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________________ १०. ज्ञानधारा कर्मधारा ६१ ३. सत्य पुरुषार्थ आन्तरिक जीवन का गला घोंट रहा हो । लोक को वह अवश्य सब कुछ करता हुआ दिखता है, पर वास्तव में वह स्वयं कुछ भी नहीं कर पाता । इसी को अरुचि पूर्वक करना कहते हैं । यही 'गीता' का अनासक्त योग है। यही जल में कमलवत् भिन्न रहने का अभिप्राय है । घर में रहते हुए भी विरागी इसी का नाम है । लौकिकजन इस स्थिति को साधना का अन्त मानते हैं, पर वास्तव में अध्यात्ममार्ग की साधना यहाँ से प्रारम्भ होती है । यह तो लौकिक दिशा की बात कही । धार्मिक दिशा में भी वह पूजा, उपवास, व्रत, उपदेश आदि सब कुछ करता है, पर अन्दर से नहीं केवल बाहर से । इन कार्यों को वह इसलिये नहीं करता कि यह सब कार्य उसे अच्छे या हितरूप लगते हैं, बल्कि इसलिये करता है कि ऐसा करते हुए उसे क्षण भर के लिये अधिक पुष्ट कर्मधारा से हटकर हीनाधिक रूप से ज्ञानधारा में प्रवेश पाने का अवसर मिल जाता है। वह ही वास्तव में उसके लिये अमृत है, हित है । जिस प्रकार अन्न खा प्राणों की रक्षा होती है और इसलिये अन्न को ही प्राण कह देते हैं; उसी प्रकार इन बाह्य धार्मिक क्रियाओं का आश्रय लेने से उसे उपरोक्त अमृत या हित की प्राप्ति होती है, इसलिये इन धार्मिक क्रियाओं को भी हित कहा जाता है । परन्तु वास्तव में यह सब धार्मिक कार्य करना उसे अन्दर में सदा अखरता रहता है। 'उन कार्यों को करने के सर्व विकल्प कर्मधारा रूप हैं' यह समझता हुआ वह उन विकल्पों को सदा त्याज्य मानकर उनसे पीछे हटने का प्रयत्न करता रहता है। I पर इस का अर्थ यह न समझ जाना कि इन धार्मिक क्रियाओं को सर्वथा अनिष्ट मानकर, वह अन्य लौकिक कार्य तो करे, परन्तु इनको न करे। अभिप्राय ठीक-ठीक समझना। आगे भी 'आस्रव' के प्रकरण में इन धार्मिक क्रियाओं के निषेध का कथन आयेगा, अतः यहाँ ही अभिप्राय को समझने का प्रयत्न करें अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। ज्ञानधारा में उतरने की अतीव उत्कण्ठा के कारण वह उनको छोड़कर ध्यान निमग्न हो जाना चाहता है, यही उपरोक्त वक्तव्य का प्रयोजन है। उन क्रियाओं को छोड़कर लौकिक कर्मधारा में उलझना जीवन को ऐसे अन्धकूप में गिरा देगा जहाँ से निकलना अनन्त-काल में भी सम्भव न हो सकेगा । देव, गुरु, शास्त्र व उपरोक्त धार्मिक अनुष्ठान उस समय तक अत्यन्त आवश्यक हैं, जब तक कि साक्षात् ज्ञानधारा की उपलब्धि हो नहीं जाती, बिल्कुल उसी प्रकार जिस प्रकार कि अन्न खाने की उस समय तक अत्यन्त आवश्यकता रहती है जब तक कि इस शरीर के प्रति का किञ्चित् भी राग हृदय में वास करता है । प्रत्येक बात पुनः दोहराई जानी सम्भव नहीं है, अतः इसको यहाँ ही दृढ़तया हृदयंगम कर लेनी योग्य है, नहीं तो आगे के प्रकरणों में उलटा अर्थ ग्रहण हुए बिना न रह सकेगा। और यदि ऐसा हो गया तो प्रभु ही जाने कि क्या होगा । नाथ ! ऐसी कुबुद्धि से सबकी रक्षा हो । करना और बात है और विचारना और । करने और विचारने में महान् अन्तर है । साधक का सर्व ही शुभ व अशुभ क्रियाओं का करना तो कर्मधारारूप होता है पर विचारना ज्ञानधारारूप। उसकी चर्चा का विषय भी ज्ञानधारा की ओर ही झुका रहता है, क्योंकि अन्दर से उसे वही भाती है। बाहर और अन्दर में इस महान् अन्तर को देखने में असमर्थ जगत उसकी चर्चा में आगम-विरोध व एकान्त के दर्शन करता है, पर उसे स्वयं को ऐसा प्रतीत नहीं होता । इसे ही कहते हैं व्यवहार व निश्चय-मार्ग की सन्धि । अन्दर व बाहर की क्रियाओं में यह अन्तर कैसे सम्भव है, इस बात का उत्तर आगे आस्रव प्रकरण में दिया जायेगा । यदि अन्दर व बाहर में यह अन्तर न हो तो केवल एक शुभाशुभ कर्मधारा में ही रहे या केवल एक शुद्ध ज्ञानधारा में ही रहे । परन्तु ये दोनों ही 'मोक्षमार्गी' नहीं कहलाये जा सकते। केवल कर्मधारावाला तो निःसन्देह संसारमार्गी है ही; परन्तु केवल ज्ञानधारा वाला भी मोक्षमार्गी नहीं है। वह या तो स्वयं भगवान है और या स्वछन्दाचारी -ज्ञानवादी- एकान्त दृष्टि है, या तो मोक्ष रूप है और या घोर-संसारी है। जो स्वयं मोक्षरूप हो जाता है वह 'मोक्षमार्गी' नहीं होता । मोक्षमार्गी के अन्दर के अभिप्राय में तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञानधारा का ही वास है, परन्तु बाह्य प्रवृत्ति में दो बातें दिखाई देती हैं- प्रत्यक्ष रूप से तो निषिद्ध-बुद्धिपूर्वक शुभ व अशुभ कर्मधारा और परोक्ष या अदृष्ट रूप से आंशिक ज्ञान व कर्मधारा का मिश्रण । यही मोक्षमार्ग है। चौथे से बारहवें गुणस्थान तक अर्थात् नीचे से ऊपर तक की साधना विषयक श्रेणियों में वह उत्तरोत्तर ज्ञानधारा की ओर झुकता चला जाता है, यहाँ तक कि उसके अन्त में जाकर पूर्ण ज्ञानधारा में निश्चल स्थिति पा जाता है । इस रहस्य को समझे बिना अध्यात्म-चर्चा लाभ की बजाए हानि पहुँचाती है, क्योंकि ऐसी अवस्था में वह वादविवाद रूप विजिगीषु कथा बन जाती है, वीतराग-कथा रहने नहीं पाती । O www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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