है, परन्तु इस अभिप्राय से कि संघ पर मेरी सरलता की छाप पड़ जाये । ५. नमक का त्याग कर देता है, इस अभिप्राय से कि खूब खीर, हलवा, मिठाई व पूड़ी खाने को मिले । ६. अत्र का त्याग कर देता है, इस अभिप्राय से कि खूब मेवा व फल खाने को मिले। ४. आत्म-सम्बोधन-इस प्रकार अनेक कुटिल अभिप्रायों को रखकर ऊँची भूमिका में भी कदाचित् कुछ क्रियायें हो जाती हैं । उस समय वे परम योगेश्वर विचार करते हैं कि “भो चेतन ! तेरा स्वरूप तो शान्ति है । दूसरे के लिए इसका विनाश क्यों करता है? शरीर की रक्षा के लिए शान्ति को क्यों कएँ में धकेलता है? गरुदेव तो करुणा-बुद्धि से तेरा दोष निवारण करने के लिए तुझे यह प्रायश्चित्त दे रहे हैं, द्वेषवश नहीं । इसमें तो तुझे इष्टता होनी चाहिए न कि अनिष्टता, इसके ग्रहण में तो उल्लास होना चाहिए न कि भय । प्रायश्चित्त-दाता गुरुवर के प्रति तो तुझे बहुमान होना चाहिए कि नि:स्वार्थ ही केवल करुणा-बुद्धि से प्रायश्चित्त रूप औषधि प्रदान करके वे तेरे ऊपर महान अनुग्रह कर रहे हैं। क्यों दोषों को छिपाने का प्रयत्न करता है ? इससे तो तेरी ही हानि है। ये दोष एक दिन संस्कार बन बैठेगें, जिन संस्कारों का कि विच्छेद तू बराबर करता चला आ रहा है । सब किया कराया चौपट हो जायेगा।" Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ३६. उत्तम-आर्जव ४. आत्म-सम्बोधन __ और “यदि कोई तेरे दोष जान ही गया तो कौन बुरा हुआ ? वह तुझे क्या बाधा पहुँचा सकेगा? थोड़ी निन्दा ही तो करेगा ? तब तो अच्छा ही होगा, संस्कारों की शक्ति और क्षीण हो जायेगी। और तुझे चाहिए ही क्या? तेरा मनचाहा तुझे देता है, उससे भय खाने की क्या बात ? वह तो तेरा हितैषी ही है। फिर अनहुए दोष तो नहीं कहता, झूठ तो नहीं बोलता, तूने जो दोष बताये हैं, वही तो कहता है । इसमें कौन बुराई है ? वह तो उन दोषों को पुन:-पुन: कहकर तुझे सावधान करने का प्रयत्न कर रहा है कि तुझसे ऐसा दोष बना था, अब न बनने पावे । बता क्या बुराई हुई ? महान उपकार किया। इस उपकार से भय खाना ठीक नहीं, जो कहना है स्पष्ट कह डाल, निर्भय होकर कह, छिपा मत।" इस प्रकार विचार करता हुआ वह अपने मन को सम्बोधता है। "अरे । आत्मख्याति-स्वरूप भगवान ! इस बाहर की ख्याति पर क्या जाता है। दो दिन में विनश जाएगी। छोड़ जाएगा यह शरीर तो कौन सनेगा इसे ? दो दिन के लिए क्या रीझता है इस पर ? और फिर तेरी ख्याति तो शान्ति में रस लेने से है न कि इन शब्दों में ? भव-भव में ख्याति देने वाली, तीन-लोक में ख्याति फैलाने वाली, अपनी सहज ख्याति की अवहेलना मत कर । इस बाह्य ख्याति के कारण एक दोष पर दूसरा दोष मत लगा, सदा से दोषों का पुञ्ज बना आ रहा है, अब इनमें और वृद्धि मत कर । निज-शान्ति की ओर देख, उसकी महिमा का गान कर । तनिक सी इस ख्याति की भावना के लिए प्रायश्चित्त से मत घबरा, यह तेरी शान्ति की रक्षा करेगा।" ___ “अरे अलौकिक स्वाद के रसिक भगवन् ! भगवान होकर भी इन रंक जीवों से मिठाई, फल, मेवा, खीर आदि की भिक्षा मांगते क्या लाज नहीं आती तुझे? जिह्वा इन्द्रिय को काबू में करने के प्रयोजन से त्याग किया जाता है न कि उसे पुष्ट करने के लिए? अपने इस कुटिल अभिप्राय से डर । चार आने का अन्न छोड़ कर दस रुपये का भोजन करे और साधु बनना चाहे, शान्ति का उपासक बनना चाहे, यह कैसे सम्भव है ? यदि अन्तरङ्ग स्वाद का बहुमान है तो क्यों इस धूल में स्वाद खोजता हुआ अपने को ठग रहा है ? यह देख उस ओर, परदे की ओट में कौन खड़ी मुस्करा रही है, मानो तेरी खिल्ली उड़ा रही है, “चला है साधु बनने, मुझे जीतने, पता नहीं मेरा नाम माया है, जिसने सब जग खाया है ? अरे ! तुझ बेचारे में कहाँ सामर्थ्य कि मेरी ओर आँख उठाकर भी देख सके ? रंक कहीं का।" प्रशंसा के शब्द सुनाई देते हैं, पर इन शब्दों को नहीं सुनता । भूल गया अपने पराक्रम को ? उठ, जाग, गरजना कर, 'मुझे शान्ति चाहिए और कुछ नहीं' फिर देख कहाँ जाती है यह कुटिला माया, और कहाँ जाती है इसकी हंसी।" । इस प्रकार के अनेकों विचारों द्वारा अन्तरङ्ग के उस सूक्ष्म अभिप्राय को काट फेंकता है वह योगी ; तथा परमधाम, शान्ति-धाम को प्राप्त कर, बन जाता है वही जिस लक्ष्य को लेकर कि चला था वह । उत्कृष्ट रूप से न सह आँशिक रूप से भी मैं अपने लौकिक व धार्मिक जीवन में आने वाली इस माया को, उन विचारों के द्वारा क्षति नहीं पहुँचा सकता? इसमें मेरा ही तो हित है, गुरुदेव का तो नहीं? यह है कुछ पुरुषार्थ, कुछ भावनाएँ जिनसे कि आर्जव-धर्म की रक्षा की जा सकती है, माया परिणति से तथा उसकी वासनाओं से बचा जा सकता है। इसी विषय का कुछ विस्तार आगे ‘उत्तम-सत्य' के अन्तर्गत भी किया जाने वाला है। 14 6 ज्ञानी बहार में सोते हुए भी अन्तरंग में | सदा जागते हैं। संस्कार सेना उनसे भय खाकर भाग जाती है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. उत्तम-शौच ( १. सच्चा शौच; २. गंगा तीर्थ; ३. लोभ पाप का बाप । १. सच्चा शौच साम्यरस-पूर्ण पावन गङ्गा में स्नान करके परम पावनता को प्राप्त हे परम पावन गुरुदेव ! मुझे भी पावनता प्रदान कीजिए। आज तक पावन अपावन के विवेक से हीन मैं अज्ञानवश भोग-सामग्री रूप मल में हाथ डाल डालकर बालकवत इसको चाटता रहा. इसमें से स्वाद लेता रहा. इस ही में अपना हित व कल्याण खोजता रहा। आज आपकी शरण में आ जाने पर भी, अपने वास्तविक स्वाद का भान हो जाने पर भी, अपने अशुचि हाथ मुँह धोकर यदि शुचिता उत्पन्न न करूँ, आपके जीवन में प्रवाहित इस साम्यरस गङ्गा में स्नान करके पवित्र न बनें, तो कब बनूँगा? सदा ही विष्टा का कीड़ा बना रहूँगा । उत्तम-शौच धर्म का प्रकरण है। 'शरीर तथा इसके भौग्य जड़ पदार्थों को, पुत्र मित्रादि चेतन पदार्थों को तथा अन्य सर्व पदार्थों को, यहाँ तक कि परमाणु मात्र को भी मैं अपने काम में ले आऊं इसमें से स्वाद ले लूँ, उसे बुला लूं, उसे भेद दूँ, उसे मिला लूँ, सम्बन्ध विच्छेद कर दूँ, बना, या बिगाड़ दूँ' इस प्रकार की अहंकार-बुद्धि अशुचि है, अपवित्र है । 'सर्व पदार्थ मेरे इष्ट हैं कि अनिष्ट हैं, मेरे लिए उपयोगी हैं कि अनुपयोगी हैं, मेरे लिए हित रूप हैं कि अहित रूप हैं' इस प्रकार के रागद्वेषात्मक द्वन्द्व ही वह अशुचि है जिसको धोने की सुध आज तक प्राप्त नहीं हुई। निज महिमा की अवहेलना करता हुआ सदा उनकी महिमा गाता आया । महा अशुचि बना हुआ चलते-चलते, भटकते-भटकते न जाने किस सौभाग्य से आज इस साम्यरस-गङ्गा का पवित्र तीर मिला ? भगवन् ! एक डुबकी लगाने की आज्ञा दीजिये। ऐसी डबकी कि फिर बाहर निकलने की आवश्यकता न पडे. उस नमक की डली की भाँति कि जिसे सागर की थाह लाने के लिए डोरे से बांधकर उसमें लटकाया गया हो। कछ देर पश्चात् डोरा खींचकर उससे पूछे कि कितना गहरा है यह सागर, तो वहाँ कौन होगा जो इस बात का उत्तर देगा? डोरा तो खाली पड़ा है, नमक की डली घुल चुकी है उसी समुद्र की थाह में । लेने गयी थी उस सागर की थाह और घुलमिल गयी है उसमें । इसी प्रकार जिन महिमा के प्रति बहुमान पूर्वक अन्तरंग में उछलते उस शान्त महासागर में, एक बार डुबकी लगाकर लेने जाये उसकी थाह, तो कौन होगा वह जो बाहर आकर तुझे बतायेगा कि यह शान्ति इतनी महिमावन्त है ? स्वयं ही लय हो जायेगा उसमें । साम्यता, सरलता, वीतरागता, स्वतन्त्रता, शान्ति, सौन्दर्य व आन्तरिक महिमा, सब उसी गङ्गा के, उसी महा सागर के नाम हैं। इसमें स्नान करने से वास्तविक पवित्रता आती है, वह पवित्रता जो अक्षय है, ध्रव है। आन्तरिक मैल को धोना वास्तविक पवित्रता है, तेरी निज की पवित्रता है। शरीर की पवित्रता तेरी पवित्रता नहीं, वह झूठी है । इसको धोने से, मल-मलकर स्नान करने से, तेरा शौच नहीं । स्वयं उसका भी शौच नहीं, तेरा तो कहाँ से हो । अथाह सागर के जल से धोकर भी क्या पवित्र किया जाना सम्भव है इसे ? हरिद्वार में बहने वाली पवित्र गङ्गा की धार में इसे महीनों तक डुबाये रखने से भी क्या इसका पवित्र होना सम्भव है ? विष्टा से भरा घड़ा क्या ऊपर से धोने से पवित्र हो सकता है ? खूब साबुन मलिये, पर क्या इसमें शुचिता आनी सम्भव है ? यदि गङ्गा-जल में स्नान करने अथवा साबन रगड़ने मात्र से इसकी पवित्रता स्वीकार करते हो तो जरा इतना तो बताओ कि जब स्नान करने के पश्चात् यह पवित्र हो चुके, तब यदि मैं एक लौटा गंगा-जल का डाल दूँ इस पर और उस जल को थाल में रोक लूँ तो क्या उस जल को आप पीने के लिए तैयार हो जायेंगे? इसी प्रकार स्नान के पश्चात् शरीर पर दुबारा लगाये गये साबुन के झाग क्या अपने शरीर पर पोतने को तैयार हो जायेंगे? नहीं, तो फिर कैसे कह सकते हो कि गंगा में स्नान करने से मैं पवित्र हो गया, मेरा शरीर पवित्र हो गया। २. गंगा-तीर्थ–गङ्गा-स्नान से शुचिता-प्राप्ति होती है तब जबकि हृदय में धारण किया जाए उसके तट पर तपस्या करने वाले ऋषियों तथा परम ऋषियों की उस चरण-रज को, जो कि सदा से घुलती चली आ रही है इसके जल Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. उत्तम-शौच २५० ३. लोभ पाप का बाप में। इसके स्नान का फल प्राप्त होता है तब जबकि ध्यान किया जाए उनके हृदय में स्थित उस महा समता-सागर का, जिसमें से उद्भव हआ है इसका। इसके जल में स्नान करने का महत्त्व है तब जबकि स्मरण किया जाए उस महर्षि भगीरथ के पावन हृदय का जिसने लोक कल्याणार्थ आह्वानन किया था इसका । इससे मल-शोर चिन्तवन किया जाय श्मशानवासी उस परम वीतराग भगवान शिव का (ऋषभदेव का) जिसने अपने शीश पर धारण किया था साम्य रस की परमार्थ धारा को । ऐसा करे तो पवित्रता प्राप्त हो जाय तुझे, वह पवित्रता जो अन्तरंग मल को, रागद्वेषात्मक कषायों को तथा लोभ को धो डाले और जिसके कारण बाहर का यह शरीर भी पवित्र हो जाय, इतना पवित्र कि तब इस पर डाला हुआ जल पी जाना आप अपना सौभाग्य समझने लगें, उसे मस्तक पर चढ़ाकर अपने को आप धन्य मानने लगें। इससे पवित्रता मिलती है तब जबकि ध्यान किया जाय उस महातीर्थ का जहाँ से कि निकलकर चली आ रही है यह, जिसके कारण कि माना जा रहा है इसे पवित्र महातीर्थ, अर्थात् साम्यरस-भोगी भगवान शिवका, भगवान् ऋषभदेव का। इसका जल सड़ता नहीं इसलिए पवित्र नहीं है यह, बल्कि इसलिए पवित्र है कि यह उस स्थान से चली आ रही है जहाँ कि इस युग के आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने स्वयं यथार्थ शौच या आन्तरिक स्नान किया था अर्थात् जहाँ बैठकर तपश्चरण-द्वारा उस महायोगी ने अन्तर के रागद्वेष-प्रवर्धक लोभ का संहार किया था। हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों से गिरती, पत्थरों से टकराती, कल-कल नाद करती, अनेकों छोटे-बड़े नालों में से प्रवाहित होती हरिद्वार में यह क धार बन जाती है। यह मझे उस परम पावन योगेश्वर के शचि जीवन की याद दिलाती है, जिसने कैलाश पर सारा आन्तरिक मल धोकर इसी गंगा में बहा दिया था और इस प्रकार अपने जीवन में पूर्ण शान्ति उत्पन्न करके आदर्शभूत शान्ति-गंगा का जीवन में अवतरण किया था। यदि उस पवित्र जीवन की याद करके मैं भी अन्तर्मल शोधन के प्रति प्रवृत्ति करूँ और अन्तरंग अशुचि को उस महान योगीवत् धो डालूं, तभी कहलाया जा सकता है गंगा-तीर्थ का यथार्थ स्नान । शरीर-मात्र को धोने से पापों का शमन होना सम्भव नहीं, अन्तरंग उपयोग को शान्ति-स्रोत में डुबा देने से पाप के बाप लोभ का शमन होता है। इस प्रकार का उत्तम स्नान करते हैं वे परम दिगम्बर वीतराग योगेश्वर जिनकी कि यह बात चलती है। इस उत्तम-शौच से उनका अन्तर्मल धुल जाने के कारण उनका शरीर पवित्र हो गया है, इतना पवित्र कि उसके स्नान का जल मेरे लिए चरणामृत है, जिसका पीना या मस्तक पर चढ़ाना मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। बाहर में अत्यन्त मलिन, वर्षों से स्नान रहित तथा दन्तमज्जन रहित इस शरीर में भी इतनी शुचिता आ जाती है इस उत्तम स्नान से अर्थात् लोभ-शोधन से। ३. लोभ पाप का बाप यहाँ सर्व काषायों में लोभ को ही प्रधान बताया जा रहा है. लोक में भी लोभ को पाप का बाप बताया जाता है और यह कहना सत्य भी है; क्योंकि देखिये तो इस लोभ का प्राबल्य जिसके कारण कि ब्राह्मण पुत्र ने सब विवेक को तिलाञ्जली दे दी, कुल मर्यादा छोड़ दी, वेश्या के हाथ से रोटी का टुकड़ा मुँह में लेकर खा गया और साथ में कुछ तमाचे भी। इस प्रकार समझ गया वह उपरोक्त, लोकोक्ति की सत्यता । तुझको वैसा भी करने की आवश्यकता नहीं, अपने जीवन को पढ़ना मात्र ही पर्याप्त है । बता तो सही चेतन ! कि इस सबुह से शाम तक की भागदौड़, कलकलाहट, बेचैनी व चिन्ता का मूल क्या है ? यदि धन के प्रति लोभ न होता, यदि आवश्यकतायें अधिक न होतीं यदि सन्तोष पाया होता, धन-सञ्चय का परिमाण कर लिया होता तो क्या आवश्यकता थी इतनी कलकलाहट की व भाग-दौड़ की और क्या आवश्यकता थी चिन्तित होने की ? लोभ के आश्रित रहने वाली कोई लालसा या कामना ही तो है जो कि इस निस्सार धन की ओर तझ को इस बरी तरह खींचे लिये जा रही है। तझे स्वयं को पता नहीं कि कितना कमा चुका है तू, कितना कमाना है, कब तक कमाना है और कितना साथ ले जाना है ? इस लालसा के आधीन होकर जितना कुछ आज तक सञ्चय किया है, क्या कभी उस सर्व पर एक दृष्टि डालकर देखने तक का भी अवकाश मि । है तझे? अरे ! इतनी कलकल में रहते हए अपने परिश्रम का फल. वह जो कि तझ को अत्यन्त प्रिय है, देखने तक की सुध नहीं, भोगने की तो बात क्या ? Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. उत्तम-शौच २५१ ३. लोभ पाप का बाप मुहम्मद गजनवी की बात याद होगी। सात बार सोमनाथ पर आक्रमण किया, सारा जीवन लूटमार में खोया, परन्तु क्या उस दिन को टाल सका जो हम सबको ढिंढोरा पीट-पीटकर सावधान किया करता है कि भाई ! मैं आ रहा हूँ, कुछ तैयारी कर लेना चलने की, कुछ बान्ध लेना मार्ग के लिए, सम्भवत: आगे चलकर भूख लग जाए। परन्तु इस लालसा की हाय-हाय में कौन सुने उसकी पुकार ? उसके आने पर रोना और झींकना, अनुनय-विनय करना, 'भाई ! दो दिन की मोहलत दे दो किसी प्रकार, कुछ थोड़ा बहुत बना लूँ, अब तक बिल्कुल खाली-हाथ बैठा था । भूल गया था कि मरना पड़ेगा आगे जाकर, दया करो।' उस समय आती है बुद्धि कि क्या किया है आज तक और क्या करना चाहिए था। पर अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत, वह दिन तो मोहलत देना जानता ही नहीं। अन्तिम समय गजनवी बिस्तर पर अन्तिम श्वास ले रहा है. सारा जीवन मानो बडी तेजी से घम रहा है उसके हृदय-पट पर बेहाल व बेचैन । कौन है इस सारे विश्व में जिसको सहायता के लिए पुकारे अब वह ? धन के अतिरिक्त और है ही क्या यहाँ ? लाओ सारा धन मेरी आँखों के सामने ढेर लगा दो, आज मैं रोना चाहता हूँ, जी भरकर, अपने लिये नहीं दूसरों के लिये कि अरी भोली दुनिया ! देख ले मेरी हालत और कुछ पाठ ग्रहण कर इससे, मुट्ठी बांधकर आया था, खाली हाथ जा रहा हूँ। इस दिन पर विश्वास नहीं आता था, सुना करता था पर हंस देता था। मैंने तो भूल की पर आप अपनी भूल को सुधार लें, इस दुष्ट लोभ से अपना पीछा छुड़ायें और जीवन में ही कुछ पवित्र व्यञ्जन बनाकर तैयार कर लें ताकि रोना न पड़े तुम्हें भी आगे जाकर, मेरी भाँति। देखिये इस लोभ की सामर्थ्य कि जिसके आधीन हो मैं न्याय-अन्याय से नहीं डरता, बड़े से बड़ा अनर्थ करता भी नहीं हिचकिचाता, इतना ही नहीं अन्याय करके उसे न्याय सिद्ध करने का प्रयल करता हूँ, “अजी मैं तो गृहस्थ हूँ, झूठ बोले बिना या सरकारी टैक्स मारे बिना, या ब्लैक किये बिना, या अधिकार से अधिक कर्म किये बिना कैसे चल सकता है मेरा काम, मैं कोई साधु थोड़े ही हूँ ? आप तो बहुत ऊँची बातें करते हैं, भला इस काल में ऐसी बातें कैसे चल सकती हैं ? न्याय पर बैठे रहें तो भूखे मरें", इत्यादि अनेकों बातें। परन्तु प्रभो ! करता रह अन्याय, कोई रोकता नहीं तुझे, तेरी मर्जी जो चाहे कर, गुरुवर तो केवल तुझे उस दिन की याद दिला रहे हैं । इस जीवन के लिए इतना किये बिना नहीं सरता, उस जीवन की ओर भी तो देख, वह भी तो तेरा ही जीवन है किसी और का नहीं, उसके लिए बिना किये कैसे चलेगा? 'न्याय पर बैठे रहने से भूखा मरना पड़ेगा', यह तो केवल उस लालसा की कमर थपथपाना है क्या सन्तोषी जीवित नहीं रहते? इतनी बात अवश्य है कि सन्तोष आने पर लालसा के प्राण समाप्त हो जाते हैं और तू लालसा को जीवित देखना चाहता है । तेरे भूखा मरने का प्रश्न नहीं है, हाँ लालसा के भूखा मरने का प्रश्न अवश्य है। परम वीतरागियों जैसी शुचिता न सही कुछ शुचिता तो धारण कर ही सकता है, कुछ तो इस लोभ को या लालसा को दबाने का प्रयत्न कर ही सकता है । ब्लैक मार्केट से तथा घूसखोरी से हाथ खेंच, आवश्यकता से अधिक पदार्थ-सञ्चय मत कर। देखिये इस लोभ का पराक्रम । इसकी पूर्ति के लिए ही अनेकों प्रकार के छल-कपट आदि की प्रवृत्ति रूप माया को पोषण मिलता है। इसकी किंचित् पूर्ति हो जाने पर मान को पोषण मिलता है और इसकी पूर्ति में किंचित् बाधा आ जाने पर क्रोध को पोषण मिलता है। शेष तीनों कषायों को बल देने वाला यही तो है । यदि यह दुष्ट न हो तो न है आवश्यकता मायाचारी की, न रहता है अवकाश मान व क्रोध को। क्रोध कषाय तो स्थूल है, बाहर में प्रत्यक्ष हो जाती है, परन्तु लोभ छिपा-छिपा अन्तरंग में काम करता रहता है और शेष तीनों की डोर हिलाता रहता है । इसके जीवन पर ही सर्व कषायों का जीवन है और इसकी मृत्यु पर सब की मृत्यु । यद्यपि सर्व कषायों का तथा सर्व दोषों का ही शोधन करना शौच है तदपि सबका स्वामी होने के कारण केवल लोभ के शोधन को शौच कहा जा रहा है। हाथी के पाँव में सबका पाँव। यह तो हुई गृहस्थ दशा में धन सम्बन्धी स्थूल लोभ-शोधन की प्रेरणा । अब चलती है धार्मिक क्षेत्र में प्रकट होने वाली, पहले भी अनेकों बार दृष्टि में लाई गई लोकेषणा सम्बन्धी अर्थात् ख्याति सम्बन्धी सूक्ष्म-लोभ शोधन की बात, जो सम्भवत: धन सम्बन्धी लोभ से भी अधिक भयानक है । जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त सर्व भूमिकाओं में स्थित शान्ति के Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७. उत्तम-शौच २५२ ३. लोभ पाप का बाप उपासक धर्मी जीवों को पग-पग पर इसके प्रति सावधानी वर्तने की अधिकाधिक आवश्यकता है, क्योंकि जब तक इसका किंचित् भी संस्कार बीजरूप से अन्तरंग में पड़ा है, यह दुष्ट अंकुरित हुए बिना नहीं रहता । सन्यासी की ऊँची से ऊँची दशा में भी इसमें अंकुर फूट ही पड़ता है। तनिक सी असावधानी वर्तने पर, दीवार पर लगे हुए पीपल के अंकुरवत् यह कुछ ही समय में एक मोटा वृक्ष बन जाता है जो सारे मकान को खिला देता है और सम्पूर्ण मकान गिराये बिना उसका निर्मूलन असम्भव हो जाता है। अर्थात् संवर-प्रकरण में बताये गये तथा जीवन में उतारे गये सारे किये कराये पर पानी फेर देता है ? आन्तरिक ख्याति की महिमा जागृत करके, धन सम्बन्धी व ख्याति सम्बन्धी लोभ का दमन करने वाला वह महापराक्रमी योगी ही उत्तम-शौच करता है, उत्तम स्नान करता है, शान्ति-गङ्गा में स्नान करता है, उसके साथ तन्मय हो जाता है ऐसा कि फिर वह शान्ति भंग न होने पावे, पवित्र हो जाता है इतना कि फिर उसमें अपवित्रता आने न पावे । उसके जीवन को अपना आदर्श बनाकर चलने वाले भो पथिक ! तू भी इस पारमार्थिक गंगा में यथाशक्ति स्नान करके किञ्चित् शुचिता, निर्लोभता, नि:स्वार्थता या निष्कामता उत्पन्न कर । 1 KODOO लोभ और माया की कुटिल वासनाओं के चक्कर में फंसकर क्यों पतिव्रता शान्ति सुन्दरी को अन्तर्ग्रह से नीचे धकेल रहा है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. उत्तम-सत्य ( १. सत्यासत्य विवेक; २. दशविध सत्य; ३. परम सत्य। १. सत्यासत्य विवेक-पर-पदार्थों के प्रति अहंकार-बुद्धि रूपी असत्य संस्कारों के विजेता है सत्य स्वरूप प्रभु ! मुझको भी सत्य-जीवन प्रदान करें। आज उत्तम-सत्य-धर्म की बात चलती है। सत्य किसे कहते हैं और असत्य किसे, इस बात का निर्णय किए बिना 'जैसा देखा-सुना गया हो, वैसा का वैसा कह देना' लोक में सत्य कहा जाता है। परन्तु यहाँ उत्तम-सत्य की बात है साधारण सत्य की नहीं । जैसाकि उत्तम आर्जव-धर्म में बताया गया है, वचन का सत्य होना ही पर्याप्त नहीं है, सत्य होने के साथ-साथ उसका ऋत अर्थात् ऋज या सरल होना भी अत्यन्त आवश्यक है। पूर्वोक्त सभी अधिकारों की भाँति यहाँ भी अभिप्राय की मुख्यता है । सत्य असत्य का निर्णय अभिप्राय पर से किया जा सकता है। स्व-पर-हित का अभिप्राय रखकर की जाने वाली मन, वचन, काय की क्रिया सत्य है और स्व-पर-अहितकारी अभिप्राय रखकर या हिताहित का विवेक किये बिना की जाने वाली क्रिया असत्य है। वचन में ही सत्य या असत्य लागू होता हो, ऐसा नहीं है। मानसिक विकल्पों में, वचनों में तथा शरीरिक क्रियाओं में इन तीनों में ही सत्य व असत्य का विवेक ज्ञानीजन रखते हैं । लोक में तो केवल वचन सम्बन्धी सत्य की बात चलती हैं और यहाँ तीनों सम्बन्धी सत्य की बात है । मानसिक विकल्पों में किसी के प्रति हित होना. सत्य-मानसिक-क्रिया है और अहित की भावना अथवा हिताहित के विवेक-शून्य भावना प्रगट होना असत्य-मानसिक क्रिया है। अपने या अन्य के हित के अभिप्राय से अथवा सत्य-विकल्प-पूर्वक बोला जाने वाला वचन लौकिक रूप से असत्य होते हुए भी सत्य है और अपने या अन्य के अहित के अभिप्राय से अथवा असत्य-विकल्प-पूर्वक बोला जानेवाला वचन लौकिक रूप से सत्य होते हुए भी असत्य है। इसके अतिरिक्त स्व-पर-हितकारी वचन भी यदि कटु है तो दुखदायक होने के कारण असत्य हैं अत: हितरूप तथा मिष्टवचन बोलना ही सत्य-वाचिक क्रिया हैं । स्व-पर-हित के अभिप्राय अथवा मनोविकल्प सहित की जाने वाली शारीरिक क्रिया सत्य है और स्वपर अहित के अभिप्राय अथवा मनोविकल्प सहित की जाने वाली शारीरिक क्रिया असत्य है। अब इन तीनों क्रियाओं के कुछ उदाहरण सुनिये, जिनपर से कि उपरोक्न सर्व कथन का तात्पर्य समझ में आ जाए। सर्वप्रथम अभिप्राय की सत्यता को विचारिये। तीनों का स्वामी यह अभिप्राय ही है। अभिप्राय में पारमार्थिक-सत्य आ जाने पर तीनों क्रियाएँ स्वत: सत्य हो जाएंगी। अभिप्राय की असत्यता के कारण ही मेरे जीवन में क्रोधादि कषायों का, रागद्वेष का व चिन्ताओं का प्रवेश होता है। किसी प्रकार की भी कामना में रंगी प्रत्येक स्वार्थपूर्ण क्रिया कषाय-जनक होने के कारण असत्य है । स्वपर-भेदविज्ञान हुए बिना वास्तव में अभिप्राय में पारमार्थिक सत्य आना असम्भव है । 'शरीर, धन व कुटुम्बादि का उपकार या अपकार मैं कर सकता हूँ अथवा इसके द्वारा मेरा उपकार या अपकार हो सकता है ऐसा निश्चय बने रहना पारमार्थिक असत्य है, क्योंकि वस्तु का स्वरूप ऐसा है ही नहीं । वस्तु स्वतन्त्र है, स्वयं अपना कार्य करने में समर्थ है । वस्तु की स्वतन्त्रता का निर्णय न होने के कारण ही मेरे मन में ये विकल्प उठा करते हैं कि कुटुम्ब का पोषण मैं न करूँ तो कैसे हो, इस द्वेषी व शत्रु का विरोध न करूँ तो कैसे हो ? इन विकल्पों में से अंकुरित हो उठता है दूसरा विकल्प, यह कि धन न कमाऊँ तो कुटुम्बादि का पोषण कैसे हो? इन विकल्पों के आधार पर हो रही हैं आज की मेरी सर्व वाचिक व शारीरिक क्रियायें, जिनके कारण मेरा जीवन चिन्ताओं में जला जा रहा है।। व में सत्य-पुरुषार्थ का यह स्वरूप है ही नहीं। इस असत्य अभिप्राय के कारण पर में कुछ करने का पुरुषार्थ करते हुए, पर में तो कुछ कर नहीं पाता, हाँ अपने में ही कुछ विकल्प या चिन्तायें अवश्य उतपन्न कर लेता हूँ। इस पुरुषार्थ-हीनता को छोड़कर सत्य-अभिप्राय प्रकट करूँ तो पुरुषार्थ की दिशा ‘पर' से हटाकर 'स्व' पर आ जाए, सब विकल्प मिट जायें, शान्ति मिल जाए, जीवन सत्य बन जाए, उत्तम-सत्य का पालन होने लगे । वस्तु-स्वतन्त्रता का तथा उसकी कार्य-व्यवस्था का विस्तृत विवेचन दर्शन-खण्ड में किया जा चुका है । (देखो ९.४) Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. उत्तम-सत्य २५४ २.दशविध सत्य वस्तु की इस स्वतन्त्रता को देखते हुए भी भो भव्य ! क्यों तेरा अभिप्राय नहीं फिरता? पैदा होते ही एक झाड़ी में फैंक दी गयी कन्या पीछे भारत-सम्राट जहांगीर की पत्नी नूरजहां हो गयी। किसने किया उसका पोषण ? विमान से गिरे हनुमान की किसने की रक्षा ? 'यह संस्था मेरे बिना न चलेगी' यह कहते-कहते अनेकों चले गये, पर वह संस्था ज्यों की त्यों चल रही है। कौन करता है उसकी रक्षा ? पिता के अनेकों उपाय करने पर भी सौभाग्यवती मैनासुन्दरी का भाग्य किसने बनाया ? अरे भाई ! 'मेरे द्वारा कुटुम्ब का पोषण होता है' इस मिथ्या अभिमान को छोड़ । 'सब स्वतन्त्र रूप से अपना पोषण आप कर रहे हैं, अपना भाग्य स्वयं साथ लेकर आते व जाते हैं, मैं उनमें कुछ नहीं कर सकता', ऐसा सत्य-अभिप्राय बना। स्वार्थ-नाशक होने के कारण यही है वास्तविक सत्य, पारमार्थिक सत्य, उत्तम-सत्य। मन सम्बन्धी सत्यासत्य क्रियाओं के उदाहरण अभिप्राय में ही अन्तर्भूत हो चुके हैं, अर्थात् उपरोक्त अभिप्राय के कारण मन में उठने वाले, 'पर' में करने-धरने आदि के स्वार्थपूर्ण विकल्प असत्य मनोविकल्प हैं और स्वतन्त्रता का अभिप्राय बन जाने पर निज में शान्ति वेदन का कार्य सत्य-मनोविकल्प है। अब वचन-सम्बन्धी सत्यासत्य क्रिया के उदाहरण सुनिये । जैसा देखा-सुना या अनुभव में आया है केवल वैसा ही कह देना वास्तव में सत्य की पहिचान नहीं है । स्वपर-हितकारी, परिमित तथा मिष्टवचन ही सत्य हैं और इसके विपरीत असत्य । कोई व्यक्ति मुझसे कदाचित् आपकी चुगली करता हो और आप पीछे मुझसे पूछे कि यह व्यक्ति आपसे क्या कह रहा था, तो उस समय जो कुछ चुगली के शब्द उसने मुझसे कहे थे वे ज्यों के त्यों आपसे कह देना यहाँ शान्ति के मार्ग में सत्य नहीं है, असत्य है । और 'आपके सम्बन्ध में कुछ बात नहीं थी, कुछ और ही बात कहता था', अथवा 'आपकी प्रशंसा में इस प्रकार कहता था' ऐसा बोल देना भी यहाँ सत्य है । क्योंकि पहली बात से आपके हृदय में क्षोभ आ जाने की सम्भावना है और आपके तथा उस व्यक्ति के बीच द्वेष बढ़ जाने की सम्भावना है, अत: पहला वचन अहितकारी होने से असत्य है। दसरे वचन के द्वारा आपको सन्तोष आयेगा और आपके तथा उस व्यक्ति के बीच पड़ा वैमनस्य कुछ कम हो जायेगा, अत: हितकारी होने के कारण यह दूसरा वचन सत्य है । यह है वचन की सत्यता व असत्यता की परीक्षा । साथ-साथ इतना आवश्यक है कि वह वचन मधुर व हितकारी होना चाहिये और संक्षिप्त भी, ताकि तीसरा व्यक्ति सुनकर यह संशय न करने लगे कि ये परस्पर में बात कर रहे हैं या अनर्गल प्रलाप। वचन की भाँति शरीर द्वारा की गई स्वपर-अहितकारी क्रियायें, इन्द्रिय-संयम वाले प्रकरण में कथित विषयासक्ति-युक्त तथा प्राण-संयम में कथित हिंसा आदि युक्त क्रियायें असत्य-शारीरिक व्यापार हैं । इनके विपरीत स्वपर-हितकारी अथवा संयमित क्रियायें सत्य-शारीरिक व्यापार हैं। २. दशविध सत्य-लौकिक व्यवहार चलाने के अर्थ भी अनेकों अभिप्रायों के आधार पर वचन बोले जाते हैं, जो कि अभिप्राय की सत्यता के कारण सत्य और अभिप्राय की असत्यता के कारण असत्य समझे जाने चाहिये। जैसे- १. अनेक व्यक्तियों या वस्तुओं में से किसी एक व्यक्ति या वस्तु की ओर लक्ष्य दिलाने के अभिप्राय से बोला जाने वाला वचन 'नाम-सत्य' है, भले ही उस नाम द्वारा प्रदर्शित होने वाले गुण उसमें हों या न मैं आपके द्वारा 'जिनेन्द्र' नाम से पकारा जाता है। परन्त यदि यही नाम इन्द्रियों को जीतने वाले ऐसे जिनेन्द्र-भगवान के अभिप्राय से मेरे सम्बन्ध में कोई प्रयुक्त करने लगे, तो वही वचन असत्य होगा। २. चित्र या प्रतिमा में किसी की आकृति या रूप को देखकर, 'यह चित्र उस व्यक्ति का है' ऐसा न कहकर, 'यह अमुक व्यक्ति है' ऐसा कह देना 'रूप-सत्य' है। परन्तु इस प्रतिमा या चित्र को कोई वास्तव में व्यक्ति समझकर ही यह वचन कहे तो वही वचन असत्य होगा। ३. किसी भी पदार्थ में किसी अन्य पदार्थ की कल्पना करके, उसे वह पदार्थ बता देना 'स्थापना-सत्य' है, जैसे कि शतरंज के पासों में आकारादि न दीखने पर भी, 'यह हाथी है' इत्यादि कह देना सत्य है परन्तु कोई इस पासे को वास्तविक हाथी समझकर इसे हाथी कहे तो यही वचन असत्य होगा। ४. आगमकथित तथ्यों पर से 'यह ऐसे ही है' ऐसा विश्वास रखना 'आज्ञा-सत्य' है, जैसे कि छिन्न-भिन्न करने मात्र से किसी वनस्पति को अचित कह देना सत्य है, क्योंकि आगम की ऐसी ही आज्ञा है, यद्यपि सम्भव है कि छिन्न-भिन्न कर लेने पर भी इसमें अनेकों दन्टियों कोन Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. उत्तम-सत्य २५५ ३. परम-सत्य जीव विद्यमान हों। परन्तु इसको वास्तव में वैसा ही समझ लेना अर्थात् सर्वथा अचित् समझ लेना या वैसा समझकर उसे अचित् कहना असत्य है। इसी प्रकार प्रमाणिक व्यक्तियों या आगम के विश्वास के आधार पर अनेक सूक्ष्म, दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के सम्बन्ध में यह कहना ‘कि ये ऐसे ही हैं', सत्य है, जैसे कि धर्मास्तिकाय आदि का साक्षात्कार न होने पर भी 'द्रव्य छ: ही हैं' यह कहना सत्य है । परन्तु बिना किसी आधार के युक्ति आदि द्वारा किञ्चित् भी निर्णय किये बिना, केवल पक्षपातवश ऐसा कह देना असत्य है । ५. अनेक कारणों से उत्पन्न हुए कार्य को किसी एक कारण से उत्पन्न हुआ कह देना सत्य है, जैसे कि 'किसान के द्वारा खेती बोई गई यह कहना सत्य है । परन्तु अन्य सब कारणों को भूलकर 'केवल किसान ने ही खेती बोई' ऐसा कहना असत्य है । ६. अनेक पदार्थों से मिलकर बने किसी पदार्थ को एक नाम से कह देना सत्य है, जैसे कि कुंकुमादि से बने पदार्थ को धूप कहना सत्य है । परन्तु इस नाम का कोई पृथक् सत्ताधारी पदार्थ समझकर धूप कहना असत्य है । ७. अनेक देशों में अपनी-अपनी भाषा के आधार पर एक ही पदार्थ को अनेक नामों से कहा जाना 'व्यवहार-सत्य' है, जैसे कि भारत में कहे जाने वाले 'ईश्वर' को इङ्गलैंण्ड में 'गॉड' शब्द द्वारा कहा जाना सत्य है । परन्तु 'ईश्वर पृथक् है और गॉड पृथक् है' ऐसा अभिप्राय रखकर कहे जाने वाले वही शब्द असत्य हैं। ८. किसी बात की सम्भावना को देखते हए 'ऐसा हो सकता है ऐसा कह देना 'सम्भावना सत्य' है, जैसे कि 'आज विश्व में युद्ध हो जाना सम्भव है' यह कह देना सत्य है । परन्तु युद्ध अवश्य होगा ही' ऐसा अभिप्राय रखकर यही वचन कहना असत्य है । ९. किसी की उपमा देकर, 'यह पदार्थ तो बिल्कुल वही है' ऐसा कह देना 'उपमा-सत्य' है, जैसे कि जवाहरलाल नेहरू जैसी कुछ आकृति व कुछ संस्कार देखकर, 'यह बालक तो जवाहरलाल है' ऐसा कह देना सत्य है । परन्तु बिल्कुल जवाहरलाल मानकर ऐसा कहना असत्य है । १०. किसी कार्य को करने का संकल्प मात्र कर लेने पर 'मैं यह काम कर रहा हूँ' ऐसा कहना 'अभिप्राय-सत्य' है। जैसे कि देहली जाने की तैयारी करते हुए 'मैं देहली जा रहा हूँ' यह कहना सत्य है । परन्तु वास्तव में इस समय रेल में बैठे हुए मैं देहली जा रहा हूँ' ऐसा अभिप्राय रख कर बोला हुआ यही वचन असत्य है । इस प्रकार अनेक जाति के अभिप्रायों के हेरफेर से अपने लौकिक व्यवहार में वचन सत्य होते हए देखे जाते हैं। ३. परम-सत्य-मन, वचन व कायगत इन व्यवहारिक सत्यों के ऊपर है वह पारमार्थिक सत्य जिसे मैं हार्दिक सत्य कहता हूँ, उस हृदय राज्य का सत्य जहाँ तक देह व इन्द्रियों की तो बात नहीं मन व बुद्धि भी पहुँच नहीं सकते। तत्त्व में अथवा उसके परम तेज में लय हो जाने के कारण इन सबकी सत्ता सत्ताहीन हो चुकी है यहाँ और सबका तेज तेजहीन । सबके प्रयोजन नि:शेष हो जाने से शून्यमात्र बनकर रह जाते हैं यहाँ । न रहते हैं संकल्प और न विकल्प, इसलिए न कुछ करने का प्रयोजन रहता है यहाँ और न कुछ कहने-सुनने तथा विचारने का। सब कुछ महासत्य में लय हो जाता है, रह जाता है केवल एक ज्ञाता-दृष्टा भाव और उसमें से उत्पन्न होने वाला सहज आनन्द-स्रोत । सकल विधि-निषेधात्मक द्वन्द्वों से अतीत हो जाता है वह, 'तमाशा देखने के तथा देखते रहने के अतिरिक्त कुछ भी कर्तव्य नहीं है अब उसका', इतना कहना भी उपचार है, क्योंकि यह तो उसका स्वभाव है न कि कर्तव्य । संकल्प-विकल्परूप मानसिक क्षोभ के नीचे दबा पड़ा था वह, उसके शान्त हो जाने के कारण अभिव्यक्त हो गया है अब । कुछ भी प्रयोजन नहीं है अब । उसको, न सत्य से और न असत्य से । सत्य भी असत्य है उसके लिए और असत्य भी सत्य है उसके लिये । बालकवत प्रयोजनहीन हो जाने के कारण उसे क्या पता कि सत्य क्या और असत्य क्या? सभी कछ खेल है उसके लिये। सत्य-निष्ठ हो जाने के कारण जिसका व्यक्तित्व स्वयं सत्य बन गया है, उस सत्य-मूर्ति के सत्य का लक्षण शब्दों द्वारा कोई कैसे करे ? बने सो जाने, खाये सो चखे।। न है उसे कुछ करने का प्रयोजन और न मना करने की हठ । जिस प्रकार बालक को खेलने के अतिरिक्त अपनी ओर से अन्य कुछ भी करने का प्रयोजन नहीं, माता-पिता ने कह दिया तो कर दिया, नहीं तो न सही; इसी प्रकार इस महायोगी को भी जानने, देखने तथा आनन्द-मग्न रहने के अतिरिक्त अपनी ओर से अन्य कुछ भी करने का प्रयोजन नहीं, लोक-संग्रहार्थ कुछ करना पड़ा तो कर दिया, नहीं तो न सही। जिस प्रकार माता-पिता के अर्थ करने वाले बालक को उस कृत्य के अच्छे या बुरे परिणाम से कोई प्रयोजन नहीं, और इसलिए कार्य करके भी उससे अलिप्त रहता है वह; इसी प्रकार Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. उत्तम-सत्य २५६ ३. परम-सत्य लोक-संग्रहार्थ करने वाले उस महायोगी को भी उस कृत्य के अच्छे या बुरे परिणाम से कोई प्रयोजन नहीं, और इसलिए कर्म करके भी उससे अलिप्त रहता है वह । सब कुछ ईर्यापथ है उसके लिए, किया और समाप्त । इसलिए जिस प्रकार बालक को व्यवहार्य या अव्यवहार्य कुछ भी करके न तो किसी से भय होता है और न छिपने-छिपाने की आवश्यकता; इसी प्रकार उस महायोगी को भी व्यवहार्य या अव्यवहार्य कुछ भी करके, न तो किसी से भय होता है और न छिपने-छिपाने की आवश्यकता । इसीलिए अन्तिम सत्य है यह, सत्य व असत्य दोनों से अतीत पारमार्थिक सत्य है यह। परन्तु अव्यवहारिक है यह स्थिति, केवल समता-मूर्ति महा-योगियों के सत्य-जीवन का संक्षिप्त सा परिचयमात्र है यह, न कि व्यवहारिक जनों के लिए अनुकरणीय । सत्य के पूर्वोक्त सोपानों के यथाक्रम अवलम्बन पूर्वक मनोगत तथा बुद्धिगत वासनाओं को क्षीण करके मन व बुद्धि को निश्चेष्ट किये बिना ऐसा होना सम्भव नहीं और इनके निश्चेष्ट हो जाने पर व्यक्ति जगत-व्यवहार के योग्य रहता नहीं। YVAVY 35 AAW A 15 IMILMY जिस प्रकार इस नारियल के भीतर इसकी सारभूत गिरी है उसी प्रकार तेरे शरीर के भीतर सत्यस्वरूप चेतन है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. उत्तम-संयम ( १. यम व नियम; २. इन्द्रिय संयम; ३. प्राण संयम; ४. परम संयम। १. यम व नियम-भव-भव के दुष्ट संस्कारों का यमन करने वाले है अन्वर्थ संज्ञक वीतराग प्रभु ! मुझे यम प्रदान कीजिये । प्रतिक्षण होने वाली विकल्पात्मक अन्तर्मृत्यु को जीतकर मृत्यु की सर्वदा के लिए मृत्यु कर देने वाले, मृत्युञ्जयपद को प्राप्त हे यमराज ! मुझको भी अपनी शरण में लीजिये । ओह ! कैसी अनोखी बात है कि जिस यमराज से जगत कांपता है, आज उसकी शरण में जाने की प्रार्थना की जा रही है । विस्मय मत कर प्रभु ! यमराज से डरने वाला मोह से ग्रसित जगत वास्तव में जानता ही नहीं कि यमराज कौन है ? लोक में तो यमराज का अत्यन्त भयानक काल्पनिक चित्रण खेंचा गया है, पर ऐसा वास्तव में नहीं है । यमराज का स्वरूप सुन्दर है, अत्यन्त शान्त है, लोक में साने वाला है। दष्ट संस्कारों का यमन करके जिन्होंने मत्य की भी मत्य कर दी है. ऐसे वे महा मृत्युञ्जय सिद्ध प्रभु ही वास्तविक यमराज हैं, उनकी शरण में जाने की बात है अर्थात् स्वयं यमराज बनने की बात है। भय को अवकाश नहीं, उत्साह उत्पन्न कर । आज संयम का प्रकरण चलता है। संयम अर्थात् सम्यक् प्रकार यमन करना, नियन्त्रित करना, संस्कारों को। वैसे तो संयम के सम्बन्ध में अब तक बहुत कुछ कहा जा चुका है परन्तु अभी भी पर्याप्त नहीं है । संयम दो प्रकार का है—एक संस्कारों की पूर्ण-मृत्यु रूप और दूसरा किञ्चित्-मृत्युरूप । पूर्ण-संयम को यम और किञ्चित-संयम को नियम कहा जाता है। अर्थात् अत्यन्त पराक्रमी जीवों द्वारा संस्कारों का जीवन पर्यन्त के लिए धुतकारा जाना यम है और अल्प-शक्तिवाले जीवों के द्वारा उनका सीमित समय के लिए पन्द्रह मिनट के लिए, या आध घण्टे के लिए,या पाँच सात दिनों या महीनों या वर्षों के लिए आंशिक रूप में धुतकारा जाना नियम कहलाता है। अब तक जितना भी कथन चला था वह सब नियम था क्योंकि मन्दिर के अनुकूल वातावरण में आध-पौन घण्टे-मात्र तक की सीमा के लिए करने में आता था, अथवा व्रत लिये बिना अर्थात् व्रत वाले प्रकरण में बताए गए 'तो' रूप शल्य के निकाले बिना केवल अभ्यास रूप में किया जा रहा था। उसी अभ्यास के कारण शक्ति की वृद्धि हो जाने पर वह नियमी बन जाता है यमी, संयमी अर्थात् संन्यासी । तब उसके बल व पराक्रम के क्या कहने ? मनकी कुछ भी तीन-पाँच नहीं चलती है अब उसके सामने।। ___ इस दशा को प्राप्त होकर वह यमी बाह्य में प्रकट होने वाले सम्पूर्ण स्थूल संस्कारों की शक्ति का विच्छेद कर देता है, और पुन: वे अंकुरित न होने पावें इस प्रयोजनवश अनेकों कड़ी-कड़ी प्रतिज्ञायें धारण कर लेता है । 