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१९. सम्यग्दर्शन
२. विविध अंग के वेदन बिना संवर, निर्जरा व मोक्ष किसे कहेगा? कोरी कल्पनायें करेगा, और इसके अतिरिक्त कर भी क्या सकता है? शान्ति का अनुभवात्मक या रसात्मक स्वरूप जाने बिना किसे शान्ति का आदर्श कहेगा, किसे देव व गुरु कहेगा, किसे शान्ति का मार्ग व उपदेश कहेगा, किसे धर्म व शास्त्र कहेगा ? अत: सर्व-लक्षणों में शान्ति का वेदन तथा उसके प्रति की झुकाव रूप श्रद्धा ही प्रधान है।
एक की प्रधानता होते हए भी भिन्न-भिन्न अभिप्राय वाले शिष्यों के प्रतिबोधनार्थ भिन्न-भिन्न लक्षण किये गये हैं। शान्ति का नमना दिखाने के लिए देव-गरु की श्रद्धा कही गई है. क्योंकि मार्ग का श्री-गणेश यहाँ से ही करना है। शान्ति का नमूना देखे बिना उसके प्रति का झुकाव कैसे होगा और झुकाव हुए बिना पुरुषार्थ क्या करेगा? झुकाव हो जाने पर भी यथार्थ उपदेश प्राप्त किए बिना पुरुषार्थ क्या करेगा? अत: प्राथमिक शिष्यको देव, गुरु, धर्म व शास्त्र की श्रद्धा वाला लक्षण बहुत हितकारी है इनके प्रति बाह्य की रुचि व श्रद्धा के आधार पर ही कदाचित् वह यथार्थ-शान्ति को स्पर्श कर सकता है। हेयोपादेय को जाने बिना किसके ग्रहण व त्याग का प्रयास करेगा, इसलिए सात तत्त्वों की श्रद्धा भी प्राथमिक शिष्य के लिए बड़ी कार्यकारी है । 'स्वपर' में ऊपरी भेद जाने बिना किसके प्रति उदासीन होगा और किसके प्रति झुकाव करेगा, इसलिए प्राथमिक दशा में ऊपरी 'स्वपर' भेद जानना भी बहुत कार्यकारी है। इस प्रकार देखने पर इन तीनों बाह्य लक्षणों में भी मात्र शान्ति का लक्ष्य ही पुकार रहा है।
इस प्रकार पाँचों लक्षणों में शब्दों का भेद होते हुए भी अभिप्राय की एकता है।
२.विविध अंग-अहो ! आध्यात्मिक प्रकाश की महिमा ! जिसका लक्ष्य शान्ति की ओर गया उसका जीवन बदल गया, उसकी विचारणाओं की दिशा घूम गई, उसकी रीति अटपटी-सी भासने लगी। सामान्य जगत् को उसकी बातों पर आश्चर्य होता है। वह जगत को और जगत उसे मूर्ख समझने लगता है। परन्तु साधारण व्यक्ति बेचारे क्या जानें कि उसके अन्तरंग में क्या बीत रही है । शान्ति का उपासक पद-पदपर शान्ति का स्वाद लेने में मग्न हुआ चला जा रहा है, अन्य सब स्वादों का तिरस्कार करता हआ। उसके ढंग निराले हैं, उसके जीवन में अनेकों चिह्न या लक्षण स्वाभाविक रूप से उत्पन्न हो जाते हैं, जिनको वह बुद्धिपूर्वक नहीं बनाता । लौकिकजन भी उसकी नकल करके अपने जीवन में जबरदस्ती उन लक्षणों को बनाना चाहते हैं, जिससे कि वे भी किसी प्रकार धर्मियों की श्रेणी में गिने जाने लगें । क्या करें बेचारे, धर्मी बनने की उत्कण्ठा ही ऐसी है जो उन्हें यह कृत्रिम स्वांग खेलने को बाध्य करती है । परन्तु उसके द्वारा अपने अन्दर उत्पन्न किये गये वे चिह्न बिल्कुल पेबन्द सरीखे भासते हैं, उस कौवेवत् जिसने कि मोर के पंख चढ़ाकर अपने को मोर बनाना चाहा है । धर्मी-जीव के इन लक्षणों को ही सम्यक्त्व के अंग या गुण कहते हैं।
इन लक्षणों पर-से धर्मी जीव को या उस जीव को जिसका लक्ष्य शान्ति पर केन्द्रित हो चुका है, भली-भाँति पहिचाना जा सकता है अन्य भी शान्ति के इच्छुक उसके जीवन में इन गुणों का साक्षात्कार करके अपने इस विश्वास को दृढ़ बना सकते हैं और वह धर्मी स्वयं भी इन गुणोंपर-से अपनी परीक्षा कर सकता है कि कहीं मार्ग से विचलित तो नहीं हो गया है। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-१. नि:शंकता, २. निराकांक्षता, ३. निर्विचिकित्सा, ४. अमूढ़दृष्टि, ५. उपगूहन या उपबृंहण, ६. स्थितिकरण, ७. वात्सल्य, ८. प्रभावना, ९. प्रशम, १०. संवेग, ११. अनुकम्पा, १२. आस्तिक्य, १३. मैत्री, १४. प्रमोद, १५. कारुण्य और १६. निरहंकारता। आगे इन्हीं का पृथक्-पृथक् विस्तार करने में आता है।
(१) शान्ति का उपासक दृढ़तया निश्चय कर बैठा है कि वह चैतन्य है, निर्बाध है, अमूर्तीक है, ज्ञानपुञ्ज है, शान्ति का स्वामी है और कोई भी उसके इन गुणों में बाधा डालने को समर्थ नहीं । इसलिये उसमें एक निर्भीकता-सी उत्पन्न हो जाती है, कोई अलौकिक साहस जागृत हो जाता है । वह इस कुछ थोड़े से वर्षों मात्र के जीवन में अपने को सीमित करके नहीं देखता, भूतकाल में अनादि से चले आये और भविष्यत काल में अनन्त काल तक चले जाने वाले सम्पूर्ण जीवनों तथा रूपों को फैलाकर एक अखण्ड जीवन के रूप में देखने लगता है । इसलिये मृत्यु उसकी दृष्टि में खेल हो जाती है । एक खिलौना लिया तोड़ दिया, दूसरा लेकर खेलने लगा, बस इसके अतिरिक्त और मृत्यु है भी क्या ? इस शरीर के त्याग का नाम वह मृत्यु समझता ही नहीं, केवल पुराने वस्त्र उतारकर नवीन वस्त्र धारण करनेवत् समझता है, सराय के एक कमरे को छोड़कर दूसरे कमरे में चला जाना मात्र समझता है जो सम्भवत: पहले वाले से कुछ अच्छा है । मृत्यु उसकी दृष्टि में
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