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११. कार्य कारण व्यवस्था
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४. निमित्त पाँचों ही बातें समान रूप से आवश्यक हैं। या यह कहिये कि ये पाँचों ही वस्तु-व्यवस्था के आवश्यक अंग हैं। एक अंग के होने पर पाँचों अंग होते ही हैं और एक के न होने पर पाँचों ही नहीं होते । इन पाँचों में आगे-पीछे होने का भी कोई क्रम नहीं है, परन्तु कथन-क्रम में अवश्य आगे-पीछे कहे जाने का भेद है। वस्तु-व्यवस्था तथा कथन-क्रम में अन्तर है। अत: किसी एक समय में जो कथन किया जाता है उसे वस्तु-व्यवस्था का पूर्ण रूप न समझ बैठना, केवल एक अंग मात्र ही समझना। हाँ ज्ञान में सर्व अंगों को घुटमिट करके जो दिखाई दे वह वस्तु की पूर्ण व्यवस्था अवश्य है । ज्ञान में पूर्ण व्यवस्था देखने की शक्ति है पर वचन में कहने की नहीं। इसीलिये अनेकान्तवाद तथा स्याद्वादने जन्म धारा है। अब सुनिये पाँचों अंगों का क्रम से विवेचन ।
३. स्वभाव—पहले सिद्ध कर आये हैं कि वस्तु परिवर्तनशील है । (देखो ९.६) अर्थात् प्रतिक्षण वह एक रूप को छोड़कर अन्य रूप को तथा एक स्थान को छोड़कर अन्य स्थान को प्राप्त कर रही है। रूपों व स्थानों में नित्य परिवर्तन करते रहना वस्तु का स्वभाव है, और स्वभाव अहेतुक होता है, उसमें तर्क नहीं चलता। ऐसा परिवर्तन वस्तु में नित्य दिखाई दे रहा है। यदि किसी भी एक पदार्थ में किसी भी एक क्षण यह परिवर्तन रुका हुआ दिखाई दिया होता तो उसे हम स्वभाव कभी न कहते, क्योंकि स्वभाव में कभी ऐसी बाधा नहीं पड़ा करती कि कभी तो दिखाई दे जाए
और कभी नहीं। यदि वस्तु में स्वयं ऐसा परिवर्तन करने का स्वभाव न हुआ होता तो लोक की कोई भी शक्ति उसे परिवर्तन कराने में समर्थ न हुई होती। जलने योग्य पदार्थ को ही जलाया जा सकता है, अबरक को नहीं। यदि परिवर्तन करना वस्तु का स्वभाव न हुआ होता तो लोक में कोई भी कार्य देखने में न आता, लोक कूटस्थ हो जाता। विश्व में दीखने वाली यह भाग दौड़ कैसे दृष्टि में आती? और यह तो स्पष्ट देखने में आ रही है, इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष दीखने वाले को अस्वीकार करना पक्षपात् है । अत: निश्चित् हुआ कि वस्तु में कार्य अर्थात् परिवर्तन, उस वस्तु के अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण हो रहा है, यह कार्य-व्यवस्था का एक अंग हुआ।
४. निमित्त स्वभाव से केवल परिवर्तन हो सकता है विशेष कार्य नहीं । कार्य किसी भी योग्य अन्य वस्तु का संयोग प्राप्त करके ही होता है । संयोग-विहीन कोई भी कार्य आज विश्व में दिखाई नहीं देता । यह पुस्तक मेरे हाथ के बिना उठ नहीं रही है । इस लकड़ी का यह चौकी वाला रूप भी बिना खाती के बन नहीं पाया है । एक अणु भी दूसरे अणुओं से आकर्षित हुए बिना गतिमान होता दिखाई नहीं देता। यह खम्बा भी बिना हवा-पानी या गर्मी-सर्दी का संयोग मिले जीर्ण नहीं हो रहा है। यदि यथायोग्य संयोग न हो तो कार्य होना असम्भव है। क्योंकि यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है, अत: सरलता-पूर्वक स्वीकार कर लेना चाहिये । देखते हुए भी मात्र भ्रम कहकर इसे टाल देना और स्वीकार न करना पक्षपात् है, ज्ञान की खेंच है । ज्ञान को ढीला करके देखें तो न स्वीकार करने का कोई कारण नहीं है। यहाँ भले किसी भी पक्षवश स्वीकार न करें पर जीवन प्रवाह के २४ घन्टों में भी इनकी स्वीकृति न हो, तब मानें।
अरे अरे ! मुखपर यह उदासी सी क्यों दीखने लगी? निराशा की रेखायें क्यों खिंचने लगी? सम्भल प्रभु सम्भल ! पहले ही सावधान कर दिया था और अब फिर कर रहा हूँ। अन्तरंग की इस खेंचतान को छोड़, तेरे हृदय में उठने वाली इस शंका का मुझे भान है । 'वस्तु -स्वतन्त्रता के प्रकरण में यह परतन्त्रता कैसी?" यही है तेरा प्रश्न या कुछ और? घबरा नहीं, कथन-क्रम में यथा स्थान उत्तर आ जायेगा और विषय स्पष्ट कर दिया जायेगा। यहाँ वस्तु को परतन्त्र बनाने का अभिप्राय नहीं है, “संयोग होते दिखाई देते हैं या नहीं" बस इतनी बात है । संयोग हुए बिना क्या कोई कार्य होता दिखाई देता है? यदि नहीं तो क्यों स्वीकार नहीं कर लेता? बस इतनी ही बात स्वीकार करने को कह रहा हूँ कि संयोग होता है संयोग जबरदस्ती करता या कराता है। यह सिद्ध नहीं किया जा रहा है, और न ही ऐसा अभिप्राय है । जितनी बात कही जाये उतनी ही बात ग्रहण करें, बिना कहे अपनी ओर से उसमें कुछ अन्य बात मिलाने का प्रयत्न न करें । संयोग प्राप्त होने पर कार्य कैसे होता है और कौन करता है, यह बात आगे कही जायेगा। अत: कार्य-व्यवस्था में संयोग या निमित्त का होना भी एक अंग अवश्य है जिसके बिना कार्य होना असम्भव है।
निमित्त केवल उपस्थित मात्र हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि वस्तु में कार्य या परिवर्तन होने के समय उपस्थित तो अनेक पदार्थ हुआ करते हैं, पर वे सब निमित्त नहीं हुआ करते । निमित्त तो उन सब उपस्थित-पदार्थों में से हम उसी
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