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________________ २४८ ३६. उत्तम-आर्जव ४. आत्म-सम्बोधन __ और “यदि कोई तेरे दोष जान ही गया तो कौन बुरा हुआ ? वह तुझे क्या बाधा पहुँचा सकेगा? थोड़ी निन्दा ही तो करेगा ? तब तो अच्छा ही होगा, संस्कारों की शक्ति और क्षीण हो जायेगी। और तुझे चाहिए ही क्या? तेरा मनचाहा तुझे देता है, उससे भय खाने की क्या बात ? वह तो तेरा हितैषी ही है। फिर अनहुए दोष तो नहीं कहता, झूठ तो नहीं बोलता, तूने जो दोष बताये हैं, वही तो कहता है । इसमें कौन बुराई है ? वह तो उन दोषों को पुन:-पुन: कहकर तुझे सावधान करने का प्रयत्न कर रहा है कि तुझसे ऐसा दोष बना था, अब न बनने पावे । बता क्या बुराई हुई ? महान उपकार किया। इस उपकार से भय खाना ठीक नहीं, जो कहना है स्पष्ट कह डाल, निर्भय होकर कह, छिपा मत।" इस प्रकार विचार करता हुआ वह अपने मन को सम्बोधता है। "अरे । आत्मख्याति-स्वरूप भगवान ! इस बाहर की ख्याति पर क्या जाता है। दो दिन में विनश जाएगी। छोड़ जाएगा यह शरीर तो कौन सनेगा इसे ? दो दिन के लिए क्या रीझता है इस पर ? और फिर तेरी ख्याति तो शान्ति में रस लेने से है न कि इन शब्दों में ? भव-भव में ख्याति देने वाली, तीन-लोक में ख्याति फैलाने वाली, अपनी सहज ख्याति की अवहेलना मत कर । इस बाह्य ख्याति के कारण एक दोष पर दूसरा दोष मत लगा, सदा से दोषों का पुञ्ज बना आ रहा है, अब इनमें और वृद्धि मत कर । निज-शान्ति की ओर देख, उसकी महिमा का गान कर । तनिक सी इस ख्याति की भावना के लिए प्रायश्चित्त से मत घबरा, यह तेरी शान्ति की रक्षा करेगा।" ___ “अरे अलौकिक स्वाद के रसिक भगवन् ! भगवान होकर भी इन रंक जीवों से मिठाई, फल, मेवा, खीर आदि की भिक्षा मांगते क्या लाज नहीं आती तुझे? जिह्वा इन्द्रिय को काबू में करने के प्रयोजन से त्याग किया जाता है न कि उसे पुष्ट करने के लिए? अपने इस कुटिल अभिप्राय से डर । चार आने का अन्न छोड़ कर दस रुपये का भोजन करे और साधु बनना चाहे, शान्ति का उपासक बनना चाहे, यह कैसे सम्भव है ? यदि अन्तरङ्ग स्वाद का बहुमान है तो क्यों इस धूल में स्वाद खोजता हुआ अपने को ठग रहा है ? यह देख उस ओर, परदे की ओट में कौन खड़ी मुस्करा रही है, मानो तेरी खिल्ली उड़ा रही है, “चला है साधु बनने, मुझे जीतने, पता नहीं मेरा नाम माया है, जिसने सब जग खाया है ? अरे ! तुझ बेचारे में कहाँ सामर्थ्य कि मेरी ओर आँख उठाकर भी देख सके ? रंक कहीं का।" प्रशंसा के शब्द सुनाई देते हैं, पर इन शब्दों को नहीं सुनता । भूल गया अपने पराक्रम को ? उठ, जाग, गरजना कर, 'मुझे शान्ति चाहिए और कुछ नहीं' फिर देख कहाँ जाती है यह कुटिला माया, और कहाँ जाती है इसकी हंसी।" । इस प्रकार के अनेकों विचारों द्वारा अन्तरङ्ग के उस सूक्ष्म अभिप्राय को काट फेंकता है वह योगी ; तथा परमधाम, शान्ति-धाम को प्राप्त कर, बन जाता है वही जिस लक्ष्य को लेकर कि चला था वह । उत्कृष्ट रूप से न सह आँशिक रूप से भी मैं अपने लौकिक व धार्मिक जीवन में आने वाली इस माया को, उन विचारों के द्वारा क्षति नहीं पहुँचा सकता? इसमें मेरा ही तो हित है, गुरुदेव का तो नहीं? यह है कुछ पुरुषार्थ, कुछ भावनाएँ जिनसे कि आर्जव-धर्म की रक्षा की जा सकती है, माया परिणति से तथा उसकी वासनाओं से बचा जा सकता है। इसी विषय का कुछ विस्तार आगे ‘उत्तम-सत्य' के अन्तर्गत भी किया जाने वाला है। 14 6 ज्ञानी बहार में सोते हुए भी अन्तरंग में | सदा जागते हैं। संस्कार सेना उनसे भय खाकर भाग जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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