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________________ ३७. उत्तम-शौच २५० ३. लोभ पाप का बाप में। इसके स्नान का फल प्राप्त होता है तब जबकि ध्यान किया जाए उनके हृदय में स्थित उस महा समता-सागर का, जिसमें से उद्भव हआ है इसका। इसके जल में स्नान करने का महत्त्व है तब जबकि स्मरण किया जाए उस महर्षि भगीरथ के पावन हृदय का जिसने लोक कल्याणार्थ आह्वानन किया था इसका । इससे मल-शोर चिन्तवन किया जाय श्मशानवासी उस परम वीतराग भगवान शिव का (ऋषभदेव का) जिसने अपने शीश पर धारण किया था साम्य रस की परमार्थ धारा को । ऐसा करे तो पवित्रता प्राप्त हो जाय तुझे, वह पवित्रता जो अन्तरंग मल को, रागद्वेषात्मक कषायों को तथा लोभ को धो डाले और जिसके कारण बाहर का यह शरीर भी पवित्र हो जाय, इतना पवित्र कि तब इस पर डाला हुआ जल पी जाना आप अपना सौभाग्य समझने लगें, उसे मस्तक पर चढ़ाकर अपने को आप धन्य मानने लगें। इससे पवित्रता मिलती है तब जबकि ध्यान किया जाय उस महातीर्थ का जहाँ से कि निकलकर चली आ रही है यह, जिसके कारण कि माना जा रहा है इसे पवित्र महातीर्थ, अर्थात् साम्यरस-भोगी भगवान शिवका, भगवान् ऋषभदेव का। इसका जल सड़ता नहीं इसलिए पवित्र नहीं है यह, बल्कि इसलिए पवित्र है कि यह उस स्थान से चली आ रही है जहाँ कि इस युग के आदिब्रह्मा ऋषभदेव ने स्वयं यथार्थ शौच या आन्तरिक स्नान किया था अर्थात् जहाँ बैठकर तपश्चरण-द्वारा उस महायोगी ने अन्तर के रागद्वेष-प्रवर्धक लोभ का संहार किया था। हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों से गिरती, पत्थरों से टकराती, कल-कल नाद करती, अनेकों छोटे-बड़े नालों में से प्रवाहित होती हरिद्वार में यह क धार बन जाती है। यह मझे उस परम पावन योगेश्वर के शचि जीवन की याद दिलाती है, जिसने कैलाश पर सारा आन्तरिक मल धोकर इसी गंगा में बहा दिया था और इस प्रकार अपने जीवन में पूर्ण शान्ति उत्पन्न करके आदर्शभूत शान्ति-गंगा का जीवन में अवतरण किया था। यदि उस पवित्र जीवन की याद करके मैं भी अन्तर्मल शोधन के प्रति प्रवृत्ति करूँ और अन्तरंग अशुचि को उस महान योगीवत् धो डालूं, तभी कहलाया जा सकता है गंगा-तीर्थ का यथार्थ स्नान । शरीर-मात्र को धोने से पापों का शमन होना सम्भव नहीं, अन्तरंग उपयोग को शान्ति-स्रोत में डुबा देने से पाप के बाप लोभ का शमन होता है। इस प्रकार का उत्तम स्नान करते हैं वे परम दिगम्बर वीतराग योगेश्वर जिनकी कि यह बात चलती है। इस उत्तम-शौच से उनका अन्तर्मल धुल जाने के कारण उनका शरीर पवित्र हो गया है, इतना पवित्र कि उसके स्नान का जल मेरे लिए चरणामृत है, जिसका पीना या मस्तक पर चढ़ाना मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ। बाहर में अत्यन्त मलिन, वर्षों से स्नान रहित तथा दन्तमज्जन रहित इस शरीर में भी इतनी शुचिता आ जाती है इस उत्तम स्नान से अर्थात् लोभ-शोधन से। ३. लोभ पाप का बाप यहाँ सर्व काषायों में लोभ को ही प्रधान बताया जा रहा है. लोक में भी लोभ को पाप का बाप बताया जाता है और यह कहना सत्य भी है; क्योंकि देखिये तो इस लोभ का प्राबल्य जिसके कारण कि ब्राह्मण पुत्र ने सब विवेक को तिलाञ्जली दे दी, कुल मर्यादा छोड़ दी, वेश्या के हाथ से रोटी का टुकड़ा मुँह में लेकर खा गया और साथ में कुछ तमाचे भी। इस प्रकार समझ गया वह उपरोक्त, लोकोक्ति की सत्यता । तुझको वैसा भी करने की आवश्यकता नहीं, अपने जीवन को पढ़ना मात्र ही पर्याप्त है । बता तो सही चेतन ! कि इस सबुह से शाम तक की भागदौड़, कलकलाहट, बेचैनी व चिन्ता का मूल क्या है ? यदि धन के प्रति लोभ न होता, यदि आवश्यकतायें अधिक न होतीं यदि सन्तोष पाया होता, धन-सञ्चय का परिमाण कर लिया होता तो क्या आवश्यकता थी इतनी कलकलाहट की व भाग-दौड़ की और क्या आवश्यकता थी चिन्तित होने की ? लोभ के आश्रित रहने वाली कोई लालसा या कामना ही तो है जो कि इस निस्सार धन की ओर तझ को इस बरी तरह खींचे लिये जा रही है। तझे स्वयं को पता नहीं कि कितना कमा चुका है तू, कितना कमाना है, कब तक कमाना है और कितना साथ ले जाना है ? इस लालसा के आधीन होकर जितना कुछ आज तक सञ्चय किया है, क्या कभी उस सर्व पर एक दृष्टि डालकर देखने तक का भी अवकाश मि । है तझे? अरे ! इतनी कलकल में रहते हए अपने परिश्रम का फल. वह जो कि तझ को अत्यन्त प्रिय है, देखने तक की सुध नहीं, भोगने की तो बात क्या ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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