________________
११. कार्य कारण व्यवस्था
६७
६. पुरुषार्थ तथा अपने आधीन मान बैठा है । अध्यात्म में किसी भी शब्द का इतना संकुचित अर्थ ग्रहण नहीं किया जाता । यहाँ पुरुषार्थ शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है।
प्रत्येक पदार्थ में कोई न कोई पुरुषार्थ प्रति-समय पाया जाता है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ, जड़ हो कि चेतन, छोटा हो कि बड़ा, अपनी एक अवस्था-विशेष को तजकर दूसरी अवस्था-विशेष को धारण करने के प्रति या एक स्थान को तजकर अन्य स्थान को प्राप्त करने के प्रति बराबर झुकने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे अग्नि पर रख देने से जल का धीरे-धीरे ऊष्णता की ओर झुकना, अथवा भाप को किसी बर्तन में रोक देने पर उसका वहाँ से निकलने के प्रति उद्यम करना। यह बात अवश्य है कि आपके पुरुषार्थ की जाति किसी अन्य प्रकार की है और जड़ के पुरुषार्थ की जाति अन्य प्रकार की । जो काम लाखों व्यक्ति मिलकर नहीं कर सकते वह एक अणु कर सकता है। आप चेतन पदार्थ हैं, विचारशील हैं, अत: आपके पुरुषार्थ की जाति भी विचारणाओं रुप हैं । परमाणु जड़ है, अत: उसके पुरुषार्थ की जाति भी जड़ात्मक है। आपका विकल्प करने रूप पुरुषार्थ इन्द्रियगोचर नहीं है, पर उसका गमनागमनरूप कार्य के प्रति का अथवा अग्नि आदि लगाने रूप कार्य के प्रति का या अन्य किसी कार्य के प्रति का झुकाव, साक्षात् अथवा यन्त्र-विशेषों की सहायता से इन्द्रियगोचर है।
अत: सिद्धान्त यह निकला कि प्रत्येक पदार्थ में पुरुषार्थ होता है, भले वह जड़ हो या चेतन । अन्तर केवल इतना है कि जड़ का पुरुषार्थ जड़ात्मक है और चेतन का पुरुषार्थ चेतनात्मक । जड़ात्मक होने के कारण उस जड़-पदार्थ में पुरुषार्थ का अभाव नहीं कह सकते । यदि कोई पदार्थ स्वयं अपने अन्दर अपने द्वारा अपने लिये नवीन अवस्था को उत्पन्न करने के प्रति न झुके तो पुरानी अवस्था विनश जाने पर वह पदार्थ अवस्था-विहीन हो जाए, और ऐसा हो जाए तो इस विश्व में कुछ भी दिखाई न दे, सर्व-शून्य हो जाए। पुरुषार्थ का यह आध्यात्मिक व्यापक रूप यदि 'पुरुषार्थ' शब्दों में आपको दिखाई न दे सके तो भले ही इस शब्द को बदलकर 'परिणति' ऐसा शब्द कह लीजिये परन्तु 'पुरुषार्थ' शब्द का इस स्थल पर प्रयोग करने का मेरा क्या अभिप्राय है, उसे समझ लीजिये।
आगम-भाषा में कहने पर, सर्व पदार्थों में वीर्य नाम का एक सामान्य गुण स्वीकार किया गया है । जड़ का वीर्य जड़ात्मक और चेतन का वीर्य चेतनात्मक होता है । इस वीर्य-गुण की पर्याय या प्रवृत्ति-विशेष को पुरुषार्थ कहते हैं। कहा भी है 'जो परिणमन करे सो कर्ता कहलाता है, उसका जो परिणमन सो उसका कर्म या कार्य कहलाता है, और जो उसकी अर्थात् एक अवस्था को तजकर दूसरी अवस्था के प्रति गमन करने की प्रवृत्ति-विशेष है सो उसकी क्रिया कहलाती है।' परिणमन और परिणति में इतना ही अन्तर है कि परिणति क्रिया है और परिणमन उसका फल । अर्थात् जो नवीन पर्याय उत्पन्न हुई उसे परिणमन कहते हैं, और परिणति उस परिणमन को उत्पन्न करने की प्रवृत्ति या झुकाव-विशेष का नाम है । बस वस्तु की इस परिणति को ही यहाँ पुरुषार्थ शब्द का वाच्य बनाया जा रहा है।
ठीक है कि यह अर्थ बादल आदि की वैस्रसिक अर्थात् अन्य-निरपेक्ष क्रियाओं में तो स्पष्ट लागू होता है, परन्तु घट पट बनाने रूप प्रायोगिक या अन्य-सापेक्ष क्रियाओं में लागू होता प्रतीत नहीं होता; परन्तु दृष्टान्त देकर इस प्रकार के प्रायोगिक कार्यों का विश्लेषण ऊपर किया जा चुका है। जैसे साझेकी खेती में किसान अकेले अमूर्तीक चेतन का कार्य या क्रिया राग या विकल्प करना है, उसके शरीर का कार्य या क्रिया हिलन-डुलन करना है, तथा इस एक मिले-जुले कार्य में बैल, हल आदि सर्व ही साझेदारों का पृथक्-पृथक् कार्य दृष्टि में ला दिया गया है, उसी प्रकार घट-पट आदि सर्व ही लौकिक व व्यवहारिक कार्यों का विश्लेषण करके प्रत्येक साझीदारके पृथक्-पृथक् कार्य का ग्रहण हो जाने पर, लोक का कोई भी कार्य उस दृष्टि में प्रायोगिक न दीख सकेगा बल्कि वैस्रसिक ही दीखेगा।
ल कार्य है। जब कार्य को ही पदार्थ का स्थान व रूप-परिवर्तन-मात्र स्थापित कर दिया गया तब 'पुरुषार्थ' परिणति के अतिरिक्त और किसे कह सकते हैं।
वस्तु की इस अपनी परिणतिरूप पुरुषार्थ के अभाव में, वस्तु की अवस्थाओं में किसी भी प्रकार का परिवर्तन होना असम्भव होने के कारण, पुरुषार्थ भी कार्य व्यवस्था का एक अंग अवश्य है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि पुरुषार्थ ही पर्याप्त है, क्योंकि निमित्त आदि अन्य अंगों के अभाव में वह अकेला कुछ न कर सकेगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org