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१२. नियतिवाद
४. नियति-पुरुषार्थ यहाँ इतना ही अनुमान किया जाता है कि यदि कोई भी भविष्यग्राही ज्ञान की सत्ता स्वीकारणीय है तो 'नियति' को स्वीकार करना ही होगा। बिना नियत-वस्तु-व्यवस्था को स्वीकार किये इस प्रकार के ज्ञान, कल्पना मात्र बनकर रह जायेंगे। क्योंकि जैसा कार्य पहले हुआ था वैसा ही ज्ञान वर्तमान में जानता है और जैसा जानता है वैसा ही हुआ था। इसी प्रकार जैसा कार्य वर्तमान में हो रहा है वैसा ही ज्ञान जानता है और जैसा वह जानता है वैसा ही हो रहा है । इसी प्रकार यह भी मानना होगा कि जैसा कार्य आगे भविष्य में होगा वैसा ही वह ज्ञान वर्तमान में जानता है, और जैसा वह जानता है वैसा ही होगा। जिस प्रकार जानने के अनुसार ही भूतकाल का कार्य निश्चित है, उसमें फेर फार सम्भव नहीं। ज्ञान के आधार पर कार्य की निश्चिति अवलम्बित नहीं है, प्रत्युत कार्य की निश्चिति पर ज्ञान अवलम्बित है । ज्ञान ने जाना है इसलिये वैसा नहीं होता, प्रत्युत कार्य का होना इस प्रकार से निश्चित है इसलिये ज्ञान वैसा जानता है । जिस प्रकार दर्पण में जैसा प्रतिबिम्ब पड़ रहा है, निश्चित रूप से वैसा ही पदार्थ उसके सामने विद्यमान है; इसी प्रकार ज्ञान में
जैसा प्रत्यक्ष हो रहा है, निश्चित रूप से वैसा ही ज्ञेय अथवा कार्य उसके सामने विद्यमान है। इस प्रकार ज्ञान से नियति सिद्ध होती है।
अनुभव के आधार पर भी सिद्ध की जा सकती है यह । आप सबके जीवन में नित्य अनेकों ऐसे अवसर आते हैं, जबकि आप करना तो कुछ और चाहते हैं और समय आने पर हो कुछ और जाता है। कदाचित् ज्योतिषी के द्वारा बताई गई भविष्यत सम्बन्धी किसी बात को झूठा करने का अपनी ओर से पूरा-पूरा उद्यम करते हो, पर फिर भी वह घटना समय आने पर उसी प्रकार घट जाती है, जिस प्रकार कि बताई गई थी। पूज्य वर्णीजी के जीवन की एक घटना
योतिषी ने बताया कि अमुक दिन ९ बजे की गाड़ी से सम्मेदशिखर जाओगे। बराबर याद रखने का प्रयत्न किया उस बात को, परन्त जब वह दिन आया तो इतनी तीव्र जिज्ञासा उदित हई यात्रा करनेकी कि सब कछ भल गए।९ बजे वाली गाड़ी से ही रवाना हो गए, और गाड़ी चल चुकने पर याद आया कि मैं ज्योतिषी की बात को झूठा करने की सोचता था पर कर न सका । न चाहते हुए भी समय आने पर आपको कदाचित् कोई ऐसा कार्य करना पड़ जाता है जिसका आपको पहले भान तक नहीं था। विस्तार के भय से उदाहरण नहीं देता, पर मेरे तात्पर्य को आप समझ गए होंगे। नियति के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं इसे ?
३. अनेकों प्रश्न-यहाँ अनेकों प्रश्न मन को क्षुब्ध करने लगते हैं। यथा-१. नियति को स्वीकार कर लेने पर पुरुषार्थ का जीवन में कोई स्थान नहीं रह जाता । २. मोक्ष जब होनी होगी तब हो ही जायेगी, साधना करके क्या करूँ। ३. यदि पुरुषार्थ भी नियत है तो मैं हर प्रकार से नियति के आधीन होकर पंगु बन जाऊँगा। ४. यदि निमित्त का मिलना भी नियत है तो उनके ग्रहण त्यागकी क्या आवश्यकता। ५. नियति स्वीकार करने पर अकाल मृत्य का तथा कर्मों के उत्कर्षण अपकर्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाता, जबकि शास्त्रों में उनका स्पष्ट निर्देश किया गया है । ६. आगम में नियति की स्वीकृति को मिथ्यात्व बताया गया है। इन सबका समाधान क्रम से किया जायेगा, थोड़ा चित्त को शान्त करके सुनिये।
यद्यपि इनके अतिरिक्त भी अन्य अनेकों प्रश्न उदित हो सकते हैं, यथा—१. जो होना था हुआ, करने वाले का क्या दोष । इस प्रकार जगत में अपराध नाम की कोई वस्तु नहीं रह जायेगी। २. यदि आचार्य, का यह सिद्धान्त मान्य है तो उन्होंने धर्म कर्म का उपदेश क्यों दिया । ३. नियति क्या वस्तु है, द्रव्य है, गुण है या पर्याय है । ४. अनेकान्त के अनुसार नियति के सामने अनियति कैसे घटित होती है, इत्यादि । परन्तु इन सबके पृथक्-पृथक् उत्तर यहाँ दिये जाने सम्भव नहीं है । उपरोक्त ६. में ही इनके उत्तर स्वयं गर्भित हो जाते हैं।
४. नियति-पुरुषार्थ लीजिये अब क्रम-पूर्वक आपकी शंकाओं का समाधान करता हूँ । प्रथम शंका है यह कि 'नियति को स्वीकार कर लेने पर परुषार्थ का अभाव हो जायेगा।' भाई । परुषार्थ का अर्थ समझाते समय पहले यह भली भाँति बताया जा चुका है कि प्रत्येक पदार्थ, जड़ हो या चेतन, परिवर्तन-स्वभावी है। प्रत्येक क्षण नवीन-नवीन परिवर्तन या कार्य करते रहने वाली उसकी निज परिणति ही उसका पुरुषार्थ है। तू भी एक चेतन वस्तु है। अवस्था-परिवर्तन रूप कार्य करते रहना तेरा स्वभाव है । स्वभाव का अभाव तीन काल में सम्भव नहीं। बिना कोई न कोई पुरुषार्थ किये तू रह ही नहीं सकता। अत: तेरा यह प्रश्न निरर्थक है।
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