'जीवन जाए तो जाए पर यह प्रतिज्ञा अब भङ्ग न होने पाए' ऐसी दृढ़ता है आज उसकी अन्तर्गर्जना में। वह यमराज बनने को निकला है। वीरों का वीर यह यद्यपि पहले ही से इन्द्रियों को वश में कर चका था और प्राणियों को भी पीडा देने का उसे अवसर प्राप्त नहीं होता था पर आज उसका वह इन्द्रिय व प्राण-संयम पूर्णता की कोटि को स्पर्श कर चुका है। २. इन्द्रिय-संयम घरबार को तथा राज्यपाट आदि को लात मारकर पूर्ण संन्यासी हो गए हैं वे आज । वन में अकेले वास करने वाले वे बाह्य के तो सम्पूर्ण विषयों का त्याग कर ही चुके हैं, अन्तरङ्ग में भी इन्द्रियों को पूर्णतया जीत चुके हैं । विषयों में आवश्यक अनावश्यक का कोई भेद नहीं रह गया है अब उनके लिए । सकल विषय अनावश्यक बन चुके हैं आज उनके लिए। स्पर्शनेन्द्रिय को ललकारते हुए यथाजात नग्न-वेष धारण किया है उन्होंने। गरमी, सर्दी, बरसात, मच्छर-मक्खी आदि की बाधाओं से बचने का अब किञ्चित मात्र भी विकल्प शेष नहीं रहा है उनमें, जिसकी घोषणा कि उनके शरीर की नग्नता कर रही है । इस नग्न अवस्था में भी बिना किसी आश्रय के केवल आकाश की छत के नीचे, बीहड़ वनों में अथवा भयानक श्मशानों में, सर्दी की तुषार बरसाती रातों के बीच, उनकी निश्चल व निर्भीक ध्यानस्थ अवस्था उनके पूर्ण स्पर्शन-इन्द्रिय-विजेतापने का विश्वास दिला रही हैं । गर्मी की आग बरसती दोपहरियों में, तप्त बालू पर खुले जाज्वल्यमान आकाश के नीचे धारा हुआ उनका आतापन योग, शरीर के प्रति उनकी अतीव निर्ममता का द्योतक है। आज दिशायें ही उनके वस्त्र हैं, इसके अतिरिक्त और कृत्रिम वस्त्रों की उन्हें आवश्यकता नहीं। मैथुन भाव पर उनकी Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. उत्तम-संयम २५८ ३. प्राण-संयम जय घोषणा करने वाली निर्विकार शान्त-आभा मुझे स्पर्शन-इन्द्रिय के विषय पर उनकी पूर्ण विजय का दृढ़ विश्वास दिला रही है । शरीर मैला-कुचैला साफ-सुथरा कैसा भी रहे, सब समान है आज उनके लिये। महीनों-महीनों के उपवास के पश्चात् भी, आकुल या आसक्त-चित्त से गृद्धतासहित आहार की ओर दृष्टि नहीं उठाना, तथा अन्तराय या काई भी बाधा आ जाने पर शान्तिपूर्वक आहार-जल का त्याग करके पुन: वन को लौट जाना, उनकी जिह्वा-इन्द्रिय पर पूर्ण विजय का प्रदर्शन कर रहा है । आहार लेते समय भी स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट में, नमक सहित या नमक रहित में, मीठे या खट्टे में, चिकने या रूखे में, गरम या ठण्डे में, उनकी मुखाकृति का एकीभाव उनकी अन्तर्साम्यता व रस-निरपेक्षता की घोषणा करता हुआ उन्हें जिह्वा-इन्द्रिय विजयी सिद्ध कर रहा है । रोम-रोम को पुलकित कर देने वाला सर्वसत्व-कल्याण की करुणापूर्ण भावनाओं से निकला, उनका हितकारी व अत्यन्त मिष्ट सम्भाषण, वचन पर उनका पूर्ण नियन्त्रण दर्शाता हुआ उनके पूर्ण जिह्वा-इन्द्रिय-विजयी होने का विश्वास दिला रहा है। विष्टा के पास से गुजरते हुए भी उनकी मुखाकृति की सरलता व शान्तता का निर्भङ्ग रहना, किसी कुष्टी आदि के ग्लानिमयी शरीर को देखकर भी उनकी आँख का दूसरी ओर न घूमना तथा किसी उद्यान के निकट से जाते हुए या वहाँ बैठे हुए आने वाली धीमी-धीमी सुगन्धि की ओर उनके चित्त का आकर्षित न होना, मुखाकृति पर किसी सन्तोष-विशेष के चिह्न न दीखना उनके पूर्ण नासिका-इन्द्रिय-विजयीपने को सिद्ध करता है। दुर्गन्धि व सुगन्धि में साम्यभाव उनकी पूर्ण-वीतरागता का तथा शान्ति के रसास्वादन का प्रतीक है, जिसके कारण कि उन दोनों में उन्हें भेद भासता नहीं। तीखे कटाक्ष करती, शृङ्गारित रम्भा व उर्वशी सी सुन्दर युवतियों के सामने आ जाने पर भी विकृत दृष्टि से उधर ना अथवा महा-भयानक कोई विकराल रूप दीख पड़ने पर भी उनकी आभा में कोई अन्तर न पड़ना, आहारार्थ चक्रवर्ती के महल में या साधारण-जन की कुटिया में प्रवेश करते उनका गौवत् समान भाव में स्थित रहना, उनके पूर्ण नेत्र-इन्द्रिय-विजयी होने की घोषणा कर रहा है। सुन्दर-असुन्दर, मनोज्ञ-अमनोज्ञ सब समान है आज उनके-लिए। निन्दा व स्तुति दोनों में समान रहने वाली उनकी समबुद्धि, निन्दक व वन्दक दोनों के लिए समान रूप से प्रकट होने वाली कल्याण की भावना तथा दोनों के लिए मुख से एक शान्त मुस्कान के साथ निकला हुआ 'तेरा कल्याण हो' ऐसा आशीर्वचन उनके पूर्ण कर्णेन्द्रिय-विजयी होने का द्योतक है। इन सबके अतिरिक्त स्वर्ण व कांच में तथा हानि व लाभ में रहने वाली उनकी साम्यता, निर्लोभता व निष्कपटता उनके पूर्ण-निष्परिग्रहीपने का, पूर्ण-त्यागीपने का आदर्श उपस्थित करती है । शत्रु व मित्र में समानता उनकी क्षमा को, और अनेकों गुणों तथा चमत्कारिक ऋद्धियों के या शक्ति-विशेषों के होते हुए भी उन्हें प्रयोग में न लाना उनकी निरभिमानता व क्षमता का द्योतक है। कहाँ तक कहें, ये वीतरागी साधु जिनको कि मैंने आदर्श स्वीकार किया है, पूर्ण-संयमी हैं, पूर्ण-इन्द्रिय-विजयी हैं, पूर्ण-कषाय-विजयी हैं। ३. प्राण-संयम-इन्द्रिय-संयम के अतिरिक्त प्राण-संयम भी पूर्ण हो जाता है यहाँ । संयम-अधिकार के अन्तर्गत कथित जीव हिंसा के १२९६० विकल्पों का (देखो २६.८) पूर्ण त्याग कर देते हैं वे, अर्थात् जो कुछ भी कमी रह गई थी उसे भी दूर करके पूर्णरूपेण प्राण-संयमी बन जाते हैं वे । मनुष्य से लेकर चींटी पर्यन्त चलने फिरने वाले त्रस-जीवों की तो बात क्या, स्थावर-जीवों की हिंसा भी पाप है आज उनके-लिए। वायुकायिक जीवों को बाधा न हो इस अभिप्राय से पंखा नहीं झलते हैं वे, वनस्पति-कायिक जीवों को पीड़ा न हो इस अभिप्राय से घास का एक तिनका भी तोड़ना स्वीकार नहीं करते हैं वे । क्या बतायें उनकी दयालुता, पृथ्वी तथा जल को बाधा पहुँचाना तक सहन नहीं है आज उन्हें । इसीलिए न कभी जल में गमन करते हैं और न मिट्टी आदि लेने के लिए पृथ्वी करेदते हैं वे । धन्य है उनकी आदर्श करुणा। गहस्थ दशा में उन्हें केवल संकल्पी-हिंसा का त्याग था. उद्योगी तथा आरम्भी हिंसा कम से कम हो ऐसा यत्न मात्र करते थे, परन्तु उसका सर्वथा त्याग नहीं था। अपनी, अपने कुटुम्ब की तथा अपने देश की रक्षा के लिए चोर-डाकुओं तथा आतताइयों के साथ युद्ध करते समय विरोधी हिंसा अनिवार्य करनी पड़ती थी उन्हें । परन्तु यहाँ इन तीनों का भी पूर्ण त्याग हो जाता है। साधु के पास न है कुछ उद्योग व आरम्भ, न व्यापार-धन्धा और न घरबार का कामकाज । धन, गृह-कुटुम्बादि को छोड़ देने के कारण अन्य कोई वस्तु या देश उनके पास है ही नहीं, जिसे कि चोर-डाकु लूट सकें या जिसके लिए आततायी आक्रमण कर सकें। अब लोक की बड़े-से-बड़ी बाधा भी उनकी शान्ति Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. उत्तम-संयम २५९ ४. परम-संयम है, वह में विघ्न डालने को समर्थ नहीं। उनका कर्तव्य बदल चुका है अब, उनका शरीर बदल चुका है अब, उनकी सम्पत्ति बदल चुकी है अब, उनका कुटुम्ब बदल चुका है अब, उनका देश बदल चुका है अब । आज ज्ञान उनका शरीर है, शान्ति उनकी सम्पत्ति है, वैराग्य, समता, मैत्री, उत्साह, उल्लास उनका कुटुम्ब है, विवेक उनका देश है । इनमें से किसी भी वस्तु को न तो चोर डाकू चुराने के लिए समर्थ हैं और न कोई आततायी इन पर आक्रमण करने को समर्थ है । तब किसे समझें वे अपना शत्रु ? उनके ज्ञान शरीर पर चलने के लिए कोई हथियार ही नहीं । गर्मी, सर्दी, बरसात आदिरूप प्राकृतिक बाधाएँ हों या हों मक्खी-मच्छर आदिकृत उपद्रव, पशु-पक्षी आदिकृत संकट हों या हों अज्ञानी-जनों कृत उपसर्ग, उनके मुख-मण्डल पर फैली मधुर मुस्कान का भेद करने को कोई समर्थ नहीं। और तो कुछ उनके पास है नहीं जिस को उनसे छीना जा सके, एक शरीर है परन्तु वह है अलौकिक । तिल-तिल करने के लिए तैयार हो कोई इसके, कोल्हू में पेलने के लिये उद्यम हुआ हो कोई इसको, अथवा जीवित भस्म कर देने का भाव लेकर आया हो कोई इसे, कुत्तों के द्वारा नुचवाने के लिए दही छिड़कता हो कोई इस पर, दीवार में चिनने लगा हो कोई इसे, परन्तु उन्हें क्या चिन्ता, उन्हें क्या भय ? अपने द्वेष की आग जिस वस्तु पर, जिस शरीर पर बुझाई जा रही का है ही नहीं अब, उससे ममत्व है ही नहीं अब, फिर उस विद्वेषी के प्रति उन्हें द्वेष क्यों हो, घुणा क्यों हो, क्रोध क्यों हो, इससे मुकाबला करने की भावना क्यों हो? वह बेचारा रंक स्वयं नहीं जानता कि क्या है इस योगी के पास जिसको छीनने से कष्ट हो सकेगा इन्हें । उसको तो दिखाई देता है यह चमड़े का शरीर, जिसे बाधा पहुँचने पर स्वयं उसे प्रतीत होती है बाधा । उसी तुला पर तोलता है आज वह इस परम योगेश्वर की सम्पत्ति को, शान्ति को, और यदि पता भी हो उसे तो इसके छीनने में बिल्कुल असमर्थ है वह । इसलिए क्यों समझें वे योगी उसे शत्रु ? वह तो बेचारा है रंक, द्वेष की अन्तर्दाह में नित्य जलते रहने के कारण स्वयं बहुत दुःखी । वह तो है उस योगी की करुणा का पात्र, विरोध का नहीं। उसके लिए भी उस योगी के मुख से निकलता है कल्याणात्मक आशीर्वाद जैसे कि एक भक्त के लिए। यह है साधु की पूर्ण अहिंसा, उनका पूर्ण प्राण-संयम। ४. परम-संयम इससे भी ऊपर है संयम तथा असंयम से अतीत उनका वह परम संयम जिसे साक्षात् अमत-कम्भ कहा गया है। जिनके मन तथा बद्धि मर चके हैं, जिनके समस्त संकल्प-विकल्प परम सत्य में विलीन हो चुके हैं, उनके लिए क्या संयम और क्या असंयम ? सबं बच्चों का सा खेल है अब उनके लिए। जिस प्रकार एक बालक के लिए स्वयं राजा बनकर चोर को दण्ड देना भी वैसा ही है जैसा कि स्वयं चोर बनकर राजा से दण्ड पाना उसी प्रकार सत्य-स्वरूप उस महायोगी के लिए संयम-युक्त होकर रहना भी वैसा ही है जैसा कि संयम विहीन होकर रहना । त्याग भी उनके लिए वैसा ही है जैसा कि ग्रहण । जिस प्रकार कोई रोगी रोग-वर्धक कारणों से बचने के लिए अपने ऊपर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाता है परन्तु रोग शान्त हो जाने पर उन सब प्रतिबन्धों का त्याग करके हल्का हो जाता है; उसी प्रकार शान्ति-पथ का साधक अध्यात्म योगी विकल्प-वर्धक कारणों से बचने के लिए अपने ऊपर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगाता है परन्तु विकल्प-रोग शान्त हो जाने पर उन सर्व प्रतिबन्धों का त्याग करके हलका हो जाता है । जिस प्रकार रोग-मुक्त हो जाने पर वे त्यक्त पदार्थ अब उस व्यक्ति को बाधा कारक नहीं होते हैं, उसी प्रकार विकल्प-मुक्त हो जाने पर सकल त्यक्त पदार्थ अब उस महा-योगी को बन्धकारक नहीं होते हैं । रोग-मुक्त हो जाने पर भी वह व्यक्ति यदि उन पदार्थों के त्याग की हठ न छोड़े तो उसका वह त्याग ही उसके लिए महा-रोग बन जाता है, उसी प्रकार विकल्प-मक्त हो जाने पर भी वे महा-योगी यदि उन पदार्थों के त्याग की हठ न छोड़ें उनका वह त्याग ही उनके लिए महा-विकल्प बन जाता है । दोनों ओर से सन्तुलित रहना ही स्वास्थ्य है। इसलिए समतारूप सत्य-भूमि में प्रविष्ट महा-योगी सकल प्रतिबन्धों से मुक्त हो जाते हैं और यही है पारमार्थिक असंयमरूप उनका संयम, संयम असंयम से अतीत तृतीय भूमि । परन्तु अव्यवहारिक है यह, मन बुद्धि से अतीत समता भोगी के लिए अमृत कुम्भ होते हुए भी मन बुद्धि के जगत में रहने वाले व्यावहारिक जनों के लिए विषकुम्भ है यह । संयम के पूर्वोक्त विविध सोपानों के यथाक्रम अवलम्बन-पूर्वक मनोगत तथा बुद्धिगत वासनाओं को क्षीण करके मन व बुद्धि को निश्चेष्ट किये बिना ऐसा होना सम्भव नहीं, और इनके निश्चेष्ट हो जाने पर व्यक्ति जगत-व्यवहार के योग्य रहता नहीं। । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम - तप १. परिचय; २. षड्विध बाह्य तप; ३. षड्विध आभ्यन्तर तप । १. परिचय—सर्व बाह्य व आभ्यन्तर संग से मुक्त हे एकान्तवासी गुरुदेव ! मुझको भी विकल्पों से मुक्त करके निज एकान्त शान्ति का आवास प्रदान कीजिये । गृहस्थोचित सामान्य - तप का तथा शक्ति व परिस्थिति के अनुसार मानस तप का उल्लेख पहले किया जा चुका है। वहाँ यह संकेत किया गया था कि अभ्यास के द्वारा शक्ति में वृद्धि हो कुछ अन्य प्रकार के भी बाह्य तथा आभ्यन्तर तप योगी जन किया करते हैं। उन तप-विशेषों का उल्लेख करना ही यहाँ प्रयोजनीय है । वहाँ विस्तार सहित यह बात बताई जा चुकी है कि 'तप' शब्द का अर्थ है वह प्रबल पुरुषार्थ जो कि साधक संस्कारों का मूलोच्छेद करने के लिए किया करता है; अर्थात् प्रतिकूल वातावरण में जाकर सुप्त संस्कारों को जगाना, उन्हें ललकारना तथा पूरी शक्ति से उनके साथ युद्ध ठानना । बहुत बल की आवश्यकता है इसके लिए जो प्राय: योगी जनों में ही होना सम्भव है, तथापि अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार गृहस्थ भी हीनाधिक रूप में उन्हें करे तो उसे किसी अचिन्त्य लाभ की प्राप्ति होती है । संस्कार दो प्रकार के हैं - एक तो वे जिनका कि क्षेत्र है बाहर का यह स्थूल शरीर और दूसरे वे जिनका क्षेत्र है आभ्यन्तर का सूक्ष्म शरीर अर्थात् मन, बुद्धि आदि। पहले संस्कारों का कार्य है शारीरिक पीड़ाओं में मुझे शान्ति तथा समता से बलपूर्वक विचलित करके उन पीड़ाओं के चिन्तवन में अटका देना। दूसरे संस्कारों का कार्य है मेरे भीतर विविध प्रकार की इच्छायें, अथवा वासनायें जाग्रत करके मुझे विविध प्रकार के विषय - चिन्तवन में नियोजित कर देना । अतः तप भी दो प्रकार का होना स्वाभाविक है— एक बाह्य-तप जिसका प्रयोजन है बाह्य क्षेत्रवर्ती संस्कारों का मूलोच्छेद करना और दूसरा आभ्यन्तर तप जिसका प्रयोजन है आभ्यन्तर - क्षेत्रवर्ती संस्कारों को नष्ट करना । दोनों ही प्रायः छः-छः प्रकार के हैं । बाह्य तप में सम्मिलित हैं—अनशन, अवमौदर्य या ऊनोदरी, वृत्ति - परिसंख्यान, रस-परित्याग, विविक्त- शय्यासन और कायक्लेश । आभ्यन्तर तप में सम्मिलित हैं—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान । इन सबका उल्लेख क्रम से किया जाने वाला है। अधिक विस्तार न करके संक्षेप से ही परिचय देने का प्रयत्न करूँगा । २. षड्विध बाह्यत — तप के सामान्य स्वरूप का विवेचन करते हुए यह बताया जा चुका है कि शान्ति तथा की प्राप्ति के लिए साधक शारीरिक पीड़ाओं की चिन्ता नहीं करता । शरीर को शान्ति तथा समता के उत्पादनार्थ गाई गई मशीन से अधिक कुछ नहीं समझता। अपनी शक्तियों को न छिपाता हुआ पूरे उत्साह के साथ बराबर आगे बढ़ता जाता है निर्भय, एक महा-सुभट की भाँति, संस्कारों के साथ युद्ध करता । ज्यों-ज्यों विजय प्राप्त करता है उन पर, त्यों-त्यों वृद्धि होती चली जाती है उसकी शक्ति में, उत्साह तथा उल्लास में। बस स्थिरता का चारजामा कस, तप के हथियार सजा, कूद पड़ता है वह युद्धस्थल में और ललकारता है एक-एक शारीरिक पीड़ा को । जान बूझकर उत्पन्न करता है उन्हें, जानबूझकर प्रवेश करता है उनमें। और तो सर्व आवश्यकतायें व इच्छायें पहले ही त्याग चुका है वह, केवल एक आवश्यकता शेष रह गई है उसकी, और वह है भोजन सम्बन्धी । इसलिये उसके सर्व ही संस्कार आज एकत्रित होकर इस ही दिशा में अपना बल दिखा सकते हैं, और वह योगी भी इसी के आधार पर सर्व अभिलाषाओं के संस्कार- विच्छेद सम्बन्धी पुरुषार्थ कर सकता है। अतः भोजन की मुख्यता से इन तपों का वर्णन किया जायेगा यहाँ, पर इसका यह अर्थ नहीं कि ये भोजन- सम्बन्धी अभिलाषाओं पर ही लागू होने वाले हैं। प्रत्येक अभिलाषा पर यथायोग्य रूप से लागू करके हम उस उस जाति के संस्कारों का विच्छेद कर सकते हैं। जैसे कि 'योगी का आहार छोड़कर उपवास करना' और इसी प्रकार आप यदि कर सकें तो 'एक दिन या कुछ महीनों के लिए अपना धनोपार्जन छोड़कर लोभ या वित्तेषणा के त्यागरूप उपवास करना' एक ही बात है। पहले से छूटती है भोजन की अभिलाषा और दूसरे से छूटती है धन की अभिलाषा । इस प्रकार किसी भी दिशा में लागू किये जा सकते हैं ये तप के भेद । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६१ २. षड्विध बाह्यतप (१) भोजन-ग्रहण की अभिलाषा-सम्बन्धी संस्कार को तोड़ डालते हैं वे योगीजन, एक दिन, दो दिन, दस दिन अथवा महीनों-महीनों तक के उपवास धारण कर-करके । (वज्रवृषभनाराच-संहनन वाले शरीरधारी योगी वर्षभर का भी उपवास कर सकते हैं। उपवास के दिनों में जल की एक बँद भी ग्रहण नहीं करते और बराबर शान्ति में स्थिर बने रहते हैं वे। उपवास नाम भोजन मात्र के त्याग का नहीं बल्कि है, 'उप' अर्थात् निकट में 'वास' करने का नाम अर्थात् अपनी आत्मा अथवा शान्ति के निकट में वास करने का नाम उपवास है । भोजन छोड़कर व्याकुल हो जाये और दिन बीतने की प्रतीक्षा करने लगे कि कब दूसरा दिन आये और मुझे भोजन मिले, तो उपवास नहीं कहते । अत: योगीजन उपवास के समय भोजनपान न मिलने पर शान्ति से च्युत नहीं होते और इस प्रकार तोड़ डालते हैं क्षुधा से पीड़ित कर देने वाले संस्कार को । क्षुधा हो तो हो पर वे अपने बल के आधार पर उसे गिनते ही नहीं अर्थात् उपयोग के शान्ति में स्थिर रहने के कारण उस ओर लक्ष्य देते ही नहीं । यह है बाह्य-तप का पहला भेद 'अनशन'। (२) दूसरा संस्कार है वह जो कि प्राप्त वस्तु का किसी कारणवश कदाचित् उपयोग न कर पाने पर चित्त में एक विशेष प्रकार की गृद्धता का वेदन जागृत कर देता है । जैसे कि दुकान बिल्कुल न खोलना तो आप कदाचित् स्वीकार कर लें. परन्त किसी ग्राहक को आधा सौदा देकर, दकान में होते हए भी शेष आधा सौदा जिसमें साक्षात लाभ होने वाला है, किसी कारणवश देने से इन्कार कर दें । बिल्कुल न बेचने से आधा बेचना अखरता है । इसी प्रकार बिल्कुल न खाने से अल्पमात्र ही खाकर छोड़ देना कठिन है । योगीजन इस संस्कार का मूलोच्छेद करते हैं, पहले आधा पेट भोजन ग्रहण क फिर क्रम से एक-एक ग्रास कम करते हए केवल एक ग्रास मात्र में सन्तोष धारण करके और आगे भी उस ग्रास को कम करते-करते केवल एक चावल मात्र का ग्रहण करके । अत्यन्त अल्प यह भोजन या एक चावल वे इसलिए नहीं लेते कि क्षुधा में कोई अन्तर डाल देगा, बल्कि इसलिए लेते हैं कि क्षुधा के साथ-साथ अल्प-ग्रहण में पीड़ा की प्रतीति कराने वाला संस्कार टूट जाय। इस तप के द्वारा युगपत् दो संस्कार जीते जा रहे हैं-एक क्षुधा में पीड़ा को प्रतीति कराने वाला और दूसरा अल्प-ग्रहण में गृद्धता की प्रतीति कराने वाला। इसका नाम है 'अवमौदर्य या ऊनोदरी' तप। (३) किसी वस्तु की प्राप्ति या अप्राप्ति के सम्बन्ध में भले उस समय तक साम्यता बनी रहे जब तक कि उसकी प्राप्ति की आशा नहीं हो जाती परन्तु प्राप्ति की आशा हो जाने पर भी ग्रहण न करे और साम्यता बनी रहे यह बहुत कठिन है। इस संस्कार को वे योगी तोड़ते हैं। कुछ अटपटी सी बात विचार लेते हैं वे, ऐसी कि जिसका पूरा होना बहुत कठिन है, और उसे अपने मन में ही रख लेते हैं वे । स्पष्ट रूप से अथवा किसी बहाने से वचन के द्वारा या किसी शारीरिक संकेत के द्वारा या किसी भी अन्य क्रिया के द्वारा अपने उस अभिप्राय को किसी पर भी, यहाँ तक कि अपने शिष्य पर भी प्रकट नहीं करते वे। यह अभिप्राय अकस्मात् ही काकतालीय न्यायवत् पूरा हो जाए तो आहार ग्रहण करेंगे अन्यथा नहीं, जैसे कि 'आज सर्प मिलेगा तो आहार ग्रहण करेंगे, नहीं तो नहीं।' किसी को क्या पता कि इनके मन में क्या है ? श्रावक लोगों को अपने-अपने द्वार पर प्रतिग्रह (स्वागत) के लिए खड़ा देखते हैं, पर अपनी प्रतिज्ञा पूरी होते न देखकर मौन पूर्वक लौट आते हैं बिना आहार लिये, जबकि सबकी भावना यह थी कि किसी प्रकार ये मेरे घर आहार कर लें तो मेरा जीवन सफल हो जाए। वे बेचारे कुछ नहीं जान पाते कि योगी क्यों लौट गए हैं। इस प्रकार बराबर महीनों तक नगर में आहारार्थ आते हैं और लौट जाते हैं; न प्रतिज्ञा पूरी होती है और न आहार लेते हैं। किसी को क्या पता कि क्या प्रतिज्ञा की है इस योगी ने, पता हो तो एक सपेरे को ही ला बिठायें अपने घर के सामने? योगी अपनी साम्यता की परीक्षा करते रहते हैं कि प्रतिज्ञा पूरी न होने पर कुछ विकल्प तो नहीं आ रहे हैं ? यदि आते हैं तो कड़ी आलोचना द्वारा उन्हें दबाते हैं । 'मिले तो अच्छा न मिले तो अच्छा, दोनों ही बराबर हैं' ऐसे अभिप्राय पर बराबर दृढ़ बने रहते हैं और इस प्रकार क्षुधा के साथ-साथ इस तीसरे संस्कार को भी तोड़ डालते हैं वे । यह है तृतीय तप 'वृत्ति परिसंख्यान'। (४) भोजन के विकल्प-सम्बन्धी एक चौथा संस्कार भी है, और वह है स्वाद की दिशा का झुकाव । भोजन करते समय क्षुधा-निवृत्ति का प्रयोजन तो प्राय: याद भी नहीं रहता, केवल स्वाद लेने मात्र की ओर लक्ष्य चला जाता है और खाने . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६२ २. षड्विध वाहतप लगता है उसे खूब स्वाद ले-लेकर । स्वाद लगे तो हर्ष, न स्वाद लगे तो विषाद । इस दुष्ट संस्कार के प्रति बड़े सावधान रहते हैं वे ज्ञानी । आज से नहीं गृहस्थ दशा में पहले पग से ही वे इस प्रबल संस्कार के साथ लड़ते चले आ रहे हैं । अनेकों बार पहले भी इसके सम्बन्ध में संकेत किया जा चुका है, परन्तु इस योगी ने इसे निर्मूल करने का दृढ़ संकल्प किया है। स्वाद की मख्यता मनष्य के भोजन में प्राय: छ: पदार्थों से बनती है जिन्हें 'षट-रस' कहते हैं नमक.मीठा या शक्कर, घी. तेल, दूध, दही । ये छ: रस ही भोजन को स्वादिष्ट बनाया करते हैं । इनमें से कोई एक न हो तो स्वाद ठीक नहीं बैठता, और दो तीन आदि यहाँ तक कि छहों से रहित भोजन तो घास के समान लगने लगता है । बस योगी महीनों व वर्षों के लिए इनमें से किसी एक या दो या छहों का त्याग कर देते हैं । जब कभी आहार लेने की आवश्यकता पड़े तब घासवत् भोजन करके इस खड्डे को भर लेते हैं, और इस प्रकार रस-गृद्धि के संस्कार को जीत लेते हैं वे। इस 'रसपरित्याग' का ऐसा विकृत रूप नहीं है जैसा कि आज देखने में आता है। एक रस को छोड़कर अन्य रस में गृद्धता हो जाने से वह रस जीता नहीं जा सकता; जैसे नमक के त्याग में मीठे पदार्थों का भोजन कर लेना, और मीठे के त्याग में नमकीन पदार्थों का, अथवा शक्कर के मीठे त्याग में मुनक्का का मीठा बनाकर प्रयोजन सिद्ध कर लेना और दूध के त्याग में बादामों का दूध बनाकर । इस प्रकार एक पदार्थ की बजाए दूसरे पदार्थ का ग्रहण रसत्याग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नीरस में जो अरुचि है उसका परित्याग नहीं किया जा सका है, भोजन को जिस किस प्रकार भी रसीला बनाने का ही प्रयोजन रहा है । अत: रसपरित्याग उसे कहते हैं कि नमक के त्याग में अलोना ही खाये और मीठे के त्याग में मुनक्का आदि का प्रयोग न करे, दूध भी फीका ही पी ले, इत्यादि । सच्चे योगी कृत्रिमता नहीं किया करते, का त्याग या तप दसरों को दिखाने के लिए नहीं अपने हित के अर्थ तथा संस्कारों को तोडने के अर्थ होता है। यह है भोजन सम्बन्धी चौथा तप, रस-परित्याग' । यद्यपि उपरोक्त तपों का वर्णन योगियों की अपेक्षा उत्कृष्ट रूप से दर्शाया गया है, परन्तु इससे यह अर्थ न लेना कि योगी लोग इतने उत्कृष्ट प्रकार के ही तप धारण करते हैं । जैसे गृहस्थ दशा में शाक्ति की अपेक्षा रखते हुए धीरे-धीरे बढ़ना होता है परन्तु अभिप्राय में उत्कृष्टता रहती है; वैसे ही यहाँ भी शक्ति की अपेक्षा रखते हुए ही धीरे-धीरे बढ़ना होता है परन्तु अभिप्राय में उत्कृष्टता रहती है । योगी भी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में इन तपों को जघन्य रूप से ही पालता है और गृहस्थ भी यदि चाहे तो अपनी शक्ति के अनुसार उनको पालने का अभ्यास कर सकता है। (५) जन-सम्पर्क में आने पर, अनेकों इधर-उधर की व्यर्थ बातें, देश-विदेशों के पारस्परिक युद्ध, नवीन-नवीन वैज्ञानिक खोजों के समाचार, चोरों व अपराधियों की कथायें, स्त्रियों की सुन्दरता आदि की चर्चायें, किसी की निन्दा और किसी की प्रशंसा, इत्यादिक अनेक कथा-कलाप की ओर क्यों मेरा चित्त आकर्षित होता है ? अधिक देर तक अकेला बैठा रहने में क्यों दम सा घुटने लगता है ? यह कुछ ऐसा संस्कार है जिसको तोड़े बिना अबाधित शान्ति को बनाये रखना असम्भव है। योगीजन इस संस्कार को तोड़ने के लिए जन-सम्पर्क से बचते हैं और एकान्त में वास करते हैं। किन्हीं गहन वनों में, पहाड़ की कन्दराओं में, वृक्ष की कोटरों में, किसी सूने-घर में या खण्डहरों में वास करते हैं ताकि कोई उनके पास आने न पाये। उन्हें यह पता है कि शान्ति के मार्ग से अपरिचित बेचारे लौकिक जनों के पास उपरोक्त बातें करने के सिवाय और है ही क्या ? व्यर्थ समय गवाँना है उनके साथ बातें करके तथा अनेकों विकल्प खड़े हो जाते हैं उनकी बातें सुनकर । विकल्पों से बचने के लिए तो घर छोड़ा और फिर वही विकल्प यहाँ इस दूसरे मार्ग से प्रवेश करने लगे। योगीजन कैसे सहन कर सकते हैं इस अपनी महान हानि को? यही है 'विविक्त-शय्यासन' नामका पाँचवाँ तप। (६) इनके अतिरिक्त और भी एक संस्कार है । क्षुधा-तृषा सम्बन्धी अन्तरंग बाधा के अतिरिक्त शरीर पर बाहर से आघात पहुँचाने वाली भी अनेकों बाधायें हैं-गर्मी की बाधा, सर्दी की बाधा, डांस, मच्छर, मक्खी, भिर्र, ततैये की बाधा तथा सिंहादि क्रूर पशुओं तथा दुष्ट मनुष्योंकृत अनेकों प्रकार की असह्य बाधायें । इनके अतिरिक्त भयानक शब्दों तथा भयानक दृश्यों से भय खाने की बाधा, एक आसन पर अधिक देर तक बैठे रहने की बाधा इत्यादि और भी अनेकों बाधायें हैं। कहाँ तक गिनायें ? कदाचित् दुर्भाग्यवश इन बाधाओं के आ पड़ने पर, इतनी शक्ति मुझमें कहाँ कि Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६३ २. षड्विध बाह्यतप DID (.