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२०. समन्वय
( १. सप्ततत्त्व समन्वय; २. रत्नत्रय समन्वय; ३. स्याद्वादः ४. उपसंहार।
१. सप्ततत्त्व समन्वय-दर्शन-खण्ड के प्रारम्भ में धर्म के अनेक लक्षण बताते हुए एक लक्षण श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र बताया गया था। उन तीनों का तथा श्रद्धा के आधारभूत सात तत्त्वों का कथन अब तक विस्तार के साथ किया गया। उस सकल विस्तार में सर्वत्र इस बात पर जोर दिया गया कि पाठक इन तीनों को अथवा इन सातों को पृथक-पृथक तथा स्वतन्त्र कुछ न समझकर एक ही जीवनोपयोगी अखण्ड-मार्ग के विभिन्न अंग समझे, जिस प्रकार कि हाथ पाँव आदि एक ही अखण्ड-शरीर के विभिन्न अंग हैं। खण्ड की समाप्ति पर यहाँ पुन: इन सर्व अंगों का एकीकरण कर देना आवश्यक है। ___ वास्तव में श्रद्धा व ज्ञान के विषयभूत सातों तत्त्वों का शाब्दिक परिचय मात्र ही हो सका है अर्थात् इनका शाब्दिक ज्ञान ही हआ है, परन्तु इनके रसात्मक रहस्य का अनुभव अभी नहीं हो सका है। यदि हो जाता तो इन सात तत्त्वों में भी भेद देखने में न आता और उपरोक्त धर्म के तीन अंगों में भी भेद दिखाई न देता। इसलिये यह शाब्दिक ज्ञान वास्तविक महत्ता को प्राप्त हआ नहीं कहा जा सकता। परन्त फिर भी 'इस शाब्दिक ज्ञान के बिना श्रद्धा किसकी करे और जीवन में किसे उतारे', इस दृष्टि से देखने पर इस ज्ञान की भी महिमा अपार हो जाती है। परन्तु यह महिमा उसी के लिए है जो इसे जानकर इसके अनुसार अपने जीवन में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास करे। केवल शब्दों के जानने में सन्तोष धार ले तो ज्ञान हुआ और न हुआ बराबर है, उल्टा अभिमान का कारण बनकर और भी अनिष्ट कर सकता है।
यहाँ तक कथित सात खण्डों में विभक्त इस विस्तृत वक्तव्य के अनुसार अपने जीवन को ढालने के लिए इन सातों में परस्पर क्या मेल है यह जानना आवश्यक है । क्योंकि भले ही जानने में या बताने में शब्दों की क्रमिकता के कारण इस अखण्ड एक विषय के सात खण्ड बनाये गये हों, पर जीवन में यह सात-खण्ड-रूप से उतारा नहीं जा सकता। जैसे कि पहले प्रकरण ६.१ में एक श्रद्धा के विषय को प्रयोजनवश विश्लेषण करके सात भागों में विभाजित किया गया, उसी प्रकार अब वह प्रयोजन पूरा हो लेने पर उन सातों खण्डों का एकीकरण करना भी आवश्यक है, क्योंकि श्रद्धा वास्तव में सात नहीं एक है । जिस प्रकार रोग का प्रतिकार करने के लिये वैद्य के द्वारा बताई गई औषधि का जो प्रयोग करने में आता है, उसकी आधारभूत श्रद्धा में भले सात खण्ड पड़े हों पर वह श्रद्धा एक है; इसी प्रकार इस विकल्प रोग के प्रशमनार्थ जो प्रयास जीवन में किया जाने वाला है, उसकी आधारभूत श्रद्धा में ये सात खण्ड भले पड़े हों पर श्रद्धा एक है । और वह इस प्रकार है___मैं वास्तव में शान्ति का पिण्ड तथा चैतन्यात्मक अमूर्तीक पदार्थ हूँ, परन्तु अपने को व अपने अन्दर पड़ी शान्ति को भूल जाने के कारण मैं इन दोनों की खोज शान्ति-अशान्ति-विहीन अचेतन तथा मूर्तीक शरीर में अथवा धनादि जड़ पदार्थों में करता फिर रहा हूँ। बिल्कुल उस मृग की भाँति जिसकी नाभि में छिपी है गन्ध, पर उसे बाहर में खोजता हुआ उसे कहीं न पाकर व्याकुल हो रहा है, मैं भी व्याकुल बना हुआ हूँ। यह जीव व अजीव तत्त्व की एकता हुई। उपरोक्त भूल के कारण नित्य ही नए-नए विकल्प व इच्छायें धारण करके, इच्छाओं सम्बन्धी पुष्ट संस्कारों को और अधिक पुष्ट करते हुए, व्याकुलता में प्रतिक्षण वृद्धि करता रहता हूँ । यह मेरा अपराध है और इसी को आस्रव-बन्ध तत्त्व कहते हैं । जीव-अजीव तत्त्व के साथ आस्रव-बन्ध का इस प्रकार मेल बैठा लेने पर यह चारों मिलकर एक हो जाते हैं। यदि उन्हीं जीव और अजीव में स्वपर-भेद विज्ञान प्रकट करके इस भूल को दूर कर दूं तो अपनी शान्ति को बाहर खोजने की बजाय अन्दर में खोजने लगू अर्थात् इन्द्रिय-ग्राह्य जो अजीव तत्त्व है उस पर से अपना लक्ष्य हटाकर अन्दर में प्रकाशमान जो जीव तत्त्व है उसका आश्रय लूँ । और वह वहाँ है ही, इसलिए अवश्य उसे खोजने में मैं सफल हो जाऊँ । शान्ति के दर्शन होते ही बाह्य
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