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१२. नियतिवाद
१. नियति तथा भवितव्य; २. नियति की सिद्धिः ३. अनेकों प्रश्न; ४. नियति पुरुषार्थ; ५. नियति निमित्त; ६. अकाल मृत्यु, ७. आगम आज्ञा; ८. सर्वांगीण मैत्री।।
१. नियति तथा भवितव्य वस्तु की कार्य-व्यवस्था में चौथा और पाँचवा अंग है 'नियति' तथा 'भवितव्य'। आध्यात्मिक प्रकरणों में यह विषय सबसे अधिक जटिल तथा विवादग्रस्त है । यह प्रकरण सुनकर आपको ऐसा लगेगा मानो पहले कहे गये निमित्त व पुरुषार्थ वाले अंगों पर पानी ही फेरा जा रहा हो, पर वास्तव में ऐसा अभिप्राय नहीं है । सर्व अंगों को युगपत् कहा जाना सम्भव नहीं है, इसलिये एक-एक अंग को पृथक्-पृथक् ग्रहण करके कहा जा रहा है। पहले जब स्वभाव की बात कही थी तब केवल उस ही का पक्ष किया था अन्य अङ्गों का नहीं। इसी प्रकार जब निमित्त व पुरुषार्थ का नम्बर आया तो उनका ही पक्ष किया गया अन्य अङ्गों का नहीं । अब नियति व भवितव्य की बारी आई है, अत: इस प्रकरण में केवल इन्हीं का पक्ष किया जायेगा अन्य अङ्गों का नहीं। वचनों के द्वारा एक समय में एक ही अङ्गका प्रतिपादन किया जाना शक्य है, इसीलिये वचन सर्वदा एकान्तरूप होते हैं। एक पक्ष को पकडकर उसका ही कथन करना और अन्य अङ्गों का कथन उस समय पीछे डाल देना, इसको आगम में 'नय' कहते हैं । यदि इसमें से दूसरे अङ्गों का अभिप्राय सर्वथा लोप कर दिया जाय तो यह नय 'दुर्नय' या 'एकान्त' कहलाती है, और यदि अभिप्राय में अन्य अङ्गों की मैत्री बराबर बनी रहे तो 'सुनय' कहलाती है । 'एकान्त' या 'दुर्नय' व्यक्ति के अध:पतन का कारण है, क्योंकि वह उसमें पक्षपात् उत्पन्न कर देती है, परन्तु 'सुनय' वस्तु-व्यवस्था का ठीक-ठीक निर्णय कराके व्यक्ति के ज्ञान को व्यापक व सरल बना देती है, पक्षपात् का विनाश करती है। अत: नियति के इस प्रकरण को सुनकर केवल इसी का पक्ष पकड़ लेना योग्य नहीं है, बल्कि जैसाकि आगे समन्वय करते समय पाँचों अङ्गों की मैत्री दर्शाई जायेगी उसी प्रकार ज्ञान में सर्व अङ्गों को अवकाश देते हुए वस्तु-व्यवस्था में सर्व को ही युगपत् देखने का प्रयल करना, अन्यथा पहले सर्व कथन पर इस नियति से अवश्य ही पानी फिर जायेगा।
कर्मधारारूप मानवीय अहंकार पर यह 'नियति' इतनी कड़ी चोट है, कि उसे वह सहन नहीं कर सकता और बड़े जोर से चीखने लगता है। इस 'नियति' से काँपता हुआ वह कभी आगम की दुहाई देता है और कभी पुरुषार्थ व कर्तव्य की. कभी निज-स्वतन्त्रता का द्वार खटखटाता है और कभी प्रत्यक्ष रूप से दष्ट कार्यों की साक्षी कभी निमित्तों से रक्षा की प्रार्थना करता है और कभी स्वच्छन्दाचार का भय दिखता है। गरज उस तत्त्व को पचाना तो दूर उसके सुनने की भी शक्ति आज के मानव में नहीं है । उसके सुनते ही हृदय में खलबली उत्पन्न हो जाती है। मन बौखला उठता है और शंकाओं का तूफान उमड़ पड़ता है। अत: भाई इन शंकाओं को कुछ देर के लिये दबाकर धैर्यपूर्वक सुनने का प्रयत्न कर । विश्वास दिलाता हूँ कि अन्त में तेरी सब शंकायें दूर हो जायेंगी।
__ 'नियति' शब्द काल-सूचक है और 'भवितव्य' भाव-सूचक । 'नियति' का अर्थ है निश्चित समय पर किसी कार्य का होना, और 'भवितव्य' का अर्थ है वह कार्य जोकि उस निश्चित समय में होने योग्य है । 'नियति' का निर्देश आगम में 'काल-लब्धि' शब्द द्वारा किया गया है, और सौराष्ट्र से आने वाली 'क्रमबद्धता' की गुञ्जार इसी की ओर संकेत करती है । 'नियति' या निश्चित समय, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, निमित्त व पुरुषार्थ सब पर लागू होता है । अर्थात् जिस द्रव्य में कार्य या अवस्था उत्पन्न होनी होती है वह उस समय निश्चित रूप से वही होता है, जिस स्थान पर वह कार्य होना होता है वह क्षेत्र भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है, जिस समय में वह कार्य होना होता है वह समय भी निश्चित रूप से वही होता है, जिस प्रकार का तथा जो कार्य होना होता है वह कार्य या भवितव्य भी उस समय वही होता है, जिस निमित्त से होना होता है, वह निमित्त भी उस समय वही होता है, और जिस प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा होना होता है वह भी उस समय निश्चित रूप से वही होता है, दूसरे शब्दों में यों कह लीजिये कि “जिस पदार्थ को, जहाँ, जब, जिस प्रकार से, जिस निमित्त के द्वारा, जिस प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा, जो कार्य या भवितव्य करना होता है; वह
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