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________________ १२. नियतिवाद ७. आगम आज्ञा निमित्तादि का ग्रहण - त्याग तो करता रहे धनोपार्जन की दिशावाला, और बात करता रहे नियति की तथा ज्ञानधारा की, यह तो नियति की स्वीकृति कहलाती नहीं । यथाशक्ति धनोपार्जन की दिशावाले कार्यों से हटकर धार्मिक दिशावाले कार्यों में प्रवृत्त होने का पूरा-पूरा प्रयत्न करे, तो उसी में नियति की अनुक्त स्वीकृति निहित है, क्योंकि ऐसा करने से ही तेरी बुद्धि धीरे-धीरे विकल्पों से हटकर ज्ञानधारा में प्रवेश पाने के योग्य होती चली जायेगी । जानने, श्रद्धा- करने तथा प्रवृत्ति करने में बड़ा अन्तर है । जाना कुछ और जाता है और किया कुछ और जाता है। जाना तो जाता धनोपार्जन, और दुकान में माल भरने के लिये किया जाता है धन व्यय । इसी प्रकार जानी तो जाती है ज्ञानधारा वाली निर्विकल्पता, और प्रवृत्ति की जाती है तदनुकूल निमित्तों के ग्रहण त्याग रूप विकल्पों की। इसी प्रवृत्ति में पड़ी है नियति की स्वीकृति । क्योंकि विकल्पात्मक होते हुए भी इस प्रकार की प्रवृत्तिका लक्ष्य है निर्विकल्पता । इस लक्ष्य की पूर्ति का यहाँ सर्वथा अभाव हो ऐसा भी नहीं है। आंशिक रूप से उसकी प्राप्ति भी बराबर हो ही रही है । लौकिक दिशा वाली तीव्र कर्मधारा धीरे-धीरे विराम पाती जा रही है और शान्ति की दिशा वाली मन्द ज्ञानधारा धीरे-धीरे उदित होती जा रही है । ७२ ६. अकाल-मृत्यु — पाँचवां प्रश्न है अकाल-मृत्यु सम्बन्धी । समय से पहले विषभक्षण आदि से होने वाली मृत्यु को 'अकालमृत्यु' कहते हैं । कर्म-सिद्धान्त के अन्तर्गत पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति आदि के घटने बढ़ने को ' अपकर्षण' व 'उत्कर्षण' कहते हैं और प्रकृति के बदल जाने को 'संक्रमण' कहते हैं। समय से पहले कर्म को उदय में लाना 'उदीरणा' कहलाती है और समय से पहले उन्हें झाड़ देना 'निर्जरा' कहलाती है। 'आगम-कथित ये सब विषय नियति के बाधक हैं, ऐसी आशंका भी करनी योग्य नहीं, क्योंकि उसका उत्तर तो वही उपरोक्त विकल्प है, जिसके आने पर तदनुरूप ही प्रवृत्ति स्वत: होती है। तीव्र-क्रोध आने पर ही विषभक्षण आदि का कार्य होता है, उसके अभाव में नहीं। इसी प्रकार अपकर्षण, उदीरणा व निर्जरा आदि के सम्बन्ध में भी जानना । क्योंकि अकाल मृत्यु का अर्थ आयु-कर्म की उदीरणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अकाल तो केवल इसलिये कही जाती है कि जितनी आयु बंधी, उतनी स्थिति पूरी नहीं की । वास्तव में कोई भी कर्म ऐसा नहीं जिसकी स्थिति बन्ध के अनुसार ही उदय में आती हो । बुद्धिहीन सूक्ष्म प्राणियों में भी ये उत्कर्षण आदि बराबर हो रहे हैं। जैसा जैसा विकल्प उस-उस समय आता है, वैसी वैसी प्रवृत्ति उस-उस समय होती है, तत्फलस्वरूप वैसा-वैसा ही नवीन बन्ध व उत्कर्षण आदि होता है । उत्कर्षण आदि के परिणाम कोई और हों और बन्ध के कोई और, ऐसा नहीं है। एक समय के जिस एक परिणाम या प्रवृत्ति से बन्ध होता है, उसी से उसी समय यथायोग्य उत्कर्षण, अपकर्षण आदि भी होते हैं, अतः इनसे नियति बाधित नहीं हो सकती । ७. आगम आज्ञा—छठा प्रश्न है यह कि 'नियति की स्वीकृति को 'आगम में मिथ्यात्व बताया गया है' । सो भाई ! यह बात भी दृष्टि की संकीर्णता के कारण ही निकल रही है । गोमट्टसार आदि ग्रन्थों में जहाँ इसे मिथ्यात्व बताया है, वहाँ यह देख कि प्रकरण क्या चल रहा है, और फिर उसके अनुसार ही उसका अर्थ लगा। आश्चर्य होगा यह सुनकर कि जहाँ पर तुझे नियति का निषेध दिख रहा है, वहाँ पर ही तुझे नियति का समर्थन दिखने लगेगा। सो कैसे ? वही बताता हूँ । वहाँ पर प्रकरण एकान्त - मिथ्यात्वका है, जिसके ३६३ भेद करके दिखाये हैं । अस्ति नास्ति आदि सप्त भंग, जीवादि सप्त तत्त्व या नव पदार्थ, नित्य अनित्य आदि विकल्प तथा लोक में प्रसिद्ध ८ वादों को परस्पर में गुणा करके क्रियावादियों आदि के अनेकों भंग बनाये गये हैं, जिन सबका जोड़ ३६३ होता है । वे आठवाद भी ये हैं - १. स्वभाववाद, २. आत्मवाद, ३. ईश्वरवाद, ४. कालवाद ५. संयोगवाद, ६. पुरुषार्थवाद, ७. नियतिवाद, ८. दैववाद । उस स्थल पर इन आठों वादों के लक्षण मात्र किये गये हैं उनका निषेध नहीं । हाँ प्रकरणवश उनके निषेधका तात्पर्य वहाँ अवश्य है, परन्तु सर्वथा निषेध का प्रयोजन नहीं है । उन-उनको एकान्त रूप से ग्रहण करना, अर्थात् अपनी रुचि के अनुसार उनमें से कोई एक या दो आदि वाद तो स्वीकार कर लें और अन्य का निषेध कर दें, ऐसा करना एकान्त मिथ्यात्व है । इस प्रकार यदि गौर से देखा जाये तो वहाँ एक नियतिवाद को ही मिथ्यावाद बताया गया हो, ऐसा नहीं है । वहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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