हा ८ आतापन योग वर्षा योग शान्ति को स्थिर रख सकूँ। यद्यपि यह जानता हूँ कि इन बाधाओं से शरीर को हानि पहँचे तो पहँचे मुझे कोई हानि नहीं पहुँच सकती क्योंकि मैं तो चैतन्य व शान्तिमूर्ति, अविनाशी व अविकारी, अमूर्तिक पदार्थ हूँ, इनमें से किसी बाधा में भी मुझे स्पर्श करने की सामर्थ्य नहीं; तदपि इस विश्वास को जीवन में उतारने के लिए अपने को असमर्थ पा रहा हूँ। कोई भी एक संस्कार ऐसे अवसर पर जबरदस्ती मेरे उपयोग को शान्ति से हटाकर इन बाधाओं में उलझा देता है । मैं बजाये शान्ति के करने लगता हूँ पीड़ा का वेदन और कर्तव्य-अकर्तव्य को भूल बैठता हूँ। योगीजन इस दुष्ट संस्कार का निर्मूलन करने केलिए आज अपना पराक्रम दिखाने निकले हैं। स्वत: ही वे बाधायें आयें, इनकी प्रतीक्षा किए बिना स्वयं जान-बूझकर इन बाधाओं में प्रवेश कर जाते हैं वे या नवीन बाधायें उत्पन्न कर लेते हैं वे, और वहाँ उस अत्यन्त प्रतिकूल वातावरण में रहकर अभ्यास करते हैं शान्ति में स्थिरता रखने का। अनुकूल वातावरण में तो स्थिर रह सकते थे पर प्रतिकूल में स्थिर रहें तब मज़ा है, और इसलिए बैठ जाते हैं ज्येष्ठ की अग्नि बरसाती धूप में पर्वत के शिखर पर जहाँ शिलाएँ मानो अंगारे ही बनी पड़ी हों, और बैठे रहते हैं या खड़े हो जाते हैं घण्टो-घण्टों के लिए उस अग्नि में अडिग । इस प्रकार के आतापन योग द्वारा खण्ड-खण्ड कर देते हैं वे गर्मी में बाधा पहुंचाने वाले संस्कार को। इसी प्रकार पौष की तुषार बरसाती रातों में सारी-सारी रात नदी के तीर पर खड़े हुए ध्यानमुद्रा धारण करके सर्दी में बाधा पहुँचाने सम्बन्धी संस्कार को तोड़ डालते हैं वे । मूसलाधार बरसात में वृक्ष के नीचे बैठ जाते हैं वे । पत्तों पर गिरने के कारण और भी अधिक बिखरी हुई बौछाड़ों में, घण्टों शान्ति में स्थिर बैठे रहकर बरसात में बाधा पहुँचाने सम्बन्धी संस्कार को भी तोड़ डालते हैं वे । बरसात की रातों में वृक्ष के नीचे योग धारण करके मच्छरों की बाधा सम्बन्धी संस्कार को उखाड़ फेंकते हैं वे । एक ही आसन पर कई-कई पहर खड़े रहकर या बैठकर ध्यान करने वाले उस योगी को देखकर काँप उठता है स्थिरासन में अस्थिरता उत्पन्न करने वाला संस्कार या उसमें पीड़ा का वेदन कराने वाला संस्कार, और मापता ही दिखाई देता है अपना मार्ग। सिंह की गर्जनाओं, हाथी की चीत्कारों, गीदड़ों की चीख-पुकारों, अजगरों की फुकारें, प्रलयकाल की आँधीवत् तीव्र पवन के झोंकों से टूट-टूट कर गिरने वाले वृक्षों की गड़गड़ाहटों, पत्तों की सरसराहटों, दिशाओं से आने वाली सायें-सायें की दिल दहला देने वाली आवाजों, आँधी से ताड़ित नदियों में क्रुद्ध नागोंवत् उछलती हुई जल की कल्लोलों के कारण वातावरण ने मानो अत्यन्त रौद्र रूप धारण किया है । ऐसे महा भयानक व विकट-वनों में दिन-रात ध्यानस्थ रहने वाले उन पराक्रमी योगियों के सामने भय के संस्कार का क्या बस चले? इसी प्रकार अन्य भी अनेकों Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६४ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप प्रकार लोक की बड़ी से बड़ी बाधा को जानबूझकर निमन्त्रित करते हैं वे और भिड़ जाते हैं उनके साथ । यही है बाह्य-तपों में सबसे अधिक विकट 'कायक्लेश' नामवाला छटा तप। ३. षड्विध आभ्यन्तर तप-अन्तरंग में नित्य नये-नये रूप धारण करके उठने वाले विकल्पों के प्रति भी ग़ाफ़िल नहीं हैं वे । उनका मूलोच्छेद करने के लिए जागृत स्वामी की तरह सदा सावधान रहते हैं वे: (१) तनिक सी भी राग या द्वेष सूचक कोई आहट अन्दर में मिली कि ललकारा तुरन्त उन्होंने उसे । दौड़ पड़े लेकर हाथ में निन्दन तथा गर्हण की तलवार, इस आशंका से कि घुस गया घर में कोई चोर । बेचारे इन चोरों के प्राण तो वैसे ही सूखते हैं इनके घर में प्रवेश करते हुए, यदि कोई भूला-भटका घुस भी जाए तो फिर क्या था, धर दबाया उसे और लगे प्रायश्चित तथा दण्ड के कोड़े बरसाने उसकी कमर पर । उधेड़ दी उसकी चमड़ी, निकाल दिये उस बेचारे के प्राण, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी । अर्थात् अन्तरंग में कोई भी खोटा परिणाम उत्पन्न हो जाने पर स्वयं तो आत्मग्लानि पूर्वक अपने को धिक्कारते ही हैं, इसका अभ्यास तो गृहस्थ दशा से ही करते आ रहे हैं, परन्तु अब तो गुरु के समक्ष जाकर भी इसका भाण्डा फोड़ देते हैं वे, और किसी रोगी को कुशल वैद्य द्वारा दी गयी औषधि की भाँति बड़े उत्साह से सहर्ष तथा अपना सौभाग्य समझते हए ग्रहण करते हैं उनके द्वारा दिये गये दण्ड या प्रायश्चित को; कभी महीनों-महीनों के उपवास, कभी सारी-सारी रात निश्चल ध्यान, कभी गर्मी की धूप में अथवा सर्दी की रातों में खुले आकाश के नीचे आतापन व शीत योग, कभी दीक्षा-छेद और इसी प्रकार अन्य भी अनेकों शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं का सहर्ष आलिङ्गन । कभी-कभी तो अपने संघ को छोड़कर वर्षों तक रहना स्वीकार कर लेते हैं वे किसी दूसरे आचार्य के संघ में जहाँ उनकी बात भी पूछने वाला कोई नहीं। कौन जाने वहाँ यह कि कोई बड़े भारी विद्वान् हैं ये अथवा विशेष तपस्वी हैं ये, बड़ा भारी सम्मान है इनका अपने संघ में ? अभिमान का खण्ड-खण्ड हो जाता है इस मार से । इस प्रकार दोषों के अनुसार यथोचित प्रायश्चित लेकर अन्तरंग के दोषों का शोधन करना है 'प्रायश्चित' नाम का प्रथम आभ्यन्तरतप। इसका अभ्यास करने के लिए आवश्यकता होती है चार बातों की—१. अपने परिणामों को ठीक-ठीक पढ़ने का अभ्यास, २. दिनभर या रात्रि को स्वप्नादि में उत्पन्न हुए विभिन्न परिणामों का हिसाब-पेटा, ३. गुरु-साक्षी पूर्वक उनके प्रति निन्दन और, ४. पुन: न करने की प्रतिज्ञा। इनका भी थोड़ा सा परिचय यहाँ दे देना आवश्यक है। अनेकविध ऐषणाओं का तथा कषायों का वास है अन्तरंग के इस चिदाभासी अथवा मानसिक जगत में; पुत्रेषणा, वित्तेषणा, लोकेषणा, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि, मैथुन सेवन का भाव, राग, द्वेष और न जाने क्या-क्या; कुछ स्थूल और कुछ सूक्ष्म, इतने सूक्ष्म कि बहत अधिक बद्धि लगाने पर भी जानने में न आवें । अन्दर में उत्पन्न होने वाला कोई विवक्षित परिणाम इनमें से किस जाति का है, यह जान लेना ही है 'परिणामों को पढ़ने का अभ्यास ।' अब लो दूसरी बात, 'परिणामों का हिसाब-पेटा। जिस प्रकार एक व्यापारी साँझ को बैठकर दिन में हुए लेन-देन का अथवा लाभ-हानि का हिसाब-खाता मिलाता है, उसी प्रकार प्रात: उठने के पश्चात् से लेकर अब तक 'मैं कहाँ-कहाँ गया, किस-किस से मिला, किस-किस प्रकार किस-किस भाव से अथवा किस-किस कषाय से, क्या-क्या बातें मैंने उनसे की' इत्यादि सब बातों का हिसाब-पेटा साँझ को बैठकर मिलाना । भले ही सब बातें अथवा सूक्ष्म भाव स्मृति के विषय न बन पावें, परन्तु जितने भी अधिक से अधिक बन पावें उन सबको अपने समक्ष रखकर चिन्तवन करना कि 'मैंने यह कार्य क्यों किया', 'मैं बड़ा कृतघ्नी हूँ, 'कैसे होगा अब इस दोष का शोधन', 'कब कर पाऊँगा इसे दूर', 'हे प्रभु ! रक्षा करो मेरी इन अपराधों से', 'शक्ति दो मुझे कि पुन: न हो पावें मुझसे ऐसे कार्य फिर कभी', इत्यादि । यही है-'परिणामों का हिसाब-पेटा', 'आत्म-निन्दन' तथा 'पुन: न करने की प्रतिज्ञा।' तीसरी त है 'गरु की साक्षी।' यद्यपि यह सब कार्य आप अपनी दकान या मकान पर अकेले बैठे भी कर सकते हो, परन्तु किसी अन्य के समक्ष अपने दोषों को कहने में तथा उनके प्रति आत्मग्लानि प्रकट करने में क्योंकि अधिक बल लगाना पड़ता है इसलिए ऐसा करने से दोषों का शोधन जल्दी हो जाता है, और यदि वह अन्य व्यक्ति Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६५ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप सौभाग्यवश गुरुदेव ही हों तब तो कहने ही क्या, सोने पर सुहागा । जिस-किसी साधारण व्यक्ति के समक्ष तो यह कार्य किया भी नहीं जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से व्यर्थ की लोक-निन्दा के अतिरिक्त और मिलता ही क्या है? दुर्भाग्यवश गुरुसम्पर्क प्राप्त न हो तो मन्दिर में भगवान तो हैं, उनके समक्ष ही सही, अकेले में करने की अपेक्षा तो यह अच्छा है ही। गुरु की या भगवान की साक्षी में ली गयी प्रतिज्ञायें प्राय: भंग नहीं होती, जबकि अकेले में ली गई प्रतिज्ञाओं में इतना बल नहीं होता। यह क्रिया साँझ, सवेरे दोनों समय करें तो बहुत अच्छा है, अन्यथा साँझ को तो अवश्य करनी ही चाहिए क्योंकि रात की अपेक्षा दिन में दोष अधिक होते हैं तथा उन्हें स्मृति का विषय भी बनाया जा सकता है। अन्तरंग के इन दोषों से अपनी रक्षा करने के लिए ही साधुजन प्राय: गुरु या आचार्य की शरण में निर्भय रहते हैं। जैसे शारीरिक रोगों का निदान करने में वैद्य समर्थ है, उसी प्रकार आत्मिक रोगों का अर्थात् जीवन में लगे अनेक दोषों की सूक्ष्म दृष्टि से खोज करने में आचार्य-प्रभु समर्थ हैं। जिस प्रकार शारीरिक रोग के प्रशमनार्थ खूब सोच-समझकर उस रोग के अनुसार वैद्य औषधि देता है, उसी प्रकार खूब विचार कर उस-उस आत्मिक दोष के प्रशमनार्थ उसी के अनुसार आचार्य-प्रभु शिष्यों को प्रायश्चित्त देते हैं । जिस प्रकार एक ही रोग होते हुए भी रोगी की शक्ति की हीनाधिकता के कारण वैद्य हीनाधिक मात्रा में औषधि देता है, अर्थात बालक को कम-बडे को अधिक, दर्बल को कम-हृष्ट-पष्ट को अधिक, उसी प्रकार एक ही दोष होते हुए भी दोषी-शिष्य की शक्ति की हीनाधिकता के कारण आचार्य हीनाधिक प्रायश्चित्त देते हैं। जिस प्रकार हीनाधिक औषधि देने में वैद्य को किसी से प्रेम और किसी से द्वेष कारण नहीं है, उसी प्रकार हीनाधिक प्रायश्चित्त देने में आचार्य को किसी से राग और किसी से द्वेष कारण नहीं है । जिस प्रकार कड़वी भी औषधि रोगी के हितार्थ होने के कारण अमृत है, उसी प्रकार कड़ा भी प्रायश्चित्त शिष्य के अन्तर्शोधन का कारण होने से अमृत है । जिस प्रकार कड़वी भी औषधि को रोगी स्वयं वैद्य के पास जाकर ज़िद करके लाता है, उसी प्रकार कड़े से कड़ा प्रायश्चित भी शिष्यजन स्वयं आचार्य के पास जाकर जिद करके लेते हैं। जिस प्रकार रोगी औषधि में अपना हित समझता है, उसी प्रकार शिष्य भी प्रायश्चित्त में अपना कल्याण देखते हैं, उसे दण्ड नहीं समझते, बड़े उत्साह से अपना सौभाग्य समझते हुए. ग्रहण करते हैं तथा अपने जीवन को उस प्रायश्चित्त के द्वारा स्वयं दण्डित करते हैं। (२) दूसरा आभ्यन्तर तप है 'विनय', शान्ति-नगर की यात्रा का प्रथम सोपान जिसका देव पूजा गुरु-उपासना और स्वाध्याय के प्रकरणों में कथन किया जा चुका है, जिसके बिना इस दिशा में एक पग-भी आगे रखा जाना सम्भव नहीं। इसके बिना न उपलब्धि हो सकती है देव की, न गुरु की और न उनके दिव्योपदेश की । अभिमानी बनकर कौन उपलब्ध कर सकता है कुछ ? भले समझता रहे वह अपने घर में बैठा अपने को महान् पर जानते हैं जानने वाले कि तुच्छ है बेचारा । चाहे हो वित्ताभिमानी, चाहे रूपाभिमानी, चाहे बलाभिमानी, चाहे ज्ञानाभिमानी, और चाहे तपाभिमानी; सब हैं तुच्छ, पतन के पात्र । नयी कुछ उपलब्धि तो दूर, जो लेकर आये हैं पूर्व भवसे वे अपने साथ, उसे भी गँवा देते हैं वे। न हो सकता है उनका कोई देव, न गुरु और न अपने अतिरिक्त कोई आदर्श । अपने से अधिक दीखता ही नहीं उन्हें कुछ, हो तो कैसे हो ? मैं किसी से कुछ प्राप्त करना चाहूँ और खड़ा हो जाऊँ उसके सामने उद्दण्ड की भाँति; न नमन, न नम्रता, न सेवा, तो क्या कुछ ले सकता हूँ उससे ? स्कूल के गुरु की विनय न करे तो क्या सीखे ? इसीलिए आज के विद्यार्थी स्कूल से उतना कुछ सीखकर नहीं निकलते जितना कि पहले के विद्यार्थी सीखकर निकला करते थे, क्योंकि आज गुरु की विनय युवकों में उतनी नहीं रही है। रावण मृत्यु शैयापर पड़ा था, भगवान राम ने लक्ष्मण से कहा “भाई ! जाओ इस अन्तिम समय में रावण से कुछ सीख लो, जीवन में तुम्हारे काम आयेगा, वह बड़ा अनुभवी पण्डित है। यदि नहीं सीखोगे तो समस्त विद्यायें उसके साथ ही चली जायेंगी।" लक्ष्मण गया और रावण के सिरहाने खडा होकर अपना अभिप्राय प्रकट किया। उसे मौन देखकर निराश वापिस लौट आया और राम से बोला कि “भगवन् ! वह बड़ा अभिमानी है, बोलता नहीं।" राम बोले "भूलता है, लक्ष्मण ! अभिमानी वह नहीं तू है, स्वभाव से ही तू उद्दण्ड है, तूने अवश्य उद्दण्डता दिखाई होगी, वह कैसे Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६६ ३. षडविध आध्यन्तर तप बोले? तुझे अगर कुछ सीखना है तो विजेता बनकर नहीं दास बनकर सीखना होगा। जाओ ! उसके चरणों में बैठकर विनयपूर्वक विनती करो, उसे गुरु स्वीकार करो।" लक्ष्मण की आँखें खुल गईं, गया और अब की बार निराश नहीं लौटना पड़ा उसे। इस प्रकार चोर से कहा राजा ने कि तुझे सूली पर चढ़ाया जाने वाला है, परन्तु सूली पर चढ़ने से पहले तू अपनी विद्या मुझे दे दे । राजा हूँ न मैं, सभी महान् वस्तुओं का अधिकारी? बता दी चोर ने सारी विद्या पर राजा न सीख पाया कक्का भी । चोर ने कहा कि राजा हैं आप इसमें सन्देह नहीं, सभी भौतिक धन के स्वामी हैं आप इसमें सन्देह नहीं, परन्तु राजा या अधिकारी बनकर विद्या नहीं सीखी जाती भगवन् ! यह है आध्यात्मिक-धन जिसका अधिकारी राजा नहीं शिष्य होता है, विनम्र शिष्य । खुल गई राजा की आँखें छोड़कर मुकुट व सिंहासन उतर आया नीचे, अति विनय से बैठाया चोर को अपने स्थान पर । अब वह चोर नहीं था उसके लिये, था उसका विद्या-गुरु, उसका उपास्य । अत्यन्त भक्ति तथा बहुमान से प्रक्षालन किया उसके चरणों का और मस्तक पर चढ़ा लिया वह चरणोदक । देर नहीं लगी अब उस राजा को विद्या सीखते हुए, राजा को नहीं शिष्य को, चोर के विनम्र शिष्य को । भील ने भी सीखी थी धनुर्विद्या गुरु-द्रोण की प्रतिमा से, प्रतिमा से नहीं साक्षात् गुरु से, शिष्य बनकर, सच्चा शिष्य बनकर, अर्जुन से भी अधिक विनम्र; और इसी लिए मात कर दिया अर्जुन को भी उसने, शर्मा दिया अर्जुन की भी विद्या को उसने । यह सब है 'विनय' का माहात्म्य सौभाग्य है मेरा कि मुझे प्राप्त हुआ है यह महारत्ल-चिन्तामणि, गुरुकृपा से, गुरुकृपा प्राप्त करने की कुञ्जी । गुरु ए तो फिर रह क्या गया? वे ही हैं सब कुछ, भगवान से भी महान् । परन्तु क्या यह महारत्न अकस्मात् उपलब्ध हो गया था मुझे ? नहीं दूर से देखी थी इसकी कुछ आभा मैंने उस समय जब कि बच्चा सा था मैं । नित्य प्राय: नमस्कार करता था झुककर, पहले माता के चरणों में और फिर पिता के चरणों में । वे ही तो थे मेरे भगवान उस समय, मेरे जीवन, मेरे सर्वस्व 1 उनके इशारे पर चलता था मैं, उनकी एक-एक आज्ञा का पालन करता था मैं, उनके खड़े होने पर खड़ा हो जाता था मैं, उनके चलने पर उनके पीछे-पीछे चलता था मैं, उनके पधारने पर उन्हें आसन देता था मैं। इसी प्रकार विद्यार्जन के क्षेत्र में अपने गुरुजनों के प्रति, और सामाजिक क्षेत्र में वृद्धजनों के, गुणीजनों के तथा सुप्रतिष्ठित-जनों के प्रति भी। उस अभ्यास का ही तो प्रताप है यह कि कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ आज मैं गुरुचरण-शरण को प्राप्त करके । अब मुझे क्या चिन्ता । कोई संस्कार पर नहीं मार सकता यहाँ। किसका साहस कि गुरुदेव के समक्ष जाए ? इनकी ही कृपा से प्राप्त है मुझे यह शान्ति तथा समता, महानतम उपलब्धि, जगत की बड़े से बड़ी विभूति भी रखी नहीं जा सकती जिसके पासंग में । कैसे गाऊँ मैं इसकी महिमा, कैसे करूँ मैं इसका स्तवन, इस महानतम उपलब्धि का, शब्द हैं ही कहाँ मेरे पास, और हों भी तो उनमें शक्ति ही कहाँ है ऐसा करने की? जड़ शब्दों में हार्दिकता कहाँ ? मैं स्वयं जानता हूँ इसकी महिमा, स्वयं ही रसपान करता हूँ इसका और स्वयं ही लेट जाता हूँ इसके चरणों में । इस प्रकार अपनी महान आध्यात्मिक उपलब्धियों के प्रति का बहुमान है पारमार्थिक विनय, निश्चय विनय; और उनके निमित्तभूत देव के प्रति का, सद्गुरु के प्रति का, सरस्वती माँ या शास्त्र के प्रति का, माता के प्रति का, पिता के प्रति का, विद्यागुरु के प्रति का, वृद्धजनों के प्रति का, गुणीजनों के प्रति का तथा सुप्रतिष्ठित जनों के प्रति का बहुमान है व्यवहारिक विनय कारण में कार्यरूप औपचारिक विनय, कुछ साधु के योग्य और कुछ गृहस्थ के योग्य । नमन, वन्दन, स्तवन, पाद-प्रक्षालन, अर्घावतारण आदिरूप सभी क्रियायें इसमें सम्मिलित हैं । परन्तु व्यक्ति की भूमिकानुसार इन सब क्रियायों में अन्तर होना स्वाभाविक है। शान्ति के इस सरल मार्ग पर बराबर कुछ पथिक चले जा रहे हैं, कुछ तेजी से और कुछ धीमे, कुछ आगे और कुछ पीछे । बहुत-कुछ आगे निकल चुके हैं, मानो क्षितिज को भी पार कर गये हैं, जिन पर आज मेरी दृष्टि भी नहीं पड़ती; और कुछ मेरे निकट में ही थोड़ा आगे बढ़े चले जा रहे हैं। अपरिचित मार्ग में चलने वाले इन पथिकों को स्वाभाविक रूप में ही अपने से आगे-वाले के प्रति कछ बहमान सा जागत हो जाता है जो कत्रिम नहीं होता। किसी की प्रेरणा से नहीं बल्कि स्वयं आगे बढ़ने की जिज्ञासा में-से अंकरित हए इस बहमानवश, वह अपने से आगे वाले इस Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६७ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप पथिक को डरते-डरते पुकार उठता है कि प्रभो ? तनिक ठहर जाओ, मेरा भी हाथ पकड़कर तनिक सहारा दे दो; पर उस बेचारे को क्या पता कि उस आगे वाले की भी ठीक यही दशा है । वह अपने आगे वाले को अपना हाथ पकड़ने के लिए प्रार्थना कर रहा है और वह तीसरा भी अपने आगे वाले चौथे को । प्रत्येक की पुकार में उसका अपना स्वार्थ छिपा है जिसके कारण कि उसको यह भी विचारने का अवकाश नहीं कि यदि उसकी प्रार्थना को सुनकर यह आगे वाला रुक जाए, या उसका हाथ पकड़ने के लिए पीछे मुड़कर देखने लगे तो कितना बड़ा अनिष्ट हो जायेगा उसका। इससे आगे वाला सम्भवत: इतनी ही देर में इतना आगे निकल जाये कि फिर वह दृष्टि में भी न आये, अथवा पीछे को देखते हए और आगे चलते हए उसको कोई ऐसी ठोकर लग जाए कि नीचे गिरकर उसका सर ही फट जाए। पीछे व आगे वाले दोनों पथिकों को भी अपनी-अपनी क्रिया का फल मिलता है, पीछे वाले की क्रिया या पुकार का फल आगे-वाले को नहीं मिल सकता। अत: इसकी पुकार स्वयं इसके लिए तो अत्यन्त हितकर है, पर आगे वाले के लिए वह अहितरूप बननी सम्भव है । वह आगे वाला अपनी अल्प शक्ति को देखते हुए यदि अपनी रक्षा के लिए स्वयं पीछे मुड़कर न देखे तो उसे कोई बाधा नहीं पड़ सकती, परन्तु यदि कदाचित् किसी भी आवेश में पीछे मुड़कर देख ले तो प्रभ हो जाने कि क्या हो? उसका सब किया कराया मिट्टी में मिल जाए। ठीक है कि आगे जाकर शक्ति बढ़ जाने पर उसमें इतनी दृढ़ता आ जाती है कि बड़े से बड़े प्रलोभन की ओर भी वह दृष्टि उठाकर नहीं देखता । परन्तु निम्न अवस्था में उसे अवश्य सावधानी रखकर चलना होता है। पीछे वाले का कर्तव्य है कि अपने लिए न सही, पर आगे-वाले के हित के लिए वह आवश्यकता से अधिक पुकार-पुकार कर उसे पीछे मुड़ने के लिए बाध्य करने का प्रयत्न न करे। यह तो केवल दृष्टान्त हआ। इसका तात्पर्य है ख्याति की भावनाओं का प्रशमन करना । उत्कृष्ट बल को प्राप्त साक्षात् गुरुओं के अभाव के कारण स्वभावत: शान्ति के जिज्ञासु भव्य जनों का बहुमान, दृष्टि में आने वाले उन तुच्छ जीवों की ओर बह निकलता है, जिनके जीवन में गुरुप्रसाद से किंचित्मात्र चिह्न शान्ति या शुचिता के उत्पन्न हो गए हैं। उस बहुमान के कारण उस तुच्छ जीव के प्रति नमस्कार आदि कुछ ऐसी क्रियायें करने लगते हैं जो अधिक शक्तिशाली व ऊँची भूमिका में स्थित जीवों के ही योग्य थीं। यद्यपि उनका यह बहुमान कृत्रिम नहीं और न ही किसी की प्रेरणा से उत्पन्न हुआ है, स्वयं उनके लिए यह हितकारी भी है, परन्तु उन्हें क्या पता कि इन क्रियाओं से उस छोटे से जीव का कितना बड़ा अहित हो रहा है, लोकेषणा के अंकुर का सिञ्चन हो रहा है ? यद्यपि किसी के ऊपर यह नियम लादा नहीं जा सकता, कि देखो जी अमुक व्यक्ति के प्रति बहुमान उत्पत्र न करना या नमस्कारादि न करना, परन्तु स्वपर के उपकारार्थ उनसे यथायोग्य करने की प्रार्थना अवश्य की जा सकती है, और यह बात उसे समझाई भी जा सकती है कि भले ही तेरा बहुमान व विनय सच्चा है, तेरे लिए हितकारी है, पर इस आगे वाले के लिए कथञ्चित् अहितकारी है। इसकी शक्ति अभी इतनी नहीं है कि इन क्रियाओं को देखकर उसमें लोकेषणा उत्पन्न न हो, अत: अपने लिए न सही पर इस आगे वाले के लिए तू इन क्रियाओं में कुछ कमी कर दे, इतनी कि तेरा भी काम चल जाए और इसके काम में भी बाधा न पड़े। इसलिए गुरुदेवों ने नमस्कारादि क्रियाओं-सम्बन्धी कुछ नियम बना दिए हैं कि साधु के प्रति साष्टांग नमस्कार के द्वारा, उत्कृष्ट श्रावक के प्रति चरणस्पर्श के द्वारा, तथा जघन्य व मध्यम श्रावक के प्रति यथायोग्य अंजलिकरण के द्वारा ही अपने-अपने बहुमान का प्रदर्शन करना योग्य है । ऊँचे के योग्य नमस्कार नीचे के प्रति करना योग्य नहीं। (३) इन महान उपलब्धियों के प्रति इस प्रकार का हार्दिक बहुमान अथवा विनय जागृत हो जाने पर आप ही सोचिए कि क्या होगी मेरी दशा उस समय, जबकि कदाचित् दुर्भाग्यवश संस्कार के द्वारा प्रेरित हुआ मैं च्युत हो जाऊँगा अपनी थति से अर्थात् शान्ति तथा समता से, और ढकेल दिया जाऊँगा विकल्प सागर में ? बिल्कुल उस चकोर सरीखी होगी उस समय मेरी दशा जो बड़े-बड़े अरमान हृदय में लिए, बड़े उत्साह के साथ उड़ानें भरता उड़ा जा रहा है आकाश मे, ऊपर ही ऊपर चन्द्रमा की ओर और कदाचित् दुर्भागयवश घायल होकर किसी व्याध के निर्दय वाण से, आ पड़े पृथ्वी पर तड़फता हुआ, फड़फड़ाता हुआ। क्या उस समय मैं भीतर ही भीतर यह प्रयत्न न करूँगा कि जिस-किस प्रकार हाथ पाँव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६८ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप मारकर मैं आ सकूँ इस विकल्प-सागर के तट पर, जहाँ खड़ी है शान्ति तथा समता-रानी मेरी प्रतीक्षा में; और क्या मेरा यह प्रयत्न कृत्रिम होगा? सहज रूप से ही प्रकट हो जाएगा वह पुरुषार्थ मुझ में । इस प्रकार शान्ति व अशान्ति के, समता व विषमता के झूले में झूलते हुए मेरा प्रयत्न बराबर रहेगा यह कि किसी प्रकार में वहाँ से च्युत न होने पाऊँ, और कदाचित् दुर्भाग्यवश हो जाऊँ तो पूरा बल लगाकर प्रयत्न करूँ पुन: उसी स्थिति को प्राप्त करने का । यह है अपनी पारमार्थिक सेवा और यही है 'वैयावृत्त्य' नाम वाला तृतीय आभ्यन्तर तप । यह तो है पारमार्थिक या निश्चय वैयावृत्त्य, परन्तु इसके साथ-साथ क्या मैं शान्ति-नगर के प्रति यात्रा करने वाले अपने अन्यान्य साथियों की भी सेवा या वैयावृत्त्य में नहीं जुट जाऊँगा उस समय, जबकि वे भी मेरी ही भाँति च्युत कर दिये जायेंगे अपनी स्थिति से, संस्कारों के द्वारा? अपने तन, मन, धन तथा जीवन किसी की भी चिन्ता नहीं होगी मुझे उस समय, बस होगी एक चिन्ता यह कि किसी प्रकार भी ये पुन: प्राप्त कर सकें अपनी पूर्व-स्थिति को, उस सोपान को जिस पर से कि ढकेल कर नीचे फेंक दिया गया है इन्हें विकल्प-सागर में । सदगुरु देव की तो बात नहीं, उनके प्रति तो कर ही दूँगा मैं दिन रात एक, उनके अतिरिक्त अपने सहयात्रियों के प्रति भी कोई कसर उठा नहीं रलूँगा मैं, उसी प्रकार जिस प्रकार कि स्त्री-पुत्र आदि में से किसी के कदाचित् रोगग्रस्त हो जाने पर आप सब कुछ व्यापार धन्धा छोड़कर जुट जाते हैं उनकी सेवा में। इतना ही क्यों, क्या अन्य साधारण व्यक्तियों के प्रति भी मैं अपने इस महाकर्त्तव्य को भूल जाऊँगा? काई भी क्यों न हों वे व्यक्ति-मनष्य हों या हों पश पक्षी. कौटम्बिकजन अथवा प्रेमीजन हों या हों राजमार्ग पर चले जाने वाले अपरिचित व्यक्ति, सधन हों या निर्धन, सबल हों या निर्बल, ज्ञानी हों या अज्ञानी, गृहस्थ हों या संन्यासी, खाते-कमाते हों या हों भिखारी अथवा दुःखित भु:खित, सबकी सेवा करूँगा मैं समान रूप से, उनके दुःख अथवा संकट के अवसर पर । न केवल तन से प्रत्युत धन से, वचन से तथा मन से भी । शरीर द्वारा उनकी टहल सेवा करके अथवा उनके स्थान पर स्वयं उनके गृहस्थोचित कर्तव्यों की पूर्ति करके, उनके खेत में काम करके; धन द्वारा उनकी आर्थिक सहायता करके, वचन द्वारा उनको सान्त्वना देकर, उनको धीर बँधाकर और मन द्वारा उनके सुख व शान्ति की कामना करते हुए प्रभु से उनके लिए प्रार्थना करके। और क्या कृत्रिम होगा मेरा यह प्रयत्न, कुछ भार-सा समझकर ? नहीं सहज होगा, स्वाभाविक होगा, हृदय-युक्त होगा। क्यों न हो, मैं उसे अपने से भिन्न देखता ही कब हूँ ? मुझे तो दीखता है चेतन, बिल्कुल वैसा ही जैसाकि मैं स्वयं हूँ, शान्ति तथा समता का आवास। यह है बाहर का व्यवहार-वैयावृत्त्य अर्थात् निष्काम सेवा । यदि मैं ऐसा न करूँ अथवा भार समझकर कृत्रिमता से करूँ। तो इसका अर्थ क्या होगा? यही न कि मैं चेतन की बात ही करना सीखा हूँ, उसके दर्शन अभी मुझे नहीं हुए हैं। मैं वास्तव में जानता ही नहीं कि क्या-क्या अरमान छिपाये बैठा है वह अपने हृदय में । 'विनय' की भांति यहाँ भी समझ लेना चाहिये कि बाह्य के इस व्यवहार वैयावृत्त्य-तप को उल्लेख यहाँ साधु तथा गृहस्थ दोनों को लक्ष्य में रखकर किया जा रहा है। (४) प्रात: मन्दिर में बैठकर शास्त्र में जो पढ़ा था अथवा प्रवचन में जो सना था, तत्सम्बन्धी कुछ ऐसी बातें जो विशद रीति से समझ में नहीं आ पाई थीं, आपको खाली समयों में विचारनी चाहिये कि इनका यथार्थ अर्थ क्या हो सकता है और उस वाक्य व शब्द का आपकी शान्ति की सिद्ध के साथ क्या सम्बन्ध है ? यदि कुछ नहीं तो वास्तव में अर्थ ही ठीक नहीं हुआ। शास्त्र में लिखा एक-एक शब्द शान्ति का द्योतक है, उसको ठीक रीति से समझना चाहिये, नहीं तो वह इस मार्ग में अनुपयोगी ही रहेगा। शास्त्र तो स्वयं बोलकर बता नहीं सकता, उसमें लिखे शब्द अवश्य संकेत कर रहे हैं किसी ऐसी दिशा को जिधर आपकी शान्ति का निवास है। उस दिशा का अनमान लगाना तथा उस अनुमान की परीक्षा अनुभव के आधारपर करना आपका काम है। साथ-साथ उन बातों को विचारना भी जो कि विशद रूप से आपकी समझ में आ गई थीं, और बहुमान-पूर्वक तथा हृदय की लगनपूर्वक । इनके अतिरिक्त किसी जिज्ञासु को उस समझे हुए सिद्धान्त के अर्थ का ठीक रीति से कल्याण-भावना पूर्वक उपदेश देना भी। यह प्रक्रिया प्रतिकूल वातावरण में रहकर आश्रय रहित की जा रही है, और इसीलिए कहलाता है यह स्वाध्याय नाम का चौथा आभ्यन्तर-तप । यथार्थ में स्वाध्यायतप तो योगियों को ही होता है जो कि जीवन में प्रतिक्षण समता के वेदन रूप Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. उत्तम-तप २६९ ३. षड्विध आभ्यन्तर तप स्व-अध्ययन किया करते हैं, परन्तु उतने मात्र अवसर के लिए आपको भी उसी भावना का आंशिक वेदन हो जाने के कारण, इस अल्प भूमिका में भी 'स्वाध्याय' नामका तप कहलायेगा। (५) पाँचवाँ आभ्यन्तर तप है 'व्युत्सर्ग' या त्याग । यथार्थ व्युत्सर्ग तो योगियों को ही होता है जिन्होंने इस गृहस्थ के सर्व जंजालों से मुँह मोड़ लिया है, यहाँ तक कि साथ-साथ रहने वाले इस शरीर से भी अन्तरङ्ग से नाता तोड़ दिया है। इस पर अनेकों बाधायें, क्षुधादि की अथवा मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत, देवकृत व प्रकृतिकृत उपसर्गों की, आ पड़ने पर भी वे कछ परवाह नहीं करते इसकी। धीर वीर बने अपने आन्तरिक सख में बराबर मग्न रहते हैं। परन्त इस अल्प भूमिका में एक गृहस्थ को भी हो सकता है यह । इन्द्रिय-संयम के प्रकरण में बताये अनुसार यथायोग्य विषयों का त्याग करने के अतिरिक्त (देखो २६.५) वह त्याग करता है दान के रूप में जिसका कथन पहले किया जा चुका है और योगियों को दृष्टि में रखकर पुन: आगे किया जाने वाला है 'उत्तम त्याग के प्रकरण में। (६) छठे आभ्यन्तर तप का नाम है 'ध्यान' सर्व तपों में प्रधान, सब तपों का राजा, जिसका कथन आगे पृथक् अधिकार में किया जाने वाला है । अहिंसा परमात्मपद Hin MERE AIRunnar .. . ری संयम ही परम तप है। संयम अहिंसा है, संयम सत्य है, संयम विश्व प्रेम है, संयम चित्त विश्रान्ति है और संयम ही परम पद है। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान १. ध्यान सामान्य; २. ध्यान विधि; ३. आर्त्तरौद्र ध्यान; ४. धर्म ध्यान; ५. मन्त्र जाप्य; ६. स्तोत्र पाठ; ७. भावना भावन; ८. तत्त्व-चिन्तन; ९. निरीह वृत्ति; १०. पदस्थादिध्यान; ११. शुक्ल ध्यान। १. ध्यान सामान्य अन्तिम तप का नाम है 'ध्यान' और यही है शान्तिपथ का प्राण, जिसकी सिद्धि के अर्थ देव पूजा आदि का सर्व अभ्यास अब तक करता आ रहा है। ध्यान का अर्थ है चित्त की एकाग्रता, उसकी वृत्तियों का निरोध, अर्थात् विविध विषयों में नित्य यत्र-तत्र भटकते रहने की उसकी जो अनादिगत टेव है उसको तिलाञ्जली देकर वह हो जाए स्थिर, शान्ति-प्रवर्धक किसी भी एक विषय के चिन्तवन में अथवा निर्विषय तूष्णी अवस्था में और विश्राम करे विकल्पों की ज्वालामुखी से दूर शान्ति के शीतल-सर में । शान्ति-पथ की यह सबसे कठिन साधना है क्योंकि बिना लगाम वाले उच्छृङ्खल घोड़े की भाँति अनादि काल से आज तक जिसका सर्व जीवन भाग दौड़ में ही बीता हो, विविध विषयोंमें भटकते रहना ही जिसका स्वभाव हो, ऐसे चित्त या मन को वश करना कोई हँसी-खेल नहीं, बड़े-बड़े योगी हार मानते हैं इससे । इसलिए कुछ विस्तार माँगता है यह विषय। ___ जिस प्रकार लाठी की शक्ति से भ्रमण करने वाला कुम्हार का चक्र लाठी को हटा लेने मात्र से तुरन्त रुक नहीं जाता प्रत्युत लाठी की शक्ति से उत्पन्न अपने वेगाख्य-संस्कारवश कुछ समय पर्यन्त स्वत: पूर्ववत् घूमता रहता है, उसी प्रकार विषय-जन्य इच्छा कामना अथवा वासना की शक्ति से भ्रमण करने वाला मन विषय के हटा लेने मात्र से तुरन्त रुक नहीं जाता प्रत्यत वासनाशक्ति-द्वारा उत्पन्न अपने वेगाख्य-संस्कारक्श कछ काल पर्यन्त स्वत: पूर्ववत भ्रमण करता रहता है विविध विकल्पों में। इसका कारण है यह कि नेत्रादि बाह्य इन्द्रियों की भाँति इस आभ्यन्तर-इन्द्रिय का विषय बाहर में नहीं, स्वयं उसके भीतर स्थित है। अन्दर बैठा-बैठा वह स्वयं बुना करता है कल्पनाओं का जाल । क्षण भर में कोटा-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन कर देने वाला यह मन ही है भगवान ब्रह्मा, और अगले क्षणों में सब कुछ अपने में लय करने वाला भगवान शिव, जगत का कर्ता, धर्ता व संहर्ता, सृष्टा धाता व विधाता। विशाल है इसका राज्य जिसका ओर है न छोर । स्वयं रचना और स्वयं निगल जाना । विषयजन्य यह कामना या वासना ही है उसकी प्रधान शक्ति; सांख्य की प्रकृति और वेदान्त की अनिर्वचनीया माया । जिस प्रकार लाठी को हटा लेने से कुम्हार का चक्र कुछ समय पर्यन्त घूमता रहकर संस्कार क्षीण हो जाने पर रुक जाता है स्वयं, उसी प्रकार इच्छा कामना व वासनारूप इस अचिन्त्य शक्ति के हटा लेने से मन कुछ काल पर्यन्त भ्रमण करता रहकर संस्कार क्षीण हो जाने पर रुक जाता है स्वयं । २४ घण्टे घर तथा दुकान सम्बन्धी व्यवहार या व्यापार में रत रहने वाले मन से कुछ समय के लिए निश्चल हो जाने की आशा करना दुराशा है और इसीलिए प्राय: सब यह कहते सुने जाते हैं कि ध्यान करते समय मन का निश्चल होना तो दूर उसकी गति इतनी बढ़ जाती है कि हृदय रो उठता है। कैसे-कैसे जगत बसाता है उस समय यह और बसा-बसाकर मिटाता है उस समय यह, कौन बता सकता है ? इसलिए ध्यान के साधक की सर्वप्रथम आवश्यकता है यह कि वह जन संसर्ग से दूर किसी ऐसे एकान्त व निर्जन स्थान में अभ्यास करे जहाँ न हो कोई बात करने वाला और न हो कुछ उसके मन में वासना जागृत करने वाला, साथ-साथ मौन रहने का भी अभ्यास करे । केवल वचन मौन नहीं मनोमौन भी, क्योंकि मन तथा वचन का परस्पर में इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि एक को दूसरे से विलग किया जाना सम्भव नहीं । मानसिक विकल्प सदा शब्दविद्ध होते हैं और शब्द सदा विकल्पविद्ध। शाब्दिक जल्प के बिना विकल्प और विकल्प के बिना शाब्दिक जल्प सम्भव नह एकान्तवास तथा मौन का यह अर्थ नहीं कि घरबार छोड़कर वन में जा बैठना तथा किसी आगन्तुक के साथ बात न करना, प्रत्युत यह है कि शारीरिक संसर्गों तथा वाचिक संसों से दूर मानसिक लोक में प्रवेश करे और २४ घण्टे अपने मन को प्रेमपूर्वक समझा-समझाकर उसे विकल्पों से हटाने का तथा निज स्वरूप में लीन करने का प्रयल करे, अन्यथा उसका सकल वनवास तथा मौन दम्भाचार से अधिक कुछ भी महत्त्व धारण नहीं कर सकेगा। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७१ ४. धर्मध्यान यह है ध्यान की सबसे बड़ी कठिनाई जिसको जीत सकते हैं, केवल मौनावलम्बी, वनविहारी सन्यासी जन या साधु । परन्तु भाई ! तू निराश मत हो, भले ही मौन तथा वनवास करने में असमर्थ तू अपनी इस गृहस्थ-दशा में उन योगियों जैसा निर्विकल्प ध्यान न कर पाये परन्त कछ ऐसे कार्य अवश्य कर सकता है जो कि ध्यान में अत्य हैं। इतनी बात अवश्य है कि इसके लिये काफी परिश्रम करना पड़ेगा तुझे, शारीरिक परिश्रम नहीं मानसिक परिश्रम । परन्तु क्या परवाह है, महान पदार्थ की प्राप्ति के लिये सभी तो महान परिश्रम करते हैं । इच्छा-ज्वाला में घी डालने वाले विषयों से जहाँ तक सम्भव हो अपने २४ घण्टे के जीवन में बचने का प्रयास करता रहे, और कुछ-कुछ समय के लिये प्रतिदिन मौन-युक्त एकान्तवास का अभ्यास भी। २. ध्यान-विधि-और यह है ध्यान की विधि-चले जाइये कुछ देर के लिये किसी निर्जन तथा शान्त स्थान में, वन में, उद्यान में, मन्दिर में, अथवा किसी उपाश्रय में । बैठ जाइये किसी वृक्ष के नीचे या प्रभु के समक्ष अथवा अपने ही घर के किसी एकान्त व शान्त कोने में, जहाँ न सुनाई दे बच्चों की कलकलाहट और न हो मच्छर, मक्खी आदि की कोई बाधा । बैठ जाइये पृथ्वी पर या कुशासन पर, पझासन लगाकर अथवा अर्ध-पद्मासन लगाकर अथवा अन्य कोई भी आसन जिसका तुम्हें अभ्यास हो, जो तुम्हें सुखद प्रतीत होता हो, और कुछ देर तक जिसे आपको बदलने की आवश्यकता न पड़े। कमर और गर्दन को सीधी रखिए, और नेत्र अतथा श्रोत्र इन दोनों इन्द्रियों को बाहर से हटाकर भीतर की ओर उन्मुख कीजिये। कुछ ऐसी मुद्रा बनाइए कि मानो नेत्र देख रहे हैं अपने मन में होने वाला कोई अनोखा दृश्य और सुन रहे हैं वहाँ ही होने वाला कोई संगीत । न बाहर का कुछ दिखाई देता है और न बाहर का कुछ सुनाई देता है । इसी को कहते हैं नासाग्र दृष्टि । भले ही योगियों की भाँति ध्यान परिपक्व हो जाने पर इस प्रकार के किसी विधि-विधान का आपके लिये कोई मूल्य न रह जाए, चित्त-लय हो जाने के कारण भले ही तब आपके लिये राजा का रनवास भी वनवास और संस्तर पर लेटना भी पद्मासन बन जाय, भले ही तब चलते फिरते अथवा किसी से बातें करते भी सदा आपके हृदय में ध्यान की अविच्छिन्न धारा बहती रहे, परन्तु वर्तमान की इस निम्न अवस्था में बहुत सहायक पड़ेंगे ये सर्व विधान आपके लिये। इतनी सावधानी रखनी आवश्यक है कि कहीं ऊँघ या निद्रा ने तो नहीं धर दबाया है आपकों अथवा प्रमादवश गर्दन तथा कमर ढीली पड़कर नीचे को तो नहीं झुक गयी है आपकी? यह जान लेना आवश्यक है कि उपर्युक्त परिपक्व भूमि को प्राप्त महान् योगियों की नकल करने से तीन काल आपके प्रयोजन की सिद्धि होने वाली नहीं है । शान्ति का पथिक होने के कारण आपका कर्तव्य है कि जो कुछ भी करें अपनी भूमिका को पहचान का करें । अग्रिम विस्तार में अनेकों प्रकार के जाप्य, भावनायें, चिन्तवन आदि का कथन किया जाने वाला है, जिनमें से कुछ निम्न भूमि वालों के लिये हैं और कुछ उन्नत भूमिवालों के लिए। ३. आर्त्तरौद्र ध्यान-ध्यान नाम है चित्त का किसी एक विषय में अटके रहना, किसी भी विषय को लेकर विचार-मग्न बने रहना । और यह स्वभाव है इसका, हर समय कुछ न कुछ ध्यान किया ही करता है यह । भले विषय बदलते रहें परन्तु ध्यान एक क्षण को भी नहीं छूटता। कभी इष्ट विषयों की प्राप्ति, अभिवृद्धि तथा संरक्षण का, कभी अनिष्ट विषयों के परिहार का, कभी वेदना का और कभी अग्रिम भव-भवान्तरों में प्राप्त होने वाले इष्टानिष्ट संयोगों का। इतना ही नहीं, इस स्वार्थ-चिन्ता की रौ में बहता हुआ यह इस बात की भी परवाह नहीं करता कि जो-जो भी उपाय वह अपने इन मनोरथों की पूर्ति के अर्थ विचार रहा है उनसे कितने प्राणियों का निर्दय उत्पीड़न, शोषण अथवा घातन हो जाना अनिवार्य है। इसे क्या पड़ी किसी के दुःख सुख की? कोई रोये या हँसे, मेरे स्वार्थ पूरे हो जायें, केवल इतनी मात्र चिन्ता है इसे । बिना किसी बौद्धिक प्रयल के प्रतिक्षण संस्कारवश स्वत: चलने वाली ये सर्व चिन्तनायें हैं, अधोगामी ध्यान, आर्तध्यान अथवा रौद्रध्यान, जिनका शान्तिपथ में कोई स्थान नहीं । विपरीत इसके उसके विरोध हैं ये, और इसलिये साधक का प्रयत्न रहता है सदा यह कि वह इनसे हटाकर चित्त को किन्हीं ऐसी चिन्तवनाओं में अटकाये जो कि शान्ति तथा समता की सिद्धि में सहायक हों। ४. धर्मध्यान-उसको इष्ट है 'धर्मध्यान' जिसका विस्तार आगे किया जाने वाला है। यद्यपि देव-पजा, गुरु-उपासना और स्वाध्याय जिनका कथन पहले किया जा चुका है उक्त प्रयोजन में सहायक होने के कारण धर्मध्यान Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७२ ५. मन्त्र-जाप्य की कोटि में गिने जा सकते हैं। तदपि इस ध्यान का वह रूप दर्शाना इष्ट है यहाँ जिसका कि साधक केवल इसी प्रयोजन से एकान्त में बैठकर अभ्यास करता है। अनेक प्रकार से किया जा सकना सम्भव है यह अभ्यास-मंत्रजाप्य द्वारा, स्तोत्रादि के पाठ द्वारा, भावना-भावन द्वारा, तत्त्व-चिन्तवन द्वारा अथवा निरीह वृत्ति से ज्ञातादृष्टा-मात्र बनकर रहने के द्वारा । जैसा कि पहले बताया गया है साधक का कर्तव्य है कि अपनी भूमिकानुसार उसे जो उपयुक्त जंचे उसी का अवलम्बन ले, अन्य का नहीं। ५. मन्त्र-जाप्य धर्मध्यान का सर्वप्रथम तथा सर्वसरल रूप है मन्त्रजाप्य, जिसका इस क्षेत्र में बड़ा महत्त्व है। अनेको मन्त्र हैं जैसे 'पंचणमोकार मन्त्र', इस मन्त्र के आद्य अक्षर 'अ सि आ उ सा', केवल 'अर्हन्त' शब्द अथवा केवल 'सिद्ध' शब्द, अथवा 'ॐकार' अथवा 'ॐनमो भगवते महावीराय' इत्यादि इत्यादि । अपनी रुचि तथा श्रद्धा के अनुसार साधक जिसका भी चाहे अवलम्बन ले सकता है। 