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१८. मोक्ष-तत्त्व
( १. मोक्ष तत्त्व; २. काल्पनिक मोक्ष; ३. भाव मोक्ष।
१. मोक्ष तत्त्व-समस्त संकल्पों-विकल्पों के मूल संस्कारों का निर्मूलन करके आत्यंतिकी शुद्धता व निर्मलता को प्राप्त, हे पवित्र आत्माओं ! क्या मुझपर दया न करोगे? मुझको भी शक्ति प्रदान कीजिये नाथ ! जिससे कि मैं भी इन सर्व दुःखद संस्कारों का मूलोच्छेदन कर सकूँ, इनकी निर्जरा करके मुक्ति प्राप्त कर सकूँ । शान्ति-मार्ग के विवेचन में सात तथ्य या तत्त्व विचारणा के लिये स्थापित किये गए थे। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर तथा निर्जरा इन छ: तत्त्वों पर विचार कर लिया गया अब बात चलनी है अन्तिम तत्त्व 'मोक्ष' की। 'मुच्' धातु से बने मुक्ति शब्द का अर्थ है छूटना। छूटना किसी बन्धन से ही होता है । जो बंधा ही नहीं उसका क्या छूटना ? गाय रस्से से बँधी है, रस्सा खुलने पर उससे मुक्त हो जाती है । सिंह पिंजरे में बन्द है, निकल जाने पर पिंजरे से मुक्त हुआ कहा जाता है । वन में स्वतन्त्र विचरण करने वाले सिंह की क्या मुक्ति ? बन्दी-गृह में पड़ा बन्दी ही मुक्त किया जा सकता है, स्वतन्त्र नागरिक नहीं। अत: मोक्षका अर्थ बन्धन-सापेक्ष है । जहाँ बन्धन नहीं वहाँ मोक्ष नहीं और जहाँ बन्ध है वहाँ मोक्ष भी है। मुझे अन्य पदार्थों की मोक्ष से कोई प्रयोजन नहीं, मुझे तो अपनी मोक्ष खोजनी है । मोक्ष खोजने से पहले अपना बन्धन खोजना होगा।
बाहर में खोजने पर तो कोई बन्धन दिखाई देता नहीं । बन्दी तो मैं हूँ नहीं, कुटुम्बादिने भी मुझे पकड़कर बिठा नहीं रखा है। स्वयं मेरी कल्पनायें ही बन्धन हैं और इसलिये इन कल्पनाओं से छटने का नाम ही मोक्ष है अर्थात अन्तरंग में पुष्ट वे संस्कार जिनसे प्रेरित होकर मैं ये संकल्प-विकल्प कर रहा हूँ उनसे छूटने का, उनके विनष्ट होने का नाम ही मेरी मुक्ति या मोक्ष है । इसका उपाय निर्जरा व तपके प्रकरण में आ चुका है । अर्थात् संस्कारों से रहित अपनी स्वाभाविक, पूर्ण-स्वतन्त्र तथा शान्त दशा का नाम मोक्ष है।
२.काल्पनिक मोक्ष मोक्ष के सम्बन्ध में जो कल्पनायें अब तक की हैं वे सब झूठी हैं क्योंकि वे शान्ति से निरपेक्ष हैं। उन कल्पनाओं का झुकाव शान्ति की ओर न जाकर जा रहा है लोक के शिखर पर, आकाश के किसी विशेष क्षेत्र की ओर, अथवा अनुमानत: किसी पत्थर की बनी हुई शिला की ओर, अथवा पहले से विराजमान अनेक शुद्ध आत्माओं की ओर और इसलिए अनेकों संशय व संदेह उत्पन्न हो रहे हैं उसके सम्बन्ध में । भले मुख से कहता हुआ डरता हूँ कि कहीं गुरुवाणी के प्रकोप का भाजन न बन बैठू। पर इस प्रकार मुख बन्द कर लेने से हृदय की शंकायें तो टल नहीं जातीं? बिल्ली के आने पर यदि कबूतर आँख मूंद ले तो बिल्ली तो टल नहीं जाती ? अन्तरंग में झुककर देख, कुछ इस जाति के अनेकों संशय भरे पड़े हैं वहाँ या नहीं—“क्या रखा है मोक्ष में, न कुछ खाने को न कुछ पीने को, न कुछ बैठने को न कुछ सोने को, न चलने-फिरने को न सैर करने को, न सुसज्जित महल रहने को, और न मोटर व हवाई जहाज घूमने को, न भाई-बन्धु बोलने को, न सुन्दर स्त्रियाँ भोगने को । कुछ भी तो नहीं है वहाँ, बैठे रहो मुख सीये । बराबर में अनेकों बैठे रहें वहाँ पर सब गमसम, मानों पत्थर के बत गढ़कर बिठा दिये हों। यह भी कोई जीवन है ? ज्ञान-ज्ञान की रट सनते हैं पर क्या करें उस ज्ञान को ? ओढ़े या बिछायें ? किसी को बताया तक न जा सके, कुछ नया आविष्कार निकाला न जा सके, हुआ न हुआ बराबर है। आज इस उन्नति के युग में जब चारों ओर ज्ञान का चमत्कार दिखाई दे रहा है, ऐसे ज्ञान का क्या मूल्य ? केवल अन्ध-श्रद्धान का विषय है, किये जाओ, परन्तु कब तक ? एक रोज तो छोड़ना ही होगा।"
___ “मुझे नहीं चाहिये ऐसी मोक्ष । वर्तमान में ही क्या कमी है मेरे पास ? बड़े-बड़े महल, कीमती से कीमती वस्त्र व अलंकार, घूमने को मोटर व जहाज़, बैठने-सोने को खूब गद्देदार डनलप-पिलो के सोफ़ा-सैट व पलंग, खाने को स्वादिष्ट से स्वादिष्ट व्यञ्जन, भोगने को देवांगना सरीखी स्त्री, बाल बच्चे, और क्या नहीं ? इन सबको छोड़कर एक शून्य-स्थान में जाऊँ जहाँ इनमें से कुछ भी नहीं ? पड़े रहो अकेले। इतना भी तो नहीं कि अपना गम किसी को सुना दूँ । अरे रे ! मोक्ष कहते हैं इसे? कोरी कैद है। भगवान बचाये इस मोक्ष से । भला खाली बैठे रहना कहीं शोभा देता है मनुष्य को? न भाई न ! कोई बहुत बड़ा राजपाट भी दक्षिणा में दे और कहे कि किसी प्रकार मोक्ष ले लो, तो न लूं।"
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