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________________ ११. कार्य कारण व्यवस्था ६३ २. पंच समवाय आवश्यकता केवल इस बात की है कि यदि धारणाओं में पहले का कोई पक्ष पड़ा है तो थोड़ी देर के लिये उसे छोड दीजिये। अभिप्राय में खेंचतान न रखिये। क्योंकि वस्त-व्यवस्था बडी जटिल व उलझी हई है। यद्यपि एक ही बार सब कुछ देखने में तो खेंचतान का काम नहीं है परन्तु शब्दों में उसे एक ही बार दर्शाने की शक्ति न होने के कारण क्रम से ही व्याख्या की जानी सम्भव है। अत: कथन-क्रम में कभी तो ऐसी बात आयेगी जो कि आपमें से कुछ व्यक्ति पहले से ही स्वीकार करते हैं और शेष व्यक्ति नहीं और कुछ बात ऐसी आयेगी जो कि वे शेष व्यक्ति तो स्वीकार करते हैं पर पहले वाले कुछ नहीं। इसका कारण यही है कि हमने कुछ व्यक्ति-विशेषों से सुनकर या किन्हीं शास्त्र विशेषों से पढ़कर वे बातें अवधारित कर ली हैं, परन्तु उनके अतिरिक्त शेष बातों का या तो निषेध सुनने में आया है या वे सुनने पढ़ने को ही मिली नहीं हैं। इसलिये उन-उन बातों का कुछ पक्ष पड़ा हुआ है। वह सम्भवत: अब भी आपको वस्तु-व्यवस्था समझने में बाधक पड़े। अपने अनुकूल बात सुनकर स्वभावत: ही कुछ प्रसन्नता तथा प्रतिकूल बात सुनकर कुछ खिंचाव सा चित्त में उत्पन्न हुआ करता है, जिसमें से अनेकों शंकायें व प्रश्न खेंचतान का रूप धारण करके निकल पड़ते हैं। क्योंकि व्यवस्था जटिल है और एक दिन में ही बताई नहीं जा सकती, इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि ऐसी शंकाओं को तब तक के लिये दबा रखें जब तक कि प्रकरण पूरा न हो जाये । विश्वास दिलाता हूँ कि प्रकरण पूरा हो जाने के पश्चात् आपके हृदय में कोई शंका नहीं रह पायेगी और फिर भी यदि रह गई तो अन्त में प्रश्न कर लेना, अभी नहीं। धीरे-धीरे आपकी सर्व शंकाओं का समाधान हो जायेगा। दूसरी आवश्यकता इस बात की है कि शब्दों म की पकड़ को छोड़कर वस्तु में कुछ पढ़ने का प्रयत्न करें। जो बातें उसमें नित्य अनुभव में आये या दिखाई दें उन सबको सरलता पर्वक स्वीकार करें और एक का भी निषेध करने का प्रयत्न न करें. क्योंकि इस प्रकार आपके ज्ञान में वस्तु का तदनुरूप प्रतिबिम्ब न पड़ने पायेगा; वह लंगड़ा हो जायेगा। इसलिये वह ज्ञान बजाय साधन होने के आपके मार्ग का बाधक बन बैठेगा और हानि आपको होगी मुझे नहीं, क्योंकि मेरी धारणा तो जैसी है वैसी ही रहेगी। अपने हित-अहित को सोचकर अब ज्ञान को ढीला करके सुनिये। पदार्थ के स्वभाव अर्थात् पारिणामिक भाव को लक्ष्य में लेकर पदार्थ का विचार करने पर ही यह रहस्य समझा जा सकता है, उसकी शुद्ध व अशुद्ध व्यञ्जन पर्यायों को लक्ष्य में लेने से नहीं। अत: सूक्ष्म अध्यात्म का परिचय पाने के लिये अन्तर में स्थिर दृष्टि करने की आवश्यकता है। चञ्चल दृष्टि में उसका प्रवेश नहीं। क्योंकि प्रसंग आने पर वह दृष्टि अपने लक्ष्य से बहक जाती है । 'ज्ञान से तन्मय होने के कारण आत्मा का काम जानने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है' इस बात को स्वीकार कर लेने पर भी, 'घट बनाना कुम्हार का काम नहीं' जब ऐसा समझाने का अवसर आता है, तो तुरन्त वह दृष्टि अपने पूर्व के लक्ष्य पर से बहककर इस चिन्ता में पड़ जाती है कि कुम्हार के बनाये बिना घट बना कैसे? अर्जुन को लक्ष्य साधते समय जिस प्रकार कौवे की आँख के अतिरिक्त और कुछ दिखाई नहीं देता था, भले ही वहाँ वृक्षादि अनेकों पदार्थ पड़े हों, इसी प्रकार पदार्थ का लक्ष्य साधते हुए तुम्हें भी उसके पारिणामिक भाव या स्वभाव के अतिरक्ति कुछ अन्य दिखाई नहीं देना चाहिये, भले ही वहाँ निमित्त-नैमित्तिक अनेकों संयोग पड़े हों। ऐसे स्थिर लक्ष्य में निमित्त-नैमित्तिक भाव भी अभेद व अखण्ड वस्तु के अपने अन्दर ही देखा जाता है, जैसा कि ग्रन्थाधिराज समयसार की १०० वीं गाथा की टीका करते समय भगवत्-अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि “ज्ञानी या अज्ञानी कोई भी घट बना नहीं सकता। उपादान-रूप से तो नहीं पर निमित्तरूप से भी नहीं बना सकता। अज्ञानी भी निमित्त रूप से यदि कुछ कर सकता है तो केवल घट बनाने का विकल्प ही कर सकता है, इसके आगे कुछ नहीं।" अत: इस सूक्ष्म दृष्टि को समझने के लिये अब लक्ष्य को स्थिर कीजिये।। वस्तु की कार्य-व्यवस्था में हम पाँच बातें देखते हैं । १. वस्तु का स्वभाव, २. किसी न किसी अन्य बात का संयोग या निमित्त, ३. वस्तु का पुरुषार्थ, ४. काल या समय का नियतिपना या काल लब्धि, ५. भवितव्य । इन पाँचों का क्रम से विश्लेषण किया जाना है, ध्यान से सुनना और ज्ञान में सबको एकत्रित करते रहना, क्योंकि कार्य व्यवस्था में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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