'प्रणव अर्थात्' 'ॐ' मन्त्र की बड़ी महिमा है । 'अ उ म्' इन अढ़ाई अक्षरों का यह शब्द सभी मन्त्रों का राजा है, कारण कि ऊपर से छोटा सा दीखने वाला इसका रूप अपनी विशाल कुक्षि में सकल विश्व समेटकर बैठा हुआ है। कोई भी भाव अथवा किसी भी मन्त्र का अर्थ ऐसा नहीं जिसे इसमें समाविष्ट न किया जा सके। १. पंच परमेष्ठी-वाचक नामों के आद्य अक्षरों की सन्धि से व्युत्पन्न यह शब्द णमोकार मन्त्र का प्रतीक तो है ही, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है । 'अ' का अर्थ अधोलोक, 'ऊ' का अर्थ ऊर्ध्वलोक और 'म' का अर्थ मध्य लोक । इस प्रकार तीनों लोक बैठे हैं इसके गर्भ में । २. इतना ही क्यों? ॐ कार का अर्थ है नाद, कण्ठ, ताल, जिह्वा, ओष्ठ आदि में किसी प्रकार की भी क्रिया उत्पन्न किये बिना अन्दर से उदित होने वाली सामान्य-ध्वनि, जैसे कि 'अ.....' । कवर्ग आदि सर्व अक्षरसमूह है इसमें कण्ठ, तालू आदि के द्वारा उत्पन्न किये गये विकार । कण्ठ को सुकेड़ लेने पर वह ध्वनि बन जाती है कवर्ग, जिह्वा के मध्य भाग को तालू के साथ लगा देने पर बन जाती है चवर्ग, जिह्वा के अग्रभाग को तालू के साथ लगा देने पर वह बन जाती है टवर्ग और उसे ही दन्त के साथ टकरा देने पर वह बन जाती है तवर्ग । इसी प्रकार होठों को परस्पर मिला देने पर वही ध्वनि हो जाती है पवर्ग । तात्पर्य यह कि सर्व अक्षर समूह में अनुगत है वह, माला के दानों में पिरोए गए डोरे की भाँति । इस प्रकार सकल अक्षर, उनके संयोग से उत्पन्न विविध भाषायें तथा उपभाषायें, उन विविध भाषाओं में दिए गए सकल व्यवहारिक तथा पारमार्थिक उपदेश और सकल व्यवहारिक तथा पारमार्थिक-साहित्य, सब कुछ पड़ा है इस छोटे से मन्त्रराज के पेट में । इसीलिये सकल श्रुतज्ञान का, सकल द्वादशांग वाणी का प्रतीक है यह अकेला। ३. 'अ' का अर्थ है अनुस्यूति, क्योंकि 'क' 'ख' आदि सभी अक्षरों में अनुक्त रूप से अनुस्यूत रहता है यह । 'उ' का अर्थ है उत्पाद, और 'म' का अर्थ है विराम अर्थात् नाश या व्यय । इस प्रकार उत्पाद व्यय तथा इन दोनों में अनुस्यूत ध्रौव्य इन तीनों का ही युगपत वाचक है यह। और यदि इन तीनों को ही समेट लिया इसने तो फिर रह क्या गया? भूत, वर्तमान, भविष्यत ये तीनों काल, ऊर्ध्व, अधो, मध्य ये तीनों लोक, सकल तुज्ञान, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों स्वभाव, सब कुछ बीज रूप से स्थित है इसमें । कहाँ तक गाई जाए इसकी महिमा,कोई भी ऐसा विषय नहीं जो इसके गर्भ में न समा जाता हो । सत्य-असत्य, सम्भव-असम्भव, स्थूल-सूक्ष्म, अन्तरंग-बहिरंग, सब कुछ पड़ा है इसकी कुक्षि में, और इसीलिये इतना ऊँचा स्थान है भारतीय संस्कृति में इसका । जैन तथा अजैन सभी क्षेत्रों में अपनी-अपनी श्रद्धा तथा सिद्धान्त के अनुसार समान रूप से पूज्य है यह । शब्द की शक्ति अचिन्त्य है, कारण कि वह अकेला न रहकर रहता है सदा अपने वाच्यार्थ के साथ । वाच्य-वाचक सम्बन्ध ध्रुव तथा अविच्छिन्न है। किसी भी शब्द का उच्चारण करने पर उसका वाच्यार्थ बिना बुलाए सामने आकर खड़ा हो जाता है, जिस प्रकार कि 'बेटा' इतना मात्र कहने से आपके पुत्र जिनदास की आकृति स्वत: आकर खड़ी हो जाती है आपके समक्ष । भले ही जिह्वा-प्रदेश पर अथवा श्रोत्र-प्रदेश पर समाप्त हो जाने वाले रटे-रटाए शब्दों में यह लक्षण दृष्ट न हो, जैसे कि नित्य भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हुये 'भक्तामर' शब्द का उच्चारण होने पर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७३ ६. स्तोत्र पाठ भक्त देवगणों की कोई आकृति आप न देख पायें; तदपि मानसिक जगत के साथ सम्बन्ध रखने वाले शब्दों में यह लक्षण अवश्यम्भावी है । इसलिये मन्त्रजाप्य के इस प्रकरण में केवल जिह्वा द्वारा शब्दोच्चारण करके सन्तुष्ट हो जाने की बात नहीं है, प्रत्युत अपने वाच्यार्थ की आकृति को साथ लेकर शब्द को मन में प्रविष्ट करने की बात है, अर्थात् जिस मन्त्र का या जिस शब्द का जिह्वा से उच्चारण किया जाए उसके साथ उसके वाच्यार्थ का रूप अथवा आकार भी मानस पट पर अंकित हुआ दिखाई देना चाहिए, जैसे कि अर्हत शब्द का उच्चारण करने पर, अर्हद् प्रतिमा का सांगोपांग-रूप मन में प्रत्यक्ष हो जाना चाहिए। इस लक्षण के अभाव में वह मन्त्रोच्चारण ग्रामोफोन का रिकार्ड मात्र बनकर रह जाएगा, जिसका ध्यान वाले इस क्षेत्र में कुछ अधिक प्रयोजन नहीं है। ६. स्तोत्र पाठ—इसी प्रकार किन्हीं स्तोत्र आदि का पाठ करना भी यद्यपि यहाँ कुछ प्रयोजनीय हो सकता है, परन्तु तभी जबकि मन्त्र-जाप्य की भाँति उसके वाच्यार्थ का ग्रहण करते हुये किया जाए, अर्थात् स्तोत्र पाठ के साथ-साथ उस भक्तिभाव का भी आपके हृदय में उद्भव हो जाए जो कि कवि ने अपने भावों के अनुसार उसमें ग्रथित करने का प्रयल किया है। क्योंकि शान्ति, समता अथवा ज्ञातादृष्टा-भाव की जागृति के अभाव में देवपूजा आदि कोई भी धार्मिक क्रिया धर्मध्यान नहीं कही जा सकती । मन ही जब बाजार में घूम रहा है अथवा अनेकविध विषयों का भोग करने में रत है तो उसे धर्मध्यान कहोगे या आर्तध्यान ? यहाँ यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि ध्यान का सम्बन्ध मन के साथ है, जिह्वा आदि किसी अन्य इन्द्रिय के साथ अथवा शरीर के साथ नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि मन्त्रोच्चारण अथवा पाठोच्चारण का निषेध किया जा रहा है, प्रत्युत यह है कि इन सकल क्रियाओं द्वारा ध्यान के उक्त लक्षण की अर्थात् चित्तवृत्ति-निरोध की यर्थाथ सिद्धि होती रहे । निषेध है उस कि अन्तरंग प्रयोजन से निरपेक्ष वर्त रही है। अभ्यस्त हो जाने के कारण ये मन्त्र व पाठोच्चारण वास्तव में आज संस्कार की श्रेणी को प्राप्त हो चुके हैं, इनका उच्चारण करते समय बुद्धि का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । आज यह क्रिया मैकेनिकल (मशीनवत) सी हो गई है अर्थात् मन कहीं भी घूमता रहे, कैसे भी विकल्पों के जाल बुनता रहे, परन्तु ग्रामोफोन के रिकार्ड की भाँति मुँह अपना काम करता रहेगा, और हाथ अपना; मुझे स्वयं को इतना भी पता न चल पायेगा, कि किस प्रयोजन को लेकर मैं यहाँ बैठा हूँ। अन्तरंग में घूमा करूँ रागद्वेष के संसार में और बाह्य में करता रहूँ ध्यान । यह क्रिया जब कभी पहले-पहल प्रारम्भ की थी तब तो बुद्धि की कोटि में रहकर ही की थी, परन्तु तब यथार्थ प्रयोग किया नहीं, और अब जबकि स्वयं यह अबुद्धि की कोटि में जा चुकी है बुद्धि लगाकर भी मेरे प्रयोजन की सिद्धि कर नहीं सकती, अत: बेकार है। अब प्रश्न यह होता है कि मन्त्रजाप्य या स्तोत्र-पाठ आदि के द्वारा इस प्रयोजन की सिद्धि कैसे हो? लीजिये, छोड़ दीजिये मैकेनिकल प्रक्रिया को या किसी भी रटे हुये पाठ आदि के उच्चारण को , और स्वतन्त्र रूप से अपनी बुद्धि का प्रयोग करके उठाइये कुछ विचार अपने भीतर गद्य या पद्य में या मात्र अपने अन्तर्जल्प में । देखिए कितना पुरुषार्थ करना पड़ेगा आपको इस प्रक्रिया में । बुद्धि या उपयोग का कार्य एक समय में एक ही चल सकना सम्भव होने के कारण इस प्रक्रिया के करते हुये आपको अपने मन को जबरदस्ती उन विचारों में केन्द्रित करना पड़ेगा और वह अपनी इच्छा से इधर-उधर न भाग सकेगा । फलत: लौकिक रूप वाले तेरे-मेरे के विकल्प रुक जायेंगे और वीतरागता, निर्विकल्पता तथा शान्ति का वेदन प्रकट हो जायेगा। बस हो गई ध्यान के प्रयोजन की सिद्धि । मन्त्रजाप्य अथवा स्तोत्र-पाठ के रूप में किया जाने वाला यह ध्यान अल्प भूमिका वाले गृहस्थ या श्रावक जनों में अधिक प्रसिद्ध है, क्योंकि शक्ति की हीनतावश उनका चित्त भावना-भावन आदि में टिक नहीं पाता । विशेषता इतनी है कि वहाँ यह 'ध्यान' नाम न पाकर 'सामायिक' कहा जाता है, जैसाकि श्रावक धर्म के अन्तर्गत पहले बताया जा चुका है। ध्यान तथा सामायिक वास्तव में एक ही बात है, विशेषता केवल इतनी है कि सामायिक में चित्त की स्थिरता ध्यान की अपेक्षा कम होती है । वहाँ ज्ञानधारा तथ कर्मधारा दोनों का मिश्रण रहता है । सामायिक गत द्वन्द्व स्थूल होने के कारण बुद्धिगम्य होते हैं और ध्यानगत वे ही सूक्ष्म होने के कारण बुद्धि की पहुँच से बाहर होते हैं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७४ ७. भावना-भावन ७. भावना-भावन-धर्म-ध्यान का दूसरा रूप है भावना-भावन । शास्त्रोक्त पाठ आदि का अवलम्बन लेकर अथवा स्वत:, शब्द-सापेक्ष अथवा शब्द-निरपेक्ष, जिह्वा से उच्चारण करते हुये अथवा केवल विचाररूप, हृदय में कुछ ऐसी भावनायें जागृत कीजिये जिनके सद्भाव में चित्त लौकिक विषयों से विरक्त होकर अन्दर में डूबने लगे। अनेकों हो सकती हैं ऐसी भावनायें, यथा-क्षेत्र तथा यथा-काल, परन्तु आगमगत १२ वैराग्य भावनाओं का उल्लेख कर देना ही पर्याप्त है यहाँ । यद्यपि इनका विस्तार आगे किसी प्रकरण में किया जाने वाला है (देखो ४५.४) तथापि प्रयोजनवश यहाँ भी उनका उल्लेख करने में कुछ हानि नहीं है, क्योंकि वहाँ इनको जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है, यहाँ उनका उससे कुछ भिन्न प्रकार का रूप होगा। १. हे मन् ! तू इस दृष्ट जगत की ओर क्यों लखाता है? क्या रखा है यहाँ ? सब कुछ 'अनित्य' है। अब है और अगले क्षण नहीं। क्या भरोसा है इसका ? किसी की भी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं, किन्हीं सत्ताओं की उत्पन्नध्वंसी अवस्थायें ही तो हैं, सागर की तरंगोवत् । उनकी ये चंचल अवस्थायें भी तो विद्यमान नहीं है, इस समय तेरे समक्ष । तेरे समक्ष तो विद्यमान हैं मात्र तेरे असत् विकल्प, जिनको तू स्वयं बना-बनाकर मिटाये जा रहा है और स्वयं ही उनमें रुले जा रहा है । सम्भल, अपने घर में स्वयं ही आग न लगा, अपनी शक्ति का दुरुपयोग न कर अथवा इसे व्यर्थ न गँवा । महान कार्य की सिद्धि करनी है तझे इससे, शांति-प्राप्ति की। २. अपनी शक्ति के द्वारा अपने में उत्पन्न की जाने योग्य इस शान्ति के लिये इन बाह्य पदार्थों की शरण में जाते हुए,इनका द्वार खटखटाते हुए,इनसे भिक्षा माँगते हुए क्या लाज नहीं आती तुझे? समस्त विश्व का अधिपति होकर भी क्यों व्यर्थ भिखारी बना भटक रहा है तू? हट वहाँ से और इधर आ अपने भीतर, इस चेतन-महाप्रभु की शरण में, भरा पड़ा है जहाँ तेरा अपना अनन्त वैभव । स्थायी है वह और सत्य। ३. सब कछ संसरणशील है यहाँ. इस नि:सार जगत में । अभी उत्पत्ति और अभी विनाश अभी जन्म और अभी मरण । एक भगदड़ मची है सर्वत्र, इसके अतिरिक्त और क्या है यहाँ ? और इसीलिये भगदड़ मची है तेरे अन्दर भी, एक विकल्प आया और दूसरा गया। जो कुछ किसी के पास है वही तो देगा वह अपने शरणार्थी को। इसके पास है भगदड़, और वही दे रहा है यह तुझको । छोड़ प्रभु ! छोड़, अब इसकी शरण को छोड़ और आ इधर, अपने भीतर, चेतन-महाप्रभु की गोद में, और स्नान कर शान्तिसर के नीरंग और निस्तरंग शीतल जल में; भव-भव का संताप दूर हो जायेगा तेरा। ४. हे चित्त ! किसको कह रहा है तू अपना? भवसागर में गोते खाता, थपेड़े सहता, इस तरंग से उस पर और उस तरंग से इस पर फैंका जाता तू यहाँ किसे कहता है अपना? सब तुझसे भिन्न हैं, अन्य हैं, पर हैं । रेल में सफर करने वाले यात्री को मार्ग में न जाने कितने टकराये और कितने छूटे, घर लौटे तो एक भी साथ नहीं, सभी चले गये जहाँ-जहाँ जिसे जाना था। माता-पिता, स्त्री-कुटुम्ब, प्रेमी-बान्धव सभी उतर जाने वाले हैं अपने-अपने स्टेशन पर । क्यों व्यर्थ देखता है इनकी ओर आशाभरी दृष्टि से? हट वहाँ से इधर आ, अपने हृदय की उस गहराई में जहाँ न कुछ आता है और न कुछ जाता है, जो है वही रहता है और वैसा ही रहता है। ५. अकेला ही आया है और अकेला ही चला जायेगा। न कोई आया है तेरे साथ और न कोई जायेगा तेरे साथ । सब दुःख सुख भोगेगा तू स्वयं, कोई बँटवाने वाला नहीं। क्यों व्यर्थ चिन्ता करता है इनकी, क्यों व्यर्थ सहायता खोजता है इनकी, इस अखिल जड़-चेतनवर्ग की? न कुछ अनुकूल है यहाँ न प्रतिकूल, न इष्ट न अनिष्ट । हट यहाँ से, आ अपने भीतर, देख इस चैतन्य महाप्रभु को । यही है तेरा पिता और माता, यही है तेरा पुत्र और पत्नी । सब कुछ यही है, इष्ट भी और अनिष्ट भी, शत्रु भी और मित्र भी, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। इसमें से ही उद्भव हुआ है तेरा और तेरे सर्व द्वन्द्वात्मक विकल्पों का, तथा इसी में समा जाने वाला है तू और तेरे ये सकल द्वन्द्व । यही है ईश्वर, सृष्टा, कर्ता, धर्ता और संहर्ता, सकल जगत का, बाह्य जगत का और आभ्यन्तर जगत का। ६. जिसके प्रति जा रहा है तू दौड़ा हुआ पागलों की भाँति, क्या देखा है हे मन ! तूने उसका वीभत्स रूप कभी, चिकने-चिकने चमड़े से मँढ़ा हुआ मांसास्थि पञ्जर, विष्टा का घड़ा, महा अशुचि, महा अपवित्र । कौन सुन्दरता है Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७५ इसमें, कौन आकर्षण है इसमें, तेरे अपने शरीर में और इस स्त्री के शरीर में जिस पर लुभाया जा रहा है तू ? पवित्र वस्तुओं को भी अपवित्र कर देने वाला इससे अधिक अपवित्र क्या है इस जगत में, घिनावना क्या है इस जगत में ? भगवान ने तो तेरा सेवक बनाकर भेजा था इसे, परन्तु तू स्वयं बन बैठा इसका सेवक । मूर्च्छा, महान मूर्च्छा । हट इधर और अपने भीतर, देख अपना सुन्दर शरीर, ज्ञान शरीर, अनन्त ज्योति पुञ्ज, चित्पिण्ड । ७. बस हो अब नित्यनूतन अपराधों से, इस पुण्य-पाप रूप आस्रव से, जिसने खो दिया है तुझे घर -घाट से । रक्षा कर अपनी इस सर्वभक्षी दुष्ट राक्षस से । आ इधर, स्वयं अपने भीतर, देख अपना सौम्य तथा साम्य स्वरूप, इस ज्ञान दर्पण में, जहाँ न है मैं न तू, न मित्र न शत्रु, न सज्जन न दुर्जन, न ऊँच न नीच, न इष्ट न अनिष्ट, न जन्म न मरण, न हानि न लाभ, न ग्राह्य न त्याज्य । है केवल चिज्जयोति, अखण्ड व अगम्य । ७. भावना - भावन ८. दबा ले प्रभु ! दबा ले, इन सर्व बाह्याश्रित द्वन्द्वों को। संवरण कर दे इनका, उनका जिन्होंने कि नष्ट कर दिया है तुझे रुला रखा है तुझे । चञ्चल जगत की ओर देखने से ही भटक रहा है तू इन स्व-रचित द्वन्द्वों में, विविध विकल्पों में । यदि कदाचित देखले एक बार, केवल एक बार, स्वयं अपनी ओर, अपने भीतर विराजमान महाप्रभु की ओर, तो कृतकृत्य हो जाए तू, इस द्वन्द्व-सागर से पार हो जाए तू । ९. और फिर यह दुष्ट संस्कार - राशि भी, जिसे पुष्ट किए जा रहा है तू, नित्य नूतन अपराध कर-करके, भूखे मरते छोड़ जाएं तेरा घर, क्षीण होकर झड़ जाए सब, पतझड़ की भाँति । निर्जरा हो जाए इनकी, तू हो जाए निश्चिन्त व अभय, इनसे तथा इनके आतंक से । जब इनकी कुछ बात ही नहीं पूछेगा तू, तो क्या बिगाड़ सकेंगे ये तेरा ? और वास्तव में ये हैं भी तो नहीं, तेरी कल्पनाओं के अतिरिक्त कुछ। १०. देख चेतन ! देख, अपनी महिमा । तीन लोक का अधिपति है तू, इसका ईश्वर तथा परमेश्वर है तू । तुझमें से ही निकला आ रहा है सब कुछ और तुझमें ही लीन हुआ जा रहा है सब कुछ, सागर की तरंगों वत्, अन्तरंग का यह वैकल्पिक लोक, जिसका न ओर है न छोर । यह व्यवहारिक जगत है केवल इसका प्रतिभास, अभूतार्थ व असत्यार्थ, सम्भवत: इसलिये कि कदाचित् तृप्त हो सके तू इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करके अपनी इस महान कला का ? परन्तु तू तो समझ बैठा है इसको ही सब कुछ और भूल गया अपनी कला को । कदाचित् समझ पाता तू अपने इस कौशल को, अपने इस परिपूर्ण विज्ञान को विकल्प करना, और अगले ही क्षण साकार कर देना उसे एक शरीर का आविष्कार करके। बता तो सही कि इसके अतिरिक्त और क्या है यह जिसे कि तू कहता है लोक ? तेरे विविध शरीरों का संघात ही तो है, कुछ जीवित शरीरों का और कुछ मृत शरीरों का अथवा उनके नाम-रूपों का इसके अतिरिक्त और क्या ? ११. हे त्रिलोकाधीश ! क्यों लुभाता है इसमें, क्यों लालसा करता है इसकी ? सभी कुछ तो सुलभ है, इससे अधिक सुलभता क्या ? कल्पना की और तुरन्त हो गई वह साकार । पद-पद पर बिखरे पड़े हैं, यों ही बेकार से, तेरी कल्पनाओं के ये साकार रूप । अनेकों बार ग्रहण कर-करके छोड़ चुका है, बना-बनाकर तोड़ चुका है । त्यक्त को पुनः पुनः उठाते, वमन को पुन: पुन: चाटते, क्या ग्लानि नहीं आती तुझे ? कदाचित् जान पाता तू इस जगत की दुर्लभतम वस्तु को तो कृतकृत्य हो जाता तू सदा के लिये, सो जाता विश्राम से सदा के लिये । तेरी अपनी निधि, 'बोधि', ज्ञान । लौकिक विषय-ज्ञान नहीं और न ही शाब्दिक शास्त्र - ज्ञान, प्रत्युत तात्त्विक आत्म-विज्ञान, भीतरी जगत को प्रत्यक्ष कराने वाला रहस्य-ज्ञान, गुरु कृपा के बिना सम्भव नहीं है जो । तज इस लोक की शरण और पकड़ उनकी शरण, उनके द्वारा प्रदत्त आलोक की शरण । १२. और इसी से जान पायेगा तू अपना स्वभाव, अपना धर्म, चिदानन्द का मर्म, समता- रस, शान्ति-सुधा, मुक्ति, निर्वाण और खो जाएगा तू, लीन हो जाएगा तू उसमें सदा के लिये । न रहेगा तेरा यह मन और न रहेंगे उसके द्वन्द्व । इसी प्रकार अन्यान्य भी अनेकों भावनाओं का हृदय में उद्भावन करके देख तू स्वयं, कि किस प्रकार तेरा चित्त, तजकर अपना चञ्चल वृत्त, हुआ जा रहा है लीन, हृदय- सागर की अथाह गहराई में, जहाँ न है बाह्य जगत को स्थान और न अन्तरंग जगत की सत्ता । है केवल एक शान्त- रस, द्वन्द्वातीत समता, और इसलिए भावनाओं के विकल्परूप होता हुआ ' भी यह कहा जाता है ध्यान, धर्मध्यान का तृतीय रूप, मन्त्रजाप्य तथा स्तोत्र पाठ वाले प्रथम दो रूपों से कुछ ऊँचा । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७६ ८. तत्त्व-चिन्तन ८. तत्त्व-चिन्तन-धर्मध्यान का चौथा रूप है तत्त्व चिन्तवन । अनेक प्रकार का चिन्तवन किया जा सकता है इसके अन्तर्गत, जिनमें से कुछ मात्र का उल्लेख तो आगम में उपलब्ध है और कुछ का अपनी बुद्धि से निकालकर किया जाना सम्भव है । इसके अतिरिक्त भी अनेक चित्रण खेंचे जा सकते हैं अपने मन से, स्वयं अपनी-अपनी बुद्धि तथा श्रद्धा के अनुसार । आगम में चार चिन्तवन प्रसिद्ध हैं- आज्ञा-विचय, अपाय-विचय, विपाक-विचय और संस्थान-विचय । लीजिए पहले क्रम से इन चारों का ही उल्लेख करता हूँ, तत्पश्चात् यथासम्भव अन्य भाव भी चित्रित करने का प्रयत्न करूँगा । (१) पहला चिन्तवन है 'आज्ञाविचय' । आज्ञा अर्थात् गुरु आज्ञा, गुरुदेशना । अपार है गुरुदेव की कृपा, कैसे गाऊँ उनकी महिमा और कैसे करूँ उनकी स्तुति, शब्द ही नहीं मेरे पास । जीव आदि तत्त्वों के सम्बन्ध में देशना देकर उन्होंने मुझ अन्धे को आँखें प्रदान की, अन्यथा कैसे जान सकता मैं अन्तरङ्ग जगत के ये रहस्य जहाँ तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं । किस प्रकार प्यार से पुचकार - पुचकार कर तथा प्रेरणा दे-देकर उन्होंने मुझे इस अथाह सागर से ऊपर उभारा, शान्ति का मार्ग दर्शाया, जिस पर अपनी शक्ति अनुसार बराबर आगे-आगे बढ़ता हुआ आज मैं संन्यासी के इस उन्नत सोपान पर पग रखने योग्य हुआ, जिसे पाकर कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ मैं। यह सब गुरुदेव की देशना ही तो प्रताप है, और क्या ? इस प्रकार हस्तावलम्बन देकर मुझे ऊपर न उबारते वे तो पड़ा-सड़ा करता वहीं, जगत के इस अन्ध-कूप में । धन्य हैं गुरुदेव और धन्य है उनकी देशना । भव-भव में प्राप्त होती रहे मुझे यह, जब तक पूर्ण न हो जाऊँ मैं । (२) दूसरा चिन्तवन है 'अपाय -विचय' । अपाय अर्थात् प्राप्ति का अभाव। इस देशना की प्राप्ति न होने के कारण ही आज तक इस विकट-वन में भटकता रहा, क्षणभर को भी अन्तर्शान्ति का परिचय प्राप्त न हुआ । मेरा अभाव तो कभी हुआ नहीं था, क्ला तो अनादि काल से ही आ रहा हूँ, परन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि आज तक इसके प्रति जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं हुई मेरे हृदय में। और इसी प्रकार कितने दुःखी हैं जगत के ये सर्व प्राणी भी, बेचारों को ये भी पता नहीं कि दुखी हैं या सुखी, शान्ति की प्राप्ति हो तो कैसे हो ? हे गुरुवर ! कृपा करो इन पर भी मेरी ही भाँति, देशना देकर उबार लो इनको भी मेरी ही भाँति । मेरे भाई बन्धु ही तो हैं सब, एक चेतन-तत्त्व की सन्तान । (३) तीसरा चिन्तवन है 'विपाक विचय' । विपाक अर्थात् कर्म विपाक, संस्कारों की जागृति । कितने दुष्ट हैं ये प्रबल संस्कार ? सदा इनके पाले पड़ा रहा। क्षण भर को भी हित बुद्धि नहीं उपजी । उपजती भी कैसे ? पहरे पर जो बैठे थे ये दुष्ट, सावधान कि कहीं गुरुवाणी प्रवेश न कर जाए हृदय में। और ये जगत के सर्व प्राणी भी नाच रहे हैं, मेरी ही भाँति उनके आधीन हुए। बड़ी सावधानी की आवश्यकता है इनसे युद्ध ठानने के लिए, इनके प्रहार से बचने के लिए । गुरुचरण ही एक मात्र शरण है यहाँ । उन्होंने ही मेरी रक्षा की है इनसे और वही करेंगे इस अखिल जगत की रक्षा । मुझे प्रकाश मिला है उनसे, मुझे बल मिला है उनसे। इन्हें अब जड़-मूल से उखाड़कर फेंक देना ही सर्व प्रथम तथा सर्व-प्रधान कर्त्तव्य है मेरा । अब इन्हें मेरा देश छोड़ना ही पड़ेगा, इनके एक बच्चे को भी आज्ञा नहीं मिलेगी अब यहाँ रहने की । आज तक इनके आधीन रहा, पर अब नहीं रहूँगा। गुरु-शरण जो प्राप्त हो गई है मुझे । (४) चौथा चिन्तवन है 'संस्थान- विचय' । संस्थान अर्थात् देहाकृति । कितना सुन्दर लगता है अर्हन्त-प्रभु का शरीर, शान्ति में नित्य स्नान किए जा रहा है मानो, अनेकों बाह्य अतिशयों से युक्त अन्तरङ्ग के अनन्त वैभव का परिचय दे रहा है मानो । और यह गुरुदेव की वीतराग आकृति, कितनी शान्त तथा सौम्य है यह ? अथवा सिद्ध प्रभु का निराकार आकार, संस्थानहीन संस्थान मूर्तिहीन मूर्ति ? ज्ञान ही है आज उनका शरीर, लोकालोक व्यापी ज्ञान, और इसलिए सर्वगत है वह, सर्व व्यापक है वह, चिज्ज्योति मात्र । अथवा स्वयं मेरे भीतर हृदयगुहा में विराजमान वह परम देव, सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमेश्वर, परमतत्त्व, क्या कहूँ इसे, कैसा संस्थान बताऊँ इसका ? ज्योति तथा तेज के अतिरिक्त कुछ दीखता ही नहीं मुझे । और इस प्रकार अनेकों संस्थानों का चिन्तवन किया जा सकता है इसके अन्तर्गत, अनेकविध धारणायें की जा सकती हैं इसके अन्तर्गत, कल्पनागत धारणायें, परन्तु तत्त्वोन्मुखी । यथा : - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७७ ८. तत्त्व-चिन्तन १. देखो कितना महान है यह सागर, न ओर दिखता है न छोर । तूफान उठ रहा है इसमें, ज्वार उठ रहा है इसमें, नक्र-चक्र आदि ने उत्पात मचा रखा है इसमें, सब ओर उत्तंग तरंगों में भयंकर बना रखा है इसे । और वह कमल तथा उसकी पतली सी नाल ? कितने मजे में खड़ा है इस क्षुब्ध-सागर के बीचों-बीच, बिल्कुल अस्पृष्ट, निर्भय । इसकी मध्यवर्ती कर्णिका पर बैठा हूँ मैं, पद्मासन लगाये, ध्यान-मुद्रा में, जिसे न पता है सागर का और न उसके क्षोभ का। २. देखो मेरी नाभि के मध्य में यह प्रणव, यह ॐ कार, धीमा-धीमा धुआँ सा निकलता प्रतीत हो रहा है जिसके बिन्दु में-से । और लो यह धुआँ तो बन बैठा प्रचण्ड ज्वाला। किस प्रकार बढ़े जा रही है यह आकाश की ओर, किस प्रकार भस्मीभूत किये जा रही है यह सबको, मानो प्रलयाग्नि ही है ? भस्म हो गया है मेरा शरीर और यह कमल तथा उसकी नाल भी। केवल शेष रह गया मैं, चित्पिण्ड, जिस पर वश नहीं चलता इसका। अग्नि-ज्वालाओं के मध्य कुन्दनवत् शोभित हो रहा हूँ मैं, या है यह कुछ थोड़ी सी भस्म, मेरे शरीर की तथा उस कमल की। ३. देखो कितना बड़ा तूफान उठा पश्चिम की ओर से, वेगवन्त वायु, अत्यन्त विकराल । उड़ गई सकल भस्म उसमें । फिर भी कुछ मात्र दिखाई दे रही है मुझे, मेरे इस चित्पिण्ड पर लिपटी हुई सी। ४. यह भी धुली जा रही है अब, तूफान के काले-काले विशाल मेघों से गिरने वाली अटूट जल-धाराओं के द्वारा । और अब ? केवल मैं, अत्यन्त निर्मल तथा उज्जवल शुद्ध चैतन्य, और यह सागर, क्षोभ शान्त हो चुका है जिसका । दिशाओं विदिशाओं में फैला जा रहा है मेरा प्रकाश, असीम प्रकाश। (५) अब लीजिये कुछ अन्य चिन्तवन भी । “मैं हूँ यह चेतन तत्त्व” निर्मल ज्योति मात्र । भूलकर इसे आज तक शरीर को ही मानता रहा 'मैं', ज्वाला के गर्भ में समा जाने वाले इस शरीर को। इसी का आश्रय लेकर करता रहा सदा नवीन-नवीन विकल्पों की सष्टि, संस्कारों का निर्माण तथा पोषण करता रहा सदा उनका, बेसध। यह भी न जान सका कि किस प्रकार लूटे जा रहे हैं मेरी सम्पत्ति ये, मेरे घर के चोर, और इसलिए सदा बना रहा व्याकुल । आज बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुई है, गुरुदेव की देशना; कर्त्तव्य-अकर्तव्य जाना, हित-अहित पहचाना, देवपूजा, गुरु-उपासना आदि के द्वारा संवरण किया उन संस्कारों को तथा विविध प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तपों द्वारा शोषण किया उनकी शक्ति का । मिली एक अपूर्व शान्ति, जिसे पाकर कृतकृत्य हुआ जा रहा हूँ, प्रभु बना जा रहा हूँ मैं । यह सब गुरु-शरण का ही तो प्रताप है, और क्या ? (६) हे चेतन महा प्रभु ! क्यों भूले जा रहा है अपनी महत्ता, क्यों रुले जा रहा है जगत के इस असत्य विलास में, जिसकी अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं (देखो ९.२)? क्यों देख रहा है ललचाई-ललचाई दृष्टि से इनको, किन्हीं सत्ताभूत मौलिक पदार्थों की पर्यायों को, उनकी क्षणध्वंसी अवस्थाओं को? क्या भूल गया कि तूने ही सृजन किया था अपनी कामना तथा वासना-शक्ति के द्वारा अन्तरंग के वैकल्पिक जगत का और तत्फलस्वरूप अनेकविध-शरीरों के संघातरूप इस बाह्य-जगत अथवा नोकर्म-जगत का (देखो ८.१)? तू ही स्वयं लीन कर लेने वाला है अपने इस अखिल बाह्याभ्यन्तर विस्तार को अपने भीतर । और इस प्रकार त्रिमूर्ति तू ही है, उत्पाद व्यय ध्रौव्य । ( ) सृजन रते-करते बहत काल बीत चका है तझे देख तेरा दिन अस्ताचल की ओर चला जा रहा है और रात्रि आकाश पर छाई जा रही है ताकि इस उधेड़बुन से विश्रान्त होकर आनन्द की नीन्द सो सके तू, अपने इस अखिल विस्तार को अपने में लय करके स्वयं अपने में खो सके तू ।। (७) हे भगवन् ! तू भूल गया कि तू ही है सृष्टा इस अखिल विस्तार का? इन सकल सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों का । कुछ सृष्टि तूने की है आज और कुछ की कल और किये जा रहा है बराबर बच्चों की भाँति । कभी एक घरोंदा बनाता है और कभी दूसरा, कभी एक खिलौने से खेलता है और कभी दूसरे से । नवीनता जो भाती है तुझे? पहले घरोंदे को तोड़कर दूसरा नया घरोंदा बना लिया, पहले खिलौने को तोड़कर या छोड़कर दूसरा नया खिलौना ले लिया। तेरी लीला या विलास के अतिरिक्त और क्या कहूँ इसे ? अपनी ही लीला को क्यों इतने विस्मय से देख रहा है तू ? भले ही किसी दूसरे के लिए कुछ आश्चर्य की वस्तु हो यह, परन्तु तेरे लिए तो कुछ भी नया नहीं है यहाँ । अनेकों बार बना-बना कर तोड़े हैं तूने और तोड़-तोड़कर बनाये हैं तूने ये नाम तथा रूप। अब समेट अपनी इस बाह्य-दृष्टि को, इस अपनी लीला को और डुबकी लगा स्वयं अपने अन्दर । देख सब कुछ पड़ा है वहाँ, युगपत् । (देखो २६.१०) Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७८ ८. तत्त्व-चिन्तन (८) भो चेतन ! क्यों व्यर्थ रागद्वेष करता है जगत के इन चित्र-विचित्र पदार्थों में उलझकर, क्यों इष्टानिष्ट की कल्पनायें करता है? तू ही बसता है इन सब में, कुछ में प्रत्यक्ष और कुछ में परोक्ष, कुछ में आज कुछ में कल । जड़ चेतन के भेद को भी अवकाश कहाँ है यहाँ ? जड़ कहलाने वाले ये सब पृथ्वी, पाषाण, धातु, लकड़ी, वस्त्र आदि भी तो रह चुके हैं पहले तेरे आवास, तेरे शरीर ? तू ही तो बसता है या बसता था इन सब में, और इस प्रकार तेरा ही तो आवास है यह अखिल विस्तार ? विषमता को अवकाश कहाँ ? ज्ञाता दृष्टा बनकर देख अपने ही इस अखिल विस्तार का विलास, अपना कला-कौशल । कितनी अद्भुत है इसकी महिमा और तेरी महिमा ? ( (९) जड दिखते हों या चेतन, तेरे ही तो शरीर हैं, तेरी ही तो उपज है, सब तेरी ही तो सन्तान है, कोई बड़ी और कोई छोटी, किसी को जन्म दिया था कल और किसी को दिया है आज । तेरी ही भाँति हैं अन्य भी अनन्तों । सब वही तो कर रहे हैं जो तू कर रहा है। सब भाई-भाई हैं, सब मित्र-मित्र हैं-एक कुटम्ब है, अखण्ड तथा निर्द्वन्द्व । कहाँ है मैं-तू का, शत्रु-मित्र का, सज्जन-दुर्जन का, ऊँच-नीच का, स्त्री-पुरुष का, अथवा इष्टानिष्ट का द्वन्द्व ? क्या माता भी करती है अपनी सन्तान में कभी ऐसा भेद ? प्यार कर सबसे, हृदय से लगा सबको, आत्मसात् कर सबको, अपने से चिपटा ले सबको, अपने में समा ले सबको । (देखो २६.१०)। (१०) इसमें और मुझमें क्या अन्तर है । इसमें भी 'मैं', मुझमें भी 'मैं' । दोनों में क्या अन्तर है । सबमें सर्वत्र यह 'मैं', ही तो प्रतिबिम्बित हो रहा है । इसके अतिरिक्त और दिखता ही क्या है यहाँ ? जिसे अपनी तथा अपनी भावनाओं की खबर नहीं ऐसे दृष्टि-विहीन को भले सब में और अपने में कुछ अन्तर या भेद दिखाई दे, परन्तु दृष्टिसम्पन्न के लिये क्या भेद, कैसा भेद । सब में सर्वत्र इस 'मैं मैं मैं' का ही तो विलास है । भले गणना में अनेक हों, सबके शरीरों में पृथक्-पृथक् हों, परन्तु केवल चैतन्य को, केवल तत्त्व को लक्षित करने वाली दृष्टि में इस भेद को भी अवकाश कहाँ, इस द्वैत का भी विकल्प कहाँ । उसके लिये तो सब में सर्वत्र एक चित्पिण्ड ही लक्षित हो रहा है, अन्य कुछ नहीं । सकल द्वैत भ्रान्ति बनकर रह जाता है यहाँ. इस निर्विकल्प चिज्योति में। और यह जड पदार्थ? यह भी इस 'मैं' का शरीर ही तो है और इसलिये 'मैं ही तो है । आवास तथा आवासी का भेद भी तो उदित नहीं हो रहा है यहाँ, इस परम समाधि में । कौन-सा पदार्थ ऐसा है जो इस समय मुझे 'मैं' रूप नहीं दीख रहा है । मनुष्य भी 'मैं' रूप, पशु पक्षी भी 'मैं' रूप, यह जीवित आवास भी 'मैं' रूप और ये सकल मृत आवास भी 'मैं' रूप । सर्वत्र एक 'मैं' ही 'मैं', चेतन प्रभु ही चेतन प्रभु । सब में एक रूप से प्रतिभासित यह 'मैं' ही तो है वह चेतन महा-प्रभु, वह सत्य तत्त्व जिसे विद्वान लोग कहते हैं 'ब्रह्म' । इस प्रकार देखने पर सब में सर्वत्र सर्वरूप एक ब्रह्म ही बह्म दीखता है, अन्य कुछ नहीं 'एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, सर्व खल्विदं ब्रह्म' । अहा हा ! कितना महिमावन्त है इस 'मैं' का स्वरूप समता का उच्चतम आदर्श। नोट-७-१० तक के इन चार चित्रणों का तात्त्विक समन्वय पहले किया जा चुका है । (देखो २६.११)। (११) कितना बड़ा कारखाना है तेरा यह अखिल विस्तार । कोई पुर्जा छोटा और कोई बड़ा, परन्तु सब एक दूसरे के साथ जड़े हए, इस प्रकार किन हटाया जा सकता है कुछ और न बढ़ाया जा सकता है कुछ। फिर करता है किसी को बनाने का और किसी को बिगाड़ने का, किसी को मिलाने का और किसी को हटाने का, किसी को तोड़ने का और किसी को जोड़ने का? सदा से चलता रहा है यह इसी तरह और सदा चलता रहेगा यह इसी तरह, न कभी रुका है और न कभी रुकेगा। तात्त्विक स्वभाव के अतिरिक्त न कोई चलाने वाला है इसे और न रोकने वाला। केवल तमाशा देखा कर इसका, अपने कला-कौशल का। केवल देख इसे और देखता ही रह, बिना कुछ करने का विकल्प किए, साक्षी मात्र रह कर, ज्ञाता मात्र रह कर । (देखो १२.८)। (१२) ओ चित्त ! क्यों व्यर्थ व्यग्र हो रहा है करने-धरने के विकल्पों में उलझकर, जाने-आने के विकल्पों में उलझकर, कहने-सुनने के विकल्पों में उलझकर ? एक अखण्ड तात्त्विक व्यवस्था है यह, बाहर भी और भीतर भी, काल की, महाकाल की। सब कुछ स्वत: निकला आ रहा है उसमें से और सब कुछ समाया जा रहा है उसमें । तेरी ही कितनी है इस महा-शक्ति के सामने । याद रख पिस-कर रह जायेगा। क्या नहीं देख रहा है कि तेरे जैसे कितने मूर्ख नित्य आ रहे हैं इसकी झपेट में और पिस-पिसकर नष्ट हुए जा रहे हैं यहाँ, दीप-शिखा पर स्वयं आ-आकर कल्प Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान २७९ ९. निरीह वृत्ति भस्म होने वाले पतंगों की भाँति । सम्भल, सम्भल, बस आगे न बढ़, यहाँ खड़ा रहकर ही देख तमाशा तथा महिमा इस महा-तत्त्व की। (१३) हे 'मैं' रूप में प्रकाशित अन्तस्तत्त्व ! देख-देख तू है अकेला, सर्व अन्तरंग विकल्पों से तथा चार कोटि के पर पदार्थों से रहित (देखो ९.३), ज्ञान-ज्योति भगवान आत्मा । कितना शान्त है तेरा यह रूप और कितना सुन्दर, परन्तु हृदय-गुफा में छिपा-छिपा सा कुछ साँवला-साँवला सा । फिर भी हे श्याम-सुन्दर ! क्यों भटकता है तू कभी इस फूल पर और कभी उस फूल पर, रसलौलुप भँवरे की भाँति, छोड़कर अपनी पति-परायणा राधिका को अर्थात् अपनी आराधना को, शान्ति की आराधना को, इसकी साधना को ? क्या कुछ कम सुन्दर लगती है तुझे यह ? ९. निरीह वृत्ति यह है धर्म-ध्यान का चौथा रूप-'तत्त्व-चिन्तन', मन्त्रजाप्य स्तोत्र पाठ तथा भावना-भावन इन तीन रूपों से कुछ ऊँचा । और अब चलता है उसका पाँचवाँ रूप 'निरीह वृत्ति'। जिस प्रकार पानी से भरे लोटे को एक बार प्रयत्न पूर्वक घुमा देने के उपरान्त वह इशारे मात्र से ही बराबर घूमता रहता है, अथवा जिस प्रकार किसी मोटर या ऐञ्जिन को एक बार पूरी तरह शक्ति के प्रयोग द्वारा चला देने के उपरान्त वह अल्पमात्र शक्ति के प्रयोग से ही बराबर चलता रहता है, अथवा जिस प्रकार किसी उच्छृङ्खल घोड़े को एक बार अनेकविध उपायों द्वारा साध लेने के उपरान्त वह बिना किसी प्रयोग-विशेष के, स्वामी के इशारे पर बराबर चलता रहता है उसी प्रकार चित्त को बद्धि के प्रयलपर्वक चतर्विध ध्यानों द्वारा साध लेने के उपरान्त वह बिना किसी जाप्य या चिन्तन आदि का आश्रय लिए, बुद्धि या विवेक के इशारे पर चलता रहता है । किसी विषय की ओर उन्मुख हो जाने पर जिस प्रकार पहले वह कर्मधाराओं में बह जाता था, उस प्रकार अब नहीं बहता, प्रत्युत ज्ञानधारा में ही स्थित रहता है, अर्थात् उस विषय को ज्ञाता दृष्टारूप साक्षी भाव से जानता मात्र है, उसके साथ रागद्वेष-मिश्रित इष्टानिष्ट आदि रूप व्यर्थ के द्वन्द्वात्मक विकल्प नहीं करता । (देखो १०.