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१९. सम्यग्दर्शन
( १. पंच लक्षण समन्वय; २. विविध अंग ।
१. पंच-लक्षण-समन्वय शान्ति मार्ग की क्रियात्मकता के अन्तर्गत श्रद्धा, ज्ञान व चारित्र का तथा इनके विषयभूत सात तत्त्वों का कथन पूरा हुआ। अब इस मार्ग के सर्वप्रथम अंग 'श्रद्धा' का अथवा सम्यग्दर्शन का कुछ विशेष विस्तार करना यहाँ प्रयोजनीय है। यहाँ यह सन्देह उत्पन्न होता है कि आगम में सम्यक्त्व या शान्तिमार्ग-सम्बन्धी सच्ची श्रद्धा के अनेकों लक्षण दिये गये हैं, परन्तु यहाँ उनमें से एक भी कहा नहीं गया है, केवल एक शान्ति की रट लगाते चले आये हैं । तो क्या आगम के इन लक्षणों को मिथ्या मान लें?
नहीं भाई ! ऐसा भूलकर भी न करना और उन्हें मिथ्या मानने के लिए अवकाश भी तो नहीं है। तनिक समझ में फेर है, ध्यान देकर समझे तो सभी लक्षणों में एक ही बात दृष्टिगत होती है । भिन्न-भिन्न रुचिवाले शिष्यों के अनुग्रहार्थ ही गुरुजनों ने एक ही बात को भिन्न-भिन्न रूपों से का हो, परन्तु सबमें अभिप्राय एक ही है । जिस प्रकार मैं बताता हूँ उस प्रकार देख, इन सबमें एक शान्ति ही नृत्य करती दिखाई दे रही हैं सम्यक्त्व सम्बन्धी लक्षण आगम में मुख्यतया चार प्रकार से करने में आता है-१. सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र या सच्चे धर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धान । २. सात तत्त्वों पर दृढ़ श्रद्धान। ३. स्वपर-भेद-दृष्टि । ४. आत्मानुभव व स्वात्म रुचि । ५. इनके अतिरिक्त एक लक्षण वह जो कि मैं करता चला आया हूँ. 'शान्ति के प्रति रुचि व झकाव'। ये पांचों ही लक्षण वास्तव में शान्ति के प्रति संकेत करते हैं। वह कैसे ? देखिये
१. यद्यपि शब्दों में ये पांचों लक्षण पृथक्-पृथक् दीख रहे हैं परन्तु गौर से देखने पर इन पांचों में कोई भेद नहीं है। देखो पहला लक्षण है, 'सच्चे देव, गुरु व धर्म पर दृढ़श्रद्धान' । इस लक्षण का स्पष्टीकरण करने के लिये मुझे आवश्यकता पड़ेगी यह पूछने की कि तू देव व गुरु किसे समझता है । यदि नग्न शरीर, केश-लुंचनादि तथा अन्य शारीरिक लक्षणों सहित को गुरु और अद्वितीय तेज:पुञ्ज-शरीरधारी तथा छत्र, चमर आदि सहित को देव मानकर, उन सम्बन्धी दृढ़ श्रद्धा करे तो उसे तो सम्यक्त्व कहेंगे नहीं क्योंकि उसका नाम देव व गुरु है ही नहीं ? वास्तविक देव व गुरु को जाना नहीं, श्रद्धा किसकी करेगा? कुल-परम्परा से नग्न-शरीर इत्यादि लक्षणों को देखकर देवादि स्वीकार करना तो साम्प्रदायिक श्रद्धा है, अन्धश्रद्धा है। बिना परीक्षा किये कोई बात स्वीकार करना श्रद्धा नहीं। साम्प्रदायिक श्रद्धा तो अपने-अपने देव व गुरु के प्रति सबको ही है। यदि कहो कि मेरी श्रद्धा सच्चे देव-गुरु के प्रति है इसलिये यह सच्ची है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि बिना परीक्षा किये सच्चे व झूठे का पता कैसे चला? तेरे पिता ने कहा है कि वह सच्चे हैं, इसका नाम तो परीक्षा नहीं। आगे साधना-खण्ड में इस विषय पर काफ़ी प्रकाश डाला जाने वाला है।
शान्ति या वीतरागता के आदर्श का नाम देव व गुरु है, शान्ति व वीतरागता सम्बन्धी उपदेश का नाम शास्त्र है, शान्ति व वीतरागता को प्राप्त करने के मार्ग का नाम धर्म है । बिना शान्ति की पहचान के कौन देव, कौन गुरु, कौन धर्म व कौन शास्त्र ? इसलिए शान्ति का अनुभव,हुए बिना देव व गुरु आदि की श्रद्धा सच्ची श्रद्धा नहीं कही जा सकती। अत: इस लक्षण में शान्ति के अनुभवकी ही मुख्यता है।
२. दूसरा लक्षण है सात तत्त्वोंपर दृढ़श्रद्धान । अब तू ही बता कि सात तत्त्व किसे कहता है और उनकी श्रद्धा किसे मानता है ? यदि सात तत्त्वों के नाम तथा उनके भेद-प्रभेद मात्र को जानकर तत्सम्बन्धी श्रद्धा करने को श्रद्धा कह रहा है तब तो वह सच्ची श्रद्धा है नहीं। ऐसी श्रद्धा तो प्रत्येक जैनी को है, पर सब सम्यग्दृष्टि नहीं हैं । इन सात बातों में हेयोपादेय-बुद्धि बनाकर हेय को त्यागने के प्रति और उपादेय को ग्रहण करने के प्रति झुकाव हो जावे; मोक्ष या पूर्ण शान्ति का लक्ष्य-बिन्दु बनाकर अजीव,आस्रव तथा बन्ध तत्त्वों को हेय जानकर छोड़े और जीव, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष को उपादेय मानकर ग्रहण करे; अजीव, आस्रव तथा बन्ध में आकुलता देखे और जीव, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष में
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