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१९. सम्यग्दर्शन
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२. विविध अंग
लगता है । जिस कमरे को बड़ी रुचिपूर्वक उसने सजाया था, आज मानो वह उसे खाने को दौड़ रहा है । संसार के प्रति उसे कुछ भयसा उत्पन्न हो जाता है। यह है उसका निर्वेद गुण।
(११) दुःखी जीवों को देखकर स्वत: ही बिना किसी स्वार्थ के उसका कलेजा पसीज उठता है । 'अरे ! यह भी तो शान्ति का पिण्ड है। उसे भूलकर बेचारा संतप्त है आज । अवश्य ही इसकी पीड़ा का निवारण होना चाहिये' इत्यादि अनेक प्रकार के विकल्प खड़े हो जाते हैं और अपनी शक्ति अनुसार यथायोग्य रूप में उसकी पीड़ा की निवृत्ति का उपाय करता है, ऐसा है उसका स्वाभाविक करुणा व दया गुण।।
(१२) शान्ति का साक्षात् वेदन हो जाने पर, 'अरे ! यह रहा मैं तो, अन्तरङ्ग में प्रकाशमान, व्यर्थ ही ढूंढता फिरा इधर-उधर' ऐसा भाव प्रकट हो जाता है उसके सम्बन्ध में अब उसे कोई शंका नहीं होती, चाहे कोई कितना भी कहे वह दृढ़ रहता है। आँखों-देखी बात को कौन अस्वीकार कर सकता है ? बस इसी प्रकार स्वयं अनुभव की हुई अपनी सत्ता के प्रति कौन संशय कर सकता है ? अपनी सत्ता का निर्णय हो जाने पर स्पष्टतया अन्य प्राणियों की सत्ता का निर्णय हो जाना स्वाभाविक है क्योंकि उन सबमें उसे अपना जातिपना दिखाई दे रहा है। अपने जातिपने से रहित अन्य जड़ या अचेतन पदार्थों की सत्ता का भी अनुभवात्मक व रहस्यात्मक निर्णय हो जाता है। समस्त विश्व की सत्ता का निर्णय ही उसका आस्तिक्य गुण है । 'अस्ति' शब्द का अर्थ है 'होना' । होने पने के निर्णय को अर्थात् पदार्थों की सत्ता के निर्णय को आस्तिक्य कहते हैं । 'जो वेदों को माने सो आस्तिक, जो न माने सो नास्तिक', आस्तिक्य व नास्तिक्य की इस व्याख्या में साम्प्रदायिकता झांककर देख रही है, अत: यह व्याख्या ठीक नहीं है । 'विश्व की तात्त्विक सत्ता को स्वीकार करे सो आस्तिक, इसकी सत्ता को स्वीकार न करे सो नास्तिक' ऐसी व्याख्या ही ठीक है। ___परन्तु सुन सुनाकर 'मैं हूँ, जीव है, अजीव है, विश्व है' इत्यादि रूप स्वीकृति भी वास्तव में आस्तिक्य नहीं है। क्योंकि अनुभव के बिना, 'मैं कौन तथा अन्य कौन' यह जान नहीं पड़ता। केवल अन्धों की भाँति टटोलकर भले कहता रहूँ कि यह जीव है, अजीव है इत्यादि।
- (१३-१६) उसकी तात्त्विक दृष्टि में सब शान्ति के आवास तथा आत्मवत् प्रतीत होते हैं । यह है उसका मैत्री भाव । जहाँ मैत्री है, जहाँ वात्सल्य है, जहाँ कारुण्य है, जहाँ किसी के प्रति ग्लानि नहीं, जहाँ किसी का दोष दिखाई नहीं देता वहाँ अभिमान को अवकाश नहीं । तत्त्वज्ञ को न कुल जाति का मद होता है, न धन ऐश्वर्य का और न ज्ञान चारित्र तथा तप का । उसका अहंकार गलित हो जाता है।
सम्यग्दर्शन को प्राप्त जीवात्मा का परमात्मस्वरूपअन्तःशून्यं बर्हिशून्यं, चित्तशून्यं विकल्पमुक्तं । अन्तःपूर्णं बर्हिपूर्ण, शान्तिपूर्ण हि मोक्ष तत्त्वं ॥
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