२३) धर्म-ध्यान के इस क्षेत्र में किसी पदार्थ या विषय का जानना अनिष्ट नहीं है, अनिष्ट है उसके साथ-साथ बिना बुलाये आने वाले वे द्वन्द्वात्मक विकल्प जो कि साधक के अन्तस्तल को क्षुब्ध करके उसे अशान्ति के अथाह सागर में धकेल देते हैं । ज्ञान तो दर्पण है, जो भी उसके समक्ष आए उसे ही जान ले, उसे कुछ भी जानना अनिष्ट नहीं, भले ही हों धर्म-ध्यान के उपर्यक्त चार रूपों में चित्रित धार्मिक तथा आध्यात्मिक भाव अथवा हों धन. स्त्री. कटम्ब विषयक कोई लौकिक भाव । द्वन्द्वात्मक विकल्पों का उत्पत्ति-क्षेत्र न तो है ज्ञान और न हैं उसके विषय, प्रत्युत है केवल चित्त तथा उसके अनादिगत संस्कार, जिनकी शक्ति ध्यानाभ्यास द्वारा अब इतनी क्षीण हो चुकी है कि बुद्धि की उपस्थिति में या जागृति के कारण अब उन्हें उच्छृङ्खलता करने का साहस नहीं होता । बुद्धि भी पहले उन संस्कारों के कारण बहक जाती थी अर्थात् चित्त की उच्छृङ्खलता के प्रति जागृत रहते हुए बराबर उस पर दृष्टि रखने के जिस कार्य में ध्याता उसे नियोजित करता था, वह उन संस्कारों-वश अपने उस कर्त्तव्य को छोड़कर स्वयं चित्त का अनुकरण करने लगती थी। उससे पृथक् अपनी सत्ता का तथा अपने से पृथक् उसकी सत्ता का भान भी उसे नहीं रहता था। ध्यानाभ्यास के कारण उसने भी अब इस प्रकार बहकना छोड़ दिया है। अब वह बराबर अपने उक्त कर्त्तव्य के प्रति सतर्क रहती है। इसलिए योगी को जाप्यादि करने की अब कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। उसे अब केवल इतना ही करना होता है कि किसी भी एकान्त स्थान में पूर्वोक्त प्रकार निश्चल बैठकर चित्त को ढीला छोड़ दे और जाने दे उसे जहाँ भी वह जाना चाहता है, लेने दे उसे जिस-किसी भी विषय का आलम्बन वह लेना चाहता है, जानने दे उसे जिस-किसी भी विषय को वह जानना चाहता है। परन्तु बुद्धि को बराबर सतर्क रखता है और देखता रहता है केवल इतना कि चित्त कहाँ-कहाँ जा रहा है, और किस-किस विषय का आलम्बन ले रहा है अथवा किस-किस विषय को जान रहा है । स्वयं निरीह-वृत्ति से बैठा हुआ वह इतना मात्र ही प्रयत्न रखता है, इससे अधिक कुछ नहीं; न मन्त्र-जाप्य करता है, न स्तोत्रपाठ, न भावना-भावन और न तत्त्व-चिन्तन । बस इतने मात्र से उसके प्रयोजन की सिद्धि हो जाती है। चित्त में द्वन्द्वात्मक विकल्प प्रवेश नहीं पाते । ज्ञान दर्पण में चलचित्र की भाँति पदार्थ आते रहते हैं और जाते रहते हैं; कुछ अल्पकाल मात्र रहकर चले जाते हैं और कुछ अधिक काल रहकर । इस प्रकार ज्ञातादृष्टा भावरूप ज्ञानधारा में ही Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१. ध्यान ११. शुक्लध्यान स्थित रहता है वह, कर्त्ता-भोक्ता बनकर कर्मधारा में नहीं बहता है वह । इस प्रकार मोह- क्षोभ - विहीन नीरंग व निस्तरंग समता-माता की प्यार भरी गोद में विश्राम करता रहता है वह । १०. पदस्थादि ध्यान ——- यह ही है धर्मध्यान की सर्वोन्नत भूमि, जिससे आगे चलकर योगी प्रवेश करता है शुक्लध्यान की अन्तिम भूमि में । आगम में इन ध्यानों के लिए कुछ अन्य भी सैद्धान्तिक नामों का प्रयोग किया गया है । 'मन्त्रजाप्य' तथा 'स्तोत्रपाठ' वाले प्रथम दो ध्यान कहे जाते हैं 'पदस्थध्यान' क्योंकि इनमें पद अर्थात् शब्द का अथवा दृष्ट पदार्थ के नाम का अवलम्बन रहता है। 'भावना - भावन' वाली तृतीय भूमिको 'पिण्डस्थध्यान' कहा जाता है, क्योंकि वे सब भाव पिण्ड अर्थात् देह के सापेक्ष होते हैं । 'तत्त्व-चिन्तवन' तथा 'निरीह वृत्ति' वाली चतुर्थ व पँचम भूमियें 'रूपस्थध्यान' कहलाती हैं, क्योंकि इसमें न तो शब्द या नाम का आलम्बन होता है और न देह-सापेक्ष किसी भाव का, होता है केवल तत्त्व के स्वरूप का । निरीह - वृत्ति वाली पञ्चम भूमि में यद्यपि देह-सापेक्ष तथा देह-निरपेक्ष लौकिक तथा अलौकिक सभी पदार्थ ज्ञान के विषय बन जाते हैं, परन्तु रागद्वेषात्मक द्वन्द्वों का अभाव होने के कारण उसका समावेश पिण्डस्थ ध्यान में न करके इस तात्त्विक रूपस्थ ध्यान में ही करना अधिक उपयुक्त है। इसके पश्चात् आता है 'रूपातीतध्यान' और वही कहलाता है शुक्लध्यान — नामरूप के आलम्बन से अतीत होने के कारण रूप और केवल चिज्ज्योति मात्र का दर्शन होने के कारण शुक्ल । २८० ११. शुक्लध्यान — चित्त लय हो जाने के कारण भले रागद्वेषात्मक द्वन्द्व शेष न रह गए हों परन्तु बुद्धि जागृत रहने के कारण अन्तर्पट पर होने वाली विषयों की भागदौड़ तो अभी जीवित है ही। भले रागद्वेषात्मक उत्तराल तरंगों वाला क्षोभ शान्त हो गया हो इस महासागर का परन्तु ज्ञानात्मक क्षुद्र तरंगों वाला क्षोभ तो शान्त नहीं हो पाया अभी । भले ही दृष्टि में बाह्य जगत का लोप हो जाने के कारण पूर्णतः नीरंग हो गया हो वह, मोह-हीन हो गया हो वह परन्तु अन्तरंग में यह ज्ञानात्मक सूक्ष्म-जगत लुप्त न होने के कारण पूर्णतः निस्तरंग नहीं हो पाया है वह, क्षोभ-हीन नहीं हो पाया है वह । मोह-क्षोभ -विहीन साम्यरस बढ़ता जा रहा है, विशुद्धि में प्रतिक्षण अनन्तगुणी वृद्धि होती जा रही है, चारित्र बराबर ऊपर उठता चला जा रहा है, ज्योतिर्लोक की सीमाओं में प्रवेश पा गया है परन्तु पूर्ण नहीं हो पाया है वह, साक्षात् रूप से ज्योतिर्लोक का वासी नहीं हो पाया है वह । तथापि इतने मात्र से योगी निराश होने वाला नहीं । तप के प्रभाव से उसकी शक्ति में अनन्तगुणी वृद्धि हो चुकी है, उसके सहायकों की गति वेगवती हो चुकी है और शत्रु सेना दुम दबाकर भागी जा रही है। पीछा करता है यह महा सुभट उनका । बीज तक नाश करने का संकल्प किया है इसने उनका । चित्त तो पहले ही शरण: जा चुका था अपनी जननी बुद्धि की, और लो अब यह बुद्धि भी चली, भय के मारे काँपती हुई, शरण में अपनी जननी वासना की, जागृत वासना की नहीं प्रसुप्त वासना की, क्योंकि वह तो मूर्च्छित हो चुकी थी पहले ही, अपना कार्य करने में बिल्कुल असमर्थ । अत्यन्त क्षीणकाय वह अब कैसे रोक सकती है अन्तर्प्रभु के दर्शन को ? एक ओर चेतन सूर्य का अतुल प्रकाश और दूसरी ओर इसका झीना सा आवरण, कैसे रुक सकता है वह ? खुल गए हृदय गुहा के द्वार और हो गया योगी को साक्षात् उस महाप्रभु का एक अनिर्वचनीय ज्योति के रूप में, और इसीलिए कहलाता है यह शुक्लध्यान । आँखें योगी की, परन्तु दौड़ा वह बेतहाशा अपने प्रिय की ओर उससे चिपट जाने के लिये, उसमें लय हो जाने के लिये । वासना की बची-खुची सेना भस्म हो गई इस महा तेज में और जगज्जननी वासना भी समा गई उसी की कोख में। लय हो गया सब कुछ — चित्त गया बुद्धि में, बुद्धि गई वासना में, वासना गई महाप्रभु की कोख में । न रहा मैं और न रहा तू न रहा बाह्य जगत और न रहा भीतरी जगत । 'मैं' रूप अहंकार ही नि:शेष हो गया तब योगी भी कहाँ ? भले ही प्रतीति होती रहे उसे परं ज्योति की, परन्तु 'मैं अमुक नामधारी योगी' ऐसी द्वैत-प्रतीति कहाँ है अब उसे ? वह भी लीन होकर नि:शेष हो गई उसी में रह गई एक अनिर्वचनीय शान्ति तथा समतायुक्त ज्योति, सच्चिदानन्द परमेश्वर, महातत्त्व, स्वतत्त्व, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं । शून्य में समा गया सब कुछ, बुझ गया दीपक चित्त का । यही है बौद्ध का निर्वाण, माध्यमिक का शून्य और जैन का मोक्ष | - Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. उत्तम-त्याग ( १. त्याग व ग्रहण; २. आदर्श त्याग। १. त्याग व ग्रहण-अहो त्याग-मूर्ति वीतरागी गुरुदेव ! सर्व बाह्य परिग्रह के, अन्तरंग विकल्पों के तथा अभिलाषाओं के पूर्ण त्याग-आदर्श ! मेरे जीवन को भी शान्ति-प्रदायक यह त्याग प्रदान करो। अचिन्त्य है महिमा इस त्याग की, शान्ति की खान है यह । धन-धान्यादि के ग्रहण में आज हम कुछ सुख की महिमा देखते हैं, पर एक वह जीवन भी है जो इसमें साक्षात् दुःख देखता है। अभिप्राय के फेर से विष भी अमृत भासने लगता है, क्रोध कषाय जागृत होने पर मृत्यु भी इष्ट हो जाती है । कितना बड़ा अन्तर है दोनों के जीवन में ? एक वह जीवन है जिसमें से यह पुकार निकल रही है कि 'और ग्रहण कर, और ग्रहण कर', और एक वह जीवन है जो मूक भाषा में कह रहा है कि 'और त्याग कर, और त्याग कर ।' एक वह जीवन है जो कह रहा है कि 'धनादि सम्पदा में सुख है, इसमें ही सुख है', और एक वह जीवन है जो कह रहा है कि इसमें ही दुःख है, इसमें ही दुःख है।' एक वह जीवन है जो कह रहा है कि इसके बिना मेरा काम नहीं चलेगा', और एक वह जीवन है जो कह रहा है इसके रहते हुए मेरा काम नहीं चलेगा।' एक वह जीवन है जो कह रहा है ‘धन चाहिए, 'धन चाहिए' और एक वह जीवन है जो कह रहा है कि 'धर्म चाहिए, धर्म चाहिये।' अहो ! अभिप्राय का माहात्म्य । नुकते के हेर-फेर से 'खुदा' से 'जुदा' हो जाता है। ऊपर का नुकता नीचे कर देन मात्र से उर्दू में लिखा 'खुदा' शब्द 'जुदा' पढ़ा जाता है । इसी प्रकार शान्ति पर से अभिप्राय को हटाकर सम्पदा पर लगा देने से सच्चिदानन्द स्वरूप तू व्याकुलता की विकराल दाढ़ का चबीना बन जाता है। यह कैसे अनुभव में आवे कि ग्रहण में दुख है ? जब एक क्षण को भी किंचित् मात्र निराकुलता का स्वाद न चख ले तब तक कैसे पता चले कि इसमें दुःख है ? भले गुरुदेव के कहने पर कह दूं कि हाँ हाँ यह दुःखों का मूल है, पर अन्तरङ्ग में तो ऐसा नहीं भासता । कैसे भासे? निराकुलता से व्याकुलता में जाये तो पता चले कि व्याकुलता में आया है, पर व्याकुलता छोड़कर पुन: व्याकुलता में ही जाए तो कैसे पता चले कि व्याकुलता है यह ? यदि धनोपार्जन की व्याकुलता को छोड़कर उसकी रक्षा की व्याकुलता में घुस गया तो बात तो ज्यों की त्यों ही रही । उल्लू सदा अन्धकार में रहता है, क्या पता बेचारे को कि यह अन्धकार है ? उसके लिए तो वही प्रकाश है । यही तो हालत है मेरी आज, कैसे पता चले कि ग्रहण में दुःख है ? कुछ थोड़ा-सा त्याग करके देखें तो पता चले कि इतने से त्याग से जब कुछ शान्ति आई है तो तो पूर्णत्याग करके इस योगी को कितनी शान्ति आई होगी। आज मुझे त्याग में कष्ट प्रतीत होता है और इसीलिए योगी के जीवन को कष्ट का जीवन मानता हूँ। किंचित् त्याग करके देखू तो पता चले कि त्याग-मूर्ति इन योगीश्वरों का जीवन कितना सुखी है। 'अपरिग्रह' नामक ३३ वें अधिकार में एक साधु का दृष्टान्त दिया है जिसमें एक साधारण सी ऐलुमिनयम की कटोरी भी उसके लिए भार बन गई। उसे त्यागकर उसने सन्तोष की सांस ली। त्याग से ग्रहण में आकर ही पता चला साधु को कि कितना दुःख है ग्रहण में, इसी प्रकार ग्रहण से त्याग में आकर ही पता चल सकता है कि कितना सुख है त्याग में । योगी का जीवन कष्ट में नहीं शान्ति के झले में झलता है, अभिप्राय बदल चुका है उसका । शान्ति के स्वाद के सामने कौन पड़े इस जंजाल में, चुपड़ी खाने वाले को कैसे रुचे कच्चे चने चबाना? कोई ढेर भी लगा दे उनके सामने स्वर्ण या हीरों का तो आकर्षण की तो बात नहीं, उसे उपसर्ग समझें। उन पर दया करके, 'हाय, बेचारे ठिठुर रहे हैं सर्दी के मारे, एक कम्बल ओढ़ा दो उन्हें', ऐसा विचारकर अपने शरीर पर से कम्बल उतारकर उनके शरीर पर डाल दो, और समझ बैठो हृदय में कि चैन पड़ गई होगी उन्हें । यह उनसे पूछो कि क्या बीत रही है उनके हृदय पर, एक बड़ा भारी उपसर्ग आ पड़ा है मानो । उनकी शान्ति घाती गई है, विकल्प उठ गये हैं। राजपुत्र थे दो । दोनों सहोदर भाई । वैरागी हो गए पर अभिप्रायों में महान अन्तर । दोनों ही ने स्वयं राज्य छोड़ा, सम्पदा छोड़ी, परन्तु अन्दर में एक समझता रहा यह कि उसमें सुख है और एक ने समझ लिया यह कि उसमें दुःख है । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. उत्तम-त्याग २८२ २. आदर्श-त्याग फलितार्थ, एक करने लगा शान्ति रस की सिद्धि और दूसरा करने लगा स्वर्ण रस की सिद्धि । दोनों ही सफल हो गए अपने-अपने प्रयोग में । एक को शान्ति-रस के साथ-साथ मिल गई उसकी दासी भी अर्थात् स्वर्ण बनाने की ऋद्धि भी, और दूसरे को मिला केवल दास, स्वर्ण-रस । ऋद्धि मिलने पर भी पहले ने आँख न उठाई उसकी ओर और दूसरे के हर्ष का पारावार न रहा । भाई की खोज कराई और यह जानकर कि नग्न बने बड़ी दरिद्रता की दशा में जीवन बिता रहें हैं वे, दयापूर्वक आधी तुम्बी स्वर्ण-रस की भेज दी उनके पास । वीतरागी को आवश्यकता ही कहाँ थी उसकी, ठोकर मार दी उसे । तुम्बी लुढ़क गई। यह समाचार सुनकर दुःख से रो उठा भाई का हृदय और चल पड़ा स्वयं शेष आधी तुम्बी लेकर । रख दी वह भी भाई के चरणों में । पुन: ठुकरा दी उसने । रो पड़ा भाई । १२ वर्ष की तपस्या यों ही बह गई। "भाई ! यह क्या किया? दरिद्रता ने तुम्हारी बुद्धि बिल्कुल ही हर ली है, यह मैं नहीं जानता था।" अब बरसने लगा अमृत शुभचन्द्र के मुख से, "भाई ! जाग, स्वर्ण चाहिए तो राज्य क्यों छोड़ा था ? शान्ति लेने निकला था कि स्वर्ण ? स्वर्ण ही चाहिए तो ले भर ले जितना चाहे", और एक चुटकी रज की अपने तलवे के नीचे से निकालकर फैंक दी पहाड़ पर । पर्वत स्वर्ण का बन गया। “ग्रहण में से शान्ति निकालना चाहता है तू ? शान्ति ग्रहण में नहीं त्याग में है। शान्ति चाहिए तो मुझ जैसा बनना होगा, जिसके पास अटूट स्वर्ण-भण्डार होते हुए भी उसका ग्रहण नहीं करता", और रच गया यह ग्रन्थ जो आपके सामने है, 'ज्ञानार्णव' । आँखे खुल गई स्वर्ण-गृद्ध भाई की। ग्रहण का अभिप्राय जाता रहा, त्याग का अभिप्राय जागृत हुआ और आज वैराग्यशतक आदि अनेकों उसकी वैराग्य-रसपूर्ण कृतियें भारत में बहुत ऊँची दृष्टि से देखी जाती हैं। २. आदर्श-त्याग-दूसरी दृष्टि से भी इस त्याग की महिमा देखिये । गुरुदेव ने कर दिया सर्वस्व त्याग इसलिए कि दूसरे इससे लाभ उठायें। उन्हें स्वयं आवश्यकता नहीं तो वे भी क्यों वञ्चित रहें इससे, जिनको कि इसकी आवश्यकता है ? अर्थात् क्र दिया सर्वस्व का दान उनको जो झोली फैलाये खड़े पुकार रहे थे उनके सामने 'हाय पैसा, हाय धन' । सेठ साहब ने सड़क पर जाते एक साधु को दया करके एक पैसा दे दिया। साधु सोचने लगा कि क्या करूँ इसका? किसी माँगने-वाले के हाथ में जाता तो कुछ काम आता उस बेचारे के, मेरे किस काम का। अच्छा देखो कोई भिखारी आयेगा तो दे दूँगा उसे । इतने में दिखाई दिया सिकन्दर का लश्कर, बड़े वेग से चला जाता था घोड़े दौड़ाये। बस फैंक दिया साधु ने.पैसा उसी ओर । सिकन्दर के मस्तक में जा लगा वह । चौंका सिकन्दर, किसने फेंका है यह तुच्छ पैसा? पकड़ लो इस साधु को । साधु आया। "क्यों जी तुमने फेंका है यह पैसा?" "हाँ" । “क्या समझकर बोला, "विचारा था कि कोई भिखारी है। बेचारा, भूखा है, अपना देश छोड़कर यहाँ आया है अपनी भूख मिटाने, चलो यह पैसा भी इसे ही दे दो काम आयेगा इसके, मुझे क्या करना है इसका?" सिकन्दर की आँखें खुल गई, पर हमारी आँखें आज तक नहीं खुलीं।। अपने को सुखी दानी मानने वाले भी चेतन ! क्या सोचा है कभी यह कि तू दानी है कि भिखारी? इतना मिलते हुए भी जिसकी भूख, जिसकी तृष्णा, जिसकी अभिलाषा शान्त नहीं हो रही है, वह क्या देगा किसी को? जिसको तू भिखारी समझता है उसका पेट तुझसे बहुत छोटा है, फिर तू दानी कैसे बना ? तू तो उससे भी बड़ा भिखारी है, और ला, और ला' की ध्वनि से मानो तेरा सर चकराया जा रहा है, घुमेर आ रही है । उल्टा दीख रहा है तुझे, भिखारी को दानी और दानी को भिखारी मानता है तू । दानी देखना है तो देख उस योगी को जिसने सर्वस्व डाल दिया है तेरी झोली में, सर्वस्व त्याग दिया है तेरे लिए। दानी बनना चाहता है तो त्याग कर ग्रहण नहीं, त्याग भी नि:स्वार्थ त्याग, अपनी शान्ति के लिए सर्व सम्पदा का त्याग या किंचित् मात्र का त्याग। ___आज एक ही ध्वनि है चारों ओर । 'जीवन स्तर को ऊँचा उठाओ, स्टैण्डर्ड आफ लिविङ्ग में वृद्धि करो।' परन्तु गुरुओं के आदर्श को भुला बैठने वाले बेचारे क्या जानें कि जीवन का स्तर किसे कहते हैं ? जिस ओर वे जा रहे हैं वह जीवन का स्तर है कि मृत्यु का, शान्ति का स्तर है कि व्याकुलता का, सन्तोष का स्तर है कि अभिलाषाओं का, निश्चिन्तता का स्तर है कि चिन्ताओं का? खेद है कि मृत्यु के स्तर को जीवन-स्तर समझ बैठने वाला आज का भारत उन्नति की बजाये अवनति की ओर जा रहा है, और मजे की बात यह कि दूसरों को उपदेश देने चला है शान्ति का। 'शान्ति' विलासिता या ग्रहण में नहीं है भाई ! त्याग में है। 'जितना ग्रहण उतनी अशान्ति और जितना त्याग उतनी शान्ति', यह है यहाँ की महान आत्माओं का उपदेश । उसे सुनो, अपनाओ और देखो कि जीवन शान्त हो जायेगा। साध Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. उत्तम त्याग २८३ २. आदर्श-त्याग अपने जीवन में उतारे बिना दूसरों को उपदेश देना अनधिकृत चेष्टा है। एक स्त्री किसी साधु के पास जाकर बोली कि 'मेरा लड़का मीठा बहुत खाता है, तंग आ गई हूँ, कोई उपाय बताइये ।' साधु बोला कि तीन दिन पीछे आना । वह तीन दिन पीछे आई तो फिर बोला सात दिन पीछे आना। वह सात दिन पीछे आई तो फिर बोला कि दस दिन पीछे आना । और इसी प्रकार दो महीने बीत गये, स्त्री निराश होती गई। पर दो महीने पश्चात् साधु बोले कि अपने लड़के को मीठा देना बन्द कर दो, उसका सुधार हो जायेगा । स्त्री को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ, 'कौन नई बात बताई है महाराज ने दो महीने पहले ही क्यों नहीं कह दिया था आपने ? इतने दिन व्यर्थ ही पीछे-पीछे घुमाया।' 'ऐसा नहीं है देवी ! इतने दिनों तक मैं खाली नहीं बैठा, तेरे लिए उपाय ही सोचता रहा और अपने जीवन में उतारकर जब यह देख लिया कि बिना मीठा खाये भी काम चल सकता है तभी कहा है तुझे कि मीठा न देना ।' अत: भो प्राणी ! अपने जीवन में त्याग का आदर्श उतारे बिना दूसरे को त्याग का उपदेश देना तुझे शोभा नहीं दे रहा है। भले थोड़ा ही जीवन में उतार, पर जितना कुछ जीवन में उतारा जाए उतना ही दूसरों को उपदेश देना कार्यकारी है । आदर्श-त्याग की शरण में जाकर मेरा ग्रहण की रौ में बहते जाना क्या शोभनीक है, क्या इसे त्यागी गुरु का आश्रय कहा जा सकता है ? कुछ तो ले ले गुरुदेव से ? भले धन न छोड़, पर घर के अड़ंगे को तो कम कर सकता है । उसमें लौकिक रीति से भी तेरा लाभ ही है। भले उसे भी किसी को मुफ्त में मत दे, मोल बेच दे, उसका रुपया बनाकर अपने पास ही रख, पर उसे कम करके देख तो सही। बीस - कुर्सियों में से केवल दो रख, बाकी की बेच डाल, और फिर देख यदि कुछ शान्ति मिलती है तो आगे त्याग देना नहीं तो आठ की बजाये बारह और खरीद लेना । गुरुदेव का त्याग इससे भी अधिक तथा अनुपम है, उसकी महिमा अचिन्त्य है । यह धन-वस्त्रादि का त्याग व दान तो तुच्छ सी बात है, वे तो उस वस्तु का त्याग कर रहे हैं अर्थात् दान दे रहे हैं, जो कोई नहीं दे सकता। किसी एक को नहीं, समस्त विश्व को दे रहे हैं, शब्दों में नहीं जीवन से दे रहे हैं, रोम-रोम से दे रहे हैं, शान्ति का सन्देश, शान्ति का उपदेश, शान्ति का आदर्श, जिसके सामने तीन-लोक की सम्पत्ति धूल है, उच्छिष्ट है, वमन है । 1 खेद है अपनी दशा पर कि अपना वमन जानते हुए भी मैं उसी को फिर से ग्रहण करने के पीछे दौड़ा चला जा रहा हूँ । जिस वस्तु को एक बार नहीं अनन्तों बार ग्रहण कर-करके छोड़ दिया वह वमन नहीं तो क्या है ? कौन-सी वस्तु यहाँ ऐसी दिखाई दे रही है जो तेरे लिए नई है ? देव बन - बनकर, इन्द्र बन बनकर, चक्रवर्ती व राजा बन-बनकर कौन-सी वस्तु ऐसी रह गई है जो तूने न भोगी हो ? भूल गया है आज तू अपना पुराना इतिहास, इसी से नई लगती है यह । याद करे तो जान जाये कि हर भव में तूने इसे ग्रहण किया और हर भव में इसने तेरा त्याग किया। तू एक-एक करके इसे ग्रहण करता, इसका पोषण करता, और यह पुष्ट हो होकर एकदम तुझे आँखें दिखा देती। ऐसे कृतघ्नी को पुनः ग्रहण करने चला है, आश्चर्य है। अब तो आँखें खोल और इससे पहले कि यह तुझे त्यागे, तू इसे त्याग दे । यह है उत्तम त्याग- धर्म, जो त्याग के लिए नहीं बल्कि शान्ति के ग्रहण के लिए है । शान्ति के अभिप्राय से रहित किया गया त्याग दुःख का कारण है, उसकी यहाँ बात नहीं है । एक ओर है त्याग और दूसरी ओर है ग्रहण | त्याग में है शान्ति और ग्रहण में है संघर्ष । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. उत्तम आकिञ्चन्य ( १. साध्यासाध्य विवेक; २. दृढ़ संकल्प; ३. आकिञ्चन्य; ४. सच्चा त्याग। अहो ! सम्पूर्ण बाह्य व अन्तरङ्ग परिग्रह का त्याग करके, यथार्थ अकिञ्चन् अवस्था को प्राप्त गुरुदेव ! आपकी महिमा गाने को कौन समर्थ है ? आकिञ्चन्य-धर्म की बात चलती है । आकिञ्चन्य अर्थात् 'किंचित् मात्र भी मेरा नहीं है। ऐसा अभिप्राय महान धर्म है. मेरा स्वभाव है। अपने से अतिरिक्त कोई भी अन्य पदार्थ इसलिए शान्ति के उपासक का यह अभिप्राय उसका धर्म है । 'शान्ति मेरा स्वभाव है, मुझे वही चाहिए और कुछ नहीं। उस शान्ति को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।' यह है गर्जना उस योगी की, शान्ति के उपासक की। १.साध्यासाध्य विवेक-परन्तु योगी कौन ? सभी तो योगी हैं। योगी का अर्थ है जुट जाने वाला। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कमर कस कर जुट जाने वाला 'योगी' होता है । हम सभी तो कमर कस कर किसी लक्ष्य के प्रति जुटे हुए हैं । तो क्या हम योगी हैं ? हाँ अवश्य, परन्तु उपरोक्त योगी जैसे नहीं । अन्तर है अभिप्राय में । हमारा लक्ष्य है, 'मुझे तीन लोक की सम्पत्ति चाहिए, इसमें बाधा या इसके अतिरिक्त किंचित् मात्र भी मुझे सहन नहीं है, इसके सामने धर्म कर्म भी मुझे चाहिए नहीं।' और उपरोक्त योगी का लक्ष्य है, 'मुझे शान्ति चाहिए, इसमें बाधा या इसके अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी मुझे सहन नहीं, इसके सामने धन कुटुम्बादि भी मुझे चाहिए नहीं ।' कितना महान अन्तर है योगी और योगी में । एक का लक्ष्य है असाध्य तृष्णा और दूसरे का लक्ष्य है साध्य शान्ति । विचार तो सही कि क्या तीन-लोक की सम्पत्ति का लक्ष्य पूरा हो सकेगा? मृगतृष्णा में ही दौड़ता-दौड़ता मर जायेगा, सब कुछ यहीं छोड़ जायेगा, पुन: जन्मेगा, फिर उसी लक्ष्य को रखकर दौड़ता हुआ मर जायेगा। फल निकला केवल जन्म-मरण और अशान्ति, मृगतृष्णा की दाह । दूसरे का लक्ष्य है सच्चा साध्य वर्तमान में प्रयास करेगा, किञ्चित शान्ति प्राप्त होगी। मर जायेगा पर उसे साथ लेकर जायेगा । आगे जन्मेगा, फिर प्रयास करेगा, साथ लेकर गई हुई उस शान्ति में वृद्धि करेगा और दो चार बार में पूरी शान्ति प्राप्त कर लेगा। इसलिए उपरोक्त दो योगियों में से एक योगी है झूठा और दूसरा है सच्चा । अभिप्राय पर से ही पहिचान की जा सकती है इनकी। आज के भी युग में एक योगी हुआ है महात्मा गाँधी । वही उपरोक्त पुकार थी—'मुझे स्वतन्त्रता चाहिये, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं । तीन-लोक के प्रलोभन मेरे सामने आयें परन्तु मेरी पुकार बदलने न पाये । स्वतन्त्रता भी कम नहीं चाहिये पूरी चाहिये। किसी को भी किञ्चित् मात्र हस्तक्षेप करने की आज्ञा मैं नहीं दूंगा, किंचित् मात्र भी अंग्रेजों की सत्ता को मैं स्वीकार नहीं करूँगा, उनके बच्चे-बच्चे को मेरा देश छोड़ना होगा, मेरी स्वतन्त्रता छोड़नी होगी।' लक्ष्य साध्य था, क्योंकि स्वतन्त्रता मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है और इसलिए इस गर्जना का प्रभाव समर यदि आवाज यह हुई होती कि 'मुझे सर्व विश्व पर सत्ता चाहिये, इससे किंचित् मात्र भी कम मुझे स्वीकार नहीं' तो आप ही बताइये कि क्या यह पुकार सच्ची होती है ? बस तो प्रभु ! अपनी इस धन की पुकार को बदलकर कोई सच्ची गर्जना उत्पन्न कर । यदि वास्तव में शक्ति का उपासक है, शान्ति को लक्ष्य में लिया है तो सच्चे अभिप्राय से इसकी साधना कर। २. दृढ़ संकल्प-यही गर्जना सच्चे योगियों में उठ रही है, शान्ति के उपासकों में उठ रही है, “मुझे शान्ति चाहिये, इसके अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी नहीं; धन-धान्य, घर-जायदाद, पुत्र-मित्र, स्त्री, विषय-सामग्री, वस्त्र इत्यादि की तो बात नहीं, उन्हें तो पहले ही त्याग बैठा हूँ, मुझे तो शरीर भी नहीं चाहिये, और इसके लिये आहार भी नहीं चाहिये। इतना ही नहीं अपनी शान्ति में किञ्चित् मात्र भी बाधा मुझे सहन नहीं, अत: ये संकल्प-विकल्प भी नहीं चाहिये, संस्कार भी नहीं चाहियें। इनके बच्चे-बच्चे को मेरा देश छोड़कर निकलना होगा, मेरी शान्ति छोड़कर भागना होगा। तीन लोक का बड़े से बड़ा प्रलोभन भी मेरी गर्जना को बदल नहीं सकता।” ओह ! कितना बल है इस गर्जना में और कितनी दृढ़ता, मानो आज सारा विश्व काँप उठा है इसे सुनकर । यह शान्ति प्राप्त करके ही हटेगा, एक दिन अवश्य देखने में आयेगा इसका प्रभाव । शान्ति चाहिये तो तू भी इतनी प्रबल गर्जना उत्पन्न कर, जिसमें बल तथा दृढ़ता हो। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. उत्तम आकिञ्चन्य ३. आकिञ्चन्य देखिए दृढ़ता की महिमा, एक सूखे से पतले-दुबले निर्धन ब्राह्मण चाणक्य के पाँव में चलते-चलते घुस गई कुशा । बस गर्जना निकल पड़ी, ' चाणक्य के पाँव में घुसने का साहस कैसे हुआ तुझे ? किञ्चित् मात्र भी तेरी सत्ता इस वन में न रहने पायेगी, तेरा बीज नाश कर दूँगा ।' लगा सारे वन की कुशा को खोद-खोद कर उसकी जड़ों में छाछ डालने और तब तक चैन नहीं ली जब तक कि सर्वनाश न कर दिया उसका । नन्द राजा के मन्त्री ने भी देखा उसका यह दृढ़ संकल्प, मन ही मन विचारने लगा, “इसकी सहायता से अवश्यमेव मेरा प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा, अर्थात् नन्द राजा से अपने अपमान का बदला ले सकूँगा।” चाणक्य के पास पहुँचा और बोला कि चलिए ब्राह्मण ! आज नन्द-राजा के घर ब्रह्मभोज है, और ले जाकर बैठा दिया उसे राजा की रसोई में। विलासी राजा नन्द आया, “अरे यह कालाकलूटा सूखा सा नर कंकाल कहाँ से आया यहाँ ? निकाल दो इसे बाहर ।” अपमान करके चाणक्य को बाहर निकाल दिया गया परन्तु एक गर्जना उत्पन्न हुई उस दृढ़ संकल्पी ब्राह्मण में, “नन्द ! इस अपमान का दण्ड भुगतना होगा, किञ्चित् भी तेरा शेष नहीं छोडूंगा, यह शिखा तभी बंधेगी जब तेरा बीज नाश हो जायेगा।” ओह ! कितना बल था उसकी गर्जना में और कितनी दृढ़ता, समस्त विश्व ने देख लिया उसका प्रभाव, नन्द का सर्वस्व नाश कर दिया गया । सत्ता आई सम्राट चन्द्रगुप्त के हाथों में, जिन्होंने पीछे दिगम्बर योग धारण करके वही उपरोक्त गर्जना उत्पन्न की अपने अन्दर, 'मुझे शान्ति चाहिये इसके अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी नहीं, और विश्व ने देख लिया उसकी गर्जना का प्रभाव । ३. आकिञ्चन्य- परन्तु इस गर्जना का आधार क्या वह है जो कि कल के वक्तव्य में आपने समझा अर्थात् 'सर्वस्व का त्याग, विश्व के लिये सर्वस्व का दान' ? नहीं! ऐसा नहीं है । वस्तु का त्याग नहीं, वस्तु के देने का नाम दान नहीं । आकिञ्चन्य ही यथार्थ त्याग है, यथार्थ दान है, अर्थात् 'किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं है' यह धारणा ही त्याग है तथा दान भी । पहली गर्जना थी यह कि शान्ति के अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी मुझे नहीं चाहिए, और अब है यह कि शान्ति के अतिरिक्त किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं। 'मुझे नहीं चाहिए' और 'मेरा नहीं' इन दोनों में कुछ अन्तर प्रतीत होता है । पहली पुकार में ध्वनित होता है यह कि 'मैं ले सकता हूँ पर नहीं लूँगा' और दूसरी पुकार में ध्वनित होता है यह कि 'मैं ले ही नहीं सकता, जबकि मेरा कुछ है ही नहीं' । परन्तु वस्तुतः दोनों में अभिप्राय एक है, वास्तव में मेरा कुछ है ही नहीं । २८५ जरा विचार करके देखो तो पता चल जाए कि यहाँ वास्तव में मेरा है ही क्या ? मेरी वस्तु वह हो सकती है जो सदा मेरी होकर रहे । जिन वस्तुओं को मैं 'मेरी हैं' ऐसा मानता हूँ, उन्हें मैं अपने साथ लेकर जाता नहीं, यहाँ रहते हुए सदा वे मेरे साथ रहती नहीं, फिर कैसे उन्हें 'मेरी' कह सकता हूँ ? वास्तव में 'मेरी' कहना कल्पना है, जिसके अन्तर्गत छः भूलें पड़ी हैं । इन भूलों का नाम है षट्कारक । व्याकरण में आप सबने पढ़े हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण । इन छः के आधार पर ही मैं किसी वस्तु को 'मेरी' कहने का साहस करता हूँ । जैसे कि— पुत्रादि का पालन करता हूँ अतः मैं उनका कर्त्ता हूँ, उनका पालन मेरा कर्तव्य है अतः वे मेरे कर्म हैं, मेरे द्वारा उनका पालन होता है अतः मैं उनका करण हूँ, उनके लिए ही मैं सब न्याय-अन्याय कर रहा हूँ अतः वे मेरे सम्प्रदान हैं । उनका पालन करना मेरा स्वभाव है अतः वे मेरे अपादान हैं। मेरे आश्रय पर ही उनका जीवन टिक रहा है, अतः मैं उनका अधिकरण हूँ । इसलिए वे मेरे हैं। इसी प्रकार वे मेरी सेवा करते हैं अतः वे मेरे कर्त्ता हैं, मेरी सेवा करना उनका कर्तव्य है अतः मैं उनका कर्म हूँ, उनके द्वारा ही मेरी सेवा हो रही है वे मेरे करण हैं, मेरे लिए ही वे परिश्रम कर रहे हैं। अत: मैं उनका सम्प्रदान हूँ, मेरी रक्षा करना उनका स्वभाव है अतः वे मेरे अपादान हैं उनके आश्रय पर मेरा यह जीवन सुख से बीत रहा है अत: वे मेरे अधिकरण हैं । अर्थात् मैं उनका कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हूँ, इसलिए वे मेरे हैं; और इसी प्रकार वे मेरे कर्त्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हैं, इसलिए मैं उनका हूँ । इसी प्रकार मैं धन का कर्त्ता ( उपार्जन करने वाला), कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण हूँ अतः धन मेरा है; और धन मेरा कर्त्ता (रक्षक), कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान व अधिकरण है अतः मैं धन का हूँ । इस प्रकार मैं उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लेता हूँ । यदि शान्ति चाहता है तो भाई ! इस भ्रम को टाल । वास्तव में कोई भी तेरा नहीं । देख इस दृष्टान्त पर से विचार कर । एक अफीमची पड़े थे नदी किनारे वृक्ष के नीचे 'अरे ! अब कहाँ जाऊँगा, चलो भूखे ही सही, रात तो बीत ही जावेगी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. उत्तम आकिञ्चन्य २८६ ४. सच्चा त्याग यहाँ, प्रात: की प्रात: देखी जायेगी। इतने में एक राजा का लश्कर आया, संध्या पड़ रही थी, नदी के किनारे डेरे लगा दिये, आन की आन में मंगल हो गया। अहा हा ! कितना सुन्दर नगर बस गया, कितने दयालु हैं प्रभु, अपने इस भक्त पर दया करके यहाँ ही नगर बसा दिया ? वाह-वाह कितना अच्छा हुआ, अब कहीं भी जाना न पड़ेगा, बस इस नगर में अब मौज से कटेगी।' प्रात: होने पर जब देखा कि रंग ही बदल गया, तम्बू उखड़ने लगे, कूच का बिगुल बजा, चारों ओर चलने-चलने की उछल-कूद मची तो फिर क्या था, मानो प्राण ही निकल गये । एक व्यक्ति से पूछा कि भाई ! किधर जा रहे हो ? उसने कहा “कौन हो तुम?" अफीमची ने कुछ निराशाभरी आवाज में कहा, “ मेरे ही लिए तो भेजा था न प्रभु ने तुम्हें ?” “अरे चल-चल ! कौन तू और कौन तेरा प्रभु ? अपनी मर्जी से आये थे और अपनी मर्जी से जाते हैं । न तुझसे पुछकर आये न तुझसे पूछकर जाते हैं। तू कौन होता है हमसे बात करनेवाला ?" और निराशा में डबा रह गया बेचारा रोता का रोता। क्या ऐसी ही दशा हमारी नहीं है ? पुत्र उत्पन्न हुआ, “अहा हा ! मेरी मुराद पूरी कर दी प्रभु ने, मेरे नाम को जीवित रखेगा यह' और न जाने क्या क्या ? खूब दान दो, खूब बाजे बजाओ, आज मेरा भाग्य जगा है।' और जिस दिन तम्बू उखड़ने लगे, पथिक जाने लगा ? 'अरे रे ! किधर जाते हो ?' 'कौन हो तुम?' 'मेरे लिए भेजा था न प्रभु ने तुम्हें ?' 'हट हट, कौन तू और कौन तेरा प्रभु ? अपनी मर्जी से आया था और अपनी मर्जी से जाता है । न तझसे पूछकर आया न तुझसे पूछकर जाता हूँ, कौन होता है तू मुझसे बात करने वाला ?' और निराशा में डूबे रोने लगे आप। इतने विषाद का क्या कारण है, क्या सोचा है कभी ? क्या उस पुत्र का जाना कारण है ? ऐसा मानना तेरी भूल है । पुत्र का जाना विषाद का कारण नहीं है और न ही उसका आना विषाद का कारण था, अर्थात् 'जो यह न आता तो आज क्यों विषाद होता', ऐसा मानना तेरी भूल है। वास्तविकता तो यह है कि यदि तू उसके अन्दर उस समय, 'मेरे लिये भेजा गया है, मेरा नाम जीवित रखेगा' इस प्रकार की षट्कारकी भूलें न करता, तो आज यह विषाद न होता। इसी प्रकार लक्ष्मी के आने-जाने के सम्बन्ध में भी समझ लेना । दृढ़तया यह निश्चय किये बिना, कल्पना मात्र से नहीं बल्कि वास्तव में कि कोई भी पदार्थ षट्कारकी रूप से मेरा है ही नहीं, उपरोक्त गर्जना निकलनी असम्भव है। ४.सच्चा त्याग ऐसा दृढ निश्चय होने के पश्चात समझ में आ जायेगा कल के त्याग का रहस्य । मेरा कछ है ही नहीं तो किसका त्याग? किसी वस्तु का तीन काल में एक समय के लिए ग्रहण ही नहीं हुआ तो किसका दान ? न कुछ त्याग न कुछ दान, केवल मिथ्याबुद्धि का त्याग, मिथ्याबुद्धि का दान, बस इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है त्याग का अभिप्राय । 