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________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ५. निमित्तोपादन मैत्री पदार्थ विशेष को कह सकते हैं, जो स्वयं भी उस परिवर्तन के अनुरूप ही कुछ कार्य कर रहा हो और उसके अनुरूप या उसके साथ परिवर्तन करने की शक्ति-विशेष को ले करके वहाँ आया हो? देखो, इस पुस्तक के उठते समय यहाँ मेरे हाथ के अतिरिक्त यह चौकी व वेष्टन भी उपस्थित अवश्य हैं पर इन तीनों में से इससमय इस पुस्तक के उठने में निमित्त मेरा हाथ ही है, ये दोनों नहीं । इसलिये केवल उपस्थित मात्र कहकर स्वीकार करना न करने के बराबर है। इसलिए शब्दों की खेंचतान को छोड़कर व्यवहार में नित्य कहे जाने वाले निमित्त के कर्तापने के वाक्यों पर हँसने की बजाय, उनको यथा योग्य स्वीकार कर लेना ही तेरे ज्ञान की सरलता का द्योतक होगा। यहाँ पुन: कह देना आवश्यक है कि ऐसी स्वीकृति से वस्तु परतन्त्र नहीं बनेगी, ऐसा विश्वास रख, जैसा कि अगले प्रकरणों में सिद्ध कर दिया जायेगा। यह ध्यान रख कि यहाँ संयोग की दृष्टि से बात हो रही है, स्वभाव या अन्य अंगों की दृष्टि से नहीं। जब उनका नम्बर आयेगा तब वैसी ही बात होगी। किसी एक बात की सिद्धि के लिये उसमें दूसरी बात को बीच में लाने से एक भी बात समझ में न आ सकेगी। ५. निमित्तोपादन मैत्री-दृष्टान्त पर से समझिये मेरे अभिप्राय को, अन्न बोना अर्थात् खेती करना एक काम है। मेरे आ र बीजने स्वयं बदलकर अन्न बोने का काम किया. अपने द्वारा बदलकर किया. अपने लिये किया, अर्थात् उस नवजात अन्न के साथ तन्मय होकर किया, अपने से किया अर्थात् अपने स्वभाव में रहते हुए किया, किसान बनकर नहीं। कुछ हँसी-सी आयेगी यह बात सुनकर आज तक ऐसी बात सुनी नहीं। परन्तु नहीं भाई ! विचार करके देख, इसकी सत्यता प्रकाशित हो जायेगा । यद्यपि लोक में साधारणत: तू किसी भी काम को न इस प्रकार करता हुआ देखता है, न इस भाषा में कहा जाते हुए सुनता है, और न इस प्रकार स्वयं कभी कहता है, परन्तु वास्तव में है ऐसा ही । देखो दृष्टांत देता हूँ। उपरोक्त खेती का ही दृष्टांत लीजिये। यद्यपि लोक में यह प्रसिद्ध है और किसान भी यही कहता है कि “मैंने खेती बोई," परन्तु विचार कीजिये कि यदि बैल इस बात को सुन पावे तो बेचारे के हृदयपर क्या बीते ? "खून पसीना एक कर डाला पर तनिक भी तो श्रेय न दिया। अहंकार में अन्ध हो गया है यह किसान, किसी दूसरे की मेहनत को मेहनत ही नहीं समझता" और इस प्रकार विचारता हआ वह बैल रूठ जाये तो क्या हो? किसान का सारा अहंकार पानी बनकर बह जाये, और सुलह करनी पड़े आखिर उस बैल से । अच्छा भाई ! बिगड़ मत, क्षमा कर, गलती हुई, सारे काम में आधा साझा तेरा स्वीकार किया। चल उठ अब्र, और इसी प्रकार हल से, कुएँ से, रहट से, पानी से, मिट्टी से और बीज से सुलह करते-करते उसे पता चल जाये कि खेती बोने में तूने कितना काम किया है। केवल सातवाँ हिस्सा । परन्तु किसान तो चेतन पदार्थ है। शरीर और वह पृथक्-पृथक् हैं । अत: शरीर की माँग भी रुक न सकी। किसान को स्वीकार करना ही पड़ा कि हाँ भाई ! तेरा भी हिस्सा सही। हम सब आठों ने मिलकर ही की है खेती, इसलिये सबने आठवाँ-आठवाँ हिस्सा काम किया है. मझे स्वीकार है। परन्त बीज बेचारा कैसे संतष्ट हो । उसके काम में और शेष सात के कामों में तो महान अन्तर है। शेष सबने तो कुछ-कुछ काम ही किया है, परन्तु रहे अपने रूप में ही। उन्हें स्वयं अपना रूप तो न बदलना पड़ा। पर उस बेचारे ने तो अपना सर्वस्व ही अर्पण कर दिया, अन्न उगाने के लिये, यहाँ तक कि आज उसका पता भी नहीं कि कहाँ है वंह? इस प्रकार स्वयं सारे अन्न के साथ घुल-मिल ही गया है, अथवा स्वयं ही वह रूप धारण कर लिया है। आठवें हिस्से में कैसे सन्तोष पावे ? स्वीकार करना पड़ेगा कि तेरे काम की जाति ही भिन्न प्रकार की है। घोड़े और गधों का क्या मेल? तेरे काम का मुकाबला हम सातों मिलकर भी नहीं कर सकते । अर्थात् कुछ बाह्य मात्र सहायता सम्बन्धी कार्य का सातवाँ हिस्सा हम सब ने किया, परन्तु अन्न उगाने का काम तो वास्वत में तेरा ही है। साझे की खेती का मिला-जुला काम किसी एक का नहीं है, सबका है। इसलिये इस एक मिले-जुले काम का विश्लेषण करना चाहिये । तभी पता चल सकेगा कि आठों में से प्रत्येक ने कौन-कौन काम किया है। विचारने से पता चल सकता है कि अन्तः प्रकाशरूप चैतन्य किसान का काम केवल “मैं अन्न उत्पन्न करूँ" इस विकल्प के अतिरिक्त और कुछ नहीं । वह बेचारा अमूर्तीक और कर भी क्या सकता है, जानने देखने व विकल्प उत्पन्न करने के अतिरिक्त ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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