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१७. निर्जरा-तत्त्व
४. संवर में निर्जरा
३. प्रतिकूल वातावरण बस यही क्रम है उन पुष्ट संस्कारों को तोड़ने का जिनके कारण मैं अपनी इच्छा के बिना भी अपने अतिरिक्त अन्य चेतन व अचेतन पदार्थों में इष्ट व अनिष्ट भाव कर बैठता हूँ और व्याकुलता-जनक विकल्पजाल में फंसकर अशान्त हो जाता हूँ। उपरोक्त दृष्टान्त पर से यह बात भी भली भाँति सिद्ध हो जाती है कि इस प्रकार किया गया पुरुषार्थ प्रतिकूल वातावरण में ही हो सकता है अनुकूल वातावरण में नहीं। घर के एकान्त कमरे में बैठकर गाली के संस्कार को तोड़ने का प्रयत्न नहीं किया जा सकता। जहाँ कोई दूसरा व्यक्ति ही न हो और बोलने का अवसर ही न मिले तो कैसे चलेगा उसका पुरुषार्थ, कैसे पहुँचेगा ऊपर-ऊपर की स्थिति में ? अर्थात् क्रम चलना असम्भव हो जाएगा। यह क्रम तभी चल सकता है जबकि उसके सामने कोई अन्य व्यक्ति हो जिससे बात करने का अवसर उसे प्राप्त हो और गाली का शब्द मुँह से निकलता हो।
इसी प्रकार उन-उन पदार्थों में इष्टता-अनिष्टता सम्बन्धी संस्कार भी तभी तोड़े जाने सम्भव हैं जबकि वे पदार्थ इन्द्रियों के विषय बन रहे हों और विकल्प उठ रहे हों । मन्दिर में बैठकर संस्कार-विच्छेद सम्बन्धी यह पुरुषार्थ किया नहीं जा सकता। क्योंकि जहाँ पदार्थ भी नहीं और विकल्प भी नहीं वहाँ किसको लायेगा बुद्धि की कोटि में, किसके प्रति करेगा पश्चात्ताप और अपने किस कृत्य को धिक्कारेगा? अर्थात् मन्दिर से विपरीत घर गृहस्थ के वातावरण में रहकर ही यह पुरुषार्थ किया जाना सम्भव है और वह वातावरण सहज आपको प्राप्त है।
४. संवर में निर्जरा-इसका यह तात्पर्य नहीं कि मन्दिर में आने से अथवा संवर-अधिकार में बताई जाने वाली विशेष क्रियाओं से उस पुरुषार्थ की बिल्कुल सिद्धि नहीं होती। कुछ अंश में संवर के अंग रूप उन क्रियाओं से भी इन संस्कारों की क्षति अवश्य होती है और उसे आप सब अनुभव कर रहे हैं। यदि ऐसा न हुआ होता तो आप आज उपरोक्त क्रम की चौथी कोटि में बैठे हुए न होते । अर्थात् इस प्रवचन द्वारा प्रेरित होकर अपने-अपने दोषों को स्वीकार कर, अपने जीवन में उनका अनुभव, उनके प्रति घृणा, उनको तोड़ने की जिज्ञासा तथा यहाँ बताये जाने पर उन दोषों की अपने उपयोग में पकड़ और उनके प्रति निन्दा, जो इस समय आपके हृदय में उथल-पुथल मचा रही है, कदापि प्रकट न हुई होती।
- अत: यह बात स्वीकार्य है कि जहाँ संवर होता है वहाँ निर्जरा भी अवश्य होती है। जहाँ कुछ समय के लिए अनुकूल वातावरण में रहकर विकल्पों को दबाने का पुरुषार्थ होता है वहाँ संस्कार भी अवश्य क्षीण होते हैं । परन्तु यहाँ निर्जरा की मुख्यता का प्रकरण है अर्थात् संस्कार-प्राबल्य के विच्छेद की मुख्यता का, जो संस्कार कि प्रतिकूल-वातावरण में मुझे सब कुछ भुला देता है, सुने व सीखे सब पर पानी फेर देता है। तो फिर संवर व निर्जरा में अन्तर ही क्या रहा, दोनों एक ही तो हैं ? नहीं अन्तर भी है। दोनों में होने वाला पुरुषार्थ यद्यपि एक ही जाति का है अर्थात् विकल्प को रोकने का है तथापि ‘संवर' अनुकूल वातावरण में रहकर विकल्पों को दबाने का नाम है और 'निर्जरा' प्रतिकूल-वातावरण में रहकर विकल्पों को उत्पन्न ही न होने देने के प्रयत्न का। अर्थात् उत्पन्न होते हुए विकल्पों को उपरोक्त क्रम से रोकने का नाम निर्जरा है। संवर में भी पुरुषार्थ लगाना होता है, बुद्धिपूर्वक कुछ करना होता है और निर्जरा में भी। परन्तु संवर में थोड़े बल से ही काम चल जाता है जबकि निर्जरा में अधिक बल की आवश्यकता होती है। अनुकूल वातावरण की अपेक्षा प्रतिकूल-वातावरण में रहकर कोई काम करना अधिक कठिन है।
___ अनुकूल-वातावरण में रहकर संवर के साथ-साथ होने वाली निर्जरा करने का बल तो हमारे अन्दर है ही परन्तु प्रतिकूल-वातावरण अर्थात् गृहस्थ में रहकर निर्जरा करने के, अर्थात् संस्कारों की शक्ति अधिकाधिक क्षीण करने के बल से भी आज सौभाग्यवश हम शून्य नहीं हैं। अत: अपनी शक्ति को न छिपाकर संस्कार-क्षति की दिशा में उसका पूरा-पूरा प्रयोग करें, मन की गहराइयों में छिपे सस्कारों को ललकारें और उनसे युद्ध करें।
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