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________________ १९. सम्यग्दर्शन १०४ २.विविध अंग रूप-परिवर्तन मात्र है, विनाश नहीं । उसमें उसे कोई हानि दिखायी नहीं देती। हानि दिखायी देती है केवल एक ही बात में और वह है उसकी शान्ति में बाधा । उसे सब कुछ सहन है पर शान्ति का विरह सहन नहीं। अत: उन संकल्प-विकल्पों को मृत्यु समझता है जो क्षण-क्षण में आकर उसे बाधित करने का प्रयत्न करते हैं । उसका जीवन शरीर नहीं शान्ति है। ___ वह हर प्रकार से निर्भय रहता है । १. उसे लोक में किससे भय लगे? लौकिक कोई भी शक्ति शरीर को बाधा पहुँचा सके तो कदाचित् किसी अपेक्षा पहुँचा सके पर उसकी शान्ति को बाधा पहुँचाने में स्वयं उसके अतिरिक्त कोई समर्थ नहीं। इस जीवन में कोई उसके शरीर को बाधा न पहुँचा दे, इस बात का उसे क्या भय? २. अगले भव में कैसा शरीर या वातावरण मिले, इस बात की उसे क्या चिन्ता ? कुछ मिले या न मिले, उसकी शान्ति उसके पास है। ३. शरीर का विनाश उसका विनाश नहीं अत: उसे मृत्यु से क्या डर? ४. शरीर की ही परवाह नहीं तो रोग आने की क्या चिन्ता ? ५. अन्य के द्वारा अपनी रक्षा की क्या आवश्यकता? ६. उसकी शान्ति स्वयं उसमें गुप्त रूप से सुरक्षित है, अत: किसी गुप्त स्थान में छिपकर इस शरीर की रक्षा का भाव उसे क्यों आये ? ७. 'अकस्मात् ही कोई बड़ा कष्ट न आ पड़े, बिजली न गिर पड़े, बम न गिर पड़े' इत्यादि भय को कहाँ स्थान ? इस प्रकार सातों मुख्य भयों से मुक्त निर्भीक-वृत्ति वह सिंह की भाँति बराबर अपनी शान्ति की रक्षा करने में तत्पर हुआ, आगे बढ़ता चला जाता है। लोग कछ भी कहे पर वह किसी की सनता नहीं। उसका एक ही लक्ष्य है-'आगे बढ़ो शान्ति की ओर । मृत्य आ जाए परवाह नहीं, इससे पहले जहाँ तक हो सके बढ़ो । मृत्यु के पश्चात् अगले जीवन में पुन: वही पुरुषार्थ चालू करो, उस स्थान से आगे जहाँ कि इस जीवन में छोड़ा है।' पीछे मुड़कर देखना उसका काम नहीं। लोग बेचारे सहानुभूति करें, दया दर्शायें, पर वह किसी की नहीं सुनता। जानता है कि इन बेचारों को नहीं पता कि मैं कहाँ जा रहा हूँ ? अत: केवल हँस देता है उनकी बातों पर और चल देता है आगे। वह जानता है कि लोगों की सहानुभूति शरीर के साथ है, उसकी शान्ति के साथ नहीं, अत: उनके कहने पर अपना मार्ग नहीं छोड़ता। उसके हाथ में है (Excelsior) 'ऊँचे ही ऊँचे' की पताका, इसकी लाज बचाना ही उसका कर्तव्य है। ओह कितनी निर्भीकता? कोई कृत्रिम-रूप से अपने में प्रकट करना चाहे तो क्या सम्भव है ? ऊपरी प्रवृत्तियों में या शरीरादि की क्रियाओं में भले प्रकट न होने दे पर अन्तर में पड़े भय को कैसे टाले, हृदय तो कांप ही रहा है । यह निर्भीकता ही है उसका नि:शंकित गुण, अर्थात् उसे भय की शंका स्वाभाविक रीति से नहीं होती। यह शंका हो सकती है कि ज्ञानी को भी भय होता तो देखा जाता है ? इस प्रश्न का उत्तर आगे निर्विचिकित्सा-गुण के अन्तर्गत दिया गया है, वहाँ से जान लेना। अथवा “मैं जीव हूँ, शान्ति का पुञ्ज हूँ, अन्य कुछ नहीं । अन्य से मुझे कुछ लाभ-हानि नहीं, इन क्षणिक विकल्पों के अतिरिक्त अन्य कोई मेरा शत्रु नहीं, विस्तृत रूप से साधना-खण्ड में निर्णय किया गया देवदर्शन आदि प्रवृत्तियों रूप मार्ग ही मेरा मार्ग है, पूर्ण शान्ति ही मेरी मोक्ष है।" हेयोपादेय तत्त्वों का इस प्रकार अनुभवात्मक निर्णय हो जाने पर कौन शक्ति है जो उसके इस श्रद्धान में कम्पन उत्पन्न कर सके । स्वयं भगवान भी आयें तो वह अपना विश्वास बदलने को तैयार नहीं। उसने अहित को व हित को स्वयं साक्षात रूप से मँह-दर-मँह खडा करके उसे ? उसका श्रद्धान पूर्व में बताये अनुसार चौथी कोटि की श्रद्धा में प्रवेश पा चुका है (देखो ५.३) । अत: 'यह ऐसे है कि ऐसे' इस प्रकार तत्त्वों में या गुरु-वाक्यों में उसे शंका क्यों उपजे ? स्वाभाविक रूप से ही उसकी इस प्रकार की सर्व शंकायें मर चुकी हैं । यह भी उसकी नि:शंकता का ही दूसरा लक्षण है। लौकिकजन भले उसकी देखमदेखी गुरु-वाक्यों में जबरदस्ती शंका उत्पन्न न करें । “जिन-वचन में शंका न धारो गुरु का ऐसा उपदेश है। यदि तत्त्वों आदि में शंकायें करूँगा, युक्ति व तर्क करूँगा, संशय करूँगा, तो मेरा सम्यक्त्व घाता जायेगा, अत: चुप ही रहना ठीक है" ऐसा मानकर तत्त्व समझने के लिये प्रश्न भी करते डरते हैं । अरे प्रभु ! सम्यक्त्व है ही नहीं, घाता क्या जायेगा? शान्ति पर लक्ष्य है ही नहीं, विच्छेद किसका होगा। भले शब्दों में न कहे पर हृदय में उत्पन्न हुई शंकाएँ कैसे दबायेगा? 'यदि ऐसा करूँगा तो सम्यक्त्व घाता जायेगा' ऐसा भय ही तो शंका है । वह तो उठ ही रही है। भगवन् ! यह तेरी शंका तो तुझे जागृत करने आई है । सावधान हो । अपने को झूठ-मूठ धर्मी मान बैठा है केवल बाह्य की कुछ क्रियाएँ करने के आधार पर, तो तेरी कल्पना झूठी है । ऐसा झूठा सन्तोष त्याग । वस्तु कुछ और ही है, उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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