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________________ क्षनहीं। १८. मोक्ष-तत्त्व १०० ३. भाव-मोक्ष फिर यह नित्य ही मोक्ष की रटना क्यों ? "मुझे क्या पता था कि वह मोक्ष इस प्रकार की होगी ? मैं तो समझा था कि कोई आकर्षक वस्तु होगी, सारा जगत जिसके गुणगान करता है । सोचता था कि वह कुछ तो होगा ही, परन्तु खोदा पहाड़ और चुहिया भी तो न निकली। भला कौन स्वीकार करेगा जड़ सम बनकर पड़े रहना ? किसे अच्छा लगता है सोफ़ा-सैट को छोड़कर पत्थर की शिला पर पड़े रहना, यों ही अचेत सा।" और इसी प्रकार की अनेकों कल्पनायें। भला विचारिये तो सही कि फिर भी इस मोक्ष की यह रटंत क्यों ? इसमें साम्प्रदायिकता के अतिरिक्त और है ही क्या ? कुछ रुढ़ियाँ व पक्षपात् और हंसी आ जाती है आज मोक्ष का नाम सुनकर, पुराने जमाने की बात कहाँ से लाये हो निकाल कर विज्ञान के इस युग में ? ३. भाव-मोक्ष-मोक्ष का स्वरूप समझे बिना कैसे दबा सकेगा इन विकल्पों को और ये कल्पनायें दबाये बिना क्यों करने लगा इतने बड़े तपश्चरणादि का परिश्रम । अत: भाई मोक्ष-तत्त्व को जानना अत्यन्त आवश्यक है । “तो क्या इसको जाने बिना या इसकी श्रद्धा किये बिना अब तक की सारी पढ़ाई बेकार है ?" वास्तव में ऐसा नहीं है, अब तक की सारी पढ़ाई एक अलौकिक देन है, उसकी अवहेलना मत कर, मोक्ष का सच्चा स्वरूप जानने का प्रयत्न कर। लोक-शिखर में स्थित आकाश के किसी टुकड़े का नाम मोक्ष नहीं । मोक्षशिला का नाम मोक्ष नहीं। वहाँ पर विराजे पूर्व आत्माओं के सम्पर्क का नाम मोक्ष नहीं तेज में तेज की भाँति अपने से भिन्न किसी सत्ता में समा जाने का नाम मोक्ष नहीं। दीपकवत बझकर अपनी सत्ता नष्ट कर देने का नाम मोक्ष नहीं। ज्ञान के अभाव का ना जड़ बनकर पड़े रहना भी मोक्ष नहीं। इतना कुछ प्रयास ऐसे मोक्ष के लिये नहीं किया जाता। ऐसा मोक्ष लेना तो बहुत आसान है, खूब जी भरकर पाप करो, बस मिल जायेगी ऐसी मोक्ष । निगोद का रूप धारण करके पड़े रहोगे सागरों के लिए अचेत, लोक-शिखर में, उसी पत्थर की शिला पर, उन्हीं पवित्र आत्माओं के सम्पर्क में।। भाई ! मोक्ष इतनी तुच्छ सी वस्तु नहीं। वहाँ से दृष्टी हटा । मोक्ष को बाहर में मत खोज, अपने अन्दर में देख, उसी प्रकार जैसे कि अब तक आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा आदि को देखता आया है । मोक्ष किसी क्षेत्र का नाम नहीं है, बल्कि तेरी अपनी ही किसी दशा-विशेष का नाम है जिसमें न संकल्प है न विकल्प, न राग न द्वेष, न इच्छायें न चिन्तायें, न बाह्य पदार्थों का ग्रहण न त्याग, न उनमें इष्टता न अनिष्टता । केवल है एक साम्यभाव जिसमें सर्वप्राणी केवल प्राणी मात्र हैं, न है कोई पुत्र, न है कोई पिता, न है कोई बहन, न है कोई माता, न है कोई मित्र, न है कोई शत्रु, न है कोई राजा, न है कोई रंक, न है कोई बड़ा, न है कोई छोटा, न है कोई ब्राह्मण, न है कोई शूद्र, न है कोई देव, न है कोई तिर्यञ्च । जहाँ है एक साम्यता व शान्ति, विकल्प उठने को अवकाश नहीं, प्रेरक संस्कारों का आत्यन्तिक विच्छेद जो किया जा चुका है पहले ही। विकल्पों के अभाव में शरीर का निर्माण किसलिये करें ? भिन्न-भिन्न रूप क्यों धारें ? क्यों किसी को पत्र मित्रादि बनायें ? किसके लिये यह सब जञ्जाल मोल लें? किसके लिये धन कमायें ? किसको वस्त्र पहनायें ? किसके लिये भोजन बनायें ? किसको पढ़ायें-लिखायें ? किसकी रक्षा करें तथा किसके लिये भीख मांगें? जहाँ विकल्प ही नहीं वहाँ इच्छा किस बात की ? जहाँ शरीर नहीं वहाँ महल, सौफा, पलंग, स्वादिष्ट पदार्थ, सुन्दर स्त्री आदि की आवश्यकता ही कैसी? मित्रों आदि से बातचीत करने की आवश्यकता ही क्या ? आवश्यकता के बिना उनके प्रतिका पुरुषार्थ कैसा? पुरुषार्थ के बिना व्यग्रता कैसी ? व्यग्रता के बिना दुःख क्या और दुःख के बिना रहा ही क्या? केवल एक शान्ति जो तेरा स्वभाव है, तेरा सर्वस्व है । इन विकल्पों के नीचे ही तो दबी पड़ी थी वह, कहीं भाग तो न गई थी जो कहीं से लानी पड़ती। ऊपर से यह सब कूड़ा-कर्कट फूंक डाला, बस यह रही तेरी पवित्रता, शान्ति-रानी । और क्या चाहिये था तुझे? इसी को तो लक्ष्य में लेकर चला था, इसी के लिए तो लक्ष्य बनाया था, इसी के लिए तो इतना लम्बा प्रयास किया था। बस मिल गई वह, अभीष्ट की प्राप्ति हो गयी। जो करना था सो कर लिया जहाँ जाना था वहाँ पहुँच गया, कृतकृत्य हो गया, मार्ग समाप्त हो गया। और क्या चाहिये? और कुछ चाहिये तो फिर वहीं जाना होगा, विकल्पों में, व्यग्रताओं व चिन्ताओं में जिनको छोड़कर कि यहाँ आया है । इस पूर्ण व आत्यन्तिकी तेरी अपनी शान्ति का नाम ही मोक्ष है। यहाँ न खोजकर वहाँ खोजने के लिए गया, तभी तो उस सेठ ने मोक्ष जाना स्वीकार न किया । क्योंकि वहाँ उसे न दिख सके अपने दस पुत्र, और न दिख सके दस कारखाने । क्या करता वहाँ जाकर? भाई ! मोक्ष की सच्ची अभिलाषा है तो अभी से इस बाह्य जञ्जाल से तथा इन सम्बन्धी अन्तरंग विकल्पों से धीरे-धीरे मुक्ति पाना प्रारम्भ कर । जितनी-जितनी इनसे मुक्ति पायेगा उतनी-उतनी अन्तरंग में शान्ति प्रकट होगी । बस उतनी-उतनी ही मोक्ष हुई समझ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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