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________________ ३७. उत्तम-शौच २५१ ३. लोभ पाप का बाप मुहम्मद गजनवी की बात याद होगी। सात बार सोमनाथ पर आक्रमण किया, सारा जीवन लूटमार में खोया, परन्तु क्या उस दिन को टाल सका जो हम सबको ढिंढोरा पीट-पीटकर सावधान किया करता है कि भाई ! मैं आ रहा हूँ, कुछ तैयारी कर लेना चलने की, कुछ बान्ध लेना मार्ग के लिए, सम्भवत: आगे चलकर भूख लग जाए। परन्तु इस लालसा की हाय-हाय में कौन सुने उसकी पुकार ? उसके आने पर रोना और झींकना, अनुनय-विनय करना, 'भाई ! दो दिन की मोहलत दे दो किसी प्रकार, कुछ थोड़ा बहुत बना लूँ, अब तक बिल्कुल खाली-हाथ बैठा था । भूल गया था कि मरना पड़ेगा आगे जाकर, दया करो।' उस समय आती है बुद्धि कि क्या किया है आज तक और क्या करना चाहिए था। पर अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गई खेत, वह दिन तो मोहलत देना जानता ही नहीं। अन्तिम समय गजनवी बिस्तर पर अन्तिम श्वास ले रहा है. सारा जीवन मानो बडी तेजी से घम रहा है उसके हृदय-पट पर बेहाल व बेचैन । कौन है इस सारे विश्व में जिसको सहायता के लिए पुकारे अब वह ? धन के अतिरिक्त और है ही क्या यहाँ ? लाओ सारा धन मेरी आँखों के सामने ढेर लगा दो, आज मैं रोना चाहता हूँ, जी भरकर, अपने लिये नहीं दूसरों के लिये कि अरी भोली दुनिया ! देख ले मेरी हालत और कुछ पाठ ग्रहण कर इससे, मुट्ठी बांधकर आया था, खाली हाथ जा रहा हूँ। इस दिन पर विश्वास नहीं आता था, सुना करता था पर हंस देता था। मैंने तो भूल की पर आप अपनी भूल को सुधार लें, इस दुष्ट लोभ से अपना पीछा छुड़ायें और जीवन में ही कुछ पवित्र व्यञ्जन बनाकर तैयार कर लें ताकि रोना न पड़े तुम्हें भी आगे जाकर, मेरी भाँति। देखिये इस लोभ की सामर्थ्य कि जिसके आधीन हो मैं न्याय-अन्याय से नहीं डरता, बड़े से बड़ा अनर्थ करता भी नहीं हिचकिचाता, इतना ही नहीं अन्याय करके उसे न्याय सिद्ध करने का प्रयल करता हूँ, “अजी मैं तो गृहस्थ हूँ, झूठ बोले बिना या सरकारी टैक्स मारे बिना, या ब्लैक किये बिना, या अधिकार से अधिक कर्म किये बिना कैसे चल सकता है मेरा काम, मैं कोई साधु थोड़े ही हूँ ? आप तो बहुत ऊँची बातें करते हैं, भला इस काल में ऐसी बातें कैसे चल सकती हैं ? न्याय पर बैठे रहें तो भूखे मरें", इत्यादि अनेकों बातें। परन्तु प्रभो ! करता रह अन्याय, कोई रोकता नहीं तुझे, तेरी मर्जी जो चाहे कर, गुरुवर तो केवल तुझे उस दिन की याद दिला रहे हैं । इस जीवन के लिए इतना किये बिना नहीं सरता, उस जीवन की ओर भी तो देख, वह भी तो तेरा ही जीवन है किसी और का नहीं, उसके लिए बिना किये कैसे चलेगा? 'न्याय पर बैठे रहने से भूखा मरना पड़ेगा', यह तो केवल उस लालसा की कमर थपथपाना है क्या सन्तोषी जीवित नहीं रहते? इतनी बात अवश्य है कि सन्तोष आने पर लालसा के प्राण समाप्त हो जाते हैं और तू लालसा को जीवित देखना चाहता है । तेरे भूखा मरने का प्रश्न नहीं है, हाँ लालसा के भूखा मरने का प्रश्न अवश्य है। परम वीतरागियों जैसी शुचिता न सही कुछ शुचिता तो धारण कर ही सकता है, कुछ तो इस लोभ को या लालसा को दबाने का प्रयत्न कर ही सकता है । ब्लैक मार्केट से तथा घूसखोरी से हाथ खेंच, आवश्यकता से अधिक पदार्थ-सञ्चय मत कर। देखिये इस लोभ का पराक्रम । इसकी पूर्ति के लिए ही अनेकों प्रकार के छल-कपट आदि की प्रवृत्ति रूप माया को पोषण मिलता है। इसकी किंचित् पूर्ति हो जाने पर मान को पोषण मिलता है और इसकी पूर्ति में किंचित् बाधा आ जाने पर क्रोध को पोषण मिलता है। शेष तीनों कषायों को बल देने वाला यही तो है । यदि यह दुष्ट न हो तो न है आवश्यकता मायाचारी की, न रहता है अवकाश मान व क्रोध को। क्रोध कषाय तो स्थूल है, बाहर में प्रत्यक्ष हो जाती है, परन्तु लोभ छिपा-छिपा अन्तरंग में काम करता रहता है और शेष तीनों की डोर हिलाता रहता है । इसके जीवन पर ही सर्व कषायों का जीवन है और इसकी मृत्यु पर सब की मृत्यु । यद्यपि सर्व कषायों का तथा सर्व दोषों का ही शोधन करना शौच है तदपि सबका स्वामी होने के कारण केवल लोभ के शोधन को शौच कहा जा रहा है। हाथी के पाँव में सबका पाँव। यह तो हुई गृहस्थ दशा में धन सम्बन्धी स्थूल लोभ-शोधन की प्रेरणा । अब चलती है धार्मिक क्षेत्र में प्रकट होने वाली, पहले भी अनेकों बार दृष्टि में लाई गई लोकेषणा सम्बन्धी अर्थात् ख्याति सम्बन्धी सूक्ष्म-लोभ शोधन की बात, जो सम्भवत: धन सम्बन्धी लोभ से भी अधिक भयानक है । जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त सर्व भूमिकाओं में स्थित शान्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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