'मैंने विश्व के लिए दान कर दी या त्याग दी' इस अभिप्राय में तो पड़ा है अभिमान, उस वस्तु का स्वामित्व अर्थात् 'मेरी थी मैंने त्याग दी' ऐसा आशय। यह त्याग पारमार्थिक नहीं, अर्थात् मेरा धर्म या स्वभाव नहीं प्रत्युत उसका साधन है, उसे हस्तगत करने का उपाय है। देखो ! किसी समय मेरा एक लोटा आपके घर आया और पड़ा रहा वहाँ ही । माँगना भूल गया और आप देना भूल गये । प्रयोग में लाते रहे और यह विश्वास हो गया आपको कि वह आपका ही है। साल भर पश्चात् आपके घर मैं किसी कार्यवश आया, पीने को पानी माँगा, संयोगवश वही लोटा सामने आया। भाई साहब ! क्षमा करना, क्षोभ न लाना, यह लोटा तो मेरा है, यह देखो इस पर मेरा नाम खुदा है, साल भर से भूला हुआ था' और आपने भी नाम देखकर निश्चय कर लिया कि हाँ मेरा नहीं है । 'क्षमा करना भाई साहब बड़ी भारी भूल हुई मेरी, कहें तो नया मँगा दूँ, नहीं तो यही ले जाइये।' यही तो कहेंगे आप उसके उत्तर में या कुछ और? अब इसी के सम्बन्ध में दूसरी कल्पना कीजिये। कोई भिखारी आता है आपके घर और आप दया करके वही लोटा दे देते हैं उसे। लोटे के त्याग की दो कल्पनायें आपके सामने हैं, एक मुझे देने की और दूसरी भिखारी को देने की। दोनों कल्पनाओं में ही आप देने वाले हैं और वही लोटा दिया गया है। विचारिये कुछ अन्तर है दोनों त्यागों में ? मुझे जो दिया उसमें तो दिया ही क्या, आपका था ही नहीं। भिखारी को दिया, सो अपना करके देने के कारण हो गया अभिमान, 'मैंने उस पर एहसान किया।' यह काहे का त्याग? पहला वस्त-स्वरूप के आधार पर है और दसरा भ्रम व भल के आधार पर । पहले में निर्विकल्पता है और दूसरे में अभिमान का विकल्प, पहले में शान्ति है और दूसरे में अशान्ति, इसलिए पहला त्याग सच्चा है और दूसरा झूठा। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३. उत्तम आकिञ्चन्य २८७ ४. सच्चा त्याग यदि शान्ति की इच्छा है तो सच्चा त्याग कर, सच्ची गर्जना उत्पन्न कर । “यहाँ किञ्चित् मात्र भी मेरा नहीं, किसको ग्रहण करूँ और किसको छोडूं ? शान्ति ही मेरा स्वभाव है, मेरा धन है, वही मुझे चाहिए, अन्य कुछ मेरा नहीं, वह मुझे चाहिए भी नहीं। अपनी स्वतन्त्रता मेरा अधिकार है, वही मुझे चाहिए, अन्य को परतन्त्र बनाना मेरा अधिकार नहीं, अत: परमाणु मात्र को भी परतन्त्र बनाने की मुझे इच्छा नहीं। अपने में षट्कारकी रूप से मैं कुछ कर सकता हूँ अत: अपने में ही कुछ करना चाहता हूँ, पर में षट्कारकी रूप से कुछ कर नहीं सकता अत: पर में कुछ करना भी नहीं चाहता।" यह है सच्ची गर्जना या सच्चा अभिप्राय, सच्चा आकिञ्चन्य-धर्म। वास्तव में तो योगी-जनों ने ही इसे जीवन में ढाला है, पर आप भी अपने अभिप्राय को उपरोक्त रीति से बदलकर किञ्चित् उस धर्म के उपासक बन सकते हैं अर्थात् ऐसा अभिप्राय बन जाने के पश्चात् उन-उन वस्तुओं में भले रमणता करो, पर 'यह मेरा अपराध है' ऐसी बात अन्तरंग में स्वाभाविक रूप से आती रहे । बस वही होगा अपका आकिञ्चन्य धर्म। Arun 4 ज्यों ही मानस्तम्भ में विराजित समता मूर्ति पर दृष्टि गई, इन्द्रभूति की अन्तर्चेतन जागृत है गई, अभिमान गलित होकर आकिंचन्य अवस्था को प्राप्त हो गए। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य ( १. ब्रह्मचर्य; २. ब्रह्मचारी; ३. क्रमोन्नत विकास। सच्चिदानन्द ब्रह्म में रमणता करके पूर्ण-परब्रह्म पद को प्राप्त, हे सिद्ध प्रभु ! मुझे ब्रह्मचर्य प्रदान कीजिए । गर्म घी के छीटों से दाह को प्राप्त हुए व्यक्ति की तरह अनादि काल से इन विषय-भोगों की दाह को प्राप्त मैं, आज अत्यन्त सन्तप्त हो आपकी शरण में आया हूँ। मेरा दाह शान्त कीजिए नाथ ! निज शान्ति के अतिरिक्त अन्य पदार्थों में रमण करता में, आज तक व्यभिचारी बना रहा, अब ब्रह्मचारी बनने की आशा लेकर, पूर्ण ब्रह्म की शरण में आया है। १. ब्रह्मचर्य-आज ब्रह्मचर्य की बात चलती है, लोक में जिसकी बहुत महिमा है । लोगों की दृष्टि में ब्रह्मचारी के लिए इतना ऊँचा स्थान क्यों ? क्या केवल स्त्री मात्र का त्याग कर देने पर इसका इतना ऊँचा स्थान है ? यह तो बात कुछ गले उतरती प्रतीत नहीं होती, क्योंकि स्त्री का त्याग करके अन्य विषयों में खूब, रमण करने वाले, न्याय अन्याय का विवेक न रखने वाले अत्यन्त कषायवान् तथा विलासी जीवों के प्रति बहुमान उत्पन्न होता नहीं देखा जाता है । क्यों ? क्या उन्हें स्त्री का त्याग नहीं है, और यदि है, तो क्या वे ब्रह्मचारी नहीं हैं ? नहीं वास्तव में ब्रह्मचारी नहीं हैं वे क्योंकि ऐसा होता तो स्वत: ही उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुए बिना न रहता। अत: ब्रह्मचारी का लक्षण केवल स्त्री-त्यागी नहीं है, इसका लक्षण उतना ही व्यापक है जितनी की इसकी महिमा। ब्रह्मचर्य के प्रकरण में जहाँ स्त्री के त्याग की बात को लक्ष्य में रखकर कहा गया है वहाँ पुरुष को सम्बोधन किया गया है। उपलक्षण से स्त्रियों को पति अथवा पुरुष के त्याग की बात समझ लेनी चाहिये। ब्रह्म कहते हैं सच्चिदानन्द भगवान आत्मा को। उसमें चरण अर्थात् रमण करना, आचरण करना। अर्थात् निज-शान्ति में स्थिर होने का नाम है ब्रह्मचर्य । शान्ति के घातक जो संकल्प-विकल्प या रागद्वेषादि हैं, उनमें चरण करने का, रति-अरति रूप भाव करने का नाम है अब्रह्म, व्यभिचार, कामभाव, वेद-कषाय । या यों कहिये कि रागद्वेषादि की कारण जो पाँचों इन्द्रियों सम्बन्धी विषय-वासना तथा भोग-सामग्री, उसमें चरण करना, रमण करना सो है व्यभिचार । कल आकिंचन्य धर्म की बात के अन्तर्गत यह बताया गया था कि शान्ति के अतिरिक्त इस लोक में कोई भी पदार्थ मेरा नहीं, किसी को करने या भोगने का मुझे अधिकार नहीं। अत: किसी पदार्थ को इष्टानिष्ट समझकर करने या भोगने का प्रयत्ल करना अपराध है, व्यभिचार है। अत: अंतरंग विकल्पों के अभाव की तथा निज-शान्ति की अपेक्षा ब्रह्म की उपासना कहो या ब्रह्मचर्य, एक ही अर्थ है; और पर पदार्थों में रमणता तथा बाह्य सामग्री, इनके त्याग की अपेक्षा व्रत कहो, त्याग कहो, दम कहो, संयम कहो, इंद्रिय-जय कहो या ब्रह्मचर्य कहो एक ही अर्थ है । इसीलिए ब्रह्मचर्य के शब्द के प्रति लोक में इतना बहुमान है। २. ब्रह्मचारी-लोक में यद्यपि ब्रह्मचर्य की व्याख्या केवल स्त्री-त्याग पर से की जाती है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है। यहाँ स्त्री शब्द का अर्थ सम्पूर्ण भोग सामग्री से है, क्योंकि वह 'लक्ष्मी' नाम से पुकारी जाती है। अत: लक्ष्मी में रमणता का नाम व्यभिचार है और लक्ष्मी के त्याग का नाम ब्रह्मचर्य । इसमें दो दृष्टियों से विचार करना चाहिए, एक ग्रहण की दृष्टि से दूसरा त्याग की दृष्टि से । ग्रहण की दृष्टि से निज-स्वभाव में रमणता अर्थात् पर निरपेक्ष ज्ञान में तथा निज शान्ति स्तभाव में आचरण । त्याग की दृष्टि से पर पदार्थ का, पर परिणति का पर के ज्ञान में रमणता का तथा आचरण का त्याग । इस धर्म में यद्यपि सभी कषायों के त्याग की बात है परन्तु वेद-कषाय (काम वासना) तथा पंचेन्द्रिय विषयक भोग ग्री के त्याग की विशेषता है। ब्रह्मचर्य की व्याख्या कर देने के पश्चात यह देखना है कि ब्रह्मचारी कौन है ? क्या केवल मनुष्यणी का सम्पूर्ण त्याग कर देने वाला या लक्ष्मी का संपूर्ण त्याग कर देने वाला? ऐसा नहीं है, ब्रह्मचारी में पड़ा यह 'चारी' शब्द मार्ग का द्योतक है अर्थात् ब्रह्मचारी कहते हैं ब्रह्म के मार्ग में गमन करने वाले को अर्थात् हीनाधिक रूप से लक्ष्मी के त्यागी को । पूर्ण त्यागी वास्तव में 'चारी' नहीं हो सकता, वह तो 'ब्रह्म' ही हो जायेगा। पूर्णता के पश्चात् मार्ग Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य २८९ ३. क्रमोन्नत विकास का अन्त हो जाता है फिर मार्गी या चारी नहीं कहा जा सकता। अत: पूर्ण ब्रह्म के लक्ष्य पर पहुँचने के लिए हीनाधिक रूप से लक्ष्मी का त्याग करने वाला अर्थात् त्याग के मार्ग पर चलने वाला ब्रह्मचारी है। __यदि प्रश्न करें कि कितने त्यागी को ब्रह्मचारी कहें ? तो इसके लिए कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती, जिस प्रकार कि मद्य पीने की आदत को छोड़ने के लिए जो प्रयास कर रहा है, उसे कब जाकर मद्य का त्यागी कहें ? वास्तव में पहले दिन ही जबकि उसने केवल एक घूट कम की थी वह त्यागी की कोटि में आ गया था, भले लोग उसके त्याग को न जान पावें । धीरे-धीरे जब मद्यशाला में भी जाने का त्याग कर देगा तब ही लोक जान पायेगा कि वह त्यागी है । परन्तु लोगों की दृष्टि में आ जाना त्याग का माप दण्ड नहीं है, मार्ग के ऊपर पहला पग रखते ही व्यक्ति पथिक बन जाता है । पथ पर आगे-पीछे चलने वाले व्यक्ति भले ही लक्ष्य की निकटता व दूरता के कारण अगले व पिछले कहलायें परन्तु ऐसा कोई नहीं जिसे हम पथिक न कह सकें । पथिक सब हैं भले आगे वाला हो या पीछे वाला । बस इसी प्रकार यहाँ त्याग सम्बन्धी ब्रह्मचर्य के मार्ग में भी लागू कर लेना । जिस दिन त्याग का अभिप्राय किया उस दिन ही वह त्यागी की कोटि में आ गया। ज्यों-ज्यों अधिक त्याग करता जायेगा. त्यों-त्यों आगे बढ़ता जायेगा. अधिकाधिक उत्तम विशेषण को धारण करता जायेगा। जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त इस ब्रह्मचर्य के मार्ग में भी, अन्य प्रकरणों में कथित मार्ग की भाँति क्रम पड़ता है। क्रमानुसार केवल उत्तमता के विशेषणों में ही अन्तर पड़ता है, ब्रह्मचर्यपने में नहीं। प्रथम क्षण में भी ब्रह्मचारी है और अन्तिम क्षण में भी ब्रह्मचारी है, अभिप्राय त्याग का होना चाहिए। सर्वत्र अभिप्राय की मुख्यता है । त्याग के अभिप्राय-रहित किसी कारणवश स्त्री व लक्ष्मी की प्राप्ति न हो सके, उसे ब्रह्मचारी नहीं कह सकते, और थोड़े या अधिक त्याग के अभिप्राय-सहित स्त्री या लक्ष्मी में रमण करता हुआ भी ब्रह्मचारी कहा जा सकता है । स्त्री या लक्ष्मी का पूर्ण त्यागी ही ब्रह्मचारी हो ऐसा नहीं है, अल्पत्यागी भी यथायोग्य रूप से ब्रह्मचारी है। अन्य प्रकरणों की तरह यहाँ भी ब्रह्मचारी की परीक्षा विषयों के त्याग पर से करनी है, विषयों के ग्रहण पर से नहीं । यदि ग्रहण पर से करने लगोगे तो बात गले न उतरेगी। वर्तमान क्रिया को न देखकर जितना त्याग किया है उसको देखना । त्याग का नाम ही ब्रह्मचर्य है, अंशमात्र भी विषयों में रमणता का नाम ब्रह्मचर्य नहीं हो सकता। ग्रहण की ओर से देखें तो मुनि को भी ब्रह्मचारी नहीं कह सकोगे क्योंकि आहार-ग्रहण का नाम ब्रह्मचर्य नहीं, जितना त्याग हुआ है उतना ही ब्रह्मचर्य है । स्त्री त्याग के पश्चात् बाहर में स्पष्ट त्याग दिखाई दे जाने पर लोक में जो ब्रह्मचारी कहा जाता है उसमें भी त्याग की ओर देखकर ही निर्णय किया गया है। देखो एक भील ने केवल कौवे का मॉस स खाना छोड दिया और अन्य जन्तओं का माँस खाता रहा तो भी वह इस किंचित त्याग की अपेक्षा कछ श्रेष्ठ समझा गया। परन्तु इसका निर्णय त्याग की ओर से हुआ अन्य-माँस के ग्रहण पर से नहीं। एक चाण्डाल ने केवल चतुर्दशी की हत्या करने का त्याग किया परन्तु अन्य दिन हव्या करता रहा। उसके व्रत का निर्णय भी त्याग की ओर से ही किया गया अन्य दिनों की हत्या से नहीं। ३. क्रमोन्नत विकास-उपरोक्त कथन का स्पष्टीकरण करने के लिए जिसका त्याग करना इष्ट है ऐसे सम्पूर्ण वस्तु-समूह या लक्ष्मी का विश्लेषण करना होगा । सम्पूर्ण सामग्री या लक्ष्मी को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक वह जिस पर कि राज्य व लोक की दृष्टि में मेरा अधिकार है अर्थात् जो मेरे स्वामित्व में है, और दूसरी वह जिस पर राज्य व लोक की दृष्टि में मेरा कोई अधिकार नहीं है अर्थात् जो दूसरों के स्वामित्व में है । यद्यपि आकिञ्चन्य धर्म में बताए अनुसार सम्पूर्ण सामग्री का षटकारक रूप से त्याग करना इष्ट है, पर प्रथम क्षण में ऐसा होना सम्भव नहीं। अत: त्याग-मार्ग पर पग रखते हुए धीरे-धीरे सम्पूर्ण में से कुछ-कुछ का त्याग करना होगा। आप ही बताइये कि उपरोक्त दो भागों में से पहले किस भाग का त्याग करना उचित है, अपने स्वामित्व में रखी लक्ष्मी का या अन्य के में रखी का । स्पष्ट है कि अन्य की लक्ष्मी का त्याग पहले होगा। परन्त अन्य की लक्ष्मी का त्याग तो पहले से ही है ? सो भी बात नहीं है भाई ! यहाँ उस अभिप्राय का त्याग मुख्य है जिसके कारण कि मेरी लालायित दृष्टि उसकी ओर खिंच जाती है। साक्षात् रूप से तो उसका भोग मैं कर ही नहीं सकता, या तो चोरी कर सकता हूँ या केवल देखकर लालसा कर सकता हूँ, अत: ब्रह्मचारी के प्रथम पग में अन्य की वस्तु को चुराने का यो उसे देखकर लालसा - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य २९० ३. क्रमोन्नत विकास करने का त्याग हुआ। यह त्याग यद्यपि लोगों की दृष्टि में कोई महत्व नहीं रखता परन्तु वास्तव में यदि विचार करके देखा जाए तो अपनी लक्ष्मी के त्याग की अपेक्षा इसका महत्व अधिक है, क्योंकि अन्य की ल गुणी है, उसका सर्व का ही त्याग हो गया, रह ही कितनी गई, जिसे यदि सम्पूर्ण के बराबर रखकर देखें तो रखी भी दिखाई न दे । इसलिये वह व्यक्ति जिसने कि अन्य की सम्पत्ति पर, उनके द्वारा विवाह कर लाई गई, उनके स्वामित्व में रहने वाली स्त्रियों पर तथा उनकी कंवारी कन्याओं पर विकार भाव से दृष्टिपात करने का त्याग कर दिया है, ब्रह्मचारी है, भले ही इनके अतिरिक्त अपनी सम्पत्ति व स्त्री में कितना भी रमण क्यों न करे । परीक्षा त्याग पर से करनी है, रमणता पर से नहीं। आगे त्याग की दूसरी श्रेणी चलती है। साधक यहाँ निज लक्ष्मी का भी त्याग करना प्रारम्भ करता है। एकदम सारी लक्ष्मी का हर प्रकार से त्याग असम्भव है, अत: थोड़ा-थोड़ा करता है। अपनी धर्मपत्नी में अति गृद्धता का त्याग करता है और ऐसा आचार-विचार तथा भोजन पान करता है जो कामभाव का पोषक न हो। अपनी सम्पत्ति के कुछ भाग का भी दान के रूप में त्याग कर देता है और स्व पर-भेदज्ञान में बाधक विकल्पों का भी त्याग करता है। त्याग की अपेक्षा ही पहले से श्रेष्ठ है यह, ग्रहण की अपेक्षा नहीं। तीसरी श्रेणी में आकर वह भोगों से कुछ अंशो में विरक्त हो जाता है, कुछ संयम ग्रहण कर लेता है और दिन के समय काम-भोग का सर्वथा नियम से त्याग कर देता है । नियमित त्याग करने से उस प्रकार के विकल्प शान्त हो जाते हैं, बुद्धि में स्थिरता पैदा होती है । आत्म-ध्यान में स्थिरता प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से तीन काल सामायिक करता है। इससे भी ऊपर आकर धन-धान्य, रुपया-पैसा आदि सभी प्रकार के परिग्रह का परिमाण कर लेता है, जिससे उसकी आवश्यकतायें सीमित हो जाती हैं, बाह्य आरम्भ के अथवा परिग्रह को अधिक एकत्र करने के विकल्प नहीं रहते, संयम का स्तर पहले से ऊँचा हो जाता है, काम भोग को भी बहुत अंशों में छोड़ देता है । अष्टमी, चतुर्दशी आदि साधारण पर्व तथा अष्टाह्निका, सोलहकारण, दशलक्षण-धर्म, रत्नत्रय धर्म आदि विशेष पर्व, इन दिनों में तथा तीर्थ यात्रा के दिनों में विशेष संयम से रहता है । यहाँ पर त्यांग की मात्रा पहले से अधिक बढ़ जाती है। चौथी श्रेणी में आकर त्याग की मात्रा और अधिक बढ़ जाती है। धन सम्पत्ति का और अधिक त्याग कर देता है, अपनी धर्मपत्नी से भी काम-भोग का पूर्णतया त्याग कर देता है, अधिक समय धर्म-ध्यान में बिताता है, सभी प्रकार के विषय-भोगों से अधिक मात्रा में विरक्त हो जाता है । इस श्रेणी में आने पर वह ब्रह्मचारी पद से विभूषित हो जाता है, यद्यपि असली अर्थों में पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं होता, क्योंकि पूर्णतया विकल्पों का अभाव यहाँ नहीं हुआ है । इस श्रेणी में आकर यद्यपि लोगों की दृष्टि में वह पूर्ण ब्रह्मचारी हो गया है, परन्तु क्योंकि स्त्री के साथ लगी लक्ष्मी अभी तक चली आ रही है इसलिए उसका त्याग किये बिना वह अभी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता, उसे भी छोड़ना होगा। यद्यपि इस श्रेणी में लक्ष्मी का संसर्ग बहुत कम है, पर है अवश्य । इसमें भी क्रम से और कमी.करता हुआ पाँचवीं श्रेणी में एक लंगोटी व एक चादर के अतिरिक्त अन्य सर्व का त्याग कर देता है । वह भी ब्रह्मचारी है, चौथी श्रेणी से ऊँचा । यहाँ भी रुकता नहीं, लंगोटी व चादर का भी त्याग कर देता है और बन जाता है नग्न-साधु । वह भी ब्रह्मचारी है, पाँचवी श्रेणी से ऊँचा। इस छठी श्रेणी में आने पर यद्यपि स्थूल दृष्टि से अब यह पूर्ण ब्रह्मचारी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके पास स्त्री है न सम्पत्ति, सर्व त्याग हो चुका है, त्यागने को और शेष नहीं रहा, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर इसके पास कुछ और भी है और वे हैं उसके अन्तरंग विकल्प । अब तक के क्रमपूर्वक किये गये सर्व त्याग के साथ-साथ अन्तरंग विकल्पों का त्याग भी बराबर होता चला आ रहा था। जैसा कि पहले भी कई बार बताया जा चुका है और पुन: पुन: बताया जा रहा है, संवर के इस प्रकरण में अन्तर-विकल्पों के प्रशमन करने का पुरुषार्थ ही मुख्यता से किया जा रहा है। उनके प्रशमन करने के लिए ही या उनके प्रशमन के फलस्वरूप ही यह सर्व बाह्य का त्याग है, वह न हो तो इस त्याग का कोई मूल्य नहीं। इसलिए बहुत अधिक विकल्प दब चुके हैं परन्तु अब भी कुछ शेष हैं जिन्हें त्यागना है । पहले कुछ देर के लिए त्यागता है और हो जाता है ध्यानस्थ, शान्ति में निमग्न, निर्विकल्प । यह भी ब्रह्मचारी है, छठे से ऊँचा पर पूर्ण नहीं, क्योंकि अभी भी संस्कार शेष हैं जो थोड़ी देर पश्चात् इसमें फिर विकल्प उत्पन्न कर देंगे। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. उत्तम ब्रह्मचर्य २९१ ३. क्रमोन्नत विकास आठवीं श्रेणी में पदार्पण करने पर अन्तरंग के इन सूक्ष्म संस्कारों को भी काटकर पूर्णशुद्ध, पूर्ण-निर्विकल्प, सहज स्वभावस्वरूप परमात्मा अर्थात् अरहन्त पद को प्राप्त हो जाता है। यहाँ पर वह शील में बाधक १८००० दोषों से मुक्त हो जाता है अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचारी हो जाता है । यद्यपि शरीर बाकी रह जाता है तदपि मोह तथा रागद्वेष का पूर्णतया अभाव हो जाने से इसके सम्बन्ध में कोई विकल्प नहीं रहता । मार्ग समाप्त हो जाता है। शरीर को भी त्याग देने पर लक्ष्य तथा साध्य को पूर्णतया प्राप्त कर लेने के कारण पूर्ण ब्रह्म, सिद्धप्रभु बन जाता है वह । यद्यपि आदर्श ब्रह्मचर्य-धर्म का पालन तो योगी जन ही करते हैं, तदपि हम भी अपनी योग्यतानुसार कर सकते हैं। हे शान्ति के उपासक ! निज शान्ति की रक्षा के लिए अन्तर्दाह को उत्पन्न करने वाले इस स्त्री-संसर्ग का कुछ परिमाण कर । परस्त्री, वेश्या व दासी का तो त्याग होना ही चाहिए, स्वस्त्री में भी दिन के समय काम-भोग का त्याग अवश्य कर, तथा पर्व के दिनों में पूर्ण ब्रह्मचर्य धारण करके आगे बढ़ने का अभ्यास कर । जैसा कि व्रतों के प्रकरण में पहले बताया जा चुका है, पथिक के मार्ग में अनेकों रुकावटें आती हैं और व्रतों में भी अनेकों बार दोष लग जाते हैं । यहाँ भी उसे भूलना नहीं चाहिए । ब्रह्मचर्य या त्याग धर्म का उपरोक्त रीति से पालन करते हुए साधक को दोष लग जाने की सम्भावना है, यह कषायों की विचित्रता है। उन दोषों का साधक को प्रायश्चित्, आत्म-निन्दा तथा गर्हा द्वारा निर्मूलन करते रहना चाहिए और आगे के लिए अत्यन्त सावधान रहना चाहिए । 22 पूर्ण ब्रह्मचारी हैं ये, समस्त संस्कारों तथा वासनाओं को जीतकर अर्हन्त पद के द्वार पर स्थित भगवान् महावीर, उर्वशी तथा रम्भासी देवकन्यायें भी जिन्हें स्वरूप स्थिति से चलित करने को समर्थ न हो सकीं। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा ( १. परिषहजय; २. अनुप्रेक्षा; ३. कल्पनाओं का माहात्म्य; ४. बारह भावनायें। १. परिषहजय-एक क्षण को भी शान्ति का विरह सहने में असमर्थ हे योगीराज ! आश्चर्य है कि इतने सामर्थ्यहीन को भी पराक्रमी बताया जा रहा है, वीर बताया जा रहा है । ठीक ही तो है, यही तो है महिमा आपकी, शान्ति के व्यापारी जो ठहरे। धन का व्यापारी धन का विरह सहने में असमर्थ होते हुए भी उसके उपार्जन में आई अनेकों बाधाओं को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार करता है। एक रणकुशल क्षत्रिय क्षत्रित्व का अपमान सहने में असमर्थ होते हुए भी उसकी रक्षा के लिए बड़े-बड़े प्रहारों को फूलों की चोट से अधिक नहीं मानता है। इसी प्रकार आप भी अपनी सम्पत्ति व गौरव जो कि शान्ति ही है, उसमें बाधा सहने में असमर्थ होते हुए भी उसकी रक्षा के अर्थ लौकिक बाधाओं के बड़े-बड़े प्रहारों को तृण से अधिक नहीं गिनते हैं । तीन-लोक की सम्पूर्ण बाधायें एकत्रित होकर चली आयें आपकी शान्ति को छीनने, तो भी आप उसका पल्ला नहीं छोड़ते। धन्य है आपका पराक्रम। आप वास्तविक क्षत्रिय हैं. वास्तविक वीर हैं, वास्तविक व्यापारी हैं, वास्तविक रण कुशल योद्धा हैं। आज परिषह-जय की बात चलती है। परिषह का अर्थ है 'परि' अर्थात् चारों ओर से, सम्पूर्ण उत्साह के साथ 'षह' अर्थात् बाधाओं को सहना । तप में भी बाधाओं को सहने की बात कही गई है और यहाँ भी कही जा रही है, पुनरुक्ति व पिष्टपेषण सा दिखाई देता है, परन्तु ऐसा नहीं है, तप व परिषह में अन्तर है। तप में जानबूझकर योगी बाधाओं व कष्टों को निमन्त्रित करता था। और यहाँ है उन बाधाओं की बात जो मनुष्यों के द्वारा, तिर्यञ्चों के द्वारा अथवा प्रकृति आदि के द्वारा स्वत: नित्य बिना बुलाये आ पड़ती हैं। तपश्चरण के प्रभाव से शक्ति में अतुल वृद्धि हो जाने पर आज वह इतना समर्थ है कि तीन लोक की बाधायें तथा पीड़ायें भी सिमटकर युगपत् उस पर आक्रमण करें तो उसे अपने स्वभाव से विचलित करने में समर्थ न हो सकें। इसका नाम है परिषहजय । बाधायें आने पर शान्ति को खो बैठने तथा विष की चूंट पीनेवत् जबरदस्ती उन पीड़ाओं को सहने का नाम परिषहजय नहीं है, वह तो जय की बजाए हार कही जाने योग्य है । अपनी सम्पत्ति को हारा तो हारा और उसकी रक्षा में जीता तो जीता। बाधाओं को जिस किस प्रकार सह लेने का नाम जीतना नहीं । शान्तिपूर्वक बिना खेद के सहने का नाम ही परिषहजय है, और इसलिए परिषह जीतने में योगी को कष्ट नहीं होता । भले बाहर में देखने वालों को वह पीड़ित भासे परन्तु अन्तरङ्ग में वह शान्ति-रस का ही पान किया करता है, अत: बहुत बड़ी है महिमा उसके पराक्रम की । शत्रु के आने पर चुपके से अपनी सम्पत्ति उसे सौंप दे तो योद्धा काहे का, इसी प्रकार बाधाओं से घबराकर शान्ति को चुपके से छोड़ दे तो पराक्रमी काहे का ? इस बात की क्या गिनती कि कितनी प्रकार की बाधायें उस योगी पर आ सकती हैं ? असंख्यातों हो सकती हैं वे। जिसका कोई आश्रय नहीं, प्रकृति ही जिसका आश्रय है; पहनने को जिसके पास वस्त्र नहीं, दिशायें ही जिसके वस्त्र हैं; रहने को जिसके पास घर नहीं, आकाश ही जिसका घर है; रक्षा करने को सेवक व सेना नहीं, शान्ति ही जिसका सेवक तथा सेना है; उस वनवासी पर कितनी बाधायें स्वयं कभी भी आ सकनी सम्भव हैं, इसका अनुमान कौन लगाये ? कुछ बाधायें तो ऐसी हैं जिनसे कि प्रतिदिन सामना करना पड़ता है उसे, और कुछ ऐसी हो सकती हैं कि जिनसे कभी-कभी भेंट हो जानी सम्भव है उसकी । कुछ शारीरिक भी हो सकती हैं और कुछ मानसिक भी । इन सर्व में से मुख्य बाईस बाधायें कथनीय हैं। १. क्षुधा, २. तृषा, ३. गरमी, ४. सर्दी, ५. डांस, मच्छर, मक्खी व बिच्छु आदि, ६. उपवासों से शरीर के अत्यन्त कृश हो जाने पर भी कंकरीली धरती पर बराबर विहार करते रहना, ७. एकासन पर बहुत देर तक बैठे रहना या एक करवट पर ही लेटे रहना, ८. किसी मनुष्य व पशु आदि के द्वारा पीड़ित किये जाना, ९. रोग, १०. काँटा-कंकर आदि Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९३ २. अनुप्रेक्षा चुभना और ११. शरीर में पसेव आदि झरने पर इसका मलिन व दुर्गन्धित हो जाना। ये ग्यारह जाति की बाधायें ऐसी हैं जिनका सम्बन्ध शरीर से है । स्वयमेव कोई ऐसी बाधा का कारण उपस्थित होने पर वह अपनी शान्ति से विचलित नहीं होता, उनसे बचने का प्रयत्न न करके किन्हीं विचार विशेषों के बल पर उन्हें दबा देता है, और इस प्रकार बड़े से बड़ी पीड़ा को न गिनते हुए बराबर निश्चल बना रहता है । १. नग्नता के कारण लज्जा, २. पूर्व में अनुभव किये गये भोगादि का स्मरण, ३. एकान्त में किसी सुन्दर व कामुक स्त्री के द्वारा की गई हावभाव विलास की चेष्टा, ४. भयानक पशुओं की गर्जना से पूर्ण श्मशान आदि भयानक स्थानों में अकेले बैठे रहना, ५. किसी के मुख निकले गाली व निन्दा के शब्द, ६. लम्बे-लम्बे उपवासों से क्षुधा की अग्नि में जलते हुए अन्तरंग में कदाचित् प्रकट हो जाने वाला याचना या दीनता का भाव, ७. अनन्त गुण-भण्डार होते हुए भी यथा योग्य रूप में सत्कार का न मिलना, ५. भोजन की इच्छा होते हुए भी भोजन के संयोग में बाधा पड़ जाना, ९. बहुत ज्ञानी होते हुए भी अन्य के द्वारा ज्ञानी स्वीकार न किया जाना, १०. कठोर तपश्चरण करते हुए भी किसी चमत्कारी शक्ति का न मिलना और ११. इस प्रकार की बाधाओं के कारण कदाचित् श्रद्धान हलचल पैदा हो जाना । ये ग्यारह प्रकार की हैं वे बाधायें जिनका सम्बन्ध मानसिक विचारों से है । यद्यपि शरीर को इन बाधाओं से कोई पीड़ा नहीं होती, परन्तु ऐसे अवसरों पर अन्तरंग में एक बड़ी हलचल हो जाया करती है जो सम्भवतः शारीरिक पीड़ा से कई गुणी अधिक सन्तापकारिनी होती है। इन सभी बाधाओं तथा मानसिक पीड़ाओं को वह योगी अपनी शान्ति की रक्षा के अर्थ किन्हीं विचार विशेषों के बल से दबा देता है। इसे कहते हैं परिषहजय । २. अनुप्रेक्षा — अब प्रश्न यह होता है कि वे विचार-विशेष क्या हैं, और उनमें कौन सा सामर्थ्य है जिसके कारण कि बाहर में रक्षा का उपाय किये बिना भी वह इतनी बड़ी पीड़ाओं को, जिन्हें सुनकर भी कलेजा दहल उठता है, जिनके अनुमान से भी जगत काँप उठता है, जीत लेता है ? वास्तव में ऐसी ही बात है भाई ! इसमें आश्चर्य को अवकाश नहीं, क्योंकि विचारणाओं का बल प्रतिदिन हमारे अनुभव में आ रहा है । पुत्र-वियोग हो जाने पर मित्र द्वारा सान्त्वना दिए जाने से, कुछ विचार - विशेष ही तो होते हैं जो मेरे अन्तर्दाह को कुछ शीतलता पहुँचाते प्रतीत होते हैं ? जल्दी ही अच्छे हो जाओगे, विश्वास करो, डाक्टर द्वारा ऐसा कहे जाने पर, कोई विचार-विशेष ही तो होते हैं जो कुछ सान्त्वना सी देते प्रतीत होते हैं ? विचारणाओं में अतुल बल है और फिर अलौकिक जनों की तो विचारणायें भी अलौकिक होती हैं । उनका आधार कल्पनायें नहीं वस्तु स्वभाव है इसलिये उन विचारों के सद्भाव में बाधा दीखनी सम्भव नहीं । वे भावनाएँ स्वयं साकार होकर उसके सामने आ खड़ी होती है; और वह साधक उनके दर्शन में खो जाता है। कौन जाने उन बाधाओं को तब और कौन वेदन करे उनसे उत्पन्न हुई पीड़ाओं को ? इस प्रकार की विचारणायें अनेकों, हो सकती हैं, फिर भी समझाने के लिए उनको बारह कोटियों में विभाजित किया जा सकता है । यद्यपि वस्तु में और भी अनेकों बातें हैं जिनके सम्बन्ध में विचार उठाये जा सकते हैं, परन्तु उन सबका समावेश यथायोग्य रीति से इन बारह में ही कर लेना चाहिए। अब उन बारह विचारणाओं का कथन चलेगा । इनको बारह वैराग्य-भावनायें कहते हैं क्योंकि इनको विचारने से अन्तरङ्ग विरागता में एकदम कुछ ज्वार सा है । इन विचारणाओं को आगम में 'अनुप्रेक्षा' नाम से कहा गया है क्योंकि इनका एक बार ही विचार कर लेना पर्याप्त हो ऐसा नहीं है, एक ही भावना प्रयोजन वश पुनः पुनः न जाने कितनी बार बराबर भाई जाती रहे । अनुप्रेक्षा का अर्थ है पुन: पुन: चिन्तवन करना और इसलिये इन्हें अनुप्रेक्षा कहना युक्त है । यहाँ इतनी बात अवश्य जान लेने योग्य है कि जिस प्रकार वैद्य के घर में अनेक औषधियाँ हैं, पर सभी रोगियों को सभी औषधियाँ दी जायें ऐसा नहीं होता, बल्कि जो जिस रोगी को योग्य व अनुकूल पड़ने वाली हो वही औषधि-विशेष उसको दी जाती है, उसी प्रकार प्रत्येक बाधा के आने पर बारह की बारह या कोई सी भी एक भावना भानी आवश्यक हो, सो बात नहीं है, बल्कि जिस अवसर पर जो भानी योग्य हो उस अवसर पर वही भानी उपयुक्तं है। हो सकता है कि किसी CTET में बारह की बारह की भी आवश्यकता पड़ जाए, कोई नियम नहीं बनाया जा सकता । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९४ ३. कल्पानाओं का माहात्म्य इसके अतिरिक्त कवियों द्वारा रचित इन भावनाओं सम्बन्धी पाठों के पढने का नाम भी अनप्रेक्षा नहीं है. क्योंकि केवल पाठ पढ़ने से ही वांछित लाभ नहीं होता है। लाभ होता है मन को केन्द्रित करके उसे अमुक चिन्तन में उलझाने से। उसमें बुद्धिपूर्वक कुछ करना होता है। तत्सम्बन्धी दृष्टान्तों को याद करना चाहिये, अपने जीवन में या अन्य के जीवन में पहले अनुभव की गई या देखी गई उसी जाति की घटनाओं को याद करना चाहिये, उन अवसरों पर अपने में या अन्य में प्रकटे साहस को ध्यान में लाने से स्वत: अन्तरंग में जो विचार उठते हैं उनके चिन्तवन में पुन: पुन: निमग्न हो जाना चाहिए। ऐसी विचारणाओं से ही बाधायें जीती जा सकती हैं, केवल पाठ पढ़ने से नहीं। हाँ ! पाठ भी इस प्रकार की विचारणाओं में सहायक अवश्य हो सकते हैं। इन सर्व विचारणाओं में केवल शान्ति की रक्षा का ही अभिप्राय रहना चाहिए । उन विचारणाओं को इष्ट समझें तो भूल होगी क्योंकि वे स्वयं विकल्प हैं और विकल्प अशान्ति के कारण होते हैं । उन्हें त्यागने का प्रयोजन लेकर आगे बढ़ा हूँ, उनको इष्ट समझने लगूं तो कभी भी उनको त्याग न सकूँगा और उन्हें न त्यागने पर पूर्ण शान्ति कैसे प्राप्त करूँगा? उल्टा नीचे गिर जाऊँगा । जैसे रोग के प्रशमनार्थ भले वर्तमान में औषधि का प्रयोग करना आरम्भ कर दे. पर सदा उसे सेवन करते रहने का अभिप्राय रखकर नहीं करता, रोग शमन हो जाने पर तुरन्त छोड़ देता है और स्वास्थ्य का भोग करने लगता है । यदि फिर भी औषधि का बराबर सेवन करता चला जाय तो उल्टा अधिक बीमार हो जाए। रोग की अवस्था में जो औषधि उपकारी व अमृत है, स्वस्थ अवस्था में वही हानिकारक तथा विष है। इसी प्रकार सर पर आ पड़ी पीड़ा के प्रशमनार्थ वर्तमान में भावनाओं का चिन्तवन करना योगी भले प्रारम्भ कर दे पर सदा उसे भाते रहने का अभिप्राय रखकर नहीं करता, बाधा व पीड़ा टल जाने पर तुरन्त उस विकल्प को छोड़ देता है और पुन: शान्ति का भोग करने लगता है। यदि फिर भी बराबर भाता ही रहे तो उन विकल्पों के कारण और अधिक अशान्त हो जाए। बाधाओं की तीव्र व असह्य पीड़ा के आ जाने पर मन को वैराग्य के विकल्पों में उलझाना श्रेष्ठ है परन्तु बाधा टल जाने पर भी विकल्पों में अटका रहे तो योगी मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता, शान्ति की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। मन में उठने वाली भावनाओं को यहाँ विकल्प इसलिए बताया जा रहा है कि उसमें अभी तक भी एक ऐसा संस्कार विद्यमान है जिसके कारण कि उसे 'बाधा' बाधा दिखाई देती है, जिसका कारण है यह कि बाधा आने पर उसे पीड़ा का वेदन होने लगता है, जिसके कारण कि उसे अपनी शान्ति के घात का भय है । यदि संस्कार टूट गया होता तो क्या आवश्यकता थी इस भय की और क्या आवश्यकता थी उससे अपनी रक्षा करने की ? वह चैतन्य, निराकार पर ब्रह्म, शान्ति उसका सर्वस्व व स्वभाव, जिसका तीन काल में उससे विच्छेद होना असम्भव, बाहर की बाधायें बेचारी उसे किंचित् भी स्पर्श करने में असमर्थ, फिर क्यों भाये उन भावनाओं को? शान्ति में स्थित है, बस उसी उसी के भोग में स्थित रहा करे । परन्तु ऐसा नहीं होता, कहना आसान है पर करना बहुत कठिन । यद्यपि बल बढ़ चुका है तथापि अभी भी शक्ति में कुछ कमी है। छोटी-मोटी बाधाओं की तो उसे खबर भी नहीं लगती परन्तु बड़ी भयानक बाधाओं के आ जाने पर अवश्य पीड़ा का वेदन होने लगता है और उसकी शान्ति व साम्यता उसके हाथ से निकलकर मानो भागती प्रतीत होती है। ऐसे अवसरों पर जिस किस प्रकार भी उस शान्ति की रक्षा करने में तत्पर योगी, किन्हीं वैराग्य-प्रवर्धक विकल्पों को, उतने समय के लिए जान बूझकर उठाता है जितने समय के लिए कि वह पीड़ा शान्त न हो जाय । आगे उन्हीं विकल्पों सम्बन्धी कुछ चित्रण खेंचकर बताने का प्रयत्न करूँगा। ाओं का माहात्म्य अहो ! त्रिलोक-विजयी गरुदेव की महिमा व उनका पराक्रम। तीन लोक की बड़ी से बड़ी बाधा भी जिनकी निश्चलता को भंग करने में समर्थ नहीं। रत्नों के प्रकाश में तथा मखमल के कोमल गद्दों पर पला वह सुकुमार शरीरी एक दिन तपस्वी होगा, क्या स्वप्न में भी कोई विचार सकता था ? सूर्य के प्रकाश में आने पर जिसकी आँखों से पानी बह निकले, गद्दे के अन्दर कहीं भूला-भटका पड़ा एक बिनोले का दाना भी जिसे सहन न हो सके, राजा को परोसे गए उत्तम भोजन में से भी जो चुन-चुनकर अपने योग्य उत्तम चावल खाये, ओह ! आज वही चला जा रहा है कंकरीली भूमि पर, सूर्य के ताप में, नग्न-रूप धारे । कंकरों के चुभ जाने के कारण पाँव लहूलुहान हो चुके हैं, इसका भी जिसे भान नहीं। अरे विधाता ! यह क्या दृश्य ? मेरा कलेजा दहल गया है जिसको देखकर, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९५ ४. बारह भावनायें परी हृदय रो रहा है चीख-चीख कर, जिह्वा थक गई है रक्षा-रक्षा पुकार कर । आज एक गीदड़ी खा रही है धीरे-धीरे उस जीवित सूकमाल को। घण्टे दो घण्टे को बात नहीं, बराबर तीन दिन हो गए हैं आज उसे खाते-खाते, पर सकमाल जीवित है, पूर्ववत् निश्चल शान्ति की उपासना में, पूर्ववत् ध्यानस्थ वैराग्य-मुद्रा में। यह है एक योगी का पराक्रम । कौन दे रहा है उसे बल इतनी बड़ी पीड़ा पर विजय पाने के लिए? आश्चर्य मत कर जिज्ञासु ! उसे वह बल कोई दूसरा नहीं दे रहा है, स्वयं उसका अन्तष्करण दे रहा है, परन्तु क्या वह बल उसी के पास है, अन्यत्र नहीं? नहीं तेरे पास भी वह है, इसी समय है, परन्तु खेद है कि तू उसे जानता नहीं। यदि जान जाए तो इसी अल्प गृहस्थ अवस्था में अपने योग्य अनेकों बाधाओं को तृणवत् उलंघ जाए । क्यों सोच में पड़ गया ? परन्तु सोच की क्या बात है भाई ! देख वह बल है तेरी अपनी कल्पनायें । कल्पनाओं के आधार खी है और कल्पनाओं के आधार पर ही सुखी हो सकता है, कल्पनाओं के आधार पर ही वह योगी इतनी बड़ी पीड़ा को जीत गया और कल्पनाओं के आधार पर ही तू इस समय गृहस्थ सम्बन्धी चिन्ताओं को जीत सकता है। परन्तु वे कल्पनायें साधारण नहीं हैं, उनके पीछे छिपा है तेरा वास्तविक स्वरूप, परम सत्य । दुःखों का आधार भी कल्पनायें हैं, परन्तु उनके पीछे है शून्य अर्थात् वे हैं केवल कल्पनाएँ बिल्कुल निराधार । वर्तमान की रागद्वेष-जनक तथा बाह्य पदार्थों में इष्टानिष्टता-जनक इन कल्पनाओं को बताने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वे तेरी चिर-परिचित हैं, नित्य अनुभव में आ रही हैं। वे विशेष कल्पनाएँ ही जानने योग्य हैं जिनका आधार कि वस्तु-स्वरूप है । ले सुन । ४. बारह भावनायें-(१) क्या सोच रहा है चेतन? क्यों हो रहा है व्याकुल? क्या भूल गया अपना रूप? सत्, चित् व आनन्द स्वरूप? तू तो सत् है शाश्वत है। कौन शक्ति है जो तेरा विनाश कर सके ? क्या इन तुच्छ-सी पीड़ाओं से घबरा गया तू ? याद कर कितनी-कितनी सही हैं, इससे पहले ? कितनी बार मारा गया, खण्ड-खण्ड किया गया तू, पर आज भी यह 'मैं' कहने वाला तू कैसे जीता जागता स्वयं अपने का देख रहा है और वेदन कर रहा है ? ओह ! अब समझा । तेरी दृष्टि क्यों पुन: पुन: इस माँस के पिण्ड पर जा रही है ? क्या भूल-गया है इसके स्वभाव को, कितनी बार धोखा दे चुका है यह तुझे? अब भी विश्वास नहीं आया इसकी कृतघ्नता पर ? ___अरे भोले ! इसका तो स्वभाव ही है आकर जाना । क्या आज तक निभाया है कभी इसने तेरा साथ ? इसका तो स्वभाव ही है विनश जाना । क्यों व्याकुल होता है इसके पीछे ? भेदा जाता है तो भेदा जाए,जाने दे इसे, तुझे क्या । जानेवाला तो जायेगा ही, तू तो नहीं जा रहा है कहीं ? तब उसे ही क्यों नहीं देखता? यह खण्डित होता है तो होने दे, इसका स्वभाव ही खण्डित होने का है, तू तो खण्डित नहीं होता। जिसका आश्रय ही चिन्ता है उसके लिये तू क्यों इतना इतरा रहा है। इस पुतले की बात तो जाने दे यह जो लोक में इतना बड़ा पसारा दिखाई दे रहा है तुझे, उसमें से ही बता कि कौन-सी वस्तु है जो सदा ज्यों की त्यों रही है ? आज कुछ रूप है तो कल कुछ और । सारा जगत ही तो परिवर्तनशील है, परिवर्तन करना इसका स्वभाव है। करता रहने दे परिवर्तन इसे, बदलने दे अपने नाम तथा रूप इसे, जितने चाहे, तुझे तो कुछ नहीं कहते बेचारे । क्यों उनको देख-देखकर फूला जा रहा है ? उन पर से दृष्टि हटा, देख इधर देख, अपने शाश्वत व ध्रुव रूप की ओर। यह सब कुछ तो अधुव है, 'अनित्य' है, इससे काहे का प्रेम, इस पर काहे का (काल रूपी सिंह से बचाने वाला कोई नहीं) गर्व इसके लिए काहे की चिन्ता ? "mgrm SMASTAANHunain Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा . २९६ ४. बारह भावनायें र रुपए-पैसे (२) अरे चेतन ! क्या मूर्ख हो गया है, पीड़ा में उलझकर बुद्धि खो बैठा है ? प्रभु होकर भीख माँगते क्या लाज नहीं आती तुझे? भीख भी किससे माँगता है, इन रंकों से, जो स्वयं भिखारी हैं ? किनका आश्रय खोजता है, जो स्वयं निराश्रय हैं ? किनसे रक्षा की पुकार करता है, जो स्वयं अरक्षित हैं ? क्या शरीर कर सकता है तेरी सहायता ? तू चेतन. यह बेचारा जड. क्या देगा तझे? और फिर देख जरा. आँख तो मीच? ले अब खोलकर देख ले. कहाँ गया वह इतनी सी देर में ? स्वयं अपनी रक्षा भी तो नहीं कर सकता बेचारा ? क्या यह भोग सामग्री करेगी तेरी रक्षा या करेगी सेना या यह दुर्ग, या देव-दानव, या यह मन्त्र विद्या? बता तो सही किसके प्रति है तेरा लक्ष्य ? इनमें से कौन ऐसा दीखता है जो अगले ही क्षण बदल न जाए, काल रूपी सिंह का ग्रास बन न जाए ? ये बेचारे रंक क्या करेंगे तेरी सहायता ? इधर आ देख अपने प्रभुत्व को जो त्रिकाली सत् है, शाश्वत है, ध्रुव है, सदा से है और सदा रहेगा। विनाश ही नहीं है जब इसका, तो फिर रक्षा किसके लिये चाहिये ? स्वयं रक्षित को रक्षा की क्या आवश्यकता ? यह ही स्वयं शरणभूत है, अन्य सब 'अशरण' हैं। (३) किधर भटक रहा है चेतन ! किसकी ओर खिंचा जा रहा है तू ? रुपये की ओर या माता-पिता की ओर या स्त्री-पुत्र की ओर ? इनकी ओर नहीं तो फिर किसकी ओर ? अरे रे ! जाना रुपए-पैसे व स्त्री पुत्रादि इन दोनों की ओर, चक्रवर्तियों की ओर, | स्वर्ग के देवों की ओर। इनमें नवीनता व वैभव दिखाई देता है | तुझे ? भोले प्राणी ! क्या लोक-हंसी का भी भय नहीं रहा तुझे ? वमन को चाटते ग्लानि नहीं आती ? पीछे मुड़कर तो देख जरा कि अनन्त बार बनाया है तूने इनको अपना और अनन्त बार भोगा है तूने इन्हें । क्या अब भी इनमें नवीनता रह गई है कुछ ? अब क्या आकर्षण रह गया है इनमें? चारों गतियों में जो दुःख तूने भोगे हैं उन्हें याद कर। क्या कहा तूने ? यह स्थान रहने को अच्छा है । अरे ! कैसी भोली बातें करता है, मानो कुछ जानता ही नहीं? बता तो सही कि आकाश का कौन-सा प्रदेश छोड़ा है, जहाँ तू अनन्तों बार जाकर न रहा हो ? चतुर्गति में कौन सी ऐसी पर्याय है जो तूने धारण न की हो? यह है संसार जिसमें नित्य भ्रमण करता आया है तू । इधर आ प्रभु ! इधर आ । देख कितना सुन्दर है यह तेरा रूप, पूर्ण शान्त, ज्ञान व आनन्द का पिण्ड, एक | बार भी जिसकी ओर नहीं देखा है आज तक । यह है तेरे लिए बिल्कुल नवीन । भोगना ही है तो इसे भोग, नित्य नया-नया करके t YTRI] भोग, पुन: पुन: भोग, सर्वदा भोग, सर्वत्र भोग, सर्वत: भोग। इसमें __ उन्हें याद कर चारों गतियों में जो दख तने भोगे | बसा है तेरा 'नया संसार'। यह है 'संसार' के स्वरूप का दिग्दर्शन - जिसको विचारने से परिणामों में विशुद्धता तथा दृढ़ता आती है। (४) क्या विचार रहा है भोले चेतन ? किन में खोज रहा है अपनापन ? किनको कहता है तू मेरा? क्या मिलेगा इस प्रकार तझे? पड़ौसी के धन को भले अपना कहकर अपना चित्त प्रसन्न कर ले, पर इस प्रकार क्या वह तेरा बन जायगा ? नाहक खिन्न होगा जब कि साफ इंकार कर देगा वह तुझे, जैसा कि आकिंचन्य धर्म के अन्तर्गत अफीमची के दृष्टान्त में बताया गया है (देखो ४३.३) । सभी पदार्थ अपनी मर्जी से आते हैं, अपनी मर्जी से जाते हैं, न तुझसे पूछकर आते हैं, न तुझसे पूछकर जाते हैं । तू कौन होता है उनका ? वे कौन होते हैं तेरे ? तनिक तो बुद्धि लगा। रेल में बैठे अपने साथ वाले यात्रियों को भले मामा, चाचा, ताऊ कहकर पुकार पर इससे क्या वह तेरे मामा आदि बन जाएंगें ? मेरा-मेरा करके व्यर्थ चिन्ताओं Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९७ ४. बारह भावनाय को बुला रहा है । वह तुझे अपनाये या न अपनाये परन्तु चिन्तायें अवश्य अपना लेंगी तुझे । चन्द्रमा को पकड़ने की इच्छा करेगा तो बता रोने के अतिरिक्त क्या लगेगा तेरे हाथ ? अनहोनी बात हुई है कभी, असम्भव सम्भव बन सकता है कभी? क्या कहता है “ये पुत्रादि तो मेरे हैं ही, मेरी सेवा करेंगे, यह शरीर तो मेरा है ही, मेरे साथ घुला पड़ा है, कहाँ जा सकते हैं ये मेरी बिना आज्ञा के ?" अरे भूले राही ! कहाँ से आ रहा है तू, कहाँ जाने का विचार है तेरा, कितनी देर के लिये आया है तू यहाँ, जरा बता तो सही? कौन है तू विचार तो सही ? कहाँ से आ रहे हैं ये पुत्र-मित्र आदि, कहाँ जा रहे हैं ये, कितनी देर के लिए आए हैं यहाँ ? जरा इनसे पूछ तो लेता इन्हें अपना बनाने से पहले ? ठग न हों कहीं ? लूट न ले जायें तेरी शान्ति को तेरे अतिथि बनकर? क्या पहिचाना नहीं इनको? अरे भोले ! वही तो हैं ये जो न जाने कितनी बार टकराये तुझे इस लम्बी यात्रा में ? हर बार नया रूप धारण करके सदा तेरे बनकर आये और अन्य के बनकर चले गये । तू रह गया रोता का रोता । अब तक भी नहीं समझा इन ठगों की ठगी ? ज्ञानी जीवों की शरण में आया है, प्रकाश पा रहा है, अब तो देख ले आँखे खोलकर ? स्वप्न छोड़ दे भाई ! ये सब पराये हैं, पृथक्-पृथक् अपना स्वार्थ लेकर आए हैं । ये तुझसे अन्य हैं, तू इनसे अन्य है । यह है 'अन्यत्व' भावना । ५. इधर आ, अपने एकत्व को देख । इनकी भाँति तू भी तो इन सबसे पृथक् है । सत्ताधारी भगवान आत्मन् ! क्यों संशय करता है ? अपनी स्वतन्त्र सत्ता को क्यों नहीं देखता? इन बेचारे रंकों से क्यों माँगता है अपनी प्रभुता की भीख? अब छोड इनका आश्रय देख इस ओर अपने स्वतन्त्र ऐश्वर्य को, देख अपने पुराने इतिहास को, सुन अपनी कहानी । अनादि काल से तू अकेला ही तो चला आ रहा है। माना कि मार्ग में अनेकों मिले, पर सभी तो बिछुड़े, एक ने भी तो साथ नहीं दिया ? अकेला ही रहा, अकेले ही ने सब सुख-दुःख भोगे। बता तो सही कि इस स्वार्थी टोली ने कभी बटाये हैं तेरे दुःख? फिर अब क्यों अपना सुख बाँटने की चिन्ता में है ? सर्प को दूध पिलायेगा तो दुःख उठाएगा। अकेले ठोकरें खाई हैं, अब अकेले ही अपने वैभव को भोग । क्यों लुटाता है इसे इनके लिये ? एकत्व भावना अपनी शान्ति का त ही अकेला स्वामी है, तू ही अकेला ' उसे भोगेगा। कोई उसे तुझ से छीन नहीं सकता, बँटवा नहीं सकता। अब आकाश पुष्प को तोड़ने की व्यग्रता छोड़, जगत् के अन्य पथिकों को अपनाने की बजाय अकेले अपने को अपना, तेरी सब व्यथाएँ शान्त हो जायेंगी। शरीर का ममत्व छोड़, जो इनसे भी अधिक एकमेक हुआ पड़ा है तेरे साथ, फिर तू जान पायेगा कि किसको हो रही है पीड़ा, किसको खा रही है गीदड़ी, इस पड़ौसी को या तुझे? पड़ौसी को खाने दे, तुझे क्या ? तू तो सुरक्षित है ना? यह रहा तू तो अकेला यहाँ बैठा, सब कुछ इस खेल को देखने वाला । खेल मात्र को देखकर दुःखी क्यों होता है ? अग्नि देखने से ही क्या जल जाती है किसी की आँखें ? बस तो इस शरीर को खाया जाता देखकर क्या तू खाया जायेगा? व्यथा को भूल, इधर देख अपने वैभव को जिसके साथ 'अकेला' तू एकमेक हुआ पड़ा है । जहाँ अन्य किसी का प्रवेश नहीं । यह हुई 'एकत्व भावना' । ६. अरे ! किसके पीछे व्याकुल बनता है ? यदि किसी दूसरे को ही अपनाना था तो कोई अच्छी चीज तो छाँटता ? यहाँ तो अनकों भरी पड़ी हैं। क्या यह दुर्गन्धियुक्त और घिनावनी वस्तु ही अच्छी लगी है तुझे इन सब में ? अरे प्रभु ! अपनी प्रभुता को इतना भूल गया, इतना गिर गया ? यह अनुमान भी नहीं किया जा सकता था। तनिक तो लाज कर, हाँ तो त तीन लोक का अधिपति, सन्दर व स्वच्छ और कहाँ यह विष्टा का घडा जिसके रोम-रोम से Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९८ ४. बारह भावनायें - बह रहा है मल । दुर्गन्धि के सिवा और है ही क्या इसमें, नहीं विश्वास आता तो एक क्षण भर को इधर आ, ले इस पर से एक मक्खी के पंख के समान पतली सी झिल्ली पृथक् करता हूँ। अब देख इसे कैसा सुन्दर लगता है यह तुझे ? छोटी-छोटी मक्खियाँ ही छूट-चूँटकर खा जायेंगी इसे । इसकी सुन्दरता देखनी NANE हैं तो शौचगृह में जाकर देख । क्यों लुभाता है अपनी इस क्षणिक सुन्दरता पर ? यदि कदाचित् दुर्भाग्यवश इसे चेचक निकल आये तो तू इसके पास जाता हुआ भी सम्भवत: डरने लगे। इसकी सुन्दरता देखनी है तो देख इसके वृद्ध शरीर को, कुष्ट हो जाने के कारण लाल-लाल दुर्गन्धित घावों से अलंकरित हो गया है जो । इस अत्यन्त घिनावनी व अशुचि' देह के साथ इससे अधिक अपवित्र क्या है । तनिक चेचक निकल आए यारी जोड़कर, इसकी रक्षा करने लिए अपना सर्वस्व तो देख इसकी सुन्दरता तथा स्वच्छता। लुटा रहा है ? आश्चर्य है। ___(७) नित्य नये-नये रूप धारण करके प्रकट होने वाले इन विकल्पों में क्या देख रहा है भगवन् ! क्या भूल गया है 'आस्रव के प्रकरण को? अब पुन: देख ले उसे (अधिकार नं० १३, १४)। याद आ जायेगी इसकी दुष्टता । इससे अपनी रक्षा कर इसमें भूलकर आत्मसमर्पण न कर। (८) अब गुरुदेव की शरण में आया है तो कुछ लाभ उठा । इन विकल्पों में ब्रेक लगा, अब तक आये तो आये देख आगे न आने पाएं । भूला न समझ जो साँझ पड़े घर लौट आये । निज वैभव का आश्रय लेकर इनका तिरस्कार कर दे, इनको दबा दे, संवरण कर दे। 'संवर' पर दिये गए इतने बड़े उपदेश को याद कर । ... (९) एक बार तिरस्कार करके देख कहाँ जाते हैं ये ? तिरस्कृत होकर कब तक पड़े रहेंगे तेरे द्वार पर भूखे नंगे ये बेचारे । आखिर चले जायेंगे एक दिन छोड़कर तेरा संग। जल्दी छूटना चाहता है इनसे ? तब इससे अच्छी तो बात ही K DDD र वर्षा तथा आतापन योग Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. परिषहजय व अनुप्रेक्षा २९९ ४. बारह भावनायें क्या ? ले देख अपने पराक्रम को, कर एक बार गर्जना, पूरे जोर से, “मैं चेतन्य हूँ, सत्-चित्त-आनन्द और पूर्ण-ब्रह्म-परमेश्वर, आओ कौन आता है सामने, आज साक्षात् अग्नि बनकर आया हूँ मैं, क्षण भर में भस्म कर डालूँगा, जीर्ण कर डालूँगा संस्कारों को।” युद्ध कर इनके साथ शान्ति के बलपर, प्रहार कर इन पर शान्ति के शस्त्र से, वही शान्ति जो तेरा सर्वस्व है, तेरा स्वभाव है एक बार की धुड़धुड़ी में झड़ जायेंगे सब, वस्त्र पर लगी धूल की तरह, जायेगी 'निर्जरा' इनकी, और मिल जाएगी सदा को मुक्ति इनसे । हो (१०) प्रभो ! अपनी महिमा को भूलकर आज कुएँ में घुस बैठा है, मेंढक बनकर ? क्यों इतना भयभीत हुआ जाता है, क्यों पामर बना जाता है ? अब निकल इस कुएँ से बाहर देख कितना बड़ा है यह विश्व ? तुझ जैसे अनन्तों का निवास, तथा अन्य भी अनेकों का घर । सभी ही तो रह रहे हैं यहाँ, अपनी-अपनी मौज में, सर्वत्र सैर करते, इसकी सुन्दरताओं में लीन होते । तू क्यों घबरा गया है इससे ? यहाँ तो कुछ भी भय का कारण नहीं । जिस प्रकार अन्य रहते हैं उसी प्रकार तू भी रह, स्वतन्त्रता के साथ, स्वामी बनकर, ज्ञाता दृष्टा बनकर । देख इसमें सर्वत्र ईश्वर का निवास, देख इसमें एक अद्वैत ब्रह्म, देख इसमें अपनी सृजन शक्ति (देखो २६.१०) परन्तु देखना अजायबघर की तरह, अपने घर की तरह नहीं (देखो १२.२) । पीछे ध्यान के प्रकरण में जो सुना था उसे याद कर । बस प्रकट हो जायेगी एक विशाल दृष्टि, जिसका आधार होगी माध्यस्थता व समता और तू बन बैठेगा सर्व 'लोक' का स्वामी, बाहर में नहीं, ज्ञान में । (११) अरे रे चेतन ! अनादि काल से आज तक क्या मिला है तुझे ठोकरों के अतिरिक्त ? दूर-दूर भटकता फिरता रहा है आज तक । चाँदी-सोने की धूल अनेकों बार मिली, चाम- माँस का पिण्ड अनेकों बार मिला, कुटुम्बादि अनेकों बार मिले, देवादि के रूप अनेकों बार मिले परन्तु उनमें से क्या मिला तुझे ? आज देख अपने अन्दर, क्या पड़ा है, उनका कुछ बचा हुआ भी यहाँ ? यदि कुछ मिला होता तो कुछ न कुछ तो होता तेरे पास ? परन्तु यहाँ तो शून्य है, को शून्य । क्या मिला और क्या न मिला, मिलता हुआ भी न मिला। जो मिलने योग्य था वह मिल पाया नहीं, जो नहीं मिलने योग्य था उसमें मिलने की कल्पना की, कैसे मिलता तुझे ? आज गुरुदेव की शरण में आकर ही मिला है कुछ नवीन सा, वह जो आज तक नहीं मिला था, वह जिसको लेकर कृतकृत्य हो गया है तू, वह जिसमें छिपा पड़ा है तेरा वैभव | मानो तेरा सर्वस्व ही मिल गया है आज तुझे, वह जिसके मिलने की आशा भी नहीं थी तुझे, जो किसी बिरले को ही मिलता है बड़े सौभाग्य से, जिसे लेकर और कुछ लेने की चाह नहीं रहती, जिसके मिल जाने पर अन्य कोई वस्तु नहीं जञ्चती । क्यों न हो ? उसमें दिखाई जो दे रही है तेरी शान्ति, तेरा अभीष्ट । अत्यन्त दुर्लभता से प्राप्त इस 'बोधि- दुर्लभ रत्न के प्रति बहुमान उत्पन्न कर । अब तेरे कल्याण का समय निकट आ रहा है, 'होनहार विरवान के चिकने-चिकने पात' । गुरु के द्वारा प्रदान किए गए, इस रहस्यात्मक ज्ञान से तेरा सर्व अन्धकार विनश जाएगा, और तू बन जाएगा वह जो कि तू है, सत्-चित्-आनन्द, पूर्ण ब्रह्म, परमेश्वर । (१२) बस यही तो है तेरा 'धर्म', तेरा स्वभाव, तेरी समता, तेरी शान्ति, तेरा ऐश्वर्य, तेरा सर्वस्व, आज तक जिसे जान न पाया, जिसकी खोज में दर-दर मारा फिरा । वाह वाह ! कितना सुन्दर है यह, कितना शीतल है यह, भव-भव का सन्ताप क्षण भर में विनष्ट हो गया। अब तक के बताए गए इतने लम्बे मार्ग का भली-भाँति निर्णय करके इस पर दृढ़ता से विश्वास कर, इसके अनुरूप बनने का दृढ़ संकल्प कर और बनने का प्रयास कर । इस प्रकार का ज्ञान श्रद्धान अनुचरण, बस यही तो है उपाय उस शान्ति की प्राप्ति का, जिसका लक्ष्य लेकर तू भटकता फिरता है यहाँ । कितना सहल है तथा सुन्दर है यह ? ले अब धीरे-धीरे पी जा इसे। यह है 'धर्म-भावना' । इस प्रकार अनित्यता, अशरणता, संसार, पृथकत्व (अन्यत्व), एकत्व, अशुचि, आस्रव संवर, निर्जरा, लोक, बोधि-दुर्लभत्व व धर्म इन बारह प्रकार के विकल्पों का आश्रय लेता हुआ, बड़ी से बड़ी बाधाओं को तृणवत् नहीं गिनता है वह योगी । यही है वह शक्ति जिसका स्वामित्व उसको प्राप्त हुआ है। तू भी अन्य कल्पनाओं के स्थान पर इन कल्पनाओं के स्वामित्व को प्राप्त कर । इन कल्पनाओं का आधार है । वस्तु जबकि तेरी कल्पनाओं का आधार है कोरी कल्पनाएँ । यह सार-स्वरूप, है, और वह सब है निस्सार । तभी तो यह शान्ति में सहायक है । सार से ही सार निकलना सम्भव है, निस्सार से निस्सारता के अतिरिक्त और निकलेगा ही क्या ? Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. चारित्र ( १. सामान्य परिचय; २. पंचविध चारित्र; ३. समन्वय। १. सामान्य परिचय–नित्य ही शान्ति में विचरण करते हुए, शान्ति-रानी के साथ क्रीड़ा करने में मग्न, हे गुरुवर ! मुझे शान्ति प्रदान करें । आज चारित्र की बात चलती है । यद्यपि चारित्र का कथन दर्शन-खण्ड में शान्ति-मार्ग की त्रयात्मकता का प्रतिपादन करने के लिए पहले किया जा चुका है, तदपि यहाँ पुन: उसका कथन करना पुनरुक्ति को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वहाँ दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रय के अन्तर्गत चारित्र का केवल सामान्य स्वरूप दर्शाना इष्ट था और यहाँ साधना का प्रकरण होने के कारण उसका क्रमोन्नत विशेष स्वरूप दर्शाना इष्ट है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यह चारित्र उससे सर्वथा भिन्न कोई अन्य वस्तु है। सामान्य तथा विशेष ये दोनों ही एक अखण्ड वस्त के दो अंग हैं, सामान्य अंग साध्य है और विशेष अंग उसकी प्राप्ति का साधन । साधन तथा साध्य दोनों की जाति में कोई भेद नहीं हुआ करता, भेद होता है तो केवल इतना कि स्वभाव होने के कारण साध्य या प्राप्तव्य पूर्ण होता है, परन्तु उसकी प्राप्ति का उपाय होने के कारण साधन में उसी स्वभाव की किसी एक निम्नतम अभिव्यक्ति को पुरुषार्थ-पूर्वक धीरे-धीरे बढ़ाकर पूर्णता तक पहुँचाने का प्रयत्न या अभ्यास किया जाता है। स्वभावभूत तथा पूर्ण-समता रूप न होते हुए भी कारण में कार्य का उपचार करके इन सकल प्रयत्नों को चारित्र कह दिया जाता है। और इस प्रकार इस साधना खण्ड में कथित देवपूजा से लेकर ध्यान पर्यन्त के जितने कुछ भी अंगों का विवेचन किया गया है, वे सब अंग क्योंकि एक मात्र समता या शान्ति की प्राप्ति, उसकी अभिवृद्धि तथा उसकी पूर्ति के अर्थ किए जाने वाले विविध अभ्यास हैं, इसलिए वे सभी उपचार से चारित्र कहे जाते हैं। तथापि इस प्रकरण में इस अभ्यास के उन अंगों का कथन करना इष्ट है जो कि केवल योगीराज के जीवन में उपलब्ध होते हैं, उनके जीवन में जो कि अब तक की लम्बी साधना के फलस्वरूप समता की उत्तरोत्तर उन्नत विविध श्रेणियों का अतिक्रम करते हुए, साक्षात् रूप से शान्ति की श्रेणी में अथवा सोपान पर पदार्पण कर चुके हैं उनका सकल बाह्य चारित्र अर्थात् साधना की अंगभूत बाह्य क्रियायें सिमटकर अन्तरंग में उतर चुकी हैं । क्रमश: अभिवृद्ध उनके इस चारित्र को पाँच श्रेणियों में विभाजित करके देखा जा सकता है । योगियों के समतारूप चारित्र की इन पाँच श्रेणियों का परिचय देना ही इस अधिकार का प्रयोजन है। २. पंचविध चारित्र-अहो इस साधना की महिमा कि मुझे आज वह दिन देखने को मिला जब मैं एक शिशु से वीर बन गया, एक साहसी वीर । योद्धा की भाँति मैने योगी जीवन में प्रवेश किया और अधिक दृढ़ता के साथ पहले के अभ्यास को अत्यन्त पुष्ट किया; व्रत, समिति, गुप्ति के द्वारा उसे निश्चल व अकम्प बनाया। दस धर्मों से सिञ्चित तथा वैराग्य भावनाओं से परिपुष्ट साधना का वह कोमल पौधा आज एक विशाल वृक्ष बन गया है, जिसे देखकर स्वयं मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने कहाँ से चलना प्रारम्भ किया था। अनेकों भव पीछे से प्रारम्भ किये गये उस पुरुषार्थ ने आज मुझे लक्ष्य के अत्यन्त निकट पहुँचा दिया है । बराबर इस जीवन में विकल्प शान्त होते चले गये, संस्कार नष्ट होते चले गये और तदनुसार शान्ति में वृद्धि होती चली गई। मैंने पहले पग से ही शन्ति का पल्ला आज तक नहीं छोड़ा, हर बाह्य क्रिया के साथ-साथ अन्तरंग क्रिया को नहीं भूला, यही कारण है कि आज ब है कि आज बढ़ते-बढ़ते इस दशा को पहुँच गया कि बुद्धिपूर्वक का मेरा शान्ति में स्थिति पाने का प्रयास अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में प्रवेश कर गया और विकल्पोत्पादक संस्कारों के द्वारा खाली किया गया स्थान शान्ति के संस्कार ने ले लिया। एक नवीन संस्कार जीवन में उत्पन्न हुआ अथवा यों कहिये कि शान्ति के साँचे में ढाला गया जीवन आज बाहर निकला । गुरुदेव का कृपा-प्रसाद न कहें इसे तो और क्या कहें ? (१) आहा हा ! कितना सुन्दर है यह । अब इसका रूप बिल्कुल बदल गया है, मानो यह पहले वाला मैं नहीं हूँ इसे देखकर मुझे स्वयं आश्चर्य हो रहा है, कि अरे ! क्या स्वप में भी कभी ऐसा बन जाने की आशा थी ? परन्तु 'हाथ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. चारित्र ३०१ २. पंचविध चारित्र कंगन को आरसी क्या', सामने पड़ा यह जीवन स्वयं अभ्यास की अचिन्त्य महिमा को दर्शा रहा है। अब मेरा जीवन है, अत्यन्त शान्त, समता के सांचे में ढला हुआ। यह अब विकल्पों की ओर नहीं दौड़ता, चाहे बाहर से आहार करता हूँ या उपदेश देता हूँ बुद्धिपूर्वक किया गया सीमित समय का ध्यान, सामायिक या समता का अभ्यास आज मेरे जीवन का अंग बन गया है । सीमित समय के लिये ही नहीं चौबीसों घण्टों के लिए यह अब समता में चरण करता है। इसे अब सीमित समय के लिये ध्यान या सामायिक करने की आवश्यकता नहीं, यह स्वयं सामायिकरूप बन चुका है । शान्ति की वह तुच्छ कणिका बढ़ते-बढ़ते अब पूर्णता के इतने निकट पहुँच चुकी है कि मैं नित्य ही जीवन में शान्ति का अनुभव कर रहा हूँ। साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'सामायिक चारित्र'। (२) परन्तु आश्चर्य है इन दुष्ट संस्कारों के साहस पर, तप की भट्टी में झोंककर अच्छी तरह जला दिया गया है जिन्हें । जली रस्सीवत् पड़े वे आज भी कभी-कभी अपना सर उठा-उठाकर यह सिद्ध कर ही देते हैं कि अभी वे जीवित हैं, भले अन्तिम श्वास ले रहे हों। परन्तु कब तक जीवित रह सकोगे बच्चा? अब छोड़ो इस दर को, जाओ किसी दूसरे द्वार माँगो खाओ, यहाँ रहोगे तो भूखा मरना पड़ेगा। जब-जब भी इनसे प्रेरित होकर कदाचित् विकल्प मुझे सताते प्रतीत होते हैं, तब-तब ही मैं ध्यान या सामायिक द्वारा उन पर काबू पाने के प्रयत्न में जुट जाता हूँ । एक क्षण के लिये भी उनसे गाफिल नहीं हूँ, बराबर आहट लेता रहता हूँ, सचेत गृह-स्वामी की भाँति, जिसके घर में चोर भले प्रवेश कर जाय परन्तु बिना हानि पहुँचाए निकल जायेगा स्वयं । फलस्वरूप पुन: स्थापन कर देता हूँ मन को उसी शान्ति में और सामायिकरूप अर्थात समतारूप होकर फिर विचरण करने लगता हँ शान्ति में। कभी सामायिक और कभी छेद, पुन: सामायिक में स्थापना और फिर छेद, पुन: स्थापना और फिर छेद । इसी प्रकार सामायिक, छेद व स्थापना के झूले में झूलता हुआ आज भी बराबर आगे बढ़ा चला जा रहा हूँ, लक्ष्य पूर्ण किये बिना संतोष करने वाला नहीं। घबराना मेरा काम नहीं, मेरे हाथ में है वह ध्वजा जिस पर लिखा है 'आगे बढ़ो' । अजीब है इस समय मेरे जीवन की दशा; चलते, फिरते, आहार लेते, शास्त्र लिखते, उपदेश देते, साथियों से धर्म-चर्चा करते, यहाँ तक कि सोते समय भी बराबर सामायिक, छेद व स्थापना इसके अतिरिक्त कुछ नहीं। कोई निश्चित समय ही सामायिक का हो, अब ऐसी बात नहीं रही। आध या पौन घण्टे से अधिक मेरी समता का छेद कभी भी होने नहीं पाता । आहार-विहार करते समय भी यदि कदाचित् विकल्प आया तो मैंने इसे पकड़ा, सचेत हुआ, और बस फिर क्या था, भाग खड़ा हुआ वह । मैं पुन: करने लगा स्नान समता में, करने लगा पान चैतन्य रस का । शरीर चलने का काम कर रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में; शरीर लिखने का काम कर रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में; शरीर खाने का काम रहा है बाहर में, और मैं समता में स्नान कर रहा हूँ अन्तरंग में । यहाँ तक कि सोते-सोते भी बराबर आध-आध पौन-पौन घण्टे के पश्चात स्वत: आँख खल जाती है, मझे पन: शान्ति में स्थापित करने के लिये । और इसी प्रकार विकल्प व शान्ति के झूले में झूलते हुए बराबर आगे बढ़ा चला जा रहा हूँ। साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'छेदोपस्थापना चारित्र'। (३) इस पुरुषार्थ से परिणाम की विशुद्धि बराबर बढ़ती गई और अशुद्धि का परिहार होता गया, अत: इस सर्व अन्तरंग पुरुषार्थ का नाम है 'परिहार विशुद्धि चारित्र'। (४) अरे ! यह क्या ? झूले में झूलते-झूलते घुमेर चढ़ गई, और भूल गया सब कुछ, हो गया बेसुध ? चलना, फिरना, खाना, पीना, लिखना, बोलना सब कुछ छूट गया। बाह्य क्रिया की तो बात नहीं, 'मैं हूँ या नहीं यह भी भान नहीं रहा । मैं जानने वाला और विश्व जनाया जाने वाला यह भी भेद नहीं रहा । कौन जाने और किसे जाने, कौन ध्यावे और किसे ध्यावे, कौन विचारे और किसे विचारे, एक अद्वैत अवस्था है, शान्ति का रुद्ररूप है, जिसे देखकर संस्कारों के अर्धमृत कलेवर, अब देखो खिसकने लगे। वह देखो निद्रा भागी; हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि व मैथुन-भाव भी लगे भागने; जिस ओर जिसकी नाक उठी भाग निकले। कितने भयभीत हैं आज ये ? मैंने आज रौद्र रूप धारण किया है, मैं साक्षात् रुद्र हूँ, भगवान रुद्र । साधु-जीवन के इस अंग का नाम है 'शुक्लध्यान की प्रथम श्रेणी'। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. चारित्र ३०२ ३. समन्वय क्रोध, मान, माया भी बेचारे क्या करें ? आपस में लगे सलाह मश्वरा करने, सब साथी छोड़कर चले गये, अकेले क्या करें ? कोई बात नहीं, अपनी बिखरी हुई सेना को एक मोरचे पर संगठित करो और अन्तिम बार आक्रमण करके देखो । अब भी कुछ दम है इनमें, यद्यपि मुझे बाधा पहुँचाने में बिल्कुल असमर्थ, परन्तु दूर खड़े-खड़े अब भी कुछ करने की ठान ही रहे हैं । देखें तो कि क्या करते हैं ये ? वह देखो क्रोध की टोली आ मिली मान में और ये दोनों आ मिले माया में । अभी भी पर्याप्त नहीं है. चलो लोभ को साथ लें। तीनों आ मिले लोभ के साथ । अब ठीक है कछ बल है, लगाओ जोर, देखो एक ही बार आक्रमण करना, और लोभ की अध्यक्षता में लगे सब ओर से बाण बरसाने । परन्तु इन बेचारों को क्या पता कि अद्वैतता के इस कवच पर अब इनके बाण असर नहीं करेंगे प्रत्युत उसके बढ़ते हुए तेज में वे स्वयं भस्म हो जायेंगे। वह देखो लगे जलने । सब जल गये, परन्तु अब भी खड़ा रह गया है एक लोभ, अत्यन्त क्षीण दशा में, अकेला। असमंजस में पड़ा बेचारा विचार रहा है कि अब क्या करे, बन्दी हाथ से निकला जाता है। आश्चर्य है इसके साहस पर; सब साथी भाग गये, शेष मारे गये, पर अब भी पीठ दिखाने को तैयार नहीं । सच्चा क्षत्रिय है, मरना स्वीकार पर रण से भागना स्वीकार नहीं। इधर से मेरा अद्वैत तेज भी बढ़ा, चहुँ और ताप फैल गया, अग्नि बरसने लगी। ओह ! आज मैं साक्षात् अग्नि देव हूँ, इस लोभ के भग्नावशेष को दग्ध करने के लिए, अर्थात् उपरोक्त शुक्लध्यान में एकाग्रता अधिकाधिक बढ़ती गई और अवशेष रहे इस सूक्ष्म से लोभ का संस्कार भी भस्म हो गया । पुरुषार्थ के इस उत्कृष्ट भाग का नाम है, 'सूक्ष्म साम्पराय चारित्र'। (५) संस्कारों की अन्तिम कणिका का निर्मूलन हो जाने के पश्चात् अब मैं अत्यन्त निर्मल हो चुका हूँ । अब कोई शक्ति नह जो मुझे प्रेरित करके किञ्चित् भी विकल्प उत्पन्न करा सके। शान्ति में स्थिरता दृढ़तम हो गई, पूर्णता के लक्ष्य की साक्षात प्राप्ति हो गई। आखिर जैसा बनने का संकल्प किया था वैसा बन ही गया। अब कभी भी इस अवस्था से छेद को प्राप्त नहीं हूँगा, सर्वदा के लिए शान्त हो गया हूँ मैं । जिसको लक्ष्य में रखकर चला था वह मिल गया, जो बनना चाहता था वह बन गया, यथाख्यात रूप को प्राप्त हो गया। जीवन के इस आत्यन्तिक शुद्ध भाग का नाम है 'यथाख्यात चारित्र'। ३. समन्वय साधना अधिकार में यह बात भली भाँति समझा दी गई है कि साधक की प्रत्येक क्रिया में दो अंश विद्यमान रहते हैं, एक अभ्यन्तर अंश और एक बाह्य अंश । इनमें से अभ्यन्तर अंश ही समता अथवा शान्ति रूप होने के कारण चारित्र है, और विकल्पात्मक होने के कारण बाह्य अंश अचारित्र है। स्वतन्त्र होने के कारण अभ्यन्तर अंश मुक्ति रूप है और परतन्त्र होने के कारण बाह्य अंश बन्ध रूप है। इसलिए अभ्यन्तर अंश अमृतकुम्भ है और बाह्य अंश है विषकुम्भ । ज्यों-ज्यों साधक आगे बढ़ता है त्यों-त्यों उसके चारित्र का बाह्य अंश कम होता जाता है और अभ्यन्तर अंश बढ़ता जाता है । एक दिन अन्तरंग अंश पूर्ण हो जाने पर बाह्य अंश बिल्कुल समाप्त हो जाता है। अन्तरंग अंश की कुछ पूर्णता हो जाने पर या पूर्णता के निकट पहुँच जाने पर ही जीवन सामायिकरूप दिखाई देने लगता है, क्योंकि यहाँ अशुद्धता का अंश बहत हीन हो गया है, उसका स्वाद अब विशेष नहीं आता। सामायिक चारित्र वास्तव में बाह्य क्रियाओं में पड़े हुए अन्तरंग अंश का ही वृद्धिंगत रूप है, कोई नवीन वस्तु नहीं । यह अंश प्रथम पग अर्थात् देवदर्शन में ही प्रकट हो चुका था, और अब वही पुष्ट होता-होता इतना बड़ा हो गया है । इस प्रकार साधक उन क्रियाओं के केवल अन्तरंग अंश में अधिकाधिक स्थिरता धारने का अभ्यास करता हुआ, सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि और सूक्ष्म साम्पराय की श्रेणियों को पार करता हुए एक दिन यथाख्यात-चारित्र में प्रवेश करता है । यहाँ इसका चारित्र पूर्ण-शुद्ध हो जाता है । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. सल्लेखना ( १. उपासक की गर्जना; २. देह-सम्बोधन; ३. समता; ४. समाधि मरण; ५. आत्म हत्या नहीं। १.उपासक की गर्जना–अहो शान्ति के उपासक की अलौकिक घोषणा, 'जीऊँगा तो शान्ति से और मरूँगा तो भी शान्ति से।' एक अंग्रेजी का उपासक कहता है, “हंसना हो तो अंग्रेजी में और रोना हो तो भी अंग्रेजी में।' इसे कहते हैं आदर्श या लक्ष्य-बिन्दु, ध्रुव-संकल्प, आन्तरिक-वीर्य । “लोक की बड़ी से बड़ी बाधा भी मुझे मेरे आदर्श से विचलित करने में समर्थ नहीं । अब तक स्वामी बनकर जीया हूँ, आगे भी स्वामी बनकर जीऊँगा, एक क्षण को भी दासत्व स्वीकार करना मेरे लिये असम्भव है। शरीर जायेगा तो और मिल जायेगा पर शान्ति गई तो फिर नहीं मिलेगी। यदि शरीर सदा के लिए विदा लेकर जाता है तो इससे अच्छी बात ही क्या, न रहेगा बाँस और न बजेगी बाँसुरी, न रहेगा शरीर और न रहेंगे इसके सम्बन्धी ये बचेखुचे विकल्प, जो मार्ग में आ-आकर मेरी शान्ति में रोड़ा अटकाते हैं । और मुझे चाहिए ही क्या ? मैं शान्ति का उपासक बनकर निकला हूँ शरीर का नहीं। शरीर गया तो कुछ नहीं गया और शान्ति गई तो सब कुछ लुट गया। मरने से क्या डरना? सबको ही मरना है, मूर्ख हो या पण्डित, भोगी हो या योगी जब मरना ही है तो क्यों ऐसा मरण नमरा जाए कि मरण भी सुमरण बन जाए, मरण का भी मरण हो जाए।” सल्लेखना कहते हैं सत्+लेखना अर्थात् अपने शान्ति-स्वभाव को देखना या उसको ही अपना जीवन समझते हुए चलना । कषायों को कृश करते हुए चलना । शान्ति ही जिसका देश हो, शान्ति ही जिसका शरीर हो, शान्ति ही जिसका सर्वस्व हो, उसके लिए इस चमड़े के शरीर का क्या मूल्य ? पड़ा है तो पड़ा रहे, जावे तो जाये । पड़ा रहने से विशेष लाभ नहीं और जाने से कोई हानि नहीं। साधना पूरी हुई, अब मरने का समय आया है। मरने का नहीं मृत्यु महोत्सव का, साधना की परीक्षा करने का, समतापूर्वक देह को विदा करने का। २. देह सम्बोधन-इसीलिए अपने जीवन काल में वह शरीर को दास बनाकर रखता है लौकिक जनों की भाँति उसका दास बनकर नहीं रहता । शरीर से स्पष्ट कह देता है वह कि, “देख भाई ! तू आया है तो आ मैं तेरे आने में कोई रोड़ा नहीं अटकाता, परन्तु शर्त यह है कि यदि तुझे मेरे साथ रहना है तो जरा सम्भलकर रहना होगा। तेरी वह पुरानी टेव जो लौकिक जनों पर तू आजमाता है । यहाँ नहीं चलेगी, तेरी शक्ति यहाँ काम नहीं कर सकेगी।" और इस अपनी घोषणा की सत्यता का उसे विश्वास दिला देता है । तपश्चरणादि अनुष्ठानों के द्वारा जब शरीर को यह विश्वास हो जाता है कि यह ठीक ही कहता है, तो कुत्ते की भाँति दुम हिलाता हुआ उसका दासत्व स्वीकार कर लेता है । उसके कार्य में उसकी सहायता करता हुआ उसके साथ रहने लगता है, जिसके बदले में वह शान्ति का उपासक उसको योग्य आहार आदि के रूप में कुछ वेतन देना स्वीकार कर लेता है। परन्तु यह बात पहले ही बता देता है कि "देख भाई ! मैं स्पष्टत: तुझे हृदयंगम करा देना चाहता हूँ कि यह वेतन मैं तुझे उसी समय तक दूंगा जब तक कि तू मेरे काम में अर्थात् मेरी शान्ति की साधना में मेरी कुछ न कुछ थोड़ी या बहुत सहायता करता रहेगा। मैं तेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित हूँ, मैं इस बात को भला नहीं हैं कि त मत्य का पत्र है. त सब लौकिक प्राणियों को अपने बाहरी प्रपंच में फँसा कर अन्त में उन्हें धोखा दे जाया करता है । भले ही उसने तेरी कितना भी सेवायें की हों पर उस समय तू तोते की भाँति आँखे घुमाकर मानो सब कुछ भूल जाता है, तेरे सब वायदे वेश्या के वायदोंवत् बनकर रह जाते हैं । उसको साफ जवाब देकर, उसके सर्वस्व का अर्थात् शान्ति का अपहरण करके, उसे रोता झींकता छोड़ तू अपना रास्ता नापता दिखाई देता है । बस तो समझ ले कि तेरा वह दाव मुझ पर नहीं चलेगा । तुझे वेतन उसी समय तक दूंगा जब तक कि तू मेरा दास बना मेरी कुछ सहायता करता रहेगा। जिस दिन भी तूने जरा आँख दिखाई कि मैं तुझे वेतन देना बन्द कर दूंगा। फिर भले ही रोना कि चीखना या जगत के जीवों की गवाही लेकर मानवी न्यायशालाओं में आत्महत्या की दुहाई देना, मैं एक नहीं सुनूँगा । यदि तुझे यह शर्त स्वीकार है तो रह, नहीं तो अभी से जहाँ जाना है चला जा, मैं तुझे रोकूँगा नहीं।" Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. सल्लेखना ३०४ ३. समता ऐसी निर्भीक गर्जना भला शरीर को सुनने का अभ्यास कहाँ ? वह तो जानता है केवल दूसरे को दास बनाना। स्वयं दास बनना उसने सीखा ही कब है ? पर क्या करे, इस योगी के सामने पेश पड़ती न देख दासत्व स्वीकार किए बिना और कोई चारा उसे दिखाई नहीं देता । इसीलिए जीवन काल में वह उस योगी की साधना में सदा सहायक रहता है । स्वाध्याय करने में, तत्त्व-चिन्तन में, आत्मध्यान में, शान्ति के वेदन में, गरुओं का दर्शन ने में, उनका उपदेश सुनने में, अन्य जनों की सेवा में, तथा शान्ति की साधना विषयक अन्य सभी कार्य क्षेत्रों में वह सदा स्वामीभक्त सेवक की भाँति उसका साथ निभाता चलता है, ताकि उसे उसके प्रति कोई सन्देह न रह जाये। सम्भवत: वह सोच रहा हो कि योगी के हृदय पर अपनी सेवाओं की छाप जमाकर उसके चित्त को अपनी स्वामी-भक्ति के सम्बन्ध में पूर्ण विश्वास दिला दे और कदाचित् ऐसा हो जाए तो एक दिन उससे उसके इस रूखे बर्ताव का बदला चुका ले, अर्थात् मृत्यु के अन्तिम समय में उसके घर में डाका डालकर उसका शान्तिधन चुराकर सदा के लिए उससे विदाई ले ले। ३. समता---परन्तु शरीर की यह उपरोक्त धारणा वास्तव में भ्रमपूर्ण है। योगी सदा जागृत रहते हैं, एक क्षण को भी इसके प्रति असावधान नहीं होते। जहाँ भी जरा बुढ़ापे के चिह्न इस पर प्रकट हुए, या किसी असाध्य रोग ने इसे आ घेरा, या कुछ अन्य खराबियों के कारण यह साधना में कुछ बाधक बनने लगा, या इसमें शिथिलता आती दिखाई देने लगी, स्वाध्याय व ध्यान आदि में पूर्ववत् साथ निभाता प्रतीत न हुआ, तब ही योगी उसे वह पहले वाला वायदा याद दिलाकर सम्बोधने लगता है कि, “देख भाई ! परस्पर में हुए उस वायदे के अनुसार हमारा और तेरा नाता अब टूटता है। बुरा न मानना, हमें तेरे प्रति कोई द्वेष नहीं है, बल्कि कुछ करुणा ही है तूने इतने दिन हमारा साथ निभाया, उसके लिए धन्यवाद । मैं जानता हूँ कि तेरा दिल अब मुझे छोड़कर जाने को सम्भवत: न भी हो, पर तू क्या करे, तू तो पराधीन ठहरा। तेरा स्वामी यम का हरकारा तेरे सर पर खडा है. तझे तो उसके साथ जाना ही है. क्योंकि त उसका भोज्य है। मैं यदि उससे तेरी रक्षा करने को समर्थ होता तो अवश्य करता, पर क्या करूँ यह मेरी शक्ति से बाहर है, और सम्भवत: अब भी मैं तुझे वेतन देता रहता यदि इस प्रकार करने से तेरी रक्षा हो सकती होती, परन्तु यह असम्भव है । इसलिए इस अवसर पर आहार आदि देना तुझे तो कोई लाभ नहीं पहुँचा सकेगा, पर मुझे हानि अवश्य पहुँचा देगा, क्योंकि आहारादि के विकल्प उत्पन्न करके यदि तेरी सेवा में मैं जुट जाऊँ तो मेरी ध्यानाध्ययन आदि रूप शान्ति की साधना बाधित हुए बिना न रहे, और तू तो जानता ही है कि शान्ति मुझे कितनी प्रिय है। अत: भाई ! अब मुझे क्षमा करना, जीवनकाल में जो दोष तेरे प्रति मुझसे बने हैं उनके लिए भी तुम मुझे क्षमा करना, और मैं भी इस अवसर पर तम्हारे सब दोषों को क्षमा करता हैं। जाआ भाई जाओ, तुम अपने स्वामी का आश्रय लो, यही तुम्हारा कर्त्तव्य है, और मैं अपनी निधि की सम्भाल करूं। सब को अपना-अपना कर्त्तव्य निभाना ही योग्य है । अच्छा विदा।" इस प्रकार सरलता, शान्ति व समतापर्वक शरीर से अपना लक्ष्य हटाकर अन्तर्ध्यान में लीन होने का अधिकाधिक प्रयत्न करता हुआ शान्ति में खो जाता है वह । उसे इस समय जगत के किसी प्राणी के प्रति या किसी भी पदार्थ के प्रति, पीछी कमण्डल आदि के प्रति या शास्त्र के प्रति या शरीर के प्रति न कोई राग भाव या प्रेमभाव होता है व । शरीर से या किसी साध से या शिष्य से या गरु से या यदि गृहस्थ है तो कटम्ब से, कोई भी बदला लेने की या उन्हें दुःख देने या सताने की भावना हो, ऐसा भी नहीं है। जिस प्रकार शरीर को सम्बोधकर शान्तिपूर्वक उससे विदाई ली उसी प्रकार कुटुम्बादि को भी सम्बोधकर सबको शान्ति प्रदान कर देता है वह । उसके उस समय के मधुर सम्भाषण से किसी को कोई कष्ट हो यह तो सम्भव ही नहीं है, हाँ सबको शान्ति ही मिलती है । जिसके अन्दर में शान्ति पड़ी है वह दूसरों को शान्ति के अतिरिक्त और दे ही क्या सकता है। सबको इस प्रकार सम्बोधता है, “भो मेरे साथियों ! मैं तुम सबका बहुत आभारी हूँ। इस जीवन में आपने मेरी बहुत सेवायें की हैं, उनके बदले में आपको देने को तो मेरे पास कुछ है नहीं, हाँ क्षमा चाहता हूँ। भाईयों ! तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति कोई राग या प्रेम भाव पड़ा हो तो उसे निकाल देना, क्योंकि मिलना और बिछुड़ना इस लोक का स्वरूप ही है । सदा के लिए कौन मिलकर रह सकता है ? सराय के पथिकों की भाँति यह सकल सम्मेल था, अब इसे भुला देना, याद रखने का प्रयत्न न करना । हम कहाँ से आये थे हमें स्वयं पता नहीं, अब कहाँ जा रहे हैं हमें स्वयं पता नहीं, किन Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७. सल्लेखना ३०५ ५. यह आत्म हत्या नहीं का साथ छोड़कर यहाँ आये थे हमें स्वयं पता नहीं, आप का साथ छोड़कर अब किन का साथ पकड़ेंगे यह भी पता नहीं। और आप भी यह सब कुछ नहीं जानते । इसलिए सदा साथ बने रहने की भावना का आप त्याग करो। हम शान्ति की शरण जाते हैं, प्रभु तुम्हें भी शान्ति प्रदान करें । हमारी सब के प्रति क्षमा है, हमें भी सब क्षमा करना।" ४. समाधि मरण—इस प्रकार सब के प्रति समता धारकर ज्ञानधारा में प्रवेश कर जाता है वह । न रह जाती है उसे जीने की भावना न मरने की इच्छा, न जीने के प्रति आकर्षण न मरने के प्रति भय। शरीर के प्रति न राग न द्वेष । वेतन देना बन्द कर देता है अब वह इसे, अर्थात् खाना-पीना छोड़कर अपनी ओर से काष्ठवत् त्याग कर देता है वह इसका और देखता रहता है इसको भी उसी प्रकार जैसे कि जगत के अन्य पदार्थों को । रहे तो छ: महीने रह जाए, जावे तो भले आज चला जाय । न रहने से कोई लाभ न जाने से कोई हानि। परन्तु अलौकिक है यह पुरुषार्थ । मरण काल आने पर ही उसमें प्रकट हुआ हो यह, ऐसा होना सम्भव नहीं, क्योंकि मरण काल में लोगों की बुद्धि प्राय: भ्रष्ट होती देखी गई है। सारे जीवन की साधना पड़ी है इसके गर्भ में । जीवन भर नित्य किया गया कायोत्सर्ग का अभ्यास पड़ा है इसके मूल में, उस कायोत्सर्ग का जिसका उल्लेख कि 'उत्तम तप' के अन्तर्गत अभ्यन्तर तपों के प्रकरण में किया गया है । तात्पर्य यह है कि कोई यह समझे कि सारे जीवन तो स्वच्छन्द रहूँ और अन्त समय में समाधिमरण धरके अपना कल्याण कर लूँ, यह सम्भव नहीं। जीवन पर्यन्त समाधिमरण की भावना से जीना होता है उसे । समाधि का अर्थ मन:-समाधान अर्थात् समता और मरण का अर्थ देह का सहज त्याग। ५. यह आत्म हत्या नहीं-लौकिक मानव बेचारा क्या समझे इस गर्जना के मूल्य को, वह तो ठहरा शरीर का उपासक । उसकी दृष्टि में शान्ति का कुछ मूल्य नहीं, शरीर ही उसका सर्वस्व है । शरीर गया तो उसका सब कुछ चला गया । बल्कि शरीर क्या उसके लिए तो शरीर की अपेक्षा भी धन अधिक प्रिय है। धन गया तो सब कुछ गया, उसके पीछे खाना नहाना आदि सब कुछ गया, मानो पागल हो गया, और अन्त में वही मृत्यु की गोद जहाँ जाकर सबको विश्राम मिल जाता है । धन के पीछे खाना नहाना छोड़कर या अरुचि पूर्वक जबरदस्ती थोड़ा बहुत खाकर, पागलों की भाँति बराबर शरीर को कृश करता हुआ एक दिन मृत्यु से आलिंगन कर लेता है, तब तो मानव उसे आत्म-हत्या नहीं कहता; परन्तु जब एक शान्ति का उपासक अपनी शान्ति की रक्षा के अर्थ प्रसन्नता पूर्वक शरीर से उपेक्षा धारण करके मृत्यु का सत्कार करने जाता है तो उसको वह आत्म-हत्या कह देता है। देख एक वीर योद्धा का आदर्श, यदि शत्रु देश पर चढ़ आये तो अपना तन, मन, धन सर्वस्व होम दे अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करने के लिए। जीऊँगा तो स्वामी बनकर, दास बनकर जीना मुझे स्वीकार नहीं, प्राण जायें तो जायें; और कूद पड़ता है जान बूझकर युद्ध की आग में, इसलिए कि या तो तेजवन्त बनकर निकलूँगा और या भस्म हो जाऊँगा। तब तो उसकी इस साहस-पूर्ण क्रिया को आत्महत्या न कहकर वीरता कहता है तू, परन्तु एक शान्ति का उपासक योद्धा अपने शान्ति-देश पर शरीर की शिथिलता के द्वारा किये गये आक्रमण का मुकाबला करने के लिए जब इससे युद्ध करने या सर्वस्व अर्पण करने जाता है तब उसे आत्महत्या की उपाधि प्रदान कर देता है तू । क्यों? इसलिए न कि बाहर का देश तो तुझे दीखता है, उसमें तो तेरा कुछ स्वार्थ है, पर अन्तरङ्ग का शान्ति-देश तुझे इष्ट नहीं है। तनिक विचार कर देख तो सही कि क्या अन्तर है आत्महत्या और सल्लेखना में ? ऊपर की क्रियाओं पर से अनमान लगाने का प्रयत्न न कर, अन्दर की भावनाओं को टटोल । ऊपर से तो नि:सन्देह कछ आत्महत्या सरीखा ही लगता है, परन्तु अन्दर में उतरकर देखते हैं तो आकाश पाताल का अन्तर पाते हैं । सल्लेखनागत योगी में है सबके प्रति साम्यता और आत्महत्यागत अपराधी में है द्वेष या क्रोध-पूर्ति की भावना । योगी सबको शान्ति प्रदान करके जाता है और अपराधी सब को दाह उपजाकर जाता है। योगी के अन्दर है शान्ति का सौम्य संवाद और अपराधी के अन्दर है द्वेष की भड़कती ज्वाला, जिसमें स्वयं भड़ाभड़ जला जा रहा है वह । योगी के मुख-मण्डल पर है मुस्कान व आशा और अपराधी के मुख पर है क्रोध व निराशा । इसीलिए नियम से योगी के आगे आने वाला जीवन तो होता है शान्तिपूर्ण और अपराधी का क्रोध तथा द्वेषपूर्ण योगी तो आगे भी पुन: शान्ति की साधना के प्रति ही झुकता है और अपराधी क्रोध के वश पड़ा Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ४७. सल्लेखना ५. यह आत्म हत्या नहीं अपराधों के प्रति ही झुकता है। योगी के आगे-आगे आने वाले जीवनों में बराबर शान्ति की वृद्धि होती है और अपराधी के आगे-आगे वाले जीवनों में क्रोध की। योगी तो अपने प्रत्येक जीवन में शरीर को सेवक बनाकर अन्त समय में सल्लेखना द्वारा उसका त्याग करता हुआ प्रकाश की ओर चला जाता है और अपराधी अपने प्रत्येक जीवन में उसका दास बनकर अन्धकार की ओर चला जाता है । दो या चार जीवनों के पश्चात् ही योगी की साधना तो पूर्णता को स्पर्श कर लेती है, अर्थात् वह तो पूर्ण शान्त या मुक्त हो जाता है, पर अपराधी कषाय व चिन्ताओं के सागर रूप इस संसार में सदा गोते खाता रहता है। सल्लेखना शान्ति के उपासक की आदर्श मृत्यु है, एक सच्चे वीर का महान् पराक्रम है । इससे पहले कि शरीर उसे जवाब दे वह स्वयं उसे समतापूर्वक जवाब दे देता है, और अपनी शान्ति की रक्षा में सावधान रहता हुआ उसमें ही लय हो जाता है। SAM u nanisonalisaar । । HIMANIR a shiruniyamaweirdPMunauslamNaimansuine । 4 Realedhis a - S ATTRIPMARRANA IDREAKS PARASHARE SAIलाल मन्दिर दर्शन कर वापिस आते हुए भक्तजनों के साथ वर्णी जी Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. उपसंहार ( १. निश्चय व्यवहार मैत्री। १. निश्चय व्यवहार-मैत्री-साधना-खण्ड के इस लम्बे चौड़े विस्तार को पढ़कर या सुनकर किसी को ऐसी शंका उत्पन्न हो सकती है, कि मैं बाह्य क्रिया-काण्ड पर अधिक जोर देता जा रहा हूँ, जबकि शान्ति प्राप्ति का सम्बन्ध इस सब क्रिया-काण्ड से दूर कुछ अन्तरंग की प्रवृत्ति से है। ऐसा विचारना योग्य नहीं क्योंकि इतने लम्बे प्रकरण में सर्वत्र ही बाह्य व अन्तरंग की यथा योग्य मैत्री बराबर दर्शाई गई है, अन्तरंग के झुकाव से शून्य केवल बाह्य क्रिया की निस्सारता बराबर बताई जाती रही है । अत: उसको ध्यान में रखकर ही सर्वत्र इस मार्ग के रहस्य को समझने का प्रयत्न करें । दूसरी बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि यह सब कुछ उनके प्रति कहा जा रहा है जो अभी तक लौकिक प्रवृत्तियों में अधिक उलझे रहने के कारण अन्तरंग का स्पर्श करने को समर्थ नहीं हो रहे हैं, अथवा उसमें अधिक देर स्थिति पाने में समर्थ नहीं हो रहे हैं। तीसरी बात यह है कि इस ग्रन्थ का नाम 'सिद्धान्त-दर्शन' नहीं बल्कि ‘पथ-दर्शन' है । सिद्धान्त-दर्शन हुआ होता तो यही कहता कि सर्व अशुभ लौकिक प्रवृत्तियों की भाँति देवपूजा आदि छहों शुभ प्रवृत्तियाँ भी हेय हैं, उपादेय तो केवल एक अन्तरंग शुद्ध आत्म-स्वभाव ही है । ऐसी बात पहले 'शुभ-आस्रव-निषेध' के अधिकार में कही भी जा चुकी है। कहने और करने में या समझने व तद्रूप होने में बहुत अन्तर है। समझने में थोड़ी देर लगती है, पर करने में बहुत । समझने के लिए बुद्धि या ज्ञान मात्र ही पर्याप्त है, अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं, पर करने के लिये किन्हीं साधनों व उपाय-विशेषों की आवश्यकता पड़ती हैं । क्रमपूर्वक इन उपायों में प्रवृत्ति करने का नाम ही पथ है । देवपूजा आदि सर्व अंग भी इस पथ के साधन केवल इसलिए स्वीकार किये गये हैं, कि प्रारम्भिक भूमिका में इनको यथाशक्ति करते हुए क्षण भर को कदाचित् अन्तरंग प्रवृत्ति अर्थात् शान्ति के साथ तन्मयता बराबर होती रहती है, जैसाकि उन-उन प्रकरणों में पहले ही विस्तार के साथ बताया जा चुका है । यदि अन्तरंग प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव होता तो वे वास्तव में साधन भी नहीं कहे जा सकते थे। बन्धुवर ! शब्दों को पकड़कर दोष ढूँढ़ने का प्रयल न करें, अभिप्राय को पढ़ने का प्रयत्न करें। शब्दों में दोष ढूँढ़ना पक्षपात की उपज है जो अत्यन्त हेय है। प्रयोजनवश भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाना न्याय संगत है। सिद्धान्त दर्शन कहते हुए जिस बात को होना' शब्द से कहा जाता है, पथ-दर्शन कहते समय उसी बात को 'करना' शब्द से कहा जाता है, क्योंकि पथ कछ क्रियारूप हआ करता है। क्रिया दो प्रकार की होती है-अन्तरंग क्रिया तथा बाह्य क्रिया अर्थात् भाव क्रिया तथा हलन-डुलनरूप क्रिया। यद्यपि अन्तिम लक्ष्य पर पहुँचकर केवल भावात्मक अन्तरंग क्रिया ही शेष रह जाती है, परन्तु जब तक बाह्य क्रिया का जीवन में से अभाव नहीं हो जाता तब तक दोनों ही क्रियाओं के प्रति ‘करने' शब्द का प्रयोग किया जाता है । इसलिए पथ-दर्शन के निरुपण में अन्तरंग व बाह्य दोनों ओर कुछ करने की प्रेरणा छिपी रहती है। करने का अर्थ दो रूप लिए हुए है, कुछ का त्याग करना और कुछ का ग्रहण करना। दोनों ही बातों में सर्वत्र परस्पर मैत्री वर्ता करती है। इसीलिए यहाँ सर्व ही प्रकरणों में लौकिक क्रियाओं से या ग्रहण रूप प्रवृत्तियों से हटकर उन-उन क्रियाओं में तथा त्यागों में बुद्धिपूर्वक कुछ प्रवृत्ति करने को कहा गया है। परन्तु यदि सैद्धान्तिक रूप से देखा जाए तो साधक वास्तव में इन क्रियाओं को करता नहीं, बल्कि ये सर्व ही क्रियायें उससे स्वयं सहजरूप से होती हैं । कहने और होने में महान अन्तर है। अन्तरंग रुचि से करना तो 'करना' कहलाता है जैसे किसान के द्वारा खेती बोना, और बिना रुचि के किसी कारणवश करना पड़ना 'होना' कहलाता है जैसे कैदी के द्वारा खेती बोना । वास्तव में साधक की अन्तरंग रुचि तो यही रहती है कि किसी प्रकार इन सर्व प्रवृत्तियों को तिलाञ्जली देकर एकमात्र ज्ञायक-भाव में स्थिति पाऊँ, ज्ञानधारा Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ४८. उपसंहार १. निश्चय व्यवहार-मैत्री का आश्रय लूँ, परन्तु अन्दर में उठने वाले इस राग का क्या करें? इससे प्रेरित होने पर न चाहते हुए भी अशुभ से बचने के लिए वह इन क्रियाओं को करता है। यह बात पहले ज्ञानी व अज्ञानी की क्रियाओं में अन्तर बताते हुए (देखो १४.५) स्पष्ट की जा चुकी है। अत: अपनी शंका को दूर करने के लिए पाठक को यह प्रकरण पुन: पढ़ लेना योग्य है । अभिप्रायवश बाहर में दीखने वाली यह प्रवृत्ति वास्तव में अन्तरंग में निवृत्तरूप ही पड़ती है । अशुभ से निवृत्ति, शुभ में प्रवृत्ति तथा उद्यमपूर्वक क्षण भर के लिए शुभ विकल्प से निवृत्त और शान्ति के वेदन रूप अन्तरंग में प्रवृत्ति । यह है अन्तरंग व बाह्य का समन्वय । प्रयोजन यह कि अन्तरंग में किया गया उन क्रियाओं का निवृत्तिरूप यह सूक्ष्म अंश ही शान्तिपथ का बीज है, बाह्य प्रवृत्ति नहीं। वह तो शुभ आश्रव है जिसका निषेध आश्रव अधिकार में पहले किया जा चुका है। अल्प दशा में उस प्रवृत्ति के द्वारा निवृत्ति की सिद्धि होने के कारण ही उसे धर्म का या शान्ति-पथ का अंग कहा जा रहा है, ऐसा सर्वत्र समझना । प्राथमिक दशा के पथिक को अभ्यास के अभाव के कारण, बिना प्रवृत्ति के अन्तरंग निवृत्ति होनी सम्भव नहीं, इसीलिए इन क्रियाओं का प्रतिपादन "पथ-दर्शन में किया गया है। चौथा प्रयोजन है व्यवहारभासी उन लोगों को इन क्रियाओं का रहस्य समझाना जो केवल रूढिवश ही इनको करते जा रहे हैं । पाँचवाँ प्रयोजन है निश्चयभासी उन लोगों को आगमकथित इन क्रियाओं में सार दर्शाना, जो कि कोरा क्रियाकांड समझकर इनसे उपेक्षित होते जा रहे हैं । छठा प्रयोजन है स्वच्छन्दाचारी उन साधरण जनों को आगमकथित इन क्रियाओं व धार्मिक अनुष्ठानों को मूल्यांकन कराना, जो कि धर्म-कर्म को पुराने जमाने की कल्पना समझकर, अपनी स्वच्छन्द प्रवृत्ति के द्वारा स्वयं अपना अनिष्ट कर रहे हैं। इस प्रकार इन छहों प्रयोजनों को दृष्टि में रखकर यदि इस ग्रन्थ को पढ़ें तो इसमें सर्वत्र ही अन्तरंग सापेक्ष बाह्य का और बाह्य सापेक्ष अन्तरंग का अर्थात् निश्चय सापेक्ष व्यवहार का और व्यवहार सापेक्ष निश्चय का दर्शन होने लगे। किसी एक ही बात पर, भले वह निश्चय या अन्तरंग की हो अथवा व्यवहार या बाह्य की आवश्यकता से अधिक जोर देना पक्षपात या एकांत कहलाता है, जिसका निषेध पहले किया जा चुका है। अत: स्व व पर दोनों के हित को दृष्टि में रखकर अब भाषा के इस पक्ष को छोड़, और सरल वृत्ति द्वारा दोनों बातों की सापेक्षता को बराबर दृष्टि में बनाये रखकर ही शान्ति-पथ की कोई बात मुख से निकाल या समझ । संपूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र सामान्य तपोधनानां । देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः. करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः' । करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः, करोतु शान्ति भगवान जिनेन्द्रः ।। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना काल में जल ग्रहण करते हुए श्री जिनेन्द्रवर्णी जी (ब्र० अरिहन्त, ब० मनोरमा, ब्र० निर्मला, ब्र० बाबुलाल व अन्य भक्तगण) सल्लेखना काल में विश्राम करते हुए व आचार्य श्री विद्यासागर जी के सान्निध्य में श्री जिनेन्द्रवर्णी जी Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श सल्लेखना इस ग्रन्थ के प्रणेता परम श्रद्धेय श्री जिनेन्द्र वर्णी जी अपने जीवन के प्रारम्भिक काल से ही ज्ञान ध्यान तथा संयम की साधना में तत्पर रहते थे। 'इतने अस्वस्थ शरीर से इतनी स्वस्थ साधना' यह एक मात्र आपके आत्मबल का ही रिणाम था। जिस प्रकार अपने जीवनकाल में साहित्य सृजन एवं अध्यात्म की अभूतपूर्व साधना की उसी प्रकार जीवन के अन्तिम क्षणों तक आदर्श सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर मोक्षपथगामियों को मृत्यु से अमरता प्राप्त करने का मार्ग प्रदर्शित किया। यहाँ उनकी सल्लेखना का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है सल्लेखना का सूत्रपात समाधि भावना का संकल्प लेकर पूज्य गुरुदेव १९८० में रोहतक चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् नवम्बर मास में रोहतक निवास श्रीमती काँति देवी, ब्र० मनोरमा एवं पानीपत निवासी सुरेश जी को साथ लेकर आचार्य श्री विद्यासागर जी के चरणों में मुक्तागिरी गए। वहाँ से जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के पंचम खण्ड को पूर्ण करने हेतु वाराणसी आए और कार्य पूर्ण कर नवम्बर १९८२ में ब्र० अरिहन्त कुमार जैन को साथ लेकर पुन: आचार्य श्री के पास नैनागिरी गए। आचार्य श्री सरस्वती के परमोपासक को शीघ्र नहीं खोना चाहते थे। इस कारण स्वास्थ लाभ हेतु तीन महीने सागर मोराजी वर्णी भवन में रहने की आज्ञा दी। उस समय आचार्य श्री सम्मेदशिखर जी की वन्दना के लिए प्रस्थान कर गए और वन्दना करके फरवरी १९८३ में सम्मेद शिखर के पादमूल ईशरी शान्ति निकेतन में आए। स्वास्थ्य लाभ होता न देख आचार्य श्री ने वर्णी जी को ईशरी में ही आमन्त्रित किया। आप मोराजी से वाराणसी होते हुए ईशरी पहुँचे । वहाँ पर १२ अप्रैल सन् १९८३ को आपने सल्लेखना व्रत ग्रहण किया। सल्लेखना के समय आचार्य श्री के संघ में ९ ऐलक, ९ मनि तथा तीन ब्रह्मचारी विराजमान थे। वर्णी जी का अनन्य भक्त ब० अरिहन्त कुमार अहर्निश वर्णी जी की सेवा में रहता था। इसके अतिरिक्त उनकी शिष्यायें ब्र० मनोरमा जैन एवं ब्र० निर्मला जैन, रत्ना, सुरेश चन्द जैन एवं पानीपत, रोहतक, कलकत्ता और वाराणसी से आए हुए भक्त गण भी उस काल में वहाँ आते जाते रहते थे। मधुबन तथा अन्य स्थानों से मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका तथा अन्य ब्रह्मचारीगण भी समाधिनिष्ठ वर्णी जी के दर्शनार्थ आते रहते थे। आचार्य श्री के मार्गदर्शन में संघ ने जिस भक्ति व निष्ठापूर्वक सल्लेखना निष्ठ वर्णी जी की वैयावृत्ति का आदर्श उपस्थित किया वह अवर्णनीय है। सल्लेखना के प्रारम्भ से पूर्णता पर्यन्त श्री जिनेन्द्र वर्णी जी की चर्या, प्रगति, धैर्य, विवेक, शान्ति व जागृति का जो प्रत्यक्ष दर्शन हुआ उसका यहाँ स्पष्ट चित्रण कर रही हूँ १२ अप्रैल १९८३ को प्रात: समस्त प्रकार के अन्न का त्याग कर सल्लेखना व्रत ग्रहण किया। समस्त परिग्रह का त्यागकर दिया। दाँत प्रयोग करने का भी त्याग कर दिया। आचार्य श्री से निवेदन किया कि-"बाह्य जीवन आपको सौंपता हूँ तथा आभ्यन्तर परिणामों को मैं स्वयं संभाल लूँगा।" इसके पश्चात् क्रमश: आहार कम करते चले गए । समस्त खाद्य पदार्थों का त्याग कर मात्र लौकी का पानी व मुनक्के के पानी को ही रखा । आचार्य श्री से मौन लेने की प्रार्थना की, परन्तु आचार्य श्री ने कहा कि 'आपके द्वारा किसी भव्य जीव की शंका का निवारण हो सकता है' इसी कारण मौन की स्वीकृति नहीं दी। २१ अप्रैल को प्रात: केशलोंच किया। आचार्य श्री विद्यासागर जी ने उन्हें क्षुल्लक दीक्षा प्रदान का और सिद्धान्त के पारगामी श्री जिनेन्द्र वर्णी जी का नया नाम 'सिद्धान्त सागर' रखा । दीक्षा के पश्चात उपवास किया। २६ अप्रैल तक मुनक्का व लौकी का जल गृहण करते रहे। इसके पश्चात् एक दिन उपवास और एक दिन जल ग्रहण करते थे। १२ मई तक यही क्रम चलता रहा। इसके पश्चात् केवल लौकी का जल व सादा जल ही लेना प्रारम्भ किया। जल की मात्रा भी धीरे-धीरे कम करते जा रहे थे। मख व नेत्रों से प्रखर आत्मतेज झलक रहा था। यदा कदा मुनिचर्या, कर्म सिद्धान्त आदि विषयों पर भी गहन चर्चा होती थी जो कि श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देती थी। १८ मई से लौकी के जल का भी त्याग कर एक दिन सादा जल और एक दिन उपवास का क्रम रहा । २३ मई Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ आदर्श सल्लेखना सल्लेखना का सूत्रपात को जल का भी त्याग कर दिया। २४ मई को समस्त संघ के आहार के पश्चात् पूर्ण जागृत अवस्था में, आचार्य श्री द्वारा णमोकार मन्त्र का श्रवण करते हुए, वस्त्र मात्र का त्याग करके वैशाख शुक्ला त्रयोदशी मंगलवार को प्रात: ११ बजे मंगल पद का परित्याग कर मंगल लोक को प्रस्थान कर गए। चेतना के चले जाने पर भी शरीर ऐसा प्रतीत होता था मानो अर्धनिमीलित नेत्रों से पद्मासन लगाए ध्यानस्थ मुद्रा में विराजमान हों। त्याग, तपस्या व समता की मूर्ति के दर्शन कर जन-जन का हृदय गद्-गद् हो रहा था परन्तु नेत्र अश्रुपूर्ण थे। ईशरी बाजार में विमान यात्रा निकालने के पश्चात् श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी की समाधि के निकट ही देवदार व चन्दन की लकड़ियों पर विराजमान कर गोले, नारियल, घी व कपूर के ढेर के बीच णमोकार मंत्र का उच्चारण करते हुए अग्नि संस्कार कर दिया गया। सांयकाल ४ बजे श्रद्धाञ्जलि सभा हुई। अगले दिन भस्मोत्थान क्रिया हुई। आचार्य श्री सहित समस्त मुनि संघ का उपवास था दोपहर को आचार्य श्री ने प्रवचन में कहा—“आचार्य श्री शान्ति सागर जी के बाद ऐसी सल्लेखना हुई है । जो विरले ही होती है । मुझे विश्वास है कि वे दो तीन भव में अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त करेंगे। मेरी भावना है कि मेरी भी ऐसी ही सल्लेखना हो।" इस प्रकार एक अद्भुत योगी निजदर्शन से, पदस्पर्शन से वचश्रवणन से जन-जन को कृतार्थ कर देह को छोड़ कर अमरता की ओर अग्रसर हो गए। यह थी उनकी आदर्श सल्लेखना, समाधि, मुत्यु पर विजय । यह जन-जन के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत है। बाल ब्र० डॉ० मनोरमा जैन, रोहतक SONar श्री जिनेन्द्रवर्णी जी भगवद प्रतिमा का चरण स्पर्श करते हुए (शान्तिनिकेतन ईशरी) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्ति सुधा कण दुनिया के आप्त पुरुषों व चिन्तकों द्वारा शान्ति व धर्म के विषय में कही हुई उक्तियाँ :(१) आत्म-स्वभाव ही धर्म है और उसी में शान्ति है । (२) जो आत्म-स्वभाव में रमता है वही धर्मात्मा है वही शान्त है । (३) धर्म, अहिंसा, संयम और तप सर्वश्रेष्ठ मंगल है। जिसका मन इस धर्म में लगा रहता है वह अपने स्वभाव को प्राप्त करता है । (४) आत्मा का उद्धार और पतन उसके भावों की निर्भीकता और मलिनता पर निर्भर है । (५) धर्म जीव के वे परिणाम हैं जो उसे दुःख व अशान्ति से निकाल कर उत्तम सुख व शान्ति में धर दें । (६) समदर्शी लोग पाप नहीं करते । (७) जो धर्म के गौरव को पूज्य मानकर शान्त और नम्र रहता है उसी को सच्चा शान्त और नम्र समझना चाहिए। अपना मतलब साधने के लिए कौन शान्त और नम्र नहीं बन जाता है ? (८) लोगो को दिखाने के लिए धर्म का आचरण न करो वरना कुछ फल नहीं पाओगे । (९) जब तक आदमी बुरे कामों से मुँह नहीं मोड़ता, तब तक वह अपने अन्दर शान्ति पैदा नहीं करता । जब तक दुनिया की चीजों का लोभ उसमें से नहीं जाता, तब तक उसका मन शान्त नहीं होता । (१०) जो निष्काम, निस्पृह, निर्मम और निरहंकार है उसे ही शान्ति प्राप्त होती है । (११) आओ हम उन बातों के पीछे लगे जिनसे शान्ति आती है । (१२) धर्म का लक्ष्य है चिरन्तन सत्य का अनुभव । (१३) धर्म एक ही है भले रूप उसके सौ हों । (१४) मनुष्य का बन्धु एक मात्र धर्म है जो मरने के बाद भी उसके साथ जाता है। बाकी हर चीज शरीर के साथ मिट जाती है । (१५) सबसे बड़ी बात बता रहा हूँ-कामना से, भय से, लोभ से अथवा जान बचाने के लिए भी धर्म को कभी न छोड़ें । (१६) मेरे लिए सत्य से परे कोई धर्म नहीं और अहिंसा से बढ़कर कोई परम कर्तव्य नहीं । (१७) धर्म के सर्वोच्च पालन के लिए बिल्कुल निष्परिग्रही हो जाना जरूरी है। समाज में से धर्म को निकाल फेंकने का प्रयत्न बाँझ के पुत्र को पैदा करने जितना ही निष्फल है और अगर कहीं सफल हो जाय तो समाज का उसमें नाश ही है । (१८) शान्ति परमार्थ की पहली सीढ़ी है । (१९) जिस घर में शान्ति है वहाँ भगवान रहते हैं। | (२०) शान्ति के लिए अन्दरूनी परिवर्तन चाहिए बाहरी नहीं । (२१) शान्ति के समान कोई तप नहीं, सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं, तृष्णा से बढ़कर कोई व्याधि नहीं, दया के समान कोई धर्म नहीं । (२२) विश्वास और शान्ति का त्याग प्राणोत्सर्ग हो जाने पर भी न करें । (२३) जो न लोगों को खुश करने की लालसा रखता है, न नाखुश होने से डरता है वही शान्ति का आनन्द लेता है । (२४) अगर तुम्हें अपने में ही शान्ति नहीं मिलती तो बाहर उसकी तलाश व्यर्थ है । (२५) शान्ति सुख का सबसे सुन्दर रूप है । (२६) यदि शान्ति पाना चाहते हो तो लोक-प्रियता से बचो - भ० महावीर -आ० कुन्दकुन्द - भ० महावीर - भ० महावीर -आ० समन्तभद्र - आचारांग सूत्र - भ० बुद्ध - ईसा मसीह - उपनिषद् - गीता - बाइबल - डॉ० राधाकृष्णन् - बर्नर्ड शॉ - मनु -सन्त विदुर -म० गान्धी -म० गान्धी - श्री ब्रह्म चैतन्य -श्री ब्रह्म चैतन्य - स्वामी रामदास - चाणक्य नीति - विवेकानन्द — कैम्पिस -रोशे - चैनिंग -अब्राहम लिंकन Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श सल्लेखना ३१३ सल्लेखना का सूत्रपात (२७) शान्त मन से ज्यादा स्वास्थ्यप्रद और आनन्दप्रद कोई चीज नहीं । -औरिसन स्वेटमार्डन (२८) दनिया की तमाम शानोशौकत से बढकर है आत्म-शान्ति स्थिर और शान्त अन्तरात्मा। -शेकस्पियर (२९) पहले स्वयं शान्त बन, तभी औरों में शान्ति का सञ्चार कर सकता है। -थामस कैम्पी (३०) जो पूर्ण सद्गुणशील है, उसे ही आन्तरिक शान्ति मिलती है। -कनफ्यूशियस (३१) ईश्वर से एक हो जाना ही शान्त होना है। -ट्राइन (३२) जो निर्जनता से डरता है और लोगों के संग से खुश होता है वह अपनी शान्ति खोता है। -फजल अयाज (३३) मौन के वृक्ष पर शान्ति का फल लगता है। -अरबी कहावत (३४) विज्ञान और धर्म एक दूसरे के उसी तरह अविरोधी हैं जिस तरह प्रकाश और बिजली। -रेवरेण्ड फौकी (३५) पानी में नाव रहे मगर नाव में पानी न रहे ऐसे ही मुमुक्षु दुनिया में रहे मगर दुनिया उसमें नरहे । –रामकृष्ण परम हंस (३६) शान्ति के बाधक कारण रागादिक-भावों को हेय समझने से शान्ति का मार्ग तो दिखाई देगा किन्तु शान्ति नहीं मिल सकती । शान्ति तो तभी मिलेगी जब उन बाधक कारणों को हटाया जायेगा। -गणेश प्रसाद वर्णी (३७) सत्य को सजाने की जरूरत नहीं होती, सजाने से उसकी सुन्दरता कम हो जाती है । 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्'-सत्य स्वयं शिव और सुन्दर है। -म० भगवानदीन तेरी महिमा (श्री जय भगवान् एडवोकेट) क्यों तृषायुत, क्यों चिन्तित तू । क्यों आशाहत क्यों याचक तू ? ॥टेक ॥ मधु अमृत से भरा हुआ तू, हास उदय उत्कर्ष पतन के, शान्ति-सुधा का सागर । कर्ता। ज्ञान ज्योति से जगमग जगमग, भव्य विभूति अतुल वैभवमय, आलोकों का आगर ॥१॥ तू भविष्य का धर्ता ॥४॥ जग की सारी लालिम लीला, ब्रह्म ईश का वास तुही है, शोभा सुषमा तुझसे। ऋद्धि सिद्धि का साधक। काल चक्र से युग युग की है, सब मूल्यों का आंकन तुझसे, गौरव गाथा तुझसे ॥२॥ ___ सत्य असत्य का मापक ॥५॥ देव असुर नर पशु अरु पंछी, ज्ञान कला विज्ञान व दर्शन, मीन मकर कृमि भौरे। ___ दान अतुल हैं तेरे । अग्नि वायु जल भूमि वनस्पति, धर्म कर्म अरु रीति नियम जग, रूप विविध हैं तेरे ॥३॥ सब कल्पन हैं तेरे ॥६॥ सत्य महामार्ग अरु ज्योति, तू पौरुष का धाता। पुण्य पाप सुख दुख तथ्यों का, तू है लोक-विधाता ॥७॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनेन्द्र वर्णी साहित्य विषय यथा नाम जैन दर्शन जैन न्याय जैन दर्शन अध्यात्मोपदेश यथा नाम यथा नाम २७०० ३३२ ७५० २७५ ४२० ९६ मूल्य ७३०.०० ९०.०० ६०.०० २१.०० ५४.०० २५.०० १६.०० ४.०० २०० अध्यात्म सं० नाम १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश (भाग १ से ५ तक) २. शान्तिपथ प्रदर्शन ३. नय दर्पण ४. समणसुत्तं (सजिल्द) ५. वणी दर्शन ६. कर्म सिद्धान्त ७. कर्म रहस्य ८. कुन्दकुन्द दर्शन ९. सर्व धर्म समभाव १०. महायात्रा ११. सत्य दर्शन १२. श्रद्धा बिन्दु १३. पदार्थ विज्ञान १४. जैन सिद्धान्त. शिक्षण १५. उपासना (पूजायें) १६. अध्यात्म लेखमाला १७. प्रभुवाणी १८. जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक तुलनात्मक अध्ययन (कर्म बन्धन और मुक्ति प्रक्रिया का विवेचन) (लेखिका-डॉ० कु० मनोरमा जैन) १९. श्रुतस्कन्ध विधान यथा नाम सर्व दर्शन संग्रह वेदान्त परिचय समाज शास्त्र जैन दर्शन ५० ५० - १५० १.०० २०.०० २०.०० अप्रकाशित ३०.०० अप्रकाशित प्रेस में २८० यथा नाम जैन दर्शन अध्यात्म ११६ २५.०० अध्यात्म २० २.०० ४८.०० यथा नाम ८.०० पता-श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला ५८/४ जैन स्ट्रीट पानीपत । (हरियाणा) १३२१०३ नोट-श्री जिनेन्द्र वर्णी ग्रन्थमाला से प्रकाशित साहित्य पर ५०० रु० से अधिक के आर्डर पर २५० छट । पैकिंग व पोस्टेज आदि का खर्च अतिरिक्त । भोपाल में हुए प्रवचनों के (Audio) कैसेट भी उपलब्ध हैं। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________