________________
१७. निर्जरा-तत्त्व
२. संस्कार-क्षति बन्ध-तत्त्व में संस्कार को बनाने के क्रम का विश्लेषण करते हुए यद्यपि चोर का दृष्टान्त दिया गया है, परन्तु सुलभता से समझाया जा सके इस प्रयोजन से यहाँ गाली के संस्कार को तोड़ने का दृष्टान्त दिया जा रहा है। आपकी दृष्टि से बहुत से व्यक्ति ऐसे गुजरे होंगे जो हर बात में किसी गाली रूप अश्लील वचन का प्रयोग कर जाते हैं पर स्वयं यह जान नहीं पाते कि उन्होंने कोई भी अयोग्य वचन कहा है। एक लम्बे अभ्यास वश आज वह क्रिया उनकी अबुद्धि-पूर्वक की कोटि में जा चुकी है। इसी को लोक में तकिया कलाम कहकर पुकारा जाता है। स्वयं जान पाने की बात तो रही दूर, आपके द्वारा संकेत करने पर भी उन्हें आपकी बात पर विश्वास नहीं आता और कह बैठते हैं कि 'नहीं-नहीं ! मैंने तो कोई अश्लील वचन नहीं कहा है।' इतना पुष्ट हो गया है वह संस्कार कि उनके विवेक को सर्वथा ढक लिया है । वे दोष करके भी उसको स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते। दृष्टान्त में उनके संस्कार को तोड़ने का क्रम बताना है। इसको तोड़ने के लिए साधक को उत्तरोत्तर अनेकों स्थितियों में से गुजरना पड़ेगा।
पहली स्थिति तो अविवेक-पूर्णता की ऊपर कही हुई वह स्थिति है जहाँ कि उसको दोष का स्वीकार ही नहीं होता । यह है पुरुषार्ण-हीनता की स्थिति और इसलिए इसका समावेश अभीष्ट मार्ग में नहीं हो सकता। हाँ इससे आगे की उस दूसरी स्थिति से अवश्य मार्ग प्रारम्भ हो जाता है जबकि वह आपके सुझाने पर यह विचारने लगता है कि “ठीक ही होगा, गाली अवश्य मेरे मुँह से निकली होगी, नहीं तो ये मुझे क्यों टोकते, इनको मुझसे कोई द्वेष थोड़े ही है।" और इस प्रकार आपके कहने पर केवल विश्वास के आधार पर अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है।
इससे आगे तीसरी स्थिति वह है जबकि कदाचित् अपने मुँह से निकली गाली पर स्वत: ही उसका उपयोग चला जाने पर उसे यह भान हाने लगे कि “हाँ, गाली निकलती तो अवश्य है, मेरे मित्र ठीक ही कहा करते हैं।” चौथी स्थिति वह है जब कि उसको अपने मुँह से निकली उस गाली की अनिष्टता का भान होने लगे कि “मेरी यह आदत अच्छी नहीं है, सभ्य-व्यक्तियों को यह शोभा नहीं देती, इसे अवश्य त्यागना चाहिए" अर्थात् अपराध-सम्बन्धी निन्दा व उसे छोड़ने की तीव्र-जिज्ञासा उसमें जागृत हो जाए । पाँचवीं स्थिति वह है कि आपके द्वारा सावधान किए जाने पर तत्क्षण ही वह उसके मुँह से निकला शब्द उसके ध्यान में आ जाए और अन्तरंग में वह अपने उस कृत्यपर पछताने लगे। छठी स्थिति वह है जबकि बिना अपकी सहायता के स्वत: ही, कह चुकने के पश्चात् उसे भान होने लगे कि वह शब्द उसके मुँह से निकल चुका है तथा अपने कृत्य पर वह पछताने लगे । यहाँ उसकी यह क्रिया अबुद्धि से बुद्धि की कोटि में आ चुकी है । सातवीं स्थिति वह है जबकि आधा शब्द निकला है और आधा शब्द निकलने को ही था कि उसने बल पूर्वक रोक लिया तथा हो चुकने वाले आधे कृत्य पर वह अन्दर ही अन्दर अपनी निन्दा कर रहा है । आठवीं स्थिति वह है जबकि अन्दर में बोलने के प्रति अभी प्रयत्न या चञ्चलता हुई ही थी कि उसे इसका पता चल जाता है और वहीं उसे दबा देता है, बाहर में बिल्कुल प्रकट होने नहीं देता और अन्तर में भी क्यों प्रकट हुआ, उसकी चिन्ता करने लगता है । नवमी स्थिति वह है जबकि अन्तर में वह चञ्चलता होनी ही बन्द हो जाती है 1 बस अब उसका वह संस्कार टूटा ही जानो।
गाली का संस्कार तोड़ने का एक लम्बे समय तक चलने वाला वह पुरुषार्थ, विश्लेषण द्वारा नौ कोटियों में वभाजित करके दर्शाया गया। इसका यह अर्थ नहीं कि सर्वत्र नौ ही कोटियाँ बनाने की आवश्यकता है, तत्त्व को समझने से मतलब है । यहाँ ऊपर की नौ स्थितियों में हम स्पष्ट देख रहे हैं कि प्रत्येक आगे-आगे की स्थिति इष्ट की सिद्धि में पहली-पहली से कुछ ऊँची है क्योंकि आगे-आगे संस्कार की शक्ति में कुछ हानि देखी जाती है । यदि ऐसा न हुआ होता तो पुरुषार्थ का आगे बढ़कर अन्तिम फल को प्राप्त कर लेना असम्भव था। बस जितने अंश में प्रति-स्थिति संस्का
क्षति आई है उतने अंश में उस संस्कार की निर्जरा हई है। पर्ण क्षति का नाम पर्ण-निर्जरा या संस्कार से मुक्ति है। क्रोध के संस्कार को तोड़ने का भी यही नियम है । किसी भी दूषित संस्कार को तोड़ने का यही क्रम है-१. अपराध का स्वीकार, २. अपराध का अनुभव, ३. उसे तोड़ने की जिज्ञासा व उस कृत्य की निन्दा, ४. किसी अन्य की सहायता से उसका अबुद्धि से बुद्धि की कोटि में आना तथा तत्सम्बन्धी पछतावा करना, ५. बिना किसी की सहायता के बुद्धि की कोटि में आना तथा अपने कृत्य पर अपने को धिक्कारना, ६. आधा अपराध होने पर आधे को रोक लेना और पछताना, ७. सम्पूर्ण को बाहर प्रकट होने से रोक लेना तथा अन्तर में उठे तत्सम्बन्धी विकल्प को धिक्कारना, ८. अपराध सम्बन्धी अन्तर विकल्प को भी रोक लेना।
DrDAK
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org