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२०. समन्वय
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३. स्याद्वाद
एक दो वादों को स्वीकार करके अन्य वादों का लोप करने वाले पक्षपाती के सर्ववचन परस्पर निरपेक्ष हो जाने के कारण मिथ्या हो जाते हैं और यथादेश, यथाकाल व यथाभाव एक दो वादों का कथन करते हुए साथ-साथ 'स्यात्' पद के द्वारा अन्य वादों का संग्रह करने वाले सर्व वचन परस्पर सापेक्ष होने के कारण सम्यक् हो जाते हैं । परस्पर निरपेक्ष वे मिथ्या वचन आगे जाकर साम्प्रदायिक पक्ष बन बैठते हैं और पारस्परिक विद्वेष का रूप धारण करके व्यक्ति का आध्यात्मिक पतन कर देते हैं। विपरीत इसके परस्पर सापेक्ष हो जाने पर वे ही वचन सम्प्रदायवाद से ऊपर उठ जाते हैं। और पारस्परिक प्रेम का रूप धारण करके व्यक्ति का आध्यात्मिक उत्थान करते हैं ।
" जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥ परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणादो । जयणाणं पुण वयणं सम्मं खु कहंचि वयणादो ||*
जैन तथा अजैन दर्शनों में यही अन्तर । अजैन-दर्शन जहाँ अपनी बात कहने की धुन में यह भूल जाते हैं कि कुछ हम कह रहे हैं वह उसी समय सत्य हो सकता है जब कि सहवर्ती अन्य दर्शनों को भी हम प्रेमपूर्वक गले लगा सकें, वहाँ ही जैन दर्शन अपनी बात कहे हुए बराबर यह विवेक रखता है कि मेरी बात से किसी भी अन्य दर्शन के हृदय को किञ्चित भी ठेस पहुँचने न पावे। अपने हर पक्ष या वचन के साथ 'स्यात्' या 'कथञ्चित् पद का प्रयोग करके वह बराबर अन्य दृष्टियों अथवा दर्शनों का संग्रह करता रहता है। इसीलिये उसके वही वचन सम्यक् तथा कल्याणकारी होते हैं जो कि अन्य-निरपेक्ष हो जाने के कारण साम्प्रदायिक क्षेत्रों में, प्रायः पारस्परिक वैर विरोध तथा वैमनस्य उत्पन्न न करके कल्याण के हेतु हो रहे हैं। पांच जन्मान्धों द्वारा टटोल-टटोल कर जाने गये हाथ के पृथक्-पृथक् अवयवों का संग्रह करके, सांगोपांग हाथी का यथार्थ ग्रहणवाला आगम प्रसिद्ध दृष्टान्त भी, इस दर्शन की सर्व-संग्रहकारी दृष्टि की ओर संकेत करता है। इस प्रकार स्वयं अपने को अपूर्ण कहकर अन्य दर्शनों का सप्रेम स्वागत करने वाला यह निष्पक्ष घोष ही इस दर्शनकी पूर्णता तथा इसके प्रतिपादक ऋषियोंकी सर्वज्ञता का द्योतक है।
कूपमण्डूक न बनिये, तनिक इस कुएँ से बाहर आइये और देखिये शुचिहंस वाहिनी और स्यात् - वीणावादिनी माँ सरस्वती के प्रेमपूर्ण हृदय की विशालता तथा उसकी गोद की व्यापकता, जिसमें समान स्थान प्राप्त है सब दर्शनों को, सब धर्मों को और सर्व सम्प्रदायों को, सहोदर भाइयों की भाँति । क्यों न हो, उसी की तो सन्तान हैं ये सब, ज्ञान- जननी मां सरस्वती की । देखो किस प्रकार गले से लगाती है वह सबको, किस प्रकार प्यार करती है वह सबको, किस प्रकार स्तनपान कराती है वह सबको, किस प्रकार अपनी गोद में बैठाती है वह सबको, किस प्रकार परस्पर में लड़ने से बचाती है वह सबको। कौन कर सकता है स्याद्वाद् की इस विशाल हृदयता का गान एक जिह्वा से, भगवान अनन्त भी थककर चुप रह गए जहाँ ? ऋषियोंने भी प्रसन्न कर लिया अपने चित्त को यह कह कर कि, "जिस प्रकार सागर में अनेक नदियाँ देखी जा सकती हैं परन्तु किसी भी एक नदी में सागर नहीं देखा जा सकता, उसी प्रकार हे सर्वज्ञ ! आपके दर्शन में सर्व दर्शन देखे जा सकते हैं परन्तु किसी भी एक दर्शन में आपका दर्शन नहीं देखा जा सकता।" जरा विचारिये कि कौन से जैन-दर्शन की बात है यह ? क्या केवल सप्ततत्त्व प्रधान जैन दर्शन की या स्याद्वाद्-प्रधान जैन-दर्शन की ? जैन-दर्शन की यह सर्व-संग्रहकारी तथा सर्व-समभावी दृष्टि ही है इसकी महानता, विशालता तथा सुहृदयता। और यह ही हैं इस दर्शन की पूर्णता तथा इसके प्रतिपादकों की वह सर्वज्ञता जिसके समक्ष सकल विश्व का मस्तक नत है ।
अतः भो मुमुक्षु ! आ, सकल पक्षपात् का विष उगलकर आ, अन्य मतों का खण्डन करने वाली अदेखसकी बुद्धि का वमन करके आ, ज्ञान को सरल बनाकर आ, सत्य का पारखी बनकर आ, बुद्धि-राज्य की बजाय हृदय - राज्य का नागरिक बनकर आ, तात्त्विक जगत के इस खुले आकाश में जहाँ न है जैन न अजैन, न हिन्दू न मुस्लिम, न भारती न अभारती; जहाँ है केवल सत्य, खुला सत्य जिसे पढ़ सकता है हर कोई बच्चा व बूढ़ा, धनी व निर्धन, मूर्ख व विद्वान; जहाँ है सबकी दृष्टियों को या उनके अभिप्रायोंको समझने की उदारता तथा उन्हें प्रेमपूर्वक गले लगाने की सुहृदयता । फिर देख इस सत्य का सुन्दर रूप इस अनन्त का विस्मयकारी स्वरूप । देख देख केवल देख, बिना किसी प्रकार का विकल्प उत्पन्न किये देख, दूसरे को समझाने की बुद्धि तजकर देख। न है यहाँ मैं-तू का भेद, न मेरे तेरे का भेद, न
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