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________________ ३७. उत्तम-शौच ( १. सच्चा शौच; २. गंगा तीर्थ; ३. लोभ पाप का बाप । १. सच्चा शौच साम्यरस-पूर्ण पावन गङ्गा में स्नान करके परम पावनता को प्राप्त हे परम पावन गुरुदेव ! मुझे भी पावनता प्रदान कीजिए। आज तक पावन अपावन के विवेक से हीन मैं अज्ञानवश भोग-सामग्री रूप मल में हाथ डाल डालकर बालकवत इसको चाटता रहा. इसमें से स्वाद लेता रहा. इस ही में अपना हित व कल्याण खोजता रहा। आज आपकी शरण में आ जाने पर भी, अपने वास्तविक स्वाद का भान हो जाने पर भी, अपने अशुचि हाथ मुँह धोकर यदि शुचिता उत्पन्न न करूँ, आपके जीवन में प्रवाहित इस साम्यरस गङ्गा में स्नान करके पवित्र न बनें, तो कब बनूँगा? सदा ही विष्टा का कीड़ा बना रहूँगा । उत्तम-शौच धर्म का प्रकरण है। 'शरीर तथा इसके भौग्य जड़ पदार्थों को, पुत्र मित्रादि चेतन पदार्थों को तथा अन्य सर्व पदार्थों को, यहाँ तक कि परमाणु मात्र को भी मैं अपने काम में ले आऊं इसमें से स्वाद ले लूँ, उसे बुला लूं, उसे भेद दूँ, उसे मिला लूँ, सम्बन्ध विच्छेद कर दूँ, बना, या बिगाड़ दूँ' इस प्रकार की अहंकार-बुद्धि अशुचि है, अपवित्र है । 'सर्व पदार्थ मेरे इष्ट हैं कि अनिष्ट हैं, मेरे लिए उपयोगी हैं कि अनुपयोगी हैं, मेरे लिए हित रूप हैं कि अहित रूप हैं' इस प्रकार के रागद्वेषात्मक द्वन्द्व ही वह अशुचि है जिसको धोने की सुध आज तक प्राप्त नहीं हुई। निज महिमा की अवहेलना करता हुआ सदा उनकी महिमा गाता आया । महा अशुचि बना हुआ चलते-चलते, भटकते-भटकते न जाने किस सौभाग्य से आज इस साम्यरस-गङ्गा का पवित्र तीर मिला ? भगवन् ! एक डुबकी लगाने की आज्ञा दीजिये। ऐसी डबकी कि फिर बाहर निकलने की आवश्यकता न पडे. उस नमक की डली की भाँति कि जिसे सागर की थाह लाने के लिए डोरे से बांधकर उसमें लटकाया गया हो। कछ देर पश्चात् डोरा खींचकर उससे पूछे कि कितना गहरा है यह सागर, तो वहाँ कौन होगा जो इस बात का उत्तर देगा? डोरा तो खाली पड़ा है, नमक की डली घुल चुकी है उसी समुद्र की थाह में । लेने गयी थी उस सागर की थाह और घुलमिल गयी है उसमें । इसी प्रकार जिन महिमा के प्रति बहुमान पूर्वक अन्तरंग में उछलते उस शान्त महासागर में, एक बार डुबकी लगाकर लेने जाये उसकी थाह, तो कौन होगा वह जो बाहर आकर तुझे बतायेगा कि यह शान्ति इतनी महिमावन्त है ? स्वयं ही लय हो जायेगा उसमें । साम्यता, सरलता, वीतरागता, स्वतन्त्रता, शान्ति, सौन्दर्य व आन्तरिक महिमा, सब उसी गङ्गा के, उसी महा सागर के नाम हैं। इसमें स्नान करने से वास्तविक पवित्रता आती है, वह पवित्रता जो अक्षय है, ध्रव है। आन्तरिक मैल को धोना वास्तविक पवित्रता है, तेरी निज की पवित्रता है। शरीर की पवित्रता तेरी पवित्रता नहीं, वह झूठी है । इसको धोने से, मल-मलकर स्नान करने से, तेरा शौच नहीं । स्वयं उसका भी शौच नहीं, तेरा तो कहाँ से हो । अथाह सागर के जल से धोकर भी क्या पवित्र किया जाना सम्भव है इसे ? हरिद्वार में बहने वाली पवित्र गङ्गा की धार में इसे महीनों तक डुबाये रखने से भी क्या इसका पवित्र होना सम्भव है ? विष्टा से भरा घड़ा क्या ऊपर से धोने से पवित्र हो सकता है ? खूब साबुन मलिये, पर क्या इसमें शुचिता आनी सम्भव है ? यदि गङ्गा-जल में स्नान करने अथवा साबन रगड़ने मात्र से इसकी पवित्रता स्वीकार करते हो तो जरा इतना तो बताओ कि जब स्नान करने के पश्चात् यह पवित्र हो चुके, तब यदि मैं एक लौटा गंगा-जल का डाल दूँ इस पर और उस जल को थाल में रोक लूँ तो क्या उस जल को आप पीने के लिए तैयार हो जायेंगे? इसी प्रकार स्नान के पश्चात् शरीर पर दुबारा लगाये गये साबुन के झाग क्या अपने शरीर पर पोतने को तैयार हो जायेंगे? नहीं, तो फिर कैसे कह सकते हो कि गंगा में स्नान करने से मैं पवित्र हो गया, मेरा शरीर पवित्र हो गया। २. गंगा-तीर्थ–गङ्गा-स्नान से शुचिता-प्राप्ति होती है तब जबकि हृदय में धारण किया जाए उसके तट पर तपस्या करने वाले ऋषियों तथा परम ऋषियों की उस चरण-रज को, जो कि सदा से घुलती चली आ रही है इसके जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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