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११. कार्य कारण व्यवस्था
( १. कार्य शब्द; २. पंच समवाय; ३. स्वभाव; ४. निमित्त; ५. निमित्तोपादन मैत्री; ६. पुरुषार्थ ।
अहो दृष्टि की व्यपाकता ! जिसके प्रकट हो जाने पर सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था का स्वातन्त्र्य हस्तामलकवत् स्पष्ट दीखने लगता है । जिसके प्रकट हो जाने पर कर्ताबुद्धि स्वत: किनारा कर जाती है और एक ज्ञायक-मात्र-भाव, साक्षी रहने मात्र का भाव जागृत हो जाता है, साम्यता अवतार लेती है और जीवन शान्त हो जाता है । सुन प्रभो सुन ! आज स्वातन्त्र्य की जय घोषणा हो रही है, विश्व का कण-कण आज हर्ष के हिंडोले में झूल रहा है। क्यों न खुशी मनाये आज वह ? जीव अजीव तत्त्व विषयक विवेक-ज्ञान के अन्तर्गत उठने वाले विविध प्रश्नों में से चार प्रश्नों प
प्रश्नों पर विचार किया जा चुका । अब चलता है पाँचवा प्रश्न, “ये दोनों तत्त्व किस प्रकार परस्पर में मिलकर बाह्याभ्यन्तर प्रपञ्चरूप इस विश्व की तर्कातीत कार्य-व्यवस्था का संचालन कर रहे हैं?” विषय कुछ कठिन तथा जटिल है । परन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं। यथासम्भव सरल बनाने का प्रयत्न करूँगा। इस विषय की जटिलता को देखकर ग्रन्थ को छोड़ न देना। आगे पुन: सरल तथा रोचक हो जायेगा।
१. 'कार्य' शब्द-अपने जीवन की अशान्ति का मल खोजने जाऊँ तो प्रत्यक्ष ही है। २४ घन्टे की यह करने-धरने की, बनाने-बिगाड़ने की, मिलाने-हटाने की दौड़धूप ही तो जीवन की वह अशान्ति है जिसे दूर करना इष्ट है। अर्थात मैं हर समय कछ न कछ काम करना चाहता हूँ, और कर रहा है, इस बात से बिल्कल बेखबर कि मैं क्या कर रहा हूँ और क्या करना चाहता हूँ। इस तथ्य की खोज निकालने के लिये पहले मुझे यह निर्णय करना है कि काम, जिसके पीछे में हर समय लगा रहता हूँ, वह वास्तव में है क्या बला।।
आइये विचार करें । देखो मैं कह रहा हूँ “मुझे आज देहली जाना है।" विचारिये कि क्या करना है । सहारनपुर से उठकर देहली जाने का या अपना स्थान-परिवर्तन कर देने का नाम ही तो देहली जाना है या कुछ और ? अर्थात् देहली जाने का काम अपना स्थान परिवर्तन कर लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं। "पुस्तक उठाकर लाओ", यह दूसरा वाक्य है । इसमें भी छिपा है एक काम । विचारिये, पुस्तक उठाकर लाना, उसके स्थान परिवर्तन के अतिरिक्त
और क्या? एक स्थान से उठाकर दूसरे स्थान पर पहँचा देना ही तो पस्तक उठाकर लाना है या कछ और ? “मेरे लिये एक मेज बना दो" यह तीसरा वाक्य है । विचार करें तो लकड़ी की हालत बदलकर अन्य हालत-विशेष में लाना ही तो मेज बनाना है या कुछ और? अर्थात लकड़ी का रूप-परिवर्तन करना ही वास्तव में मेज बनाने का काम है। औ इसी प्रकार कोई भी लोक का काम करने का विचार कीजिये, वह इन दोनों कोटियों में से किसी न किसी प्रकारका हेगा। या तो होगा अपना व किसी अन्य का स्थान परिवर्तन करने रूप और या होगा अपना या किसी अन्य का रूप-परिवर्तन करने रूप।
बस सिद्धान्त निकल आया, इसे याद रखना, आगे के प्रकरणों में इसे लागू करना होगा। “काम कहते हैं स्व तथा पर किसी भी पदार्थ के स्थान परिवर्तन को या रूप-परिवर्तन को।"
२. पंच समवाय अब देखना है कि वस्तु में यह कार्य करने किये जाने की व्यवस्था किस प्रकार हो रही है अर्थात् काम कौन करता है, किसके द्वारा करता है, किसके लिये करता है, किसमें-से करता है और किस के सहारे करता है । जब तक स्पष्ट रूप से यह बात जान न लूँगा, मेरी पूर्व की धारणाओं में अन्तर पड़ना असम्भव है, जिसके बिना इस करने धरने की व्यग्रता से छुटकारा मिलना असम्भव है। अत: शान्ति के उपासक के लिये वस्तु की कर्ता-कर्म या कार्य-कारण व्यवस्था का परिचय पाना अत्यन्त आवश्यक है। यद्यपि विषय कुछ सैद्धान्तिक रूप धारण करके अवतरित हुआ है, जो मेरी शैली के विरुद्ध है, पर क्या करूँ इसके बिना काम चलेगा नहीं । अपनी पुरानी धारणाओं को तोड़ने के लिये मुझे वस्तु-व्यवस्था पढ़नी ही होगी। विषय सम्भवत: कुछ कठिन लगे परन्तु ध्यान दोगे तो कुछ कठिन न पड़ेगा, क्योंकि हर बात अनुभव में आ रही है।
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