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________________ १०९ १९. सम्यग्दर्शन २. विविध अंग हमारी प्रवृत्ति बिल्कुल इसके विपरीत है। किसी साधक के जीवन में किंचित् दोष लगा कि चारों ओर से धुतकारें आनी प्रारम्भ हुई। भगवन् ! रोकिये इस प्रवृत्ति को । कषाय की शक्ति विचित्र है, बड़े-बड़े नीचे गिरते देखे गये हैं, गिरते को गिराने का प्रयत्न न कीजिये। जिस-किस प्रकार भी उसे उठाने का प्रयास कीजिये, उसे धुतकारिये नहीं बल्कि पुचकारिये, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि चलना सीखने वाले अपने बालक को आप पुचकारते हैं जबकि वह चलता-चलता गिर जाता है। (७) शान्ति की उपासना से उसके अन्दर एक यह गुण भी प्रकट हो जाता है कि जहाँ भी किसी अन्य अपनी बिरादरी के व्यक्ति को देख, अर्थात् किसी भी अन्य शान्ति के पथिक को देखा कि उसके हृदय में एक उल्लास उत्पन्न हुआ, जिसका कारण वह स्वयं भी नहीं जानता क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव ही है । किसी दूर देश में आपके नगर का कोई साधारणसा व्यक्ति मिल जाए तो मिलने व बोलने को जी चाहता है उससे । आपका यह गुण नगर-वात्सल्य है और उसी प्रकार उसका वह गुण शान्तिपथ-वात्सल्य है, जिसके कारण एक प्रमोद उमड़ पड़ता है उसके हृदय में । 'इसे मैं सर पर बैठा लूँ या क्या कर, ऐसा किंकर्तव्य-विमूढ़ सा उसकी ओर आकर्षित हो अन्दर ही अन्दर फूल उठता है वह । क्यों न फूले, अपनी शान्ति का स्वाद लेते समय भी तो यही हालत होती है उसकी ? उसके इस स्वाभाविक गुण का नाम है 'वात्सल्य'। उसकी देखमदेखी कृत्रिम रूप से भले कोई वात्सल्य या प्रेम प्रकट करना चाहे परन्तु जब तक उस जीव में शान्ति के दर्शन होते नहीं तबतक उसकी कृत्रिमता का भान अन्तरंग में साक्षात् होता रहता है। ऐसे कृत्रिम वात्सल्यका नाम वात्सल्य नहीं है। (८) शान्ति के आस्वादन से प्रभावित होकर उसका जीवन बराबर उसकी ओर बढ़ता जाता है। किसी ऐसे साञ्चे में ढलता जाता है कि जिसे देखकर लोगों को आश्चर्य होता है । कुटुम्बादि व धनादि की तो बात दूर रही, शरीर से भी उपेक्षा होती चली जाती है उसे, विरक्तता बढ़ती जाती है उसकी, साम्यता व सरलता आती जाती है उसमें, जिसके कारण द्वेषादिका पता नहीं पाता, सबके प्रति कल्याण की भावना जागृत हो जाती है उसके हृदय में। ऊपर बताये हुए सात महान गुण तथा उनके अतिरिक्त अनेकों अन्य गुण प्रकट हो जाते हैं, जीवन अलौकिक बन जाता है, ऐसा कि उन्हें देखकर अन्य जीव भी आकर्षित हुए बिना न रह सकें, प्रभावित हुए बिना न रह सकें । यह है उसका प्रभावना गुण। _ 'सर्वजीवों का कल्याण हो, किसी प्रकार शान्ति के प्रति उन्हें भी बहुमान हो', ऐसी शुभाकाँक्षा लेकर वह बाहर में । अनेक प्रकार के उत्सव तथा शान्ति के प्रदर्शन करता है ताकि साधारणजन उसे देखकर कुछ प्रभावित हों और उनके हृदय में शान्ति के लिए जिज्ञासा उत्पन्न हो । उसकी देखमदेखी लौकिक जीवों द्वारा जो उत्सव आदि किये जाते हैं उसका नाम प्रभावना गुण नहीं है क्योंकि उनकी उन क्रियाओं में से केवल साम्प्रदायिकता झांक रही है, शान्ति नहीं। आज के उत्सव आदि में केवल धन का प्रदर्शन है, जीवन का नहीं। वैराग्य के प्रकरणस्वरूप भगवान की पंच-कल्याणक प्रतिष्ठायें भी आज शान्ति व वैराग्य प्रदर्शन से शून्य केवल खेल-तमाशा बनकर रह गई हैं, जिसमें ढोल-बाजों के अतिरिक्त कुछ नहीं है । इस प्रकार के मेलों पर लाखों रुपया व्यर्थ खोकर भले यह समझ लिया जाए कि धर्म-प्रभावना हुई पर यह धन-प्रभावना है, धर्म-प्रभावना नहीं। (९) शान्ति में स्नान करते रहने के कारण उसके जीवन में इतनी सरलता व साम्यता आ जाती है कि क्रोधादि की तीव्रता तो दूर लौकिक स्वार्थ का भी अभाव हो जाता है। उसके रोम-रोम में शान्ति खेलने लगती है सबकी पीड़ा को अपनी पीड़ा समझने लगता है । उसको देखकर दूसरों को भी कुछ शान्ति प्रतीत होती है, ऐसा है उसका प्रशम गुण। (१०) बाह्य विषय-भोगों में अब उसे रस नहीं आता । शान्ति के सामने इनका क्या मूल्य ? हलवामांडा खाने को मिले तो सूखी ज्वार की रोटी कौन खाये ? अत: भोग सामग्री से उसे स्वत: ही अन्तरङ्ग में कुछ उदासीनता सी हो जाती है। कृत्रिम-रूप से देखमदेखी इस सामग्री का त्याग करने का नाम उदासीनता नहीं है। उनका त्याग न करके भी गृहस्थ में रहते हुए ही इनमें पूर्ववत् रस आना बन्द हो जाए ऐसा वैराग्य या संवेग उत्पन्न हो जाता है । संसार के इस ज जाल से मानो अब उसे कंपकंपी सी छूटने लगती है। घर में संचित पदार्थों का ढेर देखकर उसका कलेजा हिलने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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