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३६. उत्तम-आजव
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४. आत्म-सम्बोधन
यह तो है लौकिक क्षेत्र में मेरा दम्भाचार । लीजिये अब धार्मिक क्षेत्र में भी देखिये । १. अन्तरंग में शरीर को ही पोषण करने का या भोगों में से ही रस लेने का अभिप्राय रखते हुए बराबर बाहर में यह कहता रहता हूँ कि 'शरीर मेरा नहीं है, मुझसे पृथक् अन्य द्रव्य है, भोगों में सुख नहीं है, मुझे तो शान्ति चाहिए।'२. खूब सुरताल से तन्मयता के साथ भगवान की पजा करता हूँ. इस अभिप्राय से कि लोग मझे धर्मात्मा समझें, मेरे पत्र का नाता किसी बड़े घर में हो जाए। ३. भगवान की प्रतिमा स्थापित कराता हूँ, मन्दिर बनवाता हूँ, इस अभिप्राय से कि अधिक धन-लाभ हो। ४. खूब दान देता हूँ , इस अभिप्राय से कि लोक में प्रतिष्ठा हो, लोग मुझे धनिक समझें, कोई आशीर्वाद दे दे या भोग-भूमि में चला जाऊँ । ५. सच बोलता हूँ इसलिए कि लोग मुझे सत्यवादी मानकर मेरा सम्मान करें। ६. अति नम्र भाव से किसी का सच्चा-सच्चा दोष कह देता हूँ इसलिए कि उसके प्रति अपना द्वेष निकालने का अवसर मिल जाए । इत्यादि अनेक प्रकार से अभिप्राय की कुटिलता के कारण अमृत में विष घोलकर, अपने हाथों अपने पाँव में कुल्हाड़ी मारा करता हूँ मैं; अपने हाथों अपने घर में आग लगाया करता हूँ मैं, अपने हाथों व्याकुलता के साधन जुटाया करता हूँ मैं और मजे की बात यह कि शान्त होना चाहता हूँ, धर्म करना चाहता हूँ।
३. साधु की कुटिलता-गृहस्थ दशा तक ही इस कुटिल-भाव का बल चलता हो, सो नहीं । यथायोग्य रूप में भूमिकानुसार उत्कृष्ट साधु की वीतराग दशा में भी यह कुटिलता अपना जोर चलाकर उसे डिगाने का प्रयत्न किया करती है । परन्तु वास्तव में पग-पग पर सावधानी रखने वाले, कुशल सारथी के रथ में बैठे, कुशल वैद्य के निरीक्षण में रहने वाले, उन पर भले वह क्षणिक प्रभाव डालने में समर्थ हो जाए,पर उन्हें उनके पद से नहीं डिगा सकती। इस कुटिलता से अपनी रक्षा करने के लिए ही किसी योग्य आचार्य की अध्यक्षता में रहकर साधुजन सन्तुष्ट होते हैं, और वे
मातावत उनकी रक्षा करते हैं. पग-पग पर उन्हें दोषों के प्रति सावधान करते हए उनके मार्ग को निष्कण्टक बनाते हैं। तथापि प्रमादवश यदि कदाचित् कोई दोष बन जावे तो अत्यन्त करुणा पूर्वक एक कुशल वैद्य की भाँति यथोचित प्रायश्चित्त रूप औषधि देकर तुरन्त उसका शमन करते हैं । (दे० ४०/३.१) फिर भी देखो इस अनृत माया की कुटिलता कि
१. ऐसे कल्याणकारी प्रायश्चित्त से डरकर कदाचित् आचार्य से अपनी दुर्बलता बताते हुए, अर्थात् ‘कमजोर हूँ, खाना नहीं पचता है, पीछे कई दिन तक ज्वर रह चुका है, इत्यादि' अनेक प्रकार की बातें बनाकर, साधु अपना दोष गुरु के सामने प्रकट करता है, इस अभिप्राय से कि किसी प्रकार प्रायश्चित न मिले और मिले तो कम मिले । 2. 'मेरे दोष कोई जानने न पावे', इस अभिप्राय से गुरु से प्रश्न करता है कि यदि ऐसा दोष किसी से बन जावे तो उसका क्या प्रायश्चित्त है ? ३. जो दोष दसरों पर प्रकट हो चुके हैं, उन्हें तो गुरु से कह देता है परन्तु अन्तरङ्ग के 3 अन्य दोषों को नहीं, इस अभिप्राय से कि ये दोष तो सब जान ही गये हैं, कह कर अपनी बड़ाई ही कर ले । ४. और कभी-कभी सकल दोषों को ज्यों का त्यों कह देता है, उनके द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त भी हर्ष से स्वीकार कर लेता है, उसका पालन भी ठीक रीति से करता है, परन्तु इस अभिप्राय से कि संघ पर मेरी सरलता की छाप पड़ जाये । ५. नमक का त्याग कर देता है, इस अभिप्राय से कि खूब खीर, हलवा, मिठाई व पूड़ी खाने को मिले । ६. अत्र का त्याग कर देता है, इस अभिप्राय से कि खूब मेवा व फल खाने को मिले।
४. आत्म-सम्बोधन-इस प्रकार अनेक कुटिल अभिप्रायों को रखकर ऊँची भूमिका में भी कदाचित् कुछ क्रियायें हो जाती हैं । उस समय वे परम योगेश्वर विचार करते हैं कि “भो चेतन ! तेरा स्वरूप तो शान्ति है । दूसरे के लिए इसका विनाश क्यों करता है? शरीर की रक्षा के लिए शान्ति को क्यों कएँ में धकेलता है? गरुदेव तो करुणा-बुद्धि से तेरा दोष निवारण करने के लिए तुझे यह प्रायश्चित्त दे रहे हैं, द्वेषवश नहीं । इसमें तो तुझे इष्टता होनी चाहिए न कि अनिष्टता, इसके ग्रहण में तो उल्लास होना चाहिए न कि भय । प्रायश्चित्त-दाता गुरुवर के प्रति तो तुझे बहुमान होना चाहिए कि नि:स्वार्थ ही केवल करुणा-बुद्धि से प्रायश्चित्त रूप औषधि प्रदान करके वे तेरे ऊपर महान अनुग्रह कर रहे हैं। क्यों दोषों को छिपाने का प्रयत्न करता है ? इससे तो तेरी ही हानि है। ये दोष एक दिन संस्कार बन बैठेगें, जिन संस्कारों का कि विच्छेद तू बराबर करता चला आ रहा है । सब किया कराया चौपट हो जायेगा।"
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