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१९. सम्यग्दर्शन
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२. विविध अंग रहना भी कठिन हो जावे, तो वह धर्मी-जीव उसकी हर प्रकार से सेवा करने में बिल्कुल ग्लानि नहीं करता बल्कि उसकी सेवा करना अपना सौभाग्य समझता है । उसके मल-मूत्र को अपने हाथ पर उठाने में भी उसे संकोच नहीं होता, कफ़ या नासिका के मल को अपने हाथ में धारण कर लेने पर भी ग्लानि उसको नहीं होती । उन पदार्थों के प्रति अल्पावस्था के कारण जो कुछ ग्लानि उसकी प्रवृत्ति में दिखाई देती थी, वह उस पात्र के गुणों के प्रति जो बहुमान उसे उत्पन्न हुआ है, उसमें दबकर रह गई है। यह है उसका निर्विचिकित्सा गुण।
___ अहो शान्ति की महिमा ! जिसके कारण बिना प्रयास के ही इतने गुण स्वत: प्रकट हो जाते हैं। कितना बड़ा कुटुम्ब है इस शान्ति का? बात चलती है धर्मी-जीव के गुणों अथवा उसके लक्षणों की, जिनपर से यह निर्णय किया जा सके कि अमुक व्यक्ति धर्मी है कि अधर्मी अर्थात् शान्ति का उपासक है कि भोगों का? उसके अनेक गुणों में से तीन गुण निशंकता, निराकांक्षता व निर्विचिकित्सा की बात कल चल चुकी। आज अगले कुछ गुणों की बात चलती है।
(४) अनुभव के आधार पर शान्ति का व शान्ति के आदर्श का दृढ़ता से निर्णय हो जाने के कारण, शान्ति के आस्वाद के प्रति अत्यन्त बहुमान उत्पन्न हो जाने के कारण तथा शान्ति के अतिरिक्त अन्य सर्व प्रयोजन लुप्त हो जाने के कारण, अब उसका स्वाभाविक बहुमान शान्ति के आदर्शभूत देव-गुरु-शास्त्र के प्रति अथवा शान्ति रूप धर्म के प्रति अथवा इनके उपासकों के प्रति ही रहता है, किसी अन्यके प्रति नहीं। यह बात.कृत्रिम नहीं होती, क्योंकि लोक में भी ऐसा देखने में आता है कि जुआरी का बहुमान जुआरी के प्रति ही होता है, अन्य के प्रति नहीं। उसमें उसकी दृष्टि भ्रम को प्राप्त होती नहीं । इसी का नाम है अमूढ़दृष्टिपना।
इसका यह अर्थ नहीं कि उनके अतिरिक्त अन्य सर्व से उसे द्वेष हो जाता है। अपने पत्र से प्रेम करने का यह अर्थ नहीं कि दूसरों के पुत्रों से आपको द्वेष हो । राग व द्वेष के अतिरिक्त एक तीसरी बात भी होती है जिसे माध्यस्थता कहते हैं। आप सबको भी माध्यस्थ-परिणाम का भान है, परन्तु यह पकड़ नहीं है कि माध्यस्थता उसी का नाम है । देखिये आपके घर के आगे से अनेकों व्यक्ति आ रहे हैं और जा रहे हैं। आप अपने बरामदे में खड़े होकर सबको देख रहे हैं । बाताइये उनसे आपको प्रेम है कि द्वेष ? न प्रेम है न द्वेष, यह आप भली भाँति जानते हैं। फिर भी उनको क्यों देखते हैं ? इसी का नाम माध्यस्थता है। इसमें न देखने व बोलने का कोई अभिप्राय है और न उनके निषेधका । बस इसी प्रकार का माध्यस्थभाव उन अन्य व्यक्तियों आदि के प्रति उसे रहता है। न उनके प्रति बहुमान का कुछ अभिप्राय है और न निषेध का।
इसी गुण के सम्बन्ध में ठीक-ठीक परिचय न होने के कारण आज साम्प्रदायिक विद्वेष को अमूढ़दृष्टिपना ग्रहण करने में आ रहा है, जिसके कारण आज हम अन्य देवी-देवताओं की निन्दा व अविनय करने तक को तैयार हो जाते हैं, उनके प्रति मुख करके खड़ा होना भी आज हमें सहन नहीं होता। या तो ऐसे स्थानों पर जाते हुए ही हम घबराते हैं और यदि किसी के दबाव के कारण जाना भी पड़े तो उनकी तरफ पीठ करके खड़े हो जाते हैं कि कहीं उनका प्रभाव न पड़ जाये ऐसा करने में हमें इतना भी विचार नहीं रहता कि उनके उपासक जो अन्य भक्तजन हैं, उन्हें हमारी इस प्रवृत्ति को देखकर कितना दु:ख होगा। साक्षात् हिंसा होते हुए भी हम उसे गुण मान बैठे हैं ? भगवन् ! इसका नाम अमूढ़दृष्टिपना नहीं है, यह साम्प्रदायिक विद्वेष है, यह गुण नहीं महान दोष है, अमूढ़-दृष्टि नहीं मूढ़-दृष्टि है। उसके प्रति पीठ घुमाने का अर्थ है यह कि आप उनमें कुछ विशेषता देख रहे हैं। यदि सामान्य दृष्टि से देखा होता तो अपने घर के सामने से गुजरने वाले व्यक्तियों में तथा उनमें क्या अन्तर था ? जैसे माध्यस्थ भाव से उन जाते हुए व्यक्तियों को देखते थे वैसे ही माध्यस्थ भाव से उनको भी देख लेते, क्या बाधा आती थी ?-अत: भगवन् ! अब वीतरागी गुरुओं की शरण में आकर इस साम्प्रदायिक विद्वेष को त्याग । सबके प्रति माध्यस्थता धारण कर ।
(५) शान्ति-पथपर बराबर आगे बढ़नेवाला जीव, उसमें बाधा पहुँचाने वाले अपने अपराधों के प्रति सदा जागृत रहता है, एक क्षण को भी उनसे गाफ़िल नहीं होता। इसीलिये वह सदा अपने जीवन में दोष ही दोष ढूंढ़ने का प्रयत्न करता है । यद्यपि उसको अनेकों गुण प्राप्त हो चुके हैं पर उनके प्रति उसकी दृष्टि नहीं जाती। पूर्णता के लक्ष्य में उसे
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