SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९. सम्यग्दर्शन १०२ १. पंच-लक्षण-समन्वय शान्ति देखे। ऐसे सात तत्त्वों की एकत्व रूप श्रद्धा का नाम सच्ची श्रद्धा है । शान्ति के अनुभव के बिना वास्तविक रीति से हेयोपादेय का भेद नहीं किया जा सकता। भले गुरु के उपदेश के आश्रयपर मान लेता हो, पर वह तो श्रद्धान शब्दात्मक हुआ, रहस्यात्मक नहीं। अत: इस लक्षण में भी शान्ति के वेदन की ही मुख्यता है। ३. तीसरा लक्षण है स्वपर-भेददृष्टि । इस लक्षण में तथा उपरोक्त सात तत्त्वों वाले लक्षण में विशेष भेद नहीं है। क्योंकि यहाँ हेय तत्त्वों को 'पर' में और उपादेय तत्त्वों को 'स्व' में समाविष्ट कर दिया गया है । 'स्व' अर्थात् मैं जीव हूँ और संवर-निर्जरा के द्वारा प्राप्त शान्ति ही मेरा स्वभाव है, मोक्ष मेरे ही स्वभाव का पूर्ण-विकास है। अजीव 'पर' तत्त्व है, इसके आश्रय से उत्पन्न होने वाले आस्रव व बन्ध मेरी शान्ति के घातक हैं । अत: अजीव, आस्रव, बन्धको 'पर' तत्त्व समझकर छोड़ और जीव, संवर, निर्जराको 'स्व' तत्त्व समझकर ग्रहण कर । शान्ति के अनुभव बिना कैसे जाने कि मैं 'जीव' कौन ? जीव को अर्थात् 'स्व' को जाने बिना 'पर' किसे कहेगा? प्रकाश को जाने बिना अन्धकार किसे कहेगा? केवल शरीर ही जीव-रूप से दिखाई देगा । उसे ही तो छडाना अभीष्ट है। भले जीव का नाम बदलकर 'मै आत्मा हूँ, शरीर से पृथक् हूँ' ऐसा कह दे पर अनुभव के बिना वह आत्मा क्या यह तो पता नहीं। शब्दों में आगम के आधार पर भले लक्षण कर दे पर अनुभव के बिना तेरे वे लक्षण अन्धे के तीरवत् ही तो हैं । इसलिए 'स्वपर-भेद दृष्टि' में भी शान्ति का अनुभव ही प्रधान है। ४. चौथा लक्षण है आत्मानुभव । सो तो स्पष्ट अनुभव रूप कहने में आ ही रहा है । आत्मा का अनुभव क्या? वह भी तो शान्ति का वेदन ही है । अनुभव तो स्वाद का हुआ करता है, सुख व दुःख का हुआ करता है । जैसे सूई चुभने का अनुभव सूई के ज्ञान से कुछ पृथक् जाति का है। इसी प्रकार निजका अनुभव निजके ज्ञान से कुछ पृथक् जाति का है । ज्ञान में वस्तु के आकारादि गुणों की प्रधानता होती है और उसका प्रत्यक्ष-ज्ञान होना अल्पज्ञ को सम्भव नहीं है, परन्तु सुख व दुःख का प्रत्यक्ष होना प्रत्येक को सम्भव है । जैसे अन्धे को सूई का ज्ञान होना तो सम्भव नहीं है पर उसके चुभने का प्रत्यक्ष-वेदन होना सम्भव है। इसीलिए आत्मानुभव का अर्थ ही शान्तिरूप स्वभाव का अनुभव है। ५. स्वात्म-रुचि भी इसी का अंग है। 'उपयोग की रुचि', निज-शुद्धस्वरूप में रहना है अर्थात् निज शान्ति के अनुभव की रुचि है । पर पदार्थों में जब तक रुचि रहती है तब तक निज स्वभावभूत शान्ति की प्राप्ति नहीं होती । अत: परपदार्थों की रुचि त्यागकर स्वात्म-रुचि का होना स्वात्मानुभवका कारण है । इसलिए स्वात्मरुचिको ही सम्यक्त्व कह दिया । और वही तो मैं भी कहता चला आ रहा हूँ। अब बताओ कि इन पाँचों लक्षणों में कहाँ भेद दीखता है ? शान्ति का वेदन हो जाने के पश्चात् ही स्वात्म-रुचि व आत्मानुभव हुआ कहा जा सकता है । इसके होने पर ही अपना स्वभाव अर्थात् 'स्व' तत्त्व दृष्टि में आता है । इसके होने पर ही 'पर' तत्त्व का यथार्थ भान होता है। उसके होने पर ही शान्ति व अशान्ति, निराकुलता व व्याकुलता, सुख व दुःख उपादेय व हेय का ज्ञान होता है । जिसने आजतक शान्ति ही नहीं जानी उसे क्या पता कि अशान्ति किसे कहते हैं ? उसकी दृष्टि में तो मन्द-अशान्ति, शान्ति है और तीव्र-अशान्ति, अशान्ति । उपरोक्त प्रकार हेयोपादेय का भेद हो जाने पर ही सात तत्त्वों का भाव समझ में आता है । शान्ति का वेदन हो जाने पर ही शान्ति के आदर्शरूप देव व गुरु का तथा शान्ति के उपदेश रूप शास्त्र का अथवा शान्ति के पथरूप धर्म का भान होता है । अत: सर्व लक्षणों में एक शान्ति का ही नृत्य हो रहा है। जिसने शान्ति को नहीं चखा, वह कैसे जान सकता है कि मैं कौन हूँ ? 'मैं' को जाने बिना क्या जाने कि जीव या आत्मा किसे कहते हैं । अपने को जाने बिना दूसरे जीवों को कैसे जाने ? जिस प्रकार अपने सम्बन्ध में कल्पनायें करता है उसी प्रकार दूसरों के सम्बन्ध में भी करेगा। कैसे जान पायेगा कि जीव-तत्त्व क्या है ? जीव तत्त्व को जाने बिना व-तत्त्व की क्या पहिचान करेगा? क्योकि जीव के संसर्ग से यह (अजीव-तत्त्व) बिल्कुल जीववत् चेतन दिखाई दे रहा है। जीव की पहिचान के बिना उसमें भेद कैसे करेगा? शान्ति या निर्विकल्पता के अनुभव बिना विकल्पों की पहिचान क्या करेगा ? विकल्पों की पहिचान किये बिना आस्रव-बन्ध किसे कहेगा तथा निर्विकल्पता के अथवा शान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy