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१२. नियतिवाद
२. नियति की सिद्धि
पदार्थ, वहाँ, तब, उसी प्रकार से, उसी निमित्त के द्वारा, उसी प्रकार के पुरुषार्थ द्वारा, वही कार्य या भवितव्य निश्चित रूप से करता है; इसमें जिनेन्द्र या देवेन्द्र कोई भी फेरफार करने को समर्थ नहीं है, ऐसी इस सिद्धान्त की निर्भीक घोषणा है ।
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देख इस बात को सुनते ही उथल पथल मचने लगी तेरे भीतर - १. पुरुषार्थ का अभाव हो जायेगा । २. मोक्ष जब होना होगा हो जायेगा, साधना क्यों करूँ ? ३. नियति के आधीन होकर पंगु बन जाऊँगा मैं । ४. सब कुछ नियत है तो निमित्तों के ग्रहण-त्याग की भी क्या आवश्यकता रह जायेगी हमें, जीवन के प्रत्येक कार्य में ? ५. अकाल-मृत्यु नाम की कोई चीज नहीं रह जायेगी । ६. आगम में नियतिवाद को मिथ्यात्व कहा गया है। उसके साथ विरोध आयेगा । ७. नियति को स्वीकार कर लेने पर वस्तु परतन्त्र हो जायेगी । इत्यादि-इत्यादि अनेकों प्रश्न उठने लगे तेरे हृदय में । तेरा कोई दोष नहीं । विषय ही अति जटिल है । यदि समझना है तो इन शंकाओं को कुछ देर के लिये दबा, ज्ञान को सरल कर, अहंकार को पीछे हटा, व्यापक दृष्टि उत्पन्न कर, कर्मधारा की ओर से हट, पूर्वोक्त ज्ञानधारा में प्रवेश पा, क्योंकि यह विषय कर्मधारा का नहीं है ज्ञानधारा का है। कर्मधारा में जाने पर तेरे सारे ही प्रश्न सार्थक हैं और उस अवस्था में मैं उन सबको तेरी मान्यता के अनुसार सहर्ष स्वीकार करता हूँ । परन्तु यहाँ तो एक अलौकिक विचित्र दृष्टि का परिचय दिया जा रहा है, जोकि शान्तिपथ का मूल आधार है। और सब बातें तो जानी देखी हैं, परन्तु यह बात सर्वथा अपरिचित है, इसलिये अनोखी लगती है। समझने का प्रयत्न कर, समझ में बैठ जाने पर ये सर्व आशंकायें स्वतः दूर हो जायेंगी । यहाँ ज्ञातादृष्टा बनाने की बात है, हृदय में प्रभुत्व उत्पन्न करने की बात है, वर्तमान में ही सर्वज्ञ बनाने की बात है, तेरे ज्ञान की महिमा दर्शाने की बात है। बात अलौकिक है, अतः लौकिक दृष्टि से नहीं दिव्य दृष्टि से समझी जा सकती है | भगवान का विराट रूप दिखाने के लिये गीता में अर्जुन को दिव्यचक्षु प्रदान की गई थी, उसी के द्वारा देखने का प्रयत्न कर ।
सर्व ही मतों सम्प्रदायों की भाँति जैन दर्शन ने भी भविष्यग्राही ज्ञान स्वीकार किये हैं। भविष्य में होने वाले किसी कार्य तथा संयोगों आदि को वर्तमान में ही प्रत्यक्ष तथा निश्चित् रूप से जानने वाले ज्ञान को भविष्यग्राही ज्ञान कहते हैं । यद्यपि वर्तमान में इन ज्ञानों का प्रत्यक्ष नहीं होता है परन्तु सर्व ही सम्प्रदायों के आगमों में उसकी सत्ता पर विश्वास अवश्य किया जाता है । एक ज्ञान तो ऐसा है कि आगे होने वाले घट पट आदिक दृष्ट कार्यों को, अथवा मानवीय व्यापार धन्धों को, अथवा जन्म-मरण को अथवा धन की लाभ-हानि को, अथवा शत्रु-मित्र या अन्य पदार्थों के संयोग-वियोग को तथा इसी प्रकार के अन्य भी अनेकों स्थूल कार्यों को, कई वर्ष पहले से जान लेता है। ऐसे ज्ञान को 'अवधिज्ञान' कहते हैं । यह ज्ञान इन सर्व कार्यों को वर्तमान में ही प्रत्यक्षवत् देखता है। ज्योतिष ज्ञान भी इन सर्व कार्यों का पहले से निश्चित अनुमान लगा लेता है । यह यद्यपि अवधिज्ञानवत् प्रत्यक्ष नहीं होता परन्तु निश्चित अवश्य होता है, जैसे कि सूर्य ग्रहण का निश्चित समय बताने वाला ज्ञान। इसको आगम में निमित्तज्ञान कहते हैं। यह भी स्वर, चिह्न आदि आठ प्रकार का होता है । विस्तार के भय से यहाँ उनके भेद-प्रभेद कहना इष्ट नहीं है। एक ज्ञान ऐसा होता है जो आगे होने वाले मानवीय बुद्धि के अदृष्ट विकल्पों को भी पहले से प्रत्यक्ष जान लेता है । वह यहाँ तक बता देता है कि दो महीने पीछे अमुक समय अमुक व्यक्ति ऐसा विचार करेगा। इसको आगम में 'मन:पर्ययज्ञान' कहा गया है। चौथा ज्ञान सर्वज्ञ का है, जो जड़ व चेतन के सकल चराचर, सूक्ष्म व स्थूल, दृष्ट व अदृष्ट, शुद्ध व अशुद्ध, स्वाभाविक व वैभाविक, भूत- वर्तमान- भवष्यित के सर्व ही कार्यों को हस्तामलकवत् वर्तमान में देखता है । उसे आगमकारों ने 'केवलज्ञान' के नाम से कहा है । यह ज्ञान अत्यन्त व्यापक व निर्विकल्प होने के कारण हमारे अनुमान का विषय नहीं है तथा विवादास्पद भी है, परन्तु अवधि आदि पहले तीन भविष्यग्राही ज्ञान स्पष्ट रूप से विकल्पात्मक स्वीकार किये गये हैं ।
२. नियति की सिद्धि नियति की सिद्धि यद्यपि आगम, अनुभव, तर्क व विज्ञान इन चारों प्रकारों से की जानी सम्भव है, तदपि ग्रन्थ-विस्तार के भय से, विषय लम्बा खिंच जाने पर कदाचित् इस पक्ष का पोषण आवश्यकता से अधिक न हो जाए इस भय से, तथा निमित्त आदि अन्य अङ्ग निःसार भासने न लग जायें इस भय से, केवल आगम तथा अनुभव से ही सिद्ध करके छोड़ देता हूँ ।
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