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१२. नियतिवाद
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५. नियति-निमित
दूसरा प्रश्न है 'मोक्ष जब होनी होगी हो जायेगी, साधना क्यों करूँ, सो भी ठीक नहीं क्योंकि खाली तो तू बैठ नहीं सकता, कुछ न कुछ तो करना ही होगा। अब बता कि क्या करना अच्छा लगता है तुझे? यदि कर्मधारा-रूप लौकिक कार्य करना भाता है तब तो 'नियति' पर श्रद्धा हुई कैसे कही जा सकती है, क्योंकि नियति की तो यह घोषणा है कि “लौकिक विषय हो या अलौकिक किसी को भी अपने अनुकूल बनाने का अधिकार तुझे नहीं है । अत: दोनों ही दशाओं में करने-धरने सम्बन्धी विकल्प को छोड़कर, जो कुछ हो रहा है या होने वाला है, उसे केवल देख तथा जान।" मोक्षमार्ग को नियति पर छोड़ना और संसार मार्ग को पुरुषार्थ की ओर बैंचना, यही तो बता रहा है कि तेरे अभिप्राय में कर्मधारा है ज्ञानधारा नहीं। सब कुछ नियत देखना ही ज्ञान धारा है । बाहर में कुछ अपनी कल्पना के अनुसार परिवर्तन करने का विकल्प कर धिारा है, जिसका आधार नियति नहीं अनियति है। क्योंकि कार्य-व्यवस्था को अनियत जानने वाला ही बाहर में कुछ करने-धरने का प्रयत्न करता है, उसे नियत जानने वाला नहीं। तात्पर्य यह कि कर्मधारा नियति के अनुरूप नहीं प्रत्युत अनियति के अनुरूप पुरुषार्थ है। दोनों ही दशाओं में पुरुषार्थ बाधित नहीं होता। नियति में रहता है ज्ञानधारारूप पुरुषार्थ और अनियति में रहता है कर्मधारारूप पुरुषार्थ ।
तीसरा प्रश्न है यह कि मैं 'नियति के अधीन होकर पंगु बन जाऊँगा' । इस प्रश्न का उत्तर भी पूर्वोक्त दो प्रश्नों में आ चुका है । जब तक कर्मधारारूप पुरुषार्थ कर रहा है तब तक तो तुझे नियति पर विश्वास ही नहीं है । उसके आधीन कैसे हो सकता है ? और जब नियति पर विश्वास करके उसके आधीन बन जायेगा, तो उस समय ज्ञानधारारूप पुरुषार्थ करता हुआ होगा तू । पंगु कैसे बनेगा? उसकी यह आधीनता तो इष्ट ही है।।
५. नियति-निमित्त—अब चौथा प्रश्न है कि 'निमित्तों का मिलना भी यदि नियति ही है तो फिर उनको ग्रहण-त्याग करने की आवश्यकता ही क्या?' इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले हम तुझसे पूछना चाहते हैं कि यह प्रश्न किस रुचि से कर रहा है-ज्ञानधारा की रुचि से या कर्मधारा की रुचि से? ऐसा प्रतीत होता है कि अन्दर में तो रुचि पड़ी है कर्मधारा की और बाहर में बात कर रहा है ज्ञानधारा के विषयभूत नियति की । मेल बैठे तो कैसे बैठे ? किसी भी कार्य करने की प्रेरणा नियति नहीं, रुचि देती है। देख वर्तमान में तुझे धन कमाने की रुचि है तो तू उसी प्रकार की प्रवृत्ति भी करता है । उपार्जित धनका उपयोग करने के लिये तदनुकूल विषय-सामग्री का संगह करता है और उस भोग के आधारभूत इस शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयत्न भी करता है । इस प्रकार से इन सकल निमित्तों के प्रति प्रवृत्त होना ही तो धनोपार्जन विषयक पुरुषार्थ है या कुछ और? और इस पुरुषार्थ के फलस्वरूप धन तथा विषय-सामग्री की प्राप्ति का होना ही है उसका फल या भवितव्य । इस प्रकार के पुरुषार्थ पर से तेरी अन्तरंग श्रद्धा का तथा रुचि का परिचय मिलता है।
यदि यह रुचि बदलकर शान्ति-प्राप्ति की दिशा के प्रति झुक जाये तो उसके लिये तू कुछ प्रयत्न करेगा या नहीं ? क्या सर्वथा निठल्ला बैठ जाना सम्भव है ? मन से, वचन से तथा काय से, तीनों से कुछ न कुछ तो करेगा ही। या तो सर्व मानसिक विकल्पों को हटाकर ज्ञानधारा में निश्चल रहने का प्रयत्न करेगा और यदि वैसी सामर्थ्य नहीं है तो देव-गुरु-शास्त्र की शरण में जाकर तदनुकूल कोई धार्मिक अनुष्ठान करेगा। इस दिशा में तीसरा कोई कार्य किया जाना सम्भव नहीं। साक्षात् रूप से ज्ञानधारा में निश्चल रहने को तो अभी तू समर्थ नहीं है, इसलिये तदनुकूल कर्मधारा रूप कोई व्यवहारिक पुरुषार्थ ही कर सकता है। और सकल व्यवहारिक पुरुषार्थ का स्वरुप है वही जो कि धनोपार्जन की दिशा में ऊपर बताया जा चुका है, अर्थात् अनुकूल निमित्तों का ग्रहण और प्रतिकूल का त्याग । अत: यह कैसे सम्भव है कि धर्म या शान्ति की रुचि जागत हो जाने पर और कर्मधारा की भमि पर स्थित रहते हए त धर्म के साधक निमित्तों का ग्रहण तथा उसके बाधक निमित्तों का त्याग न करे । यही तेरा इस दिशा का पुरुषार्थ है, जो कि बता रहा है कि नियति या काललब्धि अब सुधर गई है तेरी । पुरुषार्थ के फलस्वरूप धीरे-धीरे विकल्पों की निवृत्ति-पूर्वक तेरा ज्ञानधारा में प्रविष्ट हो जाना निश्चित है, और यही है इस पुरुषार्थ का भवितव्य । तात्पर्य यह कि यदि तू देव-गुरु-शास्त्र आदि की शरण में जाकर अपनी शक्ति के अनुसार धर्मिक अनुष्ठानों में प्रवृत्त होने का प्रयत्न करे तो अवश्य ही मोक्ष का पात्र बन जाये । इसी में नियति-दर्शक ज्ञानधाराकी रूचि भी स्वत: सिद्ध है।
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