________________
अनत
१९. सम्यग्दर्शन
१०८
२. विविध अंग कमी ही कमी दिखाई देती है । इस कमी को जिस-किस प्रकार भी दूर करना अपना कर्त्तव्य समझता है। अपने गुणों के प्रतिद ली जाने से अभिमान उत्पन्न हो जाता है। ओह ! 'मैं इन लौकिक रंक-जीवों से कितना ऊँचा हैं. ऐसा अभिमान उसे ऐसी खाई में धकेल देगा जहाँ से वह उठने का नाम भी न ले सकेगा।
इसके विपरीत उसे अन्य जीवों के जीवन में गुण ही गुण दिखाई देते हैं । गुणों के प्रति बहुमान जो है उसे, गुणों को अपने जीवन में उत्पन्न जो करना है उसे ? गुणों का वह सच्चा ग्राहक है। बाजार में जायें तो स्वभावत: आपकी दृष्टि उन पदार्थोंपर ही पड़ती है जिनकी कि आपको आवश्यकता है, अन्यपर नहीं। उसी प्रकार किसी भी अन्य व्यक्ति के जीवन में उसकी दृष्टि गुणों पर ही पड़ती है दोषों पर नहीं, भले ही उसमें दोष पड़े रहें । उनकी उसे आवश्यकता ही नहीं, क्यों देखे उनकी ओर ? |
तात्पर्य यह कि वह सदा अपने दोषों को देखता है और दूसरे के गुणों को, अपने दोषों को प्रकट करता है और दूसरों के गुणों को, अपने गुणों को छिपाता है और दूसरों के दोषों को, अपनी निन्दा करता है और दूसरों की प्रशंसा। दूसरों के दोषों को छिपाने या गोपने के कारण उसके इस गुण का नाम उपगूहन है और साथ-साथ अपने गुणों में वृद्धि करते जाने के कारण इस गुण का नाम उपबृंहण है।
आज हमारे जीवन का अधिक भाग बीता जा रहा है बिल्कुल इससे विपरीत दोष में अर्थात् अपनी प्रशंसा करते हुए और दूसरों की निन्दा करते हुए । आज दूसरों के अनहुए या तृणवत् दोष भी हमें बहुत बड़े भासते हैं और अपने अन्दर पड़े हुए शहतीर जितने बड़े दोष भी दिखाई नहीं देते। अपने अनहुए गुण भी प्रकट करते हुए और दूसरों के
दोषों का भी ढिंढोरा पीटते हए हर्ष मनाते हैं। यह प्रवृत्ति बड़ी घातक है। इसमें अब ब्रेक लगा प्रभू ! अपने हित के लिए दूसरों के लिए नहीं। आत्मप्रशंसा व परनिन्दा करने से दोषों में वृद्धि और आत्मनिन्दा व पर प्रशंसा करने से गुणों में वृद्धि होती है । गुरुदेव की शरण में आकर गुणों में वृद्धि कर दोषों में नहीं।
(६) शान्ति के उपासक का लक्ष्य पग-पग पर अपनी शान्ति की रक्षा करना है। इसलिए प्रारम्भिक अवस्था में जब-जब शक्ति की हीनतावश वह अपनी शान्ति से च्युत होता है तब-तब पुन: उसी में स्थित होने का बराबर प्रयास करता है, ऐसा उसका स्वभाव हो गया है। क्यों न हो? क्या दुकान में हानि हो जाने पर उसमें लाभ प्रकट करने के लिए, स्वभावत: ही आप अधिकाधिक प्रयास नहीं करते हैं ? यह ही है उसका स्व-स्थितिकरण।।
इतना ही नहीं अपनी शान्ति के आस्वाद से छूट जाने पर उसे जो पीड़ा होती है, वह वही जानता है । चक्रवर्ती के षटखण्ड का राज्य छूट जाने पर भी उसे इतनी पीड़ा नहीं होती होगी। इसलिए अन्य शान्ति के उपासकों की पीड़ा भी उसके लिए असह्य है । 'अरे ! इतनी दुर्लभ वस्तु को, अत्यन्त सौभाग्यवश प्राप्त करके भी, यह प्राणी इन कुछ बाह्य बाधाओं के कारण उसे छोड़ने को तैयार हो गया है ? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, मेरे होते यदि वह शान्ति की रक्षा न कर सका तो मेरा जीवन निरर्थक है' तथा इसी प्रकार के अन्य अनेकों विचार स्वत: अन्तर में उठकर उसे बेचैन बना देते हैं, और उसे उस जीव की यथायोग्य रक्षा करने के लिये बाध्य कर देते हैं, चाहे इस प्रयोग में उसे कुछ क्षति ही क्यों न उठानी पड़े। यदि आर्थिक परिस्थिति के कारण वह मार्ग से विचलित हो रहा है तो धन देकर या उसके योग्य कोई काम देकर उसे पुन: वहाँ स्थित करता है। यदि शारीरिक रोग के कारण वह मार्ग से विचलित हो रहा है तो योग्य औषधि देकर तथा शारीरिक सेवा करके उसे पन: वहाँ स्थित करता है। यदि किसी के मिथ्या उपदेश या कसंगति के कारण मार्ग से च्युत हो रहा है तो योग्य उपदेश देकर उसे पुन: वहाँ स्थित करने का प्रयत्न करता है तथा अन्य किन्हीं कारणोंवश यदि वह ऐसा कर रहा है तो जिस-किस प्रकार उसकी यथायोग्य सेवा करने को वह हर समय उद्यत रहता है। याद होगी आपको वारिषेण ऋषि की कथा । अपने शिष्य पुष्पडाल को मार्ग पर स्थित करने के लिये अयोग्य कार्य करने से भी वे न डरे । यह जानते हुए भी कि इस कार्य से लोक में मेरी निन्दा हो जायेगी, वे उसे अपने महल में ले गये और अपनी सकल सुन्दर रानियों को पूरा श्रृंगार करके सामने आने की आज्ञा दी। इस सर्व कार्य में उनका अभिप्राय खोटा नहीं था, केवल पुष्पडाल के मन की शल्य निकालना था । बस इस स्वाभाविक गुण का नाम है स्थितिकरण।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org