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२०. समन्वय
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३. स्याद्वाद् अनन्तों विद्यमान हैं और अनन्तों आगे उत्पन्न होने वाले हैं। पुरुष कितना भी महान् क्यों न हो, अकेला एक जिह्वा से सारे विश्व को उपदेश दे सके यह सम्भव नहीं। इसलिये भारत हो या अभारत सर्वत्र ही, युग की माँग के अनुसार समय-समय पर, महापुरुष उत्पन्न होते रहे हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। कोई उन्हें तीर्थंकर कहता है, कोई अवतार, कोई ऋषि. कोई पैगम्बर और कोई ईश्वर-पत्र ।
इस प्रकार ऋषिसन्तान की तथा उसके दर्शनों की यह देशकालानवच्छिन्न धारा नित्य बहती रही है और बहती रहेगी। जिस प्रकार किसी एक महानदी का प्रत्येक जलकण पूर्ण नदी न होकर केवल उसका एक क्षुद्रांश है, इसी प्रकार दर्शनों की इस महाधारा का प्रत्येक दर्शन पूर्णदर्शन न होकर केवल एक किसी महादर्शन का क्षुद्रांश है । अपने-अपने दृष्टिकोण से एक ही सत्य को देखने के कारण सभी वास्तव में उस सत्य के आंशिक अथवा आपेक्षिक अध्ययन-मात्र हैं। इस स्थलपर में आपसे क्षमा चाहूँगा, क्योंकि हो सकता है कि लौकिक पद्धति के अनुसार आपको मुझसे यह आशा हो कि मैं अन्य दर्शनों का खण्डन करके जैनदर्शन की महत्ता स्थापित करूँ। मेरी दृष्टि में तात्त्विक दर्शन की महत्ता खण्डन में नहीं है समन्वय में है, और वास्तव में यही जैनदर्शन की अथवा स्यात्पद से लांछित इसकी वाणी की महत्ता है।
'णाणाजीवाणाणाकम्मं, णाणाविहं हवेलद्धी।
तम्हा वयणविवादं, सगपरसमएहिं वज्जिज्जा।।' इस संसार में नाना प्रकार के जीव हैं, नाना प्रकार के कर्म हैं, नाना प्रकार की लब्धियाँ हैं, इसलिये कोई स्वधर्मी हो या परधर्मी, किसी के भी साथ वचन विवाद करना उचित नहीं है।
नि:सन्देह जैन-दर्शन ने जगत को अनेकों बहुमूल्य रत्न प्रदान किये हैं, जिनके-लिये जगत सदा इसका ऋणी रहेगा परन्त स्याद्वादी होने के नाते इसके अनसन्धान का द्वार बन्द नहीं हो गया है। आओ स्वतन्त्र सन्धान के निष्पक्ष वैज्ञानिक क्षेत्र में प्रवेश करके स्याद्वाद् का गौरव बढ़ायें । इसे जगत को अभी बहुत कुछ देना है।
अन्य दर्शनों के प्रति अदेख का भाव छोड़कर यह देखने का प्रयत्न करें कि उन्होंने किस दृष्टिकोण से उस सत्य को परखा है। यही है जैनदर्शन की पूर्णता और इसके प्रतिपादक महर्षियों की सर्वज्ञता । तनिक विचारिये तो सही कि जितना कुछ आप विभिन्न विषयों के सम्बन्ध में जानते हैं, क्या उतना सब आप लिख सकते हैं या कहकर बता सकते हैं ? भले ही सर्वज्ञ ने सब कुछ जान लिया हो परन्तु उसके लिये भी क्या यह सम्भव है कि जितना कुछ उन्होंने जाना वह सब कहकर बता दें?
"पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं ।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥" "जाननीय भावों का अनन्त-बहुभाग तो अनभिलाप्य अर्थात् न कहा जाने योग्य ही रह जाता है। केवल उसका अनन्तवां भाग ही कहा जाने योग्य हो पाता है और उसका भी केवल अनन्तवां भाग ग्रन्थों में निबद्ध हो पाता है।" जितना कुछ निबद्ध हो पाया है उसका असंख्यातवां भाग भी आज उपलब्ध नहीं है । ग्रन्थ या आगम के इतने मात्र उपलब्ध अंशपर-से कौन यह कहने का साहस कर सकता है कि जितना कुछ उपलब्ध जैन-शास्त्रों में लिखा है उतना कुछ ही जानना सत्य है, उससे अधिक नहीं। इसका अर्थ यह होगा कि सर्वज्ञ इतना ही जानते थे, इससे अधिक नहीं। बहुत सम्भव है कि जिन जाननीय अथवा प्रज्ञापनीय तथ्यों का उल्लेख आज अन्य दर्शनों में उपलब्ध है, उन्हीं का प्रतिपादन किसी इतिहासातीत काल में जैन ऋषियों ने अथवा भगवान वीर से पूर्ववर्ती किन्हीं तीर्थंकरों ने भी किसी न किसी रूप में किया हो और आज वह हमें उपलब्ध न हो रहा हो । धवला ग्रन्थ में अनेकों ऐसे तथ्य प्राप्त होते हैं जिन्हें इसके प्रकाश में आने से पहले कोई सुनने तक को तैयार नहीं था। समयसार का प्रचार होने से पहले कौन पुण्य को पाप समान और संयम, तप, त्याग आदि को विषकुम्भ कहने का साहस कर सकता था।
निष्पक्ष तथा विशाल-दृष्टि से सम्पन्न महर्षिजन ही ऐसा घोष करने के लिये समर्थ हो सकते हैं । कि स्वभाववाद, आत्मवाद, कालवाद, ईश्वरवाद, संयोगवाद, पुरुषार्थवाद, नियतिवाद, दैववाद, अद्वैतवाद, नित्यवाद,. अनित्यवाद, एक-तत्त्ववाद, अनेक-तत्त्ववाद आदि जितने कुछ भी वचनवाद आजतक दार्शनिक अथवा व्यवहारिक क्षेत्र में प्रसिद्ध हो चुके हैं। अथवा आगे होने वाले हैं, वे सभी पूर्ण सत्य न होकर एकाङ्गी सत्य हैं । अत: अपनी रुचि के अनुसार किन्हीं
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