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२०. समन्वय
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४. उपसंहार
मत-मतान्तरका भेद, न ग्रहण-त्यागका भेद । सब कुछ दृष्ट है यहाँ युगपत् समष्टि-व्यष्टि, एक-अनेक, विभु-अविभु, द्वैत-अद्वैत, नित्य-अनित्य, सत्-असत्, तत्-अतत् । कृतकृत्य हो जायेगा तू, सर्वज्ञ हो जायेगा तू । समता ही परमार्थ धर्म है और वही चारित्र है । स्याद्वाद् के विशाल हृदय की शरण में आये बिना वह सम्भव नहीं। समता व उदारता का हेतु होने के कारण इसकी शरण में ही कल्याण है, इसकी शरण में ही कल्याण है। ... ४. उपसंहार-ये हैं उस काल के तीन महापुरुष-बुद्ध, महावीर और ईसा । जातिवाद तथा सम्प्रदायवाद की संकीर्ण गलियों से बाहर तात्त्विक आकाश के खुले वायुमण्डल में मानव को मैत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थता का पाठ पढाने वाले तथा सबको गले लगाने वाले.प्रेममर्ति महा भद्र।
भज मन तत्त्वं भज मन सत्यं, तज मन पक्षं भव्यमते । प्राप्ते सन्निहिते मरणे, नान्यत् रक्षति गृहे अरण्ये ॥१॥ भव्य जहीहि धनागम-तृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णाम्। यल्लभसे निजकर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम् ॥२॥ अर्थमनर्थं भावय नित्यं, नास्ति तत: सुखलेश: सत्यम् । पुत्रादपि धनभाजां भीति:, सर्वत्रेषा विहिता रीतिः ॥३॥ मा कुरु धन-जन-यौवन-गर्वं, हरति निमेषात्काल: सर्वम् । मायामयमिदमाखिलं हित्वा, परं पदं त्वं प्रविश विदित्वा ॥४॥ कोऽहं कस्त्वं कुत आयात:, का मे जननी -को मे तात: । इति परिभावय सर्वमसारं, विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न-विचारम् ॥५॥ कामं क्रोधं लोभं मोहं, त्यक्त्वात्मानं भावय कोऽहम् । आत्मज्ञान-विहिना मूढाः, ते पच्यन्ते नरक-निगूढाः ॥६॥ शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रह-सन्धौ ।
भव सम-चित्त: सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यशु यदि तीर्थंकरत्वम् ॥७॥ - हे भव्य मतिवाले मन ! तू तत्त्व तथा सत्य को भज और पक्ष को तज, क्योंकि घर में अथवा वन में इनके अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी वस्तु नहीं जो मरण-काल निकट आनेपर तेरी रक्षा कर सके ॥१॥
हे भव्य ! तू धन-प्राप्ति की इच्छा को छोड़। अन्त:करण में तृष्णा रहित सद्बुद्धि जागृत कर । कर्मोदयवश जो तथा जितना कुछ भी धन प्राप्त हो उसी से चित्त का समाधान कर ॥२॥
अर्थ अनर्थ है, इसका सदा ध्यान रख । सचमुच उससे लेश-मात्र भी सुख नहीं होता । धनी लोगों को अपने पुत्र से भी डर रहता हैं । इस संसार में सर्वत्र ऐसी ही रीति है ॥३॥
धन जन और यौवन का गर्व मत कर । क्षण मात्र में काल इन सबका हरण कर लेता है। इस अखिल मायामय प्रपञ्चको छोड़कर तू परम-पद को जान तथा उसमें प्रवेश कर ॥४॥
. “मैं कौन, तू कौन, कहाँ से आया, कौन मेरी माता, कौन मेरा पिता ? यह सब असार है", ऐसा चिन्तवन कर । यह विश्व स्वप्न के समान है इसे छोड़कर आत्म-चिन्तन कर ॥५॥
... काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़कर, 'मैं कौन हूँ' इस प्रकार आत्मा के विषय में भावना कर । आत्म ज्ञान से विहीन मूढजन नरक में पड़े सड़ते हैं ॥६॥
शत्रु व मित्र में अथवा पुत्र व बन्धु में तोड़-जोड़ करने का प्रयत्न मत कर । यदि शीघ्र तीर्थंकरत्व प्राप्त करना चाहता है तो सर्वत्र समताभावी बन ॥७॥
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