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________________ ३६. उत्तम-आर्जव ( १. सामान्य परिचय; २. गृहस्थ की कुटिलता; ३. साधु की कुटिलता; ४. आत्म-सम्बोधन। १. सामान्य परिचय हे सरल-स्वभावी भगवान आत्मा ! धन, शरीर व भोगादि में इष्टानिष्ट बुद्धि के कारण अनेकों खोटे अभिप्राय धर-धर के मैं सदा तेरा अनिष्ट करता चला आया हूँ। मुझे क्षमा कर दीजिए भगवन् ! अब तक मैं अज्ञानी था, हिताहित से बिल्कुल अनभिज्ञ । आज उत्तम-आर्जव-धर्मयुक्त परमवीतरागी गुरुवर से आर्जव-धर्म का उपदेश सुनकर मेरी आँखें खुल गई हैं। आर्जव-धर्म का प्रकरण है। 'ऋजुभावं आर्जवं' ऋजु अर्थात् सीधा, सरल । आर्जव कहिये सरल भाव, वक्रता रहित, मायाचार रहित परिणति । जैसा अन्तरंग अर्थात् मन में करने का अभिप्राय हो वैसा ही बाहर में भी करना अर्थात वचन व काय से भी वैसा ही कहना या करना । अन्तरंग व बाह्य क्रिया में अन्तर न होने का नाम ही है सरलता तथा अन्तरंग अभिप्राय में कुछ और रखते हुए बाहर में कुछ और ढंग से बोलना या करना है वक्रता । व्यक्ति का व्यक्तित्व वास्तव में वह नहीं है जो कि वह दूसरों को दिखाने का प्रयत्न करता है प्रत्युत वह है जो कि वह स्वयं जानता है। अनेकविध लोक-दिखावी प्रवृत्तियों के द्वारा अपने को उससे अधिक दिखाने का प्रयत्न दम्भाचरण कहलाता है, जो शान्ति-मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है, इसलिए कि ऐसा करने वाले की दृष्टि में सदा दूसरों को प्रभावित करने की प्रधानता रहती है, जिसके कारण उसे अपने भीतर झांककर देखने का अवसर ही नहीं मिलता। वह बड़े से बड़ा तप करता है, सभी धार्मिक क्रियायें करता है और सम्भवत: सत्य साधक की अपेक्षा अधिक करता है, परन्तु लोक दिखावा मात्र होने के कारण उनका न अपने लिये कुछ मूल्य है और न किसी अन्य के लिये।। _ 'सत्यं ऋतं वृहत्' । सत्य तथा ऋत इन दो गुणों से युक्त व्यक्तित्व वृहत् होता है महान होता है । दोनों शब्द यद्यपि एकार्थवाची हैं । परन्तु महान अन्तर है इन दोनों के रहस्यार्थ में । जैसी देखी-सुनी हो वैसी कह देना सत्य है और बालकवत् स्वार्थ रहित सहज रूप से कहना ऋत है। ऋत में सत्य गर्भित है परन्तु सत्य में ऋत नहीं। सरल चित्त बालक के द्वारा सहज रूप से कहा गया वचन कभी असत्य नहीं हो सकता परन्तु आपके द्वारा बोले गए सत्य वचन के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह ऋत अर्थात् सरल भी हो । इसी प्रकार क्रिया भी ऋजुभाव से की गई बालक की सब क्रियायें सत्य होती हैं परन्तु आपके द्वाराकी गई सत्य क्रिया के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह ऋत अर्थात् सरल भी हो । स्वार्थ-पूर्ति के अर्थ भी अनेकों बार सत्य बोलने में आता है। गृहस्थ हो अथवा साधु दोनों के ही वचनों में तथा क्रियाओं में इस प्रकार की विषमता होना सम्भव है । ऐसा प्रबल है इस कुटिल माया-रानी का प्रभाव। २. गृहस्थ की कुटिलता-हर वचन या क्रिया की परीक्षा अभिप्राय पर से होती है । वचन, क्रिया व अभिप्राय में अन्तर है तो वे संवर रूप नहीं हो सकते, केवल आस्रवरूप होंगे, क्योंकि विकल्प-दमन का प्रयोजन उन पर से सिद्ध नहीं होगा। अपने गृहस्थ-जीवन में तो मैं रात-दिन इस प्रकार की मायापूर्ण क्रियाओं का अनुभव करता ही हूँ, परन्तु धार्मिक क्षेत्र में भी मैं बहुत कुछ क्रियायें ऐसी करता हूँ जो माया के रङ्ग में रङ्गी होती हैं, केवल लोक-दिखावे के लिए होने के कारण दम्भ मात्र होती हैं। १. किसी अपने साथी को कदाचित् मैं बड़े प्रेमपूर्वक सिनेमा दिखाने का निमन्त्रण देता हूँ इस अभिप्राय से कि ह अधिक पढ़ता रहा तो कहीं ऐसा न हो कि परीक्षा में मुझ से अधिक नम्बर ले जाये । २. अपनी माता के साथ मेरे घर पर आये हुए किसी बालक को मैं सुन्दर-सुन्दर खिलौने व मिठाई लाकर देता हूँ इस अभिप्राय से कि इसकी माता यह विश्वास कर ले कि मुझे उसके व उसके बालक के साथ बड़ी सहानुभूति तथा प्रेम है। ३. अपने मालिक की दुकान पर मैं बड़े परिश्रम से दिन-रात एक करके काम करता हूँ इसलिए कि धीरे-धीरे इसकी दुकान से नित्य प्रति जो चोरी करता हूँ, वह प्रकट न हो जाये । ४. किसी व्यक्ति को बड़ी सहानुभूतिपूर्वक 'यह वस्तु तुम्हारे योग्य है इसलिए ले आया हूँ' ऐसा कहता हुआ सुना जाता है। केवल इस अभिप्राय से कि जिस-किस प्रकार यह इसे खरीद ले, पीछे इसके काम आये या न आये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002675
Book TitleShantipath Pradarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherJinendravarni Granthamala Panipat
Publication Year2001
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size10 MB
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