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१९. सम्यग्दर्शन
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२.विविध अंग विष्टा, तीन दिन पीछे फिर अन्न और फिर मिष्टान्न । इन रूपों का क्या मूल्य ? बहुरूपिये का स्वांग है। वह ज्ञानी इस स्वांग से भली-भाँति परिचित है। उसे इस स्वांग में क्यों भ्रम होने लगा। इसीलिये उसे मिष्टान्न के प्रति आकर्षण और विष्टा के प्रति घृणा नहीं होती, किसी पुरुष में मित्रता और किसी में शत्रुता का भान नहीं होता, किसी में अपनत्व और किसी में परत्व का भाव नहीं आता । यही है उसका निर्विचिकित्सा गुण।
तू तो कुछ सोच में पड़ गया है भाई ! यह सुनकर । सम्भवत: सोच रहा हो कि गृहस्थ की या ऊपर की भी यथायोग्य भूमिकाओं में, ज्ञानी की यथार्थतया यह दशा देखने में नहीं आती, क्योंकि कोई भी मिष्टान्न की बजाए विष्टा खाने को तैयार नहीं और गृहस्थ-ज्ञानी भी पिता व पथिक में एकत्व मानने को तैयार नहीं। फिर एकता कैसे कहते हो? तेरा विचार ठीक है भाई ! ऐसा ही है. तनिक गहराई में उतरकर अभिप्राय की परीक्षा कर बाहा क्रिया को मत देख। यह प्रकरण सम्यक्त्व अर्थात् श्रद्धा के गुणों का है, चारित्र के गुणों का नहीं । अभिप्राय में साम्यता आ जाने पर तुरन्त चारित्र में साम्यता आना आवश्यक नहीं। अभिप्राय पूर्व-क्षण में ही पूरा हो जाता है परन्तु उसके अनुरूप जीवन बनाने में बहत देर लगती है। धीरे-धीरे जीवन या चारित्र भी आगे चलकर उसके अनुरूप अवश्य बन जाता है । देख गृहस्थ-अवस्था में रहते हुए जो व्यक्ति पिता व पथिक में या मित्र व शत्रु में कुछ भेद-व्यवहार करता था, साधु बनने के पश्चात् बिल्कुल नहीं करता। यह गुण क्या उसमें एकदम प्रगट हो गया? नहीं, गृहस्थ-अवस्था में ही साधना के प्रथम क्षण से प्रगट होना प्रारम्भ हुआ था, यहाँ आकर पूर्ण हुआ। पूर्ण हो जाने से पहले भले तू उसे न देख पाये, पर वह उसके जीवन में किंचित् भी न हो ऐसा नहीं था। गृहस्थ अवस्था में भी इस प्रकार का भेद-व्यवहार करने से वह संतुष्ट नहीं था, उसे अपनी इस प्रवृत्ति के प्रति घृणा थी, वह इसके लिए अपने को धिक्कारा करता था और बराबर इस भेद-बुद्धि को दूर करने का प्रयत्न करता था। उस समय उसके अभिप्राय में साम्यता अवश्य थी। उसी ने बढ़ते-बढ़ते अब चारित्र का रूप धारण किया है।
इस प्रकार योगी होने के पश्चात् भी विष्टा व मिष्टान्न में भेद रहता है परन्तु अभिप्राय में जाकर देखे तो अभेद ही है। क्योंकि उसे इस बात का दृढ़ निर्णय है कि दोनों ही पदार्थ केवल ज्ञेय हैं भोज्य नहीं, भले शक्ति की हीनता व शरीर के रागवश उनको भोगने का विचार आता है परन्तु यह विचार अनिष्ट है । बाहर में प्रगट दीखने वाला यह भेद इस राग का कार्य है, अभिप्राय का नहीं। अभिप्राय में तो यही है कि कौन दिन आये कि खाने-पीने के राग से मुक्त हो जाऊँ ?' बस जिस दिन ऐसी अवस्था में प्रवेश कर जाता है अर्थात् अर्हन्त अवस्था में, तो वह अभिप्राय ही पूर्व-दृष्टान्तवत् साकार होकर सामने आ जाता हैं । साधु-अवस्था तक उसे पूर्व-दृष्टान्तवत् इस भेद-बुद्धि के प्रति बराबर आत्मनिन्दन होता रहता है।
विष्टा से तू भी घृणा करता है और एक ज्ञानी भी, पर महान अन्तर है दोनों की घृणा में । तेरी घृणा के पीछे पड़ा है यह अभिप्राय कि यह घृणा तेरे लिए हितकर है और उसक अन्दर में पड़ा है यह अभिप्राय कि यह घृणा उसका दोष है, त्याज्य है, जितनी जल्दी छूट जाए अच्छा है। इसी प्रकार एक भंगी व ब्राह्मण में भी भले वर्तमान-रागवश या पूर्व संस्कारवश वह कुछ भेद करता हो, भंगी से बचने का प्रयत्न करता हो परन्तु अभिप्राय में अपने इस कृत्य की निन्दा करता है, इसे त्याज्य समझता है, जबकि तू इसे ही अपने-लिए हितकारी समझता है। बिल्कुल इसी प्रकार निःशंकित-गुण में कथित ज्ञानी व अज्ञानी की भयरूप प्रवृत्ति में भी अन्तर समझ लेना।
धर्मी का ऐसा स्वभाव ही है । वह कोई बनावट करके यह बात पैदा नहीं करता। उसमें अकृत्रिम रूप से स्वत: ही यह भाव उत्पन्न होता है। किसी की देखमदेखी या सुन-सुनाकर शब्दों में कोई इस साम्यता का गुणगान करने लगे
और घृणा न करे तो वह गुण प्रकट हुआ कहा नहीं जा सकता। क्योंकि अन्तरंग में पड़ी घृणा को कैसे निकालेगा? बनावटी-रूप से घृणा न करे तो निर्विचिकित्सा गुण नहीं बनता। अभिप्राय में अन्तर पड़ना चाहिये जो बिना वस्तुस्वभाव समझे नहीं हो सकता अर्थात् आत्मानुभव हुए बिना नहीं हो सकता।
साधारण चेतन तथा अचेतन द्रव्यों के प्रति तो उपरोक्त प्रकार घृणा का अभाव हो ही जाता है परन्तु इसके अतिरिक्त विशेष गणी जीवों के प्रति यही परिणाम कछ और विशेषता धारण कर लेता है। शान्ति सक अन्य जीवों के प्रति उसे इतना प्रेम व आकर्षण हो जाता है कि यदि कदाचित् ऐसे किसी जीव के शरीर में कोई रोग हो जावे, उसमें से मल आदि बहने लग जावे, उसमें दुर्गन्ध उत्पन्न हो जावे, उसकी ऐसी दशा हो जावे कि किसी का पास खड़े
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