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३५. उत्तम-मार्दव
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३. लोकेषणा-दमन विश्व समाया हुआ है, जिसे याद रखने को कोई प्रयल नहीं करना पड़ता, शान्ति में रमणता के अतिरिक्त जहाँ कुछ नहीं । उस अपने स्वाभाविक ज्ञान की महिमा करे तो त्रिलोकाधिपति बन जाए। इसलिए प्रभो ! अब विवेक धार कर इस शाब्दिक ज्ञान की महिमा को छोड़।
३. लोकेषणा-दमन मेरे मुख से निकले हुए इन दो चार शब्दों को सुन कर, मेरे गुरुदेव का साक्षात्कार न होने के ण कुछ भ्रमवश, यह जो वाह वाह, कितना सुन्दर उपदेश दिया है। आज तक ऐसा नहीं सुना था' इस प्रकार के वाक्य आप अपने उद्गारों व भक्ति आदि के आवेश में कह रहे हैं, उनको सुनकर आज मेरे हृदय में क्या तूफान उठ रहा है ? मानो मुझे उड़ा ले जाने का प्रयत्न कर रहा है, कहीं मेरी शान्ति से दूर । नहीं नहीं भगवन् ! मैं एक क्षण को भी इसका विरह सहन नहीं कर सकता । रक्षा कीजए प्रभु ! रक्षा कीजिये, इस महान भयानक लोकेषणा राक्षसी से मेरी रक्षा कीजिये, इस ख्याति की चाह से मुझे बचाइये । मुझ पामर तुच्छ बुद्धि में क्या शक्ति है कि एक शब्द भी कह सकूँ । तुतलाकर बोलना भी जिसने अभी सीखा नहीं है, वह अभिमान करे प्रवचन करने का ? धिक्कार है मुझे जो आपके प्रवचन को, आपकी मिष्ट वाणी को अपनी बताऊँ । यह चोरी मुझसे न हो सकेगी भगवन् ! मैं श्रोता हूँ वक्ता नहीं।
इन दो-चार पच्चीस-पचास व्यक्तियों के मुख से निकले इन दो-चार शब्दों से ही गद्गद् हुआ जा रहा है तू । क्या विचारा है कभी तूने कि क्या रस आया इनमें से? इन शब्दों में है क्या ? यदि सत्य होते तो भी भले कुछ मान लेता, पर इनमें तो सत्यता भी भासती नहीं। फिर भी झूठा अहंकार क्यों? कभी विचारा है तूने, कि इस लोक का तू कितने वाँ भाग है ? जहाँ अनन्तानन्त जीव बसते हों, वहाँ तेरी कौन गिनती ? जगत का एक छोटा सा कीट, और इसके
अतिरिक्त मुल्य ही क्या है तेरा ? बीस-पच्चीस व्यक्ति जान गये और मान बैठा कि सर्व लोक में ख्याति फैल गयी है मेरी । तुच्छ बुद्धि जो ठहरा, कूपमण्डूक जो ठहरा । जरा विश्व में दृष्टि पसारकर तो देख कि कौन जानता है तुझे? दूर की तो बात नहीं, ये तेरे प्रदेशों में स्थित जो अनेकों कीटाणु भरे पड़े हैं, इन्हीं से जाकर पूछ कि क्या वे जानते हैं तुझे? उन बेचारों को भी छोड़, स्वयं अपने से तो पूछकर देख कि क्या तू भी जानता है स्वयं को ? जानता होता तो यह अभिमान न होता, इन शब्दों की महिमा न गिनता, अपने अन्तरङ्ग चैतन्य विलास पर ही गर्व करता । यदि बाह्य की ही कुछ बातों के कारण अपने को ऊँचा और दूसरे को नीचा समझता है तो एक बार अपने और दूसरे के जीवन को जिस प्रकार मैं कहता हूँ उस प्रकार देख । जीवन में बीत गई भूतकालीन अनेक भवों की अवस्थायें, वर्तमान की एक अवस्था तथा भविष्यत में होने वाली अनेक भवों की अवस्थायें: आपका पर्ण जीवन इन अवस्थाओं से भरा पड़ा है और उस दूसरे का जीवन भी। दोनों के जीवनों की पूर्ण अवस्थाओं को डोर में पिरोकर पृथक्-पृथक् दो मालायें तैयार कर । इन दोनों मालाओं को अपने सामने खूटी पर लटकाकर देख कि कौन सी बड़ी है और कौन सी छोटी, कौन सी अच्छी है
और कौन सी बुरी ? बड़ी-छोटी तो नहीं क्योंकि दोनों की अवस्थायें बराबर हैं। अच्छी बुरी भी नहीं, क्योंकि दोनों ही हारों में सुन्दर-असुन्दर अच्छी-बुरी, पापात्मक-पुण्यात्मक अवस्थाएं भरी पड़ी हैं, भले आगे पीछे पड़ी हों। आगे-पीछे हो जाने मात्र से हार अच्छे और बरे कहे नहीं जा सकते। फिर किस प्रकार अपने को ऊँचा दर को नीचा मानता है?
और इस प्रकार वह योगी अनेकों विचारों के प्रवाह में बहा देता है इस दुष्ट अभिमान को । उतने उत्कृष्ट रूप में न सही, परन्तु क्या थोड़े बहुत रूप में भी तू अपने जीवन में यह बात नहीं उतार सकता ? इस राक्षस से अपनी रक्षा के लिए, मेरे लिए नहीं।
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