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११. कार्य कारण व्यवस्था
६. पुरुषार्थ
शरीर का काम है कुछ विशेष प्रकार से हिलना-डुलना और इसी प्रकार बैल आदि सर्व पदार्थों के पृथक्-पृथक् कार्य की भी कोई सीमा है, जिसको उसने ही किया है और वह ही कर सकता है। न अन्य ने किया है और न अन्य कर सकता है।
यद्यपि यह बात सर्वथा मिथ्या भी नहीं है कि आठों के ही कार्यों में परस्पर कोई निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, अर्थात् किसान के निमित्त से शरीर और शरीर की प्रेरणा से बैल, बैल के निमित्त से हल व रहट और इसी प्रकार अन्य भी अपना-अपना कार्य कर सके हैं। यदि ये न होते तो कर न सकते । परन्तु यह दृष्टि तो लौकिक है, विकल्पोत्पादक है। इसके त्यागने के लिये ही तो सब पुरुषार्थ है। अत: है भव्य ! इस दृष्टि द्वारा परम कल्याणकारी उस अलौकिक दृष्टि का घात करने का प्रयत्न मत कर । इस दृष्टि को ही ऊपर परतन्त्र शब्द से कहा गया है और उस अलौकिक दृष्टि को स्वतन्त्र शब्द से।
दोनों ही दृष्टियें अपने-अपने स्थान पर सत्य हैं । पर मुझे तो जिस-किस प्रकार भी शान्ति का प्रयोजन सिद्ध करना है। जिस भी दृष्टि से सिद्ध होता जानूं उसे ही अपना कर्त्तव्य मानूं दूसरी को नहीं । जानना और बात है, मानना
और । यद्यपि एक वीतरागी को भी जानता हूँ और एक चाण्डाल को भी परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों मेरे उपास्य हैं । उपास्य तो वीतरागी ही है चाण्डाल नहीं । उपास्य न कहने से चाण्डाल का अभाव नहीं हो जायेगा। इसी प्रकार परतन्त्र-दृष्टि को तो पहले से ही जानता था, अब स्वतन्त्र दृष्टि भी जान गया । जानता दोनों को हूँ पर इसका यह अर्थ नहीं कि दोनों दृष्टि ही लक्ष्य में रखनी या आश्रय करनी योग्य हैं । शान्ति-पथ में केवल एक स्वतन्त्र दृष्टि ही लक्ष्य में रहती है, परतन्त्र-दृष्टि नहीं । लक्ष्य में न रहने मात्र से दूसरी दृष्टि के आधार पर निमित्त की निमित्तता का लोप नहीं हो जाता। ___यदि दूसरी दृष्टि पर ही लक्ष्य रखना है तो निम्न प्रकार क्यों नहीं रखता कि जिससे तेरी दृष्टि में भी बाधा न पड़े
और विकल्प भी हट जावें । विशाल-दृष्टि करके सम्पूर्ण विश्व को युगपत् अनुमान में ले, तो एक बहुत बड़े कारखाने के रूप में दिखाई देता है जिसमें स्व तथा पर सर्व पदार्थ बड़ी व छोटी गरारियों वत् परस्पर सम्पर्क में रहते बराबर बदल रहे हैं. और कारखाना काम कर रहा है। यदि कोई एक छोटी सी गरारी भी निकाल ली जाए मशीन बन्द हो जाए, या जबरदस्ती कोई नई गरारी ठोक दी जाय तो भी सारी मशीन बन्द हो जाए। पर क्या ऐसा होना सम्भव है ? क्या ऐसा आज तक कभी हुआ है ? सब द्रव्य परस्पर निमित्त-नैमित्तिक रूप से बराबर काम कर रहे हैं। निमित्त को हटाने वाला या मिलाने वाला तू कौन है? तुझे यह अधिकार किसने दिया? तुझमें इतनी शक्ति है भी या नहीं? समस्त विश्व की अद्वैत क्रिया को दृष्टि में रखकर इन प्रश्नों का उत्तर खोजें तो इस दिशा में अपनी असमर्थता का भान हुए बिना न रहे । निमित्त मिलाने व हटाने के सर्व विकल्प दूर हो जायें, विशाल-दृष्टि उत्पन्न हो जाए, ज्ञाता दृष्टा मात्र रह जाए । यही तो इष्ट है।
आज के तेरे विकल्पों का मूल कूपमण्डूक बने हुए परतन्त्र-दृष्टि का रखना है, और इसी कारण अन्य के कर्तापने का अहंकार होता है। अतः परतन्त्र-दृष्टि को संकुचित करने का निषेध किया जा रहा है, सर्वथा निषेध नहीं। यदि विशाल दृष्टि से नहीं देख सकता, तो इस परतन्त्र दृष्टि पर के लक्ष्य को सर्वथा मिटाने का प्रयत्न कर । भ्रम न कर, शंका न कर, दृष्टि मिटाने से पदार्थ न मिटेगा। तुझे अपना कल्याण करना है, निमित्त की रक्षा नहीं। आम खाने हैं पेड़ नहीं गिनने हैं। दोनों दृष्टियों में से स्वतन्त्र दृष्टि ही इस मार्ग में अत्यन्त उपादेय व हितकर है और साधारण रूप से परतन्त्र दृष्टि महान अनिष्ट, जैसाकि आगे-आगे के प्रकरणों में सिद्ध हो जायेगा।
६. पुरुषार्थ-कार्य-व्यवस्था का तीसरा अंग है 'पुरुषार्थ' । उनके बिना भी लोक का कोई कार्य होता देखा नहीं जाता । यहाँ पुरुषार्थ शब्द का वह अर्थ न समझना जो कि लोक में प्रयोग किया जाता है। लोक में तो केवल मनुष्य के या अधिक बढ़े तो चेतन पदार्थ के पुरुषार्थ को ही पुरुषार्थ कहा जाता है । जड़-तत्त्व में साधारण-जनों को कोई पुरुषार्थ होता दिखाई नहीं देता। 'पुरुषार्थ' यह शब्द भी, पुरुष या जीव तत्त्व का इच्छापूर्वक होने वाला जो प्रयत्न या प्रवृत्ति है, उसके प्रति संकेत करता है। यही कारण है कि अहंकार को धारण करने वाला लोक जड़-पदार्थों को बिल्कुल नि:शक्त
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