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________________ २०. समन्वय ११२ २. रत्नत्रय समन्वय के विकल्प समाप्त होते चले जायें; अधिकाधिक उस शान्ति में स्थिरता धरने से, पूर्व के विकल्प उत्पन्न करने वाले संस्कार कटते चले जायें और इस प्रकार करते-करते एक दिन संस्कारों व विकल्पों से पूर्णतया मुक्त निर्बाध शान्ति का उपभोग करने लगू यही है जीव और अजीव के साथ संवर, निर्जरा व मोक्ष तत्त्व की एकता। सातके दो खण्ड हो गये-एक व्याकुलता उत्पन्न करने सम्बन्धी और दूसरा व्याकुलता दूर करने सम्बन्धी । पहला हेय है और दूसरा उपादेय । इन दोनों को मिला देने से पूर्ण-मार्गकी रूपरेखा दृष्टि में आ जाती है अर्थात् व्याकुलता के कारणभूत पहले खण्ड को छोड़कर शान्ति को उत्पन्न करने वाले अगले खण्ड में विचरण करूं तो धीरे-धीरे पहला खण्ड कम होता जाए और दूसरा खण्ड बढ़ता जाए। ऐसा करते हुए एक दिन पहला खण्ड विनष्ट हो जायेगा और दूसरा खण्ड पूर्ण हो जायेगा । बस इस प्रकार इन सातों बातों में हेयोपादेयता का मेल बैठाकर श्रद्धा का एक अखण्ड विषय बन जाता है। २. रत्नत्रय समन्वय-यद्यपि यहाँ तक इस सप्तात्मक एक अखण्ड विषय का ज्ञान भी हो गया और उसके अनुरूप शाब्दिक श्रद्धा भी हो गई परन्तु जीवन का ढलाव भी साथ-साथ जब तक उसके अनुरूप न होने लग जाए अर्थात् उसका झुकाव बाह्य-द्रव्यों के विकल्पात्मक आश्रय से हटकर अन्तरंग-शान्ति की खोज में न लग जाए, बाह्य-द्रव्यों से किञ्चित् उदासीनता न आ जाए और इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ प्रारम्भ में अधिकाधिक समय साधना के अङ्गभूत देवपूजा आदि क्रियाओंमें देने न लग जाए, तब तक वह श्रद्धा 'श्रद्धा' नहीं कही जा सकती। इस सप्तात्मक मार्ग को भली-भाँति युक्ति द्वारा जानकर, इसपर 'ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं ऐसी दृढ़ श्रद्धा करके, अपने जीवन को उसके अनुरूप ढालने या आचरण करने का नाम ही शान्ति का मार्ग है। इनमें यगपत ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र तीनों खण्ड पड़े हुए हैं। यही है शान्तिमार्ग की या मोक्ष-मार्ग की या धर्म-मार्ग की त्र्यात्मकता जिसमें ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र तीनों मिलकर एक हो गये हैं। इतना विशेष है कि साधना-खण्ड में कथित देवपूजा आदि प्रवृत्तियों में जिस-किस प्रकार भी, राग-प्रवृत्ति से हटने की प्रधानता रहती है। यथाशक्ति स्थूल-विकल्पों से निवृत्ति पाकर अन्तरंग में उतने की तथा वहाँ पड़ी हुई निज-शान्ति में प्रवृत्ति पाने की ही प्रधानता सर्वत्र जाननी चाहिए। इसीलिये जब तक इस धर्म का वास्तविक फल अर्थात् उस चौथी कोटि की शान्ति का साक्षात् वेदन नहीं हो जाता तब तक न चारित्र रहस्यात्मक है, न श्रद्धा रहस्यात्मक है और न ज्ञान रहस्यात्मक है। ज्ञान व श्रद्धा का आधार है उपदेश और चारित्र का आधार है शरीर, इसलिये इस स्थिति में रहने वाले ये तीनों ही खण्ड सच्चे नहीं कहे जा सकते। परन्तु क्योंकि पहली दशा में ऐसा किये बिना उस रहस्य का वेदन होना असम्भव है, इसलिये इस प्रकार की झूठी त्रयात्मकता भी कार्यकारी है । प्रारम्भिक भूमिका में इसका बड़ा महत्त्व है परन्तु प्रयास कुछ अन्तरंग की प्राप्ति के प्रति अवश्य होना चाहिये। केवल शारीरिक क्रियाओं में संतोष धारे तो उस त्रयात्मकता का कोई मूल्य नहीं। धीरे-धीरे इस प्रकार जीवन को एक नई दिशा की ओर घुमाकर धैर्य व साहस-पूर्वक इस पर आगे बढ़ते जाए तो एक दिन ऐसा आ जाना सम्भव है जबकि एक क्षण मात्र के लिये उस लक्ष्य का साक्षात्कार हो जाए। उस समय अन्तरंग में क्या चिन्ह प्रकट होंगे सो पहले ही शान्ति के प्रकरण में बताये जा चुके हैं । (देखें अधिकार ३) उस समय एक अपूर्व कृतकृत्यतासी उत्पन्न होने लगेगी, एक विचित्र संतोष व हल्कापनसा प्रतीत होगा और वे ज्ञान व श्रद्धा जो इस समय तक शब्दात्मक थे अब एक नया रूप धारण कर लेंगे। “अरे ! यह है वह रहस्य, यह हूँ मैं साक्षात्-रूप से अपने अन्तरंग में विराजमान, शान्ति के वेदन से अत्यन्त तृप्त, सर्वाभिलाषा से मुक्त । वाह वाह ! कितना सुन्दर है यह ? यह तो है बिल्कुल पृथक्, यह रहा । वास्तव में कुछ भी सम्बन्ध है नहीं इन दूसरों से इसका । व्यर्थ ही अब तक व्यग्र बना रहता था, व्यर्थ ही इसकी खोज इतनी कठिन समझता था। यह मैं ही तो हूँ । अरे वाह-वाह ! कितनी विचित्र बात है ? आजतक यों ही मारा-मारा फिरता रहा इसकी खोज में । इस शान्ति को छोड़कर अब कहाँ जाऊँ ? कुछ भी प्रयोजनीय नहीं है। बस अब मुझे कुछ नहीं चाहिये। यह था वह जिसकी मुझे इच्छा थी।" इत्यादि प्रकार के विकल्प व उद्गार उत्पन्न हो जायेंगे। बस उसी क्षण से वह श्रद्धा अब इस रूप में न रह जायेगी कि 'गुरु का उपदेश है इसलिये यह ऐसा ही है, बल्कि इस रूप हो जायेगी कि 'मैने स्वयं इसका फल चखा है, इसलिये यह ऐसा ही है'। अब इसका आधार उपदेश की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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