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२०. समन्वय
३. स्याद्वाद् बजाय अनुभव हो गया है। अब यह श्रद्धा पराश्रित नहीं रही स्वाश्रित हो गई है, शब्दात्मक नहीं रही रहस्यात्मक हो गई है। अब यह श्रद्धा तीन कोटियों का उल्लंघन करके चौथी कोटि में पहुँच चुकी है, इसलिये इसी का नाम वास्तविक व सच्ची श्रद्धा है। इसके हो जाने पर ज्ञान भी रहस्यात्मक बन जाने के कारण सच्चा हो गया है और चारित्र भी रसास्वादनरूप हो जाने के कारण सच्चा हो गया है । वास्तव में सच्चे मार्ग का प्रारम्भ इस दशा के पश्चात् ही होता है। पहले की त्रयात्मकता में शाब्दिक ज्ञान की प्रमुखता थी और इस रहस्यात्मक त्रयात्मकता में रसास्वादरूप अनुभव सम्बन्धी श्रद्धा की मुख्यता है । इसलिये जहाँ सच्चे मार्ग या धर्म का निरूपण किया जाता है वहाँ ज्ञान को प्रथम स्थान न देकर श्रद्धा को प्रथम स्थान दिया जाता है। अब इस त्रयात्मकता का रूप ज्ञान, श्रद्धा व चारित्र न रहकर श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र बन जाता है, क्योंकि ज्ञान की रहस्यात्मकता का कारण अनुभवात्मक श्रद्धा है और आगे-आगे चारित्र में प्रेरक होने वाली भी बजाय गरु के वही रहस्यात्मक श्रद्धा है। पहले की भाँति अब गरु के कहने के कारण आगे नही बढेगा बल्कि इस स्वाद का व्यसन पड़ गया है इसलिये आगे बढ़ेगा। इसी स्वाद की प्रेरणा से पुरुषार्थ आगे-आगे अधिकाधिक उत्तेजित होता जायेगा और एक दिन श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र मिलकर तीनों एक शान्ति में निमग्न हो जायेंगे। वहाँ न होगी श्रद्धा, न ज्ञान और न चारित्र । मैं हूँगा और मेरी शान्ति, एक अद्वैत दशा होगी वह।
३. स्याद्वाद्-यद्यपि दर्शनखण्ड समाप्त हुआ, परन्तु इस पर से यह नहीं समझ लेना चाहिये कि जैन दर्शन भी यहाँ ही समाप्त हो गया है । ठीक है कि जन साधारण में इसका इतना मात्र ही स्वरूप प्रसिद्ध है परन्तु वास्तव में देखा जाए तो यह इसकी एक किरण मात्र है जिसकी झलक देशकाल की मांग के अनुसार आज से २५०० वर्ष पूर्व भगवान वीर ने जगत के समक्ष प्रस्तुत की थी। इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान तत्त्व के विषय में इतना ही कुछ जानते थे। जानते वे सब कुछ थे परन्तु नैतिक तथा धार्मिक ग्लानि के जिस युग में उनका व्यक्तित्व रंग मंच पर उदित हुआ था उस युग में तत्त्वोपदेश की बजाय धर्मोपदेश की अधिक आवश्यकता थी। यही कारण है कि अपने समकालीन बौद्ध-दर्शन की भाँति उनका दर्शन भी तत्त्व-प्रधान न होकर प्राय: धर्म-प्रधान रहा। धर्म के क्षेत्र में जितनी तात्त्विक चर्चा आवश्यक थी उतनी ही उन्होंने की. उससे अधिक नहीं। अनावश्यक चर्चाओं में उलझना उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया।
इसलिये भगवान वीर के द्वारा प्रतिपादित प्रस्तुत सात तत्त्वों में तत्कालीन बौद्ध दर्शन के चार आर्य सत्यों की भांति केवल व्यक्ति के पतन तथा उत्थान के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन कराया गया है अन्य कुछ नहीं। व्यक्ति के जीवनोत्थान के क्षेत्र में इतना मात्र ही पर्याप्त है। प्रसंगवश यदा-कदा उदित होने वाली आत्मा परमात्मा विषयक जटिल तात्त्विक चर्चाओं का दोनों ही महापुरुषों ने जिस-किस प्रकार वारण करने का प्रयत्न किया। ऐसी परिस्थितियों में महात्मा बुद्ध यह कहकर प्रश्न को टाल देते थे कि 'किसने देखा है आत्मा परमात्मा ? ऐसी चर्चाओं को छोड़कर जीवनोपयोगी चर्चायें करने में ही कल्याण है' । इसलिये बौद्ध-दर्शन आगे चलकर नास्तिक तथा अनात्मवादी प्रसिद्ध हो गया। दूसरी ओर भगवान वीर इतना शुष्क उत्तर न देकर एक ऐसी प्रेममयी पद्धति का प्रयोग करते थे जिससे प्रश्नकर्ता भी सन्तुष्ट हो जाता था और प्रश्न का वारण भी सहज हो जाता था। 'स्यात् अर्थात् किसी एक दृष्टि से तुम ठीक ही कह रहे हो', बस इतना मात्र संक्षिप्त सा उत्तर होता था और कुछ नहीं। इसलिये भगवान वीर 'स्याद्वादी' प्रसिद्ध हुए। उनकी इस विचित्र कथन पद्धति ने ही आगे जाकर 'स्याद्वाद्' नामक एक सांगोपांग महा-दर्शन का रूप धारण कर लिया।
दर्शन-शास्त्र का विषयभूत 'सत्य' अनन्त है जिसे बुद्धि की संकीर्ण सीमाओं में बद्ध नहीं किया जा सकता। किसी भी एक बुद्धि से यह आशा करना कि वह उसका पूर्ण दर्शन कर लेगी, दुराशा है। अनादि काल से आज तक ऋषिजन तथा मनीषीजन उसका अन्वेषण करते आ रहे हैं । परन्तु न आजतक उसका अन्त आया है और न आयेगा। इसलिये दर्शनों की संख्या निर्धारित की जानी सम्भव नहीं है। अनन्त हो सकते हैं वे । कोई उसमें विभुत्वका दर्शन करता है और कोई प्रभूत्वका, कोई सर्वगतत्व का और कोई असर्वगतत्व का, कोई समष्टि का और कोई व्यष्टि का, कोई एकत्व का और कोई अनेकत्व का, कोई नित्यत्व का और कोई अनित्यत्व का, कोई चेतनत्व का और कोई जड़त्व का, कोई द्वैत का और कोई अद्वैत का। तात्पर्य यह कि जितने दृष्टा उतने ही उनके दृष्टिपथ, जितने दृष्टिपथ उतने ही उनके वचनपथ, जितने वचनपथ अथवा दृष्टिपथ उतने ही दर्शनपथ । अनन्तों भूतकाल में उदित होकर कालकवलित हो गये,
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