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१९. सम्यग्दर्शन
२. विविध अंग तू आज तक जान नहीं पाया है, शास्त्र पढ़े हैं पर रहस्य नहीं समझा है, अत: उसे समझ और पूर्व कथित मार्ग पर चल । अपने जीवन को उस सांचे में ढाल, शान्ति का अनुभव कर और तब प्रकटेगी तेरी निःशंकता । यों नक़ल करने से तुझे क्या लाभ ? जबरदस्ती शंकाओं को दबाने का नाम निःशंकता नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से अन्तरंग अनुभवात्मक निर्णय के • कारण शंका को अवकाश ही न रहे, इसका नाम निःशंकता है। धर्मी को ऐसी ही निःशंकता होती है बनावटी नहीं ।
(२) शान्ति के उपासक को शान्ति के अतिरिक्त किसी बात की अभिलाषा नहीं और शान्ति स्वयं उसके पास है, बाहर कहीं से आनी नहीं है । इन्द्रिय-भोगों के प्रति उसे बहुमान नहीं, क्या माँगे बाहर के संसर्गों से ? 'इस लोक में मैं सुखी रहूँ, मुझे कोई बाधा न आवे, खूब धन हो, स्त्री हो, कुटुम्ब हो, ख्याति हो इत्यादि' तथा 'मृत्यु के पश्चात् परलोक में मुझे कोई अच्छी गति मिले, मैं नरक, पशु आदि गतियों में न जाऊँ, देव ही बनूं या राजा आदि पदों की प्राप्ति हो इत्यादि ऐसी आकांक्षायें उसे होती ही नहीं। उसके लिये सब योनि समान हैं । सब उसी के एक अखण्ड जीवन के भिन्न-भिन्न रूप हैं, (दे० ७.२) किसके प्रति आकर्षित हो ? देव-गति में ही क्या विशेष आकर्षण है जो नरक गति में नहीं ? देवगति तो उसकी दृष्टि में है तेंतीस सागर की कैद । चाहते हुए भी और शक्ति के होते हुए भी शान्ति- पथपर आगे न बढ़ सके, इससे बड़ा दुःख और क्या होगा उसे ? हृदय मसोस कर रह जाता है, क्या करे क़ैद पूरी हुए बिना उसे कुछ करने की आज्ञा नहीं है। नरक -गति में भी उसे कोई द्वेष नहीं है, उसे तो शान्ति चाहिये । नरक ही क्या, इससे भी बुरी कोई योनि हो तो स्वीकार है, परन्तु शान्ति मिलनी चाहिये । अतः धन-सम्पत्ति या सुन्दर शरीर आदि की, इस भव के लिये या अगले भवों के लिये उसे कदापि आकांक्षा नहीं होती । बाह्य-सुविधा और बाह्य- बाधा उसकी दृष्टि में समान हैं। भोगादि के सुख उसे सुख भासते नहीं, आकांक्षा किसकी करे ? व्यवहार में या निश्चय में, किसी प्रकार भी उसे आकांक्षा होती नहीं । आकांक्षा है केवल एक अपनी शान्ति की रक्षा की, अन्य कुछ नहीं । और तो और 'विदेह क्षेत्र में जाकर प्रभु के दर्शन करने से मुझे कुछ लाभ होगा, अतः किसी प्रकार विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊँ तो अच्छा', इस प्रकार की भी आकांक्षा नहीं। उसका प्रभु सर्वदा उसके पास है, नित्य ही वह उसका साक्षात्कार करता है, अत: वह आकांक्षा भी क्यों हो ? यह है उसका नि:कांक्षित गुण ।
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उसकी देखमदेखी लोग भी शब्दों में 'मुझे स्वर्गादि भोग नहीं चाहिये, वर्तमान में भी यह भोग-सामग्री मेरे लिये कोई विशेष आकर्षक नहीं, मुझे कुछ आकांक्षा नहीं और यदि स्वर्गादि या भोगादि की आकांक्षा करूँगा तो मेरा सम्यक्त्व घाता जायेगा, इत्यादि', इस प्रकार भले शब्दों में कहता रहे पर अन्तरङ्ग में पड़े इनके प्रति के आकर्षण को कैसे बाये ? वहाँ तो बराबर आकांक्षा छिपी हुई है ही । और रूप में न सही पर 'विदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो जाऊँ तो भगवान के दर्शन से कुछ लाभ उठाऊँ, ऐसी आकांक्षा तो मुखपर भी आ ही जाती है। मुख पर लाना भी देखमदेखी या सुन-सुनाकर रोकले तो अन्तरंग में पड़ी आकांक्षा का क्या करेगा ? सम्यक्त्व है ही कहाँ जो कि इस आकांक्षा से घा जायेगा । प्रभो ! यह उपाय नहीं है इसे दबाने का । यदि नकल ही करके आकांक्षा दबाना इष्ट है तो पूर्वकथित मार्ग के अनुरूप अपने जीवन को ढालने का प्रयत्न कर। स्वतः टल जायेगी सब आकांक्षाएँ । धर्मी जीवों का नि:कांक्षित गुण कृत्रिम नहीं होता, स्वाभाविक होता है वह नकल करके अपनाया नहीं जाता, जीवन में परिवर्तन करके अपनाया जाता है।
(३) शान्ति व सुन्दरता में ओत-प्रोत वह लोक में सर्वत्र शान्ति ही का प्रसार देखता है। चेतन-अचेतनं पदार्थों का निर्णय किया है, उस पर दृढ़ श्रद्धान किया है, अपने सर्व लौकिक व्यवहारों में भी उस निर्णय का प्रयोग करने का सर्वदा प्रयास करता रहता है, सर्व विश्व को एक ब्रह्म के या ईश्वर के निवास के रूप में अथवा अपने द्वारा की गई सृष्टि के रूप में देखता है, (देखो २३.१०) इसीलिये पदार्थों को उनके असली रूप में देखता है। उनके क्षणिक इन बाह्य रूपों में सुन्दरता व असुन्दरता उसे दीखती ही नहीं। जड़ हो कि चेतन सर्व में उस-उस जाति के रूप को ही देखता है। लोक में दीखने वाले जड़ के सुन्दर - असुन्दर रूपों में केवल जड़त्वका और चेतन के मनुष्य- पशु, धनवान्-निर्धन, स्वस्थ-रोगी आदि रूपों में केवल चेतनत्व का ही उसे भान होता है। बाहर के इन रूपों की उसकी दृष्टि में कोई सत्ता नहीं, क्योंकि जो अब है कल नहीं, उसकी क्या सत्ता ? (देखो ९.२) अब सुन्दर है और कल असुन्दर अब मिष्टान है